ए पैसेज टु इंडिया कुछ अनूदित अंश हरीश त्रिवेदी |
1.
उपन्यास का पहला पैराग्राफ
माराबार गुफ़ाओं को छोड़ दें— और वैसे भी वह बीस मील दूर हैं— तो चन्द्रपुर में ऐसा कुछ ख़ास दिखता नहीं. दो-तीन मील तक शहर गंगा के किनारे-किनारे घिसटता-सा चला जाता है, जो इसे प्रक्षालित नहीं करती बल्कि इससे कतराती है, जैसे यह शहर न हो के तट पर फेंका गया कूड़े का ढेर हो. नदी पर कोई घाट तक नहीं है क्योंकि कुछ ऐसा है कि यहाँ की गंगा पावन नहीं है; और तट भी नहीं है क्योंकि नदी का चौड़ा और बदलता परिदृश्य दुकानों से छिप जाता है. गलियाँ तंग हैं और मन्दिर निष्प्रभ, और कुछ हवेलियाँ हैं तो पर अपने बग़ीचों से ही आच्छादित या फिर ऐसी गंदी गलियों में जहाँ बुलाये मेहमान के अलावा कोई भूल के भी न जाना चाहे. चन्द्रपुर न कभी बहुत बड़ा था न सुन्दर, पर दो सौ साल पहले मुग़ल ज़माने में उत्तर भारत से समुद्र तक जाने वाला रास्ता इधर से गुज़रता था और ये हवेलियाँ उसी युग की देन हैं. साज-सजावट की उमंग तो उसी युग में चुक गई थी और आम जनता का वैसे भी उससे कोई लेना-देना नहीं रहा. गली-बाज़ार में न तो कोई चित्रकारी दिखती है न ख़ास नक़्क़ाशी. लकड़ी भी ऐसी कि लगे कि मिट्टी है, और चलते-फिरते लोग भी जैसे मिट्टी के ही लौंदे हों. जो कुछ भी दिखता है सब इतना हीन और नीरस है कि लगता है कि जब गंगा बहते-बहते यहाँ आती है तो यह सब कूड़ा-करकट बहा के वापस मिट्टी में क्यों नहीं मिला देती. घर ढहते रहते हैं, लोग डूबते-सड़ते रहते हैं, लेकिन शहर का ढाँचा वैसा का वैसा ही बना रहता है, भले यहाँ कुछ बढ़ गया और वहाँ कुछ घट गया, जैसे कि यह अस्तित्व का कोई अधम पर अविनाशी रूप हो.
2.
अज़ीज़ और मिसेज़ मूर (“मस्जिद” खंड से)
चांदनी रात में मस्जिद में अकेले बैठे-बैठे और ग़मगीन फारसी शायरी गुनगुनाते हुए अज़ीज़ को लगा कि जैसे मस्जिद का एक खम्भा हिला! फिर जैसे एक और खम्भा हिला और फिर एक अँगरेज़ औरत साए से चांदनी की रौशनी में आती दिखी. एकदम से अज़ीज़ को बहुत गुस्सा आया और वे चिल्लाये: “मैडम! मैडम! मैडम!”
“ओह! ओह,” औरत की सांस रुक सी गयी.
“मैडम, यहाँ आने का आपको कतई हक़ नहीं है, और आपको अपने जूते तो उतार ही देने चाहिए थे. यह तो मुसलमानों की पाक जगह है.”
“जूते मैनें उतार दिए थे.”
“सचमुच?”
“दरवाज़े पर ही.”
“तो मैं माफी मांगता हूँ.”
अब भी चकराई सी वो मोहतरमा कुछ आगे आईं पर वजू की हौदी के उस तरफ ही रुक गईं. अज़ीज़ भी दूर से ही बोले, “आपको टोकने का मुझे बहुत अफ़सोस है.”
“तो मैनें ठीक किया न? अगर मैं जूते उतार दूं तब तो अन्दर आ सकती हूँ?”
“बिलकुल, लेकिन कोई लेडी ऐसा करती नहीं, ख़ासकर अगर उन्हें लगे कि कोई देखने वाला नहीं है.”
“उससे क्या फर्क पड़ता है. ऊपरवाला तो है.”
“मैडम!”
“अच्छा, अब मैं चलती हूँ.”
“ओह, मैं आपकी कभी भी कोई खिदमत कर सकता हूँ?”
“नहीं, थैंक यू, कुछ भी नहीं. गुड नाइट.”
“जी, आपका नाम पूछ सकता हूँ?”
“मिसेज़ मूर.”
… “वैसे, आपको अकेले इस तरह घूमना नहीं चाहिए. आवारा बदमाश फिरते रहते हैं, माराबार की पहाड़ियों से चीते भी आ सकते हैं. और सांप तो हैं ही.”
“लेकिन आप भी तो घूम रहे हैं.”
“मेरी तो आदत पड़ गयी है.”
“सांप से कटवाने की आदत?”
दोनों लोग हँसने लगे. “मैं तो डॉक्टर हूँ. किस सांप की हिम्मत है कि मुझे काटे.”
….”अच्छा मैं एक सवाल पूछ सकता हूँ? आप हिन्दुस्तान अब इस वक़्त क्यों आई हैं जब कि जाड़ा ख़त्म होके गर्मी आने ही वाली है?…और फिर यहाँ चन्द्रपुर आने की कोई ख़ास वजह?”
“अपने बेटे के साथ रहने. वह यहाँ सिटी मैजिस्ट्रेट है.”
“अरे नहीं — माफ कीजिये, यह तो बिलकुल नामुमकिन है. हमारे सिटी मैजिस्ट्रेट का नाम मिस्टर हीस्लॉप है. मैं उनको बड़ी अच्छी तरह जानता हूँ.”
“लेकिन वो मेरा बेटा तो है ही.”
“पर, मिसेज़ मूर, वे आपके बेटे कैसे हो सकते हैं?”
“मेरी दो शादियाँ हुई हैं.”
“अच्छा, अच्छा, अब मैं समझा. और फिर आपके पहले शौहर नहीं रहे.”
“हाँ, और फिर दूसरे भी नहीं रहे.” ….
3.
अज़ीज़ और एडेला (“गुफा” खंड से)
(बाकी लोग एक गुफा देख कर अब बैठ कर आराम कर रहे हैं, और बस एडेला और अज़ीज़ ऊपर की गुफा की ओर चले जा रहे हैं. इस बीच एडेला के मन में कुछ और ही उमड़-घुमड़ चल रही है, क्योंकि वे सोच रही हैं कि उन्हें रॉनी से शादी करनी चाहिए कि नहीं क्योंकि वह उन्हें प्रेम तो करती नहीं. रॉनी खुद इस पिकनिक में नहीं आये हैं.)
“मैं ज्यादा तेज़ तो नहीं ले चल रहा हूँ आपको?” अज़ीज़ ने पूछा क्योंकि एडेला ठिठक गयी थीं और उनके चेहरे पर कुछ द्विविधा का सा भाव आ गया था. …जिन रॉनी से शादी करने जा रही हूँ उनसे मैं प्रेम तो नहीं करती! और अब तक मुझे यह खुद पता भी नहीं था! बल्कि अब तक यह सवाल मैनें खुद से कभी पूछा तक नहीं था! …मैं अपनी सगाई तोड़ दूँ क्या? नहीं, नहीं, सभी और लोगों को कितनी असुविधा होगी. अगर प्रेम ही सब कुछ होता तो कितनी शादियाँ हनीमून के बाद ही टूट जातीं. “नहीं नहीं, मैं ठीक हूँ.” अज़ीज़ उनका हाथ थामे सहारा दिए हुए थे और गाइड तो आगे-आगे पहाड़ पर ऐसे चढ़ा जा रहा था जैसे कि पत्थर से चिपकी कोई छिपकली हो, या कि जैसे उसके अन्दर कोई अलग निजी चुम्बक काम कर रहा हो.
“डॉ. अज़ीज़, आपकी शादी हो गयी?” एडेला ने पूछा, चलते-चलते फिर रुक कर और कुछ भौहें चढ़ाए हुए.
“जी, बिलकुल. कभी तशरीफ़ लाइए और मेरी बीवी से मिलिए.” अज़ीज़ को लगा कि उनकी बीवी भले ही गुज़र गयी हैं पर यह जवाब कुछ ज्यादा माकूल और नफीस रहेगा.
“थैंक यू,” एडेला बोलीं, कुछ और ही सोचते हुए.
“लेकिन फिलहाल वे चन्द्रपुर में हैं नहीं.”
“और बच्चे भी हैं आपके?”
“जी, बिलकुल, तीन बच्चे हैं.”…
क्या खूबसूरत हिन्दुस्तानी शख्स है यह अज़ीज़, और उसके बीवी और बच्चे भी खूबसूरत ही होंगे क्योंकि जिनके पास जो पहले से होता है वही और मिलता रहता है. एडेला को लगा कि और हिन्दुस्तानियों को अज़ीज़ ज़रूर आकर्षक लगते होंगे और साथ ही कुछ अफसोस भी हुआ कि न वे खुद देखने में सुन्दर हैं और न रॉनी. फरक तो पड़ता ही है इससे किसी भी सम्बन्ध में- सुन्दरता, घने बाल, आकर्षक त्वचा. हो सकता है कि इस शख्स की कई बीवियाँ हों- कलेक्टर साहेब की पत्नी मिसेज़ टर्टन कह तो रही थीं कि मुसलमान पूरी चार बीवियां किये बिना मानते नहीं हैं. पूछने के लिए कोई और तो था नहीं उस पहाड़ी पर तो एडेला ने शादी के विषय में छूट लेते हुए अपने सीधे सच्चे शिष्ट अंदाज़ में पूछा: “आपकी एक ही बीवी है या कई हैं?”
अज़ीज़ को यह सवाल सुनकर गहरा धक्का लगा….अगर वे पूछतीं कि आपका एक ही ईश्वर में विश्वास है या कई में तब भी उन्हें कोई एतराज़ न होता. लेकिन एक पढ़े-लिखे मुस्लिम से यह पूछना कि उसकी कितनी बीवियां हैं- हद ही हो गयी, कितनी घिनौनी बात कह दी इन्होंने. वे समझ नहीं पाए कि इसका कैसे जवाब दें और अपनी उलझन छुपाते हुए बोले: ”एक, सिर्फ एक, मेरी तो महज़ एक ही है,” और यह कहते हुए उन्होंने एडेला का हाथ छोड़ दिया. “भाड़ में जाएँ ये सारे अँगरेज़, चाहे जितने भले लगते हों,” यह सोचते हुए वे अकेले ही पास की किसी गुफा में लपक कर घुस गए कि अकेले बैठ कर एक सिगरेट पियें और कुछ अपने को सम्हालें. एडेला धीरे-धीरे अपनी ही रफ्तार से चलती रहीं, बिलकुल बेखबर कि उन्होंने कुछ गलत कह दिया है, और ऊपर पहुँच कर जब अज़ीज़ कहीं नहीं दिखे तो वे भी किसी गुफा में घुस गयीं…
4.
गोडबोले की दार्शनिक दृष्टि (“गुफा” खंड से ही)
“गोडबोले,” फील्डिंग ने बात शुरू की.
इस पर प्रोफेसर गोडबोले बस हाथ जोड़ कर खड़े रहे, कुछ चतुर और कुछ मोहक मुद्रा में.
“अज़ीज़ ने यह जुर्म किया है कि नहीं?”
“यह तो न्यायालय ही निश्चय करेगा. इसमें क्या संदेह हो सकता है कि जैसा साक्ष्य प्रस्तुत किया जायेगा वही निर्णय का आधार होगा.”
“हाँ, हाँ, लेकिन मैं आपकी राय पूछ रहा हूँ. वे हम दोनों को पसंद हैं, उनकी बड़ी इज्ज़त है, वे यहाँ रहते हैं और चुप-चाप बस अपने काम से काम रखते हैं. तो क्या सोचा जाय इस मामले का? क्या वे ऐसा काम कर सकते हैं कि नहीं कर सकते?”
“आह, यह प्रश्न तो आपके पहले प्रश्न से भिन्न है, और उससे कठिन भी — हमारे दर्शन-शास्त्र की दृष्टि से. डॉ अज़ीज़ एक बहुत ही योग्य युवक हैं, मेरे मन में उनके लिए बड़ा सम्मान है, लेकिन मेरे विचार में आप मुझसे पूछ यह रहे हैं कि कोई भी व्यक्ति सत्कर्म ही कर सकता है या दुष्कर्म भी, तो यह बता पाना हम लोगों के लिए कठिन है.” यह सब उन्होने छोटे-छोटे वाक्पदों में निरपेक्ष भाव से कह दिया.
“मैं आपसे पूछ रहा हूँ: उन्होंने ऐसा किया कि नहीं किया? इतना तो समझ रहे हैं आप? मुझे तो यह यकीन है कि उन्होंने नहीं किया…. कुल मिला कर मुझे लगता है कि शायद गाइड रहा होगा जो उनके साथ गया था. …क्योंकि एडेला को कोई बड़ा बुरा तजुर्बा हुआ तो ज़रूर है. लेकिन आप बताइये… -– या जाने भी दीजिये, क्योंकि अच्छा और बुरा तो दोनों एक ही हैं न?”
“न, ऐसा तो नहीं है हमारे दर्शन-शास्त्र के अनुसार. क्योंकि कोई भी कर्म अपने आप में अकेले घटित नहीं होता. कोई शुभ कार्य होता है तो वह हम सभी करते हैं और कुछ अशुभ कार्य होता है तो वह हम सभी करते हैं. लीजिये, एक उदाहरण देता हूँ. … एक अशुभ काम माराबार पहाड़ी पर हुआ है यह तो विदित है. मेरा उत्तर होगा: “यह काम डॉ. अज़ीज़ ने किया.” फिर अपने गाल सिकोड़कर बोले: “यह काम गाइड ने किया.” फिर कुछ अटक कर बोले: “यह काम आपने किया.” फिर कुछ शरमाते हुए से बोले: “यह काम मैंने किया.” फिर जैसे कुछ चतुरता से अपने कोट की आस्तीन निहारते हुए बोले: “यह काम मेरे छात्रों ने किया. अपि तु, यह काम स्वयं उन महिला ने किया. जब अशुभ घटित होता है तो वह पूरे ब्रह्माण्ड को व्यक्त करता है. और ऐसे ही जब कुछ शुभ घटित होता है.”
“…तो क्या सब कुछ वही है, और जो नहीं है वही सब कुछ है?” कुछ झल्लाते हुए फील्डिंग बोले.
“क्षमा कीजिये, पर फिर आप हमारे विमर्श का आधार ही बदले दे रहे हैं”….
“लेकिन आप यही उपदेश तो दे रहे हैं न कि शुभ और अशुभ दोनों वही हैं.”
“कदापि नहीं, फिर क्षमा कीजिये. शुभ और अशुभ भिन्न-भिन्न हैं जैसा कि उनके नाम से ही इंगित होता है. परन्तु मेरी तुच्छ मति में ये दोनों ही हमारे ईश्वर के विभिन्न रूप हैं. इनमें से एक में ईश्वर उपस्थित हैं और दूसरे में अनुपस्थित हैं और दोनों में इतना महान अंतर है कि मेरी अल्प मति के परे है. किन्तु अनुपस्थिति में उपस्थिति निहित है क्योंकि अनुपस्थिति का भी तो अस्तित्व है….”
जैसे अपने कहे शब्दों का किंचित उदात्त सौंदर्य स्वयं ही मेटते हुए प्रो० गोडबोले ने अब एक दूसरा ही विषय छेड़ दिया….
5.
गोकुल-अष्टमी और भक्ति-भाव (“मन्दिर” खंड से)
माराबार की गुफाओं से कई सौ मील पश्चिम की ओर और लगभग दो साल बाद प्रोफेसर नारायण गोडबोले भगवान की उपस्थिति में खड़े हैं. भगवान का अभी जन्म नहीं हुआ है -– वह होगा आधी रात को -– लेकिन उनका जन्म शताब्दियों पहले भी हो चुका है और कभी हो भी नहीं सकता, क्योंकि वे तो पूरे जगत के स्वामी हैं और मानवीय प्रक्रियाओं के परे हैं. वे हैं, नहीं थे, नहीं हैं, थे. बीचो-बीच एक सँकरी सी कालीन बिछी है और उसके एक छोर पर भगवान विराजमान हैं और दूसरे छोर पर प्रोफेसर गोडबोले खड़े हैं.
तुकाराम, तुकाराम
तुम्हीं मेरे पिता हो माता हो सर्वस्व हो
तुकाराम, तुकाराम
तुम्हीं मेरे पिता हो माता हो सर्वस्व हो
तुकाराम…
मऊ के राज-भवन के इस बरामदे से लगे हुए और बरामदे हैं और फिर बड़ा सा आँगन है. सफ़ेद स्टको (stucco) प्लास्टर से बना महल सुन्दर है लेकिन उसके खम्भे और छत लाल कपड़ों, चमकते गुब्बारों और गुलाबी शीशे के बने झाड़फानूस से बुरी तरह ढँक दिए गए हैं और गंदे धुंधले फोटोग्राफों के फ्रेम टेढ़े लटके हुए हैं. बरामदे के उस छोर पर इस राजवंश का विख्यात पूजा-गृह है, और वहीं जल्दी ही जन्म लेने वाले भगवान की एक चांदी की मूर्ति है जो आकार में एक चाय के चम्मच के बराबर है (the size of a teaspoon)….
उपस्थित जनता में सभी हिन्दू हैं. पूरी सभा एक ऐसी भावभीनी प्रसन्न दशा में है जिसका अंग्रेजों की किसी भीड़ को अनुमान भी नहीं सकता, और वह ऐसे बुलबुला सी रही है जैसे कोई अत्यंत लाभकारी रसायन तैयार हो रहा हो. गाँव-वाले जब पाँत तोड़ कर उस चांदी की मूर्ति की ओर झाँकने को उचकते हैं तो उनकी मुखमुद्रा अत्यंत सुन्दर और प्रभामय हो जाती है जो कोई व्यक्तिगत नहीं पर सामूहिक सुन्दरता है…
अर्ध-रात्रि होने को है तो अब प्रोफेसर गोडबोले की बारी आ गयी है. राज्य के शिक्षा मंत्री होने के नाते उन्हें यह विशेष सम्मान मिल रहा है. उनके आगे की भजन-मंडली जब बिखर कर भीड़ में समा जाती है तो वे अपनी मंडली के साथ आगे बढ़ते हैं, पहले से ही उच्च स्वर में गाते हुए जिससे कि पावन भजन-श्रृंखला में कोई विराम न आने पाए….वे नंगे पैर हैं, श्वेत वस्त्र धारण किये हैं और एक हलकी नीली पगड़ी, और उनके छः साथी उनकी संगत कर रहे हैं जिनमें कोई मंजीरा बजा रहा है, कोई ढोलक, और कोई गले में टंगे हारमोनियम से सुर साधे है.
तुकाराम, तुकाराम
तुम्हीं मेरे पिता हो माता हो सर्वस्व हो
वे भगवान की भी स्तुति नहीं कर रहे हैं बल्कि मात्र एक सन्त-कवि की, उसी को माता-पिता बताते हुए. [यह वाक्य फ़ॉर्स्टर के अज्ञान का ज्वलंत उदाहरण है– अनुवादक.] कोई व्यक्ति एक भी काम ऐसा नहीं कर रहा है जो किसी गैर-हिन्दू को इस पावन अवसर के अनुकूल लगे; भारत का यह आने वाला पराकाष्ठा का क्षण सब गड-मड है (या जैसा कि हम लोग कहते हैं), एक “muddle” है, जिसमें न कोई विधि-विधान है और न ही कोई कलात्मक रूप…राजकवियों के लिखे छंद यहाँ-वहां टंगे तो हैं पर जहां पढ़े नहीं जा सकते. उनमें से एक अंग्रेज़ी में भी है (शायद भगवान की सार्वभौमिकता प्रकट करने हेतु) लेकिन लिखने वाले की गलती से हो गया है: “God si Love.”
God si Love. क्या यही भारत का अंतिम सन्देश है?…
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हरीश त्रिवेदी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और संस्कृत लेकर बी. ए. किया, वहीं से अंग्रेजी में एम. ए., और वहीं पढ़ाने लगे. फिर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली में पढ़ाया, ब्रिटेन से वर्जिनिया वुल्फ पर पीएच. डी. की, और सेवा-निवृत्ति तक दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष रहे. इस बीच शिकागो, लन्दन, और कई और विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे, लगभग तीस देशों में भाषण दिए और घूमे-घामे, और एकाधिक देशी-विदेशी संस्थाओं के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष रहे या हैं. अंग्रेज़ी साहित्य, भारतीय साहित्य, तुलनात्मक साहित्य, विश्व साहित्य और अनुवाद शास्त्र पर उनके लेख और पुस्तकें देश-विदेश में छपते रहे हैं. हिंदी में भी लगभग बीस लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपे हैं. और एक सम्पादित पुस्तक भी आई है ‘अब्दुर रहीम खानखाना’ पर. (वाणी, 2019). harish.trivedi@gmail.com |
हरीश जी का आलेख पढ़ते हुए कल लगा कि इसे कुछ और आगे बढ़ाने की ज़रूरत थी.वजह यह कि ‘पैसेज टू इंडिया’एक जटिल उपन्यास है जो ब्रिटिश और भारतीय समुदायों के बीच जटिल संबंधों की खोज करता है और उपनिवेशवाद से उत्पन्न सांस्कृतिक गलतफहमियों और तनावों को उजागर करता है।
यह उपन्यास सामाजिक बंधनों और पूर्वाग्रहों के संदर्भ में मानव संबंधों की जटिलताओं में गहराई से उतरता है।
फॉर्स्टर के पात्रों और उनके सूक्ष्म चित्रण पाठकों को उपनिवेशीय संपर्कों के व्यापक प्रभावों और गहरे मतभेदों के बीच सामंजस्य की संभावना पर विचार करने के लिए आमंत्रित करते हैं ।
कुछ स्थानों पर हिंदी वाक्य पर अंग्रेज़ी की छाया खटकी पर अंग्रेज़ी में लिखने वाले भारतीय लेखकों की तुलना में त्रिवेदी जी का मातृभाषा प्रेम सराहनीय है.
हिंदी अनुवाद अच्छा है पर पुनरावलोकन की मांग करता है.
दोनों पढ़ गया। अच्छा है।
लेख परिचयात्मक पर सुंदर था। अनुवाद भी बहुत बढ़िया हैं। त्रिवेदी जी की विद्वत्ता और समझदारी असंदिग्ध है।
सभी पाठकों को धन्यवाद.
स्पष्ट ही लेख परिचयात्मक है. क्योंकि हिंदी में न तो इस उपन्यास का अनुवाद मिलता है और न ही शायद इसकी चर्चा हुई है — इस शताब्दी वर्ष में भी नहीं.
मेरी हिंदी में अंग्रेजी की छाया दिखती है तो यह कुछ वैसा ही हुआ जैसे कि मेरी अंग्रेजी में हिंदी की छाया अवश्यमेव दिखती रहती होगी. लगता है कि यह समान्तर “छायावाद” हिंदी में अज्ञेय और निर्मल वर्मा के पहले से ही चल रहा है — श्रीधर पाठक और महावीर द्विवेदी से लेकर. दो भाषाएँ जानने के खतरे तो उठाने ही पड़ेंगे. प्रसंगवश, एक भाषा पर दूसरी की “छाया” पड़ना अपने आप में ही शायद हिंदी पर अंग्रेजी की छाया पड़ने का उदाहरण है!
हरीश त्रिवेदी जी के द्वारा लिखित आलेख और इस उपन्यास के कुछ अंशों का अनुवाद मैंने भी बड़े चाव से पढ़ा। अब तक लिखे गए बहुत से सुझावों को भी पढ़ा। हरीश त्रिवेदी जी ने कुछ टिप्पणियों का जवाब भी दिया है । वह भी देखा। ‘ हिंदी में अंग्रेजी की छाया और अंग्रेजी पर हिंदी का प्रभाव’ वाली बात तो मजेदार ही है। ‘किसी प्रकाशक को इसका हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित करना चाहिए” यह भी पढ़ा। यह समझ नहीं आया कि इस उपन्यास का हिंदी में यदि अनुवाद किया जाये तो इसके शीर्षक का अनुवाद कैसे होगा, क्या होगा। भारत की ओर एक मार्ग, भारत का एक सफर,भारत की यात्रा,भारत तक का सफर,भारत को जाने वाला मार्ग,भारत की ओर एक यात्रा,भारत की तलाश,भारत का प्रवेशद्वार,भारत का रहस्यमय सफर ,भारत की दहलीज़ पर,भारत की आत्मा का सफर ,भारत के आर-पार,भारत का अन्वेषण आदि पद-बंध सूझे , पर कोई भी जचा नहीं। हाँ, यह समझ में आ गया कि ‘कमेंट’ लिखना अनुवाद करने से आसान रहेगा। सो लिख रहा हूँ। सबको यथायोग्य प्रणाम! त्रिवेदी जी का श्रम सार्थक हुआ, यह कहने की बात है। बार बार लिखने की बात है।
अनुवाद और समकालीन हिंदी साहित्य की सूझ-परख में हरीश त्रिवेदी जी मुझको अद्वितीय लगते हैं | फ़ोर्स्टर को मैंने भी वर्षों तक पढ़ा-पढाया | उनसे एक तादात्म्य-भाव सा बन गया | भारत एक संस्कृति है तो एक विडम्बना भी है, इसको सबसे गहराई में फ़ोर्स्टर ने ही पहचाना | ‘पैसेज टू इंडिया’ का अनुवाद मैंने भी १९६४ में करना शुरू किया था, पर एक-तिहाई के बाद रुक गया था, क्योंकि उग्र की ‘अपनी खबर’ की हिंदी का अनुवाद जैसे रूपर्ट स्नेल ने जिस कारण छोड़ दिया था, कुछ वैसे ही कारण से मुझको भी फ़ोर्स्टर से माफ़ी लेनी पड़ी | यह केवल भाषा का प्रश्न नहीं था, उस विडंबनात्मक शैली का सवाल था | उसी तरह आप ‘देहाती दुनिया’ अथवा ‘मैला आँचल’ का अनुवाद नहीं कर सकते, जहाँ एक विशिष्ट अन्यतम शैली के अनुवाद-अक्षम होने की कठिनाई उत्पन्न हो जाती है | त्रिवेदी जी के अनूदित अंशों से इसी बात की पुष्टि होती है | इस तरह की स्थिति में अनुवाद में एक बासीपन की गंध अपरिहार्य हो जाती है जिससे अनुवादक का जी ही उचटने लगता है, क्योंकि अनुवाद में भी एक प्रकार का सृजन-आनंद होता है जो दूसरे की बात को अपने रंग में दुहराने से मिलता है | लेकिन इतना ही कह कर मैं त्रिवेदीजी के इस पुनर्पाठ के लिए उनके प्रति हार्दिक आभार प्रगट करना चाहता हूँ | मुझको हिंदी या अंग्रेजी में कोई दूसरा हरीश त्रिवेदी नहीं दिखाई देता |