संदेश रासक चंद्रभूषण |
हजार साल पहले लोग कैसे सोचते थे, उनके रिश्ते-नातों, रहन-सहन, मनोरंजन और आस्था की शक्ल क्या थी, यह जानने का कोई भरोसेमंद तरीका हमारे पास नहीं है. उत्सुकता अगर पीछा करे तो शरण लेने के लिए विवादों से घिरा एक ‘आधिकारिक’ इतिहास है. पत्थरों पर दर्ज चारण-भाट प्रशस्तियाँ, दरबारी रोजनामचों में मौजूद ब्यौरे, जहाँ-तहाँ मिल गए दस-बीस सिक्के, सदियों में घटने वाली धुंधली सी कुछ घटनाएँ, कुछेक लड़ाइयों की जीत-हार और बहुत विरले ही कोई ठोस सुराग दे पाने वाले महलों और धर्मस्थलों के अवशेष यहाँ सारी कहानी समझा देने के लिए काफी समझे जाते हैं. कुछ ज्ञानी-गुणी जन ऐसा भी मानते हैं कि जो भी है, वर्तमान में है या भविष्य में. अतीत की गलियोंं में भटकने का क्या फायदा? नतीजा यह कि सूचना और ज्ञान के हल्ले में पूर्वाग्रह ही सत्य बनते जाते हैं.
अब से एक हजार साल पुराने दौर को लेकर इस देश के मन में कुछ ऐसी गांठें पड़ गई हैं, जिन्हें सुलझाकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं. बमुश्किल सौ साल डाली गई इन गांठों को शाश्वत-सनातन मानना भी एक बड़ा विभ्रम है. मसलन, ‘आक्रमण और धर्मांतरण’ का कोई आख्यान पिछले हजार वर्षों में भारत के किसी भी महत्वपूर्ण ग्रंथ में नहीं मिलता. न श्रीमद्भागवत में, न तिब्बत में संजोई हुई शांतरक्षित और अतीश दीपंकर की किताबों में, न गुरु गोरखनाथ के स्फुट छंदों या उनके किसी दार्शनिक ग्रंथ में, न जयदेव और संत ज्ञानेश्वर के यहाँ, न ही कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, नानक, केशव या बिहारी की लिखाई में. फिर भी इस कहानी को जांचने की जरूरत हमें कभी महसूस नहीं हुई.
‘इस्लाम में यकीन रखने वाले हमलावर जत्थों के हमले से पहले भारत हिंदुओं का हँसता-खेलता देश था’- इस सरल स्कूली समझ पर जो भी चीजें खरी नहीं उतरतीं, इसपर सवाल खड़ा करती हैं, उन्हें खुले मन से पढ़ना पिछली कुछ पीढ़ियों के लिए भी आसान नहीं था, समय बीतने के साथ यह और मुश्किल होता जा रहा है. भारतीय सभ्यता सिर्फ वैदिक संस्कृति का जोड़-घटाव नहीं है. इस्लाम का नाम भी कोई जानता, उसके पहले से कई सांस्कृतिक धाराएँ यहाँ मौजूद थीं. उनमें सह-अस्तित्व था तो तीखी बहसें और जब-तब सालोंसाल खिंचती चली जाने वाली लड़ाइयाँ भी थीं. ऐसे पुराने और विशाल समाज को बिना विभेद वाली एक सुगठित सांस्कृतिक इकाई मानकर उसके एक हजार साल के इतिहास को सिर्फ विदेशी हमलों के जरिये पारिभाषित करना हमें अपनों को पराया और परायों को अपना खास समझने की ओर ले जाता है. यहाँ हम एक ऐसी चीज पर चर्चा करेंगे, जो इस ग़लती को आईना दिखाती है.
पिछली सदी की शुरुआत में संयोगवश हाथ लगी एक बहुत पुरानी किताब की नकल, फिर कुछ-कुछ सालों के फासले पर अलग-अलग जगहों से मिली उसकी तीन-चार और हस्तलिखित प्रतियाँ उत्तर भारत के सांस्कृतिक विकास को समझने के लिए पुरखों की धरोहर जैसी हैं. हिंदी की पूर्वज भाषा, कोई सात सौ साल पहले चलन से बाहर हुई ‘अपभ्रंश’ की यह श्रृंगारिक रचना ‘संदेश रासक’ लगभग एक सदी से अपने संभावित रचना समय को लेकर कुछ-कुछ इशारे करती रही है. समस्या यह है कि आधिकारिक इतिहास के साथ इन संकेतों की कोई संगति आज भी नहीं बन सकी है. इस रचना से जुड़े अर्थ भी कामचलाऊ स्तर पर ही स्थिर हो पाए हैं. बावजूद इसके, मेरी समझ कहती है कि इस किताब की लिखाई हजार साल पुरानी है और हमारी कुछ गांठें इससे सुलझ सकती हैं.
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दो महाविद्वानों और उनके एक-एक सुयोग्य शिष्यों द्वारा संपादित, तीस साल के फासले पर उनकी लंबी टिप्पणियों के साथ प्रकाशित ‘संदेश रासक’ के दो संस्करण अभी मेरे सामने मौजूद हैं. इनमें मुनि जिनविजय और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की प्रस्तावनाएँ पढ़कर आप भारत के अपने ‘दा विंची कोड’ से गुजरने का आनंद ले सकते हैं. साथ में अर्थ निर्धारण, ‘रास’ काव्य विधा और छंद विधान पर हरिवल्लभ भायाणी और विश्वनाथ त्रिपाठी के गहरे प्रेक्षण भी स्फुरण पैदा करने वाले हैं. लेकिन असल चीज है मूल पाठ और संभावित अर्थ के अलावा अलग-अलग पांडुलिपियों में मिले एक ही शब्द के कई सारे रूप, जो कदम-कदम पर अर्थों का एक जंगल-सा खड़ा कर देते हैं.
कलकत्ता और मुर्शिदाबाद में हुए एक जैन रईस परिवार द्वारा प्रायोजित ‘सिंघी-जैन सीरीज’ के तहत भारतीय विद्या भवन से प्रकाशित संस्करण द्विभाषिक है. अपभ्रंश पांडुलिपि और उसकी संस्कृत व्याख्या देवनागरी में है, जबकि संपादकों की कही हुई बातें अंग्रेजी में हैं. पुस्तक पर विमर्श का दायरा बढ़ाने के लिए अंग्रेजी में लिखित मुनि जी के ‘प्रिफेस’ पर 9 अगस्त 1945 की तारीख पड़ी है. दूसरी तरफ, आचार्य द्विवेदी ने राजकमल द्वारा प्रकाशित संस्करण की अपनी दोनों टिप्पणियों में कोई तिथि नहीं डाली है लेकिन किताब के प्रकाशक ने इसका प्रथम संस्करण अपने यहाँ से 1975 में आने की सूचना दी है. 1945 से 1975 तक तीस सालों में यह देश न केवल बंट गया बल्कि, भारत और पाकिस्तान के बीच हुए ढाई युद्धों ने सांस्कृतिक ‘स्व’ की समझ बदल दी. जाहिर है, ये तीस साल बहुत लंबे थे.
जिन किताबों की भाषा में सहज गति रखने वाला अब कोई नहीं बचा है, किसी तुक्के से उनका नष्ट होने से बचे रह जाना और किसी गुणी व्यक्ति के हाथ लग जाना इंसानी बुद्धि के सामने एक नई चुनौती पेश करता है. किताब की एक ही प्रति उपलब्ध हो तो अंदाजों-अटकलों से काम चलाया जा सकता है. लेकिन छापाखाना शुरू होने से पहले वाले दौर में नकलनवीसों द्वारा हाथ से ही उतारी गई उनकी एकाधिक प्रतियाँ मिल जाएँ तो मुश्किलें कम होने के बजाय और बढ़ जाती हैं. लिपि अबूझ होने की समस्या अलग है. सिंधु घाटी की लिखावटों को आज भी इससे जूझना पड़ रहा है. लेकिन किताब की लिपि पहचान में आ रही हो, उसे पढ़ा जा सकता हो, उसकी सामग्री की कुछ समझ भी बन जा रही हो, लेकिन बाद में मिली प्रतियाँ इस समझ को सिरे से खारिज कर दें, यह अलग स्तर का सिरदर्द है.
रामायण-महाभारत और धर्म के दायरे में आने वाले अन्य संस्कृत या पालि-प्राकृत ग्रंथों के साथ यह सुविधा थी कि ये किसी समुदाय की श्रुति-स्मृति में मौजूद थे. बात ज़ुबान पर होने के कारण नकल में भी उनका पाठ मूल से बहुत दूर नहीं जा सकता था. लेकिन श्रोताओं को सुनाने के लिए लिखी गई जो किताबें कहती-सुंती की याद से उतर गईं, उनकी एक प्रति में किसी शब्द के हिज्जे कुछ तो दूसरी में कुछ और मिलते हैं. यह उतारने वाले की ग़लती से भी हो सकता है, लेकिन शब्द का अर्थ तो उसकी वर्तनी के अनुसार ही लगाना पड़ता है. भाषा को समझने वाला आखिरी इंसान सदियों पहले विदा हो चुका है, सो व्याख्याकार अपनी मर्जी से एक को सही, दूसरे को ग़लत नहीं कह सकते.
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संदेश रासक की खोज मुनि जिनविजय जी ने 1912-13 में की थी, जब 24-25 साल की उम्र वाले युवकोचित उत्साह के साथ वे पाटण के जैन ग्रंथागार में पुरानी गुजराती (या पश्चिमी राजस्थानी) में लिखी सबसे पुरानी किताब की खोजबीन में जुटे थे. तभी हाथ से उतारी हुई एक ऐसी पांडुलिपि भी उनके हाथ लगी, जिसके लिखे जाने की तो क्या, उतारे जाने की भी कोई तिथि वहाँ दर्ज नहीं थी. जैन देवनागरी लिपि में मौजूद इस किताब में सिर्फ इतनी जानकारी थी कि इसे उतारने वाले व्यक्ति का नाम मुनि मानसागर है, जो उपाध्याय देवसागर के शिष्य थे और किन्हीं भट्टारक (नाम खुरचा हुआ) ने यह काम उनसे करवाया था. ये दोनों नाम जैन साधुओं में अक्सर मिल जाते हैं, लिहाजा इनका पीछा करके इस नकल का समय नहीं जाना जा सकता था. हाँ, पांडुलिपि की स्थिति को देखते हुए इसके दो-ढाई सौ साल पुरानी होने (‘विक्रमी संवत 1700 से 1750 के बीच तैयार किए जाने’) का अनुमान लगाया जा सकता था.
बताते चलें कि मुनि जिनविजय का जन्म सन 1888 ई. में उदयपुर के पास एक गांव में हुआ था और स्कूल में उनका नाम किशन सिंह परमार लिखाया गया था. युवावस्था में जैन धर्म के प्रति उनका आकर्षण बढ़ा और उन्होंने श्वेतांबर पंथ की दीक्षा ली. बाद में दीक्षित साधु का जीवन छोड़कर वे पूरी तरह शोधवृत्ति पर ही केंद्रित हो गए और जीवन का उत्तरार्ध अंतरराष्ट्रीय ख्याति वाले विद्वान के रूप में गुजारा. पाटण के जैन ग्रंथागार में उनका सामना जब संदेश रासक से हुआ तब इसपर वे इतनी ही राय बना पाए थे कि इसकी भाषा कुछ-कुछ पृथ्वीराज रासो से मिलती-जुलती है. पांडुलिपि में कोई टीका-टिप्पणी नहीं थी. और तो और, छंदों के बीच खाली जगह जरूर मौजूद थी लेकिन छंदों का क्रमांक तक नहीं डाला गया था. किताब में ठीक-ठीक लिखा क्या है, इसका कुछ सिर-पैर कैसे पकड़ में आता?
इस समय तक अपभ्रंश के व्याकरण में मुनिजी की गति नहीं थी. हालांकि 12वीं-13वीं सदी में हुए आचार्य हेमचंद्र द्वारा लिखित प्राकृत और अपभ्रंश का व्याकरण पढ़कर इसको सीखने की प्रक्रिया में वे थे, सो कुल 223 छंदों वाली इस रचना को बाद में पढ़ने के लिए उतारकर उन्होंने रख लिया था. इस पद्य-ग्रंथ का नाम भी पांडुलिपि में ‘संदेश रासक’ नहीं, ‘संनेहयरासय’ लिखा है और लिखने वाले ने अपना नाम इसके चौथे छंद में ही ‘अद्दहमाण’ बता रखा है.
पच्चाएसि पहूओ पुव्वपसिद्धो य मिच्छदेसो त्थि I
तह विसए संभूओ आरद्दो मीरसेणस्सII3II
तह तणओ कुलकमलो पाइय कव्वेसु गीयविसयेसु I
अद्दहमाण पसिद्धो संनेहयरासयं रइयंII4II
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बहरहाल, इस पांडुलिपि की खोज के छह साल बाद सन 1918 में पूना (पुणे) स्थित भंडारकर ओरिएँटल रिसर्च इंस्टीट्यूट के सरकारी पांडुलिपि संग्रह के जैन खंड पर काम करते हुए मुनि जी को संदेश रासक की एक और पांडुलिपि प्राप्त हुई. इसमें हर पन्ने पर मौजूद 12-13 पंक्तियों के ऊपर उसमें आए छंदों का संस्कृत छायानुवाद लिखा मिला. किताब की मूल पांडुलिपि की लिखावट बड़ी थी और छायानुवाद की छोटी. दोनों चीजें दो अलग-अलग व्यक्तियों की लिखी या पहले से मौजूद किसी स्रोत से उतारी हुई लग रही थीं. इस तरह पहली बार सदियों से बंद ताले की एक जंग लगी-सी चाभी हाथ लगी और सुपरिचित नामों समेत किताब के अर्थ भी कुछ-कुछ खुलने लगे.
यहीं पहली बार लेखक ‘अद्दहमाण’ के नाम को संस्कृत छायानुवाद में ‘अब्दल रहमान’ लिखा पाया गया. बाद में संस्कृत टीका के साथ इस किताब की जो एक और पूरी पांडुलिपि प्राप्त हुई, वहाँ भी टीका में लेखक का यही नाम मिला. ‘अद्दहमाण’ का ‘अब्दल रहमान’ अपभ्रंश को संस्कृत में बदलने के नियमों के अनुसार भी हुआ हो सकता है, और यह भी संभव है कि पहली टीका तैयार करने या कराने वाले व्यक्ति को लेखक के नाम की जानकारी रही हो. सच्चाई जो भी हो, किताब की दो पुरानी टीकाओं में लेखक का नाम ‘अब्दल रहमान, पुत्र मीरसेन’ दर्ज पाया गया.
पुणे पांडुलिपि के आखिरी पन्ने पर, जहाँ टिप्पणियों का सिलसिला खत्म हो रहा था, वहाँ दर्ज था- ‘इत्यवचूरिः. संदेश रासकं समाप्तं : पं. नयसमुद्रेण लिखितं’. इससे इतना ही पता चलता था कि किताब पर संस्कृत टिप्पणी (अवचूरिका) पं. नयसमुद्र द्वारा लिखी गई है. जैन साधुओं में यह नाम भी अक्सर मिल जाता है, लिहाजा लिखाई का समय जानने में इससे कोई मदद नहीं मिलने वाली थी. साथ में एक नया सवाल भी जुड़ गया कि किताब की पांडुलिपि पर मिली अवचूरिका को लिखने के साथ ही उसे उतारने का काम भी पं. नयसमुद्र का ही मान लिया जाए, या ऐसी कोई संभावना भी हो सकती है कि पं. नयसमुद्र ने यह अवचूरिका कहीं और लिखी हो, यहाँ उसे उतारा किसी और ने हो.
लिखना और उतारना, दोनों काम अलग-अलग व्यक्तियों के हैं, इस संदेह का आधार यह था कि अवचूरिका लिखने वाले कोई संस्कृत के ज्ञाता रहे होंगे, जबकि उतारने वाले ने जरूरी चीजों के अलावा दो छंदों का परिचय भी उतार डाला है. छंदशास्त्री नंदद्ध द्वारा दी गई रड्डा और पद्धड़ी छंद की परिभाषा यहाँ बिना किसी संदर्भ-प्रसंग के मौजूद है. किताब में कम से कम 22 तरह के छंदों का इस्तेमाल किया गया है. उनमें से सिर्फ दो के इस परिचय से ऐसा लगता है, किताब की पांडुलिपि और उसपर लिखी अवचूरिका किसी और ही रूप में थी, जिसपर किसी व्यक्ति ने अपनी जानकारी के लिए कुछ लिख रखा था. उतारने वाले ने नासमझी में सारी सामग्री ज्यों की त्यों उतार डाली.
मुनि जिनविजय का संपर्क इन्हीं दिनों अपभ्रंश रचनाओं, खासकर जैन ग्रंथों की समझ के मामले में मैक्समूलर जैसी ही कोटि के जर्मन विद्वान हरमन जैकोबी से चिट्ठी-पत्री के जरिये हुआ था. 1924 में मुनिजी अपनी जर्मनी यात्रा में उनके लिए संदेश रासक की एक प्रति भी ले गए, लेकिन अन्य व्यस्तताओं के चलते उनके वहाँ रहते इसपर कुछ कहने का मौका जैकोबी नहीं निकाल पाए. काफी बाद में, सन 1938 में मुनि जिनविजय इन दोनों पांडुलिपियों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर बनी अपनी समझ के साथ ही संदेश रासक को उसके संभावित अर्थ के साथ प्रकाशित करने की योजना बना चुके थे, लेकिन उसी समय उन्हें मारवाड़ की लोहावट नाम की जगह में आचार्य जिनहरिसागर के ज्ञानसंग्रह में संदेश रासक की एक और पांडुलिपि मौजूद होने की सूचना प्राप्त हुई.
पता चला, इस पांडुलिपि में छंदों के साथ छोटी संस्कृत व्याख्याएँ (‘टिप्पनक’) जोड़ने वाले व्यक्ति ने किताब के अंत में लयदार लेकिन त्रुटिपूर्ण संस्कृत पद्य में अपना परिचय एक जैन साधु के रूप में दिया है. इसके उतारे जाने का स्थान ‘हिसार दुर्ग’ दर्ज है और समय ‘आषाढ़, शुक्लपक्ष, दिन बुधवार’ लिखा है. जैन साधुओं में अपना कुल और वंश बताने का रिवाज नहीं है, फिर भी टिप्पणीकार ने स्वयं को रुद्रपल्लिय गच्छ (गुरु परंपरा) के देवेंद्रसूरि का शिष्य बताते हुए अपना नाम लक्ष्मीचंद्र, कुलनाम प्रग्वाट, पिता हालिग, माँ तिलखु और इस रचना से जुड़ा अपना काम पूरा होने का साल विक्रमी संवत 1465 (ईसवी सन 1408) लिख रखा है.
प्रग्वाट का अर्थ मुनि जिनविजय ने ‘बनियों की पोरवाड़ (पोरवाल) जाति’ बताया है. लक्ष्मीचंद्र की भाषा को लेकर मुनिजी का कहना है कि वे संस्कृत के अच्छे छात्र तो नहीं रहे होंगे, लेकिन उनकी कामकाजी संस्कृत व्याख्या ‘संदेश रासक’ को समझने में बहुत उपयोगी सिद्ध हुई.
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आधिकारिक इतिहास की नजर से देखें तो लक्ष्मीचंद्र की इस लिखाई का समय दिल्ली सल्तनत के तीसरे वंश, तुगलक वंश (1320-1413 ई.) की विदाई करीब होने का है. जाहिर है, इस पांडुलिपि के लेखन तक 88 साल चल चुका तुगलक राज आम लोगों की नजर में एक स्थायी व्यवस्था का रूप ले चुका होगा. टीकाकार लक्ष्मीचंद्र के अस्तित्व, इनके समय और इनके शेष परिचय को लेकर किसी दुविधा की गुंजाइश नहीं है, क्योंकि एक अन्य पुराने ग्रंथ ‘धर्माभ्युदयकाव्य’ की इनकी ही टिप्पणियों वाली एक पांडुलिपि ठीक इसी परिचय के साथ पाटण ग्रंथागार में मुनि जिनविजय जी ने ही खोजी थी. उस किताब के अंत में काम पूरा होने का साल 1440 विक्रमी संवत (ईसवी सन 1383) दर्ज है. इस तरह टिप्पनक वाले लक्ष्मीचंद्र लिखत-पढ़त की दुनिया में कोई बड़ा नाम भले न हों लेकिन उन्हें हम कबीर (जन्म-1398 ई.) से एक-दो पीढ़ी पुराना- उनके पिता और दादा के बीच की उम्र वाला मान सकते हैं.
टिप्पनक का अंत लक्ष्मीचंद्र ने इस अग्रिम सफाई के साथ किया है कि
‘इसके पहले न तो इस ग्रंथ पर कोई टिप्पणी देखी है, न सु-गुरु की देखरेख में इसकी पढ़ाई की है, न ही रचनाकार के मुँह से इसे सुना है. गाहड़ नाम के क्षत्रिय के मुँह से इस कविता की जो व्याख्या सुनी, उसे ही इस वार्ता (चरिका) के रूप में लिख दिया है. अनजाने में अगर इसमें कुछ अनुचित लिख दिया हो तो इसके लिए मुझे नहीं, गाहड़ को ही उत्तरदायी माना जाए.’
किसी संभावित ग़लती का जिम्मा गाहड़ नाम के इन सज्जन पर डालते हुए उनका नाम यहाँ दो बार लिया गया है, जैसे ग़लत व्याख्या के जुर्म में सरकारी कार्रवाई हो जाने का डर हो. लेकिन गाहड़ के बारे में कोई और जानकारी यहाँ मौजूद नहीं है.
‘वृत्तिर्नास्य दृशा व्यलोकि सुगुरोः पार्श्वे न चाभाणि च
नो कर्तुं मुखतस्त्विदं भुवि मया चाश्रावि शास्त्रं क्वचित्I
किंतु क्षत्रिय गाहडस्य मुखतो या या प्रवृत्तिः श्रुता
सा सा ह्यत्र मया विमूढ़मतिना वार्ता निबद्धा ननुII
यदन्यथा मया प्रोक्तो कश्चिदर्थस्तथा पदम् I
तदहं नैव जानामि तज्जानात्येव गाहडःII’
किताब के संपादन में यह तीसरी पांडुलिपि ही सबसे ज्यादा सहायक सिद्ध हुई, हालांकि अपनी प्रस्तावना में मुनि जिनविजय जी ने पुणे वाली पांडुलिपि को ‘ए’, मारवाड़ वाली को ‘बी’ और पाटण में सबसे पहले, अपनी ही पहल पर खोजी गई पांडुलिपि को ‘सी’ नाम दिया है. भायाणी जी की राय है कि ‘बी’ पांडुलिपि में दर्ज लक्ष्मीचंद्र का टिप्पनक ही असल चीज है, ‘ए’ पांडुलिपि वाली अवचूरिका उसी में मामूली जोड़-घटाव करके बना ली गई है.
इस प्रस्थापना को सही मानें तो ‘संदेश रासक’ पर उसकी निरंतरता में उपलब्ध सबसे पुरानी, ‘डेटेड’ टिप्पणी का समय 1408 ई. का निकलता है. टीकाकार लक्ष्मीचंद्र का कहना है कि किताब पर इससे पहले लिखी गई कोई और चीज उनकी नजर से नहीं गुजरी. किताब की समझ के लिए भी वह पूरी तरह ‘क्षत्रिय गाहड़’ पर निर्भर थे, यानी इसकी भाषा में उनकी ज्यादा गति नहीं थी. एक प्रसिद्ध किताब ज्यादा समय तक बिना टीका के नहीं रह सकती, लिहाजा लिपियों के विद्वान अगरचंद नाहटा की राय है कि संदेश रासक भौगोलिक रूप से ज्यादा दूर की लिखी हुई चीज हो सकती है लेकिन ‘टिप्पनक’ से ज्यादा पहले की रचना यह शायद न हो. फासला 50-60 साल का माना जाए तो इसे अमीर खुसरो के बाद की चीज कहना होगा. लेकिन किताब की भाषा हमें इस राय के साथ नहीं जाने देती.
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित संदेश रासक के संस्करण में जयपुर के दिगंबर-जैन भांडार से प्राप्त इसकी एक और पांडुलिपि का, साथ ही मुनि जिनविजय और हरिवल्लभ भायाणी द्वारा संपादित संदेश रासक की छपाई के समय ही बीकानेर से मिली, किताब के आधे से भी कम हिस्से वाली एक अत्यंत खंडित पांडुलिपि का, इसके अलावा उनके मित्र डॉ. रामसुरेश त्रिपाठी के संग्रह से मिले इसके एक पन्ने का अध्ययन भी शामिल है.
जयपुर पांडुलिपि में मौजूद टिप्पणियों से संदेश रासक के लेखक पर कोई रोशनी नहीं पड़ती. उसका नाम भी वहाँ दर्ज नहीं मिलता, क्योंकि लेखक परिचय वाले प्रथम पृष्ठ समेत दो पन्ने इसमें गायब हैं. अलबत्ता ये टिप्पणियाँ पुणे पांडुलिपि में मौजूद अवचूरिका से मिलती-जुलती हैं, लिहाजा द्विवेदी जी ने इनके संकलन को ‘अवचूरी’ नाम दिया. बीकानेर की खंडित पांडुलिपि में किताब की ‘वर्तिका’ जयपुर पांडुलिपि की टिप्पणियों की प्रतिलिपि जान पड़ती है और इसे लिखने वाले व्यक्ति का नाम ‘लब्धिसुंदर’ दर्ज है. जयपुर पांडुलिपि की टीका ‘अवचूरी’ के अंत में इसके लिखने का समय वैशाख शुक्ला चतुर्दशी, दिन रविवार, विक्रमी संवत 1608 (ईसवी 1551) बताया गया है. इतिहास में यह दौर बादशाह हुमायूं के साथ जुड़ा हुआ है, लेकिन उत्तर भारत में यह राजनीतिक अस्थिरता का समय है.
द्विवेदी जी का कहना है कि अवचूरी के पाठ और टीकाओं में फांक है. जिन शब्दों की व्याख्या की गई है वे किताब के पाठ में अलग तरह से लिखे गए हैं. इससे लगता है कि पाठ और टीका, दोनों अलग-अलग जगहों से उतारे गए हैं. पाठ एक किताब से और टिप्पणियाँ किसी और किताब से. फिर भी, पांडुलिपि में मौजूद पाठ्याँतर के चलते इस काव्यग्रंथ से जुड़ी कुछेक गुत्थियाँ सुलझाने में जयपुर पांडुलिपि से बहुत मदद मिली. एक शब्द ‘मणुजणंमि’ का अर्थ अवचूरिका में ‘मन में कुछ जानकर’ और टिप्पनक में ‘मनुष्य लोक में’ किया गया है. एक ही शब्द के इतने भिन्न अर्थों का कुछ सिर-पैर तभी समझ में आता है जब जयपुर पांडुलिपि में इसकी जगह एक अलग शब्द ‘मणुयजम्मि’ दिखाई पड़ता है. ‘मणुय’ यानी मनुष्य, ‘जम्मि’ यानी जन्म में. ऐसे में इसका अर्थ ‘मनुष्य लोक में’ लेना उचित है.
पांडुलिपियों के इस जंजाल को अगर सुलझाकर लिखना हो तो संदेश रासक की एक बुरी तरह खंडित, एक थोड़ी खंडित और तीन संपूर्ण पांडुलिपियाँ तथा एक अकेला पन्ना अभी तक प्राप्त हो सका है. लगभग पूरी पांडुलिपियों में एक दिगंबर जैन भांडार से मिली है जबकि तीन श्वेतांबर जैन ग्रंथागारों से प्राप्त हुई हैं. डॉ. रामसुरेश त्रिपाठी के पास संग्रहीत अकेला पन्ना उन्हें कहाँ से हासिल हुआ था, इस बारे में कोई सूचना आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी प्रस्तावना में नहीं दी है. लगभग पूर्ण पांडुलिपियों में से दो को- पुणे और लोहावट (मारवाड़) वाली को ही संस्कृत टीकासहित और संपूर्ण माना जा सकता है. जयपुर वाली पांडुलिपि वैसे तो पूरी है लेकिन उसमें शुरुआती दो पन्ने गायब हैं. टीका लिखने का का समय दो ही पांडुलिपियों में दर्ज मिला है. जयपुर वाली में 1551 ई. और लोहावट वाली में 1408 ईII कालक्रम में सबसे पहले प्राप्त हुई चौथी, यानी पाटण पांडुलिपि में कोई टीका मौजूद नहीं है.
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ऊपर उद्धृत किताब के तीसरे-चौथे छंदों में लेखक ने अपना परिचय दिया है. बाकी किताब की तुलना में इस छंद के शब्द अपेक्षाकृत लंबे हैं. अपभ्रंश के विद्वानों के लिए भी इनका अर्थ लगाना काफी कठिन है. ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने प्राकृत और अपभ्रंश का मुख्य अंतर यह बताया है कि संस्कृत व्याकरण का उपयोग करते हुए प्राकृत के शब्द भंडार और वाक्य रचना तक पहुंचा जा सकता है, लेकिन अपभ्रंश ज्यादा स्वायत्त है. उसके शब्दरूप इतने अलग होते हैं कि संस्कृत की सीढ़ी लगाकर उसतक पहुंचना प्रायः नहीं हो पाता.
यह एक विडंबना ही कही जाएगी कि अपभ्रंश रचना ‘संदेश रासक’ को समझने में पुराने टीकाकारों ने ही नहीं, बीसवीं सदी में इसका संपादन करने वाली दोनों विद्वान जोड़ियों ने भी इसका जरिया संस्कृत व्याकरण को ही बनाया है. आचार्य द्विवेदी इस काम में अक्सर मुनिजी से दो कदम आगे बढ़कर अपभ्रंश के शब्दकोशों और देशी नाम-माला के शब्द-संचयन का सहारा लेते हैं. लेकिन रचना को समझने में इससे भी कोई खास मदद नहीं मिलती.
कवि परिचय पर वापस लौटें तो ‘पच्चाएसि पहूओ पुव्वपसिद्धो य मिच्छदेसो त्थि’ का बाद वाले, यानी द्विवेदी-त्रिपाठी संस्करण के मुताबिक हिंदी में अर्थ यह हुआ- पश्चिम में प्राचीनकाल से अत्यंत प्रसिद्ध जो म्लेच्छ देश है. आगे, ‘तह विसए संभूओ आरद्दो मीरसेणस्स’- उसी प्रदेश में मीरसेण नामक आरद्द (तंतुवाय, जुलाहा) उत्पन्न हुआ. फिर, ‘तह तणओ कुलकमलो पाइय कव्वेसु गीयविसयेसु/ अद्दहमाण पसिद्धो संनेहयरासयं रइयं’- उसके पुत्र अद्दहमाण ने, जो अपने कुल का कमल और प्राकृत काव्य तथा गीत-विषय में सुप्रसिद्ध था, संदेश-रासक की रचना की. यह छंदार्थ किताब के पहले वाले, यानी जिनविजय-भायाणी वाले संस्करण में मौजूद संस्कृत व्याख्या के अनुवाद जैसा ही है.
कुछ समस्याएँ इस अर्थ के साथ शुरू से ही जुड़ी रही हैं, जिसपर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी प्रस्तावना में चर्चा की है. सबसे पहले तो ‘पच्चाएसि’ से ही समस्या है. पश्चात या पश्चिम के लिए यहाँ ‘पच्छा’ तो आ सकता है लेकिन ‘पच्चा’ और उससे बना पच्चाएसि संस्कृत और अपभ्रंश के रिश्तों को देखते हुए यहाँ अनुचित लगता है. ‘आरद्द’ के बारे में द्विवेदी जी का कहना है कि अपभ्रंश में यह शब्द संदेश रासक के तीसरे छंद के अलावा और कहीं मिलता ही नहीं.
पांडुलिपियों में इसका संस्कृत छायानुवाद तंतुवाय (जुलाहा) किया गया है, लेकिन आरद्द शब्द और कहीं दिखता ही नहीं, सो इसके अर्थ की पुष्टि कैसे हो? किताब में अद्दहमाण ने छंद 19 में अपनी रचना को ‘कोलिय पयासिउ’ यानी कोलिय-रचित कहा है- ‘पंडित्त पवित्थरणु मणुयजम्मि कोलिय पयासिउ/ कोऊहलि भासिअउ सरलभाइ संनेहरासउ.’ (पांडित्य को बढ़ाने वाले इस संदेशरासक की रचना मनुष्यलोक में कौलिक ने कौतूहलवश, सरल भाव से की है.)
यानी कवि के कोलिय, कोरी या जुलाहा होने में कोई संदेह नहीं है. लेकिन ‘आरद्द’ के बारे में द्विवेदी जी की राय है कि इस शब्द का अर्थ अगर जुलाहा हो तो भी इसका इस्तेमाल यहाँ ‘आरद्ध’ (आया हुआ) के साथ श्लेष पैदा करने के लिए किया गया हो सकता है. एक आलंकारिक युक्ति के रूप में श्लेष, यानी एक ही शब्द का बहुअर्थी उपयोग अद्दहमाण को बहुत पसंद है, और द्विवेदी जी ने यह बात कई उदाहरणों से साबित की है. आरद्द को ‘जुलाहा’ और ‘आया हुआ’, दोनों ही अर्थों में कवि इस्तेमाल करना चाहता है, इस संभावना के लिए दरवाजा खोले रखना चाहिए.
यहाँ अपनी तरफ से एक सवाल यह कि भारत भूमि पर कोई इलाका क्या कभी ‘म्लेच्छ देश’ के नाम से ‘पूर्व-प्रसिद्ध’ हुआ करता था? अगर हाँ, तो ऐसा कब था? किसी और ग्रंथ में भी इसका जिक्र मिलता है क्या? अपभ्रंश शब्द ‘मिच्छ’ का मामला आरद्द जैसा धुंधला नहीं है. इसका उपयोग अन्य जगहों पर भी ‘म्लेच्छ’ के लिए ही देखा गया है. यानी ‘मिच्छदेस’ के अर्थ निर्धारण में अटकल जैसी कोई बात नहीं है. पक्के तौर पर इसका मतलब म्लेच्छ देश ही है.
संदेश-रासक में आए इस शब्द को एक तरफ रख दें तो क्या किसी अन्य स्रोत से इस बात की पुष्टि संभव है कि भारत के जिस प्राचीन भूगोल की चर्चा हम करते नहीं अघाते, उसमें एक ‘म्लेच्छ देश’ भी हुआ करता था?
संस्कृत के एक विद्वान, जेएनयू के प्रो. रामनाथ झा से मैंने हाल में यह सवाल पूछा तो उन्होंने पतंजलि के महाभाष्य से एक श्लोक पढ़कर कहा कि वहाँ संस्कृत का ज्ञान इसलिए जरूरी बताया गया है, ताकि म्लेच्छ कहलाने से बचा जा सके. ‘म्लेच्छ देश’ को लेकर उनका अंदाजा था कि यह शब्द संभवतः सिंधु नदी के उस पार वाले क्षेत्र के लिए आता था.
पाकिस्तान के कुछ ‘धार्मिक-राष्ट्रवादी’ इतिहासकार अपने देश के विखंडन के बाद से अपनी नई राष्ट्रीय अस्मिता को मजबूती प्रदान करने के लिए ऐसा दावा करते आ रहे हैं कि 1947 में एक इस्लामी देश के रूप में पाकिस्तान का गठन सिर्फ एक औपचारिकता थी. उनका कहना है कि मौजूदा पाकिस्तानी भूक्षेत्र की एक अलग मुस्लिम पहचान पिछले हजार वर्षों से, बल्कि और भी पहले से बनी हुई है. अद्दहमाण का मिच्छदेस उनकी बात पर मोहर लगाता है.
प्राचीन काल से म्लेच्छ शब्द उत्तर-पश्चिम से आने वाले विदेशी, विधर्मी जनसमुदायों के लिए ही सुनाई पड़ता रहा है. किसी क्षेत्र विशेष से इसका जुड़ाव माना जाए तो भी उसे भारत के सांस्कृतिक दायरे के भीतर देखना मुश्किल है. महाभारत में अक्षु (ऑक्सस) नदी के पार रहने वाले मनु के पांचवें पुत्र अनु के वंशजों को वहाँ ‘आनव’ कहा गया है और उन्हें म्लेच्छ मानने की वजह उनकी अशुद्ध भाषा बताई गई है. उनके लिए और अफगानिस्तान के उत्तर में बसे अन्य मध्य एशियाई समुदायों के लिए ‘म्लेच्छ’ विशेषण आता रहा है. भारत की सांस्कृतिक सीमा में स्थित म्लेच्छ देश की गुत्थी को शायद इतिहासकारों का सिरदर्द मानकर दोनों विद्वान संपादक जोड़ियों ने इसपर ज्यादा सिर नहीं खपाया. विश्वनाथ त्रिपाठी भी एक पृष्ठ इसपर खर्च करके ‘म्लेच्छ’ के श्रेष्ठतर असीरियन अर्थ की तरफ मुड़ गए.
अलबत्ता द्विवेदी जी को यह बात कुछ ज्यादा ही अटपटी लगी होगी, तभी उन्होंने ‘आरद्द’ और ‘अद्दहमाण’ की तरह ही ‘मिच्छदेस’ की श्लेषात्मक व्याख्या ‘मिथ्या देशना’ और ‘पच्चाएसि’ शब्द की ‘प्रत्यादेशेन’ के रूप में की. ‘पश्चिम में मीरसेन नाम का जुलाहा हुआ, जिसके द्वारा पूर्व की मिथ्या धार्मिक समझ के परित्याग के कारण (बल्कि इसी के पुण्य-प्रताप से) उसके कुल-कमल के रूप में उत्पन्न हुए प्राकृत काव्य तथा गीत-विषय में सुप्रसिद्ध अद्दहमाण ने संदेश-रासक की रचना की.’ संस्कृत टीकाओं से इस व्याख्या का कोई मेल न था, सो यह प्रस्तावना तक ही रह गई.
६)
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टिप्पनक और अवचूरिका, दोनों जगह कवि के नाम अद्दहमाण का संस्कृत रूप ‘अब्दल रहमान’ ही लिखा गया है. कायदे से इसे ‘अब्दुल रहमान’ होना चाहिए, लेकिन अद्दहमाण को अपभ्रंश से संस्कृत में लाने पर यह अब्दल रहमान ही बनता है. कवि का मुसलमान होना किताब की शुरुआत में वंदना और अंत में आशीर्वाद में जाहिर हुई उसकी सर्वसत्तावान, अनादि-अनंत, निराकार ईश्वर की धारणा में भी व्यक्त होता है, लेकिन इस किताब की पहली संस्कृत टीका लिखवाने वाले व्यक्ति को अगर कवि का नाम पता रहा हो तो ये अटकलें गैरजरूरी हो जाती हैं.
वंदना के रूप में किताब के बिल्कुल शुरू में आए दो छंद नीचे प्रस्तुत हैं. थोड़ी देर बाद आपका सामना लेखकीय आशीर्वाद वाले संदेश रासक के अंतिम छंद से भी होगा. सहजबुद्धि से इनके अर्थ तक पहुंचने का प्रयास करें-
रमणायर धर गिरितरुवराइं गयणंगणंमि रिक्खाइं I
जेणsज्ज सयल सिरियं सो बुहयण वो सिवं देउII1II
माणुस्स दिव्व विज्जाहरेहिं णहमग्गि सूर ससिबिंबे I
आएहिं जो णमिज्जइ तं णयरे णमह कत्तारंII2II
(हे बुधजनो! जिसने आरंभ में समुद्र, पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष तथा आकाशरूपी आंगन में तारों को सिरजा वह तुम्हें कल्याण दे. हे नागरजनो! उस कर्तार को नमस्कार करो जो मनुष्यों, देवताओं, विद्याधरों और आकाशमार्गी सूर्य, चंद्रबिंबों तथा अन्य द्वारा नमस्कृत होता है.)
रही बात ईश्वर को कर्तार कहने, उसे चांद-सूरज और तारे बनाने वाला, इन सबकी प्रार्थना सुनने वाला बताने, या अनादि-अनंत कहकर उसकी वंदना करने की, तो इसमें ऐसा क्या है, जिसको कवि के धर्म से जोड़ा जा सके? पंद्रहवीं सदी ईसवी की शुरुआत में संस्कृत के टीकाकार लक्ष्मीचंद्र को कवि के मुस्लिम नाम से कोई समस्या नहीं हुई. इसपर एक भी वाक्य बर्बाद किए बिना वे आगे बढ़ गए. लेकिन बीसवीं सदी में बंटवारे की काल-रेखा के दोनों तरफ पड़ने वाले संपादकों को इसपर अलग से काफी कुछ कहना जरूरी लगा तो इसकी एक ठोस वजह है.
1930 का दशक आते-आते भारतीय इतिहास के पठन-पाठन में यह मान्यता रूढ़ हो चुकी थी कि 1000 ई. के बाद और खास तौर पर सन 1200 के बाद की कई सदियाँ गांधार से गुजरात तक उत्तर-पश्चिमी भारत पर धार्मिक दुराग्रहों से भरे विदेशी हमलों की, और उस प्रक्रिया में हुए धर्म परिवर्तन की थीं. ‘दो राष्ट्रों का सिद्धांत’ इतिहास की इस प्रस्थापना पर ही खड़ा था और और उसे सींचने वाले लोग हिंदू और मुसलमान, दोनों ही पक्षों में मौजूद थे.
ऐसे जहरीले दौर में अब्दुल रहमान जैसे मुस्लिम नाम वाले एक कवि की न जाने कितनी पुरानी एक ऐसी रचना सामने आ रही हो, जिसमें इस्लाम के सांस्कृतिक उपादानों की गंध तक न हो, यह बात संपादकों के गले आसानी से नहीं उतरी. मुनि जिनविजय जी ने हिंदू संस्कृति के सोते से रसपान के लिए ‘अब्दल रहमान’ का आभार व्यक्त किया है, जो यह कहने जैसा है कि उनकी अपनी चीज तो यह थी नहीं. लेकिन इस बारे में हम आगे थोड़ी और चर्चा करेंगे.
द्विवेदी जी ने अपनी प्रस्तावना में ‘अद्दहमाण’ पर बहुत सोचा है और इसे ‘अदहन’ की तरह खौलते, उबलते हुए कवि के ‘मान’ से जोड़ा है. मतलब यह कि ऊपर बताए गए कई उदाहरणों की तरह इसे भी एक श्लेषात्मक, द्विअर्थी शब्द की तरह लिया है. एक ऐसा शब्द जिसमें कवि का नाम तो जाहिर होता ही है, साथ में उसके मिजाज का भी पता चलता है. रही बात वंदना और आशीर्वचन में आई ‘अल्लाह’ नुमा ईश्वर की धारणा की तो हरिवल्लभ भायाणी का मानना है कि कवि का मुस्लिम नाम अगर ध्यान में न हो तो पाठक का दिमाग अपने से इस तरफ नहीं जाएगा.
७)
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रास, रासो या रासक के बारे में विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने अपनी भूमिका ‘रासक का विकास’ में बताया है कि यह एक प्रदर्शनकारी विधा थी, यानी नाच-गाने या नाटक दिखाने में इसका इस्तेमाल किया जाता रहा होगा. ‘संदेश रासक’ को नाटक के रूप में भले न खेला जाता रहा हो लेकिन आल्हा की तरह श्रोताओं के बीच में साज-बाज के साथ इसका गायन होता रहा होगा. लेखक ने कहा भी है कि इसे विद्वानों को न सुनाएँ क्योंकि उन्हें यह अपने स्तर की चीज नहीं लगेगी और बिल्कुल अपढ़ लोगों को भी न सुनाएँ क्योंकि वे इसे समझ नहीं पाएँगे. इसे तो मध्यम स्तर के लोगों को सुनाएँ, जो इसके काव्य सौंदर्य का आनंद ले सकेंगे और इसके प्रेम-विरह आदि भावों में गोता लगा सकेंगे.
कहानी जैसा इस किताब में कुछ खास नहीं है. तीन प्रक्रमों में यह बंटी हुई है. प्रक्रम के लिए कोई अपभ्रंश शब्द नहीं दिखता. लिहाजा कहना कठिन है कि खुद लेखक ने यह बंटवारा किया है, या टिप्पनक, अवचूरिका आदि लिखने वालों ने, या फिर आधुनिक संपादन में ही सुविधा की दृष्टि से यह विभाजन कर दिया गया है. पहला प्रक्रम 23 छंदों का है. वंदना, कवि परिचय और रचना के बारे में कुछ हल्की-फुल्की बातें, जिनका जिक्र ऊपर आ चुका है.
दूसरे प्रक्रम में कथा प्रवेश है. विजयनयर (विजयनगर) में एक विरहिणी स्त्री उड़ते हुए से चले जा रहे एक बटोही को घेरकर उससे उसकी मंजिल का पता पूछती है. वह खुद को एक खुशहाल शहर सामोरु (सांबपुर) का रहने वाला बताता है. कहता है कि मूलथाणु (मुल्तान) से अपने स्वामी का गोपनीय संदेश लेकर खंभाइत्ति (खंभात) जा रहा है. खंभात का जिक्र आते ही विरहिणी पर हालातबयानी का एक दौरा सा पड़ जाता है. बहुत दिन पहले घर से निकले और इसी शहर में रह रहे अपने पति के लिए उसको अपनी विरह-व्यथा का संदेश भेजना है. ‘वाणिज्ज’ का जिक्र उसके संदेश में कई बार आने से लगता है कि उसका ‘कंत’ साल भर पहले वहाँ व्यापार के सिलसिले में गया है.
बटोही ऐसा काव्य-योद्धा कि खुद आठ गाथाएँ मन ही मन बोलकर ऊपर से दो दोहे या तीन चउपइय कहता है, और विरहणी नायिका भी जिस-तिस हवाले से विविध अपभ्रंश छंदों का नाम लेते हुए उसे कभी तीन पद्धड़ी, पाँच घत्ता और दो मडिला तो कभी चार वत्थु, छह गाहा और तीन खणिज्ज कंत को जा सुनाने को बोलती है. वंदना करके, अपना परिचय देकर कवि किनारे हो जाता है. दोनों पात्रों की ओर से छंद-धाराएँ बहने लगती हैं. उनका संवाद इतना सरस है, बटोही से एक रात ठहर जाने का आग्रह इतना गहरा है कि लगता है, दोनों आपस में प्रेम न कर बैठें.
जसु पवसंत ण पवसिया मुइअ वियोइ ण जासु I
लज्जिज्जउ संदेसडउ दिंती पहिय पियासुII70II
(जिसके प्रवास करते समय मैंने भी प्रवास नहीं किया, जिसके वियोग में मरी नहीं, पथिक! उस प्रिय को संदेश देते हुए लज्जा आती है.)
या फिर-
गरुअउ परिहसु किन सहउ पइ पउरिसु निलएण I
जिहिं अंगिहिं तूं विलसयउ ते दद्धा विरहेणII77II
(हे पौरुष निलय, तुम्हारे रहते हए क्या मैं यह गुरुतर परिहास नहीं सह रही हूँ कि जिन अंगों के साथ तुमने विलास किया था उन्हें विरह ने जला डाला.)
और पथिक का रास्ते की जल्दबाजी दिखाने के बावजूद उसे अपनी बात पूरी कह लेने के लिए उकसाना-
तुरिय णियगमणु इच्छंतु तत्तक्खणे,
दोहया सुणवि साहेइ सुवियक्खणे I
कहसु अह अहिउ जं किंपि जंपिव्वअउ,
मग्गु अइदुग्गु मइ मुंधि जाइव्वअउII82II
(उसी क्षण अपने शीघ्र गमन की इच्छा करते हुए पथिक ने दोहों को सुनकर कहा कि हे सुविचक्षणे! अब और भी जो कुछ कहना है कह डालो. हे मुग्धे! मुझे जिस मार्ग से जाना है, वह अत्यंत दुर्गम है.)
कुल 104 छंदों का तीसरा प्रक्रम 223 छंदों की किताब में सबसे बड़ा है. इसका स्वरूप भारत की मध्ययुगीन कविता में अक्सर आने वाले ‘बारहमासा’ जैसा है. यह नाद सौंदर्य का अद्भुत नमूना है और कुछ छंद इतने सुघड़ हैं कि किसी खास मौसम और उससे जुड़े मिजाज से हमेशा के लिए चिपके रह सकते हैं. ग्रीष्म का एक वर्णन देखिए-
तह अणरइ रणरणउ असुहु असहंतियहँ,
दुस्सहु मलयसमीरणु मयणाकंतियहँ I
विसमझाल झलकंत जलंतिय तिव्वयर,
महियलि वणतिण दहण तवंतिंय तरणिकरII131II
जम जीहह जिम चंचलु णहयलु लहलहइ,
तडतडयडि धर तिडइ ण तेयह भरु सहइ I
अइउन्हउ बोमयल पहंजणु जं वहइ,
तं झंखरु विरहिणिहि अंगु फरिसिउ दहइII132II
(अन-रति का कष्ट और अ-सुख मैं सहन नहीं कर पाती थी. मुझ मदनाक्रांता के लिए मलय समीरण दुस्सह हो गया. झलझलाती हुई विषम ज्वाला से तीव्रतर जलती पृथ्वी पर तपती हुई सूर्य किरणें जंगल की घास को जलाती थीं. नभतल यम की चंचल जीभ की तरह लपलपाता था. तेज का भार न सह पाने के कारण धरा तड़-तड़ करके चिटक जाती थी. व्योमतल में जो अति उष्ण प्रभंजन बहता था वह अंधड़ विरहिणियों के अंगों को छूकर उन्हें जलाता था.)
विरह में पूरा साल बीता है, सो ग्रीष्म के बाद वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर और वसंत को भी बाहर से मनोरम होने के साथ-साथ भीतर से कष्टमय बताया गया है. इन सारे दुखों के गीत गाकर, पथिक को विदा कर विरहिणी वापस लौट रही होती है, तभी दक्षिण दिशा में ‘रास्ते से ढका’ उसका पति आता दिखाई देता है और कवि के आशीर्वाद के साथ, किस्सा कहने-सुनने वालों की मंगलकामना के साथ, अनादि-अनंत का जयघोष करते हुए किताब खत्म होती है.
तं पडुंजिवि चलिय दीहच्छि,
अइतुरिय इत्थंतरिय दिसि दक्खिण तिणिजाम दरसिय I
आसन्न पहावरिउ दिट्ठु णाहु तिणि झत्ति हरसिय,
जेम अचिंतिउ कज्जु तस सिद्धु खणद्धि महंतु I
तेम पठंत सुणंतयह जयउ अणाइ अणंतुII 223II
(उसे भेजकर वह दीर्घाक्षी अतिवेग पूर्वक चली. इसी बीच उसने दक्षिण दिशा की ओर ज्यों ही देखा, उसे मार्ग से ढका हुआ (मोड़ से निकलता हुआ) पति दिखाई पड़ा. वह तुरंत हर्षित हो गई. जिस प्रकार आधे क्षण में उसके कार्य की अचिंतित महती सिद्धि हुई, उसी प्रकार पढ़ने-सुनने वालों के भी कार्य सिद्ध हों. अनादि अनंत की जय हो.)
इनमें आखिरी बात बिल्कुल वैसी ही है, जैसी हम बचपन में किस्सा खत्म होने पर अपने बड़ों से सुना करते थे- ‘जैसे उनका राजपाट लौटा, वैसे ही कहती-सुंती का लौटे.’ कुल चार लगभग पूर्ण पांडुलिपियों में से एक में (सबसे पहले मिली पाटण भंडार की पांडुलिपि में) ‘जयउ अणाइ-अणंतु’ की जगह ‘जयउ अणाइतु अंतु’ आया हुआ है. इसमें ‘अणाइतु’ से ‘अनागत’ का तात्पर्य लेकर ‘वक्ता और श्रोता को अनागत अंत अर्थात कयामत के दिन जीत हासिल हो’, ऐसा अर्थ लगाया गया है और कवि के नाम के अनुरूप इसे इस्लामी मिजाज की मंगलकामना बताया गया है.
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भारत के मध्यकालीन इतिहास के कुछ उलझे सवालों की कुंजियाँ संदेश रासक में आए चार शहरों के नामों में झलकती हैं, जिनके नाम ऊपर गिनाए जा चुके हैं. विजयनगर, सामोरु, मुल्तान और खंभात. इन शहरों के वर्णन में सबसे बड़ा कमाल संदेशवाहक के अपने शहर सामोरु से जुड़ा है, जिसकी इस किस्से में कोई भूमिका भी नहीं है.
सामोरु की तारीफ में बटोही के मुँह से बोलते हुए कवि अब्दल रहमान ने अपनी कलम तोड़ डाली है- ‘णयर णामु सामोरु सरोरुहदल नयणि, णायरजण संपुन्नु हरिस ससिहर वयणि.’ छंद संख्या 42 से 64 तक कुल 22 छंद, किताब की कुल छंद संख्या का दस फीसदी हिस्सा इस काम के लिए ही समर्पित कर दिया गया है. अफसोस कि इस शहर के बारे में कोई भी जानकारी दोनों संपादित संस्करणों में नहीं जुटाई जा सकी है. अपभ्रंश से संस्कृत में रूपांतरण के नियमों के अनुसार सामोरु के आगे कोष्ठक में ‘सांबपुर’ जरूर लिख दिया गया है, लेकिन खंभात, मुल्तान और जैसलमेर के विक्रमपुर के बरक्स यह शहर कहाँ हो सकता है, इस बारे में कोई अनुमान भी नहीं लगाया गया है.
किताब में वापस लौटें तो बकौल संदेशवाहक, सामोरु की संस्कृति ऐसी है कि वहाँ कहीं प्राकृत के छंद सुनाई देते हैं, कहीं वेदों की व्याख्या होती रहती है, कहीं नट रामायण का अभिनय करते हैं तो कहीं नलचरित और महाभारत की कथाएँ पढ़ी जा रही होती हैं. समृद्ध जन वहाँ ऐसी नर्तकियों का नृत्य देखने जाते हैं, जिनके बारे में यह संदेह बना रहता है कि ऊपर और नीचे इतना चंचल भार अवस्थित होने के बावजूद ततैये जैसी इनकी पतली कमर लचक कर टूट क्यों नहीं जा रही है! सौ से ज्यादा तो बटोही ने अपने गृहनगर में मौजूद वृक्ष-जातियों के नाम गिना दिए हैं, वह भी छंदों की ताल-मात्रा चूके बगैर. इस मनमोहक शहर सामोरु की थोड़ी खोजबीन यहाँ हम भी करेंगे, लेकिन बाद में.
विरहिणी के निवास-स्थल विजयनगर की तारीफ करने का कोई मौका किताब में नहीं आया है लेकिन मुनि जिनविजय ने इस शहर को विक्रमपुर का समतुल्य मानते हुए अपने समय की ताकतवर रियासत जैसलमेर का कोई मरुस्थलीय कस्बा बताया है. मूलथाणु यानी मुल्तान में बटोही संदेशवाहक ‘तपन’ नाम के महातीर्थ का का जिक्र करता है, वहाँ के सूर्यमंदिर और सूर्यकुंड का हवाला देता है और नगर की समृद्धि और संस्कृति की महिमा संक्षेप में ही गाता है. खंभात का वर्णन वह एक व्यस्त कारोबारी जगह और महिमावान तीर्थ क्षेत्र, दोनों ही रूपों में करता है, हालांकि विरहिणी को धीरज बंधाने के क्रम में सिर्फ उसके पति के काम का महत्व, परदेस में उसके टिके रहने का लाभ बताने के लिए. सामोरु की तरह इन दोनों समृद्ध नगरों की तारीफ में अपनी कल्पना के घोड़े वह नहीं दौड़ाता.
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इस रचना की व्याख्या के साथ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि इसमें इस्लाम धर्म या अरबी-फारसी संस्कृति से जुड़े किसी भी तत्व की सक्रिय उपस्थिति तो क्या उसकी कोई छाया तक नहीं है. ठीक है, इसकी शुरुआती वंदना में सर्वशक्तिमान कर्तार का जिक्र आया है और अंतिम आशीर्वाद में अनादि-अनंत का जैकारा लगा है, जो इस्लाम में ईश्वर की धारणा के बहुत करीब है. लेकिन ऐसा मानना अतिरेक होगा कि भारत की किसी गैर-इस्लामी सांस्कृतिक धारा में इसकी गुंजाइश ही नहीं हो सकती. लेखक गैर-मुस्लिम हो तो भी, मुस्लिम है तो और भी, मुल्तान में या सुदूर पश्चिमोत्तर भारत के किसी भी शहर में सांस्कृतिक परिवेश के नाम पर उसे केवल वेद, रामायण, महाभारत और नलचरित ही सुनाई पड़ें, अजान की आवाज या फारसी किस्सागोई की कहीं गंध तक न मिले, ऐसा कब रहा होगा?
खंभात की समृद्धि भी ऐसी किस समय में रही होगी, जब मुल्तान जैसी दूरवर्ती जगह से उसका अच्छा व्यापार रहा हो और बीच का कठिन रेगिस्तानी रास्ता पार करके कारोबारी और कारिंदे हमेशा इधर-उधर आते-जाते रहे हों? ग्रंथ के दोनों विद्वान मुख्य संपादकों मुनि जिनविजय और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी में इस बात को लेकर अलग-अलग राय है. मुनि जी किताब की भाषा के आधार पर कवि अब्दुल रहमान का समय मोहम्मद गोरी के हमले से थोड़ा पहले का मानते हैं, लेकिन ज्यादा पहले का नहीं. उनका कहना है कि सन 1175 ई. में मुल्तान पर मोहम्मद गोरी के हमले के बाद यह शहर फिर कभी अपने पुराने रूप में नहीं लौटा और संस्कृति तो इसकी बिल्कुल ही बदल गई.
ऐसे में अब्दुल रहमान का मुल्तान वर्णन 1175 ई. के पहले का ही होना चाहिए, क्योंकि इसके बाद के मुल्तान का हिंदू संस्कृति और सुख-शांति-समृद्धि वाला कोई ब्योरा देना संभव ही नहीं है. अपने दौर में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के सोमनाथ-केंद्रित बहुश्रुत विमर्श के बावजूद मुनि जिनविजय ने महमूद गजनवी का नाम भी यहाँ नहीं लिया है. उनकी बात का अर्थ यह निकलता है कि इस विशाल भूभाग पर मोहम्मद गोरी से पहले का कोई हमला इसका कुछ नहीं बिगाड़ पाया. मुल्तान और खंभात, दोनों जगह बड़ा बिगाड़ कुछ हुआ तो गोरी के हमले के बाद ही हुआ.
इसके पहले चार बार- 997 में, 1005 में, 1010 में और अंतिम रूप से 1025 ई. में- मुल्तान पर महमूद गजनवी के भीषण हमलों से इस शहर की व्यापारिक समृद्धि और सांस्कृतिक निरंतरता पर कुछ खास असर नहीं पड़ा. यूं कहें कि बाढ़ या भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा की तरह इन्हें भी झेलकर मुल्तान शहर अपनी राह पर लौट आया था. और पीछे जाएँ तो आठवीं सदी ईसवी से यहाँ जमे अरबी मूल के मुस्लिम वंशों के शासन ने भी इस पुराने बौद्ध-हिंदू व्यापारिक केंद्र पर मजहबी पाटा फेरने और यहाँ की जमी-जमाई लय बिगाड़ देने जैसा कोई काम नहीं किया था.
मुनिजी आगे कहते हैं कि कवि और वैयाकरण हेमचंद्र सूरि (1088-1172 ई.) ने प्राकृत और अपभ्रंश का जो व्याकरण (‘काव्यानुशासन’) लिखा है, उसमें अपभ्रंश की दो धाराएँ- शास्त्रीय और ग्राम्य बताई हैं. ग्राम्य अपभ्रंश को उन्होंने भाषा के विकास की तरह चिह्नित किया है. आगे मुनिजी बताते हैं कि उस दौर की जो भी किताबें खोजी जा सकी हैं, वे सभी शास्त्रीय अपभ्रंश में हैं. ग्राम्य अपभ्रंश में लिखी हुई अकेली पांडुलिपि संदेश रासक की ही मिली है.
खंभात के बारे में मुनि जिनविजय इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि इस बंदरगाह शहर की समृद्धि का उत्कर्ष चालुक्यवंशी राजाओं सिद्धराज (शासनकाल 1092-1143 ई.) और कुमारपाल (शासनकाल 1143-1172 ई.) के 80 साल लंबे समय में हुआ था और इस दौर में ही गुजरात की उत्तरी सीमा सिंधु नदी के किनारे तक पहुंची थी. ऐसे में दो समृद्ध शहरों मुल्तान और खंभात के बीच व्यापारिक आवाजाही स्वाभाविक है. इस ऐतिहासिक तथ्य और किताब की ग्राम्य अपभ्रंश भाषा के आधार पर संदेश रासक के रचना समय को वे हेमचंद्र के आसपास का ही बताते हैं.
उनकी बात आगे बढ़ाते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी विभक्ति और क्रियारूपों में इस किताब की भाषा को शास्त्रीय अपभ्रंश से दूर बताते हैं. लेकिन आचार्य द्विवेदी ने इस मामले में भाषाशास्त्र और इतिहास की राह छोड़कर संदेश रासक में अपभ्रंश के दो महाकवियों चउमुह और सेसा (जैन रामायण ‘पउम चरिय’ के लेखक स्वयंभू का उपनाम) तथा स्वयंभू-पुत्र तिहुयण (त्रिभुवन) के जिक्र पर गौर किया है. ग्रंथ के साथ मिली पुरानी टीकाओं में और मुनि जिनविजय के यहाँ भी इन शब्दों को कवि-नाम के बजाय इनके रूढ़ अर्थों ‘ब्रह्मा’, ‘शेषनाग’ और ‘त्रिलोक’ से ही जोड़ा गया है.
द्विवेदी जी का कहना है कि अद्दहमाण ने त्रिभुअन के लिए दिट्ठ (देखा है) जबकि सेसा (स्वयंभू) के लिए सुअ (सुना हुआ) शब्द आजमाया है. इस आधार पर वे अद्दहमाण के त्रिभुवन का समकालीन होने यानी 11वीं सदी ईसवी के पूर्वार्ध में (मुनिजी के अनुमान से पचास या सौ साल पहले) सक्रिय होने का प्रस्ताव रखते हैं. राहुल सांकृत्यायन ने भी अपनी रचना ‘हिंदी काव्य-धारा’ में अद्दहमाण का समय 11वीं सदी ईसवी का पूर्वार्ध ही, यानी अभी के समय को ध्यान में रखें तो अब से ठीक एक हजार साल पीछे का बताया है. इस नतीजे तक वे अद्दहमाण की भाषा और उनके काव्य-बिंबों का पीछा करते हुए पहुंचे हैं. आगे से पीछे जाने वाली मुनि जिनविजय की खोजी पद्धति के विपरीत राहुल सांकृत्यायन का तरीका पीछे से आगे आने का रहा है. दोनों तरीकों की अपनी ताकत है, लेकिन खुद को द्विवेदी जी और राहुल जी के निष्कर्ष के साथ रखते हुए आगे हम एक अलग कोण से इसपर थोड़ी और चर्चा करेंगे.
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संदेश रासक में एक और दिलचस्प बात कापालिकों के जिक्र जुड़ी है. किताब में कुछ हिंदू तीर्थों के अलावा किसी धार्मिक पंथ को लेकर कोई बातचीत नहीं की गई है, लेकिन कापालिकों का उल्लेख दो बार आया है. छंद संख्या 86 पूरी तरह कापालिकों से जुड़े रोजमर्रा के प्रतीकों पर आधारित है और विरह का चित्र उन्हीं के जरिये खींचा गया है.
तुय समरंत समाहि मोहु बिसमट्ठियउ
तहि खणि खुवइ कवालु न वामकरट्ठियउ I
सिज्जासणउ न मिल्हउ खण खट्टंग लय
कावालिय कावालिणि तुय विरहेण कियII
‘हे कापालिक, तुम्हारे विरह ने विरहिणी को कापालिनी बना दिया है. तुम्हारा स्मरण करती हुई मैं मोह की विषम समाधि में स्थित रहती हूं. जैसे कापालिक के हाथ में हमेशा कपाल रहता है, वैसे ही मेरे बाएँ हाथ से कभी मेरा सिर नहीं छूटता. कापालिक क्षण भर के लिए अपना सिद्धासन और खट्वांग नहीं छोड़ता, उसी प्रकार मैं भी अपना शय्यासन और खटिया का पावा नहीं छोड़ती (अर्थात हमेशा खाट पर एक किनारे पड़ी रहती हूं).’
फिर काफी बाद में, छंद 183 में शरद वर्णन के क्रम में एक बार फिर कापालिक का जिक्र इस तरह उठता है, जैसे विरहिणी खंभात में रह रहे अपने पति की कल्पना इस त्यागी-विरागी रूप में ही कर रही हो-
कि तहि देसि णहु फुरइ जुन्ह णिसि णिम्मल चंदह
अह कलरउ न कुणंति हंस फल सेवि रविंदह I
अह पायउ णहु पढ़इ कोइ सुललिय पुण राइण
अह पंचमु णहु कुणइ कोइ कावालिय भाइण I
महमहइ अहव पच्चूसि णहु ओससित्तु घण कुसुमभरु
अह मुणिउ पहिय अणरसिउ पिउ सरइ समइ जु नII
(क्या उस देश में रात्रि में निर्मल चंद्रमा की ज्योत्स्ना नहीं स्फुरित होती या कमल के फलों (कमलगट्टा) का सेवन करके हंस कलरव नहीं करते, या कोई राग से सुललित प्रकृत नहीं पढ़ता, या कोई उस कापालिक के सामने भावपूर्वक पंचम नहीं छेड़ता, या प्रत्यूष बेला में ओससिक्त घनकुसुमभार नहीं महकता? या पथिक! मैं यह मान लूं कि प्रिय अरसिक हो गया है, जो वह शरद काल में भी घर का स्मरण नहीं करता है.)
एक अर्से से भारत के काव्य जगत में कापालिकों को भय और जुगुप्सा से ही देखा जाता रहा है. श्मशान में डेरा डालने वाले. त्रिशूल पर खोपड़ी टांगे, खोपड़ी में ही भिक्षा का भोजन करने वाले. पशुबलि के अलावा जब-तब नरबलि को भी सिद्धि-प्राप्ति का जरिया बना लेने वाले. भवभूति के चर्चित नाटक ‘मालती-माधव’ में आए कापालिक अघोरघंट और कापालिनी कपाल कुंडला से लेकर माधवाचार्य की रचना ‘श्रीशंकर दिग्विजय’ में अपनी बातों से उन्हें श्रीपर्वत क्षेत्र में आत्मघात के बहुत करीब पहुंचा देने वाले कापालिक आचार्य तक, यूं कहें कि 8वीं से 14वीं सदी ईसवी तक यह प्रस्थापना, बिना किसी दुविधा या आंतरिक द्वंद्व के, एक ही तरह से आती दिखती है.
‘संदेश रासक’ के जितनी इज्जत से, इतने वांछनीय ढंग से तो नहीं, फिर भी कुछ सम्मानित ढंग से एक कापालिक युगल का जिक्र इस पंथ से जुड़े ग्रंथों के अलावा साहित्यिक संदर्भ में कहीं और सुनने को मिलता है तो वह है 11वीं सदी ईसवी में ही चंदेल शासक कीर्तिवर्मन के समवर्ती कृष्ण मिश्र का रूपकीय नाटक ‘प्रबोध चंद्रोदय’. शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास ‘नीला चांद’ में ये कृष्ण मिश्र शराब के लिए कहीं भी लग जाने वाले एक बुद्धिजीवी के रूप में आते हैं. प्रबोध चंद्रोदय में एक कापालिक युगल को बहस में उलझे बौद्ध और जैन भिक्षुओं को असल विराग समझाते और दोनों को उनके दार्शनिक मतों से दूर करके अपने विशिष्ट शैव मत में लाते दिखाया गया है. संदेश रासक के उलट यहाँ कापालिकों का जिक्र वैचारिक है. प्रेम जैसे बुनियादी मानवीय रिश्ते से उनका कुछ लेना-देना नहीं है.
यहाँ रेखांकित करना जरूरी है कि बाहर की सारी भयावहता के बावजूद कापालिक पंथ में शैवों के अलावा बौद्धों की भी भागीदारी थी. कृष्णपाद या कान्हपा, जिन्हें बौद्ध धर्म के वज्रयान पंथ और नाथपंथ, दोनों में बराबर की इज्जत हासिल है, दावे के साथ खुद को कापालिक घोषित करते हैं- ‘आलो डोंबि तोए सम करिबो मो साङ्ग, निघिन काह्ण कापालि जोइ लाङ्ग.’ कान्हपा का समय दसवीं सदी ईसवी का माना जाता है और पूर्वी अपभ्रंश में लिखित, काठमांडू से प्राप्त प्रतिष्ठित वज्रयानी प्रार्थना पुस्तक ‘चर्यापद’ में सबसे ज्यादा पद उन्हीं के हैं. गुरु गोरखनाथ के यहाँ भी ‘चेत मछंदर’ प्रकरण में कान्हपा का जिक्र बड़े दिलचस्प ढंग से आता है. होड़ जताते हुए, पर अवमानना के साथ नहीं.
हिंदी साहित्य के इतिहास की आलोचनात्मक समझ में वज्रयानियों और कापालिकों के प्रति नकारात्मकता भरी पड़ी है, लेकिन संदेश रासक में वैरागियों के एक ललित रूपक की तरह कापालिकों की उपस्थिति यह संकेत देती है कि उनके समय की काव्य-छवि और उनकी जन-छवि में एक फासला है. इससे यह भी पता चलता है कि 10वीं सदी ईसवी में पूर्वी भारत को छोड़कर शेष भारत की मुख्यधारा से बौद्धों की विदाई और 11वीं सदी बीतने के साथ नाथपंथी योगियों द्वारा उनकी जगह लेने के बीच एक दौर ऐसा था, जब कापालिकों के प्रति लोग सहज हो गए थे.
मृत्यु से जुड़े प्रतीक पहली नजर में कहीं भी लोगों को बेचैन कर देते हैं, लेकिन इनके अर्थ कभी-कभी बहुत अलग होते हैं, और वे समय के साथ लोगों के बीच स्वीकार्य भी हो जाते हैं. मेक्सिको में खोपड़ी की शक्ल वाली आइसक्रीम देखकर शायद ही कोई अंदाजा लगा सके कि यह प्रतीक वहाँ 1821 से 1910 तक जमीन के लिए संघर्ष करने वाले किसानों पर वहाँ की सरकार और सामंती शक्तियों द्वारा किए गए अमानुषिक दमन और प्रतिरोध से पैदा हुआ है.
बौद्ध कापालिकों के लिए खोपड़ी अनित्यता, विराग और बोध का प्रतीक थी. श्मशान में निवास करना बौद्ध भिक्षुओं के लिए ही नहीं, स्वयं बुद्ध के लिए भी एक आम बात थी. शैव कापालिकों में इसके पीछे विनाश में निर्माण, विराग में राग वाला वही भाव था जो अभी छन्नूलाल मिश्र के उस चर्चित बनारसी फाग में जाहिर होता है- ‘खेलैं मसाने में होरी दिगंबर, खेलैं मसाने में होरी.’ वेदमार्गी इसे अशौच मानते थे, लेकिन डरने-डराने से इसका कोई लेना-देना नहीं था.
बहरहाल, गृहस्थों के लिए यह प्रतीक बहुत सहज कभी नहीं रहा होगा और सूफिज्म तथा भक्ति के जोर पकड़ने के साथ ही यह त्याज्य होता गया. महमूद गजनवी के पीछे-पीछे भारत की खोज-यात्रा पर निकले अरब खोजी अलबरूनी के यहाँ कापालिकों का जिक्र मिलता है. उसके सौ साल बाद उभरी सूफियों की धारा में जहाँ-तहाँ योगियों के संदर्भ जरूर मिलते हैं लेकिन कापालिक उनके यहाँ इस तरह गायब हैं, जैसे वे भारत में कभी थे ही नहीं.
भारत के हिंदी इलाके में भक्ति आंदोलन से बने नए संदर्भों को छोड़ दें तो एक तरफ गांधार, पंजाब और सिंध तक और दूसरी तरफ नेपाल, असम, बंगाल तक उत्तर-मध्य भारत के दोनों सांस्कृतिक छोरों पर बारहवीं से पंद्रहवीं सदी तक नाथपंथी योगियों का बोलबाला रहा. इन इलाकों में सूफी इस्लाम से उनकी एक तरह की संगति भी बनी रही.
यह सिलसिला देर तक चला. अफगानिस्तान में गोरख के गीत गाने वाले मुस्लिम जोगियों का जिक्र हजारीप्रसाद द्विवेदी की 1942 में छपी किताब ‘नाथ संप्रदाय’ में विस्तार से आया है जबकि सिंध में नाथपंथियों के गाए गाने आज भी यूट्यूब पर छाए रहते हैं. सूफिज्म का रचाव सबसे ज्यादा पंजाबी संस्कृति में दिखता है, लेकिन वारिसशाह की अमर रचना ‘हीर-रांझा’ में जट्ट नायक रांझे को नायिका हीर के वियोग में योगी होता ही दिखाया गया है- ‘रांझा जोगी हो गया.’ और यह कोई शौकिया जोगीपना नहीं है. बाकायदा कान फाड़कर मुद्रा धारण की गई है. ‘पाइयाँ मुंदरां ते कन लाइए चीर, हीरे नी रांझा जोगी हो गया.’
नाथपंथ से जुड़े एक प्रसिद्ध चरित्र राजकुमार पूरनमल, या पूरन भगत का जिक्र हाल में दिवंगत हुए पंजाबी कवि सुरजीत पातर की एक मशहूर ग़ज़ल में भी बहुत सुंदर ढंग से आया है- ‘कते नूर नूं कते नार नूं कते बादशा दी कटार नूं, जाईं दूर ना मेरे पूरना तेरी हर किसे नूं उड़ीक है.’
संदेश रासक के विरह वर्णन में दो बार कापालिकों की बात आने से ऐसा लगता है कि भारत के पश्चिमी क्षेत्र की संस्कृति में नाथपंथी जोगियों का जोर बढ़ने से पहले यह विशाल जगह कापालिकों ने ही घेर रखी थी. लोगों के मन में निजी संपत्ति की मारामारी से दूर, विराग वाली जगह सबसे पहले यहाँ के बौद्ध भिक्षु भरते थे, फिर थोड़े समय तक वज्रयानी साधुओं और कापालिकों ने भरी, फिर कई सदियों तक योगी इसे भरते रहे. पश्चिमी भारत के सूफिज्म की सांस्कृतिक भव्यता और रचनात्मकता का शायद यही मुख्य कारण है. हीर-रांझा, सोहनी-माहीवाल, मिर्जा-साहिबां जैसी रचनाएँ राग-विराग की जिस अद्भुत केमिस्ट्री से निकलती हैं, उसका बीज रूप संदेश रासक में भी दिखता है.
बहरहाल, विशेष बात यह कि नाथपंथियों ने ईसा की 11वीं सदी बीतते न बीतते कापालिकों को खुद में पूरी तरह से समेट लिया था. ‘श्रीशंकर दिग्विजय’ का शंकराचार्य-कापालिक संवाद नाथ-साहित्य में कुछ और ही ढंग से आता है. वहाँ कापालिक आचार्य शंकर को वाकई शिरोच्छेद तक ले जाता है और इस क्रम में जीवन और मृत्यु का अंतर मिटाकर उन्हें जीव और ब्रह्म के अद्वैत का वास्तविक अर्थ समझा देता है. नाथपंथ और कापालिक मत का एक-दूसरे के साथ और समय के साथ यह रिश्ता संदेश रासक के काल निर्धारण में भी सहायक सिद्ध हो सकता है.
इस तरह कि योगियों का जिक्र अगर वहाँ बिल्कुल नहीं आता और कापालिकों का दो बार आता है तो इस रचना में मौजूद समाज 11वीं सदी के पूर्वार्ध का ही हो सकता है. रही बात मुल्तान में इस्लामी संस्कृति की मौजूदगी और हिंदू संस्कृति के साथ उसका कोई टकराव न होने की, तो इस बारे में कुछ दिलचस्प सूचनाओं पर हम आगे बात करेंगे.
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सिक्खों का सबसे प्रतिष्ठित धर्मग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ साहब’, जो दसवें गुरु, गोविंद सिंह के हुकुम से इस धार्मिक समुदाय के लिए एक जीवित गुरु की भूमिका निभाता है, बारहवीं से सोलहवीं सदी तक के मध्यकालीन भक्ति काव्य की एक प्रामाणिक एँथोलॉजी भी है. इसमें संग्रहीत कुल 15 भगतों की बानियाँ दस गुरुओं के वचनों जितनी ही महत्वपूर्ण मानी जाती हैं. इन भगतों में दो सबसे पुराने नाम बाबा फरीद (1173-1266 ई.) और सधन कसाई (1180 ई.-अनिश्चित) के हैं. दोनों के नाम पर बनी दरगाहें और मस्जिदें आज भी मौजूद हैं और उनके मुसलमान होने में कोई शक नहीं है. लेकिन दोनों की आस्था-परंपरा एक-दूसरे से बहुत अलग है और इतिहास-भूगोल में आपस की बहुत करीबी होने के बावजूद दोनों के बीच किसी परस्पर संवाद या आस्थागत विमर्श की कोई सूचना कहीं नहीं है.
हमारे ‘संदेश रासक’ की व्याख्या से इन दोनों भगतों की कहानी दो बिंदुओं पर जुड़ती है. एक तो दोनों का संबंध दक्षिणी पंजाब के शहर मुल्तान और वहाँ से लगभग चार सौ मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित सिंध के शहर सेहवण शरीफ (पास का बड़ा शहर हैदराबाद) से है. दोनों जगहें मोटे तौर पर संदेश रासक में वर्णित भूक्षेत्र में ही आती हैं. दूसरे, दोनों संतों का शुरुआती समय उस दौर से जुड़ा है, जिसे मुनि जिनविजय ने मोहम्मद गोरी के हमले (1175 ई.) और मुल्तान की पारंपरिक संस्कृति तथा समृद्धि की स्थायी बर्बादी वाला बताया है. इस दौर की कुछ-कुछ गूंज हमें दोनों ‘भगतों’ की कविता में सुनाई पड़ सकती है, जो संदेश रासक के विपरीत आज भी गुम होने से बची हुई है.
बाबा फरीद का जन्म मुल्तान से दस किलोमीटर दूर कोठेवाल नाम की जगह में हुआ था और उनका बचपन गोरी सल्तनत में बीता बताया जाता है. युवावस्था में प्रवेश के साथ उनकी मुलाकात बगदाद से दिल्ली जा रहे सूफी संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी से हुई और वे उनके चिश्तिया सूफी सिलसिले का हिस्सा बन गए. इस वाकये में यह सूचना भी छिपी है कि मुल्तान की स्थिति उस समय एशिया के कुछ बहुत खास रास्तों के चौराहे जैसी थी.
बाबा फरीद ने भारत में सूफी मत का ठेठ देसीकरण कर दिया. उनके काव्य में कोई अलग धार्मिक रंग खोजना असंभव है और उठते-बैठते उनका कोई न कोई दोहा हर पंजाबी की जुबान पर होता है, चाहे वह हिंदू हो, मुसलमान हो या सिक्ख हो- ‘बिरहा बिरहा आखिए बिरहा हूं सुल्तान, जा तन बिरह न ऊपजै ता तन जान मसान.’ (विरह-विरह कहते हो, विरह सभी भावों का राजा है. जिस शरीर में विरह नहीं उपजता, उसे श्मशान समझना चाहिए.) या फिर, ‘रोटी मेरी काठ दी लावां मेरी भुक्ख, जीना खांदी चोपड़ी घणे सहेंगे दुक्ख.’ (मेरी रोटी काठ की है लेकिन मेरी भूख जला देने के लिए वह काफी है. जो हमेशा चिकनी-चुपड़ी ही खाते हैं उन्हें बहुत दुख सहने होंगे.)
सधन कसाई को हम सधना कसाई और सधना भगत के नाम से भी जानते हैं. नाम से ही जाहिर है कि उनका काम जानवर काटकर उसका मांस बेचने का था. गुरु ग्रंथ साहब में उनका एक पद संकलित है और भक्ति की सगुण और निर्गुण, दोनों ही धाराओं में उनकी कविता तो उतनी नहीं लेकिन उनका नाम खूब चलता है. मेहनत और ईमानदारी से अपनी रोजी कमाने वाला एक भक्त, जिसका ईश्वर से निस्संग लगाव उसको मुक्ति तक ले गया.
कबीरपंथी कथाओं में उन्हें कबीर का शिष्य कहने का रिवाज है, हालांकि उनका समय कबीर से दो सदी पहले का स्थिर किया जा चुका है. वैष्णव धारा में सधन कसाई को शालिग्राम का उपासक कहा जाता है. एक किस्सा सुनाई पड़ता है कि एक वैष्णव संत उनके यहाँ मांस तौलने वाले बाट के रूप में पड़े शालिग्राम को उठाकर अपने साथ ले गए, लेकिन सपने में स्वयं विष्णु ने अपनी बेचैनी का इजहार करते हुए उनसे शालिग्राम को फिर से उसी सधना कसाई के पास छोड़ आने को कहा. दूसरा किस्सा उनके द्वारा किसी भी पत्थर की पूजा के विरोध का भी चलता है.
पंजाब के सरहिंद कस्बे में उनके नाम पर एक मस्जिद बहुत पहले से बनी हुई है. उनकी वैष्णव आस्था को लेकर कोई ब्यौरा खोजना फिलहाल बहुत मुश्किल है. दावे के साथ हम इतना ही कह सकते हैं कि सभी उन्हें अपना मानते थे. एक सुंदर दोहा उनके नाम से जोधपुर प्राचीन संस्थान के ‘भगत बानी संग्रह’ में दर्ज है- ‘प्रीतम तुमरे दरस को हमरे नैन अधीन, तड़फ तड़फ जिउ देत है जिउं बिछरे जल मीन.’ और गुरु ग्रंथ साहब में संकलित उनके अकेले सबद की आखिरी पंक्तियाँ हैं- ‘मैंहो करमी तुम मेटना औगुन सब मेरा, कूरा कपटी रामजी सधना जन तेरा.’
बहरहाल, यहाँ दोनों भगतों के जिक्र का एक अलग उद्देश्य भी है, और वह यह कि मुल्तान और सेहवण शरीफ, दोनों ही इनके जन्म के थोड़ा पहले तक जिस शासन के तहत आते थे, उसे इतिहास में सूमरो, सुम्रा, सुम्रः या सूमरा जाति के राज के रूप में याद किया जाता है. इस जाति के ही किसी वंश का शासन मुल्तान में था, जो 1175 ई. में मोहम्मद गोरी के हमले के बाद सदा के लिए जाता रहा, लेकिन सेहवण शरीफ में यह बच गया और सधना भगत के परिचय में इसका जिक्र ‘सूमरो राज’ के रूप में ही मिलता है. सूमरों की चर्चा सिर्फ एक जगह, अबुल हसन अली के फारसी रोजनामचे ‘दीवान-ए-फर्रूही’ में मिली है, जो एक विलुप्त ग्रंथ है, पर उसके उद्धरण हर जगह छाए रहते हैं.
ऐसे ही एक उद्धरण में बताया गया है कि सन 1025 ई. में सिंध पर महमूद गजनवी के आखिरी हमले में वहाँ का अरब इस्माइली राजवंश समाप्त हो गया और स्थानीय सूमरों ने सत्ता पर कब्जा करके इसका पूरी तरह सिंधीकरण कर दिया. अलग-अलग वर्तनी के साथ मिलने वाले इस जातिनाम से बहुतेरी कहानियाँ जुड़ी हैं. कहीं इन्हें अरबों और सिंधियों की मिश्रित नस्ल कहा जाता है, कहीं जाट, कहीं सोढा राजपूत तो कहीं परमार राजपूत. पचास से ज्यादा समुदाय अभी इनसे अपना जुड़ाव बताते हैं. लेकिन समझ यही है कि यह जातिप्रथा से बाहर का कोई कबीला था और सिंध में लंबे अरब-इस्माइली शासन के दौरान इसने इस्माइली मिजाज का ही शिया धर्म अपना लिया था.
सबसे बड़ी बात यह कि सिंध-मुल्तान की इस शासक जाति की जीवन पद्धति में अपने इस्लाम-पूर्व हिंदू-बौद्ध अतीत को लेकर पूरा सम्मान मौजूद था और इन धर्मों के रीति-रिवाज और धर्मस्थल इनके राज में पूरी तरह सुरक्षित थे. 1175 ई. में मोहम्मद गोरी के मुल्तान पर हमले के पीछे असल वजह लाहौर में गजनवी वंश की जड़ें खोदने का बहाना तैयार करने की थी, लेकिन हिंदूकुश के उस पार से भारत पर अपने पहले हमले पर निकलने से पहले इसका मकसद उसने मुल्तान जैसे ‘दारुल इस्लाम’ में काबिज हो चुके ‘कुफ्र’ का खात्मा करने का ही घोषित किया था.
यहाँ पहुंचकर आप संदेश रासक में बटोही संदेशवाहक द्वारा किए गए अपने गृहनगर सामोरु के कलमतोड़ वर्णन को एक बार फिर से याद करें. क्या सामोरु का सूमरो, सूमरा, सुम्रा या सुम्रः से अक्षर और ध्वनि का कोई साम्य दिखता है? खासकर इस बात को ध्यान में रखते हुए कि अबुल हसन अली का फारसी रोजनामचा बहुत पहले लुप्त हो चुका है और उससे निकले उद्धरणों में जिस जातिनाम का जिक्र बार-बार आता है, उसकी मात्राएँ स्थिर नहीं हैं?
संदेश रासक पर काम करने वाले साहित्यिक समालोचक सामोरु नाम के शहर का कोई सिर-पैर नहीं खोज पाए हैं और इतिहासकारों के लिए यह कभी एजेंडे पर ही नहीं रहा. यह भी हकीकत है कि सिंध और दक्षिणी पंजाब का पर्यावरण संतुलन टिकाऊ नहीं है. शहरों के बनने-बिगड़ने और छोटे-बड़े होते रहने का वहाँ एक इतिहास रहा है. क्षेत्र की पारिस्थितिकी इतनी भंगुर है कि महमूद गजनवी के हमले के तीन सौ साल बाद भारत आए इब्नबतूता ने थट्टा से मुल्तान तक के जंगलों में गैंडे घूमते देखे थे. अभी तो गैंडे वहाँ सिर्फ तस्वीरों में ही मिल सकते हैं. दरअसल, गैंडे जितनी नम जलवायु के जानवर हैं, अभी सिंधु के समूचे डेल्टा क्षेत्र में उसकी कल्पना करना भी कठिन है.
ऐसे में मेरा एक प्रस्ताव है कि स, म और र, तीन अक्षरों से बनने वाले शहर ‘सामोरु’ और मोहम्मद गोरी के निशाने पर रहे सिंधु के डेल्टा क्षेत्र के जनसमुदाय (सूमरो, सूमरा, सुम्रा या सुम्रः) के नामों को जोड़कर इसको खोजने का प्रयास किया जाए. यह सही है कि एक कवि की कल्पना पर कोई सीमा आयद नहीं की जा सकती, लेकिन उसके बाकी स्थान-नाम अगर वास्तविक हैं- मुल्तान, खंभात और विजयनगर- तो सिर्फ एक को, वह भी कहानी के कुल दो मुख्य चरित्रों में से एक के बहुप्रशंसित गृहनगर को ‘सांबपुर’ जैसा काल्पनिक नाम देने का कोई तुक नहीं बनता.
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इस चर्चा को साहित्यिक संदर्भों तक सीमित नहीं रखा जा सकता, और यह कोई प्रसन्नता की बात नहीं है. हमारी चर्चा यहाँ से आगे बढ़कर उस चिंता तक पहुंचती है, जिससे इस निबंध की शुरुआत हुई थी. बात एक हजार साल पहले की है, लिहाजा प्याज के बहुत सारे छिलके उधड़ेंगे. सदियों लंबी गुमनामी के बाद ‘संदेश रासक’ को नए सिरे से दुनिया का उजाला दिखाने वाले, बड़ी रगड़ से एक हद तक इसका अर्थ खोलने वाले और इसके चौगिर्द बड़े विमर्शों की गुंजाइश बनाने वाले मुनि जिनविजय अपने ‘प्रिफेस’ के पृष्ठ 13-14 पर इस किताब के लेखक अद्दहमाण को दो संस्कृतियों की संधि पर खड़ा व्यक्ति बताने वाला यह निष्कर्ष निकालते हैं (अंग्रेजी से अनुवाद मेरा)-
‘कवि अब्दल रहमान भारत के पश्चिमी हिस्से में पड़ने वाली किसी जगह के रहने वाले हैं और धर्म-संस्कृति में वे हिंदुओं से अलग हैं. ऐसे में जो भाषा उन्होंने रासक में इस्तेमाल की है वह संभवतः जन्म से तो उन्हें नहीं प्राप्त हुई होगी. उनकी मातृभाषा और रोजमर्रा की बातचीत का माध्यम निश्चित रूप से अलग रहा होगा. ऐसे में इस भाषा पर अधिकार उन्होंने हिंदू संस्कृति वाले किसी स्थान (संभवतः मुल्तान) से ही हासिल किया होगा. उनके कहे से ही हमें यह जानकारी मिलती है कि संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में उनकी अच्छी गति थी. प्राकृत में उन्होंने महारत हासिल की थी, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी के रासक में मिलता है. इस किताब में उन्होंने कुछ अच्छी प्राकृत गाथाएँ दी हैं और अपना परिचय देते हुए स्पष्ट शब्दों में बताया है कि प्राकृत कविता और प्राकृत गीतों में (देखें, किताब का छंद 4) उन्होंने गौर करने लायक प्रतिष्ठा प्राप्त की है. उस दौर में संस्कृत जाने बगैर प्राकृत और अपभ्रंश का अच्छा ज्ञान प्राप्त करना असंभव था. ऐसे में हम दृढ़ता के साथ कह सकते हैं कि अद्दहमाण एक पढ़े-लिखे व्यक्ति थे.’
संदेश रासक में लेखक ने अपने बारे में बहुत कम बातें कही हैं. शिष्ट कवि अपने काव्य में खुद को लेकर जितना बोलते हैं, उससे एक-दो शब्द कम ही. ज्यादा तो बिल्कुल नहीं. सिर्फ उनके संभावित नाम और जाति के आधार पर इतने बड़े निष्कर्ष मुनिजी ने कैसे निकाल लिए कि संस्कृति और भाषा, दोनों के ही लिए उन्हें पराया घोषित कर दिया? ‘मुस्लिम नाम है तो हिंदू संस्कृति में गति कैसे हो सकती है!’ और ‘दोनों पुरानी भाषाएँ प्राकृत और अपभ्रंश तो निश्चित रूप से उन्होंने बाहर से सीखी होंगी, क्योंकि मुस्लिम परिवार में इनके बोले जाने का सवाल ही नहीं था!’
सवाल यह है कि अब से हजार साल पहले सिंध-मुल्तान क्षेत्र के ‘हिंदू’ और ‘मुस्लिम’ के बारे में कोई ठोस जानकारी हमारे पास है, या ये नतीजे हम सिर्फ अपनी पूर्वधारणाओं से निकाल रहे हैं? और ये पूर्वधारणाएँ भी कितनी पुरानी हैं? 1857 का जनविद्रोह कुचलने में ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजी हुकूमत को पूरा एक साल लगा और उसके बाद भी कुछ इलाकों में समस्या बनी ही रह गई. उसके बाद भारी सरकारी बजट लगाकर इस देश के अभागे बाशिंदों को हर चीज हिंदू और मुस्लिम में देखने की आदत डाली गई. यह किस्सा यहाँ तक पहुंचा कि 1920 का दशक बीतने से पहले ही रेलवे स्टेशनों पर ‘हिंदू पानी’ और ‘मुस्लिम पानी’ बिकने लगा. जरा सोचिए, अद्दहमाण अगर बंगाल के लालबेगी मुसलमान होते, फिर तो उनका कोई हिंदू नाम होता. तब क्या सिर्फ उनके नाम की बिना पर हिंदू संस्कृति से जुड़ी कथाओं और प्राकृत-अपभ्रंश भाषाओं में उनकी सहज गति मान लेना उचित होता?
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के पास इस बंद ताले की एक बहुत पुरानी कुंजी रही है, लेकिन स्वयं उन्हें छोड़ दें तो इसका उपयोग बहुत व्यापक न हो सका. कुंजी यह कि बुनाई के काम से जुड़ी (वयनजीवी) जातियों, खासकर जुलाहों ने इस्लाम स्वीकार करने के बाद भी हिंदू संस्कृति में अपनी गति बनाए रखी, काफी समय तक उनका जीवन व्यवहार दोनों धर्मों के बीच का रहा. इस आधार पर द्विवेदी जी निर्गुण भक्ति से जुड़े कुछ कवियों की, खासकर कबीर के काम में मौजूद आस्था के विशिष्ट स्वरूप की व्याख्या करते हैं. बल्कि क्षितिमोहन सेन की प्रस्थापना का सहारा लेकर वे और पीछे जाते हैं और वयनजीवियों का रिश्ता इस्लाम से पहले नाथपंथ और बौद्ध धर्म से जोड़ते हैं. पारंपरिक रूप से खुद को वैदिक धर्म से बाहर मानने वाली ये जातियाँ रास्ता खुलते ही मुसलमान बन गईं, लेकिन इससे भारतीय संस्कृति पर उनका दावा कम नहीं हुआ और इसमें उनका बड़ा योगदान भी रहा.
संदेश रासक के मामले में इस प्रस्थापना का उपयोग द्विवेदी जी का हवाला देकर उनके शिष्य विश्वनाथ त्रिपाठी ने किया है. अपनी ‘भूमिका’ में वे लिखते हैं-
‘यदि अद्दहमाण कबीर से पहले उत्पन्न हुए थे- जो प्रायः निश्चित है- तो यह अनुमान करना असंभव नहीं होगा कि यह (उनकी जुलाहा जाति) हिंदू और मुसलमान, दोनों जातियों के बीच में रही होगी. कवि के पिता का द्विधर्मसूचक नाम (मीरसेन) भी इस अनुमान की पुष्टि करता है.’
अगर हम साहित्य को एक तरफ रखकर जन-जीवन को ध्यान में रखें तो रचनात्मक लोगों के मामले में संस्कृति को धर्म-जाति से इस तरह बांधकर देखना वाजिब नहीं जान पड़ता. अवध में मुल्ला दाऊद से लेकर मलिक मोहम्मद जायसी तक बड़े कवियों की एक पूरी श्रृंखला हिंदू पृष्ठभूमि वाली अपनी काव्य-कथाओं के लिए क्या किसी जाति में अपने जन्म की मोहताज समझी जाएगी? और उत्साही समालोचकों ने इनकी व्याख्या अगर सूफी विचारधारा को देसी किस्सों के जरिये आम लोगों तक पहुंचाने में जुटे मुस्लिम मिशनरी की तरह करने का ही ठेका उठा रखा है तो जायसी के ‘कन्हावत’ को कहाँ लेकर जाएँगे, जिसमें गोरखनाथ और कृष्ण आध्यात्मिक बहस में उतरे नजर आते हैं! और रहीम, रसखान, ताज वगैरह का क्या करेंगे? क्या उन्हें इस्लाम पर हिंदुत्व की विजय का नमूना कहा जाएगा?
संदेश रासक पर साहित्य के बड़े संदर्भों में बात करते हुए हरिवल्लभ भायाणी का नजरिया ज्यादा खुला हुआ है. वे बताते हैं कि
‘अपभ्रंश भाषा इस किताब का समय आने से काफी पहले मर चुकी थी. अद्दहमाण ने इसके लिए पश्च-अपभ्रंश वाला जिंदा साहित्यिक माध्यम अपनाया, जिसमें पुरानी पश्चिमी राजस्थानी (खासकर उत्तरी मुहावरेदारी वाली) का मेल है और पछांह हिंदी बोलियों (ब्रज?) का एक स्पर्श भी है.’ (अनुवाद मेरा)
गौर से देखें तो उनकी यह टिप्पणी मुनि जिनविजय की इस प्रस्थापना को काटती है कि भाषा अद्दहमाण ने कहीं बाहर से ही सीखी होगी. आगे भायाणी जी कहते हैं-
‘संदेश रासक एक संदेश काव्य है लेकिन ‘मेघदूत’ की निर्जीव, औसत नकल जैसे मिजाज में लिखी गई ढेर सारी सामान्य रचनाओं से यह बहुत ऊपर है. एक अतिशय प्रयुक्त कथासूत्र को लेकर इतनी ताजादम चीज लिख देना अब्दल रहमान की काव्यशक्ति को प्रशंसा का पात्र बनाता है.’
9 अगस्त 1945 की तारीख के साथ मुनि जिनविजय जी के ‘प्रिफेस’ के अंत पर लौटें तो उनकी बात का रंग थोड़ा और बदला हुआ सा दिखता है. यहाँ ‘हिंदू संस्कृति’ पर उनका आग्रह बहुत ज्यादा है, हालांकि अभी के हिंदुत्व वाले आग्रहों से यह फिर भी काफी दूर है. अपनी खोज के महत्व को रेखांकित करने के क्रम में वे बताते हैं कि-
‘भारतीय भाषाओं में रचना करने वाले मुस्लिम कवियों में सबसे पहला नाम अमीर खुसरो (मृत्यु 1325 ई.) और उनके बाद प्रसिद्ध कवि मलिक मोहम्मद जायसी (मृत्यु 1540 ई.) का आता है, जिन्होंने अवधी भाषा में पद्मावत लिखा था. लेकिन अभी तक किसी ऐसे मुस्लिम कवि से हमारा सामना नहीं हुआ था, जिसने इनसे पहले और भारत में अधिक व्यापक उपयोग वाली सांस्कृतिक भाषाओं प्राकृत और अपभ्रंश में लिखा हो. जहाँ-तहाँ प्राकृत के उपयोग वाली इस अपभ्रंश कविता पर एक बहुत महत्वपूर्ण कृति की तरह विचार किया जाना चाहिए. इसका समय भी उपरोक्त दोनों कवियों से पुराना है और इसकी विषयवस्तु भी बहुत आकर्षक है. इस तरह, अब्दल रहमान हिंदू संस्कृति को समाहित करने वाले और अपने समय की प्रभावी हिंदू साहित्यिक शैली पर अधिकार रखने वाले पहले मुस्लिम कवि होने का गौरव प्राप्त करते हैं.’
और इस लिखाई के बिल्कुल अंत में मुनिजी कहते हैं-
‘अब्दल रहमान ने हिंदू संस्कृति को छककर ग्रहण किया और श्रेष्ठतर भावों से अनुप्राणित होकर उस समय भारत की सामान्य साहित्यिक भाषा में अपनी अमूल्य रचना निबद्ध की. उम्मीद करें कि उनका अनुसरण करते हुए हमारे आज के मुस्लिम भाई भी इन्हीं भावों से प्रेरणा ग्रहण करेंगे और हमारी राष्ट्रीय साहित्यिक भाषा में मूल्यवान कृतियाँ रचकर भारत के साहित्यिक खजाने में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान करेंगे.’
मामला वही है. कवि अब्दुल रहमान ने अपनी ही संस्कृति को आगे बढ़ाया, अपनी ही भाषा में लिखा, या किसी पराये सोते पर जाकर हिंदू संस्कृति को छका, कहीं और से भाषा सीखकर उसमें अपना काव्य लिखा? यह समझ ही तय करेगी कि ‘मुस्लिम भाई’ इन भावों से क्या प्रेरणा ग्रहण करेंगे. मुनिजी की ‘हमारी राष्ट्रीय साहित्यिक भाषा में मूल्यवान कृतियाँ रचने’ वाली अपील पर अमल करने या न करने का उनका निर्णय भी शायद यहीं से बनेगा.
चंद्रभूषण (जन्म: 18 मई 1964) शुरुआती पढ़ाई आजमगढ़ में, ऊंची पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में. विशेष रुचि- सभ्यता-संस्कृति और विज्ञान-पर्यावरण. सहज आकर्षण- खेल और गणित. 12 साल पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहकर प्रोफेशनल पत्रकारिता. अंतिम ठिकाना नवभारत टाइम्स. ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. इक्कीसवीं सदी में विज्ञान का ढांचा निर्धारित करने वाली खोजों पर केंद्रित किताब ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियाँ’, पर्यावरण चिंताओं को संबोधित किताब ‘कैसे जाएगा धरती का बुखार’, भारत से बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ आदि पुस्तकें प्रकाशित. patrakarcb@gmail.com |
कई घण्टे हो गए पढ़ते। आसानी से ग्राह्य नहीं होते हुए भी मुझ जैसे पाठक को इसमें रसानुभूति हुई।
Da Vinci Code का पठन सुख तो इसी पाठ में खूब है। अब दुविधा यह है कि इस ग्रंथ को कैसे पढ़ा जाए जिसके कुछ अंश पढ़कर ही इतना सुख मिला। मतैक्य न होना तो शोध की उर्वर भूमि है ही।
क्या चंद्रभूषण इतना गहरा गोता लगाकर मर्त्य लोक में वापिस आते भी होंगे?
आधे से अधिक पढ़ गयी हूँ। दिन के काम धन्धे सब ठप्प किये सो अलग।
आपको ऐसी प्रस्तुति के बाद अवकाश लेना चाहिए ताकि पाठक अच्छे से एक ही कृति को पढ़ते रह सकें
सुबह से दोपहर हो गई इस बहुआयामी आलेख को पढ़ते हुए। इसके लेखन के लिए किया गया गहन शोध विस्मित करता है। इतिहास, संस्कृति, भाषा और साहित्य के अनेक अनुशासनों के विस्तार में आवाजाही करते हुए रचे गए इस आलेख का स्थाई महत्व सुनिश्चित है। आदरणीय चंद्रभूषण जी को साधुवाद। हमेशा की तरह ‘समालोचन’ के इस अंक के लिए अरुण जी को बहुत धन्यवाद।
बहुत अच्छा आलेख। निबंध।
संपन्न करनेवाला। इसे एक बार और पढ़ना होगा।
फिर एक बार और। चंद्रभूषण जी की अध्ययनशीलता और अध्यवसाय की पहचान यहाँ दिख रही है। बधाई। धन्यवाद।
पूरा दिन गया इस आलेख को पढ़ते हुए। रुक रुककर कई बार पढ़ा।चंद्रभूषण जी के आलेख सम्मोहित करते हैं, उनकी भाषा शैली इतनी सरल है कि आप सहजता से उसे पढ़कर अभिभूत होते हैं। कोई कठिनाई नहीं आती न ही ऊब होती है। विषय मनचाहा न हो तब भी उनके लेखन का आकर्षण बांधे रखता है। वे अपने शोधों में इतनी गहराई तक उतर जाते हैं, कई बार दिमाग में सवाल गूंजता है, जो इतना भीतर उतरा वह आसानी से ऊपर कैसे आ पाता होगा।एक के बाद एक उनके कई आलेख समालोचना पर पढ़ चुकी हूं।हर बार हैरान रह जाती हूं। डूब डूब पढ़ती हूं। इस आलेख में जो रसानुभूति हुई, वह अदभुत है। साहित्य में इतिहास दर्ज़ है बस जरूरत है उसपर गहन शोधों की। चंद्रभूषण जी की लगनशीलता को सलाम है।आभार अरुण जी।
प्राकृत मे लिखी किसी रचना पर इतने विस्तार से पहली बार पढा है। उत्सुकता है कि क्या जैन धार्मिक साहित्य प्राकृत में लिखा गया है?
अब्दुल रहमान कृत यह रचना और एक बड़े कालखंड तक लेखक के नाम के प्रति सहजता वास्तव में आज सके समय में चकित करता है।
मुझे इस लेख से हजारी प्रसाद द्विवेदी के प्रसिद्ध उपन्यास चारूचन्द्र लेख की भी याद आयी।
चंद्रभूषण जी को इस लेख के बहुत धन्यवाद ।
मैं साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा और ऎसी चीजें कभी पढ़ने को नहीं मिलीं. सन्देश रासक का मैंने कभी नाम भी नहीं सुना था. एक हजार साल पुरानी इस छोटी सी पोथी के बारे में इतनी रोचक बातें जान कर अब इसे पढ़ने का मन करने लगा है. चंद्रभूषण जी को कभी नहीं पढ़ा किन्तु उनके उद्धरण देखने को मिले थे. उनका नाम सुन रखा था. जितना नाम सुना था उससे भी बहुत ऊपर लगे. विषय प्रवेश फिर विवरण और निर्वचन, एकदम साइंटिफिक! इसे छापने के लिए बहुत, बहुत धन्यवाद.
पहले और अंतिम लेख मुझे कुछ विचित्र लगे थे. शीर्षक ” आक्रमण और धर्मांतरण के साझा मिथ …” से मुझे लगा लेखक आक्रमण और धर्मांतरण को मिथक मानते हैं. यह धारणा और पुष्ट हुई जब पहले ही लेख में मिला, “आक्रमण और धर्मांतरण’ का कोई आख्यान पिछले हजार वर्षों में भारत के किसी भी महत्वपूर्ण ग्रंथ में नहीं मिलता. फिर भी इस कहानी को जांचने की जरूरत हमें कभी महसूस नहीं हुई.” पता नहीं क्या अभिप्रेत है. चूंकि ‘आक्रमण और धर्मांतरण’ का कोई आख्यान पिछले हजार वर्षों में भारत के किसी भी महत्वपूर्ण ग्रंथ में नहीं मिलता इस लिए आक्रमण और धर्मांतरण नहीं हुए? यदि यही अभिप्राय है तो मेरी समझ से यह कुछ अधिक ही क्रांतिकारी है.
Sachidanand Singh शुक्रिया भाई।आक्रमण सत्य है, धर्मांतरण भी सत्य है, लेकिन दोनों का जोड़ एक मिथ है। ज्यादातर लोगों ने धर्म इसलिए बदला क्योंकि वे पहले से ही बाहर थे या हाशिए पर थे। 900 ईसवी के बाद अवैदिक परंपराओं के लिए भारत में जीना मुश्किल हो गया। बौद्ध स्थलों पर कब्जे सबसे ज्यादा इसी समय हुए और यह कशमकश नाथों के साहित्य में भी दिखती है। इन बातों की परदेदारी के लिए, यूं कहें कि इनकी खोजबीन टालने के लिए बाहरी हमलों को बहाना बनाया जाता रहा है। इन नतीजों पर मैं बुद्ध को लेकर अपनी किताब पर काम करने के क्रम में पहुंचा।
अद्भुत लिखा है। दो घंटे से पढ़ रहा हूँ और हैरान हूँ कि एक हज़ार साल पहले की इस कृति पर चंद्रभूषण जी की तरह विद्वानों ने क्यों नहीं ध्यान दिया। अतीत के इस विलुप्त कालखण्ड की कुछ पड़ताल रांगेय राघव ने भी की थी। गोरखनाथ और मछंदरनाथ पर उनकी औपन्यासिक जीवनियाँ तथा ‘अंधेरे के जुगनू’ उपन्यास इसमें हमारी मदद करते हैं।
रांगेय राघव मुझे अदभुत रचनाकार लगते हैं लेकिन उनकी लिखी मैंने कुछ कहानियां और सिर्फ एक दो उपन्यास पढ़े हैं। कम उम्र में इतना सारा काम वे कर गए हैं, उनकी ये तीनों चीजें खोजकर पढ़ने का प्रयास करूंगा।
साहित्यिक ख़ोज के साथ साथ पुरातात्विक खोजो को मिला कर देखना चाहिए। तभी किसी प्रामाणिक निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता हैं। चन्द्र भूषण जी की बौद्ध धर्म पर ख़ोज पुस्तक पढ़ी हैं। इस पुस्तक में पूर्वी भारत, विशेष तौर पर नेपाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के संबंध में ज्यादा बाते हुयी हैं। पर उत्तर, पश्चिम और दक्षिण भारत पर सिवाय कुछ टिप्पणियॉ और जीवनियों के ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया हैं। यहाँ भी बौद्ध संस्कृति काफी फली फूली थी, विशेष तौर पश्चिमी घाट क्षेत्र में। मेरा अनुरोध हैं कि यदि इस विषय पर आपकी ख़ोज जारी हैं तो साहित्यिक स्त्रोतों के साथ साथ ज़रा पुरातात्विक महत्व की खोजो पर भी ध्यान दिया जाये। और जब इस्लाम के प्रसार और बौद्ध-हिन्दू धर्म के अहिर्वभाव पर तुलनात्मक अध्ययन किया जा रहा हैं तो मध्य पूर्व, मध्य एशिया, ईरान , मगरीब, और उत्तरी अफ्रीका के उदाहरणो को लिया जाना चाहिए। विशेष तौर पर ईरान-खुरासान का क्षेत्र क्योंकि भारत में इस्लाम फैलाने में इस क्षेत्र के मुस्लिमो का विशेष योगदान हैं।
यह काम एक जीवन में समाप्त होने वाला नहीं है। हां, लिखना सार्वजनिक हो सके इसलिए किसी बिंदु पर अपनी बात खत्म करनी पड़ती है। संदेश रासक पर इस छोटे से किंतु सघन काम ने पश्चिम की तरफ मन की गति बनाने में मदद पहुंचाई है। मेरे यत्किंचित काम पर गंभीरता से नजर रखने के लिए आपका आभारी हूं और सहयोग-सहकार की अपेक्षा रखता हूं।
‘संदेश रासक‘ पर चंद्रभूषण जी का सुचिंतित लेख पढ़ा, जज्ब किया और उनकी कलम की मुरीद हो गई ।
आज का समय उत्तरआधुनिकतावाद का दुशाला ओढ़ कर विचार, चिंतन और आलोचना को जिस तरह हाशिये पर धकेल कर फौरी सुख देने वाली भावुकतापूर्ण संघर्ष-कथाओं का लेखन/ पठन कर रहा है, उससे ज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ा शून्य पनपने की आशंका गहराने लगी है।यह लेख इस रुंधे भावुकतावाद का प्रतिरोध करते हुए समय की गहनतम परतों में धंसे सत्य के मानीखेज चेहरे को ही सामने नहीं लाता, बल्कि पाठक से धैर्य, चिंतनपरक चैतन्य और विश्लेषणात्मक कल्पना-सौंदर्य की माँग करते हुए उसे स्वयं साहित्य-परंपरा की लंबी उड़ान के लिए प्रेरित करता है।
‘संदेश रासक‘ को मैंने कक्षा में पढ़ते-पढ़ाते हुए सिर्फ़ कृति के नाम के तौर पर जाना था। अब इस लेख के आलोक में ‘मेघदूत‘ से लेकर रीतिकाल तक के काव्य-सौंदर्य की ही समझ नहीं आई, बल्कि तमाम काव्य-रूढ़ियों और अभिजन/संपन्न समाज के मनोविज्ञान की भी झलक मिली। सवाल भी अंकुराए कि लोक के चित्त में हर्ष-विषाद की तरह संघर्ष और प्रतिरोध भी दबा रहता है। वह क्यों हमारे साहित्य में नहीं उभरा? क्या इसलिए कि कवि राज्याश्रय या कंफर्ट ज़ोन में बने रहने के लिए दीख पड़ती सच्चाई से मुँह चुराने लगता है? अच्छी आलोचना वही जो पाठक के भीतर लवालों का रेला दौड़ाए.
बहरहाल, लेख पढ़ कर समृद्ध हुई। ऐसे और भी अनेक लेखों की दरकार रहेगी।