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समालोचन

Home » शतरंज के खिलाड़ी और कफ़न : प्रेमकुमार मणि

शतरंज के खिलाड़ी और कफ़न : प्रेमकुमार मणि

प्रेमचंद की कहानियों में ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘कफ़न’ का अपना ख़ास स्थान है. एक को जहाँ देशी रियासतों के विघटन से जोड़ कर देखा जाता है वहीं ‘कफ़न’ कहानी समाज के पतन की महागाथा बन जाती है. ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में कथा वाजिद अली शाह के शासनकाल की विलासिता के ज़िक्र से ही शुरू होती है. हालाँकि यह तथ्य अब नुमायाँ है कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने वाजिद अली शाह का साम्राज्य बल और छल से हस्तगत कर लिया और उन्हें बदनाम भी किया. रोजी लिवेलन जोंस की पुस्तक ‘The Last King In India: Wajid Ali Shah’ में उन्हें अपने समय के सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक उत्प्रेरक के रूप में देखा गया है. उपनिवेश स्थापित करने की यह रणनीति ही है कि कब्ज़ा करने से पहले बदनाम कर दो. इस महत्वपूर्ण पुस्तक का हिंदी अनुवाद संवाद प्रकाशन ने छापा है. इन दो कहानियों को आमने सामने रख कर इनकी सारगर्भित विवेचना प्रेमकुमार मणि ने की है. प्रस्तुत है.

by arun dev
March 23, 2024
in आलोचना
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शतरंज के खिलाड़ी और कफ़न : प्रेमकुमार मणि
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शतरंज के खिलाड़ी और कफ़न : विघटन और पतन की कथा

प्रेमकुमार मणि

प्रेमचंद ने तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखी है, जिनमें से कोई बीस कहानियाँ अलग-अलग कारणों से रेखांकित करने योग्य हैं. कफ़न, पूस की रात, शतरंज के खिलाड़ी, सवा सेर गेहूं, सद्गति, ठाकुर का कुआँ, ईदगाह, बड़े भाई साहब, नमक का दरोगा और पंच-परमेश्वर जैसी कहानियाँ मुझे भी काफी पसंद हैं; लेकिन यहाँ मैं केवल दो कहानियों की विवेचना करना चाहूंगा. ये हैं-

शतरंज के खिलाड़ी और कफ़न. यह चुनाव इसलिए कर सका हूँ कि मुझे लगता है, इनके माध्यम से हम न केवल प्रेमचंद को, बल्कि उनके दौर को भी समझ सकते हैं. इससे यह बात भी निकलती है कि प्रेमचंद अपने समय के अन्य लेखकों से किस तरह अलग थे.

 

1.
शतरंज के खिलाड़ी

‘शतरंज के खिलाड़ी’ 1924 में लिखी गई थी और पहली दफा ‘माधुरी’ पत्रिका में छपी थी. इसके ग्यारह साल बाद 1935 में ‘ कफ़न’  लिखी गई, जो उर्दू में पहली दफा दिसम्बर 1935 (पत्रिका- जामिआ) और हिंदी में अप्रैल 1936 (पत्रिका- चाँद) में प्रकाशित हुई. ‘शतरंज के खिलाड़ी’ तो नहीं, लेकिन ‘कफ़न’ के बारे में जानकारी यह है कि यह जल्दबाजी में लिखी गई कहानी है. कहा जाता है कि 1935 में वर्धा में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन से लौटते हुए, प्रेमचंद दिल्ली के जामिया मिल्लिया में रुके थे और वहीं से निकलने वाली उर्दू पत्रिका के संपादक के अनुरोध पर आनन-फानन रात भर में यह कहानी लिख कर दे दी थी.

प्रेमचंद उस समय तक इतने मंजे हुए लेखक हो चुके थे कि उनके लिए एक बैठकी में कहानी लिख डालना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है. प्रेमचंद उर्दू से हिंदी में आए थे और प्रायः वे दोनों जुबानों में लिखते होते थे. उनकी कई रचनाएं पहले उर्दू में लिखी गईं और लिप्यंतर हो कर बाद में हिंदी में आई. इस प्रक्रिया में दोनों जुबानों के रूप में कुछ अंतर आना भी स्वाभाविक था. कुछ भेद पत्रिकाओं के संपादक भी बना देते थे, जहाँ वे पहली दफा प्रकाशित होती थीं. जैसे पंच-परमेश्वर अपने मूल में शायद पंचायत था, किन्तु संपादक ने उसे पंच-परमेश्वर कर दिया. कफ़न और शतरंज के खिलाड़ी के साथ ऐसा नहीं हुआ. पाठ में कुछ परिवर्तन संभवतः कफ़न में हुए हैं, जिसे कुछ शोधार्थियों ने चिह्नित किया है. कफ़न पहले उर्दू में प्रकाशित हुई और बाद में हिंदी (नागरी) में. लेकिन शतरंज के खिलाड़ी का मूल पाठ हिंदी नागरी में ही लिखा गया.

मैंने इन दो कहानियों को ही अपने विवेचन के लिए क्यों चुना है? इसके पीछे एक कारण है. मेरी समझ से ये दोनों कहानियाँ बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के उत्तर भारतीय हिंदुस्तानी समाज का एक जीवन्त दस्तावेज हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं. इनके माध्यम से हम उस दौर के हिंदुस्तानी समाज की धड़कन और उसके मनोविज्ञान को भी समझ सकते हैं. कोई लेखक इसी रूप में महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय होता है कि उसने किस तरह अपने देश-काल को समझा और विवेचित किया है. प्रेमचंद विनोद-मनोरंजन कराने वाले लेखक नहीं थे. उन्हें अपने समाज को दिशा देनी थी.

अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व को वह बखूबी समझते थे. खास बात यह कि वह अपने समय के अंतर्विरोधों को भी समझते थे. उनका इतिहासबोध स्पष्ट और सुलझा हुआ था. इतनी चीजें जब लेखक के पास हो, तो वह विशिष्ट हो ही जाता है. प्रेमचंद ऐसे ही विशिष्ट लेखक थे. जिन दो कहानियों की विवेचना इस आलेख का लक्ष्य है, वह इसीलिए खास हैं कि एक में उनका इतिहास बोध और दूसरे में उनके समाजबोध का विलक्षण प्रकटीकरण हुआ है. मैं नहीं कहूंगा कि इन कहानियों की पर्याप्त चर्चा नहीं हुई है, किन्तु मेरे मन में इनके कुछ अलग अर्थ उभरे हैं. इन्हें मैं विनम्रता पूर्वक रखना चाहूंगा.

‘शतरंज के खिलाड़ी’ को पहले विवेचित करना चाहूँगा. जैसा कि बताया है कि यह 1924 में लिखी गईं. 1977 में मशहूर फिल्मकार सत्यजीत राय ने इस पर आधारित एक फिल्म बनाई, जो कई पुरस्कारों से सम्मानित हुई और पर्याप्त चर्चित भी हुई. यह कहानी एक ऐतिहासिक घटना के इर्दगिर्द घूमती है. अवध का नवाब वाजिद अली शाह (1822-1887) फरवरी 1856 में ईस्ट इंडिया कंपनी की फ़ौजी टुकड़ी के द्वारा गिरफ्तार किया गया और उसे कोलकाता के मटियाबुर्ज स्थित एक महल में ले जाया गया, जहाँ वह अपनी मौत (1887) तक कैद में रहा.

अवध का राजनीतिक पतन हिंदुस्तान की एक बड़ी घटना थी, क्योंकि यह भारत का ह्रदय इलाका था. इस घटना ने भारत में अंग्रेजी राज को बहुत मजबूत कर दिया. पुराने ज़माने का आर्यावर्त यही था. इलाहाबाद (प्रयाग),  अयोध्या और बनारस के इलाके इसी में थे. बौद्ध काल का कौशल और श्रावस्ती यही था. सांस्कृतिक और भौतिक रूप से समृद्ध गंगा-जमुना का यह दोआबा धन-धान्य से पूर्ण था. उपजाऊ जमीन थी और दस्तकारों की भी कमी नहीं थी. मीर, मिर्जा और ठाकुरों की भरमार थी, जो अपने को बड़ा लड़ाका मानते थे. लेकिन अंग्रेजों ने इसे चुटकी बजाते हुए अधीनस्थ कर लिया. कोई प्रतिरोध नहीं हुआ. इसके पतन की ही एक कहानी उर्दू लेखक मिर्ज़ा रुसवा के उपन्यास ‘उमराव जान’ में कही गई है. लेकिन उमराव जान और शतरंज के खिलाड़ी में तनिक भेद है. जिस कथा को उमराव जान चिलमन के भीतर से कहना चाहती है, उसे ‘शतरंज के खिलाड़ी’ मानो मंच से ध्वनि-विस्तारक के साथ स्पष्ट करता है.

आखिर कौन-सी स्थितियां थीं कि अंग्रेज यहाँ काबिज हुए. भारत के राष्ट्रवादी इतिहासकार बार-बार अंग्रेजों की मक्कारी और फरेब की कथा बताते रहे, इन म्लेच्छ अंग्रेजों ने धोखा, जाल-फरेब और मक्कारी भरे चाल से भारत के ‘न्यायप्रिय’, वीर-बहादुर राजा-महाराजाओं और नबाबों को अपने कब्जे में कर लिया था. भारत अंग्रेजों के आने के पूर्व हर स्तर पर सुखी, समृद्ध और सुशिक्षित था. यही राष्ट्रवादी चेतना जब हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का आधार बनी तो भारत में एक अंग्रेज विरोधी राष्ट्रीय भावना का विस्तार हुआ. इस भावना ने भारत में उग्रवादी-हिंसक, जिसे क्रान्तिकारी भी कहा जाता रहा है, आंदोलनों को बल दिया. राष्ट्रीय आंदोलन के दूसरे पक्ष, जिन्हे मॉडरेट कहा जाता था, की मान्यता थी कि भारत में जब तक सामाजिक सुधार सुनिश्चित नहीं किए जाते, तब तक वास्तविक रूप से समावेशी भारतीय राष्ट्र का निर्माण संभव नहीं होगा. यही कारण था कि मॉडरेट नेताओं ने अंग्रेजी राज का उस तरह विरोध नहीं किया, जिस तरह रैडिकल अथवा गरमपंथी ताकतों ने किया.

अंग्रेजों से यदि कुछ सीखने की चीज भी है तो उसे सीखा जाना चाहिए. इसीलिए पार्लियामेंट्री ढाँचे के विस्तार पर मॉडरेट जोर दे रहे थे. धारा-सभाओं में अधिक से अधिक जिम्मेदार देशवासियों की नुमाइंदगी को वे सुनिश्चित करना चाहते थे, शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज सुधार के क्षेत्र में प्रगति करना चाहते थे, ताकि वे भी यूरोपियनों की तरह तरक्कीपसंद, लोकतान्त्रिक और प्रबुद्ध बन सकें. इसके विपरीत कुछ लोग गुप्त और मुग़ल काल के स्वर्णयुग में लौटने की भी आकांक्षा पाल रहे थे. यह वैचारिक रस्साकशी प्रेमचन्द के समय जारी थी.

1917 में गांधी ने जब चम्पारण के किसानों के आंदोलन को अपने हाथ में लिया तब राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दृष्टि मिली. गांधी जो मूलतः मॉडरेट थे, ने सामाजिक सुधार और उपनिवेशवाद विरोध को एक साथ नत्थी करने की कोशिश की. वह मॉडरेट और रैडिकल जत्थों के बीच एक सेतु बन कर उभरे थे. यही कारण था कि अपनी मृत्यु के पूर्व गर्मदली नेता बालगंगाधर तिलक ने गांधी का समर्थन किया था. प्रेमचंद भी गांधी के इस रूप के मौन-प्रशंसक जान पड़ते हैं. प्रेमचंद का एक उपन्यास ‘बाजारे-हुस्न’ जो बाद में हिंदी में सेवासदन के रूप में आया, इस समय तक चर्चित हो चुका था. 1919 में प्रेमचंद ने 39 साल की उम्र में बी. ए. की परीक्षा पास की थी. इसी साल उनका एक और उपन्यास आया. अपनी नौकरी में भी वह स्कूल इंस्पेक्टर बन गए. लेकिन प्रेमचंद की नजर मुल्क के सामाजिक-राजनीतिक बदलाव पर अधिक थी. वह बनते हुए राष्ट्र को देख-समझ रहे थे.

1920 से देश की राजनीति मुख्य रूप से गांधी के नेतृत्व में आ जाती है. 1921 में गांधी का गोरखपुर में आना होता है. सभा में आमजनता की भारी उपस्थिति और गांधी के भाषण ने प्रेमचंद को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने अपनी बीस साल की सरकारी नौकरी, जिसमें अभी कुछ ही समय पहले वह हाकिम (इंस्पेक्टर) बने थे, छोड़ दी. उन्होंने महसूस किया कि उनका मुल्क एक यूरोपियन छोटे से मुल्क बर्तानिया का उपनिवेश है. देश की मुक्ति का संघर्ष चल रहा है. ऐसे में उनका सरकारी नौकर बना रहना क्या सही है? नौकरी छोड़ने के पीछे उनका कोई अन्य निजी कारण नहीं था. उसके कारण राजनीतिक थे. प्रेमचंद इतने राजनीतिक तो हो ही चुके थे.

वह उस भीड़ के हिस्सा नहीं थे, जो अपने मुल्क को बहुत महान समझ रहे थे और इसके अतीत के स्वर्णिम झूले पर झूल रहे थे. जिस तथ्य को इतिहासकारों ने नहीं चिह्नित किया उसे प्रेमचंद साफ़-साफ़ देख रहे थे.

उन्होंने अपने अवध इलाके को ही कथा का विषय बनाया है,जहाँ सामंतवादी-पुरोहितवादी चेतना घनीभूत थी. 1857 के गदर के क्रम में वाजिद अली शाह की गिरफ्तारी के उपरांत उनकी एक बेगम ने अपने पांच साल के बेटे बिरजिस कदर, जिसे बच्चा-नबाब भी कहा जाता है, को नबाब घोषित कर उसके नाम से एक घोषणापत्र जारी किया था. इस घोषणापत्र में नबाबों की सामाजिक सोच की एक बानगी मिलती है. अंग्रेज इसलिए गलत नहीं हैं, कि वे विदेशी हैं और भारत को लूट रहे हैं, बल्कि इसलिए गलत हैं कि वे हमारी सामाजिक व्यवस्था में दखल दे रहे हैं. हिन्दू-मुसलमानों के ऊँची जात के लोगों को वे तंग-तबाह कर रहे हैं और नीच कौमों को सह दे रहे हैं. कोठों और तवायफों से सजे लखनऊ का हाल कुल मिला कर एक रंगीले शहर का था.

शतरंज के खिलाड़ी का आरम्भ ध्यानपूर्वक देखा जाना चाहिए. अचानक से कोई सत्तर साल पहले की सामाजिक स्थिति को विवेचित करते हुए कहानी आरम्भ होती है-

“वाजिद अली शाह का समय था, लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था, छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी विलासिता में डूबे हुए थे. कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था तो कोई अफीम की पिनक ही में मजे लेता था. जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था. शासन-विभाग में, साहित्य-क्षेत्र में, सामाजिक-अवस्था में कला-कौशल में, उद्योग-धंधों में आहार-व्यवहार में सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी. राजकर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे, इत्र, मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त थे. सभी की आँखों में विलासिता का मद छाया हुआ था. संसार में क्या हो रहा है इसकी किसी को खबर न थी. बटेर लड़ रहे हैं, तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है, कहीं चौरस बिछी हुई है, पाव-बारह का शोर मचा हुआ है, कहीं शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है ,राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे. यहाँ तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियां न लेकर अफीम खाते या मदक पीते. शतरंज, ताश, गंजीफा खेलने से बुद्धि तीव्र होती है, विचार-शक्ति का विकास होता है,पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है, ये दलीलें जोरों के साथ पेश की जाती थीं. (इस संप्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी खाली नहीं है.) इसलिए अगर मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना अधिकांश समय बुद्धि तीव्र करने में व्यतीत करते थे तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी.”

यह कहानी क्या केवल मिर्जा सज्जाद अली और मीर रौशन अली की है? यदि यही है तो फिर प्रेमचंद उस जमाने का पूरा ब्यौरा क्यों देते हैं. समाज में विलासिता है. समाज के सभी हिस्से विलासाभिमुख हैं. उद्यम-व्यापार सब विलासिता-केंद्रित हैं. जो भी उत्पादित हो रहा है सब आमोद-प्रमोद और रास-रंग के लिए. ऐसे समाज का क्या होना है. इसका भविष्य क्या हो सकता है. लखनऊ शहर न केवल अवध का बल्कि पूरे हिंदुस्तान का आईना है. पूरे देश के राजा-महाराजा यही कर रहे थे. सात हजार किलोमीटर दूर से आए मुट्ठी भर अंग्रेज आखिर यूँ ही तो यहाँ राजपाट हासिल करने में नहीं सफल हुए थे. कुछ कारण तो थे. क्या जिन कारणों की विवेचना प्रेमचंद ने की है, उस दौर के किसी इतिहासकार या नेता ने इतनी ईमानदारी से की है? मेरे जानते शायद नहीं.

मिर्जा सज्जाद और मीर रौशन जागीरदार हैं. सामंत हैं. नवाब की तरफ से इन्हें जागीर मिली हुई है. वहां की मालगुजारी (टैक्स) वसूलने का अधिकार इन्हें होता है. उसका एक हिस्सा नवाब को देकर बाकी ये अपने ऊपर खर्च करते हैं. बस एक राजनीतिक जिम्मेदारी इनके पास है कि यदि कोई वाह्य आक्रमण हुआ तो नवाब की सैन्य मदद इन्हें करनी होगी. कुछ लड़ाके-सिपाही पालने होंगे और स्वयं भी उनके साथ लड़ाई के मैदान में हाजिर होना होगा.

मीर और मिर्जा शतरंज के खेल में पागल बने हुए हैं. उन्हें न खाने -पीने की सुध है, न घर-परिवार की चिंता. उनकी बेगमें परेशां हैं. लेकिन होती रहें. ये दीवाने अपने व्यसन से बाज आने वाले नहीं हैं. दुनिया भाड़ में जाये. जागीर और नवाब भाड़ में जाये. इन्हें तो बस शतरंज की मोहरें दिखती हैं. पूरे तौर पर बेहया बने खेल के ये दीवाने अपने व्यसन के अलावे और कुछ नहीं जानते. इसी बीच कहानी में एक मोड़ आता है. नवाब के यहाँ से कारिंदे नोटिस लेकर आते हैं कि ब्रिटिश फ़ौज धमकने वाली है और नवाब के यहाँ पेशी देनी है. अहदी खिलाड़ियों के लिए यह एक बला थी. रोज-रोज की नोटिस से बचने के लिए ये गोमती पार की एक भग्न मस्जिद में चले जाते हैं और वहीं छुप कर खेलते रहते हैं. बाजार से मंगा कर कुछ खा-पी लेते हैं.

ऐसे में ही एक रोज जब ये खेल में मशगूल थे, तब ब्रिटिश फौज आती दिखती है. दोनों छुप जाते हैं. इनका खेल परवान पर है. एक इस फौज की तरफ देखना भी चाहता तो दूसरा कोंचता है कि हार रहे हो तो बहाने न बनाओ. काहिली की हद है. ब्रिटिश फ़ौज शहर में घुसती है. नवाब वाजिद अली शाह को बिना किसी प्रतिरोध के पकड़ लिया जाता है. शाह भी मीर और मिर्जा से कुछ अलग न था. राजनीति से अधिक उसने ठुमरी और नाच में प्रवीणता हासिल की हुई थी. ऐसे देस का भविष्य आखिर क्या हो सकता है. प्रेमचंद को ही सीधे उद्धृत करना चाहूंगा-

“दोनों सज्जन फिर जो खेलने बैठे तो तीन बज गए. अबकी मिर्जा की बाजी कमजोर थी. चार का गजर बज ही रहा था कि फ़ौज की वापसी की आहट मिली, नवाब वाजिद अली शाह पकड़ लिए गए थे और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी. शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट, एक बूँद भी खून नहीं गिरा था. आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शांति से इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी. यह अहिंसा न थी जिस पर देवगण प्रसन्न होते हैं. यह वह कायरपन था, जिस पर बड़े -बड़े कायर भी आंसू बहाते हैं. अवध के विशाल देश का नवाब बंदी चला जाता था और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था. यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी.”

और जिस नवाब को ले जाते समय ये दोनों जागीरदार मीर और मिर्जा कायर बने छुपे रहे, अपने खेल के राजा की हिफाजत के सवाल पर उग्र हो गए. दोनों ने तलवारें निकालीं, एक दूसरे पर हमला किए और दोनों वहीं हमेशा के लिए ढेर हो गए.

यह है शतरंज के खिलाड़ी का मूल पाठ. क्या यह कहानी अपने पाठकों का निरा मनोरंजन करती है? मैं नहीं समझता इसमें मनोरंजन की कोई बात है. न इसका आरम्भ, न इसका डिटेल, और न ही इसका अंत. लेखक दरअसल इस देश के राजनीतिक अधःपतन की उस हद को दिखाना चाहता है, रेखांकित करना चाहता है, जो इस मुल्क की गुलामी का कारण बना. इसकी व्याख्या लेखक उस समय कर रहा है, जब राष्ट्रीय आंदोलन में एक हताशा फ़ैल रही थी. चौरा-चौरी की घटना के बाद गांधी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया था. खिलाफत आंदोलन के प्रतिगामी प्रभाव को भी वह ठीक से नहीं समझ सके थे. तुर्की में कमाल पाशा के आने और खलीफा प्रथा के ख़त्म कर दिए जाने के बाद इसका कोई औचित्य भी नहीं रह गया था. ऐसे में पूरे देश में गांधी के विरुद्ध एक भावना फ़ैल रही थी. यही वह समय था जब हिन्दू और मुस्लिम सांप्रदायिक शक्तियाँ इतिहास और राजनीति की नए तरीके से व्याख्या कर रही थी.

सावरकर ने इसी समय अपने हिंदुत्व के फलसफे की व्याख्या की थी. अनेक लोग थे जो भारत के प्राचीन या फिर ब्रिटिश पूर्व इतिहास को बेहतर सिद्ध करने में जुटे थे. इसी समय प्रेमचंद ने अपने इतिहास बोध को एक कहानी द्वारा स्पष्ट किया था. वह बताना चाहते थे कि देश की दुर्दशा का कारण अंग्रेज से अधिक स्वयं हिंदुस्तानी हैं, जो सामाजिक तौर पर दकियानूसी हो चुके हैं. आलसी, विलासी और दुनिया की खोज-खबर से अनभिज्ञ किसी देश के लोग भगवान भरोसे बहुत समय तक स्वतंत्र नहीं रह सकते. जिस समाज का इस तरह राजनीतिक अधःपतन हो चुका है, वह किस बल पर अपनी आज़ादी की हिफाजत कर पाएगा. कुल मिला कर यह कहानी हमें अपनी राष्ट्रीय बुर्जुआजी के वास्तविक चरित्र से रु-ब-रु कराती है.

बोल्शेविक क्रांति के बाद आयोजित कोमिन्टर्न में भारत विषयक चर्चा में लेनिन ने जब भारत के कम्युनिस्टों को राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने की सलाह दी थी, तब युवा मानवेंद्रनाथ राय ने संशोधन पेश किया था. वह राष्ट्रीय आंदोलन को प्रतिगामी और प्रगतिशील दो हिस्सों में विभाजित देख रहे थे और प्रगतिशील बुर्जुआजी का समर्थन करना चाहते थे. कोमिन्टर्न ने राय के संशोधन को स्वीकार लिया था. इससे राय की प्रतिष्ठा काफी बढ़ गई थी. राय के विचारों से प्रेमचंद परिचित थे, इसके कोई प्रमाण मेरे समक्ष नहीं हैं; लेकिन लगभग वही मनोदशा प्रेमचंद की थी, जो राय की थी. प्रेमचंद राष्ट्रीय बुर्जुआजी के दकियानूसी और पतनशील चरित्र को अधिक गहराई से समझ रहे थे. इसीलिए शतरंज के खिलाड़ी को मैं हिंदी की पहली राजनीतिक कहानी मानता हूँ.

 

(2)
कफ़न

‘कफ़न’ कहानी का परिवेश अलग है. जैसा कि बता चुका हूँ यह ‘शतरंज के खिलाड़ी’ लिखे जाने के ग्यारह साल बाद लिखी गई. इस कहानी पर केंद्रित एक लेख में आलोचक रविभूषण ने बताया है कि अनेक नामचीन लेखकों ने इसे आरंभिक दौर में पसंद नहीं किया. जैसा कि बताया गया है यह कहानी एक रात्रि विश्राम में संपादक के अनुरोध पर लिख दी गई. मानो एक झटके में लिख दी गई हो. लेकिन ऐसा लगता है कि इस कहानी का प्लाट लेखक के मन में अरसे से पक रहा था. इसी के आस-पास प्रेमचंद का एक ख़ास लेख महाजनी-सभ्यता लिखा गया है. प्रेमचंद उस दौर में पूंजीवादी-महाजनी सभ्यता को कई स्तरों पर विकसित होते देख रहे थे. घर-परिवार और दूसरे मानवीय संबंधों को भी यह सभ्यता प्रभावित कर रही थी और जैसा कि कार्लमार्क्स ने अपने कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में बताया कि इस पूंजीवादी सभ्यता ने तमाम मानवीय संबंधों को आने-पाई के संबंधों में बदल दिया है, वैसा प्रेमचंद भी अनुभव कर रहे थे. उनका उपन्यास ‘गोदान’ भी इसी अनुभव की एक विशद व्याख्या है, जिसमें एक साधारण किसान होरी अंततः मजदूर बनने और उसका बेटा गोबर गाँव छोड़ने के लिए विवश होता है.

1930 के दशक के प्रेमचंद दिमागी तौर पर अत्यंत सक्रिय और कुछ-कुछ विचलित दिखते हैं. देश की राजनीतिक स्थिति तेजी से बदल रही है. किसान, मजदूर, दलित सब अपने अधिकार के लिए संघर्ष कर रहे हैं. राष्ट्र का पुराना शस्य-श्यामल भारतमाता वाला रूप बदल रहा है. भगत सिंह, जवाहरलाल, सुभाष, आम्बेडकर राष्ट्र और लोकतंत्र को नए अंदाज में परिभाषित करने लगे हैं. ऐसे में प्रेमचंद भी राष्ट्र और मनुष्य को नए रूप में देख रहे हैं. महाजनी-पूंजीवादी सभ्यता ने समाज और मनुष्य को बदल दिया है. समाज का उत्पादक-मिहनतक़श तबका देख रहा है कि जब परिश्रम करने वाले लोग फटेहाल हैं और गाल बजाने वाले अहदी लोग ही अधिक सुखी हैं, तो उसके मन में बात आती है कि यह मिहनत-परिश्रम क्यों? क्यों नहीं वह भी जुगाड़ और चापलूसी करके ही जीवन निर्वाह कर ले.

मिहनतक़श तबके में सार्वजनिक तौर पर उपजी इस हताशा का एक रूप ‘कफ़न’ में घीसू-माधव जैसे बाप-बेटे में उभरा है. वह दलित तबके से आता है. इतना गैरज़िम्मेदार हो चुका है कि माधव की बीवी बुधिया प्रसव पीड़ा से तड़प कर मर जाती है और वे अपनी जगह से इसलिए नहीं हिलते हैं कि दोनों एक दूसरे के प्रति संदेह करते हैं कि एक के जाने पर दूसरा कहीं अधिक आलू तो नहीं खा जाएगा. और फिर ‘ कफ़न’ के लिए भीख मांग कर जो पैसे इकट्ठे करते हैं, उसे लेकर जब बाजार जाते हैं, तो उनकी अराजक प्रवृत्ति एक बार फिर जोर मरती है. वे कफ़न के लिए जुटाए पैसे से जमकर पेट भरते हैं और शराब पीते हैं.

कहानी का आरम्भ जैसे ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में वाजिद अली शाह के जमाने के लखनऊ से होता है, लगभग वैसे ही यहाँ एक दलित बस्ती के ब्योरे से- ‘चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम.’ एक पंक्ति ही बहुत कुछ कह जाती है. इस कहानी में गाँव पूरे देश का प्रतिनिधित्व कर रहा है. चमारों का यह कुनबा सारे गाँव में बदनाम आखिर है क्यों? देखिए प्रेमचंद का ही वर्णन-

“विचित्र जीवन था इनका. घर, मिट्टी के दो-चार बर्तनों के सिवा कोई संपत्ति नहीं. फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढांके हुए जिए जाते थे. संसार की चिंताओं से मुक्त, कर्ज से लदे हुए, गालियां भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई भी गम नहीं.“

ऐसी जिंदगी है दलित चमारों की, जिसका एक हिस्सा घीसू-माधव थे. ये भी उसी मादरे हिन्द की संतान हैं, जिस की संतान मिर्जा और मीर हैं. वाजिद अली शाह और घीसू-माधव क्या सचमुच एक ही मुल्क के नागरिक हैं. कोई समझ सकता है कि घीसू-माधव कितना मनुष्य हैं और कितना नहीं. उनकी गुलामी कई स्तरों पर है. उनकी मुक्ति केवल उपनिवेशवाद अथवा ब्रिटिशराज के खात्मे से नहीं होने वाली है. इसीलिए जब भारत के कोई करोड़ों पद-दलितों की आवाज लंदन के राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में आम्बेडकर ने पहली बार उठाई तो राष्ट्रीय आंदोलन के तमाम नेता अवाक रह गए. गांधी तक को कुछ भी समझ में नहीं आया. गांधी तो तब समझ पाए जब उनकी उम्मीदों के विपरीत ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने दलित वर्ग के अलग मतदाता सूची और अलग निर्वाचन की मांग 1932 में स्वीकार कर ली.

यह कहानी इन तमाम घटनाओं से पग कर आई है. निःसंदेह प्रेमचंद के मन में 1935 के आस-पास दलित प्रश्न घनीभूत थे और ऐसे में चमारों के कुनबे को उनकी कहानी में उतरना स्वाभाविक था. लेकिन मेरा मानना है, यह कहानी कुछ अलग कहना चाहती है. इसे दलित जीवन की कहानी मान कर हम अपनी साहित्यिक समझदारी को जाने-अनजाने छोटा करते हैं.

प्रथम दृष्टया यह अचंभित करने वाली कहानी है. मैं इसे यथार्थ से अधिक फैंटेसी मानता हूँ, जो बहुत लोगों को संभवतः स्वीकार्य न हो. यह तथ्य है कि कुछ वर्ष पूर्व दलित लेखकों के एक समूह ने इसे दलित विरोधी कहानी के रूप में चिह्नित किया था और इसके लिए प्रेमचंद की खूब आलोचना की थी. मुझ से पृथक अर्थ में, अनेक लोगों का मानना है कि यह यथार्थ के स्तर पर दलित जीवन की कहानी नहीं है. दलित लेखकों का आशय भी यही है कि प्रेमचंद दलितों का मजाक उड़ा रहे हैं. (प्रेमचंद के समय में ही किसी व्यक्ति ने उन पर इसलिए मुकदमा किया था कि वह ब्राह्मण जाति का मजाक उड़ाते हैं.) मैं नहीं समझता कथा लेखक दलित जीवन की कहानी ही लिखना चाहता है. दलितों का जीवन उसका आधार अवश्य है, लेकिन वह कुछ और कहना चाहता है. प्रेमचंद आज अपना पक्ष रखने के लिए उपस्थित नहीं हैं; किन्तु इससे क्या. पाठ पर विमर्श तो हो ही सकता है.

यह कहानी यदि यथार्थ की कहानी नहीं है तो इससे क्या फर्क पड़ता है. प्रश्न यह है कि यह कहानी किस तरह का अर्थ प्रक्षेपित करती है. मैं जब इसे फैंटेसी कह रहा हूँ तो साहित्यिक अर्थों में ही. काफ्का की कहानी ‘मेटामॉर्फोसिस’ को इसके समक्ष रख कर देखा जाना चाहिए. काफ्का की इस कहानी का पात्र ग्रेगोर सम्सा एक रोज सुबह जब भयावह सपने के बीच उठता है तो स्वयं को एक बड़े कीड़े में तब्दील हुआ पाता है. यह यथार्थ नहीं है. एक फैंटेसी है. इसी तरह घीसू-माधव में यथार्थ ढूँढना बालधम्म या बचपना कहा जाना चाहिए. जैसे काफ्का की कहानी मेटामॉर्फोसिस किसी कीड़े की कहानी नहीं मनुष्य की नियति की कहानी है, उसी तरह ‘कफ़न’ भी दलित जीवन की नहीं, मनुष्य की नियति की कहानी है.

जिस दौर में दुनिया भर के एंथ्रोपोलॉजिस्ट मानव जाति को अधिक बुद्धि संपन्न होमो सेपियन्स घोषित कर रहे थे, उसी के आस-पास काफ्का और प्रेमचंद उसके अमानवीकरण को चिह्नित कर रहे थे. महाजनी-पूंजीवादी और सामंती-पुरोहिती सामाजिक व्यवस्था ने मनुष्य को घीसू-माधव बना कर रख दिया है. प्रेमचंद इस कहानी में मनुष्यजाति की इसी ट्रेजेडी को रेखांकित कर रहे हैं. नीत्शे का दार्शनिक मन मानव को सुपरमैन में देखने का आकांक्षी था. उसका कहना था, मनुष्य यदि महामानव नहीं बना तो एक बार फिर विपरीत दिशा में बढ़ कर बन्दर बन जाएगा. लेकिन काफ्का और प्रेमचंद मनुष्य का भिन्न अर्थों में अमानवीकरण देख रहे हैं. संवेदनशील लेखक की इस पीड़ा को कोई दार्शनिक शायद नहीं समझ सकता.

‘शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘कफ़न’ एक ही लेखक द्वारा दो समय में लिखी दो कहानियाँ हैं. एक में लेखक देश यानी समाज के विघटन को देख रहा है, दूसरे में मनुष्य के विघटन को. दोनों कहानियों में दो-दो पात्र हैं. ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में मीर और मिर्जा हैं, तो ‘कफ़न’ में घीसू और माधव. मीर और मिर्जा, दोनों मित्र एक दूसरे से लड़ कर ढेर हो जाते हैं, और ‘कफ़न’ में घीसू-माधव, बाप-बेटे शराब पीकर लड़खड़ा कर गिर पड़ते हैं. पतन दोनों जगह है. इनमें एक झीना अंतर्संबंध भी है. दोनों कहानियाँ देश और समाज पर नए सिरे से विमर्श करने के लिए हमें बाध्य करती रहेंगी. सभ्यताओं के संघर्ष में अच्छे की प्रतिद्वंद्विता बुरे से नहीं, बल्कि और अच्छे से होती है. जब अधिक अच्छी चीज आ जाती है, तब उससे कम अच्छी चीज विदा हो जाती है.

सूरज के प्रकट होने पर पहले चाँदनी और अंततः चाँद विदा हो जाता है. विलासिता की सभ्यता इसलिए ख़त्म हुई कि अंग्रेजी सभ्यता उसके मुकाबले कर्मण्य अर्थात बेहतर थी. सभ्यताओं के इस संघर्ष को प्रेमचंद समझ रहे थे. अपनी रचनाओं में हिंदुस्तानी समाज के आंतरिक और समग्र बदलावों पर वह इसीलिए जोर दे रहे थे. पिछली सदी के पूर्वार्ध में लिखी गई ये दोनों कहानियाँ आज भी यदि प्रासंगिक हैं तो इसका कारण यह है कि आज भी देश और मनुष्य उन अवगुंठनों से मुक्त नहीं हुआ है, जो प्रेमचंद के समय था. उसका स्वरूप भले बदल गया हो, मूल चरित्र नहीं बदला है. देश में वैज्ञानिक सोच का आज भी चिर अभाव है और मनुष्य का अमानवीकरण भी अबाध रूप से जारी है. यह कोई जरूरी नहीं कि यह विरूपण उसी अंदाज में हो, जिसे काफ्का और प्रेमचंद ने अपने समय में देखा था.

प्रेमकुमार मणि

बिहार के किसान पृष्ठभूमि के एक स्वतन्त्रता सेनानी पिता और शिक्षिका माँ के घर 25 जुलाई 1953 को जन्मे मणि ने विज्ञान विषयों के साथ स्नातक किया और फिर नवनालन्दा महाविहार में भिक्षु जगदीश काश्यप के सान्निध्य में रह कर बौद्धधर्म दर्शन की अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त की. छात्र जीवन में ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े, कुछ समय तक सरकारी नौकरी की और छोड़ी, राजनीतिक आन्दोलनों और सक्रियताओं से जुड़े, कथाकार, उपन्यासकार और प्रतिनिधि लेखक के रूप में पहचान बनाई और कुछ पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया. निरन्तर समसामयिक विषयों पर भी लिखते रहे. पाँच कहानी संग्रह, एक उपन्यास और लेखों के पाँच संकलन प्रकाशित हो चुके हैं एवं अनेक कहानियों के अनुवाद अंग्रेज़ी, फ्रांसिसी, उर्दू, तेलगु, बांग्ला, गुजराती और मराठी आदि भाषाओं में हो चुके हैं. लेखन के साथ वह अपनी सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता के लिए भी जाने जाते हैं.

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Comments 5

  1. विनोद कुमार श्रीवास्तव says:
    1 year ago

    विचार पूर्ण लेख।प्रेमचंद एक प्रस्थान बिंदु हैं। आगे की बड़ी और भयावह यात्रा का रेखांकन चलते रहना चाहिए।

    Reply
  2. Kallol Chakraborty says:
    1 year ago

    प्रेम कुमार मणि जी ने प्रेमचंद की दोनों कहानियों का बहुत बढ़िया विश्लेषण किया है। वह ठीक ही कहते हैं, शतरंज के खिलाड़ी समाज के विघटन की कहानी है, और कफन व्यक्ति के विघटन की। अच्छे लेख के लिए समालोचन का शुक्रिया।

    Reply
  3. पद्मसंभवा says:
    1 year ago

    माफ़ कीजिएगा, एक भी नयी बात इस लेख में नहीं है. सिवाय कफ़न को फैंटेसी की तरह देखने का इशारा.
    शतरंज के खिलाड़ी की व्याख्या में मणि जी पाठ के सहारे ही औपनिवेशिक इतिहास-दृष्टि का समर्थन ही करते दिखते हैं. प्रेमचंद के पास तो विस्तृत उत्तर-औपनिवेशिक एवं विऔपनिवेशिक विचार-परंपरा की सहूलियत न थी, मणि जी के पास तो है! कई जगह मणि जी का पाठ मर्दवाद-विज्ञानवाद और कोरे तर्कवाद को भी बल देता दिखता है. जैसे, कोई राजा एक साथ नाच और राजनीति दोनों में दक्ष क्यों नहीं हो सकता है?
    इतना इतिहास तो नहीं पढ़ा है लेकिन अवध राज्य की राजनीतिक ताक़त को देख कर उसे हमेशा विलासिता में डूबा मानना ज़रा मुश्किल है.
    भारत में अंग्रेजी शासन कैसे फैला, इस पर यदि सुधीजन कोई किताब बताएँ तो मैं अपना अज्ञान दूर करूँ.

    और, हिन्दी आलोचना में “यूँ ही गर होता रहा ‘ग़ालिब’ तो ऐ अहल-ए-जहाँ, देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो गयीं”

    Reply
  4. हीरालाल नागर says:
    1 year ago

    प्रेमचंद की दो कहानियों -‘ शतरंज के खिलाड़ी’ और ‘कफन’ पर प्रेम कुमार मणि की विवेचना से आश्वस्त हुआ कि कालजयी रचनाएं किस तरह हर युग का प्रतिनिधित्व करती हैं।
    इन कहानियों पर कितनों ने कितनी बार न लिखा होगा, लेकिन किसी ने उन्हें खारिज नहीं किया। हर विचारवान लेखक और पाठक महान रचनाओं की अपने युग और समय के अनुकूल विश्लेषित करता है। लगभग सौ साल पूर्व कहानियां आज प्रासंगिक क्यों हैं? राजनीतिक और सामाजिक सरंचना में बेशक बदलाव दिखाई दे रहे हैं। मगर मानसिक हालात में विशेष परिवर्तन नहीं नज़र आ रहा। अंग्रेजों ने वाजिद अली शाह को गिरफ्तार कर लिया है, और दो जमींदार शतरंज के खेल में मशगूल हैं?
    इस समय मणि जी की दोनों व्याख्याएं कुछ अर्थ रखती हैं, इन पर गौर किया जाना चाहिए।।

    Reply
  5. Kalu Lal says:
    10 months ago

    mani sir always give new idea and knowledge. thanks sir for this story critic.

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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