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‘मतलब हिन्दू’ अम्बर पांडेय का पहला उपन्यास है. यह वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. यह उनके ‘हिन्दू त्रयी’ का पहला भाग है. उपन्यास में एक वैष्णव हिन्दू ‘गोवर्द्धन’ और दूसरे वैष्णव हिन्दू ‘बारिस्टर गाँधी’ को साथ में लेकर कथानक रचा गया है. बारिस्टर गाँधी गौण होकर भी विचार और प्रभाव के स्तर पर गोवर्द्धन के अवचेतन में छाए हुए हैं.
उपन्यास पढ़ते हुए यह ध्यान रखना चाहिए कि इसका शुरुआत गाँधी और अंत भी गाँधी पर ही हुआ है. गाँधी तब तेईस वर्ष के थे और उनसे प्रभावित एक किशोर सत्रह वर्ष का था. इतिहास के तथ्यानुसार 1893 ई.. इसी वर्ष गाँधी दक्षिण अफ्रीका जाते हैं. कुछ समय बाद गोवर्द्धन बॉम्बे से होते हुए हांगकांग जाता है. गाँधी जब भारत वापस आते हैं ठीक उसी वर्ष गोवर्धन भी भारत वापस आता है. तब उसकी उम्र चौबीस साल है. इतिहास में वह साल 1901ई. है. इस तरह यह कहा जाना चाहिए कि उपन्यास लगभग आठ साल के इतिहास को समेटे हुए है. इस दौरान दो वैष्णव हिन्दू के ‘हिन्दूपन’ में क्या बदलाव आता है, इतिहास में क्या-क्या घटित होता है इसकी विकास यात्रा को दर्ज किया गया है.
इस दौरान गाँधी के विचार और व्यक्तित्व में जो बदलाव आया है, वह उनकी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. जबकि गोवर्द्धन में जो बदलाव आया वह उसकी वैचारिक कमजोरी, कुंठा और इच्छाओं की गुलामी के कारण है. वह गाँधी को आदर्श मानते हुए उनके प्रति अपराधबोध से ग्रस्त है. यही उसकी सबसे बड़ी खूबी है और इस उपन्यास का केंद्रीय विषय भी है. इसकी शुरुआत ‘शुद्धता और स्वच्छता’ के बहस से होती है. बारिस्टर गाँधी का रसोईया ब्राह्मण है. वह अपने को शुद्ध समझता है. स्वच्छता को वह बेकार विचार मानता है. गाँधी के लिए स्वच्छता अनिवार्य है. स्वच्छता के बिना शुद्धता का कोई अर्थ नहीं है. गोवर्द्धन इस बहस को ठीक से समझता है. दरअसल रसोईया और गाँधी के बीच का यह बहस तत्कालीन जाति व्यवस्था से जुड़ जाता है. ब्राह्मण बनाम गैर-ब्राह्मण का बहस हो जाता है. गाँधी स्वच्छता को महत्व दे रहे थे. इसका अर्थ था जाति की शुद्धता से ज्यादा महत्वपूर्ण व्यक्ति और आसपास के वातावरण की स्वच्छता है.
इस उपन्यास में एक महत्वपूर्ण मुद्दा तत्कालीन धर्मों और समाजों के आपसी संवाद और टकराव का है. गोवर्द्धन वैष्णव हिन्दू है. उसे अपने धर्म की कमियों का पता है. इसलिए जब ‘करसनदास’ की किताब की निंदा होती है तो गोवर्द्धन कहता है कि
“अख़बारवाले सत्य न लिखकर नाना मतों की स्तुतियाँ लिखने लगेंगे तो अख़बार और भजन-पुस्तिका में क्या अन्तर रह जायेगा. करसनदास मूलजी ने सत्य को स्पष्ट लिखकर लेखकों के लिए निर्भय आदर्श स्थापना की थी.”
यह संवाद वर्तमान परिदृश्य पर भी लागू होता है. एक जागरूक नागरिक संपादकों, लेखकों और पत्रकारों से यही उम्मीद करता है कि वह नए तर्कों और बहसों से बौद्धिक परिसर को लोकतांत्रिक और संवादी बनाए. तत्कालीन भारतीय परिदृश्य में तब राष्ट्रीय आंदोलन अपनी गति पकड़ रहा था. उसके समानांतर समाज सुधार और धर्म सुधार के कार्य भी प्रगति पर थे. कॉंग्रेस का विस्तार हो रहा था और इसके साथ ही उससे जुड़े लोगों के बीच आपसी वैचारिक मतभेद भी प्रकट हो रहे थे. उसी समय साम्प्रदायिकता के लक्षण प्रकट होने लगे थे. उपन्यास में ऐसे संवादों का आना स्वाभाविक है.
बा और गणपति दादा के बीच एका होने का एक महत्वपूर्ण कारण दोनों का मुसलमानों के प्रति ‘घृणा’ है. गणपति दा तिलक की बड़ाई करते हैं. गोवर्द्धन के लिए यह आश्चर्यजनक है क्योंकि वो स्त्री शिक्षा के समर्थक नहीं थे. तिलक ने स्त्रियों के विद्यालय का विरोध किया था, जबकि गणपति की बेटी लीलावती तेरह वर्ष की अवस्था में विवाह न करके विद्यालय जाती थी. गणपति प्रार्थना समाज से जुड़े हुए हैं, जबकि तिलक सनातन धर्म की पुनर्स्थापना के लिए प्रतिबद्ध हैं. इसके बावजूद गणपति ‘मुसलमानों’ के मामले में तिलक के साथ हैं. यह उस समय (बहुत हद तक आज के भारतीय नागरिकों का भी सत्य यही है) के भारतीय नागरिकों का अंतर्विरोध को दिखाता है. स्वयं गोवर्द्धन भी ईसाइयों के प्रति ऐसा ही सोचता है. उसके भीतर का ब्राह्मण हमेशा उसपर हावी रहता है. यह जड़ संस्कार की हठधर्मिता है. इसको गोवर्द्धन के विदेश यात्रा से समझा जा सकता है. वह हांगकांग जाता है. परिस्थितियों के अनुसार उसने माँस खाना शुरू किया, कई स्त्रियों के साथ यौन संबंध बनाए और अंततः अपने जीजा की दूसरी पत्नी से विवाह करता है और वापस भारत आता है. इसके बावजूद वह अपने को ‘वैष्णव हिन्दू’ और ‘ब्राह्मण’ के तौर पर स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध है.
वह अपने बेटे यज्ञदत्त और बुआ से संबंधित कर्मकांड ब्राह्मण धर्म के हिसाब से करता है, जिससे उसका समाज उसे अपना ले. यह देखना भी दिलचस्प है कि गोवर्द्धन जब भी अपने रूढ़िगत संस्कार और अपनी कमजोरियों के बीच फँसा हुआ पाता है तो तत्कालीन दार्शनिक मतों, सिद्धान्तों और परिस्थितियों का आड़ लेकर झूठी दिलासा देता रहता है. उदाहरण के लिए माँस भक्षण के लिए वह ‘समुद्र का कानून अलग और जमीन का कानून अलग’ का तर्क देता है. धर्म संबंधित आचरणों में स्वयं को कमजोर पाकर वह मिखाइल बकुनिन के अनीश्वरवाद का सहारा लेता है. ये सारे तर्क एक तरह का ‘डिफेंस मैकेनिज्म’ है जो वैचारिक रूप से कमजोर मध्यवर्गीय मनुष्य अपनाता है. सच्चाई से भागने के लिए पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग ऐसे ही तर्क गढ़ता है. यहीं वह गाँधी से कमजोर पड़ता है. यहाँ गाँधी का गोवर्द्धन उन लचर ‘हिंदुओं’ का प्रतीक बन जाता है जो आगे चलकर नैतिक और चारित्रिक तौर पर ‘ढुलमुल’ बन जाता है. वह न पूरी तरह ‘हिंदुत्व’ को अपना पाता है न पूरी तरह ‘हिंदुत्व’ का विरोध कर पाता है. उसकी रूढ़िगत वैष्णवी अनुकूलता (कंडीशनिंग) उसे गाँधी के करीब जाने से रोकती है. वह अपराधबोध से ग्रस्त है. इसी कारण से वह जब हांगकांग से वापस लौटता है तब गाँधी से मिलने नहीं जाता है. एक तरह से यह उपन्यास ‘अपराधबोध’ और ‘मनोविकारों’ का भी है. एक मनोवैज्ञानिक ऊँचाई है उपन्यास में.
चूँकि, उपन्यास गाँधी के जीवन यात्रा के समानांतर गोवर्द्धन के जीवन की कहानी कहता है. गाँधी समुद्र पार कर चुके हैं. दक्षिण अफ्रीका जाकर प्रवासी जीवन भी गुजार रहे हैं. ठीक इसी समय गोवर्द्धन के जीवन में और भारत में नई सामग्रियों का प्रवेश हो रहा है. इनका गहरा संबंध भारत के इतिहास से है. उपन्यास में चाय, सिगरेट, अफीम और उपन्यास के प्रभाव का इतिहाससम्मत प्रस्तुति है. 1834 में चाय समिति बनी. असम, बंगाल और बिहार (झारखंड का क्षेत्र) और दक्षिण भारत में चाय बगान को विकसित किया गया. बहुत कम समय (1880 तक) में भारतीय घरों में इसकी पैठ हो गयी. भारतीय महिलाओं ने इसे न केवल अपनाया बल्कि प्रयोग करके इसके बनाने के विधियों में परिवर्तन किया.
उपन्यास में बा और बुआ के बहाने चाय के घरेलू असर को विस्तार से बताया गया है. गोवर्द्धन जब हांगकांग जाता है तो जहाज पर उसकी मुलाकात एक चीनी बावर्ची से होती है. उसे अफीम की लत है. गोवर्द्धन को वहाँ पता चलता है कि अफीम ने चीन के युवाओं को बुरी तरह जकड़ कर रखा है. इस प्रकरण को ध्यान से समझें तो पता चलता है कि अफीम का निर्यात भारत से चीन में होता था. बंगाल, बिहार और मालवा अफीम का प्रमुख उत्पादक क्षेत्र था. रीना मारवाह ने अपने लेख में बताया है कि “मालवा क्षेत्र में सस्ता अफीम होता था जो बॉम्बे से चीन जाता था.” इसी लेख में उन्होंने विस्तार से बताया है कि “हांगकांग और कण्टोन और आसपास के क्षेत्रों में भारतीय व्यापारी वर्ग खासकर पारसी, बोहरा और इस्माइली आकर बस गए. 20वीं सदी के शुरुआत में सिंधी और मारवाड़ी भी आकर में बसने लगे.” उपन्यास में जहाज यात्रा के विवरण और प्रवासियों के जीवन को पढ़ने से तत्कालीन भारतीय समाज से चीन का व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंधों को समझा जा सकता है. आगे गोवर्द्धन की मुलाकात सनयात सेन से होती है. उसी क्रम में गोवर्द्धन सेन जी के लोगों को हथियार इधर-उधर करने में मदद करता है. सनयात सेन 1895 में कैण्टोन क्षेत्र में तख्ता पलट में सक्रिय थे. यह वह दौर था जब उपनिवेशवाद के खिलाफ राष्ट्रवाद का प्रसार एशियाई देशों में हो रहा था. इस उपन्यास की मुख्य विशेषता इसकी ‘बहुकथनीयता’ है. गाँधी और गोवर्द्धन के बहाने लेखक ने तत्कालीन भारतीय उपमहाद्वीप में होने वाले ऐतिहासिक हलचलों को क्रमबद्धता में दर्ज किया है.
इसी क्रमबद्धता में एक महत्वपूर्ण उपस्थिति उपन्यासों के प्रसार और स्त्रियों की बदलती परिस्थितियों का भी है.
इसको बा, लीलावती और बुआ के चरित्रों के विश्लेषण से समझा जा सकता है. बा और बुआ एक पारंपरिक घेरलू स्त्रियाँ हैं. एक ब्राह्मण हिन्दू औरत जो गैर-ब्राह्मणों और मुसलमानों से दूरी बरतती है. उनके जीवन में उपन्यासों और नए जमाने के कहानियों का आगमन होता है. इस आगमन से उनकी मनोदशाओं को झटका मिलना शुरू होता है. एक समय आता है जब बा और गोवर्द्धन में बहस होता है और वो घर छोड़कर चली जाती है. गोवर्द्धन ऐसी स्थिति के लिए ’उपन्यासों’ को दोषी मानता है. इस वक्तव्य का संबंध ‘उपन्यास के इतिहास’ से है. आशुतोष भारद्वाज ने अपनी किताब ‘पितृवध’ में ‘उपन्यास के भारत की स्त्री’ में उपन्यास और स्त्रियों के संबंध के बारे में लिखा है कि
“उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही ऐसी (कु) ख्याति अर्जित करली थी कि इसपर स्त्री को बिगाड़ देने के आरोप लगने लगे थे. तत्कालीन भारतीय समाज मानने लगा था कि उपन्यास पढ़कर स्त्री भ्रष्ट हो जाती है. उपन्यास सामाजिक-राजनीतिक मान्यताओं को प्रश्नांकित कर रहा था, स्त्रियों को समाज के प्रति विद्रोह करना सिखा रहा था.”
इसको पढ़ने के बाद उपन्यास में बा का घर छोड़ना और गोवर्द्धन का उपन्यास को इसका कारण मानने का संदर्भ स्पष्ट हो जाता है. इस लेख बताया गया है कि तब तेरह वर्ष की लड़कियों को उपन्यास पढ़ता देख परिवार चिंता में पड़ जाता था. लीलावती की उम्र संयोग से उपन्यास में तेरह वर्ष है. वह अविवाहित है और टॉमस हार्डी को पढ़ती है जो गोवर्द्धन के लिए आश्चर्यजनक है. यही लीलावती आगे चलकर अपने पिता के खिलाफ विद्रोह करती है. लीलावती और सुभद्रा ईसाई बन जाती हैं. गोवर्द्धन जब कहता है कि बुआ को रोकड़े के वास्ते धरम त्यागना पड़ा. लीलावती इसके जवाब में कहती है “नहीं जीने हेतु यज्ञदत्त के वास्ते.” आप इन तीनों स्त्रियों के चरित्र को देखिए वे सब अपने संस्कारों से लड़ते हुए विद्रोहिणी बनकर अपना रास्ता स्वयं चुनती हैं. इन सबमें कहीं न कहीं उपन्यासों का योगदान दिखाई देता ही है. ये स्त्रियाँ गोवर्द्धन से ज्यादा नैतिक, वैचारिक प्रतिबद्ध और सुलझी हुई हैं.
इस तरह यह उपन्यास अपने विषय और कथानक में तत्कालीन इतिहास के बदलावों को एक साथ दर्ज करता है जिसमें गाँधी के समानांतर गोवर्द्धन है तो दूसरी तरफ भारतीय प्रवासी, स्त्रियाँ और इंफ्रास्ट्रक्चर के बदलाव भी शामिल है. सबके बीच एक समायोजन है. इस उपन्यास में एक कमी की ओर इशारा भी समीक्षकों ने किया है. गोवर्द्धन अँग्रेजी उपन्यास पढ़ता है लेकिन, जब उसे किसी वाक्य का अनुवाद करने को कहा जाता है तब उसे समस्या होती है. इसे अजीब बात नहीं मानना चाहिए. यह स्वाभाविक है कि कोई अँग्रेजी समझ लेता हो, पढ़ लेता हो लेकिन उसी यदि लम्बे समय तक अँग्रेजी में लिखने का अभ्यास न हो तो उसे संशय होना और आत्मविश्वास की कमी होना सामान्य बात है.
यह उपन्यास यहाँ से प्राप्त करें.
महेश कुमार शोधार्थी(हिंदी), काशी हिंदू विश्वविद्यालय, बनारस manishpratima2599@gmail.com |
अच्छा आलेख है … पाठकों की दृष्टि से देखें तो उनकी रुचि बढ़ाने वाला, उपन्यास के संसार में प्रविष्टि पाने को उकसाने वाला आलेख. ज़ाहिर है लेखक ने इसका अच्छा पठन और अध्ययन भी किया है.
यह शुरुआत है लेकिन. उपन्यास इतना संशलिष्ट और dense है साथ ही साथ और इतना मार्मिक और विचारो त्तेजक भी…
आख्याता एक है, लेखक चाहता तो हरेक चरित्र को आख्याता में रूपायित कर सकता था, लेकिन उसने यह न कर, क्योंकि यह अपेक्षया सरल होता, उपन्यास को निखालिस पोलीफोनिक बनाया है.
हर विचार की काट, हर विष का antidote यहाँ बाहुल्य में है.
उपनिषदिक पठन के बारे में maurice blanchot ने कहीं लिखा है कि the reader thinks himself into innocence… यही मुझे इस उपन्यास के बारे में भी लगा.
जापानी कुवा जो भेल भाषा में प्रेम संवाद करती है उसी भेल भाषा को अम्बर ने कुछ ऐसा शिल्पित किया है कि मुझ जैसा पाठक भाषा के सम्मोहन के समक्ष अपने कवि घुटने टेक देता है.. फिर उठकर इस महावृक्ष से कुछ पात अपने लिए बटोरने लग जाता है
विश्व साहित्य और सिनेमा में जो दाखिला अम्बर का है वह भी पाठक को अपने सूक्ष्म रूप में बेहद मार्मिक संगीत सा सुनाई पड़ता पड़ता है.
मसलन गधे का प्रसंग Nietzsche को भी व्यंजित कर जाता है और Bresson के गधे को भी. साथ ही साथ Bela TARR की फ़िल्म Turin’s Horse को भी. यह केवल एक मिसाल है…
इस उपन्यास से मेरे मन में उपजने वाला मूल भाव कृतज्ञता का है… कि Ammber Pandey ने यह उपन्यास हम सबके लिए लिखा.
शायद मेरा अधूरा पड़ा आत्मगल्प भी अम्बर के घने संगीत से जागृति की अवस्था में आ जाये.
इस आलेख के लिए समालोचन का आभार…. अब आज की दिन के लिए कृपणता से बचाए 14 पन्ने पढ़ती हूँ.
इस उपन्यास के शुरुआती अंश सबसे पहले Arun जी द्वारा समालोचन पर ही प्रकाशित किए गए थे. इसलिए आज इस उपन्यास की यह समीक्षा हम सब की प्रिय इस वेबसाइट पर देख कर लगा जैसे इस कृति के जीवन का एक चक्र पूरा हुआ हो.
Mahesh जी ने अपनी reading की ट्रेनिंग से मुझे लंबे समय से प्रभावित किया है. असल में स्वतंत्र रूप से किसी टेक्स्ट को पढ़ने के लिए एक स्वतंत्र दिमाग़ चाहिए होता है. आज हम इतने polarising समय में जी रहे हैं कि चारों तरफ़ के शोर से स्वतंत्र हो, जिस मानसिक स्वायत्तता के साथ किसी टेक्स्ट को एप्रोच करने के लिए दरकार होती है, वह गौण होती जा रही है. ऐसे समय में टेक्स्ट का इतना समृद्ध और समग्र पाठ देखना गहरी आश्वस्ति देता है. महेश अपने लेखन में साहसिक हैं और दृष्टि में बारीक भी. उन्हें बहुत बधाई . अरुण जी को भी बधाई जिन्होंने न जाने हिंदी की कितनी ही कृतियों को पहला घर दिया.