मस्जिद, गुफा, बलात्कार, मन्दिर ए पैसेज टु इण्डिया : सौ साल बाद हरीश त्रिवेदी |
अंग्रेजों ने भारत में करीब डेढ़-दो सौ साल राज किया और उस दौरान अपनी तरफ से उन्होंने हमें तरह-तरह से समझने की भी कोशिश की. इस प्रयत्न के पीछे अनेक कारण थे जिनमें पहला यह था कि जितना वे हमारे बारे में जान सकेंगे उतनी ही उन्हें हमारे ऊपर राज करने में सुविधा होगी. मिशेल फूको (Foucault) का एक सूत्र वाक्य है, “Knowledge is Power.” इसी को एडवर्ड सईद ने अपनी अत्यंत प्रभावी पर स्पष्ट ही एकांगी पुस्तक “Orientalism” (1979) में पल्लवित किया और उसी से उत्तर-उपनिवेशवाद के विधिवत अध्ययन का सूत्रपात हुआ.
अस्तु, किसी भी देश या सभ्यता के बारे में जानने का सबसे सहानुभूतिपूर्ण तरीका शायद उसके साहित्य और कला को जानना है, जिसे अंग्रेजों ने 1780 के दशक में ही शुरू कर दिया था. तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने भले ही चारो तरफ खूब लूट-पाट मचाई हो पर वे भारतीय संस्कृति और साहित्य में भी रुचि लेते थे और उन्हीं के प्रोत्साहन से “भगवद्गीता” का चार्ल्स विल्किंस (Wilkins) ने 1785 में अंग्रेज़ी में अनुवाद किया और फिर सर विलियम जोन्स (Jones) ने 1789 में “अभिज्ञान-शाकुंतलम” का, और अपने अनुवाद की भूमिका में तो उन्होंने कालिदास को भारत का शेक्सपियर तक कहा. (बाद में तो एक भारतीय आलोचक ने ऐसी तारीफ़ पर भी ऐतराज़ किया, कि कालक्रम से चलें तो शेक्सपियर को इंग्लैंड का कालिदास कहना बेहतर होगा.) हमारे प्राचीन ग्रंथों का अंग्रेजी अनुवाद इतने अध्यवसाय से होता रहा कि संस्कृत और पाली का शायद ही कोई ऐसा साहित्यिक या दार्शनिक प्रसिद्ध ग्रन्थ हो जिसका उन्नीसवीं शती के अंत तक अनुवाद न हो चुका हो.
लेकिन अनुवाद से भी बढ़ कर एक और तरीका है और वह है किसी अज्ञात या अल्पज्ञात देश के बारे में स्वयं कुछ लिखना, और वह भी किसी सर्जनात्मक विधा में. तथ्यात्मक जानकारी और कल्पना के मिश्रण से ही तो अंतर्दृष्टि बनती है. तो अंग्रेजों ने भारत के बारे में हज़ारों कविताएँ लिखीं और सैकड़ों कहानियाँ और उपन्यास लिखे. हमने भी उनके बारे में अपनी किसी भाषा में जम कर कुछ ऐसा लिखा हो तो उसकी जानकारी मुझे नहीं है. कहाँ है एक भी ऐसा हिंदी उपन्यास जिसका नायक तो क्या कोई मुख्य पात्र भी अंग्रेज़ हो? फुटकर पात्र तो आते रहते हैं, और प्रेमचन्द में ही चार-छह निकल आयेंगे, पर वे विकसित और विश्वसनीय चरित्र कम हैं और प्रतीकात्मक खल-पात्र और कार्टून (या caricature) कुछ ज्यादा.
जैसे कि “विचित्र होली” (1921) नामक कहानी में मिस्टर क्रॉस नाम का अँगरेज़ साहेब (Cross अर्थात क्रोधी) होली के दिन शिकार करने चला जाता है तो उसके सभी नौकर उसी की मेज़ पर बैठ कर आराम से उसकी शराब पीते हैं और खूब ग़दर मचाते हैं. इसी तरह “रंगभूमि” (1925) में मिस्टर क्लार्क नाम का अँगरेज़ कलेक्टर उपन्यास के अंत में स्वयं सूरदास को गोली मारता है जिससे उसका प्राणांत हो जाता है, जिस पर प्रेमचन्द टीका करते हैं, “आत्मबल पशुबल का प्रतिकार न कर सका.” फिर “कर्मभूमि” (1932) में तीन गोरे सिपाही आते हैं जो दुश्चरित्र हैं और पकडे जाने और पिटाई होने पर जिनमें से एक गोली चला देता है. इनका गोरा होना ही पर्याप्त है; इनको तो प्रेमचन्द अलग-अलग नाम भी नहीं देते! इन सभी अँगरेज़ पात्रों के चित्रण में जितना यथार्थवाद है उससे भी कुछ बढ़ कर प्रेमचन्द का भावुक आदर्शवाद और सुदृढ़ राष्ट्रवाद.
बहरहाल, अंग्रेजी भाषा में जितने भी उपन्यास भारत के बारे में लिखे गए उनमें सर्वश्रेष्ठ है ई. एम. फ़ॉर्स्टर (Forster) का उपन्यास “ए पैसेज टु इण्डिया” जो सन 1924 में छपा, ठीक सौ साल पहले. मेरी अपनी राय में भारत के अनेक पक्षों के बारे में, जिनमें से कुछ अंग्रेजों के लिए आकर्षक थे और कुछ भयावह, जितनी गहरी पकड़ रडयार्ड किपलिंग (Rudyard Kipling) की थी वह किसी और लेखक की नहीं, और उन्होंने भारत के बारे में जितना लिखा (तीन उपन्यास, करीब चालीस कहानियाँ, और सौ से अधिक कविताएँ) उतना बहुत कम पश्चिमी लेखकों ने लिखा. फॉर्स्टर ने वह बस एक ही उपन्यास लिखा (और एक भारत का यात्रा-वृत्तान्त जो इसी उपन्यास का कच्चा माल है), रहे भी भारत में किपलिंग की तुलना में बहुत कम समय तक, लेकिन जो लिख गए उसका जवाब नहीं. भारत की बात छोडिये, यह उपन्यास अंग्रेजी में कभी भी, किसी भी विषय पर लिखे गए, श्रेष्ठतम 100 उपन्यासों में गिना जाता है.
कथानक: पूरब-पच्छिम
फॉर्स्टर का स्वयं मानना था कि उपन्यास के जितने मुख्य तत्व होते हैं उनमें निम्नतम है उसका कथानक. यदि आपको कोई अपन्यास सिर्फ इसलिए बांधे रहता है कि “फिर क्या हुआ?” और उसमें यदि अपनी दृष्टि नहीं है, लय नहीं है, कलात्मक विधान नहीं है, तो भला वह कोई उपन्यास हुआ? लेकिन मानना होगा कि यह भी सच है कि यदि किसी उपन्यास का कथानक ही लचर और उबाऊ है तो पाठक उसे शायद बीच में ही छोड़ देगा.
“ए पैसेज टु इण्डिया” का कथानक रोचक भी है और कलात्मक रूप से सघन बल्कि जटिल भी. इसकी रोचकता के दो मुख्य कारण हैं. पहला यह कि उपन्यास का कथा-तत्त्व, और यह जिज्ञासा कि फिर क्या हुआ, हमें लगातार बांधे रहते हैं- भले ही फ़ॉर्स्टर ने उन्हें एक घटिया तत्त्व माना हो! और दूसरे यह कि इस उपन्यास की विधा कॉमेडी (Comedy) है, जिसके लिए हमारे यहाँ हिंदी में कोई शब्द नहीं है (जैसे कि ट्रैजेडी के लिए भी नहीं है, और “त्रासदी” तो बिलकुल ही गलत है).
कॉमेडी का अर्थ अंग्रेजी में होता है सामान्य जन-जीवन का चित्रण ऐसे मनोरंजक ढंग से करना जिसमें व्यंग्य, विडम्बना, वक्रोक्ति, हास्य और कथा-विपर्यय लगातार आते रहें जिससे लगे कि अरे, होने तो यह वाला था तो कैसे यह कुछ और हो गया! इस विधा की पूरे अंग्रेज़ी साहित्य में शीर्ष लेखिका जेन ऑस्टिन (Jane Austen) मानी जाती रही हैं और फ़ॉर्स्टर के कई उपन्यासों की तुलना जेन ऑस्टिन के उपन्यासों से की गयी है तो इससे बढ़ के उनकी तारीफ क्या होगी.
“ए पैसेज टु इण्डिया” तीन खण्डों में विभक्त है, जिनके शीर्षक हैं “मस्जिद” (Mosque), “गुफा” (Cave), और “मन्दिर” (Temple). एक अँगरेज़ नवयुवती एडेला क्वेस्टेड भारत आती हैं एक वृद्ध अँगरेज़ औरत मिसेज मूर के संरक्षण में, और पाती हैं कि यहाँ के अँगरेज़ अफसर तो भारतीयों के प्रति बहुत ही अभद्र व्यवहार करते हैं. इनमें मिसेज़ मूर के पुत्र रॉनी भी शामिल हैं जो यहाँ चन्द्रपुर नाम के शहर में सिविल मैजिस्ट्रेट हैं और जिनसे इंगलैंड से ही शादी करने का इरादा करके एडेला भारत आई हैं. पर यह सगाई बाद में टूट जाती है. इस बीच एक मुस्लिम पात्र डॉक्टर अज़ीज़ अकस्मात मिसेज़ मूर से मिलते हैं और उनकी शालीनता, नम्रता और सहज सद्भावना से तुरंत (और कुछ अधिक ही) अभिभूत हो जाते हैं. वे इन दोनों आगंतुक अँगरेज़ महिलाओं और कुछ और मित्रों को भी निमंत्रण देते हैं कि पास ही जो अत्यंत प्राचीन गुफाएं हैं एक पहाड़ी पर वहाँ चल कर एक पिकनिक की जाय.
बलात्कार का अभियोग
पर वहाँ जा कर जब एडेला और यह खुश-मिज़ाज और देखने-सुनने में आकर्षक डॉक्टर एक गुफा की ओर अकेले ही जा रहे होते हैं तो एडेला को लगता है कि अज़ीज़ ने गुफा के अन्दर उनसे बलपूर्वक दुर्व्यवहार (“assault”) किया है. पिकनिक से लौटते ही डॉ. अज़ीज़ गिरफ्तार कर लिए जाते हैं और उन पर मुक़द्दमा चलता है.
इस बीच एडेला के मन में गुफा के अन्दर सुनी एक प्रतिध्वनि लगातार गूंजती रहती है जिससे उनके मन में सब कुछ अस्पष्ट-सा बना रहता है. जब मुक़द्दमें में उन्हें गवाही देनी होती है तो वे कहती हैं कि उन्हें ठीक से पता नहीं कि गुफा में हुआ क्या था, और वे अभियोग वापस ले लेती हैं. डॉ. अज़ीज़ बाइज्ज़त रिहा हो जाते हैं, और सभी अंग्रेजों की नाक कटती है क्योंकि वे सब एडेला के लगाए अभियोग का जमकर समर्थन कर रहे थे और अज़ीज़ को पहले से ही दोषी माने बैठे थे. इसके बाद एडेला जल्दी ही वापस इंग्लैंड चली जाती हैं.
अंग्रेजों में अज़ीज़ के बस एक समर्थक हैं, फील्डिंग नाम के व्यक्ति जो वहाँ के कॉलेज के प्रिंसिपल हैं, पर उनकी और अज़ीज़ की भी अब एडेला को लेकर अनबन हो जाती है, और वैसे भी अब वह बाकी अंग्रेजों के बीच खप नहीं सकते तो वे भी इंग्लैंड लौट जाते हैं. मिसेज़ मूर को पहले ही इंग्लैंड रवाना कर दिया गया था कि वे कहीं अज़ीज़ की तरफ से गवाही देने को खड़ी न हो जाँय, पर उनका वापसी यात्रा में रास्ते में ही देहान्त हो जाता है और उन्हें वहीं जल-समाधि दे दी जाती है. लगता है कि उपन्यास ख़तम हो गया, पैसा हज़म हो गया.
अंग्रेजों को ही क्या शायद दुनिया भर के सभी विदेशी शासकों को लगातार यह डर लगा रहता था कि उनकी किसी भी औरत को कहीं अकेली पकड़ कर कोई शासित व्यक्ति यदि बलात्कार कर दे तो जैसे वह अकेला व्यक्ति अपने पूरे शासित देश और समाज की तरफ से शासक वर्ग से प्रतीकात्मक और भावात्मक रूप से बदला चुकाने में सफल हो गया है. शासकों के इस सतत संत्रास का अंग्रेजी में पहला बड़ा उदाहरण तो शेक्सपियर में ही मिल जाता है, उनके अंतिम नाटक “द टेम्पेस्ट” (The Tempest) में, जिसमें विदेशी शासक प्रोस्पेरो एक द्वीप के शासक कैलिबैन को अपदस्थ करके उस पर झूठा अभियोग भी लगाता है कि तुमने मेरी बेटी की इज्ज़त लूटने की कोशिश की. इसका कैलिबन उद्धत उत्तर देता है कि काश मैं उसमें सफल हो गया होता, तो इस द्वीप में अब तक छोटे-छोटे अनेक कैलिबन खेल रहे होते!
पर फ़ॉर्स्टर के उपन्यास का एक और खंड अभी बाकी है, जो दो साल बाद घटित होता है. फील्डिंग वापस भारत आते हैं और अज़ीज़ से कहते हैं (जो अब अंग्रेजों का राज छोड़ कर एक हिन्दू महाराजा के राज्य में रह रहे हैं) कि आओ हम दोनों फिर दोस्त हो जाँय. इसका अज़ीज़ करारा जवाब देते हैं कि पहले हम लोग तुम सब अंग्रेजों को भगा तो दें और समुद्र में डुबो दें, फिर उसके बाद तुम और हम ज़रूर दोस्त हो सकते हैं -– फिर यह करने में हमें चाहे पचास साल और लग जाएँ और चाहे पांच सौ साल.
1924 में छपे इस उपन्यास के अंतिम पृष्ठ पर यह संवाद होता है. तब न फील्डिंग को अंदाजा हैं और न ही अज़ीज़ को (और स्पष्ट ही न फ़ॉर्स्टर को ही) कि अंग्रेजों को भारत से भगाने में हमें पाँच सौ साल या पचास साल भी नहीं, बस 23 साल ही लगेंगे. साम्राज्य जब खड़े रहते हैं तो लगता है कि इनकी कोई एक ईंट भी हिला नहीं सकता, और जब गिरते हैं तो ऐसे भहरा कर कि लगता है कि अब तक ये खड़े कैसे रहे.
फ़ॉर्स्टर की काव्यात्मकता और राजनीति
जब “ए पैसेज तो इण्डिया” छप कर आया तो तुरंत हाथों-हाथ लिया गया और बहुत बिका. पर साथ ही फ़ॉर्स्टर पर अपने उपन्यास में पक्षपात करने के आरोप भी लगे- और वह भी दोनों तरफ से! भारत में शासन करके अब रिटायर होकर इंग्लैंड में रहने वाले अनेक अंग्रेजों ने कहा कि उनके पच्चीस या तीस साल के भारत के व्यक्तिगत अनुभव में उन्होंने अंग्रेजों को ऐसा दुर्व्यवहार करते हुए कभी नहीं देखा और न ही वे इतने मूर्ख और हास्यास्पद हैं जैसा कि फॉर्स्टर ने उन्हें चित्रित किया है. उधर कुछ भारतीयों ने कहा कि डॉक्टर अज़ीज़ ही क्या सभी भारतीय चरित्र इतने बचकाने, जज्बाती और अविश्वसनीय बनाए गए हैं कि जैसे उनका मज़ाक उड़ाया जा रहा हो.
फ़ॉर्स्टर को स्वयं आश्चर्य हुआ कि उनका उपन्यास ऐसी राजनीतिक ध्रुवीकरण की दृष्टि से पढ़ा जा रहा है. जिस भारतीय मित्र पर अज़ीज़ का चरित्र मुख्यतः आधारित है, जिनको फ़ॉर्स्टर सत्रह साल से जानते रहे थे, जिनके प्रति फ़ॉर्स्टर का बिलकुल एकतरफा समलैंगिक आकर्षण भी था, और जिनको यह उपन्यास समर्पित भी है, उन्होंने भी लम्बी चुप्पी खींच ली. छपने के पहले ही फ़ॉर्स्टर ने उन्हें पाण्डुलिपि भेजी थी कि सभी छोटी-मोटी तथ्यात्मक गलतियाँ हटा दें और अपनी राय दें, तो उन्होंने बस छोटा-सा जवाब भेजा: “बहुत शानदार है. एक हर्फ़ भी न बदलें.” (It is magnificent. Do not alter a word.) गूढ़ भावार्थ यह हुआ कि अगर बदलने ही चलेंगे तो क्या-क्या बदलेंगे आप!
ये सज्जन थे सैयद रॉस मासूद, जो खुद ऑक्सफ़ोर्ड के पढ़े थे, सर सैयद अहमद खान के पोते थे, और बाद में खुद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के वाइस-चांसलर बने. इसी तरह एक हिन्दू महाराजा, जिनके यहाँ फॉर्स्टर उनके प्राइवेट सेक्रेटरी बन कर उनसे पगार पाकर कई महीने ख़ुशी-ख़ुशी रहे थे, और बाद के संस्करण में उपन्यास के समर्पण में फ़ॉर्स्टर ने मासूद के साथ जिनका नाम भी जोड़ दिया था, उनका तो फ़ॉर्स्टर ने अपने उपन्यास में और भी बुरा हश्र किया. वे बस उपन्यास के अंतिम भाग “मन्दिर” में आते हैं, “गोकुल-अष्टमी” (अर्थात जन्माष्टमी) के उत्सव में रुग्णावस्था में एक पालकी में लाये जाते हैं, एक खम्भे के सहारे बिठा दिए जाते हैं, आँखों में आँसू भरे हुए कृष्ण भगवान के जन्म लेने का दृश्य देखते हैं, और फिर उसी रात दिवंगत हो जाते हैं! उपन्यास के मुख्य हिन्दू चरित्र वे नहीं हैं बल्कि प्रोफेसर गोडबोले (Godbole) हैं जो फील्डिंग के कॉलेज में पढ़ाते हैं, छुआ-छूत मानते हैं, कृष्ण-भक्त हैं, और ऐसे-ऐसे दार्शनिक मत प्रकट करते हैं जो ऊपर से तो गूढ़ और सारगर्भित लगते हैं पर फिर अपने ही विरोधाभासों में फँस कर हास्यास्पद से हो जाते हैं. शायद यही चित्रित करना फ़ॉर्स्टर का मंतव्य भी था.
फ़ॉर्स्टर ने अपने बचाव में दो बातें कहीं. पहली कि वे निष्पक्ष रहना चाहते थे, दोनों पलड़े बराबर रखना चाहते थे, जैसा कि उपन्यासों में होना चाहिए. और दूसरे कि उनके उपन्यास का तो राजनीति से कोई लेना-देना ही नहीं था, वह तो काव्यात्मक था जिसमें भारत की बदलती ऋतुएँ, और गुफा वाले प्रसंग में भारत की अगाध रहस्यमयता, चित्रित करना उनका अभीष्ट था. उन्होंने यह नहीं बताया कि फिर अपने उपन्यास के पहले और तीसरे खण्डों के शीर्षक उन्होंने साम्प्रदायिक आधार पर “मस्जिद” और “मन्दिर” क्यों रखे जब कि “शीत” और “वर्षा” भी रख सकते थे.
फ़ॉर्स्टर का उदारवाद
वैसे फ़ॉर्स्टर उस “उदारवादी” (Liberal) विचारधारा के अनुयायी थे जिसके अनुसार किसी भी व्यक्ति के लिए यही बेहतर है कि राजनीति या समाज से कोई विशेष सम्बन्ध न रखा जाय, क्योंकि सबसे अधिक महत्त्व की बात है व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सद्भावना, और मैत्री. तो उपन्यास के अंतिम पृष्ठ पर फील्डिंग की अज़ीज़ से व्यक्तिगत दोस्ती करने की इच्छा कुछ उसी प्रकार की है कि शेर और मेमना अगर एक साथ एक ही घाट पर पानी पी सकें तो कितना अच्छा हो, और फिर चाहे अँगरेज़ राज हरदम बरक़रार रहे. फ़ॉर्स्टर का यह भी विचार था कि भारत में अँगरेज़ हिन्दुस्तानियों के प्रति अपना व्यवहार सुधार लें, कुछ अधिक सहृदयता से पेश आयें, तो फिर समस्या ही क्या है.
ऐसा सोचने वाले उस युग में फ़ॉर्स्टर अकेले नहीं थे, उनकी तरह के बहुत से और लोग भी थे. और अँगरेज़ राज अटल रहेगा यह मानने वालों की तादाद तो और भी ज्यादा थी. लॉर्ड कर्ज़न तो दो बार भारत के वाइसराय रह चुके थे, खुद बंग-भंग के अपने लिए निर्णय का दुर्दांत परिणाम देख चुके थे, मगर उन्होंने भी 1920 के ही दशक में अपना मत प्रकट किया कि अँगरेज़ राज भारत में अभी पाँच सौ साल और चलेगा. और तो और, कांग्रेस ने भी “पूर्ण स्वराज” की अभी तक मांग नहीं की थी; उसके लिए तो प्रस्ताव 1929 के अधिवेशन में पारित हुआ. उसके पहले तो हम अधिक से अधिक “होम रूल” (Home Rule) या डोमिनियन स्टैटस (Dominion Status) की मांग करके ही संतुष्ट थे जिसमें हम ब्रिटेन की छत्र-छाया में ही बने रहते, जैसे कि कैनडा या ऑस्ट्रेलिया अब भी हैं.
फ़ॉर्स्टर के स्वयं राजनीति की उपेक्षा करके व्यक्तिगत संबंधों को ही सर्वोपरि मानने का एक प्रमाण यह भी है कि इस उपन्यास में एक बार भी न गाँधी का उल्लेख आता है और न उनके 1920 में चलाये गए असहयोग आन्दोलन का ही. वैसे यह उपन्यास लिखना फ़ॉर्स्टर ने अपनी पहली भारत यात्रा के बाद 1913 में ही शुरू कर दिया था, जब तक गाँधी दक्षिण अफ्रीका से भारत नहीं लौटे थे. फिर फ़ॉर्स्टर इस उपन्यास के लेखन में दस-ग्यारह साल उलझे रहे, कई साल यह अधूरा पडा रहा, और यह पूरा होकर छपा 1924 में. इस उपन्यास में प्रोफेसर गोडबोले एक और सन्दर्भ में कहते हैं, “अनुपस्थिति में उपस्थिति भी निहित है.” गाँधी की अनुपस्थिति भी फ़ॉर्स्टर के उपन्यास में आजकल के जागरूक भारतीय पाठकों के लिए उपस्थिति के ही समान है या शायद उससे भी बढ़ कर है.
लेकिन फ़ॉर्स्टर ने एक चीज़ सही पकड़ी. उन्होंने दिखाया कि डॉक्टर अज़ीज़ के हिसाब से सबसे महान मुग़ल सम्राट अकबर नहीं बल्कि आलमगीर (औरंगजेब) थे. अज़ीज़ को पूरा यकीन है कि हिन्दुस्तान मुसलमानों का ही मुल्क है, हमेशा रहा है, और जब अँगरेज़ चले जायेंगे तो फिर हो जायेगा. पता नहीं मासूद की भी राय यह थी कि नहीं पर फ़ॉर्स्टर ने यह उपन्यास पूरा करने के कुछ साल पहले ही सन 1920 में मोहम्मद इक़बाल की शायरी की एक किताब अंग्रेजी अनुवाद में पढ़ रखी थी, उसकी समीक्षा लिख चुके थे, और तब धीरे-धीरे उभरती हुई अलगाववादी विचारधारा से परिचित थे. इक़बाल ने ही 1930 में इलाहाबाद में हुए मुस्लिम लीग के सालाना अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में सबसे पहले यह मांग उठायी थी कि हिंदुस्तान के मुसलमानों का एक अलग स्वतंत्र मुस्लिम-शासित राज्य बनना चाहिए जिसमें पंजाब, सिंध, उत्तर-पश्चिमी फ्रंटियर इलाका और बलूचिस्तान शामिल हों. (वे स्वयं पंजाब के थे.)
“ए पैसेज टु इण्डिया” के सौ वर्ष
“ए पैसेज टु इण्डिया” की आधुनिक क्लासिक के रूप में प्रतिष्ठा अब भी असंदिग्ध है. यह दुनिया भर के अनेक देशों में पढ़ा-पढ़ाया जाता है, मूल में या फिर अनुवाद में. (सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली में मैनें भी करीब दस साल तो यह उपन्यास पढ़ाया था, सन 1969 से 1983 के बीच.) जब 1984 में डेविड लीन (Lean) की बनायी फिल्म आई, जिसमें अज़ीज़ की भूमिका में विक्टर बनर्जी थे, और उसे अनेक ऑस्कर पुरस्कार मिले, तो उपन्यास का भी प्रचार-प्रसार और बढ़ा. किसी अँगरेज़ का भारत के बारे में लिखा गया सबसे अधिक लोकप्रिय और विवेचित उपन्यास तो यह यह छपते ही हो गया था, और अब भी बना हुआ है. सन पचास के दशक में इन्डियन प्रेस, इलाहाबाद से छपे “आखिरी सलाम” नामक एक हिंदी अनुवाद की भनक तो मुझे है पर अब वह मिलता नहीं है. उपन्यास अब भी कॉपीराइट है पर हम पश्चिम से अनुवाद करते समय इससे कब बाधित हुए हैं!
इस शताब्दी वर्ष में दो उल्लेखनीय आयोजन हुए है जिनमें एक थी एक अंतर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस जो पोलैंड के शहर ऑल्शटिन में जून 2024 में सम्पन्न हुई. दूसरे, इस उपन्यास पर केन्द्रित 15 नए निबंधों का एक संग्रह सितम्बर 2024 में प्रकाशित हुआ यहीं भारत में, “100 Years of A Passage to India” नाम से. इस संग्रह में सात लेख भारतीयों द्वारा लिखे गए हैं (जिनमें दो स्वयं उपन्यास-लेखक हैं, अंग्रेज़ी की अंजुम हसन और हमारी हिंदी की ही अनामिका), दो लेख भारतीय-अमेरिकनों द्वारा, तीन लेख अंग्रेजों द्वारा, और एक-एक लेख अमेरिका, फ्रांस, और पोलैंड के विशेषज्ञों द्वारा.
इनमें पांच लेख इस उपन्यास के अनेक भाषाओं में हुए अनुवादों पर हैं और उस पर आधारित नाटकों और फिल्म पर, पाँच लेख एक-एक करके इसके मुख्य पात्रों पर प्रकाश डालते हैं, और अंतिम पाँच लेख इस उपन्यास की तुलनात्मक या विषयवस्तु-गत विवेचना करते हैं. इस पुस्तक का सम्पादक मैं हूँ, और पोलैंड में हुई कांफ्रेंस का भी पहला वक्ता मैं ही था. अब 1969 से मैं इस उपन्यास से जुड़ा हुआ हूँ और इसे सुलझा-उलझा रहा हूँ, 1979 से लेकर अब तक इस पर अनेक लेख प्रकाशित कर चुका हूँ, और 2021 में पेंगुइन इंडिया के लिए इस उपन्यास के एक नए संस्करण की भूमिका भी लिख चुका हूँ, तो समझिये कि मेरी भी इस उपन्यास के सन्दर्भ में अर्ध-शताब्दी पूरी हो चुकी है!
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हरीश त्रिवेदी द्वारा ही इस उपन्यास के कुछ अनूदित अंश आप कल पढ़ेंगे.
हरीश त्रिवेदी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और संस्कृत लेकर बी. ए. किया, वहीं से अंग्रेजी में एम. ए., और वहीं पढ़ाने लगे. फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली में पढ़ाया, ब्रिटेन से वर्जिनिया वुल्फ पर पीएच. डी. की, और सेवा-निवृत्ति तक दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे. इस बीच शिकागो, लन्दन, और कई और विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे, लगभग तीस देशों में भाषण दिए और घूमे-घामे, और एकाधिक देशी-विदेशी संस्थाओं के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष रहे या हैं. अंग्रेज़ी साहित्य, भारतीय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, विश्व साहित्य और अनुवाद शास्त्र पर उनके लेख और पुस्तकें देश-विदेश में छपते रहे हैं. हिंदी में भी लगभग बीस लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे हैं. और एक सम्पादित पुस्तक भी आई है “अब्दुर रहीम खानखाना” पर. (वाणी, 2019). harish.trivedi@gmail.com |
बहुत अच्छा आलेख. यह उपन्यास मेरे पास है.
पुन : पढ़ता हूँ.
हरीश त्रिवेदी पचास साल तक इस उपन्यास से जुड़े रहे हैं तो इसके एक एक हर्फ से वाकिफ होंगे। लेख में कुछ जानकारियां मेरे लिए नई हैं। जैसे फॉर्स्टर के वे मित्र जिनपर उनके पात्र गढ़े गए। इसके पुनर्पाठ की जरूरत है और संभव है कि इसपर लेखों के संकलन में यह किया भी गया हो।
यह जानना दिलचस्प है कि भारतीयों और अंग्रेजों, दोनों को इसपर एतराज़ हुआ! फिल्म में तो इसका युग ही बदल दिया गया है शायद। उसमें ज़रूर राष्ट्रीय आंदोलन की झलक है।
उपन्यास पढ़े अरसा गुज़र गया पर लंबे समय तक यह रहस्य परेशान किए रहा कि गुफा के भीतर एडेला के साथ हुआ क्या था? हरीशजी भी जानते ही होंगे कि मृत्यु से पहले लेखक ने कहा था कि एडेला का बलात्कार हुआ था। इसे पढ़ने के बाद उपन्यास की रहस्यात्मकता एकदम लोप हो गई। पता नहीं ऐसा उन्होंने कहा भी था कि नहीं।
हरीशजी ने जो अनुवाद किया है उसे पढ़ने की प्रतीक्षा है। उनको बधाई
स्वप्निल जी और अंजलि जी, धन्यवाद. एक दो निजी टिप्पणियाँ भी मिलीं है जो उत्साहवर्द्धक हैं. शायद एक और पाठक का एक लेख भी और आये!
अंजलि जी, आपने ठीक कहा कि फिल्म में जो अनेक परिवर्तन किये गए उनमें यह भी था कि 1924 में छपे इस उपन्यास को 1942 के “भारत छोड़ो” आन्दोलन से जोड़ दिया गया. मुझे तो लगा कि यह ऐतिहासिक छलांग कुछ ज्यादा ही लम्बी हो गयी!
रहा गुफा का रहस्य तो मेरी जानकारी में कभी फॉर्स्टर ने इसे बलात्कार नहीं कहा. उपन्यास छपते ही जब एक अन्तरंग मित्र ने उनसे पूछा कि आखिर गुफा में हुआ क्या था तो फॉर्स्टर ने उन्हें उत्तर में लिखा: “गुफा में या तो कोई आदमी है (“a man”), या कुछ अलौकिक (“the supernatural”), या बस भ्रम (“an illusion”). और वैसे मुझे भी क्या पता (“And even if I know!”) मेरी राय में यह तो उस प्रसंग से बस हाथ झाड़ कर अलग खड़े हो जाना हुआ, या यह स्वीकार करना कि बात कुछ बनी नहीं! पांडुलिपि में इस प्रसंग के कई बार बदल-बदल कर लिखे जाने का प्रमाण मिलता है जिनमें एक पाठ यह भी है कि एडेला और अज़ीज़ स्वेच्छा से आलिंगन-बद्ध होते हैं. … पर अब मैं रुकता हूँ कि कहीं यहाँ भी टिप्पणी के बहाने पूरा एक और लेख न लिखने लगूं! पुनः धन्यवाद.
हरीश त्रिवेदी का आलेख ‘ए पैसेज टु इण्डिया:सौ साल बाद’ न केवल इस उपन्यास के सौ साला इतिहास का गवाह है,बल्कि यह ई.ऐम फॉर्स्टर की भारत गाथा का आख्यान भी है। औपनिवेषिक
भारत की सबसे प्रामाणिक गाथा होकर भी यह अपने कई धरातलों पर मनुष्यता का संग-साथ जिस तरह निभाता है वह इसे अपने मे ख़ास बनाता है।कल जब आप इसका हिंदी अनुवाद पढवाएँगे तो बात और आगे बढ़ेगी।
समालोचन पर प्रो त्रिवेदी का फॉर्स्टर एक लोकप्रिय आधुनिक उपन्यास पर विशेष आलेख पढ़ा जिसने अभी बीते साल अपनी सौवीं वर्षगांठ मनाई है । अंग्रेज़ी के लेखों व समीक्षाओं को पढ़ने के बाद हिंदी के नए कलेवर में पढ़ने का एक अलग/ सुखद अनुभव रहा ।
प्रो त्रिवेदी अनुवाद सिद्धांत के जाने- माने विशेषज्ञ हैं। उनसे बेहतर कौन जानता है कि उपन्यास की यह हिंदी समीक्षा उसे एक नए सिरे से पाठकों के लिए पुनर्जीवित करती है, वॉल्टर बेंजामिन के शब्दों में कहूँ तो उसे “after-life” से नवाज़ती है।
अंत में, समालोचन तथा प्रो त्रिवेदी को धन्यवाद! आशा है , समालोचन के संपादक- गण आगे भी विश्व साहित्य पर क्लासिक तथा आधुनिक सामग्री प्रकाशित करते रहेंगे!