कवि केशव तिवारी
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल
अवध के किसान आंदोलन की सबसे उर्वर जमीन जिसने अवधी के जुमई खाँ ‘आजाद’ और आद्या प्रसाद ‘उन्मत्त’ जैसे कवियों को पैदा किया, उसी प्रतापगढ़ जनपद की माटी ने सिरजा है केशव तिवारी को. केशव अपनी मातृभाषा अवधी में बोलते-बतियाते और जीते हैं फिर कविताई हिंदी में करते हैं. अपनी प्राथमिकता में कविता परिवेश, प्रजाति और युग का महान स्वप्न होती है, जो सिर्फ मातृभाषा में देखे जा सकते हैं. तो केशव की कविताएँ अपनी प्राथमिकता में जिस अवधी का हिंदी रूपान्तरण हैं उसकी तात्विक संरचना उनकी कविताओं में रिस आई है. यह रिस आई प्राणवायु ही केशव की कविता की जान है, जहान है.
केशव तिवारी नवें दशक के महत्वपूर्ण कवि है. उनका पहला कविता संग्रह ‘इस मिट्टी से बना’ 2005 में प्रकाशित हुआ. केशव उस समय हिंदी कविता में आते हैं जब प्रयोगवाद और नई कविता का शिल्प पुराना पड़ चुका था. नवीनताओं का लोभ समय की प्रासंगिकताओं से विमुख हो सिर्फ कलात्मक आभा भर रह गया था और उसके प्रति हिंदी समाज में विश्वसनीयता शेष न बची थी. किसी भी सभ्यता या समाज में कविता की दो परम्पराएँ सदैव से चलती आई हैं- एक प्राकृत जो लोकवादी होती है दूसरी संस्कृत जो कलावादी. ये मुसलसल चरणबद्ध समय-समय पर अपने प्रवाह में बढ़ती रही हैं. केशव प्राकृत लोकवादी परंपरा के काव्य मार्गी हैं. यह बात उनके पहले काव्य संग्रह की भूमिका में कवि-चित्रकार विजेन्द्र ने भी कही है-
‘कविता में जनपदीय चेतना को व्यक्त करना भारतीय कविता की बड़ी लम्बी परम्परा है. यह वही लोकधर्मिता है जिसको निराला, नागार्जुन, केदारबाबू और त्रिलोचन विकसित करते हैं. उसी परम्परा के कवि आज उसे आगे बढ़ा रहे हैं. यह प्रवृत्ति कविता में आज विरल है. मुझे प्रसन्नता है कि कवि केशव तिवारी उसी लोकधर्मी परम्परा को विकसित करने में लगे हैं.’
केशव जिस समय हिंदी कविता में आए उस समय की सबसे बड़ी काव्य चुनौती नई कविता के कलात्मक शिल्प से टकराना था. उस समय देसी लुक देने के लिए सहरतियों ने टटकेपन को भाषिक रूपवादी शिल्प में गढ़ लौकिकता का प्रतिबिम्ब दिखा कर अकादमिक आचार्यों को खूब रिझाया था. इस रिझावन को नब्बे के दशक के जिन कवियों ने सबसे ज्यादा झकझोरा उनमें से एक नाम केशव तिवारी का है. केशव गहराई से विश्वसनीयता का सत निकाल बिम्ब और प्रतिबिम्ब के बरक्स मूल को रखते हैं. वे भाषा के रूपवाद को खूब पहचानते हैं और ठेठ हथियारों से उससे टकराते भी हैं.
उनके पहले काव्य संग्रह का शीर्षक हो या इस संग्रह की पहली ही कविता दोनों अपना काव्य-हेतु और काव्य-प्रयोजन स्पष्ट कर देते हैं. शीर्षक है ‘इस मिट्टी से बना’ यह है लोकधर्मी पक्षधरता की चेतना. और यह बिलकुल अनजाने सहज ही हुआ होगा. किसानी जीवन यदि सिर्फ प्रतिबिम्ब होता तो शीर्षक होता ‘जिस मिट्टी से बना’. ‘जिस’ बनाम ‘इस’ इतना सजग है कि उतना ही सहज. इसी पक्षधरता से केशव नए प्रयोगों की अप्रासंगिकता से टकराते हैं. चाक पर बर्तन बनाता कुंभार या खेत में फसल काटता किसान ही यह कहेगा ‘इस मिट्टी से बना’. अपने लोक की यह निकटता अपनी प्रासंगिकताओं में कितनी मुखर है उनके पहले संग्रह की पहली कविता इसका घोषणा-पत्र है- ‘खुरदरी हथेलियों से’-
अबकी बचा रहा गेहूँ
गेरुआ के प्रकोप से
बची रही सरसों माहू की मार से
खूब हिली सुग्गे राजा की लाल चोंच
सुग्गा पावस ऋतु पसंद पक्षी है. विडम्बनाबोध पर लोक कहावत भी है ‘सावन सुआ उपास’. वसंत पसंद पक्षी तो कोयल है. इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मैं यह सोच रहा था कि वसंत के बिम्ब में सुग्गा क्यों ! दरअसल यह समय की विसंगति पर अप्रासंगिकता के सम्मुख व्यंग्य है. गेरुआ के प्रकोप से गेहूँ की फसल का बचना या माहू से सरसों. यह किसान द्वारा फसल रक्षा-प्रणालियों के बदलाव से ही संभव हो सका. अर्थात रोगों से फसलों को बचा लेना यह जीवटता की निशानी है. यहाँ सुग्गे को राजा कहना और उसकी लाल चोच प्रसन्नता में हिलना विजयी सजगता पर वाह जैसी सुखात्मक्ता ही है. मतलब सुग्गे की दाद बीते समय की सुभता है जो नए समय की चुनौतियों से टकराने वाले और जीत लेने वाले लोकवादी को मिली है. यह बदलते समय की करवट को पक्षधरता से जीने की सुंदरतम आहत को दाद है. वसंत वर्णन में सुग्गे का आना कोई बड़ी बात नहीं लेकिन इस व्यंजना के साथ आना अपनी सार्थकता को प्रकट करता है. उनकी यह कविता नवें दशक के कवि समय को भी बहुत संजीदगी से देखती हैं. कविता पर हो रहे हमले फसल पर हो रहे हमलों की याद दिलाते हैं. यह वह समय है जब प्रयोगवादियों के बेरहम सौंदर्यबोध का दबदबा तमाम नवीनताओं की अप्रासंगिक गलियों में भाँति-भाँति कुभाँति रगों में दिखाई पड़ता है. केशव अवध के किसानी जीवन की समस्याओं की समानता कविता की समानधर्मा स्थिति में बयां कर देते हैं-
यह समय है बीच खेत में
खड़े होकर दूर-दूर तक निहारने का
यह केशव की कविताई की जीवटता है जो लोक जीवन के गझिन अनुभवों की स्मृतियों से आती रहती है. ‘फैली खेतों में दूर तलक मखमल की कोमल हरियाली’ निहारने वाले पंत जी से केशव की निगाह में फर्क है ज़िम्मेदारी का. केशव का नजरिया खाँटी किसान का नजरिया है जबकि पंत जी का किसी शहराती का गाँव-देहात या खेत-खलिहान घूमने-फिरने का. केशव लोक जीवन में इतना धँसे हैं कि उनकी अनुभव सिद्धता जीवन की मार्मिकता को बहुत दूर तक देख-सुन सकती है यही कारण है उनकी कविता में एक व्यापक दूरदृष्टि लोक प्रविधियों से काव्य रस निचोड़ लाती है. केशव कविता के मैदान को भी दूर तक देखने की ताकत लेकर आते हैं. कविता से भी उनकी वही आशाएँ हैं जो किसान को एक भरी-पूरी फसल को तैयार करने का और भरण-पोषण का होता है. उनकी निगाह सिर्फ दशक पर नहीं शताब्दियों तक जाती है. इसलिए वे नवें दशक के उन विलक्षण कवियों में हैं जो कविता की दुनिया में तात्कालिक प्रशंसाओं या कामयाबियों पर आसक्त न होकर लम्बी तैयारी का जोख़िम उठाते हैं-
खुरदरी हथेलियों से
टीसती बिवाईयाँ सहलाने का
किसी पुराने विवाह-गीत के मुनहार का
और यह समय है, सूअरों के भी
थूथन उठाने का
कविता की आख़िरी पंक्तियाँ पढ़कर वे समीक्षक या पाठक जरूर धोखा खा सकते हैं यदि वे उत्तर भारतीय किसान जीवन की गझिन संघर्षशीलता को खुद न भोगे हों. सुअर का थूथन उठाना उनके लिए घृणा का बिम्ब हो सकता है लेकिन ऐसा है नहीं. यह बनैले सुअर आलू या अन्य फसलों को किस तरह बर्बाद करते हैं किसान ही जानते हैं. किसान को सकरकंद, घुइयाँ, आलू, मूगफली इत्यादि फसलों के बैठने के समय बहुत मुस्तैद रहना होता है. एक रात चूके तो खेत का सत्यानास कर खोदते-बेझते थूथन उठाते सूअरों को भोर में देख करेजा पकड़ कर रह जाएंगे. केशव जब कविता में आते हैं तो उन्हें यह भास होता है कि ऐसे बनैलों से सिर्फ फसल को ही नहीं कविता को भी बचाने की जरूरत है.
केशव तिवारी के अब तक चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. उनकी कविता की हर किताब में अवधी और अवध पर कविताएँ हैं. यह यूँ भी कह सकते हैं कि उनकी हर कविता में नाक, कान, आँख, जीभ, खाल अवधी और अवध के ही हैं. केशव अपने अवध और अवधी लोक में बहुत गहराई तक उतरने वाले कवि है. उनके बालपन से किशोरवय तक जो लोक-चेतना विकसित हुई वह उनके भोगे हुए यथार्थ की संघर्षशील कमाई है. वे ‘जोखू का पुरवा’ से निकल जहाँ भी देश-दुनिया में रोजी-रोटी के चक्कर में घूमें उनकी लोक चेतना उतनी ही निखरती गई, इसका कारण है – दूरहि नियर नियर भा दूरी’. उनके पहले ही कविता संग्रह की एक कविता है ‘अवधी’ जिसमें वे लिखते हैं-
यह पहली बार मेरी जुबान पर
आई थी माई के दूध की तरह
इसके ही इर्दगिर्द मड़राती है मेरी संवेदना
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का एक मशहूर वाक्य है कि ‘ज्ञान प्रसार के भीतर ही भाव प्रसार होता है.’ जीभ ज्ञानेन्द्री है जिसने माँ के दूध का पहला अनुभव-जनित ज्ञान हासिल किया. ज्ञान से भाव और भाव से विद्यमान संवेदना ने स्वभाव की निर्मितियों का कार्य करना आरम्भ किया. जिस जिह्वा ने कंठ को सींचा उस कंठ की आदिम ध्वनियों पर जब पहली बार जबान ने हरकत की उसे तराशा था कानों के इशारों ने. शब्द फूटे, प्रकारांतर में निकले वाक्य. यही है मादरी-ज़बान. मातृभाषा की नागरिकता. जीभ पर जिस तरह पहली बार माँ का दूध आया था उसी ज़बान से पहली बार जो भाषा निकली वही मातृभाषा हुई. केशव अपनी मातृभाषा पर कविता में यह कह रहे हैं. वे माँ और मातृभाषा को जिस तरह पहचानते हैं उस संबंधात्मकता का नाम है कविता. यह समय का फेर है कि केशव ने कविता लिखी सिर्फ हिंदी है. अवधी में उनके लिए कविता लिखना शायद वैसे ही है कि नानी के आगे ननिअउरे की बातें करना. और नानी उनकी नस-नस पहचनती थी. सो उन्होंने एक पर्दा डाल कर कविताई की. यह पर्दा भाषा का है. आज साकार दुनिया में नानी नहीं हैं लेकिन पर्दा अदब में अब भी झूल रहा है. आत्मा में नानी हैं और नाती के करतब देख सिहाती रहती हैं कि केशव अवधी से हिंदी को सींच रहे हैं.
अवधी मातृभाषा है और मातृभाषा का दायरा बहुत बड़ा होता है. अवधी ने तमाम मानकों के जमाने देखे हैं. इस लोकभाषा की जीवट परंपरा की प्राचीनता यदि जाननी हो तो सुनीति कुमार चटर्जी द्वारा लिखित ‘उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण’ की भूमिका पढ़ लेनी चाहिए और बाबू राम सक्सेना का शोध Evolution of Awadhi भी. किशोरीदास वाजपेई एवं रामविलास शर्मा के अवधी संबंधी अध्ययन भी बहुत कुछ कहते हैं. सचमुच कुंजीछाप अधकचरा ज्ञान निहत्था हो जाएगा. केशव जिस भाषा की चारित्रिक पुरातनता पर कविता लिखते हैं उसके बारे में डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी का यह कथन दृष्टव्य है-
“बारहवीं सदी के मध्य में सम्बद्ध क्षेत्र की भाषा लगभग पूरे विकास की उस मंजिल तक पहुँच गई थी जहाँ उसे हम इस समय पाते हैं. अर्थात बारहवीं सदी की अवधी और आधुनिक अवधी में बहुत अंतर नहीं है. यदि आठ सौ साल में इतनी उथल-पुथल होने पर भी अवधी में कोई विशेष अंतर नहीं आया तो यह माना जा सकता है कि उससे आठ सौ साल पहले भी कम से कम बीज रूप में, अवधी विद्यमान रही होगी. यही बात उत्तर भारत की अन्य जनपदीय भाषाओं के बारे में कही जा सकती है. हिंदी, मराठी बंगला आदि आधुनिक मानक भाषाएँ बाद में विकसित होती हैं. किन्तु जनपदीय भाषाएँ बहुत पुरानी हैं.”
केशव अवधी की इस बीज परंपरा को अपनी कविता में याद करते हैं. जहाँ शोध और इतिहास चुप हो जाते हैं कविता में कवि वहाँ भी बोलता है-
यह उनकी है जिनका
सुख-दुःख सना है इसमें
धधक रही है जिनकी छाती
कुम्हार के आँवा की तरह
जिसमें पक रहे हैं यहाँ की माटी के
कच्चे बर्तन
कल के लिए
केशव कहते हैं कि यह हमारी मातृभाषा है यह उतनी ही आदिम है जितने कि हमारे सुख-दुःख. कवि जब यह कह रहा है कि ‘यह उनकी है’ तो अपने आदिम पुरखों की परंपरा याद कर रहा है. यहाँ केशव ने जिस रूपक का सहारा लिया है वह अवधी के स्वभाव की बनक को चित्रपटी पर उकेर देता है. कच्ची मिट्टी से बने बर्तन पकते हुए आग की धधकन में भी अपना स्वरूप नहीं बदलते बल्कि पक्के हो जाते हैं. इस मातृभाषा ने तमाम उथल के बावजूद अपना स्वभाव नहीं बदला. मनुष्यता के सांस्कृतिक मूल्य इस जमीर में आज भी जिंदा है. इस मातृभाषा के जन सुख-दुख की जीवन लहरों में थपेड़े खाते अनादि काल से भाषा के मूल्य अपनी स्वाभाविकता में बचाते आए हैं. राहुल सांकृत्यायन ने इस भाषा की एक विशेषता ‘दोहाकोश’ का सम्पादन करते हुए उसकी भूमिका में लिखी है –
“अपभ्रंश का भूतकालिक प्रयोग अवधी के सबसे नजदीक है. इसके लिए इल-अल प्रत्यय का प्रयोग भोजपुरी आदि में पीछे से होने लगा…सरह की भाषा और स्वयंभू आदि की अपभ्रंश नें अतीत काल के संबंध में प्राकृत आदि से अपना संबंध बिलकुल तोड़ लिया और उसका अनुसरण आज भी हमारी भाषाएँ कर रही है. भेद इतना है कि जहाँ भोजपुरी, बंगला, मैथिली आदि ने ‘इउ’ का ‘इल’, ‘अल’ कर दिया वहाँ अवधी ने पहले की तरह ‘अउ, इउ, एउ’ को कायम रखा.”
केशव अपनी भाषा की इसी ताकत पर भरोसा रखते हैं कि हमारी माटी के कच्चे बर्तन जब कल की दुनिया में पक कर पहुँचेंगे अपने स्वभाव को जिंदा बचा ले जाएंगे. मिट्टी के बर्तनों का रूपक हमारी संत-भक्त परंपरा में कितने रूपों में आया है कहने की आवश्यकता नहीं.
केशव कविता की दुनिया में समय और समाज के साथ गहरे धँसते हुए दिखाई पड़ते हैं. उनका दूसरा कविता-संग्रह ‘आसान नहीं विदा कहना’ (2010) उनकी कविताई का एक लहरदार मोड है. इसमें अवध के साथ बुंदेलखण्ड मिल गया है. जैसे अवध के साथ बुंदेलखण्ड का जो बहुत पुराना रिश्ता है. अवध की किशोरवय बुन्देली प्रौढ़ता में जीवननुभाओं की आँच पर तप कर जैसे और निखर गई हो. इस संकलन की कविताएँ पढ़ते हुए यह सहज महसूस किया जा सकता कि कवि को कोई जल्दबाज़ी नहीं वह बड़ी धीरता से सामाजिक काव्य-संगत डगर पर प्रासंगिकता की बाँह गह आगे बढ़ रहा है और सतत अपने जिये गए जीवन का मूल्यांकन करते वे करते हैं-
क्या किया हमने
पुरखों की अर्जित भूमि पर
ज़िंदा रहे
उनके ही खोदे
कुँओं से जल पिया
उनसे ही खुद को जोड़कर
वक़्त-बे-वक़्त हाँकी शेखी
इलियट का यह मशहूर कथन याद कि ‘केवल अतीत ही वर्तमान को प्रभावित नहीं करता, वर्तमान भी अतीत को प्रभावित करता है.’ केशव की कविताएँ आज के समय में बदलती सामाजिक प्रवृत्तियों से हमारे अतीत की मौलिकता किस हद तक प्रभावित हुई है, इस ओर बहुत संजीदगी से प्रकाश डालती हैं. इस संचार क्रांति के युग में हमारे उत्तर आधुनिक उत्तर सत्यों ने लगातार विसंगतियों और विडंबनाओं को खूब बढ़ावा दिया है. विकास का मुखौटा लगाए विनाशलीलाएँ हो रही हैं. सुंदरताएँ सत्य और न्याय की मौलिकताओं के साथ समाज और संस्कृति से पलायन कर चुकी हैं. इस विलोमीयत का नग्न नृत्य देख कवि क्षुब्ध हो उठता है, इसका एक दृश्य ‘अवध की रात’ कविता में है जो ‘तो काहे का मैं’ संग्रह में संकलित है, देखा जा सकता है-
शहरों से असाध्य बीमारियाँ कमा
लौटे युवा
लेटे हैं झिनगा पर
दरवाजे के सामने खाँसते
यह शामें अवध नहीं
अवध की रात है
केशव अपनी कविताओं में नव-उदारवाद की मायावी साजिशों को अपने समकालीनों में सबसे ज्यादा बेनकाब करते दिखाई देते हैं. गाँव और शहर के बीच जो शीतयुद्ध बहुत कायराना हरकतों से नवें दशक में लड़ा जा रहा था, इस लड़ाई को यदि चरणबद्ध तौर पर समझना हो तो केशव की कविताई के विकास-क्रम को भी देखा समझा जा सकता है. वे लगातार समय की बहुत शातिर हो चुकी चालाकियों का पर्दाफाश करते हुए लोक की पक्षधरता को सचेत करते चलते हैं. वे लोक की जड़ता पर लहाटोट होने वाले लोकवादी नहीं है. वे अपने समय के विसंगतिपूर्ण लोक और वेद की जड़ताओं को फटकारते हुए सोये हुए दिमागों में एक झनझनाहट पैदा करते हैं. उनकी कविताएँ एक स्पार्क की तरह दूसरे स्कार्क की संभावना से भरी हुई हैं. यह जिजीविषा ही लोक तात्विक्ता का प्राण है, गति है.
इक्कीसवीं सदी का नवाँ दसक सूचनाक्रांति और डिजिटल टेक्नोलोजी के औद्योगिकीकरण के लिए गाँव को सबसे बड़ा बाजार बनाने की तैयारी हो रही थी. ग्रामीण जनता मनुष्य के नैतिक स्तर से गिरा कर सत्ता के बहाने कॉरपोरेट का संसाधन बनने की डगर पर भयंकर अंधकार की ओर गर्त में धकेली जा रही थी. गाँव की हालात में बहुत खतरनाक परिवर्तन हो रहे थे. आवारा पूंजी के आखेटक मेहनतकशों को शहर की तरफ खींचने के बजाय अब अपनी भुजाएँ गाँव तक लंबी कर रहे थे. टेलीकॉम कंपनियाँ नव साम्राज्यवाद के भुजबल में वज्र बन कर ‘नव गति, नव लय, ताल-छंद नव नवल कंठ’ सुदूर शहर नहीं गाँव के अंतर में घुस कर द्वार-द्वार वरदानों में सुनहरी गुलामियों के स्वप्न मुफ्त में बाँट रही थीं. भारत के गाँव जहाँ आधुनिकता के विज्ञान और तर्क प्रवेश ही नहीं कर पाये थे, जहाँ आधुनिक शिक्षा के करतब निष्प्राण पड़े थे अब वहाँ विज्ञान का जादू प्रवेश पा रहा था. आवश्यकता के अनुरूप नहीं फैशन के डोल बांधे. यह वही समय है जब गाँव में एक खास किस्म का नव सामंतवाद चमकदार हो उठा. यह पूंजीवाद की सबसे बड़ी विजय हुई. इसके उद्भव का कारण हैं नव उदारवाद, नव पूंजीवाद और नव साम्राज्यवाद. केशव की कविता में इसी नव-सामंतवाद का एक दृश्य देखिए-
दिवाली है
खेत जगाए जा रहे हैं
मेड़ों पर जलाए जा रहे हैं दिए
न धान को जड़ों भर पानी
न खेतों को कम्पोस्ट और डी. ए. पी.
भूखे प्यासे खड़े हैं खेत
खेत नहीं खेतों में फसलें खड़ी होती हैं. यहाँ जिस लक्षणा का प्रयोग कवि कर रहा है वह भी नव सामंतवाद का एक बिम्ब खड़ा करने में कितना सहायक है कहने की आवश्यकता नहीं. यह नव सामंतवाद की सेंधमार दिवाली आज कहाँ जा पहुँची है इसका अनुमान लगाना हो तो कोरोना भागने के लिए असमय घटित उस दिवाली की याद कर लीजिए जो महामानव के आह्वान पर पागल अवाम ने कारपोरेट हित में मनाई थी. संस्कृति का ऐसा विद्रूप दृश्य होमोसेपियंस के इतिहास ने भले ही कभी देखा हो. कवि अपने लोक को इस घात के ख़तरे से बाहर निकालने के लिए जो कर सकता था, कविता में करता हुआ ज़िम्मेदारी के साथ दिखाई देता है.
हाल-फिलहाल केशव तिवारी का चौथा कविता-संग्रह ‘नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा’ प्रकाशित होकर आ चुका है. इस किताब की कविताएँ पढ़ते हुए केशव की काव्य-यात्रा की उड़ान देखी जा सकती है. पहले संग्रह से लेकर यहाँ तक कवि का जो प्रांजल परिष्कार हुआ है वह अपने समय की जटिलताओं को और निर्भीक ज़िम्मेदारी से उद्भासित करता है. उनकी लोक दृष्टि संक्रमित जड़ताओं को परत-दर परत उघाड़ कर नव सामंतवादी वर्चस्व की कलई खोलती दिखाई देती हैं. वे यह खूब जानते हैं कि इस नव सामंतवाद की जड़ें नव पूंजीवाद, नव साम्राज्यवाद और नव उदारवाद के मिश्रण से खाद-पानी लेती हैं जिससे आज दुनिया की सबसे बड़ी बाजार लहलहा रही है. जहाँ आधुनिकता की दाल नहीं गल सकी वहाँ नव सामंतवाद पचखियाँ फेंक रहा है. केशव की इस नई किताब में समय संगत पूंजी और बाजार ने जिन बहुत शातिर हथियारों से जघन्य लूटपाट शुरू की है, उन औजारों की कारस्तानी को हिंदी कविता में बहुत पैनी दृष्टि से देखा गया है. इस संग्रह की एक कविता है ‘अवधी में’ जिसमें यह शायद पहली बार दर्ज हो रहा है कि आवारा पूंजी का सरगना नव सामंतवाद के कंधे पर हाथ धर कर कहाँ तक पहुँच चुका है-
एक हत्यारे ने पूछा अवधी में-
का हाल चाल बा
एक ठग ने पूछा भैया-
बहुत दिन मा देख्यान
एक हारे हुए प्रधान ने की शिकायत-
तोहरे घरे कै वोट नाही मिला
आज भाषाओं का शिल्प ही नहीं उसकी देह पर भी ख़तरे के निशान देखे जा सकते हैं. और यह केशव ने अपनी कविताओं में दिखाया है. यदि कविता भाषा की सर्वोत्तम विश्वसनीयता है तो भाषा के स्वभाव को बचाए रखना और उस पर हो रहे प्रायोजित हमलों से उस भाषा के लोगों को सचेत करना भी कविता का जरूरी काम है जिसे केशव ने पूरी ताकत से कविता में ईमानदार अभिव्यक्ति दी है. आज नव सामंतवादी साज़िशें जिस ठिकाने से संचालित हैं उन पर प्रहार करने से पहले संक्रमित हो चुकी लोक रुचियों को प्रांजल करना भी लोक-हित-वादियों का ही काम है. क्योंकि भाषा की तासीर ही यदि भिंजर गई तो लोक-लुटेरों से किसके लिए लड़ा जाएगा. आज लुटेरों की निगाह पर संघनित लोक है जहाँ बाज़ारों के लिए सब-का-सब कच्चा माल और उस से बने सारे-के-सारे उत्पाद को खपा देने के लिए प्रचंड उपभोक्ता. यह मानव सृष्टि की अंतिम संसाधनिक शक्ति है जिसके संक्रमित होते ही व्यापार के लिए कुछ नया नहीं बचेगा. हत्यारे और ठग के बाद एक हारा हुआ प्रधान कविता में जिस तरह आए हैं यह एक श्रेणीबद्धता है. ये आज के कारोबार का लोक विरुद्ध चरित्र गहरी पैठ बना रहा है. केशव सजग करते हैं-
लगा त्रिलोचन और मान ही नहीं
अवधी में इनका भी कारोबार चलता है
हम कह सकते हैं कि केशव की काव्य-यात्रा तमाम ध्वनियों, बिंबों और भाषागत शिल्प में निरंतर ऊर्ध्वगामी रही है. इसे एक रास्ते ही यदि देखना हो तो उनकी अवधी और अवध पर लिखी कविताओं से भी समझा जा सकता है जिसका थोड़ा-बहुत विश्लेषण करने का यहाँ मैंने भी प्रयास किया है. उनके इस चौथे संग्रह की कविताएँ ‘कुछ करीब-करीब ध्वनियों के साथ’ जो विशिष्टता लेकर उपस्थित हुई हैं वह अचानक से नहीं संभव हुआ. इसकी एक लंबी सुदीर्घ परंपरा रही है. और यह सजग कवि परंपरा ही कविता रचती है जिसे केशव ने बड़ी ज़िंदादिली से गहा है. यह उन्हीं के शब्दों में कहा जा सकता है जो अधिक विश्वसनीय होगा. कविता का ईमान है यही-
हम अचानक ही मुक्ति की बात नहीं कह उठते
सदियों से गले में ठिठके हैं शब्द
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शैलेन्द्र कुमार शुक्ल shailendrashukla.mgahv@gmail.com |
कवि केशव तिवारी अपने नवीनतम कविता संग्रह में जिस नदी के मर्सिया की बात कर रहे हैं, उस सई नदी में बचपन में हमने भी खूब नहाया है। वह धवल निर्मल जल अब सिर्फ स्मृति में है, वर्तमान में वह इतना प्रदूषित और काला हो गया है कि विश्वास ही नहीं कि यह वही सई नदी है। उस नदी का मर्सिया लिखकर केशव जी ने न सिर्फ कवि दायित्व का निर्वाह किया है, समाज पर उपकार भी किया है।
Shailendra जी ने केशव जी की कविताई पर बहुत सुंदर और सारगर्भित लिखा है। केशव भाई के बहाने प्रतापगढ़ की अवधी परंपरा को भी याद करना अच्छा लगा। जुमई खां आज़ाद और आद्या प्रसाद उन्मत्त का जिक्र देखकर मन हरा हो गया। जुमई खां आज़ाद की पंक्तियां याद आ गईं-
कथरी तोहार गुन ऊ जानइ
जे करइ गुजारा कथरी मां।
केशव भाई प्रतापगढ़ की उसी कथरी के लाल हैं। उन्हें नए संग्रह और जन्मदिन की बधाई।
केशव तिवारी जी को सुभीते से पढ़े जाने की आवश्यकता है। शैलेन्द्र भाई का यह लेख केशव तिवारी जी की कविताई की ओर बरबस आकर्षित करता है। लोकभाषा अवधी केर अलाव यही तना सुलगत रहै,तब्बो आंच बनी रही।
केशव तिवारी की कविताओं में लोक चेतना का अबूझा रंग है, जिसे युवा आलोचक शैलेन्द्र कुमार शुक्ल ने पहचानने का सार्थक उपक्रम किया है। अगर केशव तिवारी जी बांदा जनपद के कवि हैं तो उनकी कविता में अवधी और बुंदेली बोली – भाषा का अभिनय चातुर्य दीख पड़ता है जो उस मिटृटी के स्वभाव गुण से आता है।
बहरहाल, यह लेख केशव तिवारी की कविता को समझने की जमीन की गोड़ाई करता प्रतीत होता है।
कुमार अंबुज और केशव तिवारी जिनकी आशंसा में दो युवा आलोचकों संतोष अर्श और शैलेंद्र शुक्ल के जो युक्तियुक्त, अध्ययनपरक और नवाग्रहों से भरे आलेख आये हैं, हमारे समय की हिंदी कविता के दो ध्रुव हैं जो इस सभ्यता से गहरी नाराज़गी और असहमति ही नहीं ज़ाहिर करते , बहुत विडंबनात्मक तौर तरीकों से प्रतिकार की तमाम कारगुज़ारियों की ओर गहरे और मानवीय संकेत भी करते हैं। इस बीच मैं बहुत उलझा हुआ हूँ और पढ़ने का मौका निकालना दुष्कर हो रहा है फिर भी मसरूफियात के बावजूद इन दोनों कवियों के बारे में एक साथ कुछ कहने का मन इसलिए भी हुआ कि हिंदी कविता का मुहावरा वैसा यकसांपन भी लिए हुए नहीं है जिसका अरण्यरोदन कई सरपट सामान्यीकरण के आदी आलोचक करते रहते हैं। दोनों का डिक्शन वल्लाह , कितना तो अलहदा है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि एक कवि दूसरे की जगह नहीं लेता। कुमार ने हिंदी कविता को कहन और अंतर्वस्तु का संभार प्रदत्त किया है तो केशव तिवारी की कविता में केदार अग्रवाल के भूभागों और जनक्षेत्रों को फिर से जांचने बांचने का विरल काव्यात्मक उद्यम दिखता है और हिंदी कविता में विरल होती जाती हनक का विकंपन । कुमार और केशव दोनों ही अपनी वैचारिक दृढ़ता के लिए समादृत हैं। दोनों की दो तरह की आवाज़ों को आप फोन पर तो महसूस कर ही सकते हैं – बहुत खींचा हुआ भी लगे तो कहा जा सकता है कि हिंदी कविता की स्वरलिपि को इन्होंने भैरवी और भैरव की मंद्रता और आड़ोलन दिये हैं। हिंदी कविता का एकस्वरीय पाठ रचनात्मक अवरोध का सूचक होगा। कुमार और केशव समकालीन कविता की विविधता के दो सहज ही अभिज्ञापित साइनपोस्ट हैं। समालोचन द्वारा इन दो महत्वपूर्ण कवियों पर एक के बाद एक सूझ भरी समीक्षाएँ देना स्मृतिवान होना है और हिंदी कविता में जो महत्वपूर्ण और हस्तक्षेपीय है , उसके प्रति सजग बने रहना है।
कभी आलोचक (स्मृतिशेष) शिवकुमार मिश्र ने जिस कवि की ओर हिंदी समाज का ध्यान दिलाया था आज उस केशव तिवारी की काव्ययात्रा पर कवि-आलोचक शैलेन्द्र शुक्ल का सुचिंतित-सुगठित लेख पढ़कर बड़ी आश्वस्ति हुई। शैलेन्द्र ने ठीक ही लक्षित किया है कि केशव “लोक की जड़ता पर लहाटोट होने वाले लोकवादी नहीं हैं। वे अपने समय के विसंगतिपूर्ण लोक और वेद की जड़ताओं को फटकारते हुए सोये हुए दिमागों में एक झनझनाहट पैदा करते हैं।”
अवधी क्षेत्र में पसर रही हिंसा और विस्मृति के दिनों में ऐसे लेख मशाल का काम कर सकते हैं बशर्ते उनका संज्ञान लिया जाए और उनसे इंगेज हुआ जाए।
शैलेन्द्र, केशव और समालोचन के कर्ता-धर्ता अरुणदेव को साधुवाद।
केशव तिवारी लोक के बड़े कवि हैं।उन्होंने शहर केंद्रित कविताओं के समकालीन दौर में लोकजीवन को प्रतिष्ठापित किया है।लोक जीवन की तमाम रंगते, उनके तीज त्योहार,उनके रीत रसम, उनके सुख-दुख सभी उनकी कविताओं में पूरी विश्वसनीयता से रूपायित होते हैं।अपनी कविताओं में वे अपनी परम्परा और बोली(अवधी)
बानी को जीते हुए चलते हैं-पूरी शिद्दत के साथ।यह भी लगभग चौंकाने वाला तथ्य है कि वे कथित आधुनिकता से दूर-दूर तक
आतंकित नहीं हैं।तभी वे
देसी मिज़ाज की ऐसी खरी और अलग कविताएँ लिख पाते हैं:
एक हत्यारे ने पूछा अवधी में-
का हाल चाल बा
एक ठग ने पूछा भैया-
बहुत दिन मा देख्यान
एक हारे हुए प्रधान ने की शिकायत-
तोहरे घरे कै वोट नाही मिला
लगा त्रिलोचन और मान ही नहीं
अवधी में इनका कारोबार भी चलता है।
शैलेन्द्र कुमार ने केशव जी की
कविताई पर वाक़ई बहुत मन और मेहनत से लिखा है।