विश्व सिनेमा से कुमार अम्बुज |
क्या यह स्वर्ग होना चाहिए
पूँजीवादी सभ्यता की घबराहट में एक दिन
हर जगह, हर आदमी के पास बंदूक़ मिलती है.
सुरक्षा की यह आश्वस्ति हास्यास्पद है. दुर्दिनों में लगता है दुनिया में जो कुछ घट रहा है आप बस, उसके दर्शक रह गए हैं. और जो कुछ ख़ुद के ऊपर से गुज़र रहा है, उसके भी आप महज़ दर्शक ही हैं. अपना शहर या देश बदलने से भी इसमें कुछ फ़र्क़ नहीं आनेवाला. सभी जगहें एक सा नरक पेश करती हैं. तरीक़े और परिस्थितियाँ अलग हैं, लेकिन नरक सब जगह फैल गया है. इलाज के अभाव में किसी नासूर की तरह. सब तरफ़ एक-सा अजीबो-ग़रीब जीवन होता जा रहा है, अमानवीय और अवाक् करनेवाला. मनुष्य की तरह जीवित रहने के लिए कोई जगह शेष नहीं. संसार में सारी जगहें एक-सी हो चुकी हैंःशांति और ख़ुशी से न रहने लायक़.
एक फ़िलिस्तीनी बेहतर जानता है कि पड़ोसी आपको चैन से नहीं रहने देगा क्योंकि वह ख़ुद बेचैन है और अतिक्रमण को उपलब्धि मानता है. वह आपकी संपत्ति, आपके जीवनाधिकार को आँखों के ऐन सामने छीनता है और अहसान जताता है मानो कोई सहायता प्रदान कर रहा है. हर कोई निर्बल की असहायता का लाभ उठाता है. यह संकटपूर्ण लेकिन रोज़मर्रा की गतिविधियों का कोलॉज है. रेखांकित करता हुआ कि आपदा में कोई भी अपना जीवन सहज, सामान्य ढंग से नहीं बिता सकता.
यहाँ दर्शाये जा रहे प्रतीक-दृश्यों की सांकेतिकता बहुअर्थी है. टैंक, पुलिस, फ़ासिस्ट परेड और अपराधीकरण के इशारे मात्र रूपक नहीं है, वे इस शताब्दी के अवयव हैं. मनुष्य की सामाजिकता एक गुज़री हुई बात हो चली है. अब आप एक हतप्रभ, औचक और किंकर्तव्यविमूढ़ नागरिक हैं और मुसीबतों, आशंकाओं के बीच हर जगह एक ‘आदर्श अजनबी’. उतने ही जितने कि अपने देश या अपने घर के भीतर भी हो सकते हैं. यह वैश्विक अकेलापन है. वैश्विक त्रासदी और वैश्विक विस्थापन. यही वास्तविक भूमंडलीकरण है.
दो)
जिसके पास जितनी शक्ति है, वह उतना ही आततायी है. असीम शक्ति ने तय कर दिया है कि सत्ता-संरचनाएँ निरंकुश होना चाहें तो यह बहुत आसान है. कई बार तो यह लोकतांत्रिक और जनवादी प्रतीत हो सकता है. फिर नगर, गलियाँ, बाज़ार, शहर और प्रांगण जगमग होते हुए भी अकेले होते चले जाते हैं. उनका सुनसान आमजन के जीवन में भर जाता है. या उनका भयावह कोलाहल मन के भीतर धँस जाता है. यह वैभव का अकेलापन है. हज़ारों साल लंबी सामाजिक यात्रा के बाद इस धरती को स्वर्ग होना चाहिए था लेकिन समाज और राजनीति के पतन ने किसी और रास्ते पर चलना तय कर दिया है. इनका समवेत नैतिक पतन नागरिकों के लिए रोज़ नये तरह के दोज़ख़ों का निर्माण करता है. शांतिकाल में समझाया जा सकता है कि आप अनेक तरह के युद्धों से घिरे हुए हैं और सर्वसत्तावाद ही आपकी रक्षा कर सकता है.
जबकि किसी के लिए उठने-बैठने-सोने तक की जगह सुरक्षित नहीं. कमज़ोर और अपंग के लिए भी नहीं. ग़रीबों, असहायों के प्रति एक-सी घृणा है. या सरकारी दया है. आत्मलुभावन, आत्मतोषी कृपा. खोखली उत्सवधर्मिता इस तरह है कि आतंक है. चारों तरफ़ असाधारण चौकसी है. यांत्रिक ख़ुशियाँ हैं जिनकी मनहूसियत वातावरण में, आकाश में फैल गई है. आमजन के मनोकाश में भी.
एक फूल, एक नींबू, एक वृक्ष और एक चिड़िया के लिए भी आदमी का प्रेम हास्यास्पद होने के लिए अभिशप्त है. तब यह सिनेमा याद दिलाता है कि जब चीज़ें, स्थितियाँ प्रार्थना से ठीक नहीं हो सकें तब इंसानी निर्णय और सकारात्मक सक्रियता सब कुछ ठीक कर सकती है. सार्वजनिक बंद द्वार यदि नहीं खोले जाएँ तो उन्हें तोड़कर भी खोला जा सकता है.
तीन)
अनुपयोगी चीज़ों की भरमार है. इसके ‘सूचकांक समय’ में ग़रीब लोग किसी बरबाद और अनुपस्थित कंपनी के लुढ़के हुए शेयर हैं. वे विशाल जगहों में भी एक कोने में सिमट गए हैं. यह ऐसा ग्लोबल समय है जिसमें ताक़त, क्रोध और ईर्ष्या कहीं अधिक निर्णायक है. किसी सरकारी योजना अंतर्गत आपकी गतिविधियाँ फ़ीते से नापकर कुछ वर्ग फ़ुट में सीमित कर दी गई हैं. राज्य में बस आपकी इतनी ही जगह है. करुण हास्य से लथपथ इस वक़्त में हिंसक नग्नता या विडंबना की तरफ़ आप घूर कर नहीं देख सकते, यह असभ्यता होगी. और अगर उस पर सवाल करोगे तो आफ़त होगी.
फ़ु़टपाथ पर यह भूखा आदमी भिक्षा पाने की आशा में अपना संगीत सुना रहा है. स्थिति यह बन गई है कि आप उसे कुछ नहीं देंगे तो लगेगा मानो वह आपको अपना संगीत भीख में देकर चला गया. अजीब उद्घाटन यह है कि दोनों की स्थिति हर हाल में भिखारी की हो चुकी है, जैसे अब इसे प्रमाणित कर दिया गया है. जल-नभ-थल सब जगह केवल वर्चस्ववादी हैं जिन्होंने सब कुछ हड़प लिया है. रोशनियों में उत्साह नहीं, प्रदर्शन है. वे किसी शक्ति संरचना का हिस्सा भर रह गई हैं. सारे नये फ़ैशन, नये अवसाद छिपाने के तरीक़े हैं.
चार)
किसी संघर्षरत देश का पीड़ित नागरिक कहीं भी चला जाए, उसे हमेशा शरणार्थी समझा जाएगा. उसकी जर्जर आशा और जिजीविषा पर लोग विस्मय कर सकते हैं, प्रशंसा कर सकते हैं, गर्व कर सकते हैं लेकिन उसे उसका देश वापस नहीं दे सकते. सलाह इतनी भर मिलती है कि वह अपना ग़ुस्सा, असहमति और लड़ाई याद रखे, भूल न जाये. उसे ग़म ग़लत नहीं करना है, ग़म सही करना है. संघर्ष और सपने फलित होते हैं मगर ज़रूरी नहीं कि एक पीढ़ी के जीवनकाल में हो सकें. निराशा का चरम है कि विस्थापित को अपना वतन कभी वापस मिलेगा या नहीं, यह सवाल भी एक दिन ज्योतिषियों से पूछना पड़ सकता है. ये नजूमी वैश्विक हो चुके हैं. अब यह ऐसी दुनिया है, जहाँ आपकी इच्छाओं को बख़्श दिया जाएगा लेकिन आपको मार दिया जाएगा. इसका उलट भी संभव है. मगर पलायन करके किसी नरक से नहीं बचा जा सकता. समस्या से दूर भागने पर वह तेज़ गति से आपका पीछा कर सकती है.
भूमंडल के लिए संबोधित यह सिनेमा निष्क्रिय दर्शक हो जाने के ख़िलाफ़ है. अपनी जगहों पर रहते हुए, परिस्थितियों को बदलकर ही उस स्वर्ग की रचना की जा सकती है जिसकी उम्मीद में इस फ़िल्म का नाम है- यह स्वर्ग होना चाहिए.
(फ़िलीस्तीनी फ़िल्म निदेशक और अभिनेता एलिया सुलेमान का जन्म इज़राइल में हुआ था.)
Movie- It Must Be Heaven, 2019
Director- Elia Suleiman
अनेक ख़ूबसूरत चीज़ें
कौन गंभीर कला या सहित्य प्रेमी जॉन रस्किन को नहीं जानता?
और भला ऐसे कितने कला-साहित्यिक लिलिआस ट्रॉटर को जानते हैं?
दृश्य-श्रव्य माध्यम से जीवन के तमाम आयामों को व्यक्त करना कला का अभिनव पक्ष है. यह कला में सभ्यता का और सभ्यता में कला का विकास है. कोई वृत्त चित्र भी एक कथा को गल्प, किंवदंती, यथार्थ, कल्पना और संगीत के सौंदर्य से अपूर्व ढंग से भर सकता है. कला याचक की क्षुधा और तृष्णा को राहत दे सकता है. ‘कई सुंदर चीज़ें’ इसका एक मोहक साक्ष्य है.
यह एक गुम हो चुके कलाकार की खोज का अध्याय है. अन्वेषी आवेग में प्रकृति, प्रेम, विचार, भूदृश्यों का अदेखा-सा कला विवरण. और ऐसा संगीत जिसका बाहुपाश कोमल है. अपनी प्रेमिलता से घेरता हुआ. इसके उत्सर्ग में करुणा, धिक्कार और निश्चय के प्रबल धागे हैं. यह जॉन रस्किन के उत्तरार्द्ध का अ-शमित प्रेम है. और लिलिआस ट्रॉटर जैसी प्रतिभासंपन्न चित्रकार के सामने वह यक्ष प्रश्न है जो प्रत्येक कलाकार के समक्ष कभी न कभी उपस्थित होता ही है-कला की मेरे जीवन में क्या भूमिका है? क्या महत्व है??
इसमें कलागत वशीकरण के रसायन शामिल हैं. निश्चेतक जो चेतना को स्वस्थ करते हैं. इन्हें रुककर देखना होता है. इनमें कुछ देर ठहरना होता है. ये आश्वस्तिकर आश्रय हैं. विश्रांति के लिए विस्मयकारी जगहें हैं. पियानो की अगली रीड दबाने से पहले रीड के स्वरों के बीच हवा में तैरता हाथ है. इसके पेशतर कि जादू ख़त्म हो, अगली रीड से यह एक और लहर उठती है.
(दो)
मैं कुछ ही दिनों में अनेक वर्षों का जीवन जीती हूँ.
मैं जंगलों में ऐसे भटकती हूँ जैसे सपनों में. सपनों में ऐसे विचरती हूँ जैसे जीवन में. मैं कला और जीवन की मादकता को एक तरह से ग्रहण करती हूँ. अँधेरे में उजाला चाहती हूँ. और उजाले को वहाँ भर देना चाहती हूँ जहाँ अंधकार है. मैं प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा के पक्ष में नहीं, वंचितों और दुखी स्त्रियों की तरफ़दारी के लिए जीवित हूँ. इस पक्षधरता का मूल्य मैं अपनी कला से चुकाती हूँ. और जीवन से. यह कोई अफ़सोस नहीं है. चुनाव है. यह उस भौतिकता का त्याग है जिसके सब लोग आकांक्षी हैं. यह मेरी वेदना है. पीड़ा है. उलझन है. और उसमें से निकलने का मेरा उप्रक्रम है. उस प्रेम को त्यागने का भी जिसे पाकर कोई भी धन्य हो सकता था. लेकिन मैं इस प्रेम को इस तरह नकारती हूँ कि गरिमा बची रहे. किसी को आहत किए बिना. ओह रस्किन, मेरे क़रीब आप तिरस्कृत नहीं हैं, सम्मानित हैं.
तीन)
जो स्त्रियाँ विपन्न हैं, सताई हुई हैं, अपमानित हैं, दुख में हैं, वे मेरी हैं. मैं उनकी हूँ. वे संसार में किसी भी जगह हों, वे मेरे इंतज़ार में हैं. मैं उनके लिए इस राह पर आ गई हूँ. मेरी कल्पनाशीलता, मेरी रचनाशीलता, मेरी सर्जनात्मकता का अंतरण और अनुवाद अब उनके बीच में ही होगा. मेरे चिंतातुर मित्र कहते हैं कि मैं अपनी प्रतिभा व्यर्थ कर रही हूँ. चमकदार रंगों की जगह उदास रंग चुन रही हूँ. लेकिन मैं तो एक खिड़की ज़रा-सा बंद कर रही हूँ और अनेक दरवाज़े खोल रही हूँ. तुम सब भूल रहे हो कि प्रेम दुखदायी प्रतीक्षा और धीरज के अलावा और क्या है. मैं उसे अधिक विस्तारित कर रही हूँ और उपादेय बना रही हूँ. मैं अपने को नष्ट कर रही हूँ लेकिन निर्मितियाँ भी कर रही हूँ. मैं रेगिस्तान में नागफनी के साथ उग रही हूँ. मैं कैक्टस प्रजाति में रूपांतरित हो रही हूँ जो सौंदर्यविहीन तप्त जगह को किंचित हरितिमा से भरती है. रुक्ष को तरल आशा देती है. इसी इच्छा की पतवार से मैं मरुस्थल में अपनी नाव खे रही हूँ.
क्या मैं किसी आध्यात्मिक यात्रा पर हूँ. किसी अज्ञात पुकार से अभिमंत्रित. अदेखे की तरफ़ गमन करती. अनियोजित लेकिन व्यग्र. सुविधाओं के अलंकरणों को राह में गिराती हुई. भिन्न संस्कृति और भाषा का अपरिचय मेरे लिए अवरोध नहीं. क्योंकि संघर्षशील और दुखी लोगों की भाषा संसार भर में एक-सी है. उनकी संस्कृति एकसार है. उसे मैं जान लूँगी. वह अज्ञेय नहीं. वह वरेण्य है. वह संग-साथ और सामूहिकता की याचक है. यह मेरा वैराग्य नहीं, जीवन में अलग कोण से धँसना है, उससे संपृक्त होना है. यह वंचना नहीं, नयी प्राप्ति है. मेरी डायरी इसलिए ही इतनी चित्रमय होती चली गई है.
मैं प्रकृति की उपासक हूँ और प्रशंसक भी. वह मेरी पोषक है. मेरी जड़ें जितनी धरती में है उतनी सूर्योदय और सूर्यास्त के आसमान में. जितनी समुद्र में, उतनी ही पर्वतों में. मैं धूल हूँ लेकिन इसी धरती की संतान हूँ. मैं जो देखती हूँ, महसूस करती हूँ, उसमें खो जाती हूँ. इसी में मेरा होना है. मैं परिधियों को, क्षितिज को छूना नहीं चाहती, उनके पार जाना चाहती हूँ. मैं अपनी देह मात्र से नहीं, सर्वत्र व्याप्त ईथर से भी ऊर्जस्वित और सक्रिय हूँ. मेरा हृदय कमज़ोर है लेकिन वह एक बादल की तरह है, जो जब-जब भारी होता है तो बरसकर हलका हो जाता है और शुभ्र होकर जीवनाकाश के नीले रंग में तैरता है.मैं सपने देखती हूँ. मैं कलाकार हूँ. मेरे लिए मरीचिका भी प्रेरणा है.
लो, अब मैं अपनी कूची रखती हूँ.
लिलिआस ट्रॉटर के इस बायोग्रैफ़ी लेखन को, तीन दशकों के श्रम से संभव किया है मिरियम हफ़मैन रॉकनेस ने.
और परदे पर इसे लाईं हैं: लॉरा वॉटर्स हिंसन. नेपथ्य में बड़ी भूमिका है अकीरा कुरोसावा के विशिष्ट सहयोगी रहे हिसाओ कुरोसावा की.
Many Beautiful Things, 2015
Director- Laura Waters Hinson
तुम सपनों के यात्री हो
अभी तक पता नहीं कि यह रोग क्यों हो जाता है कि कला को निर्दोषता की हदों तक साधते हुए कलाकार के जीवन में, उसकी उम्र के उतार पर अयाचित एक समय ऐसा आता है कि उसके हाथ, उसकी उँगलियाँ अपनी कला प्रस्तुति के अंतिम क्षणों में काँप जाती हैं. शब्द भावनाओं का साथ यकायक छोड़ देते हैं और इस पर उसका कोई वश नहीं रह जाता. अज्ञात कंपन घेर लेता है. ब्रश का अंतिम स्ट्रोक अपनी संगति में नहीं लग पता. संगीत का अंतिम हिस्सा अजनबी की तरह पेश आता है. खरज लगते लगते नहीं लग पाता. कुँजी अधिक या कुछ कम देर तक दबी रह जाती है. यह कोई चूक नहीं है, बाक़ायदा बीमारी है- Coda, कोडा.
हमारे अवचेतन की अदृश्य अस्थियाँ, उनके ऊतक लगातार क्षतिग्रस्त और मनमाने ढंग से अनवरत संयोजित, पुनर्संयोजित होते रहते हैं. इस से कई बार मस्तिष्क की शिराओं में, तंत्रिकाओं में मानो संधिवात हो जाता है. फिर जैसे कुछ संशय बन जाते हैं जो शरीर में दुखते, पकते रहते हैं. कोई शोथ. कोई वरम. कोई व्रण. या लंबी साधना, परिश्रम और अवसाद की थकान, जो अर्जित कला के साथ ‘लिव इन’ में रहने लगती है. यह ठीक-ठीक क्या है, इसका निर्णय शेष है लेकिन चिकित्सा क्षेत्र में उसका नामकरण है- कोडा.
दो)
मैं संगीतकार हूँ और दार्शनिक की तरह कह सकता हूँ कि संगीत के बिना जीवन एक त्रुटि है. यदि यह अतिशयोक्ति है तो भी एक सच्चाई है. कला में सारी शुद्ध सच्चाइयाँ, शुद्ध अतिशयोक्तियाँ ही हो सकती हैं. इसलिए कला अपनी तरह की सच्चाइयों का वह समुच्चय है जिनमें पदार्थ और अपदार्थ से बनी, संघर्षंशील दुखों से प्रसूत और कई अधबनी सच्चाइयों का अनुभव एक साथ किया जा सकता है.
जो संगीत के भीतर रहते हैं वे संगीत के बाहर कैसे रहेंगे: जल बिन मीन. मैं संगीतकार हूँ मेरी स्मृतियाँ भी संगीत से बुनी हैं. मेरी नसों में बहते द्रवों में एक द्रव संगीत का रहा आया है. मैं संगीत से दूर जाता हूँ तो मेरे ख़ून में प्लेटलेट कम होने लगते हैं. मैं जानता हूँ कि संगीत सदैव अकेले में ही बजाया जाता है, भले सामने हज़ारों-लाखों लोग बैठे हों. बजाते समय सच्चे संगीतकार को अकेला हो जाना पड़ता है. सभागार में भी एकांतिक साधना करना पड़ती है. जो केवल ख़ुद के लिए बजा रहे होते हैं, वे ही सबके लिए बजा रहे होते हैं. द्वैत में यह अद्वैत ही साध्य है. इसमें किसी एक क्षण की नहीं, पूरे जीवन की प्रेरणा शामिल है. समय के साथ प्रेरणा का आयतन बढ़ता चला जाता है. जीवन उलझ़ी हुई गुत्थी है, मैं उसी गुत्थी को सुलझाते हुए अपना पियानो बजाता हूँ. मेरे लिए यह चंद्रयात्रा भी है और समुद्र की वह लहर भी जो तट से टकराकर अपना दम तोड़ देती है.
तीन)
क्या हर कलाकार में कोई ऐसा विषाणु होता है जो उसमें कोई लाइलाज रोग पैदा करता है? वैज्ञानिक सच के विषाणु कोई और हो सकते हैं. लेकिन सबसे पहले तो प्रेरणा का विषाणु चाहिए. किसी निराशा या आशा की तरह. या कोई दुख. कोई विश्वास. वह प्रेम करने से मिल सकता है और वंचना से भी. प्राकृतिक जगहों से. अपने ही अवसाद से. कलाकार को नानाप्रकार की, कई स्त्रोतों से उद्भूत प्रेरणाएँ चाहिए. झरनों से, हरीतिमा से. विडंबनाओं से, विपदाओं से और युगीन यंत्रणाओं से. और एक ऐसी चट्टान से जिसके क़रीब जाओ हो तो वह कहती है- मैं दस लाख साल पुरानी हूँ. इन सब चीज़ों से कलाकार अपना रिश्ता खोजते हैं. वंशावली दुरुस्त करते हैं. उन्हें अपनी कला में नामित या अनामित करते हैं. हर चीज़ से मनुष्य का आनुवांशिक संबंध है. इसको मनुष्य भूल जाते हैं, चीज़ें याद रखती हैं. संपर्क में आते ही कला इस संबंध की याद दिलाती है.
कला की स्मृति करोड़ों साल पुरानी है.
कला जीवन शैली भी है. यदि वह जीवन शैली नहीं है तो फिर दिक़्क़त है. हम सब किसी न किसी काल में किसी न किसी के एकलव्य होते हैं. और अकसर हमसे कोई अपना अँगूठा नहीं माँगता. जैसे एक वृक्ष मिलता है और कहता है मैं अकेला होकर भी अकेला नहीं हूँ. मेरी जड़ें हैं और मेरा एक पयार्वरण है. मेरे अपने पक्षी हैं. ऋतुएँ हैं. एक पहाड़ मिलता है और कहता है कि मैं वर्षों से अविचल हूँ, सब कुछ सहन करता हुआ, तुम भी धीरज रखो. ये सब बातें फिर तुम अपनी कला के जरिये दर्ज कर देना चाहते हो : तुम मनुष्य हो, चाहो तो बिलखते हुए भी धीरज रख सकते हो.
चार)
संसार में हर सुंदर चीज़ हर एक के लिए नहीं होती. या एक तरह से सबके लिए सुंदर नहीं. सुंदर की परिभाषा प्रत्येक के लिए एक-सी नहीं. इसलिए हर कला हर एक के लिए नहीं. यह संगीत, यह चित्र, ये शब्द, यह समुद्र, यह सूखा पत्ता और यह भग्नावशेष सुंदर हैं लेकिन हर एक के लिए नहीं. मगर सौंदर्य की खोज भी अपने आप में सुंदर होती है. तुम सपनों के यात्री हो. ये स्वप्न दुनिया में से निकलते हैं और दुनिया के लिए बनते, मिटते रहते हैं. अब तुम्हारी लंबी साधना के बावजूद कुछ चीज़ें अपने होने, अपने कहने, अपने प्रस्तुत होने में तुम्हारे हाथों से अनजाने ही छूट रही हैं तब भी तुम अपना काम करो. इसी में संपूर्णता है. तुम कलाकार हो, यही तुम्हारा काम है कि अपना काम करते रहो. हर कला अपने उत्कर्ष में ‘कोडा’ के साथ और ‘कोडा’ के बावजूद संपूर्ण है.
यह जो अलक्षित-सी असमर्थता है, यह देर तक की सामर्थ्य का हिस्सा है. और यह कि साध्य प्राप्त होकर भी किंचित असाध्य बना रहता है. इससे विचलित मत होओ. कला में यह हासिल भी संभव है.
Movie- Coda, 2019
Director- Claude Lalonde
ईश्वर भी यहाँ तक नहीं आ सका
ये जन धूल में से धूल पैदा करते हैं और उसे ही अपना अन्न कहते हैं. ये सदियों से केवल अपनी जर्जर जिजीविषा से जीवित चले आए हैं. इनका गाँव ही इनके लिए पूरा संसार है. ये जानते समझते भी नहीं कि राष्ट्र क्या होता है. इनका जीवन इतिहास भला कौन लिखेगा क्योंकि इतिहास सत्ताओं का होता है, निर्धन जनता का नहीं, वंचितों का नहीं. इनका इतिहास महज़ दरिद्रता का है जैसे उनका अपना यह वर्तमान. इनके लिए विपन्नता कोई पृथक या स्वायत्त घटना नहीं, वह तो जन्म से इनके साथ है. बनी रही है. अवचिल. अनश्वर. इनके लिए निर्धनता ही सनातन है. शायद आगे भी बनी रहेगी क्योंकि सत्ता द्वारा इनकी उपेक्षा आसान है. सत्ताओं के लिए ये अवहेलना के पात्र हैं. प्रशासन को टैक्स देने और मौक़ा आने पर किसी तरह सत्ता द्वारा समर्थन लेने के लिए ही उनका कुछ उपयोग है. जितना भी हो सके.
‘क्राइस्ट स्टॉप्ड एट ऐबोली’- लेखक कार्लो लेवी ने यह संस्मरणात्मक वृतांत, मुसोलिनी के शासन के दौर में लिखा था. राजनीतिक गतिविधियों और फासिज़्म विरोध के कारण लेवी को दक्षिण इटली के सुदूर कठिन प्रांतर लुसियाना (लुचाना) के एक गाँव में साल भर के लिए निष्कासित कर दिया था. यह अत्यंत पिछड़ा, अंधविश्वासों से लबालब, सीधे-सरल, मेहनती और विपन्न किसानों का गाँव था. यह फ़िल्म पुस्तक से एकाकार हुई लेकिन अपनी तरह की विरल वेदना के साथ. भाषा और संगीत के मेल से मानो वंचित जीवन का भाष्य करने के लिए यह फ़िल्म उपस्थित हो गई. दुख के ताने और दुख के ही बाने से हथकरघे पर बुनी गई कोई विशाल झीनी चादर. तानाशाही, झूठे युद्धों और खोखले राष्ट्रवादी गर्व की आफ़तों को अपने भीतर समाये. अंकन में नक़्क़ाशी. कलागत ऊँचाई में अनन्य. समानांतर धीरज के साथ की गई एक मुश्किल कशीदाकारी.
(कार्लो लेवी की स्नेहसिक्त, ग्रामवासियों की दुर्दशा से अचंभित, व्यथित और आहत हृदय भरी भूमिका जिआन मारिया वोलोन्ते ने निबाही है. वोलोन्ते, सर्जियो लियोने की स्पागेट्टी शृंखला की तमाम फ़िल्मों में दुर्दांत भूमिकाओं के लिए विख्यात हैं, उन्हें यहाँ संवेदनशील, बौद्धिक, दार्शनिक और करुणामयी लेखक की भूमिका में देखना सुख और अचरज का बायस है. अब आप वोलोन्ते को अलग तरह से प्यार कर सकते हैं. इसे देखते हुए एक समानांतर फ़िल्म अपने भीतर चलते देखता रहा. उसमें अपने देश और भूगोल के स्मृतिजन्य चित्र बनते-सिमटते रहे. सबसे ज़्यादा अपने गाँव की स्मृतियों के. वह जो इस वृतांत में वर्णित और फ़िल्म में दर्शाये गाँव जैसा ही संतप्त, अभिशप्त, खंडित और धूल-धूसरित था.)
(दो)
यहाँ उस इलाक़े की दुर्दशा और परती ज़मीन में किसानों के व्यर्थ लेकिन अनवरत कठोर श्रम का मार्मिक संस्मरण है. पूरे देश की इस क्षेत्र से असंबद्धता भरी उपेक्षा का आख्यान पृष्ठभूमि में पार्श्व संगीत की तरह बजता रहता है. इस इलाके में देश का कोई राजनेता, कोई उद्धारक, कोई संत, कोई पैगम्बर नहीं पहुँच सका है. सब ऐबोली नाम की जगह तक आकर रुक जाते हैं, जो इस दिशा का आख़िरी रेलवे स्टेशन है. उससे आगे, उसके पार जाना मानो क्राइस्ट के लिए भी संभव न हुआ. यहाँ क्राइस्ट से आशय हर उस मनुष्य से है, जिसकी दैवीय आशा लोग अपने संकट निवारण के लिए कर सकते हैं.
इस गाँव के लोगों के लिए प्रशासन का अर्थ ठीक वही है जो मलेरिया, प्राकृतिक आपदा या अनावृष्टि का हो सकता है. जिस पर उनका कोई वश नहीं है. जो उनकी कोई परवाह नहीं करता. लोग उसे केवल भुगत सकते हैं. जो उन्हें केवल सताने, मारने, लूटने के लिए ही आता है. ग्रामवासियों के पास जैसे इन बीमारियों का कोई उपाय नहीं, उसी तरह सरकारी अधिकारियों, कारकुनों का भी कोई उपाय नहीं. सरकारी लोग आते हैं और निर्विकार भाव से, हिकारत भरी उपेक्षा से उन्हें लगभग मार ही डालते हैं. यहाँ आकर पुजारी (पादरी), अमीन, ग्राम प्रमुख अधिकारी या डॉक्टर भी अभिशप्त हो जाता है. और चूसी हुई गुठली को चूसने का काम भी किसी उपकार की तरह करता है. विरासत में प्राप्त ग़रीबी, अज्ञानता और अकाल मृत्यु यहाँ के निवासियों के जीवन-चक्र में शामिल है. शेष विकसित होते महान देश को उनकी मुश्किलों से कोई मतलब नहीं. उनसे तो न्यूनतम कर वसूली के लिए अधिकतम निर्ममता भी सहज और क़ानून सम्मत है.
यह असमाप्त कथा दुनिया के अनगिन गाँवों की कहानी है. इसलिए यह इतालवी होते हुए भी पूरे संसार की है. इस कथा को प्राय: आज तक बदला नहीं जा सका है. यह याद दिलाती है कि हम सब नागर, शहरी लोग गाँव से महज विस्थापित नहीं हैं बल्कि अजीब ढंग से बहिष्कृत हैं. और जो छूट गए वे वहीं मृतक. कार्लो लेवी के इस मेमॉयर ने तब यह मुमकिन किया कि उस पूरे इलाक़े पर ध्यान दिया जा सके. इस किताब ने राजनैतिक, बौद्धिक, समाजशास्त्रीय स्तर पर लगभग हर घर में एक बहस को जीवंत करते हुए लोगों को विवश किया कि वे निगाह डालें कि आख़िर अपने ही देश में यह कौन-सी जगह है जो इस क़दर मुश्किलों और अभावों से ग्रस्त है.
(तीन)
किताब पढ़ते हुए मन में जो चलचित्र चलता है, उसके निदेशक और सिनेमैटोग्रैफ़़र आप ख़ुद होते हैं. शब्द जो असर डालते हैं वह पाठक को उसकी अपनी उपलब्धि की तरह भी प्रतीत होने लगता है. लेकिन ये दोनों (यानी पुस्तक और सिनेमा) एक-दूसरे से नितांत अलग कलाकर्म हैं. अच्छी किताबों पर कमतर और साधारण किताबों पर बेहतर फ़िल्में बनती रही हैं. और इसका उलट भी. लेकिन पुस्तक पर बनाई फ़िल्म यदि कृति के साथ इस तरह पूरक हो जाये कि उपरांत लगे कि इसको पढ़ना और देखना, दोनों ज़रूरी था. अर्थात पढ़ने से देखने की और देखने से पढ़ने की इच्छा बलवती हो. फिर लगे कि यह पढ़ना और देखना, दोनों ही संपन्नतादायक रहा. किताब वह उद्घाटित कर दे जो दृश्यों में संभव नहीं हुआ या चलचित्र के अनुभव से गुज़रकर आपको लगे कि दरअसल अब कोना-कोना प्रकाशित हो गया है. उपरांत यह परस्परता और निर्भरता अपरिहार्य बन जाये.
इस प्रसंग में अलग यह किताब और यह फ़िल्म, जो एक-दूसरे की पूरक हैं, अभी भी उन दुखों की याद दिलाती हैं जिनका शमन होना है. जिनका उपाय हमेशा संभव है लेकिन किया नहीं जाता है क्योंकि राजनीति को उससे कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं. और लाभ से परे मनुष्य पक्षधर राजनीति का दर्शन ग़ायब हो चुका है. यह फ़िल्म प्रकारांतर से उसी दर्शन की याद दिहानी है.
कार्लो लेवी ने इस संस्मरण की प्रेरणा इग्नेजिओ साईलोन के किसान आंदोलन संबंधी उपन्यास ‘फॉन्टामारा’ से प्राप्त की थी जिसने मुसोलिनी के फासिस्ट शासन के खिलाफ़ वैचारिक उद्वेलन संभव कर दिया था. इस छोटी सी किताब पर 1979 में इतालवी निदेशक फ्रांसिस्को रोसी ने यह सनाम फ़िल्म बनाई.
एक शाहकार. मास्टरपीस. मैगनम ओपस.
लोकतांत्रिकता, स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न समाज के पक्षधर कुमार अम्बुज का जन्म 13 अप्रैल 1957 को जिला गुना, मध्य प्रदेश में हुआ. संप्रति वे भोपाल में रहते हैं. किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण, अमीरी रेखा और उपशीर्षक उनके छह प्रकाशित कविता संग्रह है. ‘इच्छाएँ और ‘मज़ाक़’ दो कहानी संकलन हैं. ‘थलचर’ शीर्षक से सर्जनात्मक वैचारिक डायरी है और ‘मनुष्य का अवकाश’ श्रम और धर्म विषयक निबंध संग्रह. ‘प्रतिनिधि कविताएँ’, ‘कवि ने कहा’, ‘75 कविताएँ’ श्रृंखला में कविता संचयन है. उन्होंने गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’ और ‘वसुधा’ के कवितांक सहित अनेक वैचारिक पुस्तिकाओं का संपादन किया है. विश्व सिनेमा से चयनित फिल्मों पर निबंधों की पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. कविता के लिए ‘भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार’, ‘माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार’, ‘श्रीकांत वर्मा पुरस्कार’, ‘गिरिजा कुमार माथुर सम्मान’, ‘केदार सम्मान’ और वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित. ई-मेल : kumarambujbpl@gmail.com |
श्रृंखला के पिछले लेखों की तरह इस लेख को पढ़ना भी एक उपलब्धि है। कुमार अम्बुज ने यहां एक ऐसी चीज़ पढ़ने को दी है जो पाठक के मन को नम-नाक करने के बजाय उससे सजगता की मांग करती है। यह चार फ़िल्मों का सारांश नहीं, उनकी रोशनी में मनुष्य की मौजूदा नियति से साक्षात्कार है।
यह व्यक्ति की दिनों-दिन छीजती गरिमा और स्वायत्तता, लोकतंत्र को किनारों से कुतरते-कुतरते उसके केंद्र तक जा पहुंचे सर्वसत्तावादी आग्रहों और मनुष्यता को एक नियंत्रित नुमाइश में बदल रही सत्ता की दृश्य-अदृश्य प्रोद्यौगिकी का एक तार्किक काव्य-पाठ है।
दृश्यों को पारदर्शी बनाने और उनके भीतर उतर कर अदृश्य की धुंधली, कंपित, झीनी छवि को शब्दबद्ध करने में कुमार अंबुज को महारत हासिल है
आलेख हमेशा की तरह अच्छे हैं मेनी ब्युटिफुल थिंग्ज का बहुत सुंदर। दिल को छू गया.
वैश्विक अकेलापन…सार्थक टिप्पणियां
Came to Pune 2 days back.Read your article today.It is superb.All these pieces pose questions.In one of his poems Cavafy warns that wherever you go,your city follows you, wherever you go,you carry your city with you.It Must Be Heaven asks – Whether globalization means perpetual displacement?
Will try and watch Many Beautiful Things.Must be quite fascinating.Auden wrote,though ironically, ‘Poetry makes nothing happen ‘ , this film perhaps poses these questions – Does art make anything happen ? Is art capable of giving sense of fulfillment?
The questiions which Coda appears to pose are – Is perfection attainable? Is perfection desirable ? Is perfection conducive to further creation? Is search not supreme?
Residents of Eboli are not children of lesser God,they are children abandoned by God.Hence,they remain untouched by history.In fact,history does not bother with them,history does not even know that they exist.Can such selective history be called history at all? Thanks a lot for sharing the article.🙏🏻
कुमार अम्बुज को पढ़ना धरती को सूंघने जैसा है. धरती का सोंधापन आपको उस पाताललोक तक ले जाता है, जहां आप कभी पहुँचने की कल्पना तक नहीं कर सकते. ऐसा लेखन कभी कभी आपको अपनी जगह अकेला कर देता है और यह सोचने को विवश करता है कि आप (हम सब) रहते किस दुनिया में हैं, आपके पास कहने के लिए कुछ होता क्यों नहीं है? लेकिन यह भी उतना ही सच है कि हर किसी के पास अम्बुज -दृष्टि हो ही…
“सभी जगहें एक सा नरक पेश करती हैं. तरीक़े और परिस्थितियाँ अलग हैं, लेकिन नरक सब जगह फैल गया है. इलाज के अभाव में किसी नासूर की तरह. सब तरफ़ एक-सा अजीबो-ग़रीब जीवन होता जा रहा है, अमानवीय और अवाक् करनेवाला. मनुष्य की तरह जीवित रहने के लिए कोई जगह शेष नहीं. संसार में सारी जगहें एक-सी हो चुकी हैंःशांति और ख़ुशी से न रहने लायक़.”
ये कितनी नकारात्मक भाव दशा है ! दुनिया में अभी भी बहुत कुछ सुंदर है ।