दिल्ली में ग़ालिब 1813 से 1826 तकसच्चिदानंद सिंह |
1813 के आसपास ग़ालिब ने दिल्ली रहने की ठान ली. आगरा छोड़ वे दिल्ली क्यों गए, यह ठीक ठीक नहीं कहा जा सकता. आगरे में वे अपनी ननिहाल में रहते थे. ननिहाल में रहना अपने घर में रहना नहीं होता. शादी के बाद अनिश्चित काल तक अपनी पत्नी के साथ वहीँ बने रहना शायद उस कच्ची उम्र में भी उन्हें सही नहीं लगा हो. और ननिहाल की उस बड़ी हवेली को छोड़ आगरे में किसी छोटे मकान में रहने की बात भी शायद उनके आत्मसम्मान को मंजूर नहीं हो रही हो. फिर, दिल्ली हिन्दुस्तान की पुरानी राजधानी तो रही ही है.
सोलहवीं से सतरहवीं सदी के मध्य तक मुगलों की राजधानी आगरा थी. शाहजहानाबाद बसाने के बाद बादशाह शाहजहाँ ने दिल्ली को फिर से दारुल हुकूमत (राजधानी) बनाया. अठारहवीं सदी में बाहरी (ईरानी, अफ़ग़ान) और अंदरूनी (मराठा, सिक्ख, रोहिल्ले आदि) आक्रामकों के हाथों दिल्ली बार-बार तबाह होती रही थी और दिल्ली वाले भी अपना शहर छोड़ कर आगरा, लखनऊ, या कहीं और भागने पर मजबूर हो गए थे. पर उन्नीसवीं सदी के शुरू होते होते, द्वितीय मराठा युद्ध के बाद मराठा सरदारों को बेदखल कर अंग्रेजों ने दिल्ली पर अपना हक़ जमा लिया था. दिल्ली में मुग़ल बादशाह के स्वांग को उन्होंने बनाए रखा और इसी वजह से 1835 में जब कंपनी ने उत्तर भारत में लेफ्टिनेंट गवर्नर बहाल करने की सोची तो उसके दफ़्तर को दिल्ली की जगह आगरे रखा, जिससे गाहे बगाहे ले. गवर्नर को बादशाह को सम्मान देते रहने की जरूरत नहीं पड़े.
1835 तक ले. गवर्नर के दफ़्तर के चलते, कम्पनी के प्रशासन की दृष्टि से, आगरा शायद दिल्ली से अधिक महत्वपूर्ण हो गया था. दिल्ली के अंग्रेज हाकिमों के हुक्मों के खिलाफ अपील आगरे में ही की जा सकती थी. मगर 1813 में आगरे में, लेफ्टिनेंट गवर्नर का दरबार नहीं आया था. और जब आया तब भी वह दरबार फ़ारसी संस्कृति को बस सह भर सका था; न उसे सराह सकता था और न ही प्रोत्साहित कर सकता था. पर ये सब बाद की बातें हैं, ग़ालिब के दिल्ली चले जाने के बीस साल बाद की. पन्द्रह के होते होते ग़ालिब के दिलो दिमाग फ़ारसी अदब और तहज़ीब में डूब चुके थे, चाहे अब्दुस समद के साथ वे रहे हों या नहीं. शेरो ग़ज़ल कहना उन्होंने पन्द्रह के पहले से शुरू कर दिया था. उनकी साहित्यिक प्रतिभा को चमकने के लिए और उनकी सांस्कृतिक अन्तःप्रेरणा के तुष्ट होने के लिए आगरा अपर्याप्त था; दिल्ली बहुत अधिक उपयुक्त थी.
फिर, ग़ालिब के विवाह के बहुत पहले दिल्ली पूरी तरह सुरक्षित भी हो चुकी थी. उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से दिल्ली की आबादी बढ़ रही थी. आस पास के सभी रियासतों के राजा, नवाब दिल्ली रहने लगे थे. ग़ालिब की ससुराल वाले भी, यद्यपि उनका अपना दारुल हुकूमत फिरोज़पुर था, दिल्ली में ही रहते थे. विवाह के पहले भी ग़ालिब दिल्ली से अनजान नहीं थे. उन्होंने लिखा है, वे सात साल की उम्र से दिल्ली जाते रहे थे. और जब तेरह की उम्र में उनकी शादी इलाही बख्श खाँ ‘मअरूफ’ की बेटी से हुई तो आगरा छोड़ दिल्ली बसने के विचार के पीछे शायद ननिहाल छोड़ अपनी ससुराल के निकट रहने के विचार भी उनके अंतर्मन में रहे हों.
मिर्ज़ा नौशा
दिल्ली आने के बाद कुछ दिन वे अवश्य अपने ससुर इलाही बख्श खाँ के साथ रहे. उनके एक फ़ारसी खत से पता चलता है कुछ समय ससुराल में बिताकर उन्होंने अपने रहने के लिए एक मकान खरीद लिया था(1). यह अकेला सन्दर्भ मिलता है कि ग़ालिब का कभी कोई अपना मकान भी रहा था. इसे छोड़, सारी ज़िंदगी या तो वे किराए के मकान में रहे या कभी कभी किसी स्वजन के मकान में. यूँ इस अपने मकान के विषय में भी कुछ संदेह है. कहीं कहीं यह भी पढ़ने को मिलता है कि ग़ालिब ने दिल्ली आने पर सबसे पहले किसी शाबान खाँ की हवेली ली थी. शाबान बेग की हवेली का ज़िक्र ग़ालिब ने फरवरी 1862 के अपने चचेरे भांजा मिर्ज़ा अलाउद्दीन अहमद ख़ाँ अलाई को लिखे एक ख़त में किया है.
“ये वो दिल्ली नहीं है … जिसमे तुम शाबान बेग की हवेली में मुझसे पढ़ने आते थे(2).”
इस हवेली की स्थिति उन दिनों हब्बाश खाँ के फाटक के पास बतायी जाती थी. यह इलाका आज श्यामा प्रसाद मुखर्जी मार्ग पर, कभी रहते नॉवेल्टी सिनेमा के पिछवाड़े बताया जाता है. लेकिन इसके बारे में यही कहा जाता है कि इस हवेली को ग़ालिब ने किराये पर ली थी न कि खरीद ली थी.
यह पता नहीं चलता कि वे अपनी ससुराल में कितने दिन रहे थे. ससुराल में रहते समय ही वे मिर्ज़ा नौशा कहलाने लगे. उर्दू में नौशा दूल्हे को कहते हैं और शादी के समय या उसके काफी दिनों बाद तक भी दूल्हे को उसकी ससुराल में नौशा मियाँ कहा जाता है. आज भी दूल्हे को, अनेक हिंदू घरों में भी, नौशा कहने की प्रथा है. कोई ताज्जुब नहीं कि पन्द्रह वर्ष के ग़ालिब अपनी ससुराल में मिर्ज़ा नौशा कहलाए, और इस नाम से ससुराल के बाहर भी जाने गये. ग़ालिब को यह मिर्ज़ा नौशा संबोधन, कहा जाता है, सख्त नापसंद था(3).
उन्हें अपने पैत्रिक परिवार के इतिहास पर गर्व था. उनके प्रपितामह तरसम बेग को कहीं-कहीं सुलतानज़ादा तरसम बेग़ खाँ भी बताया गया है(4).
ग़ालिब अपने को सुल्तानों के वंशजों में गिनते थे. किसी सुलतान के वंशज को लोग-बाग कभी घोड़ों के व्यापारी रहे इलाही बख्श के दामाद के रूप में जाने, यह उनके आत्मसम्मान को शायद स्वीकार्य नहीं था.
मिर्ज़ा इलाही बख्श खाँ के घर रहते हुए ग़ालिब का दिल्ली के संभ्रांत समाज से परिचय हुआ होगा, दिल्ली के सुखनवरों से भी. उनके ससुर इलाही बख्श खाँ ‘मअरूफ़’ एक अच्छे शायर थे, रईस थे और धर्म विशारद के रूप में भी जाने जाते थे.
इलाही बख्श खाँ को बहुत लोग एक पीर (आध्यात्मिक गुरु) मानते थे. पीर के मुरीद (शिष्य) होते हैं और इलाही बख्श भी मुरीद स्वीकार करते थे. अपने मुरीदों में बाँटने के लिए उन्होंने अपने मुर्शिद, फिर उनके मुर्शिद आदि का एक सिलसिला भी बना रखा था, जिससे यह स्पष्ट होता था कि उनके सिलसिले में कौन-कौन पीर हुए थे. यह सिलसिला पैगम्बर मुहम्मद से शुरू होकर, मुरीदों और मुर्शिदों के नाम गिनाते हुए इलाही बख्श पर समाप्त होता था. ग़ालिब के मित्र, शागिर्द और पहले जीवनीकार अल्ताफ़ हुसैन हाली ने ‘यादगारे ग़ालिब’ में लिखा है, एक बार इलाही बख्श ने ग़ालिब को अपने इस सिलसिले की एक नक़ल तैयार करने को कहा, जिस की प्रतियां वे किसी क़ातिब से लिखवा कर अपने नए मुरीदों को देने की सोच रहे थे.
एक लंबी श्रृंखला की नक़ल उतारने का काम ग़ालिब को पसंद नहीं आया. इस उबाऊ काम को जल्द खत्म करने के लिए ग़ालिब ने सिलसिले से हर दूसरे नाम को हटाते हुए लिखा, यानी पहले के बाद तीसरा फिर पाँचवा … इसी तरह. पूरा होजाने पर उन्होंने मूल प्रति और अपनी उतारी ‘नक़ल’ इलाही बख्श को सौंप दी. नक़ल देख इलाही बख्श बहुत नाराज हुए और पूछा, “ये क्या कर दिया आपने?”
“जनाब इस पर कुछ नहीं सोचें”, ग़ालिब ने कहा था,
“यह सिलसिला तो एक सीढ़ी है जिस पर चढ़ कर कोई ईश्वर तक पहुँच सकता है. सीढ़ी से हर दूसरे डंडे को हटा देने पर चढ़ने वाले को थोड़ी मशक्क़त करनी पड़ेगी लेकिन चढ़ तो वह जाएगा ही.”
इस जवाब को सुन इलाही बख्श, जैसा सोचा जा सकता है, और भी अधिक नाराज हुए. ग़ालिब के लिखे को फाड़ कर नयी नक़ल तैयार करने का काम उन्होंने किसी और को सुपुर्द किया और ग़ालिब इस तरह के काम से हमेशा के लिए मुक्त हो गये.
इलाही बख्श खाँ ‘मअरूफ़’ के आवास पर साहित्य-प्रेमियों की गोष्ठी अक्सर हुआ करतीं थीं. इन गोष्ठियों में शायर और शायरी के शौक़ीन रईस शरीक होते थे. तरुण ग़ालिब को दिल्ली ने पहले पहल शायद उन्हीं महफ़िलों में देखा और अपनी ससुराल की इन्हीं महफ़िलों से ग़ालिब अपने नए उपनाम मिर्ज़ा नौशा से मशहूर हुए होंगे.
तरुण ग़ालिब और फ़ारसीयत
इसमें कोई संदेह नहीं कि ग़ालिब की शायरी दिल्ली के साहित्य-प्रेमियों को बहुत पसंद नहीं आई होगी. ग़ालिब, उन दिनों, फ़ारसीयत से भरे हुए थे. उनके अशआर ऐसे बनते थे जिनमे महज एक या दो लफ्ज़ बदल देने से वे उर्दू की जगह फ़ारसी के दिखने लगें. बतौर बानगी, 1816 (जब वे उन्नीस वर्ष के थे) या उससे पहले की उनकी कही ग़ज़लों से कुछ शेर हैं:
जराहत तुहफ़ा अलमास अर्मुग़ाँ दाग़-ए जिगर हदया
मुबारक बाद असद ग़म्ख़्वार-ए जान-ए दर्दमंद आया
(ज़ख्म एक तोहफ़ा, हीरक एक उपहार, हृदय की वेदना एक अर्पण
बधाई हो असद, दर्दमंद जान वाला एक ग़मख्वार आया है)
पहले मिसरे में कोई क्रिया नहीं है, बस संज्ञा की एक फेहरिश्त; उर्दू और फ़ारसी में इसे बस एक समान ही कह सकते हैं. दूसरे मिसरे में क्रिया शब्द ‘आया’ के बदले अगर फ़ारसी का शब्द लिख दिया जाए तो शे’र फारसी का हो जाए! उनके कुछ और शे’र उस शुरुआती दौर के, सभी उन्नीस की वय में या उससे पहले लिखे गए, पेश हैं:
नक़्श-ए नाज़-ए बुत-ए तन्नाज़ ब आग़ोश-ए रक़ीब
पा-ए ताऊस पए ख़ामा-ए मानी मांगे
(रक़ीब के आग़ोश में उस चपला के नाज़ का चित्रण
मानी की तूलिका नहीं, मयूर के चरण से हो सकता)
इस शे’र में इज़ाफ़त(5) के चलते उर्दू और फ़ारसी का भेद कर पाना कठिन रहता यदि अंत में ‘मांगे’ नहीं आता जो फ़ारसी में प्रयुक्त नहीं होता. इस ग़ज़ल के बस तीन शे’र मिलते हैं. ग़ज़ल अवश्य लंबी रही होगी पर उसके अन्य शे’रों को ग़ालिब ने दीवान से हटा देना उचित समझा होगा. एक और उसी काल का:
गर्दिश-मुहीत-ए ज़ुल्म रहा जिस क़दर फ़लक
मैं पाए-माल-ए ग़मज़ा-ए चश्म-ए कुबूद था
(जब तक क्रूरता के अंक में नभमंडल घूमता रहा
एक नील नेत्र की पूर्णदृष्टि के पैर मुझे रौंदते रहे)
तरुण ग़ालिब की शायरी में इतनी फ़ारसीयत देखने को क्यों मिलती है इस पर मालिक राम ने लिखा(6) है,
“उर्दू न सिर्फ एक नयी भाषा थी, बल्कि अभी उसमें ऐसे प्रभावकारी शब्द-भण्डार और पदविन्यास का भी अभाव था जो उनके विचारों के अनुकूल होता. यह स्थिति विशेष रूप से उभर कर इसलिए भी सामने आती थी कि वे तब …. बेदिल की शायरी से प्रेरणा ग्रहण कर रहे थे और बेदिल विषय और शैली दोनों की ही दृष्टि से फ़ारसी के शायद सबसे कठिन और मुश्किल से पकड़ में आने वाले शायर हैं.”
मालिक राम के इस विचार से, कि उर्दू में उपयुक्त शब्दों की कमी के चलते ग़ालिब ने अपनी उर्दू शायरी में फ़ारसी के दुरूह शब्दों के प्रयोग किये, मैं सहमत नहीं हो पाता हूँ. मुझे लगता है तरुण ग़ालिब अपनी क्लिष्ट शायरी से सुनने वालों को चकित करने की कोशिश कर रहे थे.
मगर इलाही बख्श खाँ की महफ़िलों के क़द्रदानों को फारसी लफ़्ज़ों से बहुत कठिनाई नहीं हो सकती थी. उस काल के उच्च वर्ग के लिए, विशेषकर मुस्लिम उच्च वर्ग के लिए, फ़ारसी द्वितीय भाषा, कभी कभी तो प्रथम भाषा थी. मगर फ़ारसीयत से परे, ग़ालिब के अशआर अपने अभिप्राय में प्रायः इतने गूढ़ होते थे कि फ़ारसी के जानकार श्रोता भी उनमें कुछ खास नहीं पाते थे और कभी कभी विस्तृत विश्लेषण करने के बाद उन्हें लगता होगा कि “खोदा पहाड़ तो निकली चुहिया”. यूँ भी ग़ालिब का पूरा रसास्वादन अधिकांश श्रोताओं के वश की बात नहीं थी. इस की विस्तृत चर्चा आगे होगी,
अभी ग़ालिब के लिखे एक खत के कुछ अंश: “क़िब्ला, इब्तिदाए फ़िक्र-ए सुखन (काव्य रचना के आरंभिक दिनों में) ‘बेदिल’ व ‘असीर’ व ‘शौकत’ के तर्ज़ पर रेख़्ता लिखता था. चुनांचे एक ग़ज़ल का मक़ता (अंतिम शेर) ये था-
तर्ज़े ‘बेदिल’ में रेख़्ता लिखना
असदुल्लाह खाँ क़यामत है (7)
“15 बरस की उम्र से 25 बरस की उम्र तक मज़ामीने ख़याली (खयाली मज़मून, काल्पनिक विषय) लिखा किया. दस बरस में बड़ा दीवान जमा हो गया. आख़िर जब तमीज़ आई तो उस दीवान को दूर किया. औराक़ (पृष्ठ, वर्क़ का बहुवचन) एक क़लम चाक किये (पूरे फाड़ दिए). दस पन्द्रह शे’र वास्ते नमूने दीवाने हाल में रहने दिए.(8)”
पन्द्रह से पचीस, अगर हिजरी साल माने जाएँ तो तो यह काल ई. 1812 से 1821 तक का हुआ. 1816 से पहले की कोई रचना उनके दीवान में नहीं मिलती.
मुश्किल पसंद शायर
इस सिलसिले में दो रोचक प्रसंग सुने गए हैं. एक महफ़िल में कभी हकीम आग़ा जान ‘ऐश’ देहलवी ने एक क़ितआ पढ़ा था:
अगर अपना कहा तुम आप ही समझे तो क्या समझे
मज़ा कहने का जब है इक कहे और दूसरा समझे
कलाम-ए मीर समझे और ज़बान-ए मीरज़ा समझे
मगर उनका कहा ये आप समझें या ख़ुदा समझे
(मीरज़ा यहाँ मिर्ज़ा मोहम्मद रफ़ी ‘सौदा’ के लिए है.)
उन दिनों दिल्ली के सबसे नामवर शायर ज़ौक थे. ज़ौक बादशाह के उस्ताद नहीं बने थे क्योंकि उनके शागिर्द शहजादा सिराजुद्दीन को अभी बादशाह बहादुर शाह बनने में बहुत देर थी मगर शहर की महफ़िलों में ज़ौक और ग़ालिब की तकरार होती रहती थी. आग़ा जान ‘ऐश’ देहलवी ज़ौक के तरफदार थे और शायद इसीलिए ऐश ने ग़ालिब पर यह तंज कसा हो. मगर ग़ालिब की शायरी पर इस खुले व्यंग्य को बस ग़ालिब और ज़ौक की प्रतिस्पर्धा का फल नहीं कहा जा सकता.
किसी और बज़्म में एक बार मौलवी अब्दुल क़ादिर रामपुरी ने, जो बहुत विचारवान माने जाते थे और जिनकी दिल्ली में बहुत प्रतिष्ठा थी, ग़ालिब से कहा था कि वे ग़ालिब के इस शे’र का अर्थ नहीं समझ पा रहे थे(9):
पहले तो रोग़न-ए गुल भैंस के अंडे से निकाल
फिर दवा जितनी है कुल भैंस के अंडे से निकाल
ग़ालिब ने चकित स्वर में आपत्ति की कि ऐसा कोई शे’र उन्होंने कभी कहा ही नहीं. अब्दुल क़ादिर ने भी पूरा विश्वास दिलाते हुए कहा कि यह शे’र ग़ालिब ने कहा है और यदि उनका दीवान उपलब्ध कराया जाए तो वे अभी उस शे’र को दिखा सकते हैं. बज़्म में कुछ लोग मुँह दाब कर हँसी रोकने के प्रयास कर रहे थे. थोड़ी देर में ग़ालिब समझ पाए कि मौलवी साहब ने मजाक किया था किंतु मजाक ही में वे कह गए थे कि ग़ालिब के अनेक शे’र प्रायः उतने ही बेमानी (निरर्थक) लगते हैं जितनी यह भैंस के अण्डों से रोग़न-ए गुल निकालने की बात.
बेमानी शे’र जिनके अर्थ बस ख़ुदा समझ सकें और भैंस के अण्डों से तमाम दवाएं निकालने की बातें सुनकर भी ग़ालिब पर क्या असर पड़ा होगा? तरुण ग़ालिब के आत्मविश्वास की झलक उनके एक अप्रकाशित शे’र में मिलती है:
हूँ गर्मी-ए निशात-ए तसव्वुर से नग़मा-संज
मैं अंदलीब-ए गुलशन-ए ना-आफ़रीदा हूँ
नग़मा-संज: गाने में (नग़मा को नापने में) तल्लीन
अंदलीब: बुलबुल
ना-आफ़रीदा: नहीं बना हुआ, असृजित
1816 में लिखे इस शे’र को ग़ालिब ने अपने दीवान में जगह नहीं दी; पूरी ग़ज़ल ही हटा दी. जब कि 1828 के आसपास अपनी उर्दू और फ़ारसी शायरी का एक संकलन, ‘गुल-ए राना’ तैयार करते समय ग़ालिब ने इस शे’र को तो उसमें नहीं रखा था किंतु जिस ग़ज़ल का यह शे’र है, उसके आठ में से तीन शे’र उसमें शुमार किये थे.
व्यंग्य और कटोक्तियों का ग़ालिब पर कोई असर नहीं पड़ा. वे समझ रहे थे कि उनका समय अभी नहीं आया है, कि वे एक ना-आफ़रीदा गुलशन के बुलबुल हैं, जो अपनी कल्पना के आनंद के जोश में गाता रहता है!
दिल्ली के मुशायरों में कुछ शायर भारी भरकम फ़ारसी लफ़्ज़ों की बेमानी शायरी बस ग़ालिब को सुनाने के लिए लाते थे. ग़ालिब ऐसी आलोचना आगरे से सुनते आ रहे थे. 1821 में उन्होंने एक ग़ज़ल कही थी, जिसमे एक शे’र था:
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
गर नहीं हैं मिरे अशआर में मानी न सही
सताइश: प्रशंसा
सिला: उपहार, ईनाम
(न प्रशंसा की चाह न ईनाम की परवाह
यदि मेरे शे’र निरर्थक हैं, तो यही सही)
इस शे’र से ऐसा लग सकता है कि ग़ालिब ने अपने हथियार धर दिए हैं, हार मान ली है. पर ऐसा बिल्कुल नहीं था. इसी वर्ष, 1821, का कहा ग़ालिब का एक और शे’र है:
गर ख़ामुशी से फ़ायदा इख़फ़ा-ए हाल है
ख़ुश हूँ कि मेरी बात समझनी मुहाल है
इख़फ़ा-ए हाल: अप्रकट स्थिति
मुहाल: बुद्धिविरुद्ध, असंभव
(यदि मौन का लाभ स्थिति का अप्रकट रह जाना है
तो मैं प्रसन्न हूँ कि मेरा कहा समझ पाना असंभव है)
मेरी बात समझ में नहीं आती, सुनने वाले चुप बैठे रहते हैं, और कोई नहीं जानता कि वे इतना भी नहीं समझ पाए! अन्यत्र ग़ालिब ने एक क़’तआ लिखा है:
मुश्किल है ज़बस कलाम मेरा ऐ दिल
सुन सुन के उसे सुखनवरान-ए कामिल
आसाँ कहने की करते हैं फ़र्मायिश
गोयम मुश्किल व-गर-न गोयम मुश्किल
(मेरा लिखा मुश्किल है, उसे सुन कर श्रेष्ठ कवि भी कुछ सरल लिखने की कहते है, लेकिन मैं मुश्किल लिखता हूँ वरना लिखना मेरे लिए मुश्किल है.)
सपष्ट है कि ग़ालिब अपनी मुश्किल शायरी के लिए शर्मिन्दा नहीं थे, वे अपनी शायरी में (या अपने में) कोई ऐब नहीं देख पा रहे थे. वे सुनने वालों की कमी देख रहे थे जिन्हें उनका लिखा समझने में कठिनाई हो रही थी. ग़ालिब अपनी शैली शायद कभी नहीं बदलते यदि फ़ज़्ल-ए हक़ ख़ैराबादी(10) ने उन्हें नहीं समझाया होता. ग़ालिब के दिल में फ़ज़्ल-ए हक़ के लिए बहुत इज़्ज़त थी; उन्हें वे सही मायने में सुखन-फ़हम (कविता समझ पाने वाला) और फ़ारसी की सही समझ रखने वाले बिरले हिंदुस्तानियों में गिनते थे. फ़ज़्ल-ए ह्क़ के भी ग़ालिब के बारे में ऐसे ही विचार थे.
ख़ैराबादी फ़ारसी के विद्वान और एक विख्यात धार्मिक चिन्तक थे. उनके धार्मिक विचार शाह वलीअल्लाह के सिलसिले के विद्वानों के विचार से, यानी वह्हाबी विचारों से, मेल नहीं खाते थे. एक बार ख़ैराबादी ने ग़ालिब से वह्हाबी सोच की एक मूलभूत धारणा का खंडन करता मसनवी भी लिखवाया था. ग़ालिब उदार धार्मिक विचार रखते थे, छिद्रान्वेषण से कोसों दूर. ख़ैराबादी के लिए लिखी मसनवी में उन्होंने भूल से ख़ैराबादी के ही मत का विरोध कर दिया था – यह बताता है कि ग़ालिब धार्मिक संकीर्णता से कितनी दूर थे. ख़ैराबादी उन्हें समझते थे और इस बात से उनके आपसी संबंध पर कोई असर नहीं पड़ा.
मौलवी फ़ज़्ल-ए हक़ साहब और ग़ालिब करीबी दोस्त थे. ग़ालिब उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे मगर मज़ाक करने से बाज नहीं आते थे. मुहम्मद हुसैन आज़ाद के ‘आब-ए हयात’ में उनकी बेतकल्लुफ़ी का एक दिलचस्प वाकया मिलता है. कभी ग़ालिब उनसे मिलने गए थे तो मौलवी साहब ने, जैसी उनकी आदत थी, उठ कर अमीर ख़ुसरो द्वारा पद्य में रचित छोटे से फ़ारसी-हिंदवी कोश “ख़ालिक़ बारी” से एक पंक्ति कही, “आओ भाई, आओ भाई” और ग़ालिब को बिठा कर खुद बैठे. ‘ख़ालिक़ बारी’ एक अर्से थे मदरसों में पढ़ायी जा रही थी और अधिकतर शिक्षित लोगों को वह किताब अंशतः याद थी. मौलवी साहब के बैठने के थोड़ी ही देर बाद घर के अंदर वाले बरामदे से उनकी उपपत्नी (रखनी) आयीं और उनके साथ बैठने लगीं. मिर्ज़ा ने मुसकुराते हुए कहा,
“अब जनाब अगली पंक्ति भी कह ही दीजिये, “आह, बैठो अम्मी, बैठो अम्मी”.
उनके शिष्य और उनके पहले जीवनीकार हाली ने लिखा है,
“ग़ालिब बहुत समझदार थे और आलोचकों से सही सबक लेते हुए वे धीरे-धीरे अपेक्षाकृत सरल लिखने लगे. साथ ही फ़ज़्ल-ए ह्क़ के साथ उनके संबंध और प्रगाढ़ हो गए, इतने कि ग़ालिब ने जब अपना उर्दू दीवान संकलित किया तो फ़ज़्ल-ए ह्क़ की सलाह पर उन्होंने अपने लिखे लगभग दो तिहाई को दीवान में शुमार नहीं किया.”
इस मुश्किल पसंदगी के दौर में भी उन्होंने कुछ बहुत स्पष्ट और सरल शेर भी कहे. 27 जुलाई 1862 को अपनी बीवी उमराव के एक भतीजे मिर्ज़ा अलाउद्दीन खाँ अलाई को एक ख़त में ग़ालिब ने यूँ लिखा है:
“… पचास बरस की बात है, इलाहीबख़्श खाँ मरहूम (ग़ालिब के श्वसुर) ने एक ज़मीन (क़ाफ़िया और रदीफ़ मिलकर ‘ज़मीन’ कहलाते हैं) नयी निकाली और मैंने हस्बुल हुक़्म ग़ज़ल लिखी.”
1862 में लिखा पचास साल पहले, यानी 1812, मगर साल वे हिजरी में गिनते थे तो 1814 भी हो सकता है. वह ग़ज़ल है:
वो आ के ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे
वले मुझे तपिश-ए-दिल मजाल-ए-ख़्वाब तो दे
करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
तिरी तरह कोई तेग़-ए-निगह को आब तो दे
दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को
न दे जो बोसा तो मुँह से कहीं जवाब तो दे
पिला दे ओक से साक़ी जो हमसे नफ़रत है
पियाला गर नहीं देता न दे शराब तो दे
असद ख़ुशी से मेरे हाथ पाँव फूल गए
कहा जो उसने ज़रा मेरे पाँव दाब तो दे
इस ग़ज़ल को ग़ालिब ने अपने दीवान में जगह नहीं दी थी. न सिर्फ यह सहज बोधगम्य है शायद कुछ घटिया (kitsch) भी; पर चौथा शेर शायद सबों को कुछ लुत्फ़ दे.
ग़ालिब कैसे दीखते थे
मुशायरों में ग़ालिब का लगातार मज़ाक उड़ते रहने से ऐसा लग सकता है कि तरुण ग़ालिब को समाज में घुलने मिलने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा. मगर ऐसा कुछ नहीं था. उनके कवित्व की आलोचना घोर थी, व्यापक भी किंतु कटुतापूर्ण बिल्कुल नहीं. कहते थे, ‘वो मिर्ज़ा नौशा ही क्या जो वक्त के हिसाब से सही और मजेदार बात न बोले’. ग़ालिब लोकप्रिय थे, हाज़िर जवाब, हँसमुख और सुदर्शन. देखने में वे कैसे थे? इस प्रश्न का उत्तर उन्होंने स्वयं एक पत्र में दिया है. 1859 में ग़ालिब ने हातिम अली ‘महर’ को लिखा है:
“मेरा क़द दराज़ी (लम्बाई) में अंगुश्तनुमा (जिसकी ओर लोग संकेत करते हैं, उल्लेखनीय) है. … जब मैं जीता था (1859 तक वे उम्रदार हो चुके थे, प्रायः बीमार हो जाते थे और अपने को नीमजान बताते थे; अपना यह वर्णन उन्होंने अपनी युवावस्था का दिया है) तो मेरा रंग चम्पई था और दीदावर उसकी सताइश (प्रशंसा) किया करते थे. अब जो कभी मुझको अपना वो रंग याद आता है तो छाती पर साँप लोट जाता है. … जब दाढ़ी मूंछ में सफेद बाल आगए, तीसरे दीन चिवँटी के अंडे गालों पर नज़र आने लगे, इससे बढ़ कर ये हुआ कि आगे के दो दाँत टूट गए, नाचार मिस्सी(11) भी छोड़ दी और दाढ़ी भी. मगर ये याद रखिये इस भौंडे शहर में एक वर्दी है आम– मुल्ला, हाफ़िज़, बिसाती, नेचाबंद, धोबी, सक्का, भटियारा, जुलाहा, कंजड़ा, मुँह पर दाढ़ी, सर पर बाल. फ़क़ीर ने जिस दिन दाढ़ी रखी उसी दिन सर मुड़वाया.(12)”
हाली की ग़ालिब से निकटता उनकी वृद्धावस्था में हुई थी. उसने लिखा है,
“दिल्ली के लोगों ने, जिन्होंने ग़ालिब को उनकी युवावस्था में देखा था, मुझे बताया है कि वे शहर के सबसे खूबसूरत, बाँकों में गिने जाते थे. उनके वार्धक्य में भी, जब मैं पहली बार उनसे मिला था, कोई देख सकता था कि कभी वे कितने खूबसूरत रहे होंगे. लम्बा कद, चौड़ी काठी, मजबूत बाजू … वे तब भी ऐसे लगते थे जैसे अभी अभी तूरान से आये हों.”
ग़ालिब का प्रेम प्रसंग
और ऐसे बाँके जवान का कोई प्रेम प्रसंग नहीं रहा हो तो कुछ अजीब ही लगेगा. हमें ग़ालिब के एक प्रेम प्रसंग की ठोस जानकारी है. 1859 या 1860 में ग़ालिब के एक मित्र हातिम अली ‘महर’ ने ग़ालिब को अपनी मा’शूक़ा की असमय मृत्यु की बात बतायी थी. उसे सांत्वना देते हुए ग़ालिब ने लिखा,
“भाई, मुग़लचे (मुग़ल लोग) भी ग़ज़ब होते हैं, जिस पर मरते हैं, उसको मार रखते हैं. मैं भी मुग़लचा हूँ. उम्र भर में एक बड़ी सितमपेशा डोमनी को मैंने भी मार रखा है. ख़ुदा उन दोनों (हातिम की मा’शूक़ा और ग़ालिब की डोमनी को) बख्शे हम तुम दोनों को भी के ज़ख्मे मर्ग़े दोस्त (मित्र की मृत्यु का घाव) खाए हुए हैं, मग़फ़रत करे (ईश्वर क्षमा करें). चालीस बयालीस बरस का ये वाक़या है बा आँके ये कूचा छूट गया, इस फ़न से मैं बेगानए महज़ हो गया, लेकिन अब भी कभी कभी वो अदाएं याद आती हैं. उसका मरना ज़िंदगी भर न भूलूँगा.(13)”
इस पत्र में ग़ालिब ने अपने को मुग़ल बताया है. मुग़ल वस्तुतः मंगोल का फ़ारसी पर्याय है. ग़ालिब मंगोल नहीं थे, वे अपने ईरानो-तुर्क मूल पर गर्व करते थे, जैसा उन्होंने अपने कतिपय फ़ारसी शे’रों में कहा(14) है. पर इस बात को अनदेखा करते हैं और अभी ग़ालिब की सितमपेशा डोमनी को याद करते हैं. डोमनी डोम का स्त्री वाचक लगता है, किंतु उन्नीसवीं सदी में उत्तर भारत में, कम से कम उच्च वर्ग के मुसलमानों में डोमनी से तात्पर्य रहता था नाचने गाने वाली स्त्री. खत में ग़ालिब ने उसकी मौत को चालीस-बयालीस साल पुरानी बात बतायी है. खत 1859 या 1860 का है. इस तरह डोमनी की मौत 1817 से 1820 के बीच कभी हुई होगी. ग़ालिब की एक ग़ज़ल है, जो स्पष्टतः किसी मा’शूक़ा के गुज़र जाने पर लिखी लगती है. इस ग़ज़ल का काल निर्णय बस ‘1816 के बाद’ हो पाया है. ग़ज़ल मुसलसल है, यानी इसके सभी शेर एक ही विषय पर हैं. और स्पष्टतः यह एक शोक-गीत, मर्सिया है जो शायर ने अपनी मा’शूक़ा की मौत देखते वक़्त / देखने के बाद लिखी है. मतला है,
दर्द से मेरे है तुझ को बेक़रारी हाय हाय
क्या हुई ज़ालिम तिरी गफ़लत-शिआरी हाय हाय
(मा’शूक़ा के बच पाने की कोई उम्मीद नहीं है, यह देख-सोच कर शायर को रोना आ रहा है और उसकी रुलाई देख मा’शूक़ा बेचैन हो गयी; वही निष्ठुर मा’शूक़ा जो अबतक शायर की प्रणय-वेदना पर कोई ध्यान नहीं देती थी.)
ग़ज़ल में तेरह शे’र हैं. सभी इसी रंग में हैं. एक शे’र में अपमान के शर्म से मा’शूक़ा के मृत्यु के आगोश में जा छुपने की बात है:
शर्म-ए रुस्वाई से जा छुपना नक़ाब-ए ख़ाक में
ख़त्म है उलफ़त की तुझ पर पर्दा-दारी हाय हाय
(अपमान की लज्जा से बचने के लिए तुम्हारा मिटटी में दफ़्न होकर छुप जाना, हाय, इश्क की इससे अधिक पर्दा-दारी क्या हो सकती?)
इस शेर के चलते, ग़ालिब के ‘डोमनी’ अर्थात नाचने-गाने वाली लड़की लिखने के बाद भी कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि
“लगता है वह किसी अच्छे खानदान की थी, क्योंकि … संकेत है कि उसने इस डर से कि उनका मामला उसके घर वालों तथा आम लोगों की नज़रों में एक वितण्डा बन रहा है, संभवतः आत्महत्या कर ली थी. अगर वह कोई मामूली वेश्या होती तो ऐसे किसी वितण्डे या अपमान का सवाल ही नहीं उठाता जिससे उसे अपने हाथों अपनी जान लेनी पड़ती.(15)”
और तब डोमनी को एक व्यापक अर्थ में लिया जा सकता है-
यदि कोई स्त्री या लड़की अपने रूप के प्रति कुछ अधिक सचेत हो; रूप से भी अधिक यदि वह इस बात के प्रति विशेष जागृत हो कि उसके रूप का किसी पुरुष पर क्या असर पड़ सकता है और जो अपनी यह समझ दिखाने से बाज न आये कि औरत कैसे मर्द पर राज कर सकती है … इन सारे गुणावगुणों को बस यह कह कर बताया जाता था कि ‘ज़रा उसका डोमनीपन तो देखो’.
तो क्या ग़ालिब की डोमनी किसी ‘भले घर’ की औरत थी? स्मरणीय है कि समाज में पर्दे की प्रथा रहने से शायर की प्रेमिका की पृष्ठभूमि किसी भली औरत का घर नहीं होकर किसी तवाइफ़ की महफ़िल ही रहती थी. (कभी कभी ईरानी परम्परा के अनुकूल माशूक एक अम्रद भी होता था.) अठारहवीं सदी की रचनाओं से यही लगता है कि तवाइफ़ें शहर के शिष्टाचार और सामाजिक जीवन पर छायी हुई थीं. किस हद तक, इसका एक खूबसूरत खाका मुहम्मद मुजीब ने दिया है(16):
“वह बज़्म जिसका उर्दू शायरी में इतना ज़िक्र आता है, दोस्तों की महफ़िल नहीं होती थी, लोग किसी मेज़बान की दावत (आमंत्रण) पर जमा नहीं होते थे, न तहज़ीबी मशाग़िल (कार्यों) के लिए आम इज़्तमा (सम्मलेन) होता था. ऐसी महफ़िलों में माशूक, और रक़ीब (प्रतिद्वंद्वी) और ग़ैर का क्या काम होता? मगर तवायफ़ की बज़्म में यह सब मुमकिन था. …”
“… शहर में लौंडियों और ख़ादिमाओं (सेविकाओं) और मज़दूर पेशा औरतों के सिवा सिर्फ़ तवाइफ़ें बे-नक़ाब नज़र आती थीं. नाज़-ओ-अदा दिखाने, तल्ख़ (कड़वी) और शीरीं (मीठी) गुफ़्तगू करने, लुत्फ़ और सितम से पेश आने का मौका उन्हीं को था. उन्हें नाच और गाने के अलावा गुफ़्तगू का फ़न सिखाया जाता था और तवायफ़ों की बज़्म ही एक ऐसी जगह थी जहाँ मर्द बे-तकल्लुफ़ी और आज़ादी के साथ रंगीन गुफ़्तगू, फ़िक़रेबाज़ी और हाज़िर जवाबी में अपना कमाल दिखा सकते थे.”
और ग़ालिब तवाइफ़ों से भेंट-मुलाक़ात, बात-चीत का आनंद उठाने से पीछे हटने वाले नहीं थे. 1816 के बाद कभी लिखी उनकी एक ग़ज़ल के इस शेर में प्रेमिका की महफ़िल तवायफ़ की महफ़िल ही हो सकती थी, जिसमे ग़ैर भी मौजूद थे:
मैंने कहा कि बज़्म-ए नाज़ चाहिए ग़ैर से तही
सुनकर सितम–ज़रीफ़ ने मुझको उठा दिया कि यूँ
(मैं प्रेमिका की महफ़िल को दूसरे लोगों से खाली चाहता था
सुनकर खेल खेल में अत्याचार करने वाली उसने मुझे महफ़िल से निकाल बाहर किया; किस तरह?)
मगर उनकी शायरी की महफ़िल हमेशा बज़्म-ए नाज़ नहीं हो सकती. 1816 में लिखे इस शे’र की महफ़िल में उन्नीस साल के ग़ालिब का सूफ़ियाना अंदाज़ देखने को मिलता है, (ग़ालिब ने इस शे’र को अपने दीवान से हटा दिया था):
शरर-फ़ुर्सत निगा सामान-ए यक-आलम चिरागाँ है
ब क़द्र-ए रंग याँ गर्दिश में है पैमाना महफ़िल का
(स्फुलिंग-अवधि की दृष्टि से पूरे विश्व में दीपोत्सव है
रंग के अनुपात से यहाँ महफ़िल का पैमाना घूम रहा है)
और फिर 1821 में कहे इस शे’र में मा’शूक़ा के बज़्म का एक और अंदाज़:
बू-ए गुल नाला-ए दिल दूद-ए चिराग़-ए महफ़िल
जो तिरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला
(नाला: आर्तनाद, विलाप; दूद: धुँवा; यह शे’र ग़ालिब पर बेदिल के प्रभाव का भी एक नमूना है; पहला मिसरा बेदिल के एक फ़ारसी शे’र से लिया गया है. इज़ाफत छोड़ कोई व्याकरण नहीं है जिसके चलते यह उर्दू और फ़ारसी में बिल्कुल एक समान रहता है. बेदिल का फारसी शेर है:
बू-ए गुल नाला-ए दिल दूद-ए चराग़-ए महफ़िल
हर के अज़ बज़्म-ए तू बर्खस्त परीशाँ बर्खस्त
(ग़ालिब ने पहले मिसरे को जस का तस रखा, और दूसरे का उन्होंने शब्दानुवाद रख दिया!)
अभी बज़्म-ए नाज़ को छोड़ बस ‘नाज़’ की ओर चलते हैं. हातिम अली महर के नाम 1859 के एक पत्र(17) में उन्होंने लिखा है,
“जिस ज़माने में के वो (मुग़ल जान, एक तवाइफ़) नवाब हामिद अली खाँ की नौकर थी और उनमें मुझमे बेतकल्लुफ़नुमा रब्त (संबंध) था, तो अक्सर मुग़ल से पहरों अख़्तलात (भेंट-मुलाक़ात) हुआ करते थे.”
ग़ालिब तवाइफ़ों के बज़्म से दूर नहीं गए, जैसा उन्होंने लिखा है, पचास वर्षों तक वे रंग-ओ-बू की दुनिया की सैर करते रहे लेकिन उस डोमनी के सिवा शायद फिर किसी के साथ उन्होंने दिली रिश्ते नहीं कायम किये. हातिम अली महर को ही एक दूसरे पत्र(18) में वे लिखते हैं,
“हमको ये बातें पसंद नहीं. पैंसठ बरस की उम्र है, पचास बरस आलमे रंगों बू (रंग और गंध के संसार) की सैर की है. उब्तदा ए शबाब (यौवन के प्रारम्भ) में एक मुर्शदे कामिल ने ये नसीहत की है के हमको जादो वरा (परहेजगारी) मंज़ूर नहीं. … पीओ, खाओ, मज़े उड़ाओ; मगर ये याद रहे के मिसरी की मक्खी बनो, शहद की मक्खी न बनो. सो मेरा इस नसीहत पर अमल रहा है. किसी के मरने का ग़म वो करे जो आप न मरे. कैसी अश्कफ़शानी (अश्रुवार्षा), कहाँ की मर्सियाखानी? आज़ादी का शुक्र बजा लाओ. ग़म न खाओ और अगर ऐसे ही अपनी गिरफ़तारी से खुश हो तो चुन्नाजान न सही, मुन्नाजान सही. मैं जब बहिश्त का तसव्वुर (कल्पना) करता हूँ और सोचता हूँ के अगर मग़फ़रत (क्षमा) हो गयी और एक हूर मिली, इक़ामत जावेदानी (शास्वत निवास) है और उसी एक नेकबख़्त के साथ ज़िंदगानी है, इस तसव्वुर से जी घबराता है और कलेजा मुँह को आता है. वो हूर अजीरन हो जाएगी, तबीयत क्यों न घबराएगी. वही ज़मर्रुदी काख़ (पन्ने का महल) और वही तूबा (कल्पवृक्ष) की एक शाख. चश्मे बद्दूर, वही एक हूर. भाई होश में आओ, कहीं और दिल लगाओ.“
“ज़ने नौकुन ऐ दोस्त दर हर बहार
के तक़वीमे पारीना नायद बकार”
एक फ़ारसी शेर जिसका हिंदी अनुवाद कुछ ऐसा हो सकता है:
नयी अप्सरा लाओ जब भी आए वसंत
नए साल में करो पुराने पंचांग का अंत
इसी मसले पर मुज़फ्फर हुसैन खाँ के नाम ग़ालिब का एक फ़ारसी खत मिलता है. खत की तारीख का पता नहीं चलता पर यह स्पष्ट है कि ग़ालिब ने इसे उम्र चढ़ने के बाद लिखा था. 1850 के आस-पास ग़ालिब ने फ़ारसी में पत्र लिखना छोड़ दिया था. शायद यह पत्र उनके आखिरी लिखे फ़ारसी पत्रों में हो. ग़ालिब ने लिखा है(19),
“जवानी में जब मेरे कृत्य मेरे केश से अधिक काले थे, और मेरे मन में खूबसूरत स्त्रियों के लिए उन्माद भरा रहता था, भाग्य ने मेरे प्याले में यह वेदना ढाल दी. और जब मेरी मा’शूक़ा का जनाजा निकला, तो राह की धूल के साथ मेरी सहन-शक्ति भी उड़ गयी. मैं दिन दिन भर काले कपड़े पहन उसे याद करता रहता था, और सियाह रातों के अँधेरे में, अपने दुःख में अकेले, मैं उस परवाने की तरह होता था जो उसी बुझी शमा की ओर उड़ता था. जिस हम-ख्वाब (जिसके साथ सोता था) को मैं ईश्वर के सुपुर्द भी नहीं कर सकता था, हाय, उसे ख़ाक के सुपुर्द कर आया. नर्गिसों की नज़र से बचने के लिए जिसे साथ लेकर मैं बाग़ में जाने से भी डरता था, मेरी हिम्मत देखें, उसे लेकर मैं कब्रिस्तान चला गया. जिसके जाल से उसका शिकार भाग गया हो उस बहेलिया को चैन कहाँ? जिस फूल चुनने वाले के हाथों से फूल गिर जाए उसे खुशी कैसे मिल सकती है? और जब उम्र भर सताने के बाद प्रिया अपने आप को प्रेमी को दे देती है तो बस प्रेमी समझ पाता है कि वह समर्पण कितनी प्रीति और कितनी अनुकम्पा का प्रतीक है. …”
“प्रेयसी की मृत्यु हमारी आत्मा को चीर कर रख देती है, उससे अलग होना हमारे हृदय को सदा के लिए चूर चूर कर देता है किंतु सच यह है कि सत्यार्थी को सत्य कभी कोई यंत्रणा नहीं देता; आत्मा के वितीर्ण या हृदय के चूर्ण होने के बीच हम पूछते हैं, इस वेदना की औषधि कहाँ है? मृत्यु की कलाई का रुख मोड़ पाने में कौन समर्थ है? किंतु हम इन शुष्क, विषाक्त हवाओं की घाटियों में दूर तक नहीं निकल सकते और अपने तमाम हृदय विदारक कष्ट के बीच हमें सहन-शक्ति के पाठ पढ़ने होते हैं. इसे देख पाने के लिए आपके पास आँखें हैं. इस पर विचार कीजिये. जो प्रेम के मार्ग पर निकलते हैं उनकी कुल जमा पूंजी बस उनका दिल है. जिसे वे कभी अपनी मा’शूक़ा की नाज़ुक कमर पर खो बैठते हैं, कभी उसके घुंघराले बालों के छल्लों में. पर मृत देह की कमर में वो नज़ाकत कहाँ और बालों के वे घुंघराले लट कहाँ? (और तब) यह नाजायज़ मलाल हमारी आत्मा के चक्षुओं में धूल झोंक हमारे दिल का खात्मा कर देता है.”
“बुलबुल(20), जो अपने प्रेम के लिए जाना जाता है, अपने गाने गुलाब के सभी खिलते फूलों को सुनाता है; और परवाना, जिसकी मुहब्बत के किस्से सभी सुनाते हैं, हर रोशन शमा की ओर भागता है. महफ़िल में अनेक शमा चमकतीं हैं, बाग़ में गुलाबों की गिनती नहीं है. किसी एक शमा के बुझ जाने से परवाना क्यों शोक करे? और एक गुलाब के मुरझाने से बुलबुल क्यों कलपे? इंसान को चाहिए कि वह रंग-ओ-बू की दुनिया को अपना दिल जीतने दे, बेड़ी में जकड़ कर बाँधने नहीं दे. …”
इन तीन पत्रों के अतिरिक्त ग़ालिब का लिखा कुछ नहीं मिलता जिससे उनके अपने प्रेम प्रसंग पर कोई प्रकाश पड़ता हो. और इन पत्रों से दो बातों का खुलासा ज़रूर होता है. पहली यह कि युवावस्था में ग़ालिब कम से कम एक बार ‘शहद की मक्खी’ बन गए थे. डोमनी से उनका इश्क, स्पष्ट है, एक दिली मामला था, मौसमी बुखार नहीं. दूसरी यह कि कभी, शायद डोमनी की मृत्यु के शोक से उबरने के बाद, उन्होंने दृढ़ संकल्प लिया था कि कोई उनका दिल जीत पाए तो जीत ले मगर उन्हें बाँध कभी नहीं पाए.
सन्दर्भ:
(1) मालिक राम, अनुवादक श्रीकांत व्यास, मिर्ज़ा ग़ालिब, नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली (1990), पृष्ठ 9
(2) श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र, हिंदुस्तानी अकादमी इलाहबाद (1958), पृष्ठ 472
(3) राल्फ़ रसेल और खुर्शिदुल इस्लाम, ग़ालिब: लाइफ़ ऐंड लेटर्स वॉल्यूम 1, केम्ब्रिज, मसाचुसेट्स (1969); पृष्ठ 16
(4) अब्दुल्लाह अनवर बेग, द लाइफ़ ऐंड ओड्स ऑफ ग़ालिब, उर्दू एकैडमी लाहौर (1941); पृष्ठ 7
(5) इज़ाफ़त (अर्थ: निस्बत, संबंध) फ़ारसी में कारक का एक चिह्न है. एक संज्ञा को दूसरी संज्ञा (या विशेषण) के पहले रखने में बीच में आता लघु स्वर ‘ए’ जिससे दोनों का संबंध स्पष्ट होता है इज़ाफ़त कहलाता है. उदाहरण ग़ुलाम-ए ज़ैद यानी ज़ैद का ग़ुलाम; दिल-ए नादाँ यानी यानी नादान दिल. दो शब्दों के बीच ‘और’ लाने के लिए ‘ओ’ का प्रयोग होता है जिसे अत्फ़ कहते हैं; उदाहरण शेर-ओ-शायरी. कभी कभी इज़ाफ़त और अत्फ़ दोने के एक साथ प्रयोग भी हो जाते हैं:
ग़ालिब छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए अब्र-ओ-शब-ए माहताब में
‘रोज़-ए अब्र-ओ-शब-ए माहताब’ यानी ‘मेघाच्छन्न दिन और चांदनी रात’.
(6) मालिक राम, पूर्वोक्त, पृष्ठ 8
(7) यह शे’र जिस ग़ज़ल से ली गयी है उसे ग़ालिब ने 1812 में लिखा था. ग़ज़ल दीवान में नहीं है. कालिदास गुप्त ‘रज़ा’ के अनुसार शे’र में ‘कहना’ आया है न कि ‘लिखना’. ग़ालिब के खत में ‘लिखना’ है. पत्र 1866 का है, शे’र कहने के करीब पचपन साल बाद, संभवतः ग़ालिब की क्षीण स्मरणशक्ति के चलते हुई एक भूल.
(8) अब्दुल रज़्ज़ाक ‘शाकिर’ के नाम लिखे खत से; श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र (दूसरा भाग), इलाहाबाद (1963) पृष्ठ 392. (संदर्भित पत्र की तिथि पर अनिश्चितता है. इस किताब में पहली अगस्त 1861 बतायी गयी है किंतु शायद इसकी तिथि 1864 या उसके बाद की हो.)
(9) गोपी चंद नारंग, ग़ालिब: इनोवेटिव मीनिंग्स ऐंड द इन्जेनिअस माइंड, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली (2017); इसका अंग्रेजी अनुवाद राल्फ़ रसेल और ख़ुर्शिदुल इस्लाम के ग़ालिब: लाइफ़ ऐंड लेटर्स में भी.
(10) शायद यह लिखना बेमौक़ा नहीं हो कि फ़ज़्ल-ए ह्क़ ख़ैराबादी के एक पौत्र मुज़्तर ख़ैराबादी भी नामी शायर हुए थे. विख्यात ग़ज़ल ‘ना किसी की आँख का नूर हूँ’ जो सौ वर्षों से बादशाह ज़फ़र की रचना समझी जाती थी, मुज़्तर ख़ैराबादी की लिखी निकली. शायर जाँ निसार अख्तर और जावेद अख्तर मुज़्तर खैराबादी के क्रमशः पुत्र और पौत्र हैं.
(11) दांतों पर काली मिस्सी लगाना कभी बहुत प्रचलित रहा था, विशेषतः अवध में.
(12) श्री राम शर्मा, ग़ालिब के पत्र, हिन्दुस्तानी अकेडमी इलाहाबाद (1958); पृष्ठ 438. ध्यातव्य है कि ग़ालिब के इस पत्र के अनुसार उनकी काली दाढ़ी कभी नहीं रही और जब से उन्होंने दाढ़ी रखनी शुरू कर दी तब से उन्होंने सर पर केश नहीं रखे. भारतीय फिल्मों में ग़ालिब को घनी, लंबी, काली दाढ़ी और सर पर घनी केशराशि के साथ दिखाया जाता रहा है, पिछले दिनों के उस विख्यात टीवी सीरियल में भी जिसके बारे में कहा गया था कि उसका निर्माण गहन शोध के बाद हुआ.
(13) 1859 या 1860 में ग़ालिब के हातिम अली ‘महर’ के नाम लिखे पत्र से; श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र, इलाहाबाद (1958); पृष्ठ 440.
(14) साक़ी चौ मन पश्नगी व अफ़रासियाबयम;
दानी के असल गौहरम अज़ दूदाए जम अस्त
मीरासे-जम के मय बूद इकनूं बमन सिपार;
ज़ाँ पस रसद बहिश्त के मीरासे आदम अस्त
(वंशज हूँ मैं पशंग और अफरासियाब का;
साकी मैं आया हूँ उसी जमशेद के घर से
दे दो मुझे शराब जो जम की विरासत है;
देना मुझे फिरदौस आदम का कभी जो था.)
(15) मालिक राम, अनुवादक श्रीकांत व्यास, मिर्ज़ा ग़ालिब, नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली (1990), पृष्ठ 12
(16) मुहम्मद मुजीब, लिप्यान्तरकार रमेश गौड़, भारतीय साहित्य के निर्माता ग़ालिब, साहित्य अकादमी नयी दिल्ली (2002); पृष्ठ 12-13.
(17) श्रीराम शर्मा, ग़ालिब के पत्र, हिन्दुस्तानी अकेडमी इलाहाबाद (1958); पृष्ठ 438
(18) पूर्वोक्त; पृष्ठ 441-442, पत्र का वर्ष 1860, तारीख नामालूम.
(19) राल्फ़ और इस्लाम, ग़ालिब: लाइफ़ ऐंड लेटर्स, केम्ब्रिज, मेसाचुसेट्स (1969); पृष्ठ 43 पर दिये अंग्रेजी अनुवाद से.
(20) फ़ारसी परम्परा में बुलबुल को गुलाब का आशिक माना गया है.
सच्चिदानंद सिंह![]() जन्म: १९५२, ग्राम- तेलाड़ी, ज़िला- पलामू, झारखंड स्कूली शिक्षा नेतरहाट विद्यालय, झारखंड और उच्च शिक्षा सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली सेग़ालिब साहित्य में गहन रुचि के साथ बैंकर व मर्चेंट बैंकर रहे जनवरी 2018 में पहले कथा संग्रह “ब्रह्मभोज” का प्रकाशन. वर्तमान में कृषिकर्म-रत. sacha_singh@yahoo.com |
ग़ालिब 29 साल के जब हुए वह सब कुछ लिख चुके थे जिसके लिए वह इतने बड़े शायर माने जाते हैं। बाक़ी तो जब तक इन्सान ज़िंदा है कुछ न कुछ तो करता ही रहता है। और ज़ाहिर है वह ग़ालिब ही बाद में भी रहे।
1. वह ग़ज़ल, ‘वो आके बज़्म में तस्कीन ए इज़्तिराब तो दे’ किस तरह से सतही या घटिया होती है, ज़रा बताया जाए. अच्छे शेर हैं उस ग़ज़ल में.
2. ग़ालिब, मोहम्मद हुसैन आज़ाद और फ़ज़्ल ए हक़ ख़ैराबादी की इस्लाह पर फ़ारूक़ी साहब ने बहुत कलम घिसी है. उस से ठीक उलट वाक़या बयान किया गया है, जिस के लिए प्रस्तुत प्रमाण अपर्याप्त हैं.
3. भई, बज़्म तो मज़मून की बज़्म भी होती है न. क्या ज़रूरी है कि ग़ालिब के ज़माने में यह प्रचलन रहा ही हो?
ग़ालिब के तवायफ़ों से रब्त रहा हो तो क्या; न रहा हो तो क्या. लेकिन, फ़क़त मज़मून की मौजूदगी से तो कुछ साबित नहीं होता न. मज़मून तो बुलबुल का भी है ग़ालिब के यहाँ, तो हिन्दूस्तान में बुलबुल भी होती ही होगी. लेकिन, ग़ालिब का ही कहा बयान भी है कि बुलबुल तो ईरान में होती है.
4. जहाँ तक ग़ालिब की मुश्किलपसंदी का ताल्लुक है, इस मसले का भी सरलीकरण कर दिया गया है. ‘ बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ ‘ ; ‘ या रब वो न समझेंगे न समझे हैं मिरी बात ‘, ‘ मुद्दआ अंक़ा है अपने आलम ए तक़रीर का ‘ जैसे मिसरे दूसरी कहानी कहते हैं. और, ग़ालिब के बज़ाहिर बरजस्त शेर भी, मसलन ‘दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है’ टाइप के. पेचीदा है ये मामला. ‘हूँ मैं भी तमाशाई ए नैरंग ए तमन्ना / मतलब नहीं इस से कि कुछ मतलब ही बर आवे’
5. मलिक राम की उर्दू में शायरी के लिए लफ़्ज़ न होने की बात भी वज़न रखती है. ठीक है कि मीर, सौदा ताबाँ, वली ये सब ग़ालिब के पहले बड़ी शायरी मुमकिन कर चुके थे. मीर के यहाँ ग़ालिब से अधिक पेचीदा तसव्वुफ़ मौजूद है.
तो फिर मलिक राम की बात तो बिलकुल ग़लत लगती है.
लेकिन.
मीर को देखें तो मीर ने अपनी ज़बानी रिवायत खड़ी की है. सौदा में भी फ़ारसीयत बहुत है. तो, ग़ालिब के समै सचमुच में फ़ारसी के बरअक्स उर्दू मज़मून, तलमीह और शब्दावली के रेफरेंस ताक़तवर तौर पर मौजूद नहीं थे.
और, ग़ालिब जो ख़ुद को फ़ारसी का शायर मानते थे, उनके सामने चुनौती यही थी कि फ़ारसी रवायत के असर को उर्दू में कैसे बयान किया जाए.
मिला-जुला के, प्रयास सराहनीय है. प्रयास के अलावा और किन किन बातों को सराहा जा सकता है, समझना ज़रा मुश्किल है.
” शोर ए मादूमी ए मा मौजूद अस्त ” – बेदिल