आग़ा शाहिद अली की कविताएँ अनुवाद : अंचित |
१
एक फ़ोन कॉल
मैं अपनी आँखें बंद करता हूँ. वह मुझे छोड़ता नहीं
कश्मीर का ठंडा चाँद जो मेरे घर में घुस आता है
और मेरे माता पिता का प्यार चुरा लेता है.
मैं अपनी मुट्ठियाँ खोलता हूँ:
ख़ाली, ख़ाली. यह रुदन अपरिचित है.
“तुम घर कब आओगे?”
पिता पूछते हैं, फिर पूछते हैं.
तारों में समंदर घुमड़ता है.
मैं चीखता हूँ, “आप लोग खुश हैं?”
लाइन कट जाती है.
पानी तारों को छोड़ कर चला जाता है.
समंदर शांत है, और उस पर
कश्मीर का ठंडा पूरा चाँद.
२
पहाड़ों में
कहीं
मेरे बिना
मेरी ज़िंदगी शुरू होती है.
जो वह ज़िन्दगी जीता है
ठंडी तसबीह पर अरबी में
खुदा के निन्यानबे नाम गिनता है.
अनजाना सौवाँ नाम उसे मिलता है ग्लेशियरों में
और वहाँ से गीले केसर के बागों में उतरता है
जहाँ मैं उसे थामने का इंतज़ार करता हूँ
लेकिन बर्फ में लिपटा हुआ
वह अपनी भुतहा गाड़ी में
मुझसे आगे निकल जाता है.
वह उस सौवें नाम को छोड़ देता है
जो उसकी हथेली से सुंदर लिखाई में ऊपर उठता है.
कुहरा चिनार के पेड़ों के आकस्मिक कंकालों को धो देता है.
साल के और गुज़र जाने के बाद, एक टूटे हुए फ़ायरप्लेस के पास
मैं बुझती आग की आख़िरी कंपकंपाहट को कसकर पकड़ते हुए
खुदा का हर नाम भूल जाता हूँ.
३
इतिहास के प्रति एक फुटनोट
जिप्सी लोग
असल में भारत से यूरोप आए थे हज़ार साल पहल
सिंधु नदी के किनारे,
उस जगह से ठीक पहले
जहाँ वह
समंदर तक पहुँचती है
बरसात शुरू होने के
ठीक पहले
उन्होंने मुझे छोड़ दिया.
मैंने शिद्दत से पकड़े हुए थे
द्वीप अलविदाओं के.
दस शताब्दियों तक
उन्होंने एक भी संदेश नहीं भेजा
हालांकि कई बार
मैंने सीपियों में सुनी
मदद के लिए फुसफुसाते जहाज़ों की आवाज़.
मैंने अपनी जेबें भरीं
बरबादियों की आवाज़ों से.
इस नदी की लहरें पार करते हुए
मैं अभी भी तूफ़ानों की लिखत
नहीं पढ़ सकता.
तूफ़ान से आधे फटे
उनके संदेश किनारे तक पहुंचते हैं,
यह माँग करते हैं कि
मैं कारवानों में उनकी जंगल की आग से घिरीं
प्राचीन और समकालीन यात्राएँ
याद करूँ.
४
चाँदनी चौक, दिल्ली
गर्मी के ये चौराहे निगलो
फिर मानसून का इंतज़ार करो.
बारिश के तीर
जीभ पर पिघल जाते हैं. और आगे जाओगे?
अकाल की एक स्मृति
तुम्हें पकड़ती है: तुम याद करते हो
भूखे शब्दों का स्वाद
और तुम नमक के अक्षर चबाते हो.
क्या तुम इस शहर को अपने भीतर से साफ़ कर सकते हो
जो तुम्हारी कटी जीभ पर खून की तरह ठहरा हुआ है?
५
दिल्ली में कोज़िंस्टेव का ‘किंग लीयर’ देखने के बाद
लीयर चीखता है, “तुम पत्थर जैसे लोग हो”
जब कॉर्डेलिया एक टूटी दीवार से लटकी होती है.
मैं चाँदनी चौक पर बाहर निकलता हूँ, एक चौक
जो मल्लिका और शाही औरतों के लिए
कभी जैस्मिन के फूलों से सिला हुआ था
वे इस्फ़हान से इतर लातीं, ढाका से कपड़े,
काबुल से एक पूरा जहान, और आगरा से काँच की चूड़ियाँ.
अब यहाँ अनजान रईसों और गुमनाम पीरों
की क़ब्रों पर भिखारी रहते हैं और गुरुद्वारों के बाहर
फेरीवाले कंघियाँ और आईने बेचते हैं. सड़क के पार
एक थियेटर एक बम्बईया फ़िल्म दिखा रहा है.
मैं ज़फ़र के बारे में सोचता हूँ, शायर और बादशाह
इन्हीं सड़कों पर ब्रिटिश सैनिकों द्वारा घसीटा जाता हुआ
उसके पैरों में बेड़ियाँ- अपने बेटों की फाँसी देखने ले जाया जाता हुआ.
वतनबदर लिखा उसने:
“कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में”
उसे बर्मा में निर्वासन मिला,
रंगून में मौत.
७
बेगम अख़्तर की याद में
१
हर अख़बार में आपकी मौत
काले और सफेद खाने में
फोटोग्राफ, श्रद्धांजलियाँ.
आसमान नरम, नीला, साधारण
त्रासदी का कोई चिह्न नहीं.
सिसकियों की कोई जगह नहीं,
पंक्तियों के बीच भी नहीं.
मैं चाहता हूँ,
मैं दुनिया के अंत की बात करूँ.
२
क्या अभी भी आपकी उँगलियाँ भूखी भैरवी बजाती हैं
या सिर्फ़ मिट्टी से भरा कफ़न?
ग़ज़ल, वह मौत को बर्दाश्त करती विधवा
सीलन भरे अभिलेखागारों में रोती है, आपको याद करती हुई.
वह अपना मातम पहनती है, चाँद से भीगा सफेद.
आसमान घेरता है, अविश्वास के साथ.
आपने आख़िरकार एक त्रासदी को उदात्त बना दिया है,
वह धुन जिसे आपने दशकों ग़ालिब, मीर, फ़ैज़ से पकाया.
मैं एक धुनहीन राग से ही कुछ बना रहा हूँ.
३
आपको ठंडी मिट्टी में निर्वासित करता हुआ
आपका ताबूत, सफेद और अहमक़
अपनी जहालत से आश्चर्यचकित करता है.
वह अपना सादा गर्व पहनता है,
घुम्मकड़ की गूँज को माँसलता से दूर करता हुआ.
मैं आपके पीछे ज़मीन के पंजों तक आता हूँ
समय की छाया को कंधा देता हुआ.
यह इतिहास की कड़वी जड़ता है
यह क्षण हड्डियों की आज़ादी का.
४
मृतक से कोई पूछताछ नहीं हो सकती.
मैंने वहाँ मौजूद सबूत जमा कर लिए हैं
आपके रिकॉर्ड, तस्वीरें, टेप और
एक सतही गवाही दी है.
बचाव के लिए मैं आपको समन भेजना चाहता हूँ
लेकिन कब्र अब सीली और ठंडी है, अब जब
मल्हार बारिश को सिलना चाहता है,
अपनी धुनों में बाँधना चाहता है: आप पूरी तरह से
खो गई हैं. बारिश बोलती नहीं,
और ज़िंदगी एक बार फिर अपना घेरा छोटा करती है,
फिर से ज़मीन पर क़ब्ज़ा करती हुई, जहाँ हवा
मिलती है उससे, शोक के एक मौसम में.
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भारतीय-अमेरिकी कवि आगा शाहिद अली अंग्रेजी के चर्चित और ज़रूरी कवियों में से हैं. समकालीन कविता की सबसे रैडिकल, जीनियस और प्रखर आवाज़ों में से एक. उनके कविता-समग्र की भूमिका में प्रसिद्ध आलोचक डेनियल हॉल ने लिखा है कि अली पर कम से कम तीन परम्पराओं का प्रभाव है- हिंदू, मुस्लिम और पश्चिमी. इस जटिल सांस्कृतिक विरासत ने अली की कविताओं को न सिर्फ़ मुश्किल बनाया है, उनको एक ऐसी अन्तर्पाठनीयता प्रदान की है जो अभिधात्मक होते जा रहे समकालीन दौर में मुश्किल है. कवाफ़ी के समान समलैंगिक और फ़ैज़ के समान क्रांतिकारी, आगा शाहिद अली, उन कवियों में हैं जिनके भीतर एक सभ्यतागत बौद्धिकता है और सत्ता-संरचनाओं से भिड़ने का साहस-एक कवि की तरह, अड़ियलपने और मोहब्बत के साथ. अंचित |
![]() 1990 दो कविता संग्रह प्रकाशित– ‘साथ-असाथ’ और ‘शहर पढ़ते हुए’ anchitthepoet@gmail.com |
बहुत सुंदर और संप्रेषणीय अनुवाद ।अंचित को बहुत-बहुत बधाई ! वह बहुत शुरू से जरूरी अनुवाद करते रहे हैं और काफी रचनात्मक ढंग से करते हैं।
सुंदर कविताएँ। Anchit ने क्या ही ग़ज़ब अनुवाद भी किये हैं।
बिम्बधर्मी कविताओं को पढ़ना कितना आनंदित करता है।
क्या तुम इस शहर को अपने भीतर से साफ़ कर सकते हो
जो तुम्हारी कटी जीभ पर खून की तरह ठहरा हुआ है?
अद्भुत अभिव्यक्ति है इन कविताओं में. बहुत गहन कविताएँ हैं और शानदार अनुवाद है.