वक़्त-ज़रूरत
पाखंड और विडंबना के दस सालहरे प्रकाश उपाध्याय
अविनाश मिश्र विगत लगभग डेढ़ दशक से हिन्दी कविता के नागरिक हैं और अब तक अपनी एक पुख्ता पहचान दर्ज करा चुके हैं. इस बीच इनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं. पहला संग्रह 2017 में आया था – ‘अज्ञातवास की कविताएं’, दूसरा 2019 में ‘चौंसठ सूत्र सोलह अभिमान– कामसूत्र से प्रेरित’ और अभी 2024 में ‘वक़्त-ज़रूरत’. इसके अलावा इसी बीच उन्होंने दो उपन्यास भी प्रकाशित कराये हैं और एक आलोचना पुस्तक भी है, कविताओं पर आलोचना– ‘नवाँ दशक’. उनका यह सब काम सात-आठ सालों के भीतर ही प्रकाश में आया है. हालांकि वे लिख तो रहे हैं, शायद कुछ और पहले से. शायद 2005 से ही उनका सक्रियता बनी हुई है. वे पत्र-पत्रिकाओं के संपादन से भी सतत जुड़े हुए हैं और हिन्दी साहित्य की दुनिया में अपने संपादन कर्म से भी लगातार सार्थक व सक्रिय हस्तक्षेप बनाये हुए हैं. हालांकि उनकी रुचि दूसरी देशी-विदेशी भाषाओं के समकालीन लेखन के अनुवादों के प्रकाशन में भी किंचित रहती है और उनके संपादन में आये ऐसे कुछ विशेषांकों ने हिन्दी पाठकों-लेखकों का ध्यान आकर्षित किया है पर मूलतः हिन्दी कविता को लेकर, ख़ासकर नौवें दशक के बाद की कविता और हिन्दी में आज लिखी जा रही कविता के प्रति उनकी दिलचस्पी रेखांकित करने योग्य है.
हिन्दी में अपने संपादन में उन्होंने एक कविता पीढ़ी ही तैयार कर दी है, विगत दस वर्षों में बहुत सारे नये कवियों को प्रकाशित-प्रोत्साहित करने का काम उन्होंने अंजाम दिया है और इस दिशा में निरंतर प्रयासरत हैं. वे साहित्य की दुनिया के होलटाइमर हैं और हरदम कुछ लिखते और सोचते रहते हैं. इतने कम समय में उनके इतने सारे काम को देखकर लगता है कि वे खाते-पीते, आते-जाते ही नहीं बल्कि सोते हुए और स्वप्न देखते हुए भी कुछ न कुछ लिखते, संपादित और प्रकाशित करते रहते हैं.
उनके काम को शुरू से मैं देखता रहा हूँ पर व्यवस्थित रूप से उनकी सभी रचनाओं को पढ़ने का दावा तो नहीं कर सकता पर कह सकता हूँ कि उनके लेखन के मिज़ाज से लगभग अवगत हूँ. अविनाश के अंदर एक असंतुष्ट, किंचित खिझा हुआ, लगभग जिद्दी मगर जीवट संपन्न, बेराज़गारी और बहिष्कृतता से जूझता हुआ एक अंतर्मुखी क़िस्म का शहरी युवा है और उसके अनुभव, दृष्टिकोण व संघर्ष एक विशिष्ट भाषा में उनकी रचनाओं में और उनकी रचनात्मक दृष्टियों में अभिव्यक्त होता है. उन्होंने एक विशिष्ट क़िस्म की रचनात्मक भाषा अर्जित की है, जो आत्मपरकता, तंज और तल्ख़ी से संपन्न है. सर्वस्वीकृत को संदेह से देखना, ख़ारिज की जाने वाली चीज़ों की तलाश और एक क़िस्म की निस्संगता बनाये रखना, भावुकता की चपेट से बचे रहना, पाखंडों से जूझना अविनाश के लेखन की विशिष्टता है. उनके अनुभव जगत का दायरा मूलतः शहरी मध्यवर्ग है और ऊपर-नीचे की आबादी से उनका वास्ता आते-जाते और भेंट-मुलाक़ात भर का है. हालांकि अच्छी बात है कि अपने रचनात्मक सरोकार के दायरे में उन औचक हासिल अनुभवों को शामिल करते हुए वे अपने रचनात्मक परिवेश को विस्तृत करने की कोशिश लगातार करते हैं.
जहाँ तक उनकी पक्षधरता की बात हैं, मैंने संकेत दिया ही है और यहाँ बिल्कुल साफ़ कह दूँ कि वह उन लोगों के प्रति ही है जो हक़मारी के शिकार हैं, बहिष्कृत हैं, उपेक्षित हैं या किन्हीं कारणों से पीड़ित हैं. संपन्न, प्रभु वर्ग और स्थापितों से जुड़े उनके अनुभव कटु हैं और वे अपनी रचनाओं में उनके प्रति एक तिरस्कार भाव रखते हैं और उनके लिए कटु, तंज भरी भाषा का इस्तेमाल करते हैं और उनसे जुड़े हुए उपहासात्मक ब्यौरे देते हुए उनके ख़िलाफ़ जनमत तैयार करने की चेष्टा करते हैं. अविनाश के भीतर नयेपन के अन्वेषण और अभिव्यक्ति की चेष्टा दुराग्रह की हद तक है. वे हर कीमत पर कुछ विशिष्ट देखना और दिखाना चाहते हैं, जानी-पहचानी हुई बात को भी विशिष्ट तरीक़े से कह नवीनता पैदा करने की कोशिश करते हैं. भले ही कई बार वह किंचित अतिरिक्त क्यों न लगे. लिहाज अविनाश के लेखन का स्वभाव नहीं है. अविनाश की रचनात्मकता के प्रति मेरा यह एक सामान्य ऑब्जर्वेशन है, अतः बिलकुल हो सकता है कि उनकी सारी रचनाओं पर यह सटीक न हो और इस ऑब्जर्वेशन के बाहर भी उनकी कुछ रचनाएं, गद्य या कविताएं हों.
बहरहाल यह सब कहने की शुरुआत अभी हाल में उनके आये कविता संग्रह– ‘वक़्त-ज़रूरत’ को पढ़ने के पश्चात हुई है तो इस ताज़ा पठन में आयी कविताओं पर भी थोड़ी सी और बातें ज़रूरी होंगी. इसी संग्रह की सबसे अंतिम कविता है– ‘आत्म-वक्तव्य’. यह कविता अविनाश के आत्मसंघर्ष का भी खुलासा करती है. इस कविता का नैरेटर बताता है कि जिस परिसर में वह दाख़िल होता है, वह वहाँ कुछ नया करना चाहता है, पर वह पाता है कि यह कोशिश ही उसे बहिष्कृत करने का सबब बन जाती है. लेकिन सबसे अच्छी बात है कि नैरेटर इस तथ्य को जानने के बाद भी इस बहिष्करण से न बचने की कोशिश करता है और ना ही आत्मदया में फंसता है बल्कि वह ‘शहादत’ को स्वीकार करता है, मगर इस ‘शहादत’ को लेकर कोई मुआवज़ा नहीं माँगता और न इसके लिए अपनी महानता का दावा पेश करता है. बल्कि वह तटस्थ आत्मसमीक्षा करता है और पाता है कि उसने ‘शहादत’ के पूर्व जो कुछ किया, उस किये में भी वैसा कुछ ख़ास नया नहीं था. तो यही है अविनाश का रचनात्मक संघर्ष- नया करने की कोशिश और उसकी कीमत चुकाना या उसके लिए तत्पर रहना और भावुकता से बचते हुए किये को परखते जाना और नयेपन की अगली कोशिश में जुटे रहना. इसी कविता में नयेपन को वे अपने लिए परिभाषित भी करते हैं. इस कविता की अंतिम आठ पंक्तियाँ देखिए –
मैं रह सकता
तब इस तरह नहीं रहता
रहता बोलने की कला जानने वालों की तरह
मैं बह सकता
तब इस तरह नहीं बहता –
भावनाओं की तरह
मैं कह सकता
तब इस तरह नहीं कहता.
यह तलाश, यह असंतुष्टि, भावनाओं में बह जाने से बचते हुए नये तरह से कहने कोशिश से अविनाश का काव्य-जगत निर्मित होता है.
हमारे समय की विडंबना व पाखंड की पुख़्ता पहचान अविनाश के पास है. संग्रह की शीर्षक कविता ‘वक़्त-ज़रूरत’ में वह एक सभा का रूपक गढ़ते हुए बताते हैं कि अंधेरे की शिनाख़्त मुश्किल नहीं है, वह प्रकाश में दाख़िल व्यक्ति को है और बोलते हुए उसे वह नज़र आ रहा है, पर इस बोलने और सवाल उठाने तक ही इसके ख़िलाफ़ सारी कार्रवाइयाँ स्खलित हो जाती हैं और बोलने वाला यह चेताते हुए कि समय कम है, लड़ने की ज़रूरत को सुनने वालों पर थोपते हुए विदा लेता है और यह सारा कार्यक्रम इस तरह ख़त्म हो जाता है. कहना नहीं होगा कि इसी तरह प्रतिरोध की लड़ाइयाँ लड़ी जा रही हैं, दूसरों पर टालते हुए. हमारे आंदोलनों में संघर्ष का हमारा यह कैजुअल तरीक़ा आम हो चुका है. अविनाश अपनी अनेक कविताओं में इस बात को अनेक तरह की रूपकों के सहारे समझाने-बताने की कोशिश करते हैं. ‘सच्चा कार्यकर्ता’ कविता में भी वह नेतृत्व से नीचे उतरकर कार्यकर्ता के स्तर पर परखने की कोशिश करते हैं तो पाते हैं कि वह दरअसल भेड़ होने की सदिच्छा से संचालित हो रहा है. एक रूपक गढ़ते हुए वे लिखते हैं कि जुलूस में चलते हुए वह जुलूस के उद्देश्य के बारे में नहीं बल्कि यह सोच रहा है कि पता नहीं अभी और कितना चलना है. जबकि सच्चे कार्यकर्ता को यह पता होना चाहिए कि उसका काम क्या है और क्या नहीं.
‘वेदना का विन्यास’ कविता में भी हमारी इसी जड़ता को वे भिन्न तरीके से कहते हैं. हम वेदना को झलते-सहते हुए उसके उपचार के प्रति उदासीन हो जाने की बीमारी से ग्रस्त हो गये हैं. इस चिंता को कवि की इन पंक्तियों से समझा जा सकता है –
विश्लेषण के शीघ्रपतन से ग्रस्त एक समाज में
कमज़ोरी का उपचार समझ में नहीं आता है
कवि समस्या के साथ इससे निपटने के प्राथमिक क़दमों को भी संकेतित करता है –
यह समय ख़ुद से बात करने का है, दूसरों से भी –
उन्हें दूसरा समझे बग़ैर
कहना नहीं होगा कि संवाद की इस संभावना को भी, इस कोशिश को भी हमने छोड़ दिया है. परिस्थितियों को बदलने की कोशिश में हमें इस बात को पहले ठीक से समझ लेने की ज़रूरत है. हर आदमी या तो महानता का मारा हुआ या आत्मदया का, बल्कि ये दोनों चीज़ें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. इन सबके बीच नफ़रत की फसल ख़ूब लहलहा रही है. अविनाश इस परिदृश्य को पहचानते हुए ‘इस दृश्य में’ शीर्षक कविता में रेखांकित करते हैं –
प्यार के अनुरोध को अधराह छोड़
सब अब नफ़रत की गाड़ी में सवार हैं
इसी कविता में वह यह बताना भी नहीं भूलते कि इस माहौल में कुछ कहना भी ख़तरे से खाली नहीं है क्योंकि अगर आप कुछ कहते हैं तो मारे जाएंगे बल्कि कवि कहता है कि ‘वे लगातार मारे जा रहे हैं’. हालांकि कवि यह भी कहता है कि ‘जो नहीं कह सकते, बहुत पहले ही मर चुके’. कहने और न कहने के ख़तरे के बीच एक सही आदमी झूल रहा है, तिरस्कृत और बहिष्कृत हो रहा है. राजनीति, संस्कृति और साहित्य की दुनिया की जो भीतरी राजनीति है, आंतरिक फूट और संवादहीनता है, छल है, नफ़रत है, उसकी सटीक पहचान और मार्मिक उद्भेदन अविनाश की कविताओं में नज़र आता है. यह बड़ी विडंबना है कि साफ़ कहने वाला, सच कहने वाला यहाँ अकेला होता जाता है, किनारे खिसका दिया जाता है. ‘उनके ख़िलाफ़’ कविता में अविनाश ने लिखा है कि यहाँ इतनी पाबंदियाँ हैं कि अंत में ख़िलाफ़ कहने वाला इस हालत में पहुँच जाता है, जहाँ उसका यह कहना भर ही बहुत बड़ा प्रतिरोध बन जाता है कि ‘उन्होंने मुझ पर पाबंदी लगाई’.
‘सतह के संस्तर’ कविता में अविनाश हमारे समय की इस मारक व दुखद विडंबना को उजागर करते हैं कि अब सारे सुख घटियापन के रास्ते पर, सुरक्षित रूख अपना कर चलने पर और सुन कर चुप रह जाने पर नसीब हैं. यह संकट मुक्तिबोध के समय में भी रहा, तभी तो ‘अभिव्यक्ति’ को उन्होंने ‘ख़तरा’ माना और उस ख़तरे को उठाने का आह्वान करना पड़ा. यह अलग बात है कि उस आह्वान का कितनों पर असर पड़ा. यह इतना शातिर दौर है कि लोग शेर के पक्ष और विपक्ष दोनों में एक साथ रह लेते हैं और शेर पर राय ही राय बचती है, शेर का क्या हुआ, कुछ पता नहीं चलता. ‘लोग’ कविता में अविनाश यह सच्चाई रेखांकित करते हैं. छोटी सी कविता है, पर उसके इंगित व्यापक हैं. इन्हीं धूर्त्तताओं पर अविनाश की एक बहुत तीखी व्यंग्यात्मक कविता है – ‘जब आपकी राय पूछी जाए’. किस तरह कुछ लोग ऐसी राय रखते हैं कि वह कुछ भी न व्यक्त करते हुए हर जगह ‘कारगर’ हो जाती है. स्वार्थों की सिद्धि में उपयोगी साबित होती है.
पाखंड हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है. यह इतना अधिक संक्रमणकारी है कि इसने हर उपस्थिति को कर्मकांड में बदल दिया है. इसमें ‘होना’ ही ख़ुद एक त्रासदी बन गया है. ‘होना’ शीर्षक एक छोटी सी कविता एक बड़े युगसत्य को उद्घाटित करती है. यह इतना पाखंड भरा समय है कि जो जिस चीज़ के ख़िलाफ़ खड़ा दिख रहा है, दरअसल वही उस चीज़ के प्रति मोह से भरा हुआ है. जैसे कि जाति के एक प्रसंग को ‘हाँ हूँ’ कविता में उठाते हुए अविनाश बताते हैं कि दरअसल जो अपने को जाति से मुक्त हुआ दिखाता घूम रहा है, वहीं जाति तलाशते और उसके मोह में अधिक फँसा हुआ है. अनेक तरह के पाखंडों पर ऐसी अनेक कविताएं इस संग्रह में हैं. इसे पाखंड विरोधी कविताओं का संग्रह भी कहा जा सकता है.
इस संग्रह में कुछ कविताएं साहित्य-कर्म के विमर्श से भी जुड़ी हुई हैं, जो ध्यान खींचती हैं. अविनाश ‘संपादन’ पर कविता लिखते हुए टिप्पणी करते हैं –
बड़े काम तो बड़े काम
छोटे काम भी ठीक से नहीं किये गए
क्योंकि उन्हें मान लिया गया छोटा
बड़े काम तो बड़े काम थे ही
इस कविता में अविनाश संपादकीय जड़ता पर प्रहार करते हैं, जहाँ ‘संपादक’ नाम की संस्था कोई रिस्क नहीं लेना चाहती, वह साहस से पूरी तरह रिक्त है और सच्चाई के प्रकाशन से भय खाती है. और पाठकों पर भी अविनाश की दिलचस्प कविता है, जिसमें वे बताते हैं कि ऐसी ट्रेनों के सवार हैं, जिनकी नियति पटरी से उतरना ही है. वे निजी जीवन के बहुत सारे मानसिक संशयों से, भय से भरे हुए हैं. और ‘समीक्षा’ पर लिखी गई कविता तो और भी दिलचस्प है, जहाँ कवि समीक्षा को सिर दर्द का सबब बताते हुए घटिया लेखकों और घटिया समीक्षकों की जुगलबंदी को रेखांकित करने से नहीं चूकता. स्मृति-लेखक होने की अंतर्यात्रा और कशमकश पर भी एक कविता है, जो विडंबना और करुणा दोनों पक्षों के साथ मन में अटक जाती है. ‘
कविताएँ’ कविता में कवि का कहना है कि तमाम प्रसंगों की कविताएं अ-कवियों के पास चली गई हैं. और ‘हिन्दी पखवाड़े के कवि’ पर भी अविनाश की नज़र गई है और उन पर कविता लिखते हुए उन्हें व्यंग्य का सहारा लेना पड़ता है बल्कि यह कविता अभिधा में भी सटीक समझी जा सकती है. कवि लिखता है- ‘इस सभ्यता के लिए आदर्श हैं वे’. ‘एक सलाह का एकांगीपन’ में कवि ने जो सलाह दी है, उसे भले कवि ने एकांगीपन माना हो, पर कवियों के लिए उपयोगी है और उस सत्य को अविनाश ने अपने अध्ययन व रचनात्मक संघर्ष से अर्जित किया है. साहित्यिक जगत में चलने वाले रंगारंग नाट्य को लेकर ‘अशोक-सभा’ और ‘सम्मान’ जैसी लंबी कविताएं भी दिलचस्प ब्यौरे देती हैं.
इस संग्रह में 2014 से 2024 के बीच लिखी गई कविताएं हैं, जैसा कि आवरण पर बताया गया है. तो इस दौर की राजनीतिक अनुगूंजें भी इस कविता में सुनाई पड़ती हैं. हमारे लोकतंत्र के सामने जो चुनौतियाँ पेश हुई हैं, कवि ने उन पर भी अपनी कविताओं में विचार किया है. इस दौर में कथित विकास के नाम पर जो धूल भरा परिदृश्य उपस्थित हुआ है, कवि ने ‘धूल’ कविता में उसे संकेतित किया है –
जीवन सब तरफ़ खुदा पड़ा है –
किसी भारी पत्थर से हरेपन को कुचलता हुआ
हर तरफ़ विकास के नाम पर, भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर, संस्कृति के नाम पर, देश-प्रेम के नाम पर नागरिकों के ख़िलाफ़ ही जैसा षड्यंत्र जारी हुआ है, लोगों को आपस में बांटने का कुचक्र रच दिया गया है, उनकी पहचान और उसका प्रतिरोध अविनाश के इस संग्रह की कविताओं में प्रमुखता से दर्ज है. इस दौर के बारे में कवि ‘सुन्दरता, अभी रहने देते हैं’ कविता में कहता है –
सत्य यह है-
सुन्दर इधर कुछ है नहीं
बदली हुई राजनीतिक व्यवस्था ने किस तरह जन-जीवन को आक्रांत किया है, इस प्रसंग में उऩकी ‘नोटबंदी’, ‘डूब’, ‘नई नागरिकता’, ‘नई शिक्षा नीति’, ‘बादशाह’, ‘अगस्त’, ‘देश के नाम – एक नागरिक का सम्बोधन’, ‘सोना’, ‘एक फ़ाशिस्ट के परिवार की तस्वीर’, ‘मैं कुछ नहीं कह रहा हूँ’, ‘अपराध-कथा’, ‘किस व्यक्ति को’ और ‘अनुपात’ आदि कविताएँ उल्लेखनीय हैं. इन पर अलग से विस्तृत चर्चा दरकार है.
ग़रीबी, विस्थापन और भूख की समस्या भी हमारे देश के लिए बहुत बड़ी चुनौती बनी हुई है. इन प्रसंगों में अविनाश की जो मार्मिक कविताएं मन में धंस सी जाती हैं – वे हैं ‘धातु जो पहचानी नहीं गई’, ‘और क्या कहेंगे’, ‘भूख की तस्वीर’ और ‘व्याख्यातीत’.
मगर इन तमाम प्रतिकूलताओं के बीच कवि नाउम्मीद नहीं होता. वह संसार को देखता है, कवि के पास अपना गहरा इतिहासबोध भी है. संग्रह की पहली कविता भयावहता के बरक्श उम्मीद को भी दर्ज करती है. वह कवि के लिए ही नहीं, पाठकों के लिए भी आश्वस्तकारी है.
हरे प्रकाश उपाध्याय ‘बखेड़ापुर‘. अनियतकालीन पत्रिका ‘मंतव्य’ का संपादन सम्पर्क: |
हरेप्रकाश जी की यह समीक्षा अविनाश जी की इस पुस्तक के प्रति उत्सुकता जगाती है।अविनाश हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण रचनाकारों में से एक हैं।कितना दारुण है यह कहना कि ‘सब अब नफरत की गाड़ी में सवार हैं’. हरेप्रकाश जी ने इस पुस्तक पर बढ़िया टिप्पणी की है।
किताब और रचनाकार के बारे में जानना अच्छा लगा।
कविताओं के अंश बहुत कम दिए हैं। किसी नई किताब को जानने के लिए और उसको अपने पास लाने के लिए कम हैं ये। समीक्षा एक प्रकार की डेटिंग होती हैं। पाठक चाहता है और जानना।
अविनाश मिश्र जी को वक़्त- ज़रूरत के लिए बहुत-बहुत मुबारकबाद। उनसे मुलाकात करवाने के लिए हरेप्रकाश जी को साधुवाद।
अविनाश की सृजनयात्रा पर लिखने के लिए हरे से ज़्यादा सुपात्र शायद ही कोई हो। सुन्दर लेख। इस कविता पुस्तक की तासीर को शाब्दिक फिजूलखर्ची के बिना समेटता हुआ।
हरेप्रकाश जी की समीक्षा के बाद ‘वक़्त-ज़रूरत’ का पाठ बेहद ज़रूरी है।
शुक्रिया !
हरे प्रकाश जी हमेशा की तरह शानदार