प्रयागराज में इलाहाबाद
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हममें से अक्सर को इलाहाबाद के नक्श और अक्स के जरिए उसके अहम हालात पता हैं. हमारे भीतर, हम सबके अपने-अपने इलाहाबाद हैं. एक इलाहाबाद मेरे भीतर भी है. लेकिन उस समूचे का बयान और बखान यहाँ संभव नहीं. टुकड़ो-टुकड़ों में ही, कुछ टूटी हुयी सी कुछ बिखरी हुयी सी चंद बातें. दरअस्ल, एक शहर के मूल की खोज और पुनर्स्थापन के नाम पर इलाहाबाद का प्रयागराज हो जाना, केवल नाम बदलना भर नहीं है. बल्कि एक शहर, उसके मिज़ाज, उसकी कृति-विकृति-संस्कृति के बरक्स एक दूसरी तरह और तुक की संस्कृति की तामील है. इसलिए मामला इस दूसरी तरह और तुक वाली संस्कृति और उसकी सोच का है. नूतन और प्राचीन का नहीं. वैसे मानने-मनवाने वाले तो यह तक कहते हैं कि प्रयागराज और इलाहाबाद दोनों ही प्राचीन नाम हैं. प्रमाण पुराण हैं. पुराणों में वर्णित है कि ऋग्वेद में देवी इला और उनके आवास का वर्णन आता है. देवी इला का जो आवास है– इलावास, वही इलाहाबाद है. सिविल लाइंस बस अड्डे के पास होटल इलावर्त इन्हीं देवी इला के नाम पर है. पर कहने वालों का तो यह भी कहना है कि जिस तरह से इलाहाबाद अँग्रेजी में Allahabad है उसी तरह से इलावर्त अँग्रेजी के Albert का तुकजात. पर, वास्तविकता से इनका कोई वास्ता नहीं. ठीक वैसे ही जैसे कि लखनऊ के वलीमियाँ शेखपीर का विलियम शेक्स्पीयर से.
अकबर इलाहाबादी का एक शेर है – ‘मुरीद-ए-दह्र हुए वज़्अ मग़रिबी कर ली/नए जनम की तमन्ना में ख़ुदकुशी कर ली’. तो जिस शहर इलाहबाद को मैं जानता था उस शहर ने नए जनम प्रयागराज की जानिब ख़ुदकुशी कर ली. मैं यहाँ उसी आत्महंता शहर के बहाने कुछ कह सकूँ, इसकी कोशिश होगी. इलाहाबाद में महाकुंभ शुरू हो रहा है. यह डिजिटल महाकुंभ होगा. रोबोट होंगे, कृत्रिम बुद्धि विलास होगा. इस बार मशीन, विज्ञान, धर्म, आस्था सभी शाही स्नान की जगह राजसी स्नान करेंगे. क्योंकि शाही विधर्मी शब्द है. रोबोट भी तो विधर्मी शब्द है. अरे ! तुम नहीं समझोगे पार्टनर, शाही शब्द हमारी आस्था को, गंगा-यमुना और सरस्वती सबको अपवित्र करता है. फिर तो अकबर किला यमुना जी में अंदर तक धँसा हुआ है, उसका क्या ?
अकबर से याद आया. मुग़ल सम्राट अकबर द्वारा चलाये गए एक नए धार्मिक-आध्यात्मिक मत दीन-ए-इलाही के साथ भी तो इलाहाबाद का एक रिश्ता ज़रूर जुड़ता है. मुगल शासन-सत्ता के हाथ से इलाहाबाद 1802 ईस्वी में ही अंग्रेजों के अधीन आ गया था. शुरू में उत्तरी-पश्चिमी प्रांत (पश्चिमोत्तर प्रांत) और बाद में संयुक्त-प्रांत की राजधानी रहा. गदर के बाद 1858 में इलाहाबाद को एक दिन के लिए भारत की राजधानी बनने का अवसर मिला है. हिन्दी क्षेत्र में औपनिवेशिक आधुनिकता की शुरुआत इलाहाबाद से मानी जा सकती है. 1857 के गदर के बाद जिन चार चीजों ने इलाहाबाद की तस्वीर बदल दी वे हैं- यमुना नदी पर पुल, रेल की शुरुआत, उच्च-न्यायालय तथा म्योर सेंट्रल कॉलेज की स्थापना. आगे चलकर इसी म्योर सेंट्रल कॉलेज की नींव पर 23 सितंबर 1887 को इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, जो कालांतर में ‘पूरब के आक्सफोर्ड’ के नाम से जना-पहचाना गया.
आज जब देश भर में सभी विश्वविद्यालय अपनी आभा और गरिमा या तो खो चुके हैं या खोते जा रहे हैं अथवा जानबूझकर उन्हें तहस-नहस किया जा रहा है तो अपने ‘अल्मामैटर’ इलाहाबाद विश्वविद्यालय को याद करना निश्चित ही आश्वस्ति देने वाला नहीं है. उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी दशक से लेकर बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक तक यह विश्वविद्यालय ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा, प्रशासन, न्याय, राजनीति जैसे बहुविध क्षेत्रों में अपने शिक्षकों और छात्रों के नाते अपनी विशिष्ट पहचान रखता था, जिसे यहाँ के ही कुलपति रहे डॉ. अमरनाथ झा से यह पूछे जाने पर कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय की ख़ासियत क्या है, ज़वाब दिया था– सर दिस इज अवर ट्रेड सेक्रेट. मने कि ‘इलाहाबादी’ होने और कहलाने का एक ख़ास मल्लब होता था. अपने उतरे रंग और मिज़ाज के साथ ही सही पर आज भी यहाँ से जुड़ा हर शख़्स ‘इलाहाबादी’ कहलाना न केवल पसंद करता है, बल्कि यह सुनकर कि अरे ! ई इलाहाबादी हैं, रोमान और रोमांच से भर उठता है.
महाभारत में, प्रसंग आता है कि एक-एक कर चारो पांडव भाइयों द्वारा सरोवर का पानी पीते ही मृत हो जाने पर आख़िर में ज्येष्ठ पांडव पुत्र युधिष्ठिर ने पानी पीने से पहले यक्ष के प्रश्नों का सामना किया. उन्हीं प्रश्नों में से एक प्रश्न था – किम आश्चर्यम ? आश्चर्य क्या है ? युधिष्ठिर का ज़वाब था – जीने की लालसा और कामना. एक इलाहाबादी के लिए इलाहाबाद के साथ होने और जीने की लालसा किसी आश्चर्य से कम नहीं.
आज का इलाहाबाद जहाँ सिविल लाइंस में धड़कता-फड़कता है, वहीं पुराना इलाहाबाद आज भी तमाम गंज, सरायों और बागों में बसता और धड़कता है. दारागंज, लूकरगंज, जॉनसनगंज, बहादुरगंज, मीरगंज, एलनगंज, ममफोर्डगंज, कर्नलगंज, मुट्ठीगंज, तेलियरगंज और भी न जाने कितने गंज. सुलेमसराय, नीमसराय, खुसरो बाग, आलोपीबाग, सोहबतिया बाग, बाई का बाग, जैसे न जाने कितने बागों और सरायों में इश्क़-मोहब्बत के न जाने कितने किस्से दफ्न हैं. इलाहाबाद के इन इलाकों को देखने से यह भी लगता था कि मुग़लों के समय में इलाहाबाद एक बहुत बड़ी मंडी और बाज़ार रहा होगा. इन मोहल्लों से गुजरते हुए आपको यार्कशायर और बाइटन के उपनगरों का मुक़ाबला करने वाली सिविल लाइंस की चौड़ी-चौड़ी सड़कें नहीं दिखेंगी, बल्कि पुराने पत्थरों की सीटें डालकर बनाई गयी लीक सी सड़कें और तंग गलियों से घूमते चक्कर काटते हुए सूअरों और भैंसों से बचते-बचाते ही आप अपनी मंजिल पर पहुँच सकते थे. पर, इस महानतम सदी के महानतम महाकुंभ (2019 ईस्वी, जो असल में अर्धकुंभ ही था) के नाम पर, ‘स्वच्छ और उज्ज्वल भारत’ योजना के अंतर्गत इस शहर को भी स्वच्छ और साफ़ बनाने की मुहिम के तहत सब कुछ को तोड़-ताड़ कर चौड़ा पटरा बना दिया गया है.
शहर अब कुंभों, कमल पुष्पों, सूख चुके फव्वारों, उखड़ रहे सीमेंट के बड़े-बड़े शिवलिंगों और ऋषियो-मुनियों के सुपरमैन वाली प्रतिमाओं से सुसज्जित एक तरह का गोदाम प्रतीत होता है. अगर आपने ‘गुनाहों का देवता’ पढ़ा हो (हमारे एक दोस्त यह यह सुनते ही कि ‘पढ़ा हो’ फनफना कर भों-भकार वाले खाँटी अंदाज़ में आ जाते – ‘अमें ! कउन भों… के इलाहाबादी होई जउन ईका न पढ़े होई, तुमहूँ न भोंस…के !! हद है. ) तो धर्मवीर भारती उल्लेख करते हैं कि इलाहाबाद का गौरव-शिल्प ग्रीक-देवताओं द्वारा तैयार किया हुआ लगता है. लेकिन आज न तो इलाहाबाद का वह गौरव बचा हुआ है न शिल्प. सब कुछ गोदाम में बदल चुका है. जहाँ भी, जिस ओर भी निकल जाइए, सुंदर दिखने-दिखाने के नाम पर एक ख़ास ढंग की अभिरुचि के चलते एकतरह एकरस भोंड़ापन दिखता है. इसी का नाम प्रयागराज है. इस प्रयागराज में से इलाहाबाद ग़ायब है.
अगर कहानीकार ज्ञानरंजन की भाषा में कहना हो तो यह शहर अब ‘मरी हुई आँख की पुतली की तरह विजड़ित और विस्फारित’ लगता है. लेकिन क्या करेंगे वास्तविक तस्वीर तो यही है. क्या अब कभी वह गौरव और शिल्प लौट कर आ पाएगा ? या अपने ‘अल्मामैटर’ और तमाम तकलीफ़ों के बावजूद भी एक गहरे रोमान में घेरे रहने वाले अपने इस नगर को मरते हुए देखना हमारी नियति है :
आपके (मेरे भी) इस आला शहर में
धू-धू करता सल्तनत और हुकूमत का
जलता महाश्मशान–
अघोरी सा चीखते हुए
लपटों वाले हाथों से
आसमानों को पीट रहा है
दस्तक दे रहा है
और हरम के बंद दरवाजों के सामने
धीरे-धीरे ख़ाक होता जा रहा है.
बीसवीं सदी के आखिरी दशक में, जब ग्लोबलाइजेशन का शोर-शराबा शुरू हो चुका था, जब हिंदू मान-मर्यादा को जीने वाले दक्षिणपंथी दलों और संगठनों द्वारा अयोध्या में बाबरी मस्जिद मटियामेट हो चुकी थी, मैं एक छोटे से गाँव और निरक्षर माता-पिता से ज़िद कर के (क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि मुझे इलाहाबाद पढ़ने भेज सकें) घर से निकलकर इलाहाबाद पढ़ने के लिए आ गया था. मेरे इस निर्णय का घर के किसी सदस्य ने समर्थन नहीं किया. बल्कि सबने ताने मारे– कलेक्टर बनने चले हैं. पर, मेरे मझले भाई ने यथासंभव मदद की. बहुत कठिन परिस्थितियों में इलाहाबाद में रहा. बहरहाल, यहाँ उनका वर्णन हेतु नहीं. स्नातक में प्राचीन इतिहास और संस्कृति, दर्शनशास्त्र और हिंदी विषय लेकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने लगा. बनारस की तरह इलाहाबाद में भी ‘गुरुओं’ और ‘गुरूओं’ दोनों की लंबी परंपरा रही है. छुन्नन गुरू से लगायत मुच्छड़ गुरू तक के अनेक क़िस्से हैं. लेकिन यहाँ मैं उन ‘गुरूओं’ की नहीं बल्कि अपने कुछ गुरुओं की चर्चा करूंगा.
एक बात पहले ही साफ़ हो जाए, वर्ना रह जाएगी, वह यह कि बनारस की तरह यहाँ चेलों का कोई ‘चेलाहाट’ या ‘चेलमपुर’ कभी नहीं विकसित हुआ. चेले ही नहीं विकसित होने देते थे. कुछ गुरुओं ने ऐसी कोशिश की भी होगी तो चेलों ने थूक सनी, फेंटी और चुटकियाई हुयी ऐसी खैनी खिलाई कि गुरु का गुरूर सातवें आसमान से धम्म से नीचे कंक्रीट की सड़क पर. इलाहाबाद के चेलों ने गुरुडम पर हमेशा से ही ‘टीका’ ‘टिप्पनी’ की है, उसे हमेशा से ही धुरियाया है. आज की मैं नहीं जानता, पर हमारे समय में भी ऐसा ही था.
एम. ए. की कक्षा. हमारे अतिप्रिय शिक्षक सत्यप्रकाश मिश्र तुलसीदास पढ़ा रहे थे. रामकथा के प्रसंग से रामलीला का संदर्भ आया. वैसे तो सत्यप्रकाश मिश्र कक्षा में कभी भी न तो संस्मरणों में टाइम पास करने वाले और न ही निजी प्रसंगों की बतकही से मनोरंजन उपस्थित करने वाले गुरु थे. सिवाय उस दिन के उस रामलीला वाले प्रसंग के. यह प्रसंग भी मेरी स्मृति से ओझल हो गया था. हमारे साथी और अब हिन्दी विभाग में ही प्रोफ़ेसर कुमार बीरेन्द्र ने याद दिलाया.
सत्यप्रकाश जी ने रामलीला के प्रसंग से यह बताया कि उनके गाँव में सभी मिलकर रामलीला का मंचन करते थे. अपने बारे में उन्होंने कहा कि कुछ सालों तक वे भी रावण का किरदार निभाते रहे. सत्यप्रकाश जी का जो रोबीला चेहरा और जो बुलंद आवाज थी, वह रोल उन पर फबता भी रहा होगा. मैं और कुमार बीरेन्द्र चौथी या पाँचवीं कतार में बैठे थे. मैंने वहीं से मुँह दबाकर धीरे से कहा– आप किरदार में ही नहीं बल्कि लगते भी रावण हैं. फुसफुसाहट उन तक पहुँची– ‘क्या है जी, कोई सवाल है तो खड़े होकर पूछो, फुसफुसा क्यों रहे हो?’ मैं डरते हुए उठा और कहा कि कुछ नहीं सर, मैं इनसे कह रहा था कि ‘मैं अपने गाँव की रामलीला में राम बनता था.’ सचमुच मैं कई सालों तक राम की भूमिका निभा चुका था. किसे पता था कि आगे चलकर राम-रावण के ये किरदार किसी रिश्ते में बंधेंगे. सत्यप्रकाश जी की मोटी बुलंद आवाज़ कभी-कभी इतनी सख़्त और कड़क हो जाती थी कि सामने वाला डर जाता था.
एक बार विभाग की ही एक छात्रा (नाम मुझे अब याद नहीं) साथ जो हुआ उसे देखकर हम सभी कुछ क्षणों के लिए डर और आश्चर्य से भर उठे थे. एक दिन वो कक्षा लेकर लॉबी से ऑफिस की ओर बढ़ रहे थे. वह छात्रा किसी पेपर पर हस्ताक्षर कराने के लिए वहीं कॉरीडोर में खड़ी थी. जब देखा तो पीछे-पीछे चलने लगी. डर के मारे हिम्मत नहीं थी कि कुछ कहे. ऑफिस के पास पहुंचने पर जब उन्होंने मुड़कर देखा तो उसी सख़्त और कड़कदार आवाज़ में पूछा, ‘क्या है जी, क्लास छोड़कर यहाँ क्या कर रही हो ?’ वह पहले से ही डरी हुयी थी, इस डांट लगाती कड़क आवाज़ से मारे डर के वहीं बेहोश होकर गिर पड़ी. ख़ुद वो अध्यक्ष के कक्ष तक बढ़ चले थे. ऑफिस में धनराज यादव आदि उस लड़की के मुँह पर पानी के छींटे मारने लगे. दो मिनट बाद उसे होश आया. तब तक शोर-शराबा सुनकर ख़ुद आ गए. सुन-देख कर उनके चेहरे पर जो ग्लानि का भाव था वह देखने लायक था.
परंतु, सत्यप्रकाश जी बाहर से जितने सख़्त और दृढ़ पाषाण दिखते थे भीतर से उतने ही उदार और संवेदनशील थे. मेरे अपने साथ इस तरह के कई निजी संस्मरण हैं, जिनका वर्णन चाह कर भी मैं नहीं कर सकता. लेकिन वे छात्र-वत्सल अध्यापक थे. उन्होंने हमेशा अपने ही छात्रों की नहीं बल्कि दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्रों की भी मदद की. विभाग में दूसरे अध्यापकों से जुड़े छात्र, शोध-छात्र भी यह जानते थे कि अगर उनके साथ कुछ ग़लत किया जा रहा है या हो रहा है तो सत्यप्रकाश जी से कहने पर, वे ज़रूर मदद करेंगे. अभी तक मैंने यह नहीं सुना कि अमुक छात्र का उनके चलते कोई नुकसान हुआ हो. एक बार तो उनके नाम का उपयोग करके ही उनके एक छात्र ने अपनी पत्नी को नौकरी दिलाने में मदद हासिल की. बात उन दिनों की है जब वो कुछ दिनों के लिए जापान गए थे. उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग, उत्तर प्रदेश की चयन प्रक्रिया में प्रोफ़ेसर अजब सिंह आए थे. उक्त छात्र ने उनसे मिलकर कहा कि सत्यप्रकाश जी से उसकी बात हो गयी है, आप तक अपना निवेदन उन्होंने भिजवाया है कि अमुक अभ्यर्थी की जो संभव मदद हो सके करें. उक्त छात्र की पत्नी चयनित हुई. आजकल वह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं. कुछ ही महीनों में, मन न लगने के कारण जापान की अपनी नियुक्ति बीच में ही छोड़कर जब वो इलाहाबाद लौट कर आए और एक कार्यक्रम में जब अजब सिंह से भेंट हुयी तो अजब सिंह ने यह बताया कि डाक्टर साहब आपने जिस महिला के लिए जापान से संदेश भिजवाया था, उसका चयन हो गया था. सत्यप्रकाश जी, अवाक. फिर, संभलते हुए कहा कि उसके पति ने मुझे और आप दोनों के साथ धूर्तता की है. फिर, भी कोई बात नहीं, किसी का भला ही हुआ. वो भी क्या दिन थे.
सत्यप्रकाश मिश्र की कक्षा कितनी जीवंत और समृद्ध करने वाली होती थी, यह उनके विद्यार्थी जानते हैं. वह उन गुरुओं में से थे, जिन्होंने कक्षा को समय-सारिणी और पाठ्यक्रम में ही महदूद नहीं मान लिया था. कक्षा लेने में उन्होंने कभी भी कोताही नहीं की. उनकी सबसे बड़ी ख़ूबी थी कि शहर में रहे तो कभी भी कक्षा नहीं छोड़ा. अध्यापन उनके लिए ड्यूटी का नहीं बल्कि रुचि और पसंद का मामला था. प्रतिमा बताती है कि जिस दिन हमारी शादी थी उस दिन भी सुबह की कक्षा उन्होंने ली थी. इसे कर्तव्यनिष्ठा मात्र में नहीं सीमित किया जा सकता. बल्कि उससे भी आगे यह व्यक्तित्व और नैतिकता का उदाहरण है.
सत्यप्रकाश मिश्र एक प्रिय अध्यापक के साथ साहित्य और समाज की समझ रखने वाले के गंभीर और बहुअधीत आलोचक थे. अपने आलोचनात्मक लेखन में वह प्रमाण सहित रचना और आलोचना की सीमाओं, कमजोरियों और विचलनों के साहसिक प्रत्यक्षीकरण में विश्वास करने वाले आलोचक हैं. इसलिए दो टूक भाषा में चीर-फाड़ करते तर्क, कहीं-कहीं आलोचना को हथियार की तरह उपयोग में लाये जाने की गवाही देने लगते हैं. यह संभवतः उनको अपने सबसे प्रिय आलोचक विजयदेव नारायण साही से विरासत में मिला था, जिनका साफ तैर पर मानना था कि “आलोचना को हर हाल में गलत बनाम सही, झूठ और अपर्याप्त सच बनाम सच का रूप ग्रहण करना ही चाहिए.” जिस अपने एक लेख ‘महाबली का पतन’ से सत्यप्रकाश मिश्र हिंदी जगत में चर्चित हुए वह एक लेख मेरी उपर्युक्त बातों का प्रमाण है. ‘महाबली का पतन’ लेख इलाहाबाद से निकलने वाली पत्रिका ‘नयी कहानी’ के अंक-2 (1978) में छपा था.
सत्यप्रकाश जी के मित्र और कथाकार व संपादक सतीश जमाली इस पत्रिका के संपादक थे. इस लेख ने हिंदी जगत में खूब ख्याति अर्जित किया. नामवर जी के विरोधियों को तो यह लेख पसंद आया ही उनके समर्थकों के बीच भी यह खूब चर्चित रहा. हिंदी के प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह के व्यक्तित्व और आलोचनात्मक लेखन की निर्माण प्रक्रिया, उसके स्रोतों और संदर्भों, विचारधारात्मक प्रतिबद्धता, प्रतिमान निर्मिति के मानदंड आदि की जिस तरह से सत्यप्रकाश मिश्र अपने उक्त लेख में जाँच-पड़ताल, चीर-फाड़ करते हैं और नामवर जी जैसे आलोचक के हिंदी आलोचना का महाबली बनने और फिर उसी महाबली आलोचक के अपनी विचारधारा से विचलन और पतन को अनेकानेक प्रामाणिक संदर्भों, तथ्यों, विचारों और मानदंडों से पुष्ट किया है वह स्पृहा की वस्तु है.
सत्यप्रकाश मिश्र के आलोचना कर्म का क्षेत्र चाहे मध्यकालीन रहा हो, चाहे आधुनिक अथवा समकालीन उनकी दृष्टि ‘समकालीन’ ही रही है. इसीलिए वह एक साथ रीति-काव्य पर बात करते हुए समकालीन कविता पर बात कर सकते थे. भारतीय काव्यशास्त्र पर बोलते हुए पाश्चात्य चिंतन और सिद्धान्त को उद्धृत कर सकते थे. वह यह जानते थे कि शोध का क्षेत्र भले ही मध्यकाल का रीतिकाव्य हो परंतु अपने समय के साहित्य और साहित्यकारों पर लिखे बिना आलोचना का दायित्व पूरा नहीं होता. उनकी स्मृति अत्यंत ही तीक्ष्ण थी. सभा, सेमिनारों, सम्मेलनों में जब वो धारप्रवाह बोलते थे तो उनकी विद्वता का लोहा उनके विरोधी भी स्वीकारते थे. उन्होंने 1978 में ही एक महत्पूवर्ण कहानीकार के रूप में ज्ञानरंजन की पहचान करते हुए उन पर ‘कहानीकार ज्ञानरंजन’ नामक पुस्तक संपादित की. ज्ञानरंजन की कहानियों पर संभवतः यह पहली पुस्तक है. इसमें भीष्म साहनी, हरिशंकर परसाई, विश्वंभर नाथ उपाध्याय, उपेन्द्रनाथ अश्क जैसे बड़े लोगों के लेख हैं. इस पुस्तक की योजना में नीलाभ, वीरेन डंगवाल और सतीश जमाली शामिल थे. एक युवा कहानीकार पर पुस्तक? हिंदी के नामी-गिरामी कहानीकारों और आलोचकों ने इस योजना का खुलेआम विरोध किया. पर सत्यप्रकाश मिश्र विरोध को भी अपनी ताकत बना लेने वाले व्यक्ति थे. वे लिखते हैं –
“जिन्होंने खुलेआम विरोध किया उनके बारे में कुछ न कहना उचित है क्योंकि संसार में वे अनिवार्य हैं और वही अच्छा करने की हिम्मत पैदा करते हैं. विकसित मनुष्य सामाजिक नियमों के कारण बदलता है परंतु न बदल पाने वाले कुछ जीव जन्तु प्राकृतिक नियमों के कारण स्वतः समाप्त हो जाते हैं.”
ज्ञानरंजन के अलावा 1990 में वह उदय प्रकाश की कहानी ‘तिरिछ’ पर विस्तार से लिखते हैं. अपने इस लेख में वे समकालीन कहानी में उदय प्रकाश की उपस्थिति को महत्वपूर्ण मानते हुए लिखते हैं कि
“तिरिछ संग्रह की कहानियों को पढ़कर कहानी के भविष्य के प्रति की जा रही चिंता से थोड़ी मुक्ति मिलती है.”
उदय प्रकाश पर जिन कुछ प्रारंभिक आलोचकों ने लिखा उनमें सत्यप्रकाश मिश्र का लेखन अग्रणी है. वह उदय प्रकाश को एक ऐसे सजग और प्रयोगशील कहानीकार के रूप में रेखांकित करते हैं जो ‘एकरस कथासमय और लक्षण-बद्ध कहानियों की शव-साधना’ से अपने को बचाते हुए हिंदी कहानी की सामर्थ्य सिद्ध करता है. संभवतः कहानीकार के रूप में उदय प्रकाश की पहचान करती आलोचना का यह एकदम शुरुआती उदाहरण है.
कक्षा में, मेरे दूसरे प्रिय अध्यापक थे राजेंद्र कुमार सर. राजेंद्र सर अपने व्यक्तित्व में नितांत सहज, सरल और साधारण हैं. मनुष्यता इस सादगी, सहजता और सरलता का सत्त है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एम.ए. के आखिरी साल में दो विशेष पर्चे हमें पढ़ने होते थे. मेरा एक पर्चा निराला पर विशेष अध्ययन वाला था. यह विशेष पर्चा हमें राजेंद्र सर पढ़ाते थे. निराला का गद्य साहित्य, खासकर उनकी कुछ कहानियाँ और कुछ उपन्यास जिस गहरे सामाजिक-बोध के साथ लिखे गए हैं और जिसमें लेखक ‘अन्य’ की तरह नहीं बल्कि ‘मैं’ के रूप में उपस्थित है, उनको पढ़ाते हुए राजेंद्र सर उस सामाजिक यातना को बड़ी ही गहराई से हम छात्रों के मन पर अंकित कर देते थे, जिसमें चतुरी चमार, देवी, कुल्लीभाट, बिल्लेसुर बकरिहा जैसे चरित्र अपनी अपराजेय पीड़ा और त्रास से लड़ रहे हैं. ‘आलोचना आस-पास’ नामक उनकी पुस्तक में ‘निराला का गद्य’ शीर्षक लेख है. इस लेख को पढ़कर अपने को राजेंद्र सर की कक्षाओं में बैठा हुआ महसूस करने लगा. इस लेख में राजेंद्र कुमार ने निराला के ऊर्जस्वित गद्य की सामाजिक और प्रगतिशील भूमिका को उनकी स्वाभाविकता में व्याख्यायित-विश्लेषित करते हैं. वे लिखते हैं –
“वे प्रेमचंद की इस अवधारणा को चरितार्थ करते हैं कि ‘साहित्य स्वभाव से प्रगतिशील होता है’. चमरौधा जूता भी अगर निराला की कविता में आता है तो वह उनकी स्वभावगत प्रगतिशीलता की उँगली पकड़ कर ही आता है. जिस स्वाभाविकता से वह व्यंग्य को पैना करता है उसी स्वाभाविकता से उस प्रतीक व्यवस्था को मुँह भी चिढ़ाता है, जिसे छायावाद ने बड़ी नफासत से गढ़ी थी. ‘कुल्लीभाट’ और ‘बिल्लेसुर बकरिहा’ के आस-पास से गुजरते हुए निराला के कथात्मक लेखन में ‘चतुरी चमार’ आता है तो बतौर प्रतीक नहीं, बजात खुद आता है. लेकिन निराला ने अपने समाज के इन चरित्रों के आगमन का क्रम अपनी रचनाओं में किसी सुनियोजित विचार-प्रणाली के तहत तय किया होगा, ऐसा नहीं लगता. यह सब उनकी सहज अनुभूति के वेग से ही संभव होता है. उनकी रचनाओं में सिर्फ वही-वही नहीं आता, जिसे चेतन स्तर पर वे आने देना चाहते हैं. उनकी रचनाओं में बार-बार वह सब भी आता है, जो उनके चेतन या अचेतन में गहरे समाया है – कहीं परिवर्तन की आकांक्षा के रूप में और कहीं धार्मिक या आध्यात्मिक आस्था के रूप में. इस तथ्य को हम निराला के अपने युग के सामाजिक अंतर्विरोध के रूप में भी परिभाषित कर सकते हैं और निराला की अपनी रचनात्मक ईमानदारी के रूप में भी. मैं बहैसियत एक पाठक, इसे निराला की अपनी रचनात्मक ईमानदारी के रूप में ही अधिक महत्व देता हूँ. वरना आज के तथाकथित विद्रोही लेखकों के रचना-जगत में झाँककर देखिए, अधिकांश के यहाँ एक चालक चौकन्नेपन के आगे इस रचनात्मक ईमानदारी की कुर्बानी दे दी जाती है. चेतन स्तर पर बड़ी ही आक्रामक मुद्रा में जिन-जिन बातों को वे संस्कारिक रूढ़ियाँ बताते हुए खारिज करते हैं, अवचेतन स्तर पर वे उन्हीं से स्वयं परिचालित हो रहे होते हैं. चेतन स्तर पर वे अपनी रचनाओं में उन सब बातों को आने देने से रोककर अपना वह रूप बड़ी चालाकी से छिपा ले जाते हैं जो उनके जीवन के व्यवहार पक्ष में बराबर किसी न किसी रूप में व्यक्त होता ही रहता है. यह चालाक चौकन्नापन आज के लेखक के व्यक्तित्व में दरारें पैदा करता है.”
हर आलोचक का कोई न कोई एक आदर्श रचनाकार होता है, जिसको वह कसौटी की तरह उपयोग में लाता है और उसके स्केल पर ही अन्य रचनाकारों का मूल्यांकन करता है. जैसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल के लिए तुलसीदास. राजेंद्र कुमार के लिए कथाकार के रूप में प्रेमचंद और कवि के रूप में निराला वैसी ही कसौटी हैं. समकालीन हिंदी रचना और आलोचना दोनों पर राजेंद्र कुमार की गहरी नजर रहती है. वह आज भी नए से नए रचनाकारों और आलोचकों को पढ़ते हैं. उन्हें प्रोत्साहित करते हैं, कहीं कुछ गलत है तो, इशारों-इशारों में संकेत भी कर देते हैं. वह रचना और आलोचना के समकालीन परिदृश्य से आश्वस्त तो हैं पर उनकी कुछ प्रवृत्तियों से खासे विचलित भी हैं, खासकर; उन दो प्रवृत्तियों से बहुत अधिक, जिसमें से पहली प्रवृत्ति है समकालीन आलोचना का ‘प्रायोजित आलोचना’ के रूप में रेड्यूस होते जाना और आलोचना को केवल रचनाकार से संबंध और मैत्री निभाने के लिहाज से प्रचार-प्रसार का माध्यम भर बना देना. दूसरी प्रवृत्ति है, आलोचना-कर्म को ‘पौरोहित्य-कर्म’ में बदल देना. वे लिखते हैं –
“कुछ आलोचक लेखकों को अपनी ओर अभिमुख करके तुरंत एक प्रलोभनकारी या बौद्धिक सम्मोहन की मुद्रा में आने की स्पृहा करने लग गए. लेखकों के बीच अपनी उपस्थिती का उन्होने प्रभामंडल बनाया औयर यह आभास कराया कि श्रेष्ठता की सूची कोई भी तैयार करे, नाम तो उसमें वही-वही शामिल किए जाएंगे जिन्हें आलोचक चुनेगा. आलोचना के इसी मोड़ पर कई लेखक – खासतौर से नए भटक जाते हैं. प्रतिभा को आत्मसंघर्ष के जरिये तपाकर निखारने देने का रास्ता कितना भी लंबा हो, मगर सच्ची रचनात्मक ऊर्जा का परिचय तो इसी पर चलने वाला लेखक दे पाता है. कुछ लेखक, जो वाकई प्रतिभाशाली होते हैं, आलोचकों द्वारा इस तरह लोक लिए जाते हैं कि उनका सहज विकास अवरूद्ध हो जाता है. ऐसे लेखकों में यदि आत्मसंघर्ष का धैर्य न हो तो वे आत्म-प्रतिष्ठा के लिए इतना ही पर्याप्त मान बैठते हैं कि कोई आलोचक किसी न किसी बहाने, कहीं न कहीं उनके नाम का भी उल्लेख कर दे. इस नीयत से वे अपने समाज से संस्कारित होने के बजाय किसी विशिष्ट आलोचक से संस्कारित होने को आतुर हो उठते हैं. आलोचना कर्म तब एक पौरोहित्य बन जाता है. यानी कर्म नहीं कर्म-कांड; ऐसा कर्म जो समाज द्वारा साहित्य से की जाने वाली अपेक्षाओं के औचित्य-अनौचित्य को समझने का खुला मौका लेखक को नहीं देता.”
आख़िर में गुरुओं के गुरू – दूधनाथ सिंह. उन दिनों दूधनाथ सिंह हिंदी विभाग में थे तो लेकिन स्नातक की कक्षाएं संभवतः उन्हें नहीं दी गयी थीं या वे नहीं लेते थे. उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वे जल्दी ही एक दो साल में रिटायर होने वाले थे. वे ईस्वी सन 1995 में संभवतः रिटायर हो गए थे क्योंकि, एम.ए. की कक्षा में पहुँचने तक वे विभाग से जा चुके थे. इसलिए उनका पट्ट शिष्य तो मैं कभी नहीं रहा, पर वे मेरे गुरु थे. बाद के दिनों में, खासकर ‘पक्षधर’ के सम्पादन के सिलसिले में मैं उनसे बहुत कुछ सीख सका. दूधनाथ जी से मेरी पहली मुलाक़ात और बातचीत का प्रसंग भी कुछ ऐसा है कि सुनाने बैठूँ तो पूरी एक अलग कहानी बन जाएगी. वह पूरी कहानी फिर कभी. यहाँ पर संक्षेप में, बस उसका उल्लेख भर.
इलाहाबाद में एम. ए. में लिखित परीक्षा के बाद एक मौखिक परीक्षा भी होती थी. लिखित और मौखिक सभी तरह की परीक्षाएँ सम्पन्न होने के बाद जब हमारा एम. ए. का परिणाम निकला तो मेरा और हमारी एक सहपाठी, हम दो लोगों का परीक्षा परिणाम पता नहीं किन कारणों से ‘नॉट रेडी’ दिखाकर रोक दिया गया. परीक्षा विभाग में जाकर पता किया तो बताया गया कि आप मौखिक परीक्षा में अनुपस्थित हैं, आपने मौखिक परीक्षा नहीं दी है. उस समय मेरी हालत ऐसी थी कि काटो तो खून नहीं. अब मैं क्या करता. फिर शुरू हुयी हिन्दी विभाग से परीक्षा विभाग की रोज की दौड़. मैंने विभागाध्यक्ष, परीक्षा नियंत्रक, कुलपति सबको लिखा कि मैंने मौखिक परीक्षा दी है. मैं मौखिक परीक्षा में उपस्थित था. मुझे विभाग द्वारा वह उपस्थिती-पत्रक दिखाया जाय जिस पर मौखिकी के दौरान संबंधित छात्र हस्ताक्षर करता है. पर, इतनी आसानी से उन दिनों यह कहाँ संभव था. वह आरटीआई वाले दिन नहीं थे. और फिर, वह दिखाया भी कैसे जा सकता था क्योंकि वहाँ तो मेरा हस्ताक्षर मौजूद ही था.
मैं विभाग में किसी को नहीं जानता था. मेरी किसी अध्यापक से बहुत अधिक निकटता नहीं थी. जो कुछ था कक्षा के अंदर था, बाहर कुछ भी नहीं. उन दिनों मैं एक ऐसी तिक्तता, तनाव और टूटन में जी रहा था जिसका वर्णन आज संभव नहीं. क्योंकि यह विभाग के कुछ एक-दो अध्यापकों द्वारा जानबूझकर मेरे साथ किसी व्यग्तिगत समीकरण और लाभ की सेटिंग के लिए की गयी वह करतूत थी, जिसमें मैं निर्दोष था. मेरा दोष यह था कि मैं अपनी कक्षा में सबसे अधिक अंक प्राप्त कर रहा था. दरअसल, मेरी जगह हमारी सहपाठी को टॉप कराने के चक्कर में मेरी निर्दय हत्या की गयी थी. इस क्रूर कर्म के कर्ताधर्ता थे हमारे एक शिक्षक – काव्यशास्त्र और रामकथा के भारी विद्वान आचार्य. किसी लिखित पर्चे में मुझे अनुपस्थित दिखाया गया होता तो और पर्चों के प्राप्तांकों के आधार पर औसत निकाल कर अनुपस्थित पर्चे का प्राप्तांक मिल जाता और परीक्षा परिणाम घोषित हो जाता, जैसाकि, मेरे उस सहपाठी के साथ किया गया. परंतु, मौखिक परीक्षा में ऐसा नियम नहीं था. दोबारा, मौखिक परीक्षा ली जाय ऐसा भी कोई नियम नहीं था. मैं चक्कर लगाता रहा, धूल फाँकता रहा पर कहीं से कोई रौशन उम्मीद नजर नहीं आ रही थी.
इसी बीच ‘नेट’ परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ, मैं जे.आर.एफ. के लिए चयनित किया गया था. इस दौरान ही विश्वविद्यालय का कन्वोकेशन सम्पन्न हुआ. मेरी उस सहपाठी को कन्वोकेशन में चार-चार मेडल देकर सम्मानित किया गया. वह ‘टॉपर’ जो थी. मैं जेआरएफ का परिणाम लेकर भी चप्पलें घिस रहा था. मुझे विभाग या विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से उपस्थिति-पत्रक नहीं दिखाया गया. सात-आठ महीनों की चप्पल घिसाई और हार न मानने वाली मेरी जिद के आगे विश्वविद्यालय प्रशासन को मौखिक परीक्षा संबंधी अपने नियम बदलने पड़े. एक दिन मुझे मेरे घर के पते पर परीक्षा-नियंत्रक की ओर से एक चिट्ठी मिलती है कि आपकी मौखिक- परीक्षा दोबारा अमुक तारीख को अमुक समय पर हिन्दी विभाग में सम्पन्न होगी. उक्त तिथि और समय पर विभाग में उपस्थित रहें. सब खेल खेल लिया गया, जिसको ‘टॉपर’ बनाना था बना दिया गया. तब यह चिट्ठी मिली. मुझे नहीं मालूम कि इस पूरे खेल में उस समय की तत्कालीन विभागाध्यक्ष भी शामिल थीं या नहीं ?
बहरहाल, इस दोबारा मौखिक परीक्षा में बाह्य-विशेषज्ञ के रूप में दूधनाथ सिंह मेरे परीक्षक बन कर आए थे. यह पहला मौका था जब मैं उनको इतने नजदीक से देख रहा था. शहर की कुछ गोष्ठियों में उनको पहले देख चुका था. एक कहानीकार के रूप में मैं उनसे परिचित था. उनकी किताब ‘निराला: आत्महंता आस्था’, अपने विशेष पर्चे के दौरान पढ़ चुका था. दूधनाथ जी, मुझसे लगातार 20-25 मिनट तक सवाल पूछते रहे, मैं ज़वाब देता रहा. उसके बाद वो बातचीत के लहजे में आ गए. यह उनकी आत्मीयता थी या मेरा उत्साह, मैं कह नहीं सकता, वहीं मैं उनसे कुछ सवाल पूछने लगा. ये सवाल वही थे, जो निराला पर एम.ए. के दौरान (इनको और रामविलास जी को पढ़ते हुये) मेरे मन में उठे थे. मैं भूल गया कि वे परीक्षक हैं और मैं परीक्षार्थी. पर वे भी, मुझे सहकाते हुए, मेरे सवालों को बड़े ध्यान से सुनते हुए, उन पर बातचीत करने लगे थे. इस तरह लगभग 40 मिनट तक मेरी मौखिकी चलती रही. निकलते समय मैंने नमस्कार किया. उनके चेहरे पर एक प्रसन्नता का भाव था, उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई. जब, एम. ए. का परीक्षा परिणाम तैयार होकर आया तो मौखिकी में मुझे 79 अंक मिले थे, सब मिलकर एम.ए. में सर्वोच्च अंक मेरे थे. मेरी उस सहपाठी से भी सात अंक अधिक. मुझे नहीं पता कि आज मेरी वह ‘टॉपर’ सहपाठी कहाँ हैं ?
जिस हेतु यह निर्दय और क्रूर कर्म किया गया था वह सिद्ध हुआ भी या नहीं ? मैं तो अंदरखाने का यह सारा खेल भी नहीं जान पाता यदि बाद में डॉ. मोहन अवस्थी की जगह मेरी शोध निर्देशक मालती तिवारी न होतीं और बाद में सत्यप्रकाश मिश्र की दुहिता प्रतिमा से विवाह न हुआ होता. खैर, उस खेल की अंतर्कथाओं में कई अंतर्कथाएँ ऐसी हैं जिसमें जाने का न कोई अब तुक है और न ही यहाँ जरूरत. और यह खेल नया भी नहीं है. हमेशा से होता रहा है. दूधनाथ सिंह की ही कहानी ‘हुँड़ार’ के राय साहब, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर, गुप्ता जी के बेटे का कैरियर बर्बाद करते ही हैं. खैर, उसके बाद शोध के दौरान दो सालों तक बतौर जेआरएफ़ विभाग में स्नातक की कक्षाएँ पढ़ाता रहा. कभी-कभी विभाग में और विभाग से बाहर सभा-संगोष्ठियों में दूधनाथ जी से मिलना-जुलना हो जाता था. वर्धा चले जाने के बाद भी उनसे बातचीत जारी रही.
जब मेरी पहली आलोचना की किताब ‘परंपरा, सर्जन और उपन्यास’ प्रकाशन के लिए तैयार हुई तो उसका व्लर्ब लिखने के लिए मैंने दूधनाथ जी से कहा, वे तैयार हो गए. जब लोकभारती से किताब छपकर आयी तो पता चला कि उन्होंने तो, ‘एक नए आलोचक का जन्म’ शीर्षक से एक पूरी भूमिका लिखी है जिसमें उस नए आलोचक को प्रोत्साहन देने के साथ-साथ उसकी कमजोरियों को भी रेखांकित किया गया है. यह मेरे प्रति उनके आत्मीय स्नेह का ही परिचायक था.
ईस्वी सन 2005 में वर्धा के अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय से मैं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में लेक्चरर नियुक्त होकर आ गया. मेरे अलावा और भी दस लोग लेक्चरर पद पर नियुक्त हुए थे. एक साथ ग्यारह लोगों की पूरी क्रिकेट टीम. उन दिनों कुछ बनारसी लोग इस टीम को ‘रुद्र एकादश’ के नाम से भी अभिहित करते थे. बहुत दिनों के बाद विभाग में एक साथ इतनी नियुक्तियाँ हुई थीं. इन नियुक्तियों की हिन्दी जगत में बहुत चर्चा थी. आखिर हो भी क्यों न, नामवर सिंह और निर्मला जैन जैसे लोगों ने मिलकर यह चयन किया था. मैं इलाहाबादी वाया वर्धा से बनारस गया था. वर्धा विश्वविद्यालय का माहौल ही उन दिनों कुछ और था. खुला-खुला प्रांगण, खुली बहसें, सेमिनार, अकादमिक गहमागहमी और भी अन्याअन्य करतब होते थे. विद्यार्थी से लेकर अध्यापक तक सभी एक ख़ास तरह के अकादमिक टशन में जीते थे.
बनारस में यह सब कुछ नदारद था. विभाग में पठन-पाठन के अलावा कोई अन्य गतिविधि या क्रिया-कलाप नहीं. सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर बस प्रवेश पाये हुए नवागत छात्रों के स्वागत और पूरा होने जा रहे अंतिम वर्ष के छात्रों की विदाई के अवसर पर टीका-फूल और गीत-गवनई होता था. शहर में भी निस्पंदता थी. ऐसे में कभी-कभी बहुत ही खालीपन और ऊब महसूस होती थी. छात्रों के लिए कक्षा से बाहर किसी तरह की रचनात्मक अभिव्यक्ति का कोई न तो माहौल था न मंच. इस नयी टीम ने धीरे-धीरे इस शून्य को भरने के लिए तरह-तरह की कोशिशें शुरू कीं. उसी तरह के एक प्रयत्न के साथ बनारस से ‘पक्षधर’ पत्रिका की शुरुआत हुयी.
सन 2006 की गर्मियों से ‘पत्रिका’ निकालने को लेकर गंभीरता से सोच-विचार करने लगा. गर्मी की छुट्टियों में इलाहाबाद गया हुआ था. वहाँ सत्यप्रकाश जी से इस संबंध में मैंने बातचीत की. उन्होंने एकदम सिरे से मना तो नहीं किया परंतु तरह-तरह से पत्रिका निकालने और उसको निकालते रहने की अनेकानेक कठिनाइयों से मुझे हतोत्साहित किया. मैं भी थोड़ा बहुत उन परेशानियों को समझता था. आज भी उन परेशानियों से जूझता रहता हूँ. पर, परेशानियों से डरकर कोई काम हाथ में ही न लिया जाये, यह कैसे संभव है, यह भी मैंने सत्यप्रकाश जी से ही सीखा था. कितनी भी बड़ी कठिनाई हो उसको अपने बलबूते पर निभाना और निभाते चले जाना उनके व्यक्तित्व का गुण था. तभी तो अंत-अंत तक, कैंसर होने के बावजूद घर वालों को उन्होंने पता तक नहीं चलने दिया कि उन्हें कैंसर है. वे जानते थे कि अगर मैंने एक बार मन बना लिया है तो मुश्किलों का हवाला देकर मुझे रोका नहीं जा सकता. वे तैयार हो गए. फिर मैंने, प्रस्ताव रखा कि मुझे ‘पक्षधर’ नाम अपनी पत्रिका के लिए उपयोग में लेना है, इसलिए दूधनाथ जी से मैं बात करना चाहता हूँ, आप भी एक बार उनसे कह देंगे तो वे मना नहीं करेंगे.
दूधनाथ जी उन दिनों उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फ़ेलोशिप पर थे. मैंने उनसे फोन पर विस्तार से बात की. उन्होंने भी सत्यप्रकाश जी की तरह ही मुझे तरह-तरह से रोकने की कोशिश की परंतु मेरे दृढ़ आग्रह के सामने उन्होंने भी हथियार डाल दिया और कहा कि मैं अक्टूबर में इलाहाबाद आ रहा हूँ, तुम आ जाना बैठ कर बात करते हैं. मैं अक्टूबर में इलाहाबाद गया. उनके घर पर बैठकर लगभग 2-3 घंटे बातचीत हुयी. वही सब बातें कि इस दौर में पत्रिका निकालना और उसको बनाए रखना कितना मुश्किल काम है. पर उन्होंने यह भी कहा कि ‘लेकिन मैं जानता हूँ कि तुमने अगर ठान लिया है तो तुम अब रुकोगे नहीं.’
एक बात से वे मुझे हरदम सचेत करते रहे कि पत्रिका को भरसक ‘वाइरस’ से बचाना चाहिए. वे कमजोर रचनाओं को ‘वाइरस’ कहते थे. मैंने नाराजगी, यहाँ तक कि शत्रुता मोल ले कर इसकी भरसक कोशिश की कि पत्रिका में वाइरस न जाने पाएँ. यहाँ तक कि यह नाराजगी गुर देने वाले गुरु से भी मोल लेनी पड़ी. बाद के दिनों में दूधनाथ जी कुछ कारणों से पत्रिका से खिंचे-खिंचे से रहने लगे और यह कहते हुए कि – ‘मेरी उम्र हो चली है पत्रिका अब तुम्हारी है तुम उसको जैसे चलाना चाहो चलाओ’ – धीरे-धीरे वे उदासीन हो गए. इस खिंचाव और उदासीनता के कारण कुछ ‘वाइरस’ ही थे. दरअसल, दूधनाथ जी के इर्दगिर्द कुछ ‘हैकर्स’ सदा से ही रहे हैं. उन्होंने, उनको हैक कर पत्रिका में ‘वाइरस’ घुसाने की कोशिश की. उन्हीं के दिए गुरुमंत्र की अवमानना भला मैं कैसे कर सकता था. दूधनाथ जी के वे अतिप्रिय ‘वाइरस’ पत्रिका में अपनी जगह नहीं बना सके. दूधनाथ जी ने इसको मन में रख लिया. एक दो अवसरों पर उनका यह मन जाहिर भी हुआ. पर मैं सदा उनको अपना गुरु और उससे भी अधिक एक अभिभावक के रूप में मानता रहा, उनके प्रति जो आदर और सम्मान था उसमें कभी कोई कमी नहीं रख छोड़ा. हालाँकि, उनके मन में भी मेरे लिए कोई दुर्भावना या किसी तरह की कोई मैल नहीं थी. पर उनका स्वभाव ही ऐसा था कि एक बार अगर उनको लग गया कि कोई उनकी उपेक्षा कर रहा है या उन्हें महत्व नहीं दे रहा है तो फिर वे उसे माफ़ नहीं करते थे. इसीलिए उन्होंने किसी को माफ नहीं किया. वह चाहे शिष्य रहे हों या गुरु, अपने रहे हों या पराए – किसी को नहीं.
उनकी जिन कहानियों – ‘नमो अंधकारम’ और ‘निष्कासन’ – को लेकर विवाद खड़ा हुआ वह उनकी इसी मनःस्थिति का परिचायक है. उन्हें अपना नितांत अकेलापन स्वीकार था पर अपनी हेठी, अवमानना और तिरस्कार और इस बात का आभास मात्र कि उनके खिलाफ षड्यंत्र किया जा रहा है, वे बर्दाश्त नहीं कर सकते थे. भाषा और कलम की ताक़त तो थी ही. मोती की चमक लिए हुए लक-लक करते हुए खन-खन बजते शब्द जब वाक्य में पिरोए जाते हैं तो उनका बाँकपन आपनी पूरी छटा के साथ सामने होता है, जिसमें भावुकता भी है, निजता भी है, आघात भी है, प्रत्याघात भी है, दुरभिसंधियाँ भी हैं, सयानापन भी है, लिहाड़ी भी है और प्रसंशा भी है. पर जो है अपनी पूरी रचनात्मक संपूर्णता में. गद्य की अपनी इसी अनोखी ताकत से उन्होंने लोगों को पछाड़-पछाड़ कर धोया, लतियाया, कूँचा, कचरा और फींचा. इस बात की फिक्र किए बिना कि वे खुद यह सब करने में कितने लहूलुहान हो रहे हैं, कितने एकाकी हो रहे हैं.
उनकी पहली ही कहानी ‘सपाट चेहरेवाला आदमी’, जो 23-24 साल की उम्र में उन्होंने लिखी थी, का नैरेटर कहता है कि, ‘सब मुझसे अपमानित हुए हैं और बदले में मैं स्वयं तिरष्कृत हुआ हूँ.’ 4 जनवरी, 2017 को, उनकी मृत्यु से एक हफ्ता पहले सुधीर सिंह ने फेसबुक पर दूधनाथ जी की डायरी का एक अंश साझा किया था. वह डायरी का छोटा सा टुकड़ा बहुत कुछ कहता है –
“मेरा एकांत बहुत बलवान था. अत्यधिक डर और खतरे ने मुझे दुस्साहसी बनाया. उसमें कुछ भी हो सकता था. लेकिन अकेलेपन ने, मेरे एकांत ने मुझे दुनिया के प्रति आस्थावान बनाया, आगे बढ्ने के लिए मजबूर किया. इसमें कई बार गिरा, क्षत-विक्षत हुआ. अपमान और गलाजत और दुर्व्यवस्थाएं झेलीं. मरते-मरते बचा. लेकिन मेरे एकांत ने मुझे हमेशा चुनौते दी. जैसे डूबता हुआ आदमी हमेशा अपनी नाक पानी से बाहर लाना चाहता है कि, वह साँस ले सके, उसी तरह घबराहट, असफलता और अवसाद ने मुझे गहरे ताल से निकाल कर जीवन और कर्मठता की ओर ढकेला. हर बार डूबते-डूबते मैं बाहर आया और भाग निकला…।”
कहना न होगा कि दूधनाथ जी के रचनाकार व्यक्तित्व में साठोत्तरी ‘बिटरनेस’ तो थी ही साथ ही अपनी उपेक्षा के प्रति अनजाने ही उनमें एक प्रतिक्रिया ने भी जगह बना ली थी. सार्वजनिक रूप से बहुतों के होकर भी दूधनाथ जी वास्तव में निपट एकाकी ही रहे. इलाहाबाद तो इलाहाबाद– अपनी तरह का एक अनोखा और इकलौता शहर– आदिवासी मुसहर प्राजाति के रचनाकारों का शहर. एक ऐसा शहर जहाँ,
“तंगहाली और ज़लालत के भीतर हँसते हुए लोग एक दूसरे की जड़ में मट्ठा डालने को तैयार रहते हैं. आपने ज्योंही थोड़ा खाद-पानी ग्रहण क्यी, हरियाने को हुए कि तुरंत एक आदमी आपकी जड़ के आसपास की मिट्टी खुरपिया कर आपकी जड़ों में झाँक-झूंक करेगा और पहला अवसर मिलते ही अपनी बुद्धि की चुटैया खोलकर थोड़ा मट्ठा डालकर, ढाँक-ढूंक कर चलता बनेगा. फिर एक आँख से देखता रहेगा कि मट्ठा डाले जाने के बावजूद आप में हरियाने की ताक़त बची है या नहीं. अगर उसके बाद भी आप हरियाते चले जाएँ तो आपमें दम है वरना अपना डेरा डंडा उठाइए और चलते बनिए. इलाहाबाद आदिवासी मुसहर प्रजाति के रचनाकारों का शहर है. कींचड़ और दलदल में सोंटा गड़ा-गड़ाकर ये मुसहर आपको बाहर निकाल लाते हैं. अगर आप ज्यादा फन काढ़ रहे हैं और डँसने को आकुल-व्याकुल हैं तो खट्ट से इलाहाबादी मुसहर एक पत्थर की पटिया निकालेगा, आपका फन और आपका ज़हर घिसकर आपको कंधे पर डाल लेगा और चलता बनेगा. उसके बाद भी अगर आप उसे डँसने की ताकत रखते हैं तो वह कंधे से उतारकर आपको स्थापित करेगा और कहेगा, ‘हे नाग देवता ! मेरा गद्गद प्रणाम, कृपया ग्रहण करें. फन घिसने में माहिर इस शहर के पुराने लेखक आपको रगड़-रगड़ कर चमकाते भी हैं और आपकी दिव्य कांति पर गर्व भी करते हैं. यह इस बंजारा बिरादरी का रहन-सहन है. यह एक खास किस्म की निजी बौद्धिक ज्योति से आपको आलोकित करने का वह ढंग है जिससे आप सिर्फ आप ही लगें और आपकी तरह कभी कोई दूसरा न लगे.”
यह सच है ‘गुरू’ ! आप ‘सिर्फ आप ही थे’ आपकी तरह कोई दूसरा न लग सकता है न हो सकता है. यह इलाहाबाद और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपने गुरुओं के बहाने कुछ टूटी-बिखरी सतरें हैं. मैं आर्थिक रूप से एक निम्नवर्गीय परिवार से आया था. सामाजिक तो नहीं लेकिन जो आर्थिक अभावों का घेरा था, दबाव था, उसने हमेशा ‘बिगड़ने’ की ओर से मुझे ‘बनने’ की ओर धकेला. फिर भी ‘बिगड़ने’ की ओर वाले क़िस्से भी कम नहीं हैं. पर, उन पर फिर कभी. आज जब सिंहावलोकन करता हूँ तो यही लगता है कि इलाहाबाद और हिन्दी विभाग ने मुझे बड़ा ही किया, ऊंचा ही उठाया. कुछ छोटे लोग तो हर जगह होते हैं, गो कि यहाँ भी थे. ऐसे लोगों से क्या शिकायत. इनसे शिकायत करना भी तो शिकायत की हेठी है. सत्यप्रकाश मिश्र वाली वही बात, जिसका उल्लेख पहले हुआ है कि ‘ऐसे जीव जन्तु प्राकृतिक नियमों और न्याय के कारण स्वतः समाप्त हो जाते हैं. सच तो यह है कि अब हर तरह और शै में बदल चुके अपने ‘अल्मामैटर’ और इस नगर को आज भी उतना ही प्यार करता हूँ. पुर्तगाली कवि फर्नांदों पेसोआ की पंक्तियाँ हैं :
नींद और सपनों के बीच
मुझमें और जो मेरे अंतःस्थल में है उसके बीच
एक नदी प्रवाहित है जिसका अंत कहीं नहीं है.
इलाहाबाद मेरे भीतर सदा सर्वदा प्रवाहित होती रहने वाली वही नदी है, जिसका अंत कहीं नहीं. वह हमेशा ही मेरी नींद और मेरे सपनों के बीच प्रवहमान है और रहेगी.
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विनोद तिवारी अध्यापक, आलोचक और संपादक.इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में हिन्दी का अध्यापन. दो वर्षों तक अंकारा विश्वविदयालय, अंकारा (तुर्की) में विजिटिंग प्रोफ़ेसर रहे. अब तक, ‘परम्परा, सर्जन और उपन्यास,’ ‘नयी सदी की दहलीज पर’, ‘विजयदेव नारायण साही (साहित्य एकेडेमी के लिए मोनोग्राफ)’, ‘आचार्य रामचन्द्र शुक्ल’, ‘आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी’, ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के श्रेष्ठ निबंध’, ‘कथालोचना : दृश्य-परिदृश्य’, ‘उपन्यास : कला और सिद्धान्त ( दो खंड ), ‘नाज़िम हिकमत के देश में’ (तुर्की पर यात्रा-संस्मरण), ‘आलोचना की पक्षधरता’, ‘राष्ट्रवाद और गोरा’, ‘विचार के वातायन’, नलिन विलोचन शर्मा रचनावली (5 खंड), जैसी पुस्तकों का लेखन और सम्पादन कर चुके हैं. बहुचर्चित और हिन्दी जनक्षेत्र की महत्वपूर्ण पत्रिका ‘पक्षधर’ का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे हैं. आलोचना के लिए देश भर में प्रतिष्ठित ‘देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान – 2013’ और ‘वनमाली कथालोचना सम्मान – 2016’ से सम्मानित. संप्रति दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी के प्रोफ़ेसर. |
समालोचना, आदरणीय विनोद जी का दिली शुक्रिया।नए साल का ये सबसे शानदार, जानदार तोहफा है।एक हफ्ता भी नहीं गुजरा ,पांच।दिन अपनी जन्म भूमि, में गुजार कर आया हूं। इलाहाबाद और अब प्रयागराज का परस,दरस करके। किसी तरह प्रयागराज स्टेशन, खोजा,तीन चार में से,ट्रैफिक जाम के चलते,बस गाड़ी मिल गई। जिस मर्म ,रोचकता से विनोद जी ने लिखा वह एक शहर की दास्तां न हो कर ,एक शहर,एक संस्कृति, विकृति,सोच, विचाराधारा की सभ्यता समीक्षा बन गई। तद्भव में हरीश त्रिवेदी के संस्मरण से आगे का क़िस्सा । सलामत रहें,, विनोद जी, अरुणदेव, समालोचना। आभार
बेहद शुक्रिया ।
सुबह सुबह पढ़ा. इलाहाबाद को सर ने बहुत डूबकर याद किया है. इन आत्मीय स्मृतियों को हम तक पहुँचाने के लिए समालोचन का शुक्रिया.
बहुत ही मार्मिक लिखा है। एक नष्ट हो रहे शहर की लहू लुहान आत्मा और उसका क्रंदन विनोद तिवारी जी शब्दों में उतर आया है।
उम्दा संस्मरण। इलाहाबाद के इतिहास से शुरू होकर सत्यप्रकाश मिश्र, राजेंद्र कुमार और दूधनाथ सिंह की शख्सियत के कई अनजाने पक्ष को बहुत आत्मीयतापूर्ण ढंग से रेखांकित किया गया है। विनोद जी और अरुण देव जी दोनों को साधुवाद।
दिन बन गया ..!!
कितना सुंदर लेख.🙏🍁🌼
अभी पढा और एक सुर में हीं पढ गया,
सर जो रह गया है उसका इंतजार रहेगा
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अपने प्रिय छात्र,छात्रा को टॉप कराने के लिए किसी न किसी होनहार छात्र की बलि देने की जैसे एक परंपरा बन गई है।1975 में मैं भी इसका भुक्तभोगी रहा हूं।
बहुत ही रोचक संस्मरण! दूधनाथ जी को मैं पंकज जी के कारण कुछ हद तक जानती थी। उनके बारे में कही गई बातें समझ में आती हैं। अकेलेपन की एक गरिमा होती है, उसे पाने का रास्ता कठिन , रिस्क से भरा होता है। जो इसका चुनाव कर पाते हैं वे दूधनाथ जी की तरह लिख पाते हैं।
एक साँस में पूरा पढ़ गया. ही अच्छा बहुत ही आत्मीय बहुत ही सशक्त और बहुत ही पैना.
बेहतरीन तरीके से लिखा। इलाहाबाद के बहाने बहुत सी बातें ज्ञात हुईं।आपका संघर्ष भी कुछ कम नहीं है। हालांकि अपने बारे में आप लिखने से बचते रहे। दूधनाथ सिंह पर विस्तृत रूप से लिखा।यह बेहद दिलचस्प है।कभी समय और सुविधा हो तो विस्तार से लिखें। पक्षधर के जन्म और पलने -बढने की झांकी भी मिली। विश्वविद्यालयों का हाल आज भी वैसा ही है। प्रतिभाएं शुरू से ही राजनीति का शिकार होती रहीं हैं।
बहुत शानदार संस्मरणात्मक लेख!
अभी कुछ दिन पहले ही इलाहाबाद से लौटी हूं। भ्रमण के दौरान महसूस करती रही कि बीस बरस पूर्व जिस इलाहाबाद से पहली बार मिलना हुआ था, वह अब सिकुड़ कर प्रयागराज के “विशाल” डैनों में छुप गया है।
कुंभ-मेला, भारतीयता और हिंदू दर्शन जैसी संश्लिष्ट सांस्कृतिक धरोहर को गहन अध्ययन-चिंतन-मनन के सहारे ही समय की भीतरी शिराओं में उतारा जा सकता है।
इसके लिए चाहिए धीरज, संवाद और सहिष्णुता। लेकिन सदियों के अन्याय के किसी काल्पनिक भय और असुरक्षा ने ऐसी हड़बड़ी मचा दी है कि विलक्षण सांस्कृतिक संपदा को चूरन की पुड़िया की तरह बांट कर विनष्ट और अपमानित किया जा रहा है । पौराणिक ऋषियों की बे-अनुपात लंबी-चौड़ी मूर्तियां, ग्रेफिटी के नाम पर दीवारों पर उकेरे गए पुरा-कथाओं के अ-समानुपातिक चित्र और जगमगाते स्वस्तिक चिन्हों से आपूरित लैंप-पोस्ट – सौंदर्य -चेतना, संतुलन और स्पेस कहाँ है इनमें। सचमुच प्रयागराज की तरह आज हर शहर को उसकी पुरानी महक, पहचान और संस्कृति से महरूम कर ‘गोदाम’ बनाया जा रहा है।
विनोद जी ने अपने गुरुओं को याद करते हुए जिस प्रकार उनके व्यक्तित्व और साहित्यिक अवदान का आलोचनात्मक विश्लेषण किया है, वह आलेख को गुरुता प्रदान करता है।
बेहतर प्रस्तुति के लिए लेखक और समालोचन का आभार।
Bahut hi behtreen, umda, ‘ to the point’ rooh pe chhaa janey wala dilchasp comment. Rohini ji slaam aapko.
विनोद तिवारी जी ने प्रयागराज में इलाहाबाद शीर्षक संस्मरण बहुत डूब कर लिखा है । जिन तीन गुरुओं पर उन्होंने लिखा है, बाद में उन तीनों से उनके पारिवारिक संबंध थे, कुछ सत्यप्रकाश जी के कारण और कुछ उनके सहज स्वभाव के कारण । संस्मरण में जिस तरह की तटस्थता आवश्यक होती है, उसे यहां कई अवसरों पर कई तरह से देखा जा सकता है । यहां इलाहाबाद है, वर्धा है, बनारस है पर दिल्ली नहीं है, जो है वह पूरी तरह से है और जो नहीं है वह तैयारी में होगा या इस योग्य नहीं होगा ।
संभव है यह मुझे इसलिए भी अच्छा लगा कि सत्य प्रकाश जी और राजेंद्र कुमार जी से मेरे घनिष्ठ संबंध थे और दूधनाथ जी वर्धा रहे थे । उस समय मैं इलाहाबाद कई बार गया और उन दोनों के साथ रहने और उनके सान्निध्य सुख में सराबोर होने का आनंद लिया ।
विनोद जी धीरे से उस समय के अकादमिक माहौल पर भी टिप्पणी करते हैं जो न चाहते हुए भी वर्तमान पठन पाठन विरोधी वातावरण पर टिप्पणी है ।
बधाई विनोद तिवारी जी और अरुण देव जी ।
बेहतरीन संस्मरण। इलाहाबाद से वास्ता रहा है। इन तीन अप्रतिम शिक्षकों से मैं भी बहुत मुतास्सिर हूँ। मेरे जैसे जाने कितने विद्यार्थी होंगे जिन्हें इन गुरुओं ने गढ़ा है। विनोद जी ने हम सबकी भावनाओं को वाणी दी है।
बहुत अच्छा है। खूब यादें और सन्दर्भ।
कर दिया काबे को गुम और कलीसा न मिला भाई विनोद तिवारी का इलाहाबाद को लेकर लिखा गया ऐतिहासिक संस्मरण,भले ही राजनेताओं ने इलाहाबाद को प्रयागराज कर दिया हो पर जैसी आत्मीयता इलाहाबाद कहने में आती है वह प्रयागराज कहने में नहीं आती,वह इलाहाबाद जो अपने अमरूदों के लिए मशहूर रहा है उससे अधिक यह साहित्य का काबा रहा है किसी जमाने में फ़िराक़ साहब, लोहिया जी,इलाचन्द्र जोशी, उपेन्द्र नाथ अश्क और विजय देव नारायण साही के लिए मशहूर था,काफी हाउस टूटने के साथ बिखरता चला गया, इलाहाबाद का साहित्यिक वैभव पहले कलकत्ता और फिर दिल्ली ने छीन लिया, ज्ञानरंजन, शैलेश मटियानी , सतीश जमाली सत्यप्रकाश मिश्र और दूधनाथ सिंह जैसों को याद करता हुआ इलाहाबाद विनोद जी के संस्मरण में पुनः जिन्दा हो गया ,भले ही उसकी आभा बिखरती चली गई हो, संस्मरणों में वह हमेशा जीवित रहेगा,,,,,
प्रयागराज में इलाहाबाद, विनोद तिवारी सर का संस्मनात्मक आलेख एक सांस में पढ़ गई । आलेख में सब कुछ जाना पहचाना सा था क्योंकि मैं भी उसी इलाहाबाद से हूं जहां मेरा बचपन गुजरा और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परास्नातक और शोध कार्य किया है। मुझे भी सत्य प्रकाश सर और राजेंद्र सर से पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। आपके आलेख से इलाहाबाद के इतिहास के कुछ अनछुए पहलुओं से भी परिचय हुआ । दूधनाथ जी का आपने जो मूल्यांकन किया उससे एक रचनाकार की आत्महंता आस्था से भी परिचय हुआ। सत्य प्रकाश सर जब अपने अंतिम दिनों में गले में कैंसर के कारण बोलने में असमर्थ थे, उसके बावजूद उन्होंने कई राष्ट्रीय संगोष्ठियों को अपने निर्देशन और नेतृत्व में संपन्न कराया। सर को डॉक्टर ने बोलने से मना किया था तो वे हाथ के इशारों से सारा निर्देश देकर संपूर्ण आयोजन को सफलतापूर्वक संपन्न कराते थे। राजेंद्र सर और सत्य प्रकाश सर जैसा अध्यापक बनने का सपना उनसे पढ़े हम सभी विद्यार्थियों का होता है। अपने गुरुओं को पुनः प्रणाम । प्रोफेसर विनोद तिवारी सर को इस प्रासंगिक और आत्मीय संस्मरण के लिए तथा प्रोफेसर अरुण देव सर का समालोचन के मंच पर इस आलेख को पाठकों के साथ साझा करने के लिए बहुत-बहुत आभार।
पुराने इलाहाबाद के पार्श्व में अपने बनने के संस्मरण के साथ तत्कालीन अकादमिक परिदृश्य को भी विनोद तिवारी उभारते हैं। अब वह जो प्रयाग राज होता जा रहा है, उसके समानांतर सांस्कृतिक अतीत भी विस्मरण की ओर जा रहा है। ऐसी रचनाओं में वे स्मृतियाँ सांस्कृतिक इतिहास का संदर्भ बनेंगी- यह सृजन का अहम् अवदान है। समालोचन में और शहरों को लेकर भी ऐसी चीजें आयेंगी, ऐसी अपेक्षा है।
एक अलग मिज़ाज का शहरनामा ।अध्ययन और आत्मीयता से लिखा। सत्यप्रकाश जी के प्रसंगों ने कुछ असुंतलन किया( वहां वह शहर के बजाय व्यक्ति केंद्रित संस्मरण हुआ लगा) अन्यथा दिलचस्प।
हमारे जैसे लोगों के लिए यह संस्मरण गुरुवाणी की तरह है। एक शहर को ऐसे याद किया गया है जैसे कोई अपने बिछुड़े वतन का याद करता है। बहुत ही खूबसूरत शहरनामा लिखा है तिवारी जी ने। आपको और समलोचन को बधाई।
आप सभी की बेहद आत्मीय और महत्वपूर्ण टिप्पणियों के लिए तहे दिल से शुक्रिया ।
आप ने खांटी इलाहाबादी की तरह ही इसे लिखा है ।इलाहाबादी कहलाना अपने आप में एक टाइटल की तरह ही है ।मैं भी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का ही पढ़ा हूँ इसलिए आपके लेख की आत्मा समझ पा रहा हूँ।शानदार …..
ठंडे और सुन्न पड़ते इलाहाबादी जिजीविषा को उर्ध्वगामी चेतना देता संस्मरण
यह शहरनामा की देह में संस्मरण की नम अभिव्यक्ति है।आलोचक की भाषा का अतिक्रमण सृजनात्मक उपज की
मानिंद है। इलाहाबाद के इतिहास को एक सांस्कृतिक फ्रेम में अनुभव करने के बावजूद यह रचना परोक्ष रूप से एक बड़े केनवस को स्पर्श करती है।लेखन की यह यात्रा लेखक को एक क़ामयाब मक़ाम दे सकती है।।
बहा ले गया आपका यह लेख। कुम्भ से महाकुम्भ नाम के मेगा इवेंट में बदल गया आयोजन, नामों के बदलने का ही एक सिलसिला है, जैसा कि आपने लिखा ही है, अर्द्धकुंभ, कुंभ में बदल गया है, शाही शब्द राजसी में। लगता है पुरानी पोथियों के नए संस्करणों में अर्द्धकुंभ नाम की कोई चीज़ नहीं रहेगी । दरअसल यह दौर ही अर्द्ध विनिर्माणों को पूर्ण मानने व उनके शिलान्यास/पूजन का है। बहरहाल, इलाहाबाद के संदर्भ में यह स्मृतियों का दौर है। इधर ममता कालिया, हरीश त्रिवेदी और अखिलेश ने अपनी-अपनी तरह से, अपने इलाहाबाद को देखा है। धर्मवीर भारती और ज्ञानरंजन का ज़िक्र आपने किया ही है। इधर शेखर जी के निधन के बाद ‘फ़क़ीरों का शहर इलाहाबाद’ प्रकाशित हुई है। कमलेश्वर आदि के भी संस्मरण हैं। वीरेन डंगवाल अपनी कविता में इसे अपना छूट गया ब्रज मानते हैं (उधो मोहि ब्रज) । हरिप्रसाद चौरसिया एक सप्ताह पहले यहां 1957 में छूट गए इलाहाबाद को ख़ूब याद करके गए हैं। इसी क्रम में है यह आपका ‘इलाहाबाद’ और ‘अल्मामैटर’ । आपने अपने गुरु त्रयी का बड़ा ही भावपूर्ण स्मरण किया है। ‘बंदऊ गुरुपद पदुम परागा’ बरबस कौंध गया। यह भी कि इस वंदना में खट्टे-मीठे दोनों अनुभव हैं।
आंखों में थोड़ी दिक्कत है, इसलिए यह हस्तलिखित भाव !
इस लेख के लिए आपको और समालोचन को बधाई !
(यह हस्तलिखित टिप्पणी मशहूर कवि हरिश्चंद्र पांडेय ने प्रेषित की है । )
आत्मीय और खुलकर लिखा गया लेख, पढ़कर आंतरिक सुकून मिला। साहित्य और समाज ऐसे तमाम विवरणों से भरा है पर यहाँ जिस तरह से वर्णन किया गया है उसे सुनने से ऐसा लगता है कि कोई अपने बीच का व्यक्ति उठकर धीरे धीरे ईमानदारी से बहुत कुछ कहने का हौसला रखता हो। जिसे सुनने के बाद कुछ अधिक कहने को बचा न हो ।
मेरे कई इलाहाबादी मित्र और शुभैषी अब अन्यान्य शहरों में हैं। जब भी उनके हालचाल लेता हूँ, तो उनको शुभकामनाएँ देते हुए यही कहता हूँ —
ख़ुश रहो , आबाद रहो
जिस जगह रहो, इलाहाबाद रहो।
तुम्हारा लिखा शहरनामा पढ़ कर आश्वस्त हुआ कि तुम्हें तथाकथित ‘प्रयागराज’ में अपने इलाहाबाद को खो जाने से बचा लेने की फ़िक्र है। ।
इलाहाबाद एक पुराना शहर है और अनेक पौराणिक, सांस्कृतिक ,ऐतिहासिक ,धार्मिक , प्रशासनिक , शैक्षिक, साहित्यिक और राजनीतिक घटनाओं और गतिविधियों का केंद्र रहा है।
नाम बदल देने से शहर की भाषा बोली, सांस्कृतिक विरासत और पहचान नहीं बदलती । गंगा,यमुना और सरस्वती नदियों का किसी जमाने में संगम हुआ करता था । जब सरस्वती विलुप्त हो गई, तो काहे का पौराणिक और ऐतिहासिक प्रयाग या संगम !
विनोद तिवारी जी के संस्मरण में यदि इलाहाबाद जीवंत हो गया, तो यह अति सुखद अनुभव है..
बहुत शानदार संस्मरण है, विशेषतः दूधनाथ जी वाला हिस्सा तो बेहद प्रभावपूर्ण है। राजेन्द्र कुमार सर और सत्यप्रकाश सर का स्नेह मुझे भी मिला है। एक बार सत्यप्रकाश सर के घर भी जाना हुआ है, जहां पहले से सतीश जमाली जी बैठे मिले थे। वह भी क्या इलाहाबाद था।
एक पुरातन शहर, समावेशी संस्कृति और हिन्दी साहित्य के दिग्गज महानुभावों के बारे में संक्षिप्त विवरण, मनमोहक है । परन्तु समकालीन कारणों पर टिप्पणी, भले ही आप उनसे इत्तफ़ाक़ ना रखते हों, आपसे अपेक्षित था । क्योंकि आपने इलाहाबाद को जिया है और प्रयागराज को जी रहे हैं । सादर प्रणाम 🙏