स्त्री मुग़ल मुग़ल स्त्रियों की दास्तानगोई सुप्रिया पाठक |
मुग़ल साम्राज्य ने हिंदुस्तान की सरज़मीन पर पंद्रहसौ छब्बीस से अठारह सौ सत्तावन तक लगभग तीन सौ सालों तक शासन किया. इस वंश के संस्थापक जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर ने पंद्रह सौ छब्बीस में दिल्ली सल्तनत के शासक इब्राहिम लोदी को हरा कर मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की. बाबर उजबेकिस्तान से होते हुए भारत आए थे. भारत में इस्लाम का प्रचार-प्रसार मुग़लों के माध्यम से हुआ और उन्होंने संस्कृति, कला के साथ-साथ अपने धार्मिक विश्वासों का भी प्रसार किया. मुग़ल राजवंश अपनी सांस्कृतिक, धार्मिक और स्थापत्य उपलब्धियों के लिए व्यापक रूप से जाना जाता था. सुव्यवस्थित सेना, सरकार और अर्थव्यवस्था ने मुग़ल साम्राज्य को हिंदुस्तान के सबसे महान और सबसे शक्तिशाली साम्राज्यों में से एक बना दिया. अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान यहाँ की वास्तुकला हिंदू और इस्लामी वास्तुकला का मिश्रण थी. इसके बावजूद, भारतीय इतिहास में मुग़लकाल से संबंधित कई महत्वपूर्ण तथ्यों से हम अनजान हैं. खासतौर पर मुग़ल स्त्रियों के जीवन पर हुए कुछ अकादमिक शोधों को छोड़ दिया जाए तो उनके संबंध में जानकारी लगभग न के बराबर मिलती है.
ट्रिनिटी कॉलेज, लंदन में धर्म और एशियाई अध्ययन की प्रोफेसर एलिसन फाइंडली ने अपनी किताब नूरजहाँ : महारानी ऑफ़ मुग़ल इंडिया में इस बात का जिक्र किया है कि हमारे यहाँ मुग़लों ने सेना, खजाने और अपनी बुद्धिमान स्त्रियों के बल पर लंबे समय तक सल्तनत कायम रखी. ये स्त्रियाँ हुकूमत को कायम रखने में उनकी मदद किया करतीं थीं. मुग़ल साम्राज्य की मल्लिकाओं, बेगमों और शहजादियों की भूमिका हरम[1] का हिस्सा होने के अलावा भी बहुत कुछ थीं जो उन्होंने ताउम्र बखूबी निभाईं. बाबर, हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ जैसे बादशाहों के पीछे ऐसी स्त्रियाँ थीं जिन्होंने अपनी सूझबूझ, इस्लाम धर्म और उत्कृष्ट वास्तुकला की समझ के साथ मुग़ल साम्राज्य के सितारे को हमेशा बुलंद रखा.
उस दौर में स्त्रियों की अदृश्यता और दृश्यता सत्ता और बादशाह के साथ उनके संबंधों के आधार पर तय हुआ करती थी. इन तीन सौ सालों के दरम्यान मुग़ल स्त्रियों ने शानदार और बदतर दोनों तरह का जीवन जिया और शाही दरबार पर अपना रुतबा कायम करती हुई अपनी ताकत बढ़ाती चली गईं. उन्होंने अपनी कलम से उस दौर में कई बेहतरीन रचनाएँ की जो बाद में इतिहासकारों द्वारा मुग़लकाल को समझने के लिए बहुत जरूरी किताबें मानी गईं. दरअसल, हमें इस बात को गलत तरीके से समझाया गया कि मुग़लों के हरम में स्त्रियों को केवल पुरुषों की जिस्मानी जरूरतों और ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए रखा जाता था.
रूबी लाल की पुस्तक डोमेस्टिसिटी एंड पावर इन द अर्ली मुगल वर्ल्ड और जॉन एफ.रिचर्ड्स की पुस्तक द मुग़ल एम्पायर में इस तरह के कई हरमों का जिक्र बार-बार आता है. वे लिखते हैं कि अकबर के शासनकाल में हरम को स्त्रियों के लिए ऐसी जगह के रूप में संरक्षित किया गया था जिसमें किसी भी गैर मर्द को जाने की मनाही थी. मुग़ल बेगमों का पर्दानशीं रहना उनके शान और रुतबे की निशानी माना जाता था. इस पर्दे के कारण एक मजहबी, धार्मिक, सामाजिक वर्ग व्यवस्था कायम थी. ऐसा माना जाता था कि इन स्त्रियों के परदे में रहने से ही उनकी इज्ज़त और उनके परिवार के सम्मान की रक्षा हो सकती थी.
मुग़ल हरम में स्त्रियों के कई समूह होते थे. इसमें शाही परिवार की स्त्रियाँ, बादशाह की रखैल, उनका ध्यान रखने वाली स्त्रियाँ और हरम की देखभाल करने वाली स्त्रियाँ शामिल होती थीं. हरम की रौनक बढ़ाने के लिए स्त्रियों को कई तरह से वहाँ तक पहुंचाया जाता था. जैसे किसी स्त्री पर मुग़ल बादशाह का दिल आया तो उसे हरम का हिस्सा बना दिया जाता था. कुछ स्त्रियों को दूसरे देशों से बंदी बनाकर लाया जाता था तो कुछ को बाजार से खरीद लिया जाता था. हरम में कुछ स्त्रियाँ ऐसी भी थीं जो बादशाह को दूसरे राजाओं से तोहफे के तौर पर मिलती थीं, उन सबका रिश्ता इस्लाम धर्म हो ये जरूरी नहीं था.
इतिहास की कई किताबों में उल्लेख मिलता है कि मुग़ल साम्राज्य के कई ऐसे बादशाह रहे हैं, जिन्होंने हिंदू स्त्रियों के साथ भी निकाह किया था जैसे- हरखा बाई, हीर कुंवर, जगत गोसाई आदि. वहीं, अबुल फजल की किताब के मुताबिक मुग़ल साम्राज्य का हर बादशाह अपने महल में हिंदू से लेकर मुस्लिम बेगमों के लिए हरम बनवाया करते थे इसलिए हरम में हिंदू स्त्रियों की स्थिति या रहन-सहन भी अन्य स्त्रियों की तरह होती थी. स्त्रियों को पर्दा करना पड़ता था. साथ ही, एक बार जो स्त्री हरम में प्रवेश कर लेती थी फिर बाहर बादशाह की मर्जी से ही बाहर जा सकती थी.
अबू फजल की ‘अकबरनामा‘ में इस बात का जिक्र मिलता है कि बादशाह अकबर के हरम में लगभग पाँच हजार स्त्रियाँ रहा करती थीं. इसमें बेगमों के साथ वो स्त्रियाँ भी शामिल थीं, जो बगैर शादी के भी रहा करती थीं. कहा जाता है कि हरम में रहने वाली हरखा बाई अकबर की सबसे खास बेगमों मे से एक थीं, जिनके लिए खास व्यवस्था की जाती थी. हरम की सारी स्त्रियाँ हरखा बाई के आगे झुका करती थीं और उन्हें ‘मरियम-उज़-ज़मानी‘ का दर्जा देती थीं.
ऐसी अनगिनत मुग़लिया स्त्रियों के इतिहास और एहसासात को तफ़सील से हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि और लेखक पवन कारण ने अपनी हालिया प्रकाशित कविता संग्रह ‘स्त्री मुग़ल’ में कविता में उतारा है. इस महती कार्य को करने के लिए पवन करण ने मुग़ल इतिहास को पूरी तरह खंगाल डाला है और सिर्फ बेगमों की ही नहीं, बल्कि बाँदियों, शहजादियों, माओं, रक़्क़ासाओं और प्रेमिकाओं के स्वीकार और प्रतिरोध को कविता में रचा है. शाही हरम में षड्यन्त्र रचने वाली स्त्रियों से लेकर उसका शिकार होने वाली सभी स्त्रियों में कुछ हिन्दू जैसे पद्मावती, लखम बाई, पवनबाई,चंद्रमुखी, रतन बाई, राणादिल, मनोरमा, को छोड़ दें तो लगभग सभी मुग़ल या ईरानी खानदान से थीं. इन सभी की ज़िन्दगी को यह महत्वपूर्ण रचना सामने लाती है. इन कविताओं में मुग़ल स्त्रियों की पीड़ा, आक्रोश, ग्लानि, आत्मबोध, संघर्ष और समर्पण के अनगिनत रंग उभरे हैं.
लगभग एक सौ कविताओं के इस संग्रह में हर कविता मुग़लकाल के किसी खास स्त्री किरदार की कहानी बयां करती है. यह महज कविताएँ नहीं हैं बल्कि स्त्रीवादी इतिहासलेखन की एक नई परंपरा है जो इतिहास को स्त्री नज़र से देखने, महसूस करने और नए सिरे से उन्हें शामिल करते हुए इतिहास के पुनरलेखन (Rewriting History) की पक्षधर है. यह कविता संग्रह स्त्रीवादी विमर्श की दृष्टि से बेहद मानीखेज कोशिश है जो साहित्य को प्रस्थान बिन्दु बनाकर ज्ञान परंपरा में स्त्रियों के अनुभवों को शामिल करने की पुरजोर वकालत करता है. खासकर मुग़ल स्त्रियों की अनसुनी और अदृश्य बौद्धिक परंपरा को सामने लाना इस कविता संग्रह को और भी महत्वपूर्ण बना देता है. इसके लिए कवि पवन करण को बधाई जानी चाहिए. हालांकि, इस कविता संग्रह की यही खासियत शास्त्रीय परंपरा के कवियों के लिए भाषा, शिल्प और गढ़न के स्तर पर इसकी कमजोरी भी हो सकती है. खैर इस पर चर्चा फिर कभी…. फिलहाल बात इसके हवाले से मुग़ल स्त्रियों के जिंदगी की. ख़ानजादा बेगम जो बाबर की बड़ी बहन थीं, उनकी तकलीफों को बयां करती पहली कविता युद्ध के दौरान स्त्रियों के शरीर से गुजरने वाले आतंक और उसकी त्रासदी को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है .
औरतें जंग का हिस्सा न होते हुए भी
जंग का हिस्सा होती हैं ख़ानज़ादा.
फ़तह हासिल करने वाले कुछ ऐसे भी होते हैं
जिनकी इच्छा शिकस्त खाने वाले के हरम में
घुसे बिना नहीं मानती जितने वे जीत की ओर बढ़ते हैं
उतने दुश्मन के हरम के भीतर पहुँचते हैं. [2]
युद्ध ने अंततः बाबर जैसे मजबूत शासक की बहन के साथ भी वही सलूक किया. कहाँ बचा पाया वह एक स्त्री की अस्मिता और गरिमा. इसकी वजह यह थी कि युद्ध में जीत सही या गलत की नहीं होती बल्कि युद्ध में जीत ज्यादा ताकतवर की होती है, हारता हमेशा कमजोर है. स्त्रियाँ तो बस ताकतवर और कमजोर मर्द के बीच युद्ध का शिकार होती हैं…. उसके खजानों और इलाकों की तरह. बाबर की नानी ईशान दौलत बेगम एक चतुर स्त्री थीं जिन्होंने बाबर को हिंदुस्तान पर शासन करने के लिए यह कहते हुए तैयार किया कि हिंदुस्तान जैसे बड़े मुल्क को तुम्हारे जैसे हौसलेदार बादशाह का इंतजार है…[3] तुम्हें वापस लौटने के लिए नहीं कभी वापस न लौटने के लिए हिंदुस्तान में अपने पैर रखने चाहिए. जिस स्त्री की नवासी को इसी सल्तनत की लड़ाई ने अपना शिकार बनाया हो…. उसकी राजनीतिक समझ कितनी पुरुषवादी रही होगी जिसे युद्ध की विभीषिका और अपने नाती के लहूलुहान भविष्य का इल्म न रहा होगा भला ! पर चूंकि स्त्रियाँ खुद ही ताकत पसंद करती हैं इसलिए सत्ता और शक्ति के अतिरंजित खेल का सायास हिस्सा भी होती हैं. लेकिन सभी स्त्रियाँ एक जैसी नहीं होतीं. कतुलुग निगार ख़ानम जो बाबर की माँ थीं, ने बाबर को जीती हुई सल्तनत के आवाम के दिलों को जीतने का हुक्म दिया. उनका मानना था कि हिंदुस्तान की आवाम रोटी और मुहब्बत दोनों की भूखी है.
लूटना हमेशा जरूरी नहीं होता, कई बार लुटाना भी हमारी रूहों में सुकून भर जाता है. यह दुनिया जंग का खात्मा चाहती है क्योंकि इंसानियत के रूप में सिर्फ मुहब्बत ही बची रह जाती है. ऐसी मुग़ल स्त्रियों से हम अब तक अनजान थे या हमें सयास अनजान रखा गया, यह काबिले गौर है. बहरहाल, यह बात तो साफ हो ही जाती है कि किसी भी समुदाय में उन स्त्रियों ने कभी जंग और नफरत को नहीं चुना जो अमन और खुशहाली चाहती थीं. हालांकि, इस कविता संग्रह में बैदा बेगम का भी जिक्र आता है जिसने बाबर को जहर दिया था. वह इब्राहीम लोधी की माँ थीं.
मुग़ल समाज में माहचूचक बेगम नामक एक स्त्री भी हुई जिसका मिजाज सबकुछ कबूल कर लेने वाला न था. उसे अपने अंधे शौहर के हुक्मों की नाफरमानी करना, उसे तोड़ना और उसकी धज्जियां उड़ाने से कोई गुरेज़ न था. उसने कभी अपने उसूलों के साथ समझौता नहीं किया. लेकिन अपने शौहर का साथ भी पूरी वफादारी से निभाया…. उसका मानना था कि उनका बचना सब सहने और चुप रहने में नहीं था. बल्कि अपनी बात कहने और अपने लिए फैसले लेने में था जो उसे एक बेहतर इंसान और बीबी दोनों बनाता था. ठीक उसी तरह जैसे हबीबा बेगम को लगता था कि सल्तनत को लगता है कि वह सल्तनत है, इसलिए वह सही है, उसकी हाँ ही मुल्क की हाँ है. पर हर वक्त कोई न कोई उसके आगे सिर उठाए खड़ी होती है. [4]
इस कविता संग्रह में बीबी बाई का भी अक्स उभरता है जो शेरशाह सूरी के बेटे इस्लाम शाह सूरी की पत्नी थी. जंग और उसके बाद मिलने वाले ताज और सल्तनत के मिज़ाज को बहुत बारीकी से बयां करती हुई बीबी बाई सत्ता के क्रूर चेहरे का पर्दाफाश करती हुई कहती है कि दरअसल यह किसी का नहीं होता .
तख़्त को तलवार में बदल कर
अपने पर बैठने वाले के
सीने में उतरते देर नहीं लगती
सिर पर सवार ताज
उँगलियों में होकर तब्दील
झपटकर दबोच लेता है
पहनने वाले की गर्दन को [5]
किसी स्त्री के द्वारा सत्ता के इस विद्रूप चेहरे की कल्पना करना जिन्हें हमेशा दिमागी और जिस्मानी तौर पर कमतर आँका गया हो, कवि द्वारा इस समय में स्त्रियों के विवेक को भी बराबरी से देखे जाने की पैरवी के साथ-साथ घर और बाहर की दुनिया के बीच बनी विभाजक दुनिया का नकार भी है. साथ ही, हुमायूँ की बेगम और अकबर की माँ हमीदा बेगम के साथ उनकी बाँदी खुशकदम का संवाद जिसमें उन्होंने इस बात को कबूल किया हुमायूँ के शादी से शादी की गुजारिश को उन्होंने सिर्फ इसलिए स्वीकार किया क्योंकि उनके दरम्यान अमीरी और गरीबी से कहीं ज्यादा मायने रखता था उनका ‘स्त्री’ होना जो मुग़ल स्त्रियों की कहानी बयां करते कवि पवन की स्त्रीवादी दृष्टि का भी परिचायक है. मुग़लकाल में हमीदा बानो और हरखा जैसी माएँ, जहाँआरा और रोशनआरा जैसी अविवाहित बहनें, खानजादा जैसी तलाकशुदा, ज़ेब-उन-निसा और ज़ीनत-उन-निसा जैसी एकल बेटियां, गुलबदन जैसी चाची और सलीमा सुल्तान जैसी स्त्रियों ने उस दौर में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाईं. इन महत्वपूर्ण कार्यों के लिए उनका सम्मान किया जाता था और उन्हें भुगतान भी किया जाता था .
शेरशाह सूरी से पराजय के बाद हुमायूं और उनकी बीवी हमीदा बानो बेगम राजनीतिक समर्थन के लिए फ़ारस यानी ईरान गए. अपने दो बेटों क़ुली ख़ान और अधम ख़ान के साथ उनकी बीवी के ज़िम्मे मुग़ल साम्राज्य के दुधमुंहे वारिस अकबर की देखभाल की ज़िम्मेदारी भी थी. हालांकि माहम अंगा ने अकबर को अपना दूध नहीं पिलाया, मगर वह उनको दूध पिलाने और उनकी देखभाल करने वाली दस स्त्रियों की वे प्रमुख थीं. उनमें जीजी अंगा भी शामिल थीं जिनके पति शम्सउद्दीन मोहम्मद ख़ान उर्फ़ अतगा ख़ान ने एक बार हुमायूं की जान बचाई थी. जब खानजादा पैंसठ की बुजुर्ग उम्र में कंधार से काबुल तक कामरान मिर्जा के दरबार में पहुंचीं, तो वह बादशाह के राजदूत के रूप में प्रतिनिधित्व करके हरम की सुलह की इच्छा भी अपने साथ ले गईं.
माहम बेगम, दिलदार बेगम, गुलरुख बेगम, बाबर की प्रमुख पत्नियाँ- गुलनार अगाचा और नरगुल अगाचा आदि ने यात्राओं और दुश्मनों द्वारा लगातार परेशान किए जाने के बावजूद, उन्होंने अपने बच्चों को जन्म दिया. इन स्त्रियों के बारे में जानने के लिए दस्तावेज मौजूद हैं लेकिन उन्हें पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया है. बाबर की नानी ईशान दौलत बेगम का उस पर गहरा असर था. उनके बारे में बाबर ने लिखा है कि वे फैसले और मशवरे में मेरी दादी के बराबर थीं. वह बहुत बुद्धिमान और दूरदर्शी थीं. मैं अक्सर उनकी सलाह से ही फैसले लेता था.
मुग़लकालीन भारत में पहली बार कोई स्त्री ‘हज़’ पर गई थी, जिसे इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक माना जाता है. तिरपन वर्ष की आयु में, मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर की पुत्री गुलबदन बेगम और शाही घराने की ग्यारह स्त्रियाँ फतेहपुर सीकरी के हरम से निकलकर छह वर्ष की यात्रा पर निकल पड़ीं. हालांकि इतिहासकारों का दावा है कि इस उल्लेखनीय यात्रा का विवरण अभिलेखों से गायब है, उनकी नजर में संभवतः यह भूल पुरुष दरबारी इतिहासकारों की रही होगी जिन्हें स्त्री यात्रियों और उनकी तीर्थयात्रा में कोई विशेष रुचि नहीं थी. मुग़ल साम्राज्य में स्त्रियों की भूमिका के बारे में ज़्यादातर लोगों के मन में घिसी पिटी ही धारणाएँ हैं. गुलबदन ने अपनी वापसी पर एक किताब लिखी, जो उस युग की किसी स्त्री द्वारा लिखी गई गद्य की एकमात्र मौजूदा रचना है. इसका एक हिस्सा गायब है, या तो इतिहास में खो गया है या अधिकारियों द्वारा संपादित किया गया है. जो नहीं चाहते थे कि उनकी बात सभी तक पहुंचे.
करुणा शर्मा ने अपने लेख ए विजिट टू द मुग़ल हरम: लाइव्स ऑफ रॉयल वुमन में इस बात की ओर इशारा किया है कि मुग़ल साम्राज्य से पहले के राज्यों में राज्य प्रशासन और दीर्घकालिक राजनीतिक और आर्थिक नियोजन के दैनिक कामकाज में स्त्रियों की भूमिका को काफी हद तक नजरअंदाज किया गया क्योंकि दरबारी इतिहासकारों का मानना था कि इतिहास केवल पुरुषों का क्षेत्र है और स्त्रियों के लिए उसमें कोई जगह नहीं है .इतिहासकार रूबी लाल ने अपनी पुस्तक ‘वागाबॉन्ड प्रिंसेस: द ग्रेट एडवेंचर्स ऑफ गुलबदन’ में उल्लेख किया है कि, गुलबदन की मक्का तीर्थयात्रा बहादुरी और दयालुता के कार्यों से भरी थी, लेकिन इसमें विद्रोह भी था.
उसी तरह गुलबदन बेगम जिसने हुमायूँनामा लिखा, के मुहँ से कवि यह स्वीकारोक्ति भी कराते हैं कि इतिहास और बादशाह के बखान में लिखी गई इबारतों में उनकी ऐयाशियों और जुल्मों का जिक्र नहीं होता. उसे एक लाल मखमली कालीन की तह में छुपा दिया जाता है. आने वाली पीढ़ियाँ केवल उनके बहादुरी और जंग के किस्से सुनती है… शर्मसार कर देने वाली हरकतों के नहीं.
इस कविता संग्रह में बैरम ख़ान की बीबी सलीमा बेगम का भी जिक्र आता है जो अकबर की चचेरी बहन थी और बैरम की हत्या के बाद उसे अकबर से विवाह करना पड़ा. वह अबदुर्ररहीम खानखाना की माँ भी थीं. अपने शौहर के रूप में उसने वजीर के चेहरे को बादशाह में बदलते देखा था. किसी भी स्त्री के लिए जीवन का यह अनुभव कितना पीड़ादायी रहा होगा, इसकी तस्वीर हमारे ज़ेहन में बार-बार उतरती है.
दूसरी तरफ आमेर के राजा भगवान दास की बेटी और जहाँगीर की ब्याहता शाह बेगम जिसने पिता-पुत्र के झगड़ों से तंग आकर आत्महत्या कर ली…. कितना कठिन रहा होगा उसका जीवन! शाहजहाँ की बेगम मुमताज महल जिसका नाम अर्जूमंद बानू था, ने अपने जीवन में शहजादे शाहजहाँ को उसकी मुहब्बत से निकल कर मुल्क की तख़्त के सपनों में जाते देखा था. उसे मालूम था कि स्त्री जरूरत हो सकती है पर तख़्त से जरूरी नहीं…. हर स्त्री की तरह उसके हिस्से भी यह नीम करेली हक़ीक़त सामने आई थी. जिस बादशाह ने उसकी मोहब्बत के लिए ताजमहल बनवा खुद को अमर कर लिया…उसकी मोहब्बत वाकई किसके लिए थी? उन शाही स्त्रियों की जिंदगी बस एक ख्वाब थी जिसमें वे पूरी जिंदगी भटकती थीं…. उनके लिए हरम की जिंदगी किसी खौफनाक खेल की तरह थी जिसमें उनकी बाजी कभी भी पलट सकती थी.
यह ‘हरम’ ऐसी जगह है जहाँ कवि भी बार-बार लौटता है और मुग़ल स्त्रियाँ भी. अन्य सभी स्त्री किरदारों के साथ जिन्नतुनिसा जो औरंगजेब की छोटी बेटी थी, के माध्यम से कवि ने शाही मुग़ल घरानों में शहजादियों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार को दिखाया है. वह जानती थी कि हरम में शहजादियों से उनके निकाह की बात करना क़ैद से लेकर चाबुक की मार तक पहुँचना है. उसे यही लगता था कि मुग़ल सल्तनत शहजादियों की गोदें शहजादों के बच्चों को पालने के लिए खाली रखती हैं .[6]
उनकी शादी न करना और ताउम्र उन्हें हरम में बैठाए रखना मुग़लिया शासकों के जुल्म की इंतिहा थी. सारी उम्र उस कब्रगाह में काटने के बाद वे शहजादियाँ झुर्रियों वाली भूतनियों में बदल जाया करतीं…जो जीते जी अपने छत से लटके होने की कल्पना करतीं. पवन दाराशिकोह की बेटी जहाँजेब बानो जो औरंगजेब की बहू थी को हमारे सामने लाते हैं जो औरंगजेब के सामने घुटने नहीं टेकती बल्कि अपनी नफरत और बगावत से उसे झुकने पर मजबूर कर देती है. वहीं एक कविता तानी में तानसेन की प्रेमिका का जिक्र आता है जो उससे बहुत वाजिब सवाल पूछती है कि तुमने मेरे प्यार में धर्म तो बदल लिया लेकिन क्या मुझमें और संगीत में किसी एक को चुन पाओगे?
गुलबदन बेगम और उनके जैसी असंख्य स्त्रियाँ जैसे माहम अंगा, रोकैया बेगम, अफ़रोज बेगम, सलीमा बेगम, खानम सुल्तान बेगम, चाँद बीबी, मजहरी बेगम और न जाने उन जैसी कितनी ही बेगमें, शहजादियाँ और साधारण स्त्रियाँ इतिहास के पन्नों से धूल की तरह उड़ा दी गईं. उन्हें फिर से ढूँढना और उनके एहसासात को तफ़सील से लिखना इतना आसान नहीं रहा होगा लेकिन पवन करण जैसे नुक़्ता-ए-नज़र (critical perspective) रखने वाले कवि ने इस बेहिस वक्त की मांग करने वाले इस मुश्किल काम को बेहद खूबसूरती और शिद्दत से अंजाम दिया. उन्हें इस बात के लिए दिली मुबारकबाद और इस तरह की खोई औरतों को आगे भी सबके सामने लाते रहने के लिए ज़िन्दाबादी हौसला-अफ़ज़ाई
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सन्दर्भ
[1] अरबी शब्द ‘हरम’ का मतलब होता है पवित्र या वर्जित जबकि फारसी में हरम का मतलब होता है अभयारण्य. मुग़ल काल में हरम को बहुत खास दर्जा मिला हुआ था. मुग़ल बादशाह अकबर जब साल 1556 में सल्तनत की गद्दी पर बैठे तो उन्होंने जो सबसे पहला काम किया वह था हरम को संस्थागत दर्जा देना. उस समय हिजड़ों को ‘ख्वाजा सार’ कहा जाता था. यही हरम की सुरक्षा संभाला करते थे.
[2] ख़ानजादा बेगम, स्त्री मुग़ल , पवन कारण, राधाकृष्ण पेपरबैक, नई दिल्ली ,2023 , पृष्ठ 11
[3] ईशान दौलत बेगम, पवन कारण, राधाकृष्ण पेपरबैक, नई दिल्ली ,2023 , पृष्ठ 17
[4] हबीबा बेगम, स्त्री मुग़ल, पवन कारण, राधाकृष्ण पेपरबैक, नई दिल्ली, 2023, पृष्ठ 38.
[5] बीबीबाई, स्त्री मुग़ल, पवन कारण, राधाकृष्ण पेपरबैक, नई दिल्ली, 2023, पृष्ठ 56.
[6] जिन्नतुनिसा, स्त्री मुग़ल, पवन कारण, राधाकृष्ण पेपरबैक, नई दिल्ली, 2023, पृष्ठ 175.
संपर्क: 32, इग्लिंग रोड, सिविल लाइन, |
‘स्त्री मुग़ल’ के बहाने एक सुचिंतित लेख। जो पुस्तक की खूबियों को तो बताता ही है; साथ ही साथ उसके बहाने समीक्षक मुग़ल इतिहास के कुछ बारीक और अनजाने पहलुओं से भी परिचित कराया है। कवि और समीक्षक को साधुवाद!!!
बढ़िया लिखा सुप्रिया जी ने।
इसको पढ़ने के बाद थोडी और उत्सुकता जगी कि पवन करण जी ने मुगल स्त्रियों के अन्य साधारण स्त्रियों के साथ संबंध को किस रूप में देखा है ?उस समय सिर्फ वहीं स्त्रियां नहीं रही होंगी जो हरम में रहकर लिख पढ़ रही थी।उस जगह तक की पहुंच उन चंद स्त्रियों के पास भी थी, जो न जाने कितने कामों के लिए वहां आया जाया करती थीं।दूध पिलाने वाली धाय जैसे अन्य कितने उदाहरण है।
दूसरा स्त्रियां भक्ति काल की धारा में जो भी रच रहीं थीं, क्या वह वो उस काल के प्रतिरोध से भी जुड़ा हुआ था? या उसमें किसी प्रकार का अवरोध रहा? इसे पवन जी ने कैसे अपनी कविताओं में उतारा है, इसे पढ़ना बहुत ही दिलचस्प होगा ।