पंजाबी दलित कहानी: वस्तु और शिल्प |
अच्छी कहानी हमेशा सिद्धांतों, सूत्रीकरणों, कसौटियों की अपर्याप्तता का बोध कराती है. वह आलोचकों के सामने चुनौती बनकर आती है. वह कथा-लीक में होते हुए भी उसमें अँटती नहीं. वह अतीत और आगत के संधि-स्थल पर यथार्थ और कल्पना का संतुलन बनाकर ‘संतुलित कहानी’ होने के बोझ से मुक्त रहती है. ऐसी कहानी ‘अपील’ करती है लेकिन पढ़ने वालों को निर्णयात्मक नहीं होने देती. उसके कथ्य और कथन में मौज़ूद नवीनता चौंकाती नहीं. उसके कथारस में मन भीगता है किंतु पाठक कथाप्रवाह में बह नहीं जाता. उसका असर, उसका सम्मोहन देर तक रहता है परंतु विवेक को आच्छादित नहीं करता.
अजमेर सिद्धू की ‘गौरजां’ ऐसी ही कहानी है. यह कहानी जाति और वर्ग की जटिल अंतर्क्रिया की ज़मीन पर रची गई है. व्यक्ति और समुदाय के बहुपरतीय संबंधों का अवबोधन कथा-विन्यास के साथ आगे बढ़ते हुए होता जाता है. वर्गांतरण का ज्ञान ‘संबोधन’ कराते हैं. नाम बिगाड़कर किया जाने वाला संबोधन, वास्तविक नाम वाला संबोधन और सम्मानसूचक विशेषण लगाकर किया जाने वाला संबोधन भिन्न-भिन्न वर्गीय स्थितियों को दर्शाते हैं. प्रदत्त पहचान से संघर्ष करते हुए कथानायक अपनी अस्मिता का अर्जन करता है. अर्जन की प्रक्रिया क्रमिक है, गत्यात्मक है. वर्गीय अवस्थिति में परिवर्तन के बगैर जाति के ठप्पे से पीछा नहीं छूट सकता. पहचान में बदलाव की यह गुत्थी कथाकार अजमेर सिद्धू ने लोक-व्यवहार के सूक्ष्म पर्यवेक्षण से सुलझानी चाही है. ‘गौरजां’ उनकी यादगार कहानी है.
पंजाब के एक गाँव की कहानी है ‘गौरजां’. गौरी-शंकर की गीतबद्ध कथा गा-गाकर सुनाने वाली जाति बावा या बावे कहलाती है. गीत के कथ्य के अनुरूप इन्हें ‘गौरजां’ भी कहा जाता है. पुरानी पीढ़ी को यह संबोधन अटपटा नहीं लगता था लेकिन आत्मचेतस कथानायक को यह न केवल अटपटा बल्कि असह्य लगता है. उस पर मास्टर धर्मपाल का असर है जो उनकी ‘चमरटोली’ का अकेला पढ़ा-लिखा व्यक्ति है. वह अपने लोगों को जब-तब समझाता रहता है लेकिन कोई उसकी बात पर ध्यान नहीं देता. बिरादरी का यह रवैया नायक/नैरेटर (जीता) में चिढ़ पैदा करता है. सात वर्षीय बालक में पैदा हुई चिढ़ गहराती जाती है. स्कूल में वह ‘ऊँची बिरादरी’ के लड़कों के साथ खेल नहीं सकता. उसकी बाँह मरोड़ दी जाती है. उसके मुहल्ले के सभी बालकों का यही हाल है. पढ़ना उनके लिए हिमालय पर चढ़ने के समान है. तेरह वर्ष का होते-होते जीता को उसके बापू ने किसी जैलदार की भैंस चराने के काम पर लगा दिया. दिन भर भैंस चराना और शाम लौटने पर मालिक की गाली-गलौज, मार-पिटाई. सहना कठिन था तो जीता ने यह काम छोड़ दिया. घर पर गुस्सैल बापू ने खूब कुटम्मस की. बेटे की कलाई तोड़ दी. बेटे ने फैसला किया कि उसे माँगकर खाने वाली बावियों की जिंदगी नहीं जीनी है. उसने घर छोड़ दिया. बड़ी जोत वाले एक किसान मीते (मीता सिंह) के यहाँ सीरी मजदूर के तौर पर काम करने लगा. यह परिवार शेष गाँव से थोड़ा अलग था. मीते का छोटा भाई सुरजीत प्रगतिशील विचारों वाला है. वह मास्टर धर्मपाल की बनाई नौजवान सभा का सदस्य है. इस परिवार के अन्य सदस्यों का जातिवादी सुलूक सुरजीत के स्नेह-स्निग्ध व्यवहार से सहनीय हो जाता है.
ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कि मास्टर धर्मपाल के विचारों से कथानायक जीत सिंह कितना परिचित या प्रभावित है. जीता बावे को सुरजीत के यहाँ काम मिलता है. उसके गुस्से को सुरजीत समझता है. काम मिलना या कथानायक का हमदर्द होना मात्र मानवता या सहानुभूति नहीं है. इसमें विचारधारा की भूमिका है. मास्टर धर्मपाल और सुरजीत दोनों ‘नौजवान सभा’ के कार्यकर्ता हैं. सभा की विचारधारा उन्हें जोड़ती है. यह विचारधारा मास्टर धर्मपाल को दृष्टि देती है कि वे दलितों की स्थिति का ऐतिहासिक विश्लेषण कर सकें और अपने आक्रोश को सुसंबद्ध चिंतन का आधार दे सकें. यह विचारधारा सुरजीत को उस जातिवादी माहौल में संवेदनशील बनाती है और उसे जीतसिंह के पक्ष में ले आती है. सुरजीत का ही असर है कि गाँव के तमाम जाट किसानों के विरोध के बावजूद उसके पिता महिंगा सिंह कचहरी जाकर जीतसिंह के नाम सारी ज़मीन लिख आते हैं. जीता अब सरदार जगजीत सिंह है. वह इस संबोधन से आनंदित होता है. जब उसे धन्नो के जातिवादी उद्गार सुनाई देते हैं तो वह टूट-सा जाता है. वह नौजवान सभा से जुड़ा नहीं दिखाई गया है. वह वैचारिक रूप से अपरिपक्व है. ‘जीतू बावे’ संबोधन सुनकर उसका दहाड़ मारकर रोना यही साबित करता है. कहानीकार ने ‘मैं शैली’ में लिखी इस कहानी के ‘मैं’ को कोई छूट नहीं दी है, उसे बख्शा नहीं है. अपनी जिस दलित पहचान से उसे आज इतने वर्षों बाद रोना आया उसे उसने अभी-अभी पुनर्जीवित किया है. इसके लिए पैसे खर्चे हैं.
सरपंची का चुनाव न जीतना होता तो बावे समुदाय से उसकी दूरी बरकरार रहती. ‘अपनों’ के प्रति उसकी नफ़रत में कमी न आती. चुनाव में जीत का प्रलोभन उसे ‘अपनी’ बस्ती में ले गया. गाँव वाले जिस संबंध को यत्किंचित बिसरा चुके थे वह फिर से ताज़ा हो गया. धन्नो पर इस नवीकरण (रिवाइवल) ने असर डाला होगा. फिर, पाहुने लड़की देखने भले आस्ट्रेलिया से आ रहे हों, उनकी कोई न कोई जाति तो होगी ही. कहने की ज़रूरत नहीं कि जातिवादी समाज में व्यक्ति के पहुँचने से पहले उसकी जाति पहुँच जाती है.
क्षेत्रीय, वर्गीय या कुछ अन्य पहचानो से शायद पीछा छुड़ाया जा सकता है लेकिन जाति से पीछा छुड़ाना नामुमकिन-सा है. विभिन्न भाषाओं के कथाकारों ने इस थीम पर कहानियाँ लिखी हैं. थीम की पुनरावृत्ति होने के बावजूद हर कहानी में कोई न कोई नयापन रहता है. यह नयापन कथाकार की शैली का परिणाम-मात्र नहीं होता बल्कि बहुधा अनुभवगत भिन्नता की देन हुआ करता है.
अतरजीत की कहानी ‘बिच्छू’ भी जात्यांतरण की पृष्ठभूमि पर है. कहानी दो वकील परिवारों की है. एक कटारिया साहब का परिवार है, दूसरा चोपड़ा साहब का. इंद्रजीत सिंह कटारिया कई वर्षों से चोपड़ा साहब के अधीन वक़ालत करते रहे थे. दोनों एक दूसरे की सामाजिक पहचान से वाक़िफ़ थे. यह कि चोपड़ा असल में मजहबी और कटारिया रामदासिया थे. अपने को ऊपर समझने वाला कटारिया परिवार एक मजहबी की अधीनता से यथाशीघ्र बाहर निकलना चाहता था. मॉडल टाउन में तीन सौ गज के प्लाट पर कोठी के निर्माण ने मानो उन्हें मुक्ति की गारंटी दी. कभी फ़्लैशबैक और कभी वर्तमान में चलती कहानी इंद्रजीत ‘कटारिया’ पर केंद्रित होती है. आरोपित हीनता से मुक्त होने की उसकी कोशिशें सामाजिक जकड़बंदी की एक-एक परत रोशन करती जाती हैं. कभी उसने अपने नाम के साथ ‘जुल्हड़’ जोड़ा तो कभी ‘अणखी’. आश्वस्ति किसी से न मिली. अब वह ‘कटारिया वकील’ है, अपनी पहचान यानि बिच्छू के डंक से दूर. जब कोठी निर्माण का काम पूरा होने को है तो उसके यहाँ दिहाड़ी मजदूर के रूप में एक लड़का आया. बातों-बातों में पता चला कि वह जाट परिवार से है. ऐन उसके मामा के गाँव कोट फत्ते से. कभी जिसके यहाँ इंद्रजीत और उसके कुनबे के लोग मजदूरी करते थे और उनके मातहत थे उनके लड़के को अपने यहाँ मजदूरी पर रखकर कटारिया साहब की छाती चौड़ी हो गई. वे सोचने लगे कि इस जट्ट के साथ उसी तरह का सुलूक करेंगे जैसा उनके साथ किया जाता रहा है. यह आह्लाद देर तक न टिका. आगंतुक मजदूर ने पूछ लिया, “सरदार जी कोट फत्ते तुम्हारी रिश्तेदारी है क्या?” साथ ही यह भी जोड़ा, “मुझे ऐसा लगा जैसे गुल्लू चमार से तुम्हारी रिश्तेदारी है.” जिस बिच्छू से इंद्रजीत दूर चले आए थे उसने फिर डंक मार दिया! कहने को तो उन्होंने कह दिया कि वे किसी ‘गुल्लू बुल्लू को नहीं जानते’ लेकिन अगले ही क्षण वे आत्मग्लानि से घिर गए. बिच्छू मुड़ चुका था. उसने काम पर आए उच्चता के नशे में चूर उस युवा को डंक मारा. उसने आधे दिन की दिहाड़ी ली और ‘इलाज कराने’ चला गया! इधर डंक से तड़पते कटारिया साहब खुद को संभालने में लगे रहे.
गुरमीत आरिफ़ लिखित ‘लकीरों के बीच घिरे हुए’ वर्चस्व-स्थापन की बारीकियों अर्थात् सवर्ण दाँव-पेंच में बेतरह उलझे एक दलित चंद सिंह की त्रासद कहानी है. पंचायती राज इसलिए लागू हुआ था कि लोकतंत्र शिखर से तल तक कार्यरूप में दिखे. इसे सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई थी. बिडंबना यह कि ऐसी व्यवस्था लागू होने से पहले उसका तोड़ निकाल लिया गया था. इसमें लागू करने वाली मशीनरी की मिलीभगत ही नहीं, अगुआई भी थी. जाति वालों, धन वालों, धर्म वालों और पद वालों ने लोकतंत्र को इस तरह दुश्चक्र में डाला कि उसका सत्व निचुड़ गया. लोकतंत्र से जिन्हें लाभ मिलना था वे ठगे गए कि उन्होंने खुद को ही ठगों के हवाले कर दिया. यह लंबे अनुकूलन का परिणाम था या मनुष्य की स्वार्थ-भावना का दोहन कि लोकतंत्र के जिस वृक्ष से वे फ़ायदा उठाते उसकी पत्तियाँ नोच लीं. उसकी डालों को काटने वाले हाथों को मजबूत किया.
चर्चित कथाकार गुरमीत कड़िआलवी की कहानी ‘निमोलियाँ’ उसी निष्कर्ष पर पहुँचती है जिस निष्कर्ष पर मेरीगंज, पूर्णियां में मलेरिया पर शोध करने आया ‘मैला आँचल’ का पात्र डॉ. प्रशांत पहुँचा था.
गुरमीत की कहानी का नायक पाल है. उसका बचपन हिंसाग्रस्त है. इस विषय पर लिखी गई अधिकांश कहानियों में दलित बचपन हिंसाबिद्ध ही है. पाल दोतरफ़ा हिंसा का शिकार है. स्कूल में मास्टर पिटाई करते हैं तो घर में पिता. पिटाई से अधिक घर में त्रास का बड़ा कारण खेलने या आराम करने का मौका दिए बगैर मेहनत-मजदूरी पर भेजा जाना है. वहाँ काम न हो तो अपने बटाई वाले खेत पर काम का अंबार लगा रहता है. पांचवीं कक्षा में पाल पूरे जिले में प्रथम आया तो मास्टर ने पाल के पिता जागीर सिंह को बुलाया. उन्हें पढ़ाई का महत्त्व समझाया और बेटे के जहीन होने को परिवार के लिए नेमत बताते हुए आगाह किया कि इसकी पढ़ाई न छुड़वाई जाए. यह घोटा मास्टर का प्रभाव था कि पाल को पढ़ने दिया गया जबकि उसके साथ के अन्य दलित बच्चों की पढ़ाई छुड़वा दी गई. मुख्य कारण ग़रीबी ही रही. पांचवीं से आगे पढ़ने के लिए कथानायक जिस स्कूल में गया वहाँ कई तरह के शिक्षक मिले. गणित के शिक्षक दलित बच्चों को विशेष तौर पर प्रताड़ित करते थे. उन्हें जातिसूचक गालियाँ देते थे, ‘सरकार का दामाद’ बोलते थे. हिम्मत तोड़ने के लिए कहा करते थे कि कंजर हो, हलवाही करो; पढ़ने क्यों आ गए हो. पिटाई हिंदी और ड्राइंग के अध्यापक भी करते थे लेकिन उनकी पिटाई सह्य थी, स्वीकार्य थी क्योंकि इस पिटाई के बाद क्लास की सहपाठी जिंदर की हमदर्दी मिलती थी. जिंदर का कोमल स्पर्श और संवेदनशील स्वभाव ऊर्जा और ऊष्मा का हेतु था. हर प्रसंग में क्रांति और समाजवाद का संदर्भ ले आने वाले इतिहास के शिक्षक सबसे अलहदा थे. विद्यार्थी इन्हें ‘कॉमरेड स्टालिन’ कहते थे. ग़रीबी एक बीमारी है, कॉमरेड मास्टर की यह बात पाल को याद रह गई कि यही बात माँ और जिंदर दोनों कहती थीं. हाँ, उन्हें ‘सरप्लस वैल्यू’ के बारे में नहीं मालूम था जो ग़रीबी का सबसे बड़ा कारक है. यह ज्ञान कॉमरेड मास्टर से मिला और माँ, पिता, बहनों की रात-दिन की मेहनत के बावजूद ग़रीबी बनी रहने का रहस्य समझ में आने लगा. कहानीकार कथानायक के परिवार के श्रम और शोषण के प्रश्न को आमने-सामने रखकर स्पष्ट करना चाहता है कि अनुभव से दृष्टि से मिलती है लेकिन आर-पार देखने के लिए विचारदृष्टि की ज़रूरत पड़ती है. कॉमरेड मास्टर ने समाजवाद से जो परिचय कराया उसी से शोषण का तंत्र समझ में आने लगा. ग़रीबी बीमारी है यह माँ और जिंदर को अपने अनुभव ज्ञात है लेकिन अधिशेष मूल्य के सिद्धांत ने कथानायक को ज्ञान कराया कि निरंतर श्रम के बाद भी ग़रीबी क्यों बनी हुई है.
ऊँच-नीच वाली मानसिकता पर धर्म ने एक लेप चढ़ाया था. ईश्वर के आगे सब बराबर हैं, ऐसे कथनों की आड़ में विषमता के पोषक लोग अपनी हक़ीकत छुपा ले जाते रहे हैं. कुछ अर्वाचीन धर्मों ने यह कहने का आधार दिया कि वहाँ सब बराबर हैं और ऊँच-नीच का प्रश्न उनके धर्म में अप्रासंगिक है. जसवंत राय की कहानी ‘ब्रह्मास्त्र’ पहले से पहचान लिए गए छली-छद्मी सवर्ण मानस की शिनाख्त करती है. ‘मैं शैली’ में लिखी इस कहानी का नायक रमेश है. जन्मना दलित रमेश पुलिस महकमे में है. उसका वर्तमान उसे बार-बार स्मृतियों के गलियारे में ले जाता है. इस यात्रा में हम मानसिक जड़ताओं से परिचित होते हैं. हम यह भी समझ पाते हैं कि सिख धर्म का यह दावा संदिग्ध है कि यहाँ जाति-वर्ण व्यवस्था नहीं है. मजहबी सिख सवर्ण सिखों के गुरुद्वारे में अपमानित होते हैं. उन्हें अपना गुरुद्वारा चाहिए. पंचायती ज़मीन उपलब्ध भी है लेकिन ऊँची जाति वाले सिख दलितों को गुरुद्वारा बनाने नहीं दे रहे. कथानायक रमेश उस बस्ती के सुलिंदर को आईडिया देता है कि वह ऐसा इश्तिहार छपवा दे कि सभी मजहबी सिख अमुक तारीख़ को ईसाई धर्म स्वीकार करेंगे. यह तरकीब काम करती है और टास्क फ़ोर्स आकर दलितों का अपना गुरुद्वारा बना जाती है. दलितों को इसके लिए पैसा भी नहीं खरचना पड़ता. सवर्णों के दिल में आरक्षण की फांस गडी हुई है. वे बात-बेबात यह प्रकरण छेड़ देते हैं. नियुक्ति और प्रमोशन पर चर्चा के सिलसिले में यह मुद्दा थाने में भी उठता है. चर्चा में साझीदार सभी सदस्य इस मसले पर एकमत हैं. दूर बैठे रमेश को बुलाकर उसकी राय मांगी जाती है. आरक्षण हटाने से रमेश को कोई आपत्ति नहीं. बस, ये तीन शर्तें पूरी होने चाहिए-
(क) सारी ज़मीन का राष्ट्रीयकरण किया जाए.
(ख) सामाजिक भेदभाव समाप्त हो और
(ग) सारे संसाधनों, सारी संपत्ति का फिर से समान बंटवारा हो.
यह प्रस्ताव एक हमले की तरह है. ऊँची जाति वालों का ब्रह्मास्त्र इससे भोथरा हो जाता है. वे चुप लगा जाते हैं और बहस का अचानक अंत कर दिया जाता है. जातिवादियों से जूझने के लिए एक पीढ़ी तैयार हो चुकी है. रमेश और सुलिंदर उसी के प्रतिनिधि हैं.
इस बात पर ध्यान जाना चाहिए कि पंजाबी दलित साहित्य में स्त्री रचनाकार लगभग नहीं हैं. न कथा में और न कविता में. इसे पितृसत्ता की जकड़न का परिणाम समझा जाए या कुछ और? अन्य भारतीय भाषाओँ में कुछ ऐसी स्थिति ओड़िया दलित लेखन में नज़र आती है. गुजराती दलित साहित्य में भी यद्यपि बहुत अच्छी स्थिति नहीं है. स्त्री रचनाकारों की संख्या, लेखन का परिमाण और उस अनुपात में गुणवत्ता आदि की दृष्टि से दक्षिण भारतीय भाषाओँ ख़ासकर तेलुगु, मलयालम, तमिल की स्थिति बेहतर है. मराठी और हिंदी में दलित स्त्रीवाद की अलग धारा पहले से बनी हुई है. बांग्ला में भी दलित महिलाओं का स्वर अलग से सुना जा सकता है. पंजाबी दलित लेखन की तरफ लौटें तो यहाँ कहानीकारों में तृप्ता के. सिंह अपवादस्वरूप नज़र आती हैं. उनकी कहानी ‘जीती हुई बाजी’ एकाधिक कारणों से उल्लेखनीय है. ‘सर्वाइवल’ की तरकीबों से तालमेल बिठाती दलित स्त्री की तीन पीढ़ियाँ इस रचना की कथावस्तु हैं. ‘मैं शैली’ में लिखी यह कहानी पंजाब के देह लोलुप भूस्वामियों का चरित्रांकन करती है.
उनकी हवेलियों में मजबूर दलित स्त्रियों की चीखें गूँजती हैं. कथानायिका की उम्र अभी ज़्यादा न थी जब उसका बलात्कार हुआ. जानते-बूझते उसकी माँ ने उसे शेर की मांद में डाल दिया था. जिस बड़े सरदार ने उसकी देह और आत्मा घायल की थी उसमें बेजी (सरदार की घरवाली) की सहमति थी. बिडंबना यह कि दो स्त्रियों के ‘सहयोग’ से यह हिंसा घटित हुई थी. कथानायिका ने अपनी माँ को इस तर्क से बख्शा कि उसके लिए रोटी की चिंता प्राथमिक थी. ग़रीबी और मजबूरी ने उससे ऐसा कराया. जब बेटी ने देखा कि माँ को उसके दर्द से कोई वास्ता नहीं तो उसने स्थिति के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया. बेटी के पेट में भ्रूण पलने लगा तो माँ चेती. उसे एक दाई के पास ले गई जिसने अनगढ़ तरीके से गर्भ गिराया. इसके बाद माँ ने सरदार से पैसे वसूले. फिर लड़का तलाशकर बेटी की शादी की. पति अच्छा मिला तो नई पटरी पर ज़िंदगी की गाड़ी चल पड़ी. चार संताने हुईं. दो बेटियाँ राणे और निक्की तथा दो जुड़वां लड़के. आफत का पहाड़ फिर टूटा. राजमिस्त्री पति देसा की मकान बनाते तीसरी मंजिल से गिरकर मृत्यु हो गई.
परिवार का पेट भरने माँ (कथानायिका) को खेत और कोठी में काम करना पड़ा. बेटियों-बेटों की देखभाल एक समस्या बन गई. जिंदगी है तो हारी-बीमारी से बचना संभव नहीं. ऐसे वक़्त में ‘सपोर्ट बेस’ (मजबूत) हो तो दु:समय झेला जा सकता है. संसाधनरहित परिवार अक्सर ऐसी परिस्थिति में समझौते के लिए मजबूर होते हैं. बुखारग्रस्त माँ ने हिचकिचाते हुए नंबरदारिनी (मालकिन) के साथ अपनी बड़ी बेटी राणे को उनकी हवेली काम पर भेजा. भेजने के बाद उसे आशंकाओं ने घेर लिया. उसे अपने अतीत की पुनरावृत्ति होते दिखी. बुखार में तपती बेचैन माँ हवेली पहुँची. उसकी आशंका अंशतः सच निकली. लंपट बुजुर्ग सरदार ने उसकी बेटी राणे को शिकार बनाना चाहा था. बेटी ने भरपूर प्रतिरोध किया. वह अपनी माँ से भिन्न थी- दृढ़ और मुखर. गाली-गलौज से भरी उसकी ऊँची आवाज़ ने उसे बचाया. वह माँ की आकांक्षा की साकार रूप थी. ‘आधी रोटी खा लेंगे, लेकिन ऐसे परिवार में काम नहीं करेंगे’ –राणे का यह उच्च स्वर मानों नैरेटर (माँ) की पीढ़ी की घुटी आवाज़ का काम्य रूपांतरण है, अनुवाद है, अनुनाद है.
चेतना विस्तृत होती जाए तो अस्मिता के सवाल जकड़ते नहीं लेकिन अगर संकरी होने लगे तो इकहरी बनती जाती है और सम्पूर्ण व्यक्तित्व को आच्छादित कर लेती है. एक व्यक्ति कई अस्मिताएँ धारण किए रहता है. कब कौन सी अस्मिता प्रबल होगी यह परिस्थिति-विशेष से, संबोध्य से और धारक की राजनीति से तय होता है. ये तीनों कारक अलग-अलग हो सकते हैं और एक साथ भी. देशराज काली लिखित ‘ज़ख्मो के रास्ते से’ अस्मिता के चयन, विनिर्माण, विसर्जन और पुनर्निर्धारण की कहानी है. आत्मकथात्मक शैली में लिखी इस कहानी का वाचक जाति अस्मिता से छूटना चाहता है. वह सुपठित है. अध्यवसायी है. क्रांतिचेता है. नई अस्मिता का चयन कर सकता है.
चयनित अस्मिता के परस्पर विपरीत परिणामों का अनुमान लगा सकता है. वह ‘कॉमरेड’ हो जाता है. कहानीकार बन जाता है. पुरानी पहचान छूट जाती है. या, यह कहना बेहतर होगा कि पुरानी पहचान नए में विसर्जित हो जाती है. कथानायक अपनी चयनित अस्मिता को लेकर पूरी तरह आश्वस्त हो, इसके पहले कोई उसे पुरानी पहचान से संबोधित कर जाता है. यह संबोधन पदानुक्रम में उसकी ‘औकात’ का रेखांकन है. विस्मृत का स्मरण है.
‘ठीहा’ बलीजीत लिखित चर्चित कहानी है. इसका केन्द्रीय पात्र राजू है. राजू के दो काम हैं- जूतियाँ ठीक करना और मरे मवेशी उठाना. चौबीस गाँवों के लोग उसके पास आते हैं. देश को आज़ाद हुए तीन दशक हो गए होंगे लेकिन पंजाब का यह इलाका अभी जाति-संस्कृति-राजनीति के मामले में पुराने ढर्रे से ज़्यादा दूर नहीं गया है. पंचायतीराज व्यवस्था जैसे-तैसे पहुँच गई है. किसी दलित को पंचायत सदस्य बनाना कानूनन मजबूरी भले हो, बैठकों और फैसलों में उसकी कोई दख़ल नहीं है. काजल की इस कोठरी में कभी राजू की एंट्री हुई थी. उससे एकाध बार अँगूठा लगवाया गया था और फिर वह इस ‘कुत्ता काम’ से मुक्त हो गया था. उसका परिवार छोटा-सा है- पत्नी और बेटा. बेटा पथीरी बड़ा हो गया है तो अब वह मृत पशु उठाने नहीं जाता. बेटे को भेजता है. पत्नी नियमित अंतराल पर राजू का हुक्का भर जाया करती है. घर के सामने दरख़्त के नीचे लगे टूटे-फूटे जूते-चप्पलों का ढेर उसके असामियों की संख्या की ख़बर देते हैं.
हजारा सिंह इलाके का जमींदार है. तक़सीम में उनके बाप-दादे पकिस्तान से बतौर शरणार्थी आए थे. जमींदार को जमींदारी ही मिलती है, इस तर्क से सरकार ने इस परिवार को बड़ा भूखंड आवंटित किया. यद्यपि तब यह जमीन ऊबड़-खाबड़ थी. हजारे के पिता ने ट्रैक्टर खरीदा और सारी जमीन आयत में आ गई. हजारे को लगता है कि दलित बस्ती उनके रहमो-करम पर है इसलिए जब वह राजू के पास अपनी ‘मरी’ पंड़िया को उठाने का संदेश भेजता है तो यह उसके लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त है कि दो-दो बार उसका बुलाना फ़िज़ूल हो जाए. तीसरी बार वह खुद ही दलित बस्ती का रुख करता है. यही कहानी का ‘क्लाइमेक्स’ है. इस हिस्से से कहानीकार का अभीष्ट व्यंजित होता है.
कार्यस्थल को ठीहा कहा जाता है. राजू का ठीहा उसका प्रार्थना-स्थल भी है. किसी अज्ञात सत्ता को याद करके ही वह रोज़ अपना काम शुरू करता है. राजू की ‘आध्यात्मिकता’ उसकी नैतिकता का ठीहा है. हजारा सिंह अपनी अधमरी पंड़िया उठवाना चाहता है. राजू इसके लिए तैयार नहीं. वह मरे का ग्राहक है, कसाई नहीं. राजू ज़मींदार के कोप का परिणाम भी जानता है लेकिन उसकी नैतिकता उसे इस अपकर्म की अनुमति नहीं देती. संवेदनशील बेटा पथीरिआ पिता का धर्मसंकट समझता है. अपने कथ्य में कहानी कहीं प्रगल्भ या लाउड नहीं होती. कहानी अपने ब्योरों में धड़कती है. जूतियों, पशुओं, रास्तों, खेतों, मरम्मत के उपकरणों से जुड़ी तफ़सील कहानी को प्रामाणिक बनाती है. चमड़े के व्यापारियों से राजू के दाँवपेंच दर्शाते हैं कि थोड़े-से लाभ के लिए वचनबद्धता तोड़ी जा सकती है. यहाँ न राजू नैतिक है और न व्यापारी. दोनों एक-दूसरे की चाल समझते हैं और निभाए जाते हैं. जूती का तल्ला घिसने के स्थान और कोण से व्यक्ति के स्वभाव का पूर्वानुमान लगाने वाले राजू का चरित्र बलीजीत ने बहुत विश्वसनीय तरीके से गढ़ा है.
संसार की उलटी रीति का एक उदाहरण देते हुए संत-कवि कबीर ने कहा है कि दही बेचने वाले को दरवाज़े-दरवाज़े आवाज़ लगानी पड़ती है जबकि शराब की दुकान के सामने लोग अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं. हम देखते हैं कि अक्सर उचित सलाह देने वाले की उपेक्षा की जाती है जबकि बरगलाने वाले, झूठ बोलने वाले वाहवाही बटोरते हैं.
बिंदर बसरा की कहानी ‘‘सच घर’ की राह’ का कॉमरेड बलदेव अपनी पुख्ता समझ और स्पष्टवादिता के कारण हाशिए पर ठेल दिया जाता है जबकि दलित समाज को ठगने वाला सरपंच तत्काल दलितों का समर्थन जुटा लेता है.
आत्मकथात्मक शैली में लिखी भगवंत रसूलपुरी की ‘जड़ें’ कहानी का नैरेटर या नायक ज्ञान रतन है. पहले यह ज्ञानचंद के नाम से जाना जाता था. तब यह रविदासिया था. यह संज्ञा और पहचान प्रदत्त थी. ज्ञान रतन अब भिक्षु है, बौद्ध भिक्षु. यह नाम और अस्मिता अर्जित है. यद्यपि कालक्रम से थोड़ी दूर खड़े होकर देखें तो प्रदत्त पहचान को अर्जित अस्मिता पाएंगे. नैरेटर का गाँव धरमपुरा मात्र एक (‘चमार’) जाति से आबाद है. इस गाँव को ‘कारखाना’ कहा जाता है. यहाँ प्रत्येक घर में चमड़ा रंगने का काम होता है. धरमपुरा का पड़ोसी गाँव भी सजातीय आबादी वाला है. सभी परिवार रविदासिया हैं. किसी ‘अन्य’ जाति की ग़ैरमौज़ूदगी गाँव को टकराव मुक्त रखने की गारंटी हो सकती है. लेकिन, ऐसा है नहीं. टकराव की स्थिति बनती है नैरेटर के कारण.
यू. के. प्रवास से लौटा नायक पाँच कनाल ज़मीन खरीदता है. इस ज़मीन पर उसे ‘बुद्ध विहार’ बनवाना है. यू. के. में वह आंबेडकर मिशन सोसायटी से जुड़ा हुआ था. इस जुड़ाव ने उसे ‘काम्य अस्मिता’ का ज्ञान कराया था. इस नवार्जित अस्मिता का प्रचार करना उसके शेष जीवन का उद्देश्य बन चुका है.
‘गाँव जातिवाद से ग्रस्त हैं, शहर इस रोग से मुक्त हैं’, मोहनलाल फिलौरिया की कहानी ‘बदबू’ प्रस्तुत समझ को प्रश्नांकित करती है. स्वरूप स्यालवी की कहानी ‘अँधेरे के वासी’ औपन्यासिक कथावस्तु समेटे हुए है. यह तीन पीढ़ियों की संघर्ष गाथा है. बीच की पीढ़ी का नंदू अपने पिता मेहरू से लेकर पुत्र देव तक होने वाले परिवर्तनों का साक्षी है. समय के साथ तालमेल बैठाने में कहीं सफल और कहीं विफल होता नंदू अपनी नियति से समझौता करता है और संघर्ष भी.
पुरुषों की तीन पीढ़ियाँ हैं तो स्त्रियों की भी हैं. उन्हें उनके पतियों की छाया में धुँधला नहीं किया गया है. सबसे दमदार मेहनती चरित्र किरपी का है जो पहली पीढ़ी की है अर्थात् वह मेहरू की पत्नी और नंदू की माँ है. परिवार के अन्य सदस्यों की तुलना में वह तिगुना श्रम करती है.
पंजाबी दलित कहानी के इस सर्वेक्षण को न पर्याप्त माना जा सकता है और न प्रातिनिधिक. इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कहानी जीवन के असमाप्य विस्तार को पकड़ने अथवा उसके साथ हमकदम होकर चलने की भरपूर कोशिश कर रही है. वह परंपराओं की निरंतरता देख रही है और नवता की विफल, अर्ध-सफल तथा सफल कोशिशों की साक्षी बन रही है.
स्मृति, अनुभव और अनुमान के रसायन से तैयार इन कहानियों में कहीं राग है और कहीं आक्रोश. कहीं शब्दों की चुभन है तो कहीं स्नेहिल भावों का लेप. कहीं ‘अन्य’ की परख है तो कहीं ‘अपनों’ से मिली पीड़ा का अंकन. कहीं मिथकों के रास्ते ‘सच’ तक पहुँचने के प्रयास हैं तो कहीं देवसत्ता से जातिसत्ता की दुरभिसंधि का रूपायन.
पंजाबी दलित लेखन में स्त्री रचनाकारों की अनुपस्थिति खटकने वाली है. इस सर्वेक्षण में मात्र एक स्त्री कहानीकार शामिल है. इसके बावज़ूद यह कहना अनुचित होगा कि विवेचित कहानियों में दलित स्त्री का जीवन, उसकी पीड़ा और संघर्ष अनदेखे रह गए हैं.
ये कहानियाँ दर्शाती हैं कि समतामूलक समाज को संभव करने में साम्यवादी विचार और जन (कॉमरेड) कहीं सहयोगी भूमिका में हैं तो कहीं नेतृत्व में शामिल हैं. यह विडंबना भी कहानीकारों ने दर्ज़ की है धर्मतंत्र से जूझते हुए आगे बढ़ने वाला समाज किसी उलट सम्मोहन के ज़ोर से धर्म में ही शरण खोजने लग जाता है.
पंजाबी हिंदी के बीच सेतु बनाने में संलग्न गोंडा जिले के वरिष्ठ किसान राजेन्द्र तिवारी ने इन कहानियों का अनुवाद न किया होता तो भारतीय दलित साहित्य के इतने समृद्ध हिस्से से इस तरह जुड़ना संभव न था. उन्हें धन्यवाद देना मात्र औपचारिकता होगी.
बजरंग बिहारी तिवारी जाति और जनतंत्र : दलित उत्पीड़न पर केंद्रित (2015), दलित साहित्य: एक अंतर्यात्रा (2015), भारतीय दलित साहित्य: आंदोलन और चिंतन (2015) बांग्ला दलित साहित्य: सम्यक अनुशीलन (2016), केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य (2020), भक्ति कविता, किसानी और किसान आंदोलन (पुस्तिका, 2021) आदि पुस्तकें प्रकाशित. भारतीय साहित्य: एक परिचय (2005), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री से जुड़ी कहानियां (2012), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं (2013), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी आलोचना (2015) आदि का संपादन bajrangbihari@gmail.com |
बजरंग बिहारी तिवारी के आलेखों को पढ़ता रहा हूँ।ये दलित कथा को न जाने किस नजरिए से देखते हैं कि स्पष्टता बनती ही नहीं है।हालाँकि इनकी प्रसिद्धी दलित चिन्तक के रूप में है।कहानियों से दलित अस्मिता को दरकिनार करके देखने की इनकी कला है।और इस कलात्मक अभिव्यक्ती को इन्होंने बखूबी साध लिया है।जिससे न तो कहानी से दलित विकास की बाते उभरकर सामने आती है और न ही दलित होने के संकट को देखा जा सकता है।अस्पष्टता ही दलित कहानी की विश्वसनीयता है तो दलित विमर्श का मायने ही बेइमानी है।
बजरंग जी को पढ़ना हमेशा लाभकारी होता है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि दलित साहित्य में जहां भी नया कुछ हो रहा है उसको वे उल्लेखित करते हैं। उनके द्वारा पंजाबी दलित कहानी में नवाचार का परिचय यह बताने के लिए काफी है कि हिंदी की दलित कहानियों को अभी बहुत कुछ सीखना है। एकाध अपवाद को छोड़कर हिंदी की दलित कहानियों में अभी भी कविताओं की तरह आत्मालोचन का अभाव है, जो दलित कहानियों के विकास को अवरुद्ध ही करता है। बजरंग जी का अखिल भारतीय स्तर पर दलित साहित्य का अध्ययन निश्चित रूप से सभी भाषाओं के दलित साहित्य को समृद्ध करने का हेतु बनेगा।
बजरंग बिहारी तिवारी जी अच्छा काम कर रहे हैं दलित साहित्य में पर यह भी ध्यान देने की बात होगी उनके मूल्यांकन के समय कि उन्होंने मुख्यधारा के साहित्य पर कितनी बात की है? वर्ण और जाति का कितना विरोध किया है? सवर्णों को भी सुधारने की कोई मुहिम चलाए या फिर दलितों का ही सुधार करते रहे? स्वयं कितना परिवर्तन कर सके? दलित साहित्य लेखन के वर्चस्व का नही न्याय और पक्षधरता के लिए जाना जाता है।