प्रियंवद
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To study the abnormal is the best way of understanding the normal.
William James
बहुत समय नहीं हुआ जब दिल्ली से निकलने वाली एक प्रमुख पत्रिका के दफ्तर में एक फुर्सतिया सवाल उछलाः राजेन्द्रजी के बाद अब कौन सी पत्रिका है जिसे केवल उसके सम्पादकीय के लिए खरीदा-पढ़ा जा सकता है? दो-तीन मासिक/अनियतकालीन पत्रिकाओं का जिक्र आया लेकिन सहमति प्रियंवद की ‘अकार’ पर बनी. किसी मित्र और प्रिय लेखक का पीठ-पीछे होता तटस्थ मूल्यांकन खुशी से ज्यादा संतोष देता है. गिरिराज किशोरजी के बाद ‘अकार’ के व्यवस्थापक के किंचित संदिग्ध चोले को छोड़ जब उन्होंने पत्रिका की संपादकी संभाली तब यह नामभर का बदलाव नहीं थाः यह पूरी पत्रिका का कायाँतरण था. वह लेखक जो अभी तक इतिहास की रोशनी में अपने समकाल को देखने-समझने, तरह-तरह की प्रेम-केन्द्रित कहानियाँ, साम्प्रदायिकता-व्यवस्था विरोधी और किंचित बीहड़ किस्म का गल्प रचने के लिए जाना जाता था, बिना किसी पूर्व अनुभव के ऐसा भरा-पूरा संपादक भी हो सकता है; ऐसा कम ही लोगों ने सोचा होगा. जो लोग प्रियंवद के व्यक्तित्व से कमोबेश परिचित थे, उन्हें इसमें केवल सुखद आश्चर्य ही लगा.
कथाकार प्रियंवद से मेरा परिचय गई सदी के अंतिम दशक में उनके कथा-संग्रह ‘एक अपवित्र पेड़’ की मार्फत हुआ. कुछ पाठकीय-लेखकीय खतो-किताबत भी होने लगी. शीघ्र ही उन्होंने मुझ नए-नवेले लेखक को वृंदावन में आयोजित होने वाली ‘संगमन’ की वार्षिक गोष्ठी में निमंत्रित किया तो मुलाकात का जरिया बना. उस मुलाकात का हल्का सा जिक्र इसलिए कि अपनी कहानियों से मेरे जेहन में रूमानियत और सत्ता-प्रतिष्ठान की सूक्ष्म परतें उकेरने वाले, अपनी फोटो में युवतर दिखने वाले लेखक तो वे दूर-दूर तक नहीं लगे. शामिल लेखकों की आव-भगत और आयोजन सम्बंधी उलझनों से इत्मीनान और बिजनेस-लाइक ढंग से भिड़ते हुए किसी गैर-लेखक को भरम नहीं हो सकता था कि लेखन के प्रति यह लेखक कितना समर्पित है और उसका लेखन कितना विशिष्ट है.
उसके अगले ही बरस (सन 2001) जब ‘संगमन’ की सालाना गोष्ठी को अहमदाबाद में आयोजित करने का दायित्व मुझे संभालना पड़ा, तब उनसे निजी स्तर पर संवाद होने लगा जिसे आज एक चौथाई सदी होने को है.
प्रियंवद के व्यक्तित्व को समझना आसान भी है और मुश्किल भी. आसान इसलिए कि वे साफ बोलते हैं; मुश्किल इसलिए कि कम या काम से काम रखने वाले की तरह बोलते हैं- खासकर अपने बारे में. वे देश-दुनिया, इतिहास, समकालीन राजनीति, फिल्म या साहित्य बिरादरी के बारे में अपनी समझी-पढ़ी-देखी बातें साझा कर लेंगे लेकिन ऐसा कम देखने को मिलेगा कि वे उस सबमें ‘चुस्की’ भी लेते दिखें. यूं उनके पास दुनिया-जहाँ के किस्सों की कमी नहीं है लेकिन उन्हें फुर्सती ढंग, जिसे गपियाना कहते हैं, से साझा करने की फितरत नहीं रखते. मित्रों के बीच यही फ्री-फ्लोइंग साझेदारी अक्सर हमारे व्यक्तित्व के बारे में जरूरी सूत्र थमा देती है.
तो फिर प्रियंवद की आजमाइश के सूत्र क्या हो सकते हैं? कोई बावजह कह सकता है कि किसी लेखक-कलाकार के व्यक्तित्व को जानने से क्या मिलेगा? क्या हमें उसके रचे हुए से संतोष नहीं कर लेना चाहिये? व्यक्ति नहीं, रचना महत्वपूर्ण होती है. अन्ततः वही बचती है या लेखक को बचाती है. इस सबसे मेरी असहमति नहीं है लेकिन लेखकीय व्यक्तित्व लेखक के हाड़-मांस का वही सब तो होता है जहाँ उसके जीवन के कटे-छंटे स्वप्न, आकांक्षाएं औेर राग-द्वेष बिखरे होते हैं जिनकी छाया और ताप का बहुत कुछ उसकी रचनात्मकता में प्रतिबिम्बित होता देखा जा सकता है. मैं स्वीकारता हूँ कि प्रियंवद जैसे लेखक-मित्र की कोई भी शिनाख्त आधी-अधूरी ही हो सकती है. इस आधी-अधूरी शिनाख्त का, रचनाओं के अलावा- पहला और कहना होगा अधिक प्रत्यक्ष माध्यम तो वे नियमित, सुदीर्घ मेल-मुलाकातें और संवाद हैं जिनकी स्मृतियाँ आज भी बनी हुई हैं.
वृंदावन में हुए ‘संगमन’ के दौरान प्रियंवद को जिस नो-नोनसेंस रवैए को देखा, समयाँतर में वह छवि और पुख्ता होती रही है. ‘संगमन’ के चयनित विषयों पर नजर डालें तो पता चलेगा कि कितने दिलचस्प चुनौतिपूर्ण और समावेशी विषयों पर इसमें मंथन हुआ है. ‘संगमन’ के आमंत्रण के साथ जो प्रपत्र शामिल रहता है, वह एक सुलझे हुए मस्तिष्क का सबूत रहता है: विषय की संभावित परतें और मानी क्या हैं, उसके ऐतिहासिक सन्दर्भ क्या हैं और वर्तमान में उसपर चर्चा करने की क्या अहमियत हो सकती है. ‘संगमन’ के संस्थापक सदस्यों में उनके साथ गिरिराजजी के अलावा अमरीक सिंह दीप, कमलेश भट्ट और शिवमूर्ति भी रहे लेकिन सभी को पता था कि आयोजन की कमान संभालने के लिए प्रियंवद ही रहेंगे. आगे-पीछे की कई पीढ़ियों के बीच उनकी रचनात्मक और संवादपरक उपस्थिति के अलावा इसका बड़ा कारण आयोजन के आगे-पीछे निवेशित की जाने वाली उनकी संलग्नता भी थी.
कुछ वर्ष जब मैं ‘संगमन’ की कार्यकारिणी में शामिल रहा, तब इस बात की गहराई का पता चला. प्रियंवद पहल करके अपना काफी ‘होम-वर्क’ तैयार भी करके रखते जिसमें प्रमुख होता स्थानीय आयोजक/स्थल का फैसला क्योंकि उसी के जरिए स्थानीय व्यवस्था (कार्यक्रम, भोजनादि, भ्रमण) आकार लेती. इस सबमें शामिल संभावित लेखकों-वक्ताओं पर जमकर मशवरा होता. किसी का विषय-विशेष में जानकार होना पर्याप्त नहीं था; वह वक्ता भी अच्छा हो तभी बात बनती है. बैठकों में शामिल लेखकों की दीगर बातें भी पता चलतीं… कौन हर बार आने को उत्सुक रहते हैं, कौन वादा करके भी नहीं आते हैं, किसे लम्बा बोलने की आदत है, वगैरह. हममें से कई दूरस्थ जगहों से वहाँ (कानपुर) पहुंचते थे लेकिन प्रियंवद का आतिथ्य इतना चुस्त और आत्मीय रहता कि प्रस्तावित बैठकें पिकनिक का सा आनन्द देतीं.
बीच-बीच में बस गिरिराजजी की तुनक मिजाजी संभालनी होती. वे हम सबके आदरणीय थे. मेरा उनसे नियमित पत्राचार रहता था. हर बार ही वे हम सबको एक वक्त अपने घर खाना खाने के लिए अवश्य आमंत्रित करते जहाँ मीराजी के मातृत्व भरे आतिथ्य से हम अभिभूत होते. मगर सहज संवादी होते हुए भी गिरिराजजी बाजदफा अच्छे खासे अलोकतांत्रिक हो जाते (जबकि वे ‘पहला गिरमिटिया’ लिख चुके थे). “यू कान्ट वोट मी आउट लाइक दिस” चर्चा के बीच किसी मुद्दे पर सदस्यों की जाहिर असहमति पर, मतानुसार फैसला करने के सुझाव पर वे फट पड़ते. हम सब एक सन्नाटे में सहम जाते. आखिर हम सभी की कुछ बातें मानी जाती, कुछ नहीं. चाय के ब्रेक से माहौल की बहाली की कोशिश की जाती. गिरिराजजी के रवैये से स्पष्ट असहमति के बावजूद प्रियंवद यथासम्भव उन्हें नाराज किए जाने से बचते.
गिरिराजजी की उपस्थिति प्रियंवद के लेखन के शुरुआती दौर में एक अभिभावक की सी थी. दोनों के बीच आत्मीय पारिवारिक संबंध थे. दोनों की लेखकीय जमीन अलबत्ता नितांत अलग थी. “देखिए, मित्रता में थोड़ा-बहुत तो बर्दाश्त करना पड़ता है, वे आदमी वैसे नहीं हैं, बस कभी गुस्सा कर जाते हैं”, वे कहते पाए जाते. राजेन्द्र यादव तक से सीधे (मगर ससम्मान) भिड़ंत करने वाले प्रियंवद मेरे जाने केवल गिरिराजजी को ही अतिरिक्त रियायत देते लगते. पूर्ववर्ती या परवर्ती, व्यक्तिगत तौर पर किसी के खिलाफ हुए बिना उन सबके मूल्यांकन का उनके पास, दूसरी चीजों की तरह, स्पष्ट मानस रहा जिसमें रवीन्द्र कालिया ‘औसत’ ठहरते और तथाकथित रूप से बनाई उनकी युवा पीढ़ी महत्वाकांक्षाओं और आपसी सराहनाओं की मारी. इस मामले में अपनी पीढ़ी से वे अकेले थे जो दो टूक होकर मत व्यक्त करते; वर्ना अधिकांश समवयस्क अलोकप्रिय या ट्रोल किए जाने से बचने का सुगम, सकारात्मक दिखने का रास्ता चुनते रहे.
गिरिराजजी के देहावसान के बाद उन पर लिखे मार्मिक संपादकीय में उन्होंने उनके व्यक्तित्व में व्याप्त “कड़वा तंज, अख्खड़पन और आक्रामकता” का जिक्र अवश्य किया मगर उनके प्रति अतिरिक्त सम्मान भाव बना रहा. मुझे इसका कारण यही लगा कि अपनी पीढ़ी के प्रमुख लेखकों में गिरिराजजी सबसे उपेक्षित से रहे. यूं उन्हें ‘साहित्य अकादमी’, ‘व्यास सम्मान’ और बाद में ‘पद्मश्री’ मिले थे लेकिन हिन्दी कथा साहित्य में उनकी शुमार वैसी नहीं थी जैसी उनके समकालीन ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, और काशीनाथ सिंह की. इसके बावजूद एक लेखकीय जीवन जीते हुए वे निरंतर लिखते रहे.
‘पहला गिरमिटिया’ (1999) ने जरूर उन्हें शोहरत दिलवाई लेकिन उनके कई महत्वपूर्ण उपन्यास, खासकर ‘ढाई घर’ और ‘परिशिष्ट’ दुर्भाग्यवश उपेक्षित ही रहे. सम्भवतः यह बात प्रियंवद को अखरती रही हो इसलिए उनके प्रति नर्माहट ही बरतते.
लेकिन एक वाकया ऐसा हुआ जिसका यहाँ उल्लेख इसलिए करना जरूरी लगता है कि उसके एक सिरे पर मैं था और जिसमें प्रियंवद ने गिरिराजजी की नाराजगी के बावजूद उन्हें शान्त रहने को मजबूर कर दिया.
हुआ यूं कि तानाशाही सत्ता द्वारा सलाखों के पीछे डाल दिए गए इंडोनेशियायी लेखक प्रमूदिया तूर (1925-2006) के एक मार्मिक, सुदीर्घ आलेख- जो उन्होंने पत्र शैली में अपनी बेटी को सम्बोधित करते लिखा– को ‘अकार’ के आगामी अंक में प्रकाशित करने के लिए अनुदित करना था और जिसका दायित्व मुझे सौंपा गया. प्रमूदिया तूर पर एक जीवनीपरक टीप के परिप्रेक्ष्य के साथ मैंने अपने अनुवाद को यथाशीघ्र ‘अकार’ को भेज दिया. अगले माह वह प्रकाशित भी हो गया. मैं सामान्यतः उसे नहीं पढ़ता लेकिन किसी संयोग के तहत उसके एक हिस्से पर मेरी नजर गई तो मैं हतप्रभ रह गयाः आलेख का अनुवाद मेरे भेजे अनुवाद से अलग लग रहा था.
कुतूहलवश मैं उस प्रकाशित आलेख को पांडुलिपि की अपनी प्रति से मिलाने लगा तो मेरा दिल बैठ गया- मेरे अनुवाद के साथ बेजा छेड़छाड़ की गई थी, उसकी आत्मा को विकृत करते हुए. यह महज संपादकीय विवेक में तो नहीं आता है. किसने किया होगा और क्यों? मैंने प्रियंवदजी से पूछा तो उन्होंने बताया कि पत्रिका के व्यवस्थापक के तौर पर वे प्रकाशन सामग्री जुटाने में सहयोग करते हैं; प्रकाशित सामग्री का जिम्मा गिरिराजजी का रहता है. मैंने उन्हें कहा कि इस अंक में मेरे अनुवाद के साथ ही नहीं, मूल लेखक प्रमूदिया तूर के साथ भी अन्याय हुआ है. कुछ वाक्यांश और शब्द मेरे जेहन में ताजा थे सो उन्हें बता भी डाले कि मूल क्या था, मैंने क्या अनुवाद किया था और प्रकाशित क्या हुआ है.
प्रियंवद ने मुझे इस बाबत अपनी सफाई लिखकर देने का मशवरा दिया जिससे दूध का दूध पानी का पानी हो जाए. “और सुनिए”, एक बिरादराना हिदायत के साथ उन्होंने जोड़ा ” ‘अकार’ का अगला अंक प्रेस में जाने को है, मैं उसे रोक देता हूँ. तीन पेज तक हम आपको दे सकते हैं”. मैंने उन्हें मामले की गम्भीरता बतायी और कहा कि तीन पेजों से बात नहीं बनेगी क्योंकि पाठकों को मुझे मूल अंग्रेजी के साथ मेरा अनुवाद और प्रकाशित रूप को एक साथ रखना होगा- उसके निहितार्थ खोलते हुए. मुझे कोई जल्दी नहीं है. उससे अगले अंक में भी जाए तो कोई हर्ज नहीं लेकिन पृष्ठ सीमित न करें. समय निकालकर अपनी बात रखते हुए मैंने ‘अनुवाद के साथ नागवार छेड़छाड़’ नाम से अपनी असहमति जताता आलेख भेज दिया.
उस आलेख (अकार-18, दिसंबर-मार्च 2007) की ‘अकार’ ही नहीं हिन्दी साहित्य के दूसरे कई पाठकों-लेखकों ने उसकी तकनीकी स्वच्छता के अलावा, एक दिग्गज लेखक-संपादक से सीधे भिड़ंत करने की मेरी हिमाकत के लिए भी सराहा जबकि मेरे लिए मामला अपने अनुवादकीय स्पेस की पवित्रता मात्र का था. प्रियंवदजी ने मेरी अनुवादकीय स्वायत्तता में संरक्षात्मक हस्तक्षेप न किया होता तो इस तरह के दोयम काम में अपनी ऊर्जा खपाने की मैं सोचता भी नहीं. गिरिराजजी को वह बहुत नागवार लगा लेकिन उसे प्रकाशित करना उनकी मजबूरी थी. वाकये से मुझे एक बात समझ आयी प्रियंवद को कोई बात जंच जाए तो विचार और रचना के पक्ष में वे बहुत कुछ ताक पर रख देते हैं.
दो) |
स्वस्थ और सुदीर्घ मैत्रीपूर्ण सम्बंधों के अनुभवों की छाया से चुनकर कुछ लिखना, आपराधिक है क्योंकि परस्पर के निजी स्पेस के भागीदार होने की एक अपनी पवित्रता होती है. जब हम एक-दूसरे के जीवनानुभवों के मित्रवत भागीदार/दर्शक होते हैं, तब आपसी विश्वास की सहजता, निजता के जाने-अनजाने पहलुओं को ठेलती चलती है, जिससे दूसरे– और यदि वह लेखक है तो उसके पाठक- अनभिज्ञ रहते हैं. निजता के सभी पक्षों का उस लेखक की रचनाशीलता से वास्ता चाहे न हो लेकिन कुछ की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है. किसी ने कहा भी है कि उत्कृष्ट कला यथार्थवाद का ही कोई न कोई संस्करण होती है!
मेरे मन में अक्सर यह सवाल उठता है जो हर नए-पुराने लेखक के जेहन से भी टकराता होगाः हम क्यों लिखते हैं? नाम-शोहरत के लिए? साहित्य की दुनिया में कुछ नया और अलग जोड़ने के लिए? स्वांतः सुखाय?
स्वांतः सुखाय का मामला पहले से लेकर आखिरी किसी भी पायदान पर हो सकता है. धनोपार्जन साहित्य का कभी अनुषंगी अंग रहा हो लेकिन बीज लक्ष्य कभी नहीं रहा. अपने प्रेमचन्द, मुक्तिबोध या गुस्ताव फ्लाबेयर के उदाहरण सामने हैं जो ऐसा और खूब लिखकर भी कायदे से उससे अपना पेट नहीं पाल सके. नाम-शोहरत की मामूली इच्छा से इनकार न भी करें तब भी भूमंडलीकृत ताने-बाने के चलते यह फिजूल हो चुका है. नया और अलग सा कुछ रचने की कामना भी बहुत कुछ पूर्व प्रश्न से जुड़ी है.
इन प्रश्नों के सन्दर्भ में जब मैं प्रियंवद को देखता हूँ तो कई तरह के सुखद आश्चर्य प्रकट होने लगते हैं. प्रियंवद ने नाम और शोहरत के लिए- जिसकी एक पगडंडी दैहिक सम्बंधों को उत्तेजक भाषा में बयान करने ले जाती है– कभी लेखन नहीं किया. सन 1980 में जब उनकी ‘बोसीदनी’ ‘सारिका’ की कहानी प्रतियोगिता में तीसरे स्थान पर चुनी गई, तब उस युवा लेखक के उड़ने-बिगड़ने की खूब गुंजाइश थी. यह ठीक है कि देह और रोमान को लेकर उन्होंने उसके बाद भी कहानियाँ लिखीं, चाँद-फूल-मौसम के बघार भी लगाए लेकिन उनकी अधिसंख्य कहानियों में देखे-जाने यथार्थ से परे या पीछे जाकर कुछ आविष्कृत करने का तत्व प्रमुख रहा है जिसे ‘बोसीदनी’ में लक्ष्य किया जा सकता है. दो दशक पूर्व मेरे साथ हुई बातचीत में उन्होंने इसे ‘प्रेम में खंडित व्यक्तित्व’ की कहानी भले स्वीकारा हो लेकिन आज इसे पढ़ते हुए उस युवा लेखक की मनोवैज्ञानिक पड़ताल पर आश्चर्य होता है. मुझे यह खंडित व्यक्तित्व की बजाय खंडित समयों में उस स्त्री का होना लगती है. स्मृति के किसी आलम्बन के बगैर यह व्यक्ति के काल-वैषम्य को सहजता से छूती चली जाती है. यह इसलिए भी सम्भव होता है कि जब लेखक कुछ नया और अलग करने की मनोवृत्ति से परे, सृजन के उस कष्टप्रद आनन्द की तलाश में भटकना पसन्द करता है जिसे, हर कला की तरह, साहित्य कला हर किसी को तो आसानी से उपलब्ध नहीं कराती है. यह मामला किसी कुदरती जीनियस, साहित्य के संस्कार या विशद अध्ययन से अधिक एक सतत रचनात्मक खोज या ओडेसी की आजमाइश के लिए एकनिष्ठ ईमानदारी और महत्वाकांक्षाविहीन संलग्नता का अधिक है, जो वास्तव में दुर्लभ है.
यह किसी को वायवीय या अतिशयोक्तपूर्ण लगे तो प्रियंवद के जीवन-सन्दर्भों की कुछ बातों पर गौर करेः उनका पहला कहानी-संग्रह (एक अपवित्र पेड़) भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ. उसके एकाधिक संस्करण भी हुए लेकिन जब वहाँ एक अप्रिय प्रसंग घटा- जिसका निजी तौर पर उनसे कोई लेना-देना नहीं था– तब गिरिराजजी के साथ उन्होंने वहाँ से किताब वापस ले ली. उसे दिल्ली का कोई भी बड़ा प्रकाशक सहर्ष छाप सकता था मगर उन्होंने उस तरफ देखा भी नहीं. दूसरा संग्रह (खरगोश) हरिनारायणजी के सहयात्रा प्रकाशन से आया जो मुख्यतः ‘कथादेश’ पत्रिका प्रकाशित करते हैं. एक से एक चर्चित कहानियों के बावजूद उसका एकमात्र संस्करण आधा-अधूरा ही बिका. इस बीच उनकी ‘बोधिवृक्ष’, ‘बूढ़े का उत्सव’, ‘अधेड़ औरत का प्रेम’, ‘मायागाथा’, ‘रेत’, ‘कलंदर’ और ‘लाल गोदाम का भूत’ समेत दूसरी कई प्रयोगशील और लीक से हटकर कहानियाँ प्रकाशित होती रहीं लेकिन अन्ततः वे ‘संवाद प्रकाशन’ से कथा समग्र (आईनाघर) में छपीं. बीच-बीच में ‘परछाईं नाच’ और ‘धर्मस्थल’ जैसे उपन्यास भी लिखे जाते रहे लेकिन उनके प्रकाशन की स्थिति, कहानी संग्रहों से अलग नहीं रही.
इन स्थूल तफसीलों का तात्पर्य यही कि अपने लेखन पर निरंतर एकाग्र इस लेखक को किसी प्रकाशकीय पुश के आकर्षण ने नहीं ललचाया. वे अपनी मेहनत और मुश्किल से अर्जित लेखकीय दिनचर्या में रमे रहने से संतुष्ट रहे. अपनी पुस्तकों पर न किसी नामवर आलोचक द्वारा लिखे जाने का ख्याल किया और न पाठकों के तक अपनी पुस्तकों के पहुंचने का. किसी को उनकी पुस्तक मिलने में अड़चन हो रही है तो वे प्रकाशक का नाम-पता दे देंगे या खुद भेज देंगे. अपने कई समकालीन-समकक्षीय लेखकों की तरह उन्हें इस बात के मलाल ने भी नहीं सताया कि हिन्दी साहित्य ने उनकी उपेक्षा की और न ही परवर्ती पीढ़ी के ऐसे आलोचक मित्रों को शह दी जो उनके लिए वातावरण तैयार करें.
मुझे प्रियंवद के (लेखकीय) जीवन को निकट से देखने का थोड़ा-बहुत अवसर मिला है. पारिवारिक व्यवसाय में चयनित हल्की-फुलकी भूमिका- जो लेखन-पठन से तात्कालिक निजात जैसी अधिक है- के बाद उनका जीवन इतना लेखन-केन्द्रित है कि नए-पुराने किसी लेखक को स्पृहणीय-अनुकरणीय हो सकता है. लेखन की निरंतरता- जो कहानी-उपन्यास के संग-साथ पिछले कुछ बरसों से इतिहास, बाल-साहित्य और वैचारिक/कथेतर लेखन में उनकी पहचानगत गुणवत्ता के साथ दर्ज हुई है– उनके दैनंदिन में इस कदर घुल गई है कि जीवन का दूसरा सब पार्श्व में चला गया है. कोई टीवी या सीरियल-ओटीटी नहीं, कोई फेसबुक-व्हाट्स ऐप नहीं. कोई क्रिकेट-फुटबाल या और खेल नहीं. चार बजे उठकर कुछ घंटे लिखने के बाद मुंह अंधेरे ही एक पार्क की सैर कर ली जाती है. तब तक एक वफादार सहायक घर पर चाय-नाश्ता बनाने आ जाता है. उस समय वे दो अखबारों से गए रोज की खबरों पर नजर डालते हैं. यही वक्त किसी लेखक मित्र से ‘अकार’ या अन्य पत्रिका में प्रकाशित रचना पर हल्की-फुल्की चर्चा करने का हो सकता है, अन्यथा कुछ पढ़ने का.
चयनित ढंग से रचनारत रहने के अनुशासन में ही उन्हें संतोष मिलता है. कई-कई रूपों-प्रारूपों से गुजरकर अन्ततः प्रकाशित अपनी रचना पर वे स्वयं किसी से संवाद करने को उत्सुक नहीं दिखेंगे. लिखे जाने के दौरान तो किसी को भनक नहीं लग सकेगी कि वे क्या लिख रहे हैं. आपके पास वह पत्रिका आती है, उसे आपने पढ़ लिया, यह आपकी खुशी. आप खुद उस रचना को लेकर उत्साह से उनसे बात करना चाहें तब भी सारी मीठी बातों को ऊपरी झूठ मानते हुए वे चलताऊ शुकराने के साथ उसे दरकिनार करते हुए अपने तकिया कलाम सवाल ‘और क्या चल रहा है?’ को आपकी तरफ ठेलते हुए विषयांतर की राहत बटोरने लगेंगे. इस रवैये का दूसरा पक्ष भी उसी तरह कार्यरत रहता है. वे किसी मित्र की रचना को भी खुरदरे संकोच के साथ सराहेंगे- ‘…आपकी यह कहानी खूब पढ़ी जाएगी… लगता है इस चरित्र को आपने करीब से देखा है’ जैसा कुछ कहकर. एक अग्रज के तौर पर भी वे किसी के लेखन को मित्रवत भी किसी खास तरह से गाइड करने को नहीं कहेंगे. जो करना है खुद करो, जैसा हर सच्चे लेखक को करना होता है. मुद्दत हुए एक वरिष्ठ लेखक पर मेरे आलेख की एक कमी उन्होंने यह बताई कि मैंने उसे आवेग से लिखा है. मैंने उनसे पूछा कि बिना आवेग के लेखन कैसे होगा. तब उन्होंने मुझे अपनी तरफ से पहला और आखिरी सूत्र दिया था: आवेग से लेखन जन्म ले सकता है, गद्य जितना रूखा हो उतना बेहतर.
इक्कीसवीं सदी के सोशल मीडिया की तमाम अवश्यंभावी उपस्थिति के बीच वे प्रूस्त या फ्लाबेयर के समय को जीते हैं– लेखन के प्रति उसी निष्ठा और समर्पण से.
एक वाकया याद आता है. उनके कमरे में बैठे हम लोग सुबह की चाय पी रहे थे. थोड़ी देर में उनका पुराना सहायक– शेखर- आया और ‘भैया जी, लीजिए’ की विनम्र मिठास के साथ उन्हें एक इंजेक्शन थमाने लगा. प्रियंवद ने अपनी कमीज को पेट के ऊपर खींचा, सामने लाकर इंजेक्शन को एक नजर चेक किया और निमिष भर में पेट के एक तरफ उसकी सुई घोंप दी. जब इंजेक्शन का द्रव्य खाली हो गया तो उन्होंने हस्बेमामूल ढंग से उसे बाहर निकाला और इंतजार करते सहायक को थमा दिया. चाय का अधपिया कप थामे मैं उस प्रक्रिया को कुतूहल से देखता रहा जो मेरे सामने पहली बार घटित हो रही थी.
“ये क्या था, प्रियंवद जी?”
चिकित्सकीय मामले से अपनी अनभिज्ञता रखते हुए मैं चिंतातुर था.
“अरे, ये… कुछ नहीं. इन्सुलिन की डोज थी… मुझे शुगर है ना. दिन में एक बार लेनी होती है. उससे सब ठीक रहता है.”
“शुगर तो सीरियस चीज हो जाती है?”
“है, मगर मैनेज हो जाती है.”
मुझे याद आया कुछ बरस पहले उन्हें पेशाब संबंधी परेशानी उठानी पड़ी थी. मैंने उसका भी हाल जानना चाहा.
“वह भी ठीक है, मैनेज हो जाता है. कभी जरूरत हुई तो अस्पताल है ही.”
मैं उदास हो गया. ठीक है उनके पास एक-दो सहायक रहते हैं लेकिन रहते तो वे अकेले ही हैं. सत्तर को छूती उम्र, उस पर बीमारियाँ घर कर लें…
“अरे आप इससे घबराइए मत”
मुझे चिंतित सा देख उन्होंने जोश से उबारते, खारिज करते हुए कहा.
“लेखक को एक-दो बीमारी लगी रहें तो अच्छा रहता है, खासकर बुढ़ापे में… उसका ध्यान बंटता है”
वे आगे कुछ इत्मीनान और फलसफे से बोले.
क्या अजीब दिलेर और दिलचस्प नजरिया है! मुझे याद नहीं कि आगे क्या बातें हुईं लेकिन वार्धक्य, बीमारी और लेखकी के बारे में विचार करते हुए लगा कि इनके बीच कुछ अबूझ और रहस्यमय सा चलता भी होगा. अकेलापन और अवसाद तो मानो जैविक रूप से लेखकी से नालबद्ध ही रहते हैं. साहित्य कला के इतिहास में कितने उदाहरण भरे पड़े हैं जहाँ लेखन के प्रति अदम्य जिजीविषा ने बड़ी से बड़ी दैहिक चुनौतियों को परास्त किया.
लेकिन उन्हें किताबों से जाना. यहाँ साक्षात्कार हो रहा था.
प्रियंवद के इस वाकए से मुझे लगातार संबल मिलता दिखा है और उनके प्रति – इस जिजीविषा के लिए– अतिरिक्त सम्मान भी.
तीन) |
एक लेखक की रचनाओं में उसका जीवन और व्यक्तित्व कितना वास करता है? इस प्रश्न का उत्तर दो विपरीत छोरों के बीच कहीं भी झूलता हो सकता है. थोड़ी खुर्दबीनी से लेखक के जीवन के टुकड़ों को तो उसकी रचनाओं में तलाशा भी जा सके लेकिन उसका व्यक्तित्व? उसकी शिनाख्त तो मुश्किल और चुनौतिपूर्ण होगी, गल्प में तो और भी ज्यादा. गल्प लेखन की यह एक अवधारणात्मक मान्यता है कि जो लेखक अपने जीवन को जितना अधिक अतिक्रमित करेगा, कला के स्तर पर उसका सृजन उतना ही अधिक मूल्यवान होगा. इसी के चलते फ्लॉबेयर ‘मादाम बावेरी’ की हताशा और आकांक्षा को ऐसा जीवन्त और व्यापक आयाम दे सके जो अपनी बुनियादी सहजता में उसे क्लासिकी बना देता है. यहाँ तक कि उसे यथार्थवादी लेखन का आदिम-स्तम्भ माना गया है. साहित्य कला अलबत्ता किसी नियम-परम्परा में सिमटकर तो कभी रह ही नहीं सकती.
कोई लेखक अपने या अपने जाने दूसरों के अनुभवों-निरीक्षणों को अपनी कल्पनाशीलता में ढालकर जो रचता है, एक तरह से वह यथार्थ न होकर उसकी एक निजी संकल्पना होती है जिसे दूसरे अपनी तरह से देखने–महसूस करने को स्वतंत्र होते हैं. इस बिन्दु पर आगे बढ़ने से पहले मैं प्रियंवद की रचनाओं से तीन अंश उद्घृत करना चाहता हूँ:
(1) “… “ठेले वाले जल्दी-जल्दी फुटपाथ पर बिखरा सामान समेट रहे थे. मदारी झोले में रंगीन पत्थर जड़ी-बूटियाँ भर रहा था, सांडे का तेल बेचने वाला टूटी रीढ़ वाले गिरगिटान, छिपकलियाँ, लिजलिजे निचुड़े छोटे-छोटे सांप, तेल की शीशियाँ झोले में भर रहा था. हड़बड़ाते हुए दुकानदार सब्जियाँ, फलों के छिलके उठा रहे थे, हलवाई की दुकान का छोटा लड़का ऊंघता हुआ बर्तन मांज रहा था, एक सांड लंगड़ाता हुआ जा रहा था, एक बूढ़ा खम्बे से चिपका घाव की मक्खियाँ उड़ा रहा था…” (खरगोश)
(2) “… एक कोल्हू था जिसपर सरसों पिरायी होती थी. कोने में खली का ढेर लगा रहता. एक धुनिया था जो रुई धुनता और गद्दे रजाई भी भरता. रुई के छोटे-छोटे फाहे हवा में तैरते रहते. तीसरा गजक बनाने वाला था. बिजली के एक खंबे पर तिल वगैरा डालकर वह उसे रबर की तरह तानता, फेंटता और रगड़ता. खंबे की धूल, मच्छर, जाले सब उसमें लिपटे रहते. चौथा घोड़े की नाल ठोकने वाला और उसके बाल काटने वाला था…” (लाल गोदाम का भूत)
(3) “…वहाँ कतार से बड़ी वाली लाल मिर्ची की दुकानें थीं. दूसरे मसाले भी थे. इन दुकानों के बाद हाथ से जूते बनाने वाले कारीगरों की दुकानें थीं. उसके बाद नाटक का सामान देने या बेचने वाली! उनकी दीवारों पर तरह-तरह की रंगीन पोशाकें, तलवार, मुखौटे, लटके रहते. हारमोनियम और तानपुरा की मरम्मत करने वालों की दुकान उसके बाद थी, फिर इत्र बनाने और बेचने वाले की, भड़भूजे की…” (नाचघर)
अलग-अलग वर्षों में अलग मिजाज की कथाओं से चुने ये अंश प्रियंवद की कथा-प्रविधि की बारीक-बीनी (डिटेलिंग) ही नहीं पेश करते, इनकी सतत उपस्थिति लेखकीय निगाह में पैबस्त उस प्रखर दूरबीन का भी पता देती है जो वस्तुतः उनके मानस में जड़ी है. अपनी कहानियों के प्रचुर वैविध्य के बावजूद, कहना होगा कि प्रियंवद प्रमुखतः उस धूसरित कस्बाती मनो-भूगोल के कथाकार हैं जहाँ मनुष्य और उससे गुथा पर्यावरण पारस्परिकता में ऐसे सांस लेते हैं कि अपने वंचित, मध्य-वित्तीय जीवन में दोनों की सनातन तनातनी बनी रहती है. प्रियंवद खेत-खलिहानों के रास्ते नहीं जाते. कहा नहीं जा सकता है कि उन्हें महानगरीय चेतना ने कितना घेरा है या आवारा पूंजी की दुरभिसंधियों के पिघलते लावा को कितना छूआ है. मगर नगर के तलछट पर रेंगते जीवन की उन्हें खूब खबर है. अलबत्ता उनकी कथा वहाँ सहूलियत के लिए केवल अवस्थित होती हैं, उसके सरोकार अनेक स्तरों पर चीड़-फाड़ करते हुए मनुष्यगत, कहीं स्थाई और असुविधाजनक इलाकों में प्रवेश रखते हैं… यौवन के आवेगों की छीजन, संबंधों के बिखराव, बाजारगत तिकड़में, मृत्यु का उजास, तमाम सुने-अनसुने बीहड़, स्वप्न-आकांक्षाएं-हताशाएं…. क्या है यह जीवन? यहाँ उसकी व्याख्या या पड़ताल का अवकाश नहीं है लेकिन यह उघड़ा-उधड़ा और मरोड़ खाता वह इतिहास है जहाँ वर्तमान के समय की चौंध, नजर को बरगलाती नहीं है, जहाँ मनुष्यगत कमियाँ-मजबूरियाँ तो हैं मगर कानून सम्मत चेहरा-विहीन कॉर्पोरेटी छल-छद्म नहीं पहुंचे हैं. एक आदिम एकरसता के बीच लुढ़कता चलता बहुरूपी जीवन… शहर के भीतर बसा शहर जिसे ‘बोधिवृक्ष’ ऐसे रेखांकित करती है…
“बाहर के शहर कातिल होते हैं; अंदर के पनाह देते हैं… अंदर शहरों में रूह आजाद होती है… अंदर के शहर अपने सीलन भरे मुर्दा अंधेरों में इंसान के हर नंगेपन को ढक लेते हैं…”.
प्रियंवद का यही लोकेल (फोर्टे) और मानस है.
बात चलने पर एक बार उन्होंने बताया कि वे किसी मॉल में नहीं जाते हैं.
“ऐसा क्यों, कानपुर में तो अब कई आ गए हैं”
“गया था एक बार… उसके गेट पर खड़ा गार्ड तलाशी लेने लगा. हमने कहा कि भाई हमें कुछ खरीदना-लेना है, तलाशी किस बात की? उसने कहा कि ये जरूरी है, इसके बिना अंदर नहीं जा सकते… बस चला आया… तुम रक्खो अपना म़ॉल अपने पास… कौन सी चीज है जो बाहर बाजार में नहीं मिलती है…”
इसी कारण हवाई यात्राओं से भी यथा-सम्भव परहेज करते हैं.
जिंदगी को अपनी तरह से जीने का यह ठाठ उन्होंने कई स्तरों पर अर्जित किया है, जिसका एक सिरा पुस्तक प्रकाशन से इसलिए जुड़ जाता है कि हिंदी के लगभग सभी बड़े प्रकाशक तो महानगर दिल्ली में पड़ते हैं जिनकी बेदिली किसी से छिपी नहीं है. मुझे एक और वाकया याद आता है जो ‘भारत विभाजन’ वाली उनकी किताब के बड़े प्रकाशक से आने को लेकर हुआ. कुछ लिखत-पढ़त की बाबत उन्हें गुड़गांव के ऑफिस में नियत समय पर मुलाकात के लिए बुलाया गया था. कद्दाबर चमचमाता कॉर्पोरेट ऑफिस बहुमंजिला इमारत में था. वे नियत समय पहुंच गए. रिसेप्शन पर बता दिया. रिसेप्शनिष्ट ने संपादिका को इंटरकॉम किया. उन्हें इंतजार करने को कहा गया.
“कितना?” उन्होंने दरयाफ्त की.
“सर, यह नहीं बताया” रिसेप्शनिष्ट ने असमर्थता से कहा.
वे उठे और इमारत से बाहर निकल गए.
कुछ देर में संपादिका का हड़बड़ाते हुए फोन आयाः “अरे सर, आप कहाँ हैं?”
“मैं आया था… जो समय आपने दिया था, तब… अब तो मैं बाहर आ गया…”
“सर, प्लीज आ जाएं. मैं एक जरूरी काम में बिजी थी”.
“अरे तो आप बिजी रहिए भाई. किसने रोका है. आपका टाइम कीमती होता है… लेखक का क्या है, उसके पास तो टाइम ही टाइम होता है…”
“प्लीज सर, आयम सॉरी… मिलकर बताती हूँ… प्लीज”
असल वाकये का यह गल्पित संस्करण है. लेकिन सच्चा. ऐसे वाकये वे सोचकर साझा नहीं करते हैं. घंटों की सोहबत-संगत में असावधानीवश प्रवेश कर जाते हैं. मुझे यह केवल प्रियंवद का मामला नहीं लगता है. उन्होंने मानो हिंदी (लेखक) के स्वाभिमान का अलग, गर्व करने लायक संस्करण गढ़ डाला था.
लेकिन प्रियंवद को शहर के भीतर शहर या सिमाने के शहर का लेखक मानना- जैसा उपरोक्त उद्धरणों से लगता है, भूल होगी. उनके गल्प की दुनिया कस्बाती जीवन की चौहद्दियों को निरंतर लांघती-चीरती है. उनका नायक कभी न्यायिक तंत्र के बोल्ट (बोल्टू) ढीले करता है, तो कभी ठेकेदारों की कार्टल बनाकर रेलवे के दुर्घटनाग्रस्त डिब्बों के नीलामी खरीदता है, अधेड़ हो चुकी स्त्री पूर्व में बास्केटबॉल खेलती है और बैले नर्तक से प्रेम करती है, एक चरित्र अपनी प्रेमिका को रिम्बॉ की कविता सुनाते हुए चुंबन लेता है, एक चरित्र शैंपेन पर अपना जीवन-दर्शन खोलता है… वहाँ चर्च और सिमिट्री का मौन और मेंडोलिन का संगीत गूँजता है, कोन्याक के घूंट पर शेक्सपियर की चर्चा होती है, सैमुएल बैकेट आते हैं.
कुल मिलाकर यही कि उनके यहाँ ‘कुल मिलाकर’ जैसा कुछ नहीं है. ब्रह्मांड की तरह बस सब कुछ निरंतर फैलता जाता है!
चार) |
प्रियंवद सरल व्यक्ति हैं? प्रियंवद जटिल व्यक्ति हैं? प्रियंवद सरल लेखक हैं? प्रियंवद जटिल लेखक हैं? इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक मोटी सी ‘हाँ’ हो सकता है. उनके लेखन पर नजर डालें तो अरसे तक वे हिंदी के पठनीय और व्यापक समादृत लेखक रहे हैं. बिना किसी ‘अंत के दंश’ के कहानी को नरेटिव गहराई के साथ रचने की उनकी पहचानगत काबिलीयत को खूब सराहा गया जो पुनर्पाठ में और अधिक महक के साथ उभरती है. जीवन-स्थितियों को देखने का उनका मनोगत, भाषा की (गैर-चमत्कारिक) सघनता जो प्रवाह और वृतांत में दिलकश हो उठती है, नैतिक-अनैतिक के झगड़े से परहेज, कथा की अंतर्धारा में चलते चरित्रों के लोकेल को बुनते समानांतर प्रसंग और अंततः कथा को ऐसे मोड़ पर धमक से छोड़ देना जहाँ पाठकीय विवेक के लिए भी स्पेस बचा रहे…
इन सबका उनके व्यक्तित्व से मिलान किया जा सकता है.
प्रियंवद के अधिकांश चरित्रों की बुनावट बहुपर्तीय है, जिसकी छाया प्रियंवद में भी देखी जा सकती है. पात्रों की बहुपर्तीय बुनावट उन्हें दिलचस्प और यथार्थवादी बनती है वहीं लेखक को जटिल. अलबत्ता हमारे यहाँ ‘जटिल’ को ‘भोला भंडारी’ का विपरीतार्थी मान लिया जाता है. सरलता को बाजदफ़ा ‘इन्हें तो चाय भी बनानी नहीं आती’ के धरातल पर रिड्यूस करने की सहूलियत धर ली जाती है. इस संदर्भ में एक वाकया याद आता है. मित्रों के बीच एक बैठकी में एक जनाब ने फरमाया कि उन्होंने अपनी कोई जीवन बीमा पॉलिसी नहीं ली है.
“काहे को सालों-साल प्रीमियम भरना? मिलेगा तब जब आप मर जाओगे. बक.”
“लेकिन आपकी पत्नी-बच्चे हैं, उन्हें तो मिलेगा”
“मुझे तो नहीं मिलेगा ना?”
“पत्नी-बच्चे आपके नहीं हैं?”
“मरने के बाद कौन किसका बचता है?”
संवाद के इस पड़ाव पर आते ही बगल में चुपचाप बैठे प्रियंवद में हस्तक्षेप करते हुए उन सीधे सरल जनाब को, अपने स्वभाव के परे जाकर खूब लताड़ा.
“आपका अपने परिजनों के प्रति इतना ही दायित्व है? आपके बाद वे सड़क पर आ जाएं इससे आपको फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि आप तो चले गए… पत्नी जिसे आप विवाह करके लाए, बच्चे जो आपने पैदा किए, उनसे यही नाता है आपका… अजीब बात करते हो”.
पारिवारिकता- और उसके बीच अस्तित्व की आपसी नैतिकता- के प्रति आदर प्रियंवद में गहरे बसा है. वे स्वीकारते हैं कि वे भले अविवाहित हों लेकिन भाइयों, भाभियों, बहनों-भतीजों का उन्हें भरपूर संबल मिलता रहा है जिसके बूते उन्हें अपनी तरह लेखकीय जीवन जीने की स्वतंत्रता रही है. अलबत्ता यह देखना दिलचस्प है कि उनकी कहानियाँ उस सबसे परे व्यक्ति-केंद्रित रहती हैं. पारिवारिकता का एक विस्तार सामाजिकता के रूप में ‘संगमन’ के आयोजन में भी देखा जा सकता है. नाश्ते और खाने में किस दिन क्या मेन्यू रहे, वे स्थानीय आयोजक और हलवाई दोनों के साथ मिलकर इसकी तसल्ली करते हैं. रहने के लिए कौन-किसके साथ कमरा शेयर करे, इसके पीछे वे अपना अनुभव लगा देंगे. तीन सत्रों में किस लेखक-वक्ता को कहाँ रखें कि सत्र-संतुलन सधा रहे, इसपर वे अपना समय लगाते हैं. सत्र समय से शुरू हों इसे लेकर सख्ती भी बरत लेंगे. सत्र के दौरान बतौर श्रोता अपने को मंच से दूर किसी नामालूम कोने में जरूर धंसा लेंगे लेकिन निजी नैतिक जिम्मेवारी की तरह रहते बको-ध्यानम हैं… कोई सत्र कमजोर होने लगे तो किसी गुप्तचर की तरह दबे पांव उठकर सत्र-संचालक से खुसपुस मंथन करते मिलेंगे कि प्रस्तुति में तुरंत क्या फेर-बदल हो. जरूरत लगी तो अन्य सत्र के प्रस्तावित वक्ता से एडजस्ट करने का आग्रह कर लेंगे.
उनके पास चीजों की जमीनी स्तर पर समायोजित करने की अद्भुत नैसर्गिक क्षमता है जिसके लिए ‘सही काम के लिए उचित व्यक्ति’ की दुनियादारी वाली समझ जरूरी है. बमुश्किल दो-तीन मित्रों के साथ ही मैंने उन्हें अतिरेकी या तैशपूर्ण मुद्रा में देखा है. वह भी अरसा पहले. अब उनके भीतर-बाहर में एक संत-नुमा ठहराव आ गया है जो भीतर-बाहर की उमस से विचलित तो होता हो लेकिन शीघ्र ही उसके रचनात्मक रूपांतरण की खोज में, उसके चित्रण और निहितार्थ तलाशने में एकाग्र हो जाता है, जैसे किसी भी दौर के उस्ताद लेखक करते रहे.
पाँच) |
पिछले पांच-सात बरसों में प्रियंवद के लेखकीय व्यक्तित्व में दो आयाम गौरतलब लगते हैं. पहला, क्रमशः प्रखर होता उनका चिंतनपरक लेखन और दूसरा, कथा-कहानी को शिल्प के स्तर पर- अमूमन बजिद- अधिक दुरूह और जटिल बनाने की फितरत. दोनों तरह के लेखन में अपने समय, विशेषकर इन दिनों घिर आई राजनीतिक-सामाजिक कलुषता- जिसके कारण बुनियादी नागरीय गरिमा-स्वतंत्रता-समानता का चौतरफा हनन हुआ है- को लेकर होती बेचैनी और निरुपायता को स्पष्ट समझा जा सकता है. बहुलता, सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक समरसता और अहिंसा जैसे भारतीयता की अस्मिता में जड़े सदियों पुराने मूल्यों-संस्कारों- -जिन्हें लम्बे संघर्ष के बाद मिली आजादी के बाद अपनाए सुचिंतित लिखित संविधान का आधारभूत समर्थन रहा है- की इन दिनों, विशेषकर सन 2014 के बाद, जो धज्जियाँ उड़ रही हैं, उससे एक व्यक्ति और लेखक के रूप में वे उद्वेलित से रहते हैं. लेकिन अपने गुस्से और निरुपायता को अंतहीन बहस-मुबाहिसों से में जाया नहीं करते हैं. वह वही करने की प्रशांत तड़प लिए होते हैं जो एक लेखक का मूलभूत देय हैः मुकाबिल यथार्थ के मलबे को रचनात्मकता की चाक पर रखकर उसे कोई शक्ल देने की निजी आजमाइश करना. “एक लेखक की एनॉटमी” या “मृत सैनिकों के अन्तयेष्टि अनुष्ठान पर दी गयी वक्तृता” के पीछे इसी तड़प को देखा जा सकता है.
‘एनॉटमी’ में हालांकि उनकी यह अंदरूनी बेचैनी रचनात्मकता की अंधेरी गुफाओं में बेतरतीब चीख की तरह अनसुनी और अर्थ-संदिग्ध अधिक रहती है जो ‘वकतृता’ में इसके ठीक उलट होकर एक ‘अकहानी’ में स्खलित सी हो जाती है. दोनों किसी उलझन भरे निबंध की आत्मा में गश खाती चलती हैं जहाँ चमगादड़ों का शिकार बनने की इच्छुक कुंवारी लड़कियाँ… इंसानों की तरह मुसकुराती बकरियाँ, मरे गिद्धों की हड्डियों से बांसुरी बजाते गांव के लड़के, कब्रों से बाहर आकर नाचते प्रेत… जैसे बिम्ब अपनी अमूर्तता में लेखकीय मंतव्य के न जाने किस बीहड़ में तांडव करते मिलते हैं. हो सकता है, एक सच्चे लेखक की तरह उनकी बेचैनियों का स्रोत समय से होती लाचार भिड़ंत के साथ-साथ उनका अपना अंदरूनी भी हो जो अभी तक के रचे से- लाख दुनियावी अनुमोदनों के- कभी संतुष्ट और प्रसन्न नहीं रहता है… दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै…. अमूर्तन और दुरूहता के प्रति बढ़ता उनका गल्प (जिसकी ‘एक मृत्यु की प्रतीक्षा में सुनी गई सिम्फनी’ में शानदार बहाली हुई है) भीतरी-बाहरी उष्णताओं के अलावा जेम्स जॉयस के ‘यूलीसिस’ जैसी कृति रचने के तमाम विस्मयकारी अनुभवों के ताप से प्रेरणा ग्रहण करता लगता है (जो उसके जीवन और सोच के घमासान से निःसृत रहा), जो पूर्ववर्ती कृतियों की कलागत अपर्याप्तताओं के अलावा अपने समय के चेतनागत मल-मालिन्य से भिड़ंत करता है.
जॉयस को यदि एजरा पाउंड की मर्मभेदी नजर नहीं मिली होती तो उसके अनगढ़ विधान की परतें खुलने (एक सदी बाद जो पता नहीं कितनी खुली हैं?) या उस रूप में स्वीकारे जाने में पता नहीं और कितना वक्त लगता. लेकिन पाउंड यह भी तो मानते थे की महान कला वस्तुतः संप्रेषण के संघर्ष में ही निहित होती है. अमूर्तन को तो उन्होंने बीसवीं सदी में तपेदिक की तरह फैलने वाली बीमारी तक कहा था. जेम्स जॉयस (उदाहरणार्थ) की अनगढ़ता के प्रति आग्रहपूर्ण, कदाचित सम्मोहित आकर्षण के सन्दर्भ में ही मैं उनकी जटिलता को इंगित कर रहा हूँ.
लेकिन अपने चिंतनपरक लेखन में, उनके हालिया गल्प के विपरीत, प्रियंवद एक अलग मिजाज, शोध और चिंतन के श्रमसाध्य मेल से उसे जमीनी स्तर पर समझाइश में तान देते हैं. गल्प की तरह पाठक से बेपरवाह रहने का वहाँ कोई वीतराग नहीं; वहाँ अपनी सामयिक, सामासिक चिंताओं में उसे शामिल-संवेदित करने का अनुराग भरा होता है. वे निर्मल वर्मा की तरह विषय की तात्विक या आध्यात्मिक सीमाओं की पड़ताल करते हुए ऐसे सत्यों को खोजने के चेष्टा नहीं करते जो अभी तक किसी कोहरे से ढंके थे. इतिहास की खदान, राजनयिक दस्तावेजों, गुमनाम पत्राचारों और न्यायिक गलियारों से वे ऐसा चुनकर पेश करते हैं कि पाठक को मर्म और मानी समझने में जरा परेशानी न हो.
उनका घर और उसमें संचित किताबें किसी संग्रहालय (आर्काइव) से कम नहीं पड़ता है. अक्सर वे अपने प्रिय सहकर्मी- इतिहास- की मदद से अपने वर्तमान को समझते-समझाते हैं, जैसा ‘मेरी इच्छाएं मेरा तर्क हैं’ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ईसा से चार सौ बरस पूर्व सुकरात पर चले मुकदमे की तफसीलों के माध्यम से किया है या “रघुवीर सहाय का हरचरना” में संविधान को इस बाबत संरक्षित करने के सर्वोच्च न्यायालय के अहम फैसलों की सूक्ष्म सिलसिलेवार पड़ताल के जरिए किया है. समझाइश की यह पद्धति ‘मिथक और रचनात्मकता’ जैसे चुनौतीपूर्ण विषय पर दिए व्याख्यान में भी देखी जा सकती है और जो दूसरे निबंधों/संपादकीयों में भी उसी तरह दिखती है. अलक्षित या कम लक्षित चीजों को वृहत्तर पाठक तक संप्रेषित करने की यह वृत्ति उनकी दो लगभग अलक्षित पुस्तकों ‘पांच जीवनियों’ और ‘इकतारा बोले’ में भी देखी जा सकती है.
जीवन की सामान्यता के बीच असामान्य के जरिए उसे परखने की निगाह भी वस्तुतः उनके कथाकार का शुरुआती तत्व रहा है… भुनी हुई छिपकली का चूरा खाता मृत्युलेख लिखने में माहिर एक बूढ़ा… एक खत अपने ठिकाने पर चालीस बरस बाद पहुंचकर जीवन संचरित करने लगता है… एक अधेड़ औरत किसी छोटे पहाड़ी कस्बे में अपने अनुपस्थित प्रेमी का इंतजार की अठखेलियाँ बुनती है… एक मां अपने किशोर लड़के के समक्ष निर्वस्त्र हो जाती है… एक छोटा भाई अपनी पत्नी को बड़े भाई के साथ रतिरत देखता है. असामान्य चरित्रों- स्थितियाँ को कथा के बीचो-बीच रखने की यह प्रविधि कथा के मर्म को अलग विस्तार प्रदान करती है, वैसे ही जैसे मृत्यु की आंख से जीवन को देखना.
छह) |
चलते चलते:
प्रियंवद का किशोरों के लिए लिखा एक लघु उपन्यास है ‘नाचघर’. इसे केवल इसलिए भी पढ़ना चाहिए कि कमवय के पाठकों को समाज, इतिहास, परंपरा और जीवन के वैविध्य से सरल भाषा में कैसे कथारस में बांधा जा सकता है, इसका प्रमाण है यह. ‘सुबह’ के बारे में बालक मोहसिन द्वारा स्कूल प्रतियोगिता के लिए लिखे निबंध की एक संक्षिप्त बानगी देखें:
“…सुबह दो होती हैं. एक वह जिसमें रोशनी होती है… इसके बारे में हम सब जानते हैं. पर इस सुबह से पहले भी एक सुबह होती है… यह अंधेरा खत्म होने और रोशनी शुरू होने से पहले वाले बीच के समय में होती है. यह उषा या नसीम से थोड़ा पहले का समय होता है. असली सुबह यही होती है… जो जल्दी उठ जाते हैं, इस सुबह के बारे में सब जानते हैं… इस सुबह में सब चुपचाप आता है. बालियों में दाने पड़ते हैं… गाय के थनों में दूध आता है… इसके बाद दूसरी सुबह होती है. इस सुबह में सबसे ज्यादा प्रार्थनाएं होती हैं. इसमें बहुत सारे ईश्वर होते हैं, चमकते आसमान पर बादल के टुकड़े होते हैं. इस आसमान में शहर की सुबह भरी होती है. वह रोशनी के साथ धीरे-धीरे इसे बाहर फेंकता है…”
मुझे यह गद्यांश लेखकीय लोच की पराकाष्ठा सा लगता है… छोटे-छोटे सरल वाक्यों में एक बच्चे की उम्रगत सोच, उसके आसपास, उसकी कल्पनाशीलता के साथ विषय को पकड़े रहती कलम! जो लेखक महाशय श्रीमान प्रियंवद के जीवन के एक अंतर्सत्य को खोलता ऐसा क्षितिज भी है जहाँ कला और जीवन अवचेतन की हदों पर गुथे मिलते हैं.
असहमतियों और असमर्थताओं के बीचोबीच प्रियंवद को जानना हिन्दी साहित्य के एक आधुनिक जीवित उस्ताद को जानना रहा है.
‘निकट’ पत्रिका (संपादक: कृष्ण बिहारी) के शीघ्र प्रकाशित होने जा रहे अंक में भी इसे पढ़ा जा सकता है.
ओमा शर्मा ११ जनवरी १९६३ बुलन्दशहर (उ.प्र.) एम. ए., एम. फिल (अर्थशास्त्र) भविष्यदृष्टा’, ‘कारोबार’ और ‘दुश्मन मेमना’ कहानी संग्रह तथा स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा और उनकी कहानियों के हिन्दी अनुवाद आदि प्रकाशित. विजय वर्मा, इफको सम्मान, रमाकांत स्मृति कथा सम्मान, स्पंदन कथा सम्मान, शिवकुमार मिश्र स्मृति सम्मान आदि से सम्मानित. मुंबई में रहते हैं. |
ओमा शर्मा का यह लेख इधर के दिनों में पढ़ने को मिला एक बेहतरीन लेख है।बहुत पठनीय सर्जक मीमांसा । प्रियंवद जी को उन्होंने जिस गहरे लगाव, विवेक , सूक्ष्म अंतर्दृष्टि और विश्लेषणात्मक पैनेपन के साथ देखा है वह काबिले तारीफ है। इसमें प्रियंवद का अनूठा व्यक्तित्व और उनका सर्जक संसार एक दूसरे से अंतर ग्रंथित होकर उभरे हैं । प्रियंवद जी अपने अध्यवसाय और अपने सृजन कर्म में जिस एकांतिक भाव से रमे रहे हैं वह हमारे समय में एक विरल उदाहरण है। सोशल मीडिया के एक हद तक निरर्थक शोर शराबे और चहल पहल से सर्वथा निरपेक्ष रहकर अपनी एकांतिक संलग्नता में डूबे रहने का यह उदाहरण आज बहुत मायने रखता है। ओमा जी ने प्रियम्वद जी की रचना प्रक्रिया के विविध रंगों को बड़े दिलचस्प ढंग से प्रस्तुत किया है।
बहुत आभार विजय जी। आपकी सहृदयता मेरे जैसे बहुत लेखकों को समृद्ध करती है, संबल देती है।
प्रियंवद गहरे सरोकार के साथ अकार निकालते हैं. कोविड- समय में मैं उनके निकट पहुँचा… उन्होंने पूरी सह्दयता से काम दिया. कानपुर और दिल्ली के बीच पैकेट आते-जाते रहे. संगठन में भी गया, उनके अपेक्षा के अनुरूप काम नहीं किया… मुजफ़्फ़रपुर पहुँचने के साथ ही स्थानीय विद्वानों को देखकर मुझे खुशी नहीं हुई…. बाद में उन्हें बताया भी… वे समय की प्रतिकूलता के बावजूद जिस धैर्य के साथ अपने विचारों के साथ है, यह दुर्लभ है…. यह लेख पढ़कर उनके प्रति आदर का भाव और बढ़ जाता है…
ओमा शर्मा का यह आलेख प्रियंवद के व्यक्ति और लेखन के अंतर्संबंधों की सूक्ष्म और शानदार व्याख्या करता है। कल पंकज चतुर्वेदी के भाषासमृद्ध आलेख में जो रिक्तियां महसूस हुई थी, उसकी सार्थक भरपाई ओमा शर्मा को पढ़ते हुए हुई। भाषा यहां सिर्फ लिखने का माध्यम भर नहीं है, बल्कि प्रियंवद के लेखन और व्यक्तित्व की संशलिष्टताओं को उद्घाटित करने का एक आत्मीय रचना उपकरण बन जाती है। लेखक को बधाई और समालोचन को साधुवाद!
प्रियम्वद एक अपवित्र पेड़ की आर्तनाद जैसी चीख और उसकी घुटन को महसूस करते हुए पात्र के माध्यम से कहानी की दुनियां में प्रविष्ट हुए थे और देखते ही देखते खरगोश, बूढ़े का उत्सव और बोधवृक्ष जैसी कहानियों से मशहूरियत की पायदान पर कदम ब कदम बढ़ते चले गये.परछाईं नाच और धर्मक्षेत्र जैसे उपन्यासों ने भी कहानी की प्यास को बढ़ाया है.अकार के सम्पादक के नाते सलवटें ने पाठकों को एक जूझते हुए संसार से परिचित कराया है .वे पुरातत्व और इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं इस नाते उन्होंने देश के इतिहास को अपने लिखे में एक नयी शक्ल दी है. गिरिराज जी,प्रियम्वद जी और ओमा शर्मा वह एक त्रयी है जिसने अपने समय को बड़ी गहराई से न सिर्फ खंगाला है बल्कि सचमुच एक नयी शक्ल दी है..
आत्मीयता और निस्संगता के सहमेल से रचा गया संस्मरण। दरअसल संस्मरण में संस्मरण-नायक से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है लेखक की दृष्टि जो विषय और परिवेश को बुनने की प्रक्रिया में समय के सरोकारों को भी उजागर करती है।
प्रियंवद को पढ़ना समय की संश्लिष्ट परतों में छिपी विडंबनाओं और संभावनाओं को समझना है। वे पूरी बौद्धिक तैयारी के साथ कथा में पैठते हैं और संवेदनात्मक स्वप्नदर्शी विज़न के साथ रचनात्मक दिशाओं का संधान करते हैं।
ओमा जी का यह लेख इस वैचारिक जुगलबंदी को बेहद प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करता है।
प्रियंवद के व्यक्तित्व एवं रचनाओं की संश्लिष्टताओं को ओमाजी ने भावसंवेद्य अपनी गझिन किन्तु आत्मीय भाषा के माध्यमसे उनसे आत्मीयता स्थापित करने का काम किया है।
बहुत बढ़िया लेख है। ओमा जी ने प्रियंवद जी के व्यक्तित्व और कृतित्व उनके जुनून और जिद सामाजिकता और सरोकार हर पहलू पर बात की है। एकषलेखक पर एक लेखक के लिखने का यह उल्लेखनीय उदाहरण है।
ओमा जी का प्रियंवद जी पर लिखा यह आलेख इस समय में लगभग दुर्लभ की श्रेणी में आता है। परस्पर संबंधों की निजता का हनन न करते हुए भी वे प्रियंवद के व्यक्तित्व के कई आयामों का जिस वस्तुनिष्ठता व आत्मीयता से बखान करते हैं वह बहुत विश्वसनीय बन पड़ा है। उनके लेखकीय अनुशासन को जानना नए लेखकों के लिए कितना ज़रूरी है। असंभव नहीं कि यह आलेख पढ़कर और कई लोगों को अपने प्रिय लेखक के व्यक्तित्व से भी प्रेम हो जायेगा।
प्रियंवद जी व्यक्तित्व व कृतित्व पर समान अधिकार से अपनी बात रखता एक परिपूर्ण सा लेख ,जिसे समालोचन ने बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित भी किया है । शब्दों की जादूगरी व लेखकीय समझ ने भी लेख को बाँधे रखने में महती भूमिका निभाई इस बात के लिए ओमा जी को धन्यवाद ।
अच्छा आलेख है, प्रियंवद जी के वैयक्तिक पहलुओं और उनके सृजन के सहसंबंधों का रेखांकन महत्वपूर्ण है। पंकज जी ने भी सहजता से प्रियंवद जी की असाधारणता को लक्षित किया था।
प्रियंवद जी हमारे समय के एक बड़े शैलीकार हैं। उन्होंने कहानियों, इतिहास और चिंतन में नवोन्मेष किया है। यह सब समझने और विश्लेषित करने के लिए चुनौती तो है ही। उस दिशा में यह महत्वपूर्ण उपक्रम हैं।
ओमा जब लिखते हैं तो बड़े तरतीब और सलीके से। प्रियंवद अलग किस्म के संजीदा कथाकार हैं। उनके रचनाकार और व्यक्तित्व के बारे में पढ़ना रोचक भी है और सुखद भी।
लेख पढ़ कर एक साथ दो लेखकों के व्यक्तित्व की सघनता में उतरती गई. प्रियम्वद को समझना और बिटवीन द लाइन्स लेखक को समझने वाले को समझना दोनो साथ साथ चलता रहा. जादू की तरह परतें खुलती गईं. सम्मोहित सी पढ़ती चली गई. अन्त में लगा ओह! तो ये हैं प्रियम्वद.
ज़्यादा पढ़ा नहीं उनका लिखा. ‘ विभाजन की अंतःकथा’ पढ़ी थी बहुत पहले और कुछ कहानियां बस. इसलिए कह नहीं सकती बहुत कुछ. लेकिन हैरत होती है कि कोई किसी आत्मीय पर इतनी गहराई से पंक्ति दर पंक्ति साध कैसे लेता है. ओमा जी के अनुवाद की कायल हूं हमेशा ही. आज लेखन का लोहा भी मान गई. कई बार किसी लेखन पर हुआ लेखन उस लेखन को नए सिरे से समझा जाता है…
प्रियम्वद और ओमा जी को सलाम!
भाई,बधाई हो ..इस लेख को शानदार ढंग से एवं भीतर को झंकृत करनेवाली बारीकियों से तराशा गया है.. अमूर्तन का मूर्तन.. जैसे कोई हलकी सी बंदिश राग में परिवर्तित हो रही हो..अपना गहरा असर छोड़ जाती है.एक समकालीन लेखक पर दूसरे समकालीन लेखक द्वारा लिखे गए आलेखों में लंबे समय तक याद किया जाएगा. प्रवाही गद्य. पुनः साधुवाद.
ओमा जी, प्रियंवद के करीब जाने की आपने अच्छी प्रविधि अपनाई है। उनका व्यक्तित्व भी हमारे सामने उभर आता है, उनके लेखन संसार की, उनके लेखक की भीतरी बनावट की भी तस्वीर खिंच जाती है। बढ़िया।
आप सभी स्नेही, आदरणीय मित्रों का हृदय से आभार। मेरा श्रम सार्थक हुआ
क्या लाजवाब लिखा है, ओमा शर्मा ने. बेहद तरल और आत्मीय भाषा में उन्होंने बहुत गहराई में जाकर प्रियंवद के व्यक्तित्व, उनके चिंतन और लेखन को देखने की कोशिश की है, उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती. उन संस्मरणात्मक लेखों में भी नहीं जो यहाँ भी छपे बहुउद्धरण से भरपूर और मूल्यांकन-विश्लेषण से रहित.
प्रार्थना के शिल्प से सायास बचते हुए ओमा जी ने जिस प्रकार प्रियंवद के लेखन, व्यक्तित्व और इतिहासबोध पर कई जगह सूत्रात्मक तो बेशतर जगह विश्लेषणात्मक तरीके से बात की है, उसके कारण उनके लेख को पढ़ जाने के बाद इस तृप्ति का एहसास पाठकों को होता है कि उसने प्रियंवद जी को काफी कुछ जान लिया!
वाह क्या शानदार लिखा है ओमा भाई आपने, गद्य की रवानी में शामिल होता चला गया। प्रियंवद जी का व्यक्तित्व, अकार, संगमन, में उनकी भूमिका, गिरिराज किशोर के साथ साहचर्य, और प्रियंवद जी की रचनात्मक वैशिष्ट्य पर आपने तन्मयता से लिखा है । लिखते हुए ओमा जी ने एक स्तर पर स्वयं को भी रचा है । पढ़कर मजा आ गया । ख़ूब बधाई ☘️
समालोचन का यह लेख मैंने एक बैठक में पढ़ लिया, एक बैठक में पढ़े जाने लायक है ही। इसको तोड़कर पढ़ने से इसका रस उस तरह से नहीं मिल पाता जैसे मिला। प्रियंवद व्यक्ति को जानने के लिए यह लेख बहुत अच्छा है जिसे कुछ कुछ संस्मरण की तरह लिखा गया है।मैं प्रियंवद को उनकी कहानियों के माध्यम से जानता हूं, व्यक्ति रूप में नहीं जानता इसलिए मेरे लिए वह सारी बातें जो उनके व्यक्तित्व को परिभाषित करती हैं बिल्कुल नई थीं।
लेकिन मुझे लगता है कि एक संपादक इतिहासकार या संगमन के आयोजन होने से पहले प्रियंवद की हिंदी संसार में पहचान एक विशिष्ट कहानीकार के रूप में है।
मुझे इस लेख में जो एक चीज छूट गई या छोड़ दी गई लगी वह है उनकी कुछ ऐसी कहानियों की चर्चा जिससे हिंदी कथा जगत में प्रियंवद की पहचान बनी – होठों के नीले फूल, बूढ़े का उत्सव और पलंग जैसी कहानियाँ। गंभीर साहित्य की दुनिया में शायद इन कहानियों ने टैबू विषयों के साथ पहली बार दस्तक दी थी और जिनके पक्ष और विपक्ष में खूब कहा लिखा गया। प्रियंवद उन कहानियों से बहुत आगे निकल आए हैं लेकिन अब भी यह कहानियाँ उनका पीछा करती हैं।
यादवेन्द्र