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Home » खिड़कियाँ, झरोखे और लड़कियाँ : रंजना अरगडे

खिड़कियाँ, झरोखे और लड़कियाँ : रंजना अरगडे

रंजना अरगडे का कवि शमशेरबहादुर सिंह पर आलोचनात्मक कार्य महत्वपूर्ण माना जाता है. इधर वे सृजनात्मक लेखन की तरफ उन्मुख हुई हैं. ‘खिड़कियाँ, झरोखे और लड़कियाँ’ उनकी लम्बी कविता है जिसके केंद्र में स्त्री प्रश्न है. कविता के इस ‘केलिडोस्कोप’ में रंग,छवियां और यथार्थ की अनेक परतें हैं. इस कविता को रेखांकित किया जाना चाहिए. […]

by arun dev
June 6, 2020
in कविता
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रंजना अरगडे का कवि शमशेरबहादुर सिंह पर आलोचनात्मक कार्य महत्वपूर्ण माना जाता है. इधर वे सृजनात्मक लेखन की तरफ उन्मुख हुई हैं. ‘खिड़कियाँ, झरोखे और लड़कियाँ’ उनकी लम्बी कविता है जिसके केंद्र में स्त्री प्रश्न है. कविता के इस ‘केलिडोस्कोप’ में रंग,छवियां और यथार्थ की अनेक परतें हैं. इस कविता को रेखांकित किया जाना चाहिए.
इसके साथ चित्रकार और सिरेमिक कलाकार सीरज सक्सेना के १४ नये रेखांकन भी प्रकाशित किये जा रहें हैं जो इस काल की विद्रूपता को बखूबी प्रकट करते हैं.


कविता
खिड़कियाँ, झरोखे और लड़कियाँ                               
रंजना अरगडे


खंड़ : एक


१.

अकसर उजालों से अँधेरों में
कभी नीम अँधेरों से नीम उजालों में
अनवरत चलती वे लड़कियाँ
कब औरतें बन गुम हो जाती हैं
पता ही नहीं चलता.
कहीं पर भी दर्ज नहीं होती उनकी गुमशुदगी.
वे गुम नहीं होना चाहतीं थी कभी भी
पर उजाले की चादरों पर
अँधेरों की नक्काशी इस क़दर उकेरी जाती है
कि गायब हो जाते हैं उनके चेहरे.
न पर्दा है न बुरका है न घूंघट ही
फिर भी दिखाई नहीं पड़ती वे लड़कियां जो औरतें बन कर गुम हो गई हैं.
कहाँ गुम होती हैं औरतें
झरोखों से झांकती
खिड़कियों की सलाखों को पकड़
आसमान की धूप-छाँहीं देखतीं
पंछियों, बादलों की आवाजाही देखतीं औरतें?
बंद दरवाज़ों के कमरों में बैठीं
ग़ालिब से पूछती हैं
बे-दरो-दीवार का घर क्या तुमसे बन सका था चचा?
फूल- पौधे- पेड़- पंछी …  सब केवल दिखते हैं.
खिल-खिल, चह-चह उनके कानों तक आते-आते
गोया आवाज़ों और रंग-रेखाओं की धुँधली स्मृतियां बन जाती हैं.
खिड़कियों और झरोखों से झांकती औरतें
लगातार एक वह दरवाज़ा खोजती हैं
जिनके भीतर से वे आ तो गईं हैं
पर अब जा नहीं सकती.
(एलिस के पास होगी कोई चाभी या मिठाई का टुकड़ा या शरबत?)

२.

अलहदा कोठरियों वाला
यह बड़ा–सा मक़ान
(जिसे सबसे पहले रघुवीर सहाय ने लिखा था)
घर कह लीजिए!
गोया कोई सेल्यूलर जेल हो
पर उससे थोड़ा भिन्न,                   
इसमें झरोखे और खिड़कियाँ हैं.
यह ख्वाहिशों, सपनों, उम्मीदों का सेल्यूलर जेल है
देह का नहीं.
दिन-रात आँखों पर पट्टी बाँधे
गृहस्थी का कोल्हू चलातीं
चकरघिन्नी-सी गोल-गोल घूमती चक्कर काटती हैं इनमें रहती ये औरतें-कैदिनें 
      

३.
अनपढ़ औरतों से पढ़ी-लिखी औरतें अलग होती हैं.
उन्हें पता चलता है
कि उनका शोषण हो रहा है.
वे इसे केवल अपनी नियति नहीं मानतीं.
उनको पुरुषों के अन्याय की समझ है और
सामाजिक संरचना की जटिलताओं, दोषों और मर्यादाओं का
और इसका, उसका, तिसका सब का पता भी है.
पर बहुत कुछ नहीं कर सकती हैं फिर भी,
कई बार पढ़ी-लिखी औरतें.
पढ़-लिख कर औरतों की समझ में आता है
कि वे केवल औरतें हैं.
किताब में लिखा झूठ नहीं होता है,
पर होता होगा सच, किसी के लिए.
सच तो वह ज़िंदगी है जो उनके हिस्से में आई
और उसका सच यह है कि वे औरतें हैं.
और अगर ये औरतें
लिखने-पढ़ने वाली संवेदनशील कवि कलाकार हों
तब तो वे समाज, घर परिवार और सपनों के तिराहे पर खड़ी
उस बस का इंतज़ार करती हैं जो तय है, लगभग, नहीं ही आने वाली होती है.
जैनेन्द्र की मृणाल का समय अभी इतिहास नहीं हुआ है
और मैत्रेयी पुष्पा का समय अभी आया नहीं है.
एक यूटोपियाई दुनिया
जिसमें लड़की दहेज में लाती है पूर्व प्रेमी के पत्र
धरती है पति के हाथों में
और वह  कुछ नहीं कहता.
वह सरे आम इसका ज़िक्र भी करती है
उसे बुरा नहीं लगता.
और उससे वैसा ही प्रेम करता है
जैसा वह सोचती है उसे करना चाहिए.
नारीवाद का इतिहास जानने वाली,
शोध करने वाली पढ़ी-लिखी लड़कियाँ
औरतें बनने के बाद भी
इतना ही जान पाती हैं कि वे औरतें हैं.
अपनी समझ और बुद्धि का
तब तक उपयोग नहीं कर पाती हैं
जब तक कि अपना प्रतिरूप नहीं गढ़ लेतीं.   
(अगर उन्हें गढ़ने की ज़मीन मिले तो!)


४.

दीवार पर उकेरी गईं हैं उसके आँसू पसीने और रक्त कणों की छापें
निराश दिन और उदास रातों की कहानियाँ.
उसके आहत घायल और मृत भाव-कल्पना की प्राणहीन छवियां हैं.
जिन्हें उसने कविता में बुन कर अपने लिए एक अभेद्य वस्त्र बुन लिया है.
यह वस्त्र लपेट कर वह चुन दिए गए दरवाज़ों के आर-पार आ-जा सकती है.
कोई भी हो सकती है वह….
आशा, रतन, उमा, रोहिणी, जयश्री, ममता, प्रतिभा, रश्मि, प्रियंका , नसरीन, ज़ुलेखा, दक्षा, रक्षा…
कोई भी……. कितनी ही…..
वे प्रेम कविताएं नहीं लिख सकतीं
ऐसी ही एक औरत ने मुझसे कहा था.                              
उसने लिखी भी है यह बात कहीं किसी कविता में.
यही औरतें शायद ढूंढ़ सकें वह गुम दरवाज़ा.
लेकिन तब,
जब दीवारें बे-मानी हो जाएंगी उनके लिए!!
प्रेम किए बिना भी प्रेम कविता लिखना अपराध है.
और अगर लरिकै में भूल कर बैठी हों
या जवानी में (ज़ाहिर है शादी से पहले)
तब तो यह दंडनीय अपराध है.
जिसकी कोई सुनवाई कभी नहीं हो सकती
न समाज की अदालत में, न ससुराल में
और न ही माँ-बाप की अदालत में.
असफल प्रेम की दबी हुई अनभिव्यक्त आग से
धीरे-धीरे भीतर ही भीतर झुलसता है उसका होना
परत दर परत.
बहुत सारी खूबसूरत   
झुलसी हुई औरतों के हँसी खोए चेहरे
इन्हीं झरोखों से झांकते मैंने देखें हैं.



५.
इन औरतों को परफॉर्म करना होता है.
ये किसी कॉरपोरेट कंपनी में काम नहीं करतीं
पर परफॉर्मेंस कार्ड इन्हें हर रोज़ तैयार रखना पड़ता है.
इन्हें एक ऐसे मंच पर अपने को मुसकुराते हुए प्रस्तुत करना है
जहाँ दृश्य-अदृश्य दर्शक उसे लगातार देख रहे होते हैं.
वह किसी को नहीं देख सकती
क्योंकि गुम हो गई है.
लेकिन जिस तरह कोई दृष्टिहीन
सांसों की आहटों से, देह की बू से और आवाज़ों से
दृश्य को देख लेते हैं
उसी तरह देखती हैं ये अपने दर्शकों को
जो ज़रूरी नहीं सहृदय हों.
इसीलिए यहाँ किसी तरह की रस निष्पत्ति नहीं होती.
उन्हें अपने कर्तव्यों का परफॉर्मेंस दिखाना पड़ता है.
परफॉर्मेंस के पहले ग्रीन रूम में
क्रोध, विरोध और दुखों पर वे सफाई से
पाउडर और लालिमा की ऐसी परतें लगाती हैं
कि देखने वाला कहे कि- मान गए भाई!
सच्चा कलाकार तो वही है
जो मंच की दुविधाओं को सुविधाओं में बदल देता है
अपने और दूसरों के भूले हुए संवादों को
तत्क्षण बदल कर या नया गढ़ कर
नाटक को सफल बनाना है,
पर उसे स्क्रिप्ट बदलने की छूट नहीं होती.
इम्प्रोवाइज़ेशन करने की तो बिल्कुल ही नहीं.
उसे तो निश्चित अंकों वाला विज्ञापित नाटक खेलना होता है.
उसे कोई कथा बिंदु या विचार नहीं दिया गया
जिसके आधार पर उसे नाटक बनाना है.
वह भी इंतज़ार करती है
उस स्क्रिप्ट का
जिसमें उसे मर जाने का श्रेष्ठ अभिनय करना होता है.
जनाब !वही अभिनय की अंतिम कसौटी जो होती है!
खंड- दो


१.
कैद में रही औरतें सपने देखती हैं.
जैसे उड़ने का
ऊँचाई से गिरने का
गाड़ी छूटने का सपना हर कोई देखता है
उसी तरह
पढ़ लिख कर
एक अच्छी नौकरी
और समझदार पति का सपना हर लड़की देखती है.
अच्छे दो बच्चे
एक लड़का और एक लड़की का सपना
वह भी न देखे तो क्या देखे.
सब ठीक-ठाक हो अगर
तो एक अपना घर और एक छोटी-सी गाड़ी….
चलो गाड़ी नहीं, पर अपना घर?
अच्छा चलो वह भी नहीं
पर अच्छा सा किराए का घर जिसमें एक कमरा बेटी-दामाद का भी हो…
भाई, यह तो मिनिमम बेसिक रिक्व्यारमेंट है
जिसका ध्यान माँ-बाप भी रखते हैं.
एक पढ़ी-लिखी लड़की के लिए इतना तो सोच ही सकते हैं माँ-बाप.
पर लड़कियाँ जब औरतें बन जाती हैं
तो माँ-बाप उनके स्वप्न निर्माण प्रक्रिया से अलग हो जाते हैं.
पति अपने सपनों में इतना व्यस्त कि
उम्मीदें रखता है कैसे नथ बड़ी और बड़ी और बड़ी होती चली जाए पत्नी की.
उसके सपने की निर्माण प्रक्रिया में शामिल होती है उसकी माँ भी.
औरतों के अपने कोई
अलहदा सपने नहीं हो सकते.
हक़-हुक़ूक का तो सवाल ही नहीं.

२.
लेकिन औरतों के भी सपने होते हैं.
उनके अंदर दबे हुए
जो कथा-किस्से बन पन्नों पर उतर आते हैं
और वहीं से जा पहुँचते हैं औरतों के दिल-दिमाग में
जब वे लड़कियां होती हैं.
बहुत छोटे और मामूली से और असंभव-से भी.
                             

२.१

सपना-१

उसे
बार-बार समझाया गया
कि अभी नहीं, शादी के बाद  ससुराल से मिलता है चंद्रहार.
अनगिनत बिसाती बरसों बरस उसके गाँव आए और चले गए.
उसकी उम्मीदों को चंद्रहार की चमक से रौशन करते हुए.
फिर असली बिसाती आया
और उसकी चमकदार उम्मीदों को
उधार की खूंटी पर टांग कर चला गया.
उसके लिए छोड़ गया साफ़ करने के लिए
झूठ और दंभ का कीचड़.
जब वह उठी तो बहुत थक गई थी.

२.२

सपना-२.

एक दिन बड़ा ग़ज़ब हो गया था
बीच नाटक में
एक औरत ने स्क्रिप्ट बदल डाली.
उसे अपने पति को बचाने की कोशिशों की सफाई पति को ही देनी थी.
उसे अपना गुनाह कबूल करना था.
शर्मिंदा होना था.     
कि वह अचानक तेज़ क़दमों से चलते हुए
मंच के बाहर चली गई
बंद दरवाज़ों को खोल कर. धड़ाम से.
जब सुबह आँख खुली
बहुत उत्तेजना से भरी थी उसकी देह.

२..३

सपना-३

वह अपने दब्बू शर्मीले किस्म के पति को छोड़
मायके चली आती है
और एक छबीले, रौबदार, वसूख़दार  मर्द के पहलू में
अपनी अनंत उद्दाम इच्छाओं को बिछाती है.
उसके साथ
अपनी इच्छाओं को बाँटती है.
तभी उसकी माँ आ जाती है
जिस पर उस की सास का मुखौटा है.
उसने पलट कर उस जवाँमर्द को नहीं देखा
उसे डर था कहीं उसपर उसके पति का मुखौटा न लगा हो.
वह जब उठी तो पसीने से तरबतर थी.
पर एक शर्मीली-सी, कुछ विजयी मुस्कान भी थी उसके चेहरे पर.
उसने अंगड़ाई ली देर तलक.

२.४

सपना-४

उसने जीवन भर
एक तवा तपा कर रखा था.
वह उसकी आँच मंदी-तेज़ करते हुए अपने पति को रोटी खिलाती रहती रही.
पर यह तवा उसने उस दिन के लिए तपाया था
जब कभी वह लौट कर आएगा
वह उसे करारे पराँठे की तरह सेंकेगी
जिसने अपने खुद के भविष्य के लिए
उसके वर्तमान को नंगा कर दिया था.
वह खुश और आश्वस्त है
एक दिन ऐसा अवश्य आएगा.
उसने जब आँखें खोली
तो जैसे बीते हुए समय के दर्पण में वह अपने को देख रही थी.
उसकी बेटी घबराहट भरी, बेतहाशा उसे जगा रही थी.



२..५
सपना ५-६-७-८-९ …. और कई-कई सपने….

बेलों से छितराई छत पर किसी ग़ज़ल की तरह प्रेमी से मिलने का सपना,
अपने प्रेम को पा लेने का सपना
अपने गर्भ में अपने प्रेम-शिशु को गढ़ने का सपना
बादल राग गाने का सपना
नीले आकाश में उड़ने का, समता का सपना….
…टकराते हैं…. टूट कर चिरमिराते हैं
दूब बिछी कठोर चट्टानी सतहों पर.
लहूलुहान सपने
गठरियों में बँधे
पहुँच जाते हैं औरतों के सिरहाने, तकिए के नीचे
इस संभावना  में
कि समय के मरहम से ठीक होंगी चोटें
फिर आ सकेंगे औरतों की नींदो में.
खंड तीन



१.

काली पीली लाल भूरी हरी नीली चट्टानों के बीच से बहती है नदी.
अभयारण्य है गहन विस्तार वाला.
किसिम-किसिम के
ऊँचे-नाटे मध्यम पेड़ों वाला
घना छितराया जंगल.
(कवि भवानी प्रसाद की याद दिलाता जंगल)
घूमते हैं जंगली जानवर
पालतू से लगने वाले,  फालतू?
खूंखार और कुछ कम खूंखार.
अमावस की अँधेरी रात में भी
चमकता है वह भुतहा पेड़.
फैली डालियों और पीले तनों, पीली पत्तियों वाला वह भुतहा पेड़.
जंगल में सबसे अलग और सबसे ख़ूबसूरत.
भयभीतक.
उसकी अपनी चमक है.
डरता है अकेला मानुष
अकेले नहीं जाता काली अँधेरी रातों को जंगल में.
रहवासी हो या प्रवासी.
आदिवासियों के पास भुतहा पेड़ की अपनी कहानियाँ हैं.
समझ में यही आता है-
जो अलग होते हैं,
उनसे डरते हैं लोग.
इसीलिए भुतहा हो जाती हैं.
अलग दिखती लड़कियाँ
डराती हैं रहवासियों को घरवासियों को.
वे सोच सकती हैं.
वे देख भी सकती हैं.
   कहीं बोल न दे भुतहा लड़कियाँ 
         यह संभावना डराती है.


२.

हर लड़की रचती है एक केलिडोस्कोप
उनके केलिडोस्कोप में होते हैं
बहुत खूबसूरत चित्र
नृत्यांगनाओं, गायिकाओं, लेखिकाओं, अध्यापिकाओं के
हिम-चोटियाँ चढ़ने के, ब्रह्मांड नापने के
और समुद्र लहरों पर दौड़ने की चाह के ख़ूबसूरत चित्र
सपाट मैदानों पर हवा से बात करते पैरों के चित्र
जो ज़मीन पर नहीं पड़ते ऐसे बेहतरीन पैरों के चित्र
झिलमिलाते हैं उनके केलिडोस्कोप में.
जिसे बदल दिया जाता है
बाईस्कोप में,
जब वे औरत बनती हैं.
अगर है हिम्मत
तो ढूँढ़े फिर भी
वे गुम हुए दरवाज़े
रोकता कौन है?
पर याद रखें हमेशा,
हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ
अब भी मज़बूत हैं
दरवाज़े चाक-चौबंद.
और भाई, क्यों रचती हो
लो ये रहा हमारा बना-बनाया बाईस्कोप, लो थामो.
कुछ चित्र चाहे तो बदल लो.
आखिर तुम्हारी समस्या क्या है?
तब भी जो
छोड़ती नहीं हैं अपना केलिडोस्कोप
और अगर हो गईं सफल, फिर भी
तो भाषणों और निबंधों और कविताओं
और न जाने किस-किस का विषय बनती हैं.
कुछ फूलमालाओं, कुछ ताज-इनाम – इकराम की
साथ में कुछ फब्तियों की, बदनामियों की  हकदार बनती हैं.
पर घर की बच्चियों के लिए वास्तविक आदर्श कभी नहीं.
द्वार-हीन दीवारों से टकराती हैं सूर्य किरणें
लहूलुहान फैलती हैं जगती भर
जिन्हें कोई नहीं देखता.
क्योंकि यह उन
बंद आँखों में दफन सपनों वाली
औरत बनीं लड़कियों का
लहूलुहान अँधेरा है,
जो
गुम हो गईं हैं
और किसी को दिखाई नहीं देती.
और उनकी गुमशुदगी भी
कहीं दर्ज़ नहीं हुई है.

(समर्पित है मेरी उन तमाम प्यारी बच्चियों को जिन्होंने मुझे एक संवेदनशील अध्यापक बनाया और प्रकारांतर से एक बेहतर मनुष्य बनने में मेरी सहायता की.
___________________________


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Tags: कविताएँ
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