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Home » विज्ञापन वाली लड़की : अरुण आदित्य

विज्ञापन वाली लड़की : अरुण आदित्य

‘पश्चिम और सिनेमा’, ‘शेल्फ़ में फ़रिश्ते’, ‘नींद कम ख़्वाब ज्यादा’ के लेखक दिनेश श्रीनेत की कहानियों का पहला संग्रह ‘विज्ञापन वाली लड़की’ भावना प्रकाशन से इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है. इसकी शीर्षक कहानी कई भाषाओं में अनूदित होकर चर्चित रही है. इस संग्रह की चर्चा कर रहे हैं कवि-लेखक अरुण आदित्य.

by arun dev
April 14, 2025
in समीक्षा
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विज्ञापन वाली लड़की : अरुण आदित्य
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विज्ञापन वाली लड़की
स्मृति, स्वप्न और यथार्थ की अंतर्कथाएँ


अरुण आदित्य

दिनेश श्रीनेत के कहानी संग्रह ‘विज्ञापन वाली लड़की’ को पढ़ना एक ऐसे मायालोक से गुजरना है जहाँ स्मृति, स्वप्न और यथार्थ इतनी तीव्रता से एक दूसरे को अतिक्रमित करते हैं कि ये आपस में रूपांतरित होते प्रतीत होते हैं. दरअसल ये मन के अंतर्जगत की ऐसी कहानियाँ हैं, जिनमें मनुष्य स्वप्नों को वास्तविक समझकर जीने लगता है और वास्तविक जीवन के कार्य-व्यवहार उसे स्वप्न जैसे प्रतीत होते हैं.

120 पृष्ठों के इस संग्रह में कुल पाँच कहानियाँ हैं, उड़न खटोला, विज्ञापन वाली लड़की, मत्र्योश्का, उजाले के द्वीप और नीलोफ़र. पाँचों के कथ्य बिल्कुल अलग-अलग हैं, लेकिन सभी का शिल्प ऐसा है कि कोई भी कह सकता है कि ये एक ही लेखक की कहानियाँ हैं. सचेतन संसार और मनुष्य के अवचेतन में आवाजाही करती इन कहानियों में से कोई भी ऐसी नहीं है जिसके कथ्य का सारांश चार-छह पंक्तियों में बताया जा सके. इनका कथ्य शिल्प में इस तरह पिन्हाँ है कि कथ्य का सार-संक्षेप बताने से कहानी मर जाएगी. दरअसल इन कहानियों के प्राण जितना कथ्य में बसते हैं, उतना ही शिल्प में. जितना सत्य में बसते हैं, उतना ही स्वप्न में. जितना विचार में बसते हैं, उतना ही भाषा में. कहानी की धड़कन को अंतिम वाक्य के अंतिम शब्द तक बचाए रखने का यह शिल्प दिनेश श्रीनेत ने सुदीर्घ साधना से अर्जित किया है.

‘विज्ञापन वाली लड़की’ मूलत: सर्वग्रासी बाजारवाद में घिरे निम्नमध्य वर्ग की त्रासद कथा है. बाजार ने मनुष्य के सपनों तक पर अतिक्रमण कर लिया है, इस बात को यह कहानी बहुत खूबसूरत तरीके से व्यक्त करती है. विज्ञापन के होर्डिंग में मुस्कराती हुई खूबसूरत लड़की होर्डिंग से निकलकर स्थानीय अख़बार के एक कंपोजीटर के सपने में होते हुए उसके एकाकी नीरस जीवन में दाखिल हो जाती है. विडंबना देखिए कि वह इस सपने को ही सच मान लेता है. सपने में उसकी जिंदगी खुशनुमा हो उठती है.

और जब यह सपना टूटता है तो ?

वह भयावह सच कहानी में कुछ इस तरह दर्ज है –

‘अगली सुबह भी आसमान में बादल छाए थे और हल्की फुहार गिर रही थी. हाईवे पर एक लावारिस शव मिला. उस विशाल होर्डिंग के नीचे जिस पर मुसकुराती खूबसूरत लड़की का अक्स था. पानी से सराबोर शरीर बिल्कुल ठंडा और अकड़ा हुआ था. जेब में मिले कागजों से पता लगा कि वह उसी शहर से छपने वाले अख़बार के दफ़्तर में कंपोजीटर था. उसके साथ काम करने वाले लोग भी उसके बारे में बहुत कम जानते थे. उसके कमरे की छानबीन से भी कुछ खास पता नहीं चला. किचेन देखने से लग रहा था क़रीब दो हफ़्ते से उसमें खाना नहीं पका है.’

एक निम्न मध्यम वर्गीय मनुष्य के सपनों और उसके यथार्थ का यह अंत पाठक के मन को एक ऐसी उदास बारिश में खुला छोड़ देता है जिसमें वह लंबे समय तक भीगता  रहता है. पर कहानी यहीं खत्म नहीं होती. कहानी का अंतिम वाक्य मनुष्य की बेबसी पर बाजार की क्रूरता का एक झन्नाटेदार तमाचा है-

‘उस रात फिर बहुत पानी बरसा और विज्ञापन वाली लड़की मुसकुराती रही.’

‘उड़न खटोला’ कहानी में माँ हैं, पिता हैं, बचपन के दृश्यों की स्मृतियाँ हैं और बचपन के सपनों में देखे गए दृश्यों की भी स्मृतियाँ हैं. सपने ही नहीं, बचपन की नींद की भी स्मृतियाँ हैं. इस उदास-सी कहानी में स्वप्न नींद के स्याह सागर में तैरती उम्मीदों की तरह हैं. नींद सपनों में ले जाने का सहारा है. लेकिन एक दिन माँ के अचानक चक्कर खाकर गिर जाने के बाद उससे नींद का सहारा भी छूट जाता है. खून के कत्थई थक्के आधी रात उसे नींद से उठा देते. ये कत्थई  धब्बे सीढ़ियों पर किसी के जूतों के नीचे कुचल दी गई चिड़िया के खून के थे. इस चिड़िया को न बचा पाने का पश्चाताप उसकी नींद का दुश्मन बन गया था. बाद में इसी तरह के धब्बे उसे माँ की साड़ी पर नजर आए थे जब बाथरूम जाते हुए वे आंगन में चक्कर खाकर गिर गई थीं. यह एक ऐसा अभिशप्त जीवन था जिसमें ‘पिता की मौत इतनी ही बेतुकी थी जितना परिंदे का जूते से कुचला जाना.’ किंतु यह उदास मौसमों की ही कहानी नहीं है. दरअसल यह स्वप्न में असंभव यथार्थ के घटित हो जाने के विश्वास की कहानी है. कहानी  के अंतिम दृश्य में बेटा बीमार माँ से कहता है,

“चिंता मत करिए, आप ठीक हो जाएँगी. फिर हम उस शहर चलेंगे, जो दसों दिशाओं में फैला है. पेड़ की शाखाओं की तरह आसमान तक फैली उसकी सड़कें और मकान जगमगा रहे हैं. उसी शहर के किसी अनजान कोने में वह लड़की भी होगी – जो घनघोर बारिश के बीच किसी मकान के बरामदे में भीगती-ठिठुरती मिली थी. शायद वहाँ आपको पिता भी मिल जाएँ. हो सकता है वह हमसे कभी ना मिलें और शहर की अंधेरी गलियों में हमसे छिपते फिरें. वहाँ मैं आपसे एक बार फिर मिलूँगा, उस माँ से जिसे मैं नहीं जानता. जो लकड़ी की संदूकची में बंद अपनी पुरानी चिट्ठियों जैसे रहस्य से भरी है.”

‘उजाले के द्वीप’ में एक मध्यवर्गीय ईसाई परिवार है. उदास माँ, लकवाग्रस्त पिता, संवेदनशील पुत्री. कहानी मुख्यतः पिता और पुत्री के इर्दगिर्द घूमती है. बेटी की स्मृति में कौंधते पिता के जीवन के विविध टुकड़ों के कोलॉज हैं. इस स्मृति में दूर-दूर तक लहराता काला समंदर है. कविता प्रेमी पिता की विभिन्न छवियाँ हैं. कोलरिज की कविता द एँशिएँट मैरिनर है. अल्बाट्रॉस नाम का अपशकुनी पक्षी है. बेटी को लगता है कि द एँशिएँट मैरिनर का अभिशप्त नाविक उसके पिता ही हैं. यथार्थ और फैंटेसी की लहरों में डूबती-तैरती इस कहानी का अंत अत्यंत रहस्यमय है. बेटी की कल्पना में जो अल्बाट्रॉस पक्षी अभिशाप की तरह पिता के जीवन पर मंडराता रहता है, कहानी के अंत में वह बेटी के अवचेतन में मृत्यु की तरह मंडराने लगता है.

स्वप्न और सत्य के क्षितिज से झांकती उस सुबह लकवाग्रस्त पिता को अचानक एक चीख सुनाई देती है. फिर अपनी जम चुकी माँसपेशियों में फडकन-सी महसूस होती है. पिता दुविधा में पड़ जाते हैं कि यह सब सच में हुआ है या वे सपना देख रहे हैं. इस दृश्य में कथाकार ने जो खामोशी सृजित की है, उसमें पिता के दिल की धड़कन पिता और पाठक दोनों को एक साथ सुनाई देती है.

‘मत्र्योश्का’ एक अद्भुत प्रेम कथा है जो वास्तविक और आभासी संसार में ऐसे विचरण करती है जैसे अंधेरी सुरंगों को पार करते हुए मेट्रो एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन तक आती जाती है. एक दिन भीड़-भाड़ भरे किसी मेट्रो स्टेशन पर समर की आकस्मिक मुलाकात दो लड़कियों से होती है. मिलना-जुलना बढ़ता है और उनमें से एक कावेरी और समर के बीच प्रेम संबंध विकसित होने लगते हैं. कावेरी का व्यक्तित्व रहस्य के तंतुओं से बना हुआ है. वह समर की निकटता चाहती है पर उसे निकटता से फोबिया भी है. निकटता बढ़ने लगती है तो एक दिन वह गायब हो जाती है. दरअसल उसका तो पूरा व्यक्तित्व ही रहस्य है.

‘कावेरी’ उसका असली नाम था ही नहीं. उसने अपने इर्दगिर्द एक आभासी संसार बना लिया था, जिसमें आभासी व्यक्तित्व के साथ रहती थी. वास्तविकताओं से डरती थी, इसीलिए उसे अपने जन्मदिन से भी डर लगता था. संभवतः जन्मदिन उसे याद दिलाता होगा कि वह आभासी नहीं, अस्थि-मज्जा से बनी वास्तविक शख्सियत है. और इसी डर में वह अपने जन्मदिन से एक दिन पहले गायब हो जाती है. पर कहानी यहीं ठहर नहीं जाती, बल्कि आठ-नौ साल की एक लड़की का हाथ पकड़ कर आगे बढ़ जाती है. लड़की जिसका नाम मंजू है और जिसके हाथ में वही रशियन गुड़िया मत्र्योश्का है, जिसे समर ने कावेरी को उसके जन्मदिन से एक दिन पहले उपहार में दिया था.

संग्रह की अंतिम कहानी ‘नीलोफ़र’ भी एक रहस्यमय प्रेमकथा है जो चेतन जगत से शुरू होकर मनुष्य के अवचेतन में संपन्न होती है. नीलोफ़र और नैरेटर का दोस्त एक दूसरे को चाहते हैं. नैरेटर स्वयं भी नीलोफ़र के आकर्षण में है, पर एक बार बीमार नीलोफ़र के आग्रह पर वह उन दोनों की एकांत मुलाकात करवाता है. उस मुलाकात के बाद नैरेटर रात भर बेअवााज़ रोता है. उसे लगता है कि नीलोफ़र उससे बहुत दूर चली गई. अगले दिन नीलोफर को स्वास्थ्य लाभ के लिए उसकी चाची के गांव भेजने का निर्णय लिया जाता है. तय होता है कि नैरेटर भी उसके साथ जाएगा. नैरेटर का दोस्त उसे एक अंगूठी और चिट्ठी देता है कि नीलोफ़र को दे देना. नैरेटर अंगूठी को अपनी बता कर दे देता है और चिट्ठी छुपा लेता है. अगले किसी स्टेशन पर ट्रेन दुर्घटना में नीलोफ़र की मृत्यु हो जाती है. नैरेटर का इरादा था कि नीलोफ़र के वापस आने पर वह सच बता देगा, लेकिन इस दुर्घटना ने उसके झूठ को नीलोफर के जीवन का अंतिम सच बना दिया. इसके बाद कहानी पात्रों के अवचेतन में घटती है. नींद के अंधेरे में उसे खाली ट्रैक पर रेल इंजन के बगल में खड़ी नीलोफ़र दिखती है. एक दिन अपने दोस्त के साथ वह यार्ड में खड़ी ट्रेन के उस डिब्बे तक जाता है जिसमें नीलोफर की मृत्यु हुई थी. डिब्बे में कई ऐसी रहस्यमय घटनाएँ घटती हैं जिससे आभास होता है कि नीलोफ़र वहाँ  मौजूद है. दिनेश श्रीनेत के शिल्प ने कहानी का अंत ऐसा रचा है कि नीलोफ़र की उपस्थिति और अंधेरे में चलते हुए उसके गुम जाने को नैरेटर ही नहीं पाठक भी देखता रह जाता है.

इन कहानियों में बारिश की भी एक उल्लेखनीय उपस्थिति है. कहीं पात्र की तरह, कहीं परिवेश की तरह तो कहीं उपमेय की तरह. कहीं कहानी की शुरुआत करने के लिए तो कहीं कहानी को आगे बढ़ाने के लिए. कुछ उद्धरण देखिए –

‘हर बारिश के बाद घर की छतों पर और ज्यादा पपड़ियाँ जमने लगती थीं और दीवारों पर उगी काई का रंग और गहरा होता जाता था. घर के पिछले हिस्से में आंगन की बिना प्लास्टर वाली दीवार में एक दरार पड़ गई थी…. हर बारिश में दीवार की दरार और बढ़ जाती थी. वह कई बार उत्सुकता से दरार के भीतर झाँकता था. दरार के भीतर उसे एक पूरी दुनिया नजर आती थ. वहाँ  हरी काई का जंगल उग आया था. गर्मियों में चमकीले कत्थई कैटरपिलर के झुंड उसके भीतर अलसाए भाव से रेंगते नजर आते. कभी कपास का नन्हा-सा फूल उस दरार में जाकर अटक जाता तो कभी चीटियों का झुंड मार्च करता हुआ वहाँ  से गुज़रता था.’

(कहानी: उड़न खटोला)

‘बीते एक हफ्ते से लगातार पानी बरस रहा था. आसमान में सुरमई बादल भाप की तरह उड़ते थे और पूरा शहर हवा के झोंकों पर फुहारों से भीगता रहता था. भारी भरकम पेड़ों के नीचे एक अलग किस्म की टिप-टिप होती थी. पत्तियाँ भीग कर भारी हो जातीं और फुनगियों से नीचे तक अटक-अटक कर गिरता पानी मद्धिम-सा कोलाहल पैदा करता. शाम को अचानक घना अंधेरा छा जाता था. उत्तर की दिशा से काली पेंसिल और खड़िया से रंगे बदल उमड़ने लगते और आभासी उजाले में भागती गाड़ियों की हेडलाइट में आसमान से गिरती बूंदे चमकने लगती थीं.’

(कहानी: विज्ञापन वाली लड़की, शुरुआती पंक्तियाँ)

‘कब मौसम ने करवट ली हमें पता ही नहीं चला. अब आसमान अक्सर बादलों से ढका रहता था. हमारा बस चलता तो हम मेट्रो को ही अपना घर बना लेते. बारिश की बूँदें जब दौड़ती-भागती मेट्रो के शीशे से टकराकर छितरा जातीं तो कावेरी के चेहरे पर रौनक आ जाती. कभी किसी स्टेशन पर उतरकर उसकी चौड़ी बालकनी में खड़े होकर हम आसमान से गिरती बूँदों का मजा लेते और दूर बादलों के बीच बन रहे आधे-अधूरे इंद्रधनुष को कौतुक से देखते.’

(कहानी: मत्र्योश्का)

‘काला सागर- काला आसमान- उसके बीच एक जहाज भटक रहा है-  पापा ही वह नाविक हैं और उनके गले में अल्बाट्रॉस को लटका दिया गया है-  घनघोर बारिश हो रही है- पानी का रंग काला है-  जैसे उसमें तेल मिला दिया गया हो- वह जहाज के डेक पर बीचोबीच खड़े हैं और गा रहे हैं:

About, about in reel and rout
The death fires danced at night
The water, like a witch’s oils
Burnt green, and blue and white.

उनके पीछे माँ और क्रिस खामोश खड़े हैं. काली बारिश में लिथड़े हुए.’

(कहानी:उजाले के द्वीप)

‘उसका चेहरा ऐसा शफ्फाक था जैसे आईने पर बारिश का पानी गिरा हो. आँखों का रंग बादामी था और चाल में बेबाकी थी, मगर चेहरे पर ग़जब का ठहराव.’

(कहानी : नीलोफ़र)

 

बारिश के अलावा दूसरे मौसम और परिवेश के सूक्ष्म ब्यौरे भी इन कहानियों का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. परिवेश यहाँ सजावट के रूप में नहीं कथावस्तु के आवश्यक अवयव के रूप में है. परिवेश के बीच ही कहानी का यथार्थ है. स्वप्नों और स्मृतियों में भी परिवेश अत्यंत महत्वपूर्ण रूप से उपस्थित है.

दिनेश श्रीनेत की भाषा दृश्यात्मक है, लेकिन ये महज देखे हुए दृश्य नहीं, अनुभूत किए हुए दृश्य हैं. सैकड़ों चाक्षुष दृश्यों में से कोई एक ऐसा  होता है जिसे संवेदना की सुई स्मृति पटल पर इस तरह टांक देती है कि समय उसे उधेड़ नहीं पाता. इन कहानियों में अनेक ऐसे अनुभूत दृश्य हैं. पाठक इन दृश्यों को ‘देखता’ नहीं, इनके बीच अपने होने को अनुभव करता है. कहन की ऐसी भाषा और शैली समकालीन कथा परिदृश्य में दुर्लभ है.

अपने संपूर्ण प्रभाव में ये कहानियाँ कई दिनों तक उदास कर देने वाली शोकांतिकाएँ हैं. शुरू से अंत तक पंक्ति दर पंक्ति और दो पंक्तियों के बीच भी एक उदास धुन लगातार बजती रहती है. पर उदास लम्हों के बीच ही कहीं-कहीं चमकते पल भी हैं. यहाँ जो आभासी दुनिया है, उससे बाहर निकलते ही कहीं भयावह मृत्यु है; तो इसी दुनिया में ही वह प्यारा स्वप्न भी है, जिसमें एक ऐसा सुंदर शहर संभव है जो उम्मीद की दसों दिशाओं में फैला है.

तमाम उदास मौसमों के बीच और बावजूद मनमोहक भाषा का जादू और अवचेतन को पढ़ने और गढ़ने का शिल्प इस संग्रह को बार-बार पढ़ने के लिए विवश करते हैं.

यह कहानी संग्रह यहाँ  से प्राप्त करें

अरुण आदित्य
प्रतापगढ़  
लम्बे समय से पत्रकारिता

‘रोज ही होता था यह सब’, ‘धरा का स्वप्न हरा है’  (कविता संग्रह) और  ‘उत्तर वनवास’ (उपन्यास) प्रकाशित.
मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी के ‘दुष्यन्त पुरस्कार’ आदि से सम्मानित.
ईमेल- adityarun@gmail.com

Tags: 20252025 समीक्षाअरुण आदित्यविज्ञापन वाली लड़की
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