• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » AI और सर्विलांस पूंजीवाद : सारंग उपाध्याय

AI और सर्विलांस पूंजीवाद : सारंग उपाध्याय

भौतिक संसाधनों पर कब्ज़े की होड़ ने साम्राज्यवाद को जन्म दिया. नतीजतन, अनेक देश उसकी चपेट में आकर गुलाम बने. साम्राज्यवाद-विरोधी चेतना के प्रसार और लम्बे संघर्षों के बल पर वे देश धीरे-धीरे स्वतंत्र हुए. भारत की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. आज डिजिटल विशेषाधिकार ने एक नए प्रकार के नियंत्रण का जाल बुन दिया है, जिसमें देश और जनता फंसे हुए हैं. हर व्यक्ति अब डेटा में तब्दील हो चुका है, और उसकी हर गतिविधि पर निगरानी रखी जा रही है. उसकी चेतना संकट में है. इसमें कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) की भूमिका न केवल महत्वपूर्ण है, बल्कि आने वाले समय में और भी निर्णायक होने वाली है. इस आलेख में इन्हीं चुनौतियों की ओर ध्यान खींच रहे हैं लेखक-पत्रकार सारंग उपाध्याय.

by arun dev
August 5, 2025
in विशेष
A A
AI और सर्विलांस पूंजीवाद : सारंग उपाध्याय
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

AI और सर्विलांस पूंजीवाद
डेटा में बदलता मनुष्य और निगरानी की नई सत्ता

सारंग उपाध्याय

चेतना का विकास इस पृथ्वी पर अस्तित्व का केंद्रीय उद्देश्य है; यह मात्र जीवित रहने या शारीरिक सुख के लिए नहीं है, अपितु उच्चतर स्वतंत्रता और एकता के प्रकटीकरण के लिए है.
(महर्षि अरविंद- The Life Divine).

स्वतंत्रता किसी भी राष्ट्र और समाज की ऑक्सीजन है. स्वतंत्रता की चाह क्रांतियाँ पैदा कर चुकी हैं और व्यवस्था परिवर्तन की तीव्र आकांक्षाएँ सत्ताओं को बदल चुकी है. स्वतंत्रता के संघर्ष का इतिहास आज वैश्विक आधुनिक दुनिया का दर्पण है. देश, राज्य, संस्कृतियाँ, जातियाँ, धर्म, समुदाय और वर्ग सभी अपने-अपने स्तर पर अपनी स्वतंत्रता के संघर्ष की गाथा रचते रहे हैं.

आज विश्व में राष्ट्रों के बीच एक उदार लोकतांत्रिक नागरिक चेतना की परिकल्पना ऐतिहासिक क्रांतियों का परिणाम है. संवैधानिक मूल्य, नागरिक अधिकार और कर्तव्यों के बीच विकास और खुशहाली का सूचनकांक यही स्वतंत्रता है, जहाँ नागरिक स्वतंत्र रूप से इस पृथ्वी पर अपने मौलिक नागरिक व मानवीय अधिकारों साथ जी रहा है और जीने के लिए संघर्षरत् हैं.

दरअसल, स्वतंत्रता केवल राजनीतिक या सामाजिक नहीं होती बल्कि यह भीतर और बाहर दोनों जगह घटित होती है. बाह्य स्वतंत्रता में जहाँ एक नागरिक की अभिव्यक्ति, जीवन जीने के अधिकार सहित राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों में भागीदारी के अधिकार की स्वतंत्रता शामिल है, वहीं आंतरिक स्वतंत्रता व्यक्ति की चेतना, उसकी सोच, स्मृति और आत्म-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को केंद्र में रखती है.

बहरहाल, स्वतंत्रता की व्याख्या और महत्व के बीच प्रश्न यह है कि क्या हमारी स्वतंत्रता, जो संवैधानिक अधिकारों के स्तर पर सुनिश्चित की गई है, हमारे चेतना के स्तर पर भी उतनी ही सुरक्षित है? क्या हमारी इच्छाएँ, हमारे निर्णय, हमारे सोचने का ढंग हमारे अपने हैं या वे कहीं और से संचालित हो रहे हैं? क्या वे स्वतंत्र हैं? अधिकारों की प्राप्ति, संसाधनों की बहुलता, बेहतर जीवनयापन की सुविधाएँ, बहुआयामी संपन्नता, खुशहाली और बाजारों के घटाटोप उजियारे और उत्पादों की चमक के बीच उसकी निजी स्वतंत्रता कितनी शेष है? क्या हमारी आत्मा/चेतना वह सबकुछ करने के लिए स्वतंत्र है जिसे वह करना चाहती है? उसकी निजता कितनी भंग हुई है और वह निगरानी और नियंत्रण से कितनी बाहर है? क्या उसकी इच्छाएँ और वह स्वयं उस तंत्र से बाहर है जहाँ स्वतंत्रता के नाम पर अधिकार तो दिए जा रहे हैं लेकिन उसी के भीतर एक नई परतंत्रता का जाल रचा जा रहा है? क्या चेतना के स्तर पर उस विकास और स्वतंत्रता की भावना व धारणा का ध्यान रखा जा रहा है जिसे बाह्य स्तर पर न्यायोचित माना जाता है? आज औद्योगिक और डिजिटल क्रांति के बाद क्या एक व्यक्ति की चेतना वैसी ही स्वतंत्र है जैसी बाह्य स्वतंत्रता उसे मिली है.

दरअसल़, मनुष्य सभ्यता अपनी औद्योगिक क्रांतिकारी विकास की लंबी यात्रा के बाद डिजिटल और तकनीकी क्रांति के चरम पर है. सोशल मीडिया, वर्चुअल वर्ल्ड की ऐतिहासिक परिवर्तनगामी यात्रा के बाद एआई जैसी टेक्नॉलॉजी दुनिया को बदलने का शंखनाद कर रही है. यह मनुष्य सभ्यता के वैश्विक बदलाव का समय है जहाँ कृत्रिम बुद्धिमता अपने बहुआयामी विस्तार से कला, संस्कृति, समाज, राजनीति, शिक्षा, चिकित्सा और यहाँ तक कि मनुष्य तक को नए सिरे से गढ़ रही है; ऐसे में सवाल यही उठता है कि क्या एक व्यक्ति की चेतना वैसी ही स्वतंत्र होगी जैसी बाह्य तौर पर उसे मिली है.

आज सूचना और डिजिटल क्रांति के दशकों बीत जाने के बाद दुनिया ही नहीं पूरी मनुष्य सभ्यता डिजिटल आकाश के नीचे सांसे ले रही है. एक दौर था जब 1986 में विश्व की केवल 1% जानकारी डिजिटल थी, जो 2013 तक 98% हो गई और आज जबकि यह 2025 है यह आंकड़ा 99 फीसदी हो रहा है जबकि यह उसी परिवर्तन की गति को दर्शाता है जहाँ रुपांतरण क्रांतिकारी है. सवाल यह उठता है: क्या एक व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वतंत्र है, चाहे फिर वह बाह्य हो या भीतरी तौर पर?

इतिहासकार और लेखक युआल नोआ हरारी लगातार इस डिजिटल होती दुनिया को संदेह से देखते रहे हैं. अपने साक्षात्कारों, टिप्प्णियों और लेखों के जरिए उनकी चेतावनियाँ हर जगह मौजूद हैं. वे डिजिटल होती दुनिया और एआई की दस्तक के बीच चेतावनी देते हुए कहते हैं- एआई ने मानव सभ्यता के ऑपरेटिंग सिस्टम को प्रभावित कर दिया है, जैसा कि उनकी किताब Nexus (2024) में कहा गया है- “AI has hacked the operating system of civilization.” वे बताते हैं कि एआई हमारे डेटा और बायोलॉजिकल जानकारी का उपयोग कर व्यवहार को नियंत्रित कर सकता है, जिसे उन्होंने पहले वर्ष 2018 के दौरान एक इंटरव्यू में हैक्ड एनिमल के रूप में वर्णित किया था. वे मानते हैं कि एआई न केवल हमारी स्मृतियों और सांस्कृतिक बोध को खतरे में डालता है, बल्कि डिजिटल तानाशाही का जोखिम भी पैदा करता है जबकि यह शक्ति यदि गलत हाथों में चली गई तो निगरानी और नियंत्रण के नए युग को जन्म दे सकती है, जहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है.

बरहाहल, हरारी सहित कई चिंतकों के इन संदेहों और चेतावनियों के बीच सवाल यह उठता है कि क्या मनुष्य एक बंधक, परतंत्र और सोने के पिंजरे में कैद प्राणी में तो नहीं बदल गया है? हरारी की आशंकाएँ जहाँ व्यक्ति की स्मृति और उसमें समाहित सांस्कृतिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और आस्थाजन्य बोध को खतरे में मान रही है तो वहीं अमेरिकी चिंतक और लेखिका शोशाना जुबॉफ एआई की इस हैकिंग को एक नई आर्थिक व्यवस्था सर्विलांस पूंजीवाद के बड़े सहयोगी के रूप में देखती हैं.

इधर स्टीफन हॉकिंग इसे मनुष्य की बुद्धिमत्ता से आगे निकलकर सभ्यता के लिए ही खतरा मानते हैं वहीं एआई के गॉडफादर कहे जाने वाले जेफ्री हिंटन और योशुआ बेंगियो इसे पूरी सभ्यता के लिए खतरनाक मानते हैं. स्टुअर्ट रसेल जैसे एआई के महारथी इसे हाथ से निकल जाने वाली आशंका बताते हैं जबकि एआई को लेकर दार्शनिक दृष्टकोण रखने वाले निक बोस्ट्रोम तो इसे मनुष्य सभ्यता के अंतिम अविष्कार के तौर पर देखते हैं.

यहाँ मूल प्रश्न फिर उठता है कि सद्भावना की मंशा से संभावनाओं से भरे अविष्कारों तक पहुंचने की आकांक्षा और आशंकाओं के बीच जो संघर्ष, विषमताएँ, विद्रुपताएँ और विघटन हैं वे कैसे हैं और किस रूप में सामने आ रहे हैं और दुनिया के सामान्य नागरिक इस क्रांतिकारी और युगांतरकारी प्रौद्योगिकीय प्रक्रिया में अपना हिस्सा कहाँ पाते हैं? वे कितने मौजूद हैं और उनका इस विश्व में स्थान क्या है? क्या उनके लिए छोड़ा गया एक छोटा सा हाशिया भी अब खतरे में है?

हॉवर्ड बिजनेस स्कूल की प्रोफेसर रहीं और 80 के दशक में कंप्यूटर के आने की आहट के खतरे को भांप लेने वाली शोशाना जुबॉफ एआई को लेकर गंभीर चिंता जताती हैं. डिजिटल टेक्नॉलॉजी के विकास और उसके प्रभाव को लेकर पहले ही अपनी क्रांतिकारी अवधारणा सामने रखने वाली जुबॉफ सीधे तर्क रखती हैं-

क्या एक मनुष्य की स्मृतियाँ, उसके अनुभव और उसकी अनुभूतियाँ, आचार-विचार व्यवहार, संवेग संवेदनाएँ सबकुछ एक उत्पाद के रूप में बेचा नहीं जा रहा? क्या यह सब डेटा नहीं है जो नियंत्रण में है और मॉनिटर किया जा रहा है? क्या इस दौर में मनुष्य की स्वतंत्रता अदृश्य जंजीर तो नहीं बन गई है जो अप्रत्यक्ष रूप से एक मनुष्य की इच्छाओं, भावनाओं, संवेदनाओं को कस रही है, उसकी महत्वकांक्षाओं को बाजार के अनुसार आकार दे रही है.

दरअसल, वे डेटा और मनुष्य अनुभव के साथ ही बाजार को केंद्र में रखकर वैश्विक स्तर पर अपनी सबसे चर्चित किताब (The Age of Surveillance Capitalism-2019) से बेहद ज्वलंत और महत्वपूर्ण सवाल उठाती हैं. उनका मानना है-

हम एक नए आर्थिक युग में प्रवेश कर चुके हैं जिसे सर्विलांस पूंजीवाद कह सकते हैं. यह वह व्यवस्था है जहाँ बड़े तकनीकी निगम, जैसे गूगल, फेसबुक, और अमेज़न, हमारे व्यक्तिगत डेटा को कच्चे माल के रूप में उपयोग करते हैं.

जुबॉफ बताती हैं कि मनुष्यों के अनुभव को डेटा बनाने की यह प्रक्रिया 2000 के दशक की शुरुआत में शुरू हुई, जब गूगल ने अपने यूजर्स के खोज पैटर्न और क्लिक डेटा को विज्ञापन के लिए उपयोग करना शुरू किया. यह डेटा, जिसे वे “व्यवहारिक अधिशेष” (Behavioral Surplus) कहती हैं, अब एक अरबों डॉलर की अर्थव्यवस्था का आधार बन गया है.

जुबॉफ का कहना है कि तकनीक के बूते इंसानी व्यवहार, उसके अनुभवों, स्मृतियों, पसंद, नापसंद, रुचियों और हर तरह की अनुभूतियों को समझना, उसके ट्रेंड को पहचानना और उत्पाद के प्रति उसकी संवदेनशीलता के आधार पर डेटा मानकर उपयोग करना यह पूंजीवाद का एक नया रूप है और यह औद्योगिक पूंजीवाद से अलग है, जहाँ पहले प्राकृतिक संसाधनों का शोषण होता था. टेक्नॉलॉजी को पूंजीवाद का नया रूप बताने वाली जुबॉफ अपनी किताब के माध्यम से तर्क देती हैं कि इस पूर दौर में वैश्विक स्तर पर मानव समुदाय के अनुभव, भावनाएँ, आदतें, सपने एक वस्तु बन गए हैं, जो बिना हमारी सहमति के बेचे और खरीदे जा रहे हैं.
वे लिखती हैं-

“सर्विलांस पूंजीवाद एकतरफा ढंग से मानव अनुभव को मुफ्त कच्चे माल के रूप में दावा करता है, जिसे व्यवहारिक डेटा में अनुवादित किया जाता है.”

यह डेटा न केवल हमारी भविष्यवाणी करता है, बल्कि हमारे व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए भी उपयोग होता है, जैसे विज्ञापनों के माध्यम से, सामाजिक मीडिया पर सुझावों के जरिए, या यहाँ तक कि हमारे स्वास्थ्य और नींद पैटर्न को प्रभावित करके.

यह नियंत्रण एक “बड़े अन्य” (Big brother) के रूप में सामने आया है, जो एक सर्वव्यापी डिजिटल वास्तुकला है, जो सरकारों से ज्यादा कॉर्पोरेट हितों की सेवा करती है. यह “बड़ा भाई” (Big Brother) नहीं है, जैसा कि जॉर्ज ऑरवेल ने चित्रित किया, बल्कि एक ऐसी शक्ति है जो हमें देखती है, लेकिन हम उसकी नजर से बच नहीं सकते. जुबॉफ की चिंता है कि यह व्यवस्था लोकतंत्र, गोपनीयता, और मानव स्वायत्तता को खतरे में डाल रही है.

शोशाना का विचार है- “इतना कम बचा है जिसे वस्तु बनाया जा सके, आखिरी अछूता क्षेत्र निजी मानवीय अनुभव था.”

जुबॉफ एक वैश्विक और व्यापक महीन दृष्टि से पूरी दुनिया में टेक्नॉलॉजी के बढ़ते प्रभाव और उसकी उपयोगिता के पीछे मंतव्यों को उजागर करती हैं. उनकी दृष्टि और पड़ताल एक ऐसे विश्व में ले जाती है जहाँ पता चलता है कि मनुष्य सभ्यता के लाखों सालों के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि उसकी निजता चुराई जा रही है, निर्णयों को प्रभावित किया जा रहा है और, मानसिक संवेगों, इच्छाओं और इंद्रिय तृष्णाओं को डेटा बनाकर बाजार में खपाया जा रहा है जबकि एआई ने तो मनुष्य की आत्मा को ही एक डेटा बिंदु बना डाला है. जुबॉफ के तर्क अकाट्य हैं वे सीधे पूंजी के इस विकराल और विध्वंसक इरादों की पड़ताल करती है और दो टूक कहती है कि एआई न केवल तकनीकी शक्ति है बल्कि एक ऐसी शक्ति है जो मानव स्वतंत्रता को धीरे-धीरे निगल रही है.

शिकागो यूनिवर्सिटी से स्नातक और हार्वर्ड से पीएचडी शोशाना जुबॉफ वर्तमान में प्रौद्योगिकी और जीवन को समझने और उसके अंतर्सबंधों की पड़ताल कर चौंकाने वाले नतीजे हासिल किए हैं. 1980 के दशक में जब कंप्यूटर अभी अपनी शुरुआती अवस्था में थे, जुबॉफ ने अपनी पहली पुस्तक In the Age of the Smart Machine: The Future of Work and Power (1988) लिखी, जिसमें की गई उनकी भविष्यवाणी की कि सूचना प्रौद्योगिकी कार्यस्थल और शक्ति संरचना को कैसे बदल देगी आज सच साबित हो गई है. अपनी इस पहली पुस्तक से वे एक तरह से आज के डिजिटल युग की नींव रखती हैं.

अपनी दूसरी सबसे चर्चित किताब The Age of Surveillance Capitalism: The Fight for a Human Future at the New Frontier of Power (2019) के साथ ही शोशाना जुबॉफ ने मानक स्थापित कर दिए क्योंकि वे आधुनिक युग की सबसे बड़ी चुनौती डेटा के शोषण को उजागर करने में कामयाब हुईं.

2019 में उनकी पुस्तक लॉन्च के समय द गार्जियन को दिए अपने एक इंटरव्यू में वे कहती हैं-

वे हमारे बारे में हमसे ज़्यादा जानते हैं या जितना हम उनके बारे में जानते हैं. सामाजिक असमानता के ये नए रूप स्वाभाविक रूप से लोकतंत्र विरोधी हैं.

“सर्विलांस पूंजीवाद मानव स्वायत्तता पर एक हमला है.”

“निगरानी पूंजीवाद का युग पूंजी और हममें से हर एक के बीच एक विशाल संघर्ष है. यह स्वतंत्र इच्छा में एक सीधा हस्तक्षेप है, मानव स्वायत्तता पर हमला है.”

यह हमारे अंतरंग व्यक्तिगत विवरणों, यहाँ तक कि हमारे चेहरों पर भी कब्ज़ा है.

वे कहती हैं-

“उन्हें मेरे चेहरे पर कोई अधिकार नहीं है, जब मैं सड़क पर चलूं तो वे इसे ले लें.”

एआई को सर्विलांस पूंजीवाद का एक शक्तिशाली औजार मानने वाली शोशाना मानती हैं कि यह मानव अनुभव को नियंत्रित और शोषित करने का माध्यम बन गया है. उनकी दृष्टि में एआई केवल तकनीकी प्रगति नहीं है, बल्कि यह एक नई आर्थिक व्यवस्था का आधार है, जो मानव स्वतंत्रता को खतरे में डाल रही है.

जुबॉफ के अनुसार एआई इस प्रक्रिया का केंद्र है क्योंकि यह मशीन बुद्धिमत्ता (machine intelligence) के माध्यम से हमारे हर कदम, भावना, और निर्णय को ट्रैक करने में सक्षम है. वे इसे Big Other कहती हैं एक ऐसी सर्वव्यापी शक्ति जो पारंपरिक निगरानी की केंद्र रही सरकारों से अलग है, क्योंकि यह कॉर्पोरेट हितों के लिए काम करती है, न कि केवल सरकारी नियंत्रण के लिए.

Democracy Now- (2019) के साक्षात्कार में वे कहती हैं-

“एआई हमारे निजी अनुभव को कच्चे माल के रूप में लेती है और उसे व्यवहारिक डेटा में बदलती है, जो बाद में भविष्यवाणी उत्पादों (prediction products) में तब्दील हो जाता है.”

यह प्रक्रिया इतनी गुप्त है कि हम इसे न तो देख सकते हैं और न ही इस पर नियंत्रण कर सकते हैं, जो लोकतंत्र के लिए खतरा बन गया है.

जुबॉफ मानती हैं कि एआई का विकास मानव नियंत्रण से बाहर हो गया है, क्योंकि यह तकनीकी कंपनियों की वित्तीय आपातकालीन प्रतिक्रिया (जैसे गूगल का 2001 का विज्ञापन मॉडल) से शुरू हुआ था.

जुबॉफ के विचारों के बीच डेटा को लेकर एक अवधारणा डेटा उपनिवेशवाद की सामने आती है. डेटा उपनिवेशवाद संसाधनों की बजाय केवल डेटा पर नियंत्रण के बूते कमजोर राष्ट्रों को नई तरह से गुलाम बनाने का नया साम्राज्यवाद है. यह एक तरह से वैश्विक राजनीति का नया मोड़ है. यह उस उत्तर आधुनिक दुनिया का सबसे बड़ा यथार्थ है जो दिखाई नहीं देता लेकिन वह यथार्थ में हमारे सामने है. यह होकर भी नहीं है और नहीं होकर भी मौजूद है. दूसरे शब्दों में यह आज का यथार्थ है जो डिजिटल है और इस डिजिटल यथार्थ का एक केंद्रीय तत्व है डेटा. बीते एक दशक में वैश्विक सरकारों के लिए डेटा दुनिया का नया संसाधन है.

डेटा उपनिवेशवाद की सैद्धांतिक अवधारणा को लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में मीडिया, संचार, और सामाजिक सिद्धांत के प्रोफेसर निक कूड्री और न्यूयॉर्क में सनी ओस्वेगो यूनिवर्सिटी में स्टडीज ऑफ कम्यूनिकेशन के प्रोफेसर उलीसेस मेजियास स्थापित करते हैं.

दोनों ही लेखक 2019 में आई अपनी चर्चित किताब The Costs of Connection: How Data is Colonizing Human Life and Appropriating It for Capitalism में डेटा उपनिवेशवाद की सैद्धांतिक अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं और इसे ऐतिहासिक उपनिवेशवाद से जोड़ते हैं. वे इसे एक ऐसी उभरती हुई व्यवस्था के रूप में सामने लाते हैं जिसमें मानव जीवन से डेटा को निरंतर निकाला जाता है ताकि उससे लाभ कमाया जा सके.
वे कहते हैं-

डेटा उपनिवेशवाद एक तरह से नई और उभरती हुई व्यवस्था है जिसमें मानव जीवन को इस तरह से नियंत्रण में लिया जाता है कि डेटा को निरंतर निकाला जा सके और लाभ कमाया जा सके.

वे अपनी किताब में बाकायदा स्थापित करते हैं कि जैसे 16वीं से 19वीं सदी में औपनिवेशिक शक्तियों या शक्तिशाली और संपन्न राष्ट्र दूसरे कमजोर देशों की भूमि, श्रम, और प्राकृतिक संसाधनों पर हड़प लेते थे वैसे ही आज दुनिया की बड़ी-बड़ी टेक कंपनियाँ वैश्विक नागरिकों के जीवन को ही हड़प चुकी हैं. वे मनुष्य जीवन की गतिविधियों को एक डेटा के रूप में देखती हैं और उनका प्रयोग लाभ के रूप में देखती हैं, यानी एक मनुष्य की भावनाएँ, संवेदनाएँ, उसकी आदतें और उसका दैनंदिनी जीवन एक उत्पाद है और उसे बेचा और खरीदा जा सकता है.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों ही इसे क्लाउड एम्पायर कहते हैं. यहाँ क्लाउड एम्पायर बड़ा ही रोचक टर्म है. तुलनात्मक रूप से वे कहते हैं जिस तरह से इंटरनेट सर्वरों पर डिजिटल डेटा विशाल भंडार के रूप में क्लाउड में संग्रहित होता है (क्लाउड जहाँ डेटा रोजमर्रा की गतिविधियों, जैसे सोशल मीडिया, ऑनलाइन खरीदारी, और स्मार्ट डिवाइस के उपयोग से उत्पन्न होता है). ठीक वैसे ही निक और मेजियास मानते हैं कि अमेरिका और चीन जैसे देश डेटा के जरिए वैश्विक शक्ति की होड़ में हैं. उनका मानना है कि एक ओर जैसे फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियाँ डेटा का उपयोग विज्ञापन के रूप में करती हैं, जबकि चीनी कंपनियाँ हुआवेई और टिकटॉक, डेटा का उपयोग निगरानी और नियंत्रण के लिए करती हैं.

निक और मेजियास मानते हैं कि यह एक तरह से मनुष्य के जीवन का डेटाकरण ही हो गया है, जिसमें हर गतिविधि को ट्रैक किया जाता है, मॉनिटर किया जाता है, चाहे फिर वह सोशल मीडिया पोस्ट करना हो, ऑनलाइन खरीदारी करना हो या स्मार्ट डिवाइस का उपयोग करना हो. हमारी पसंद, आदतें, भावनाएँ और यहाँ तक कि हमारी खामोशी भी अब डिजिटल डेटा में बदल रही है और इसे व्यापार का हिस्सा बना दिया गया है. वे साफ कहते हैं कि यह नया उपनिवेशवाद है, जो अब बंदूक और ताकत से नहीं बल्कि एल्गोरिदम और सर्वर से काम कर रहा है. अब युद्ध किसी जमीन या सीमा के लिए नहीं बल्कि डेटा पर लड़े जा रहे हैं, और हम सभी बिना जाने ही इस युद्ध का हिस्सा बनते जा रहे हैं.

वर्ष 30 अप्रैल 2024 में अन्ना डी’एल्टन के साथ एक इंटरव्यू Data Grab: The New Colonialism of Big Tech and How to Fight Back पर केंद्रित अपने इंटरव्यू में निक कुड्री और उलीसेस ए.मेजियास डेटा उपनिवेशवाद और उससे जुड़े शोषण के तरीकों के बारे में विस्तार से बताते हैं.

डेटा उपनिवेशवाद को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं-

दुनिया के संसाधनों पर कब्जे की लड़ाई पुरानी है बस इसके तरीके बदलते रहते हैं. डेटा उपनिवेशवाद एक उभरती हुई सामाजिक व्यवस्था है, जो दुनिया के संसाधनों को फिर से कब्ज़े में लेने के नए तरीकों पर आधारित है. कमाल की बात है कि इसका लाभ केवल एक छोटे से प्रभावशाली वर्ग को मिलता है. जैसे इतिहास में उपनिवेशवाद ज़मीन, संसाधन और मानव श्रम पर कब्जा करता था, वैसे ही यह नया उपनिवेशवाद हमारी पूरी ज़िंदगी के रोज़मर्रा की जीवनचर्या को नियंत्रित करता है, जिसमें हमारी आदतें, संवाद, भावनाएँ, रुचियाँ, संवेदनाएँ, यात्राएँ, कार्ययोजनाएँ सहित जीवन की सारी ही गतिविधि के प्रवाह को पकड़ता है और इसे वह डिजिटल डेटा के अमूर्त रूप में शामिल करता है. इसे आप कच्चा डेटा भी कह सकते हैं.

महत्वपूर्ण बात यह है कि यह है कि यह नया उपनिवेशवाद पुराने उपनिवेशवाद की जगह नहीं लेता, बल्कि उस प्रक्रिया में और भी चीजें जोड़ता है. यानी, जो उपनिवेशवादी प्रभाव पहले से मौजूद हैं, वे अब भी जारी हैं, और यह नया डेटा आधारित उपनिवेशवाद उन्हें और गहरा करता है. यह एक नया औज़ार लेकर आया है जो एक टूलकिट के रूप में है जिसमें डेटा को इकट्ठा करना, उसे प्रोसेस करना और फिर उसका इस्तेमाल करना शामिल है.

वे आगे कहते हैं कि पुराने उपनिवेशवाद और आज के डेटा उपनिवेशवाद के बीच बिल्कुल सीधा और समान रिश्ता नहीं है. जाहिर है उनका समय, तरीके और असर अलग-अलग रहे हैं. लेकिन उनका मकसद एक जैसा है, लोगों से कुछ छीनना, उन्हें नियंत्रण में रखना और उनसे लाभ कमाना. पुराने उपनिवेशवाद की वजह से जो असमानताएँ बनी थीं, उनकी गूंज आज भी हिंसा और शोषण में सुनाई देती है.

यह भी समझना जरूरी है कि कई बार हम खुद भी इस व्यवस्था से फायदा उठा रहे होते हैं, ऐसे में हमें डेटा देने में कोई हिचक नहीं होती क्योंकि हम ही तो उन ऐप्स और सेवाओं का इस्तेमाल कर रहे होते हैं जो गिग वर्करों (वे लोग जो छोटे-छोटे कार्य अस्थायी रूप से करके गुजारा करते हैं.) काम करवा रही हैं और क्योंकि हम खुद गिग वर्कर (कम मजदूरी पर काम करने वाले अस्थायी कर्मचारी) नहीं हैं और चूंकि हम उन वीडियो को नहीं देखते जो हिंसा या नफरत फैलाते है. जाहिर है ये काम फिलीपींस सहित तीसरी दुनिया के देशों के लोग बेहद कम पैसे में करते हैं और ऐसी सामग्री को रिपोर्ट कर हटाने का काम करते हैं जबकि यह काम उनके लिए मानसिक रूप से प्रताड़ना जैसा होता है.

निक कुड्री और उलीसेस ए.मेजियास मानते हैं कि यह शोषण पहले के उपनिवेशवाद की तरह खुलेआम नहीं है, लेकिन इसमें भी गहरी और खामोश हिंसा छुपी हुई है. यह पूरी व्यवस्था हमारे चुनाव या मर्जी पर नहीं, बल्कि मजबूरी और नियंत्रण पर बनी है.

दोनों ही चिंतकों के यह प्रश्न चिंतनीय है कि आज जबकि डिजिटल दुनिया के हम सभी उपभोक्ता हैं, तो हमें लगता है कि सबकुछ मुफ्त है लेकिन यह निशुल्क चक्र भी भ्रम ही है क्योंकि हमारे फोन, ऐप्स, सोशल मीडिया, यहाँ तक कि हमारा मनोरंजन यह सब किसी और के मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक श्रम पर टिका हुआ है. आप जिसकी भी हिस्सेदारी और साझेदारी कर रहे हैं वह सब श्रम पर टिका हुआ है. कौन जानता है कि मारकाट, हिंसा, अश्लीलता, विचलित करते दृश्यों और प्रताड़ना के दृश्यों से हटकर जो साफ सुथरे वीडियो हमें देखने के लिए मिल रहे हैं उनके पीछे कहीं कम वेतन पर काम करने वाला एक व्यक्ति है जो यह साफ प्लेटफ़ॉर्म हमें उपलब्ध करा रहा है. कौन है वो जो बहुत कम सैलरी में लंबी पाली और रातों को अपनी नींद खराब करते हुए काम करने को मजबूर है और इस नए शोषण तंत्र का हिस्सा बना हुआ है.

दोनों अध्येयता मानते हैं कि डेटा उपनिवेशवाद पुराने उपनिवेशवाद की जगह नहीं ले रहा है बल्कि उसका विस्तार है या उसकी नई परछाईं है. जब ज़मीन, श्रम और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को हासिल करने की सीमाएँ सामने हैं तो ऐसे में वैश्विक शक्ति संरचनाएँ मानव जीवन के मानसपटल में उसकी खुदकी सूचनाओं से सेंध लगा रही है. यह नया उपनिवेशवाद किसी बंदूक या सेना से नहीं, बल्कि एल्गोरिदम, सर्वर, और नेटवर्क से काम करता है. यह हमारे जीवन के प्रवाह़ सोचने, पसंद करने, डरने, बोलने और चुप रहने तक को डिजिटल डेटा में बदल देता है और फिर उसका व्यावसायिक उपयोग करता है. इस व्यवस्था में आम नागरिक न केवल उपभोक्ता है, बल्कि एक संसाधन भी बन चुका है. यही कारण है कि डेटा का संकलन मात्र तकनीकी प्रक्रिया नहीं है यह आज के दौर की सबसे गंभीर सत्ता प्रक्रिया बन चुकी है.

डेटा उपनिवेशवाद बेहद अलग और छद्म तरीके से काम करता है. शोषण का यह तरीका अलग और अप्रत्यक्ष है. यहाँ सीधा शोषण नहीं है. शासन का यह तरीका तलवारों या बंदूकों से नहीं चलता बल्कि लेकिन यह मजबूरी की सहमति और एकतरफा नियंत्रण पर बनी है. हर व्यक्ति स्वयं को एक उपयोगकर्ता समझने के नाते सोचता है कि वह डेटा दे रहा हे लेकिन असल में उसके पास कोई विकल्प नहीं होता, और विकल्प ना होने की यह स्थिति धीरे-धीरे कंपनियों को नियंत्रण सौंप देती है और इस तरह धीरे-धीरे यह व्यक्तियों की इच्छाओं, सोच और आदतों तक फैल जाता है. जाहिर है डेटा उपनिवेशवाद केवल एक तकनीकी या आर्थिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक नई वैश्विक सत्ता की संरचना है जिसमें एक वर्ग लाभ लेता है, और एक बहुत बड़ा वर्ग चुपचाप अपनी निजता, समय, श्रम और जीवन को खोता जा रहा है.

डेटा उपनिवेशवाद से उपजे शोषण के प्रति भी निक कूड्री और उलीसेस मेजियास का अलग दृष्टिकोण है. इंटरव्यू में विशेष रूप शोषण से पैदा होने वाली असमानताओं और विषमताओं को लेकर वे बताते हैं कि किस तरह ये असमानताएँ मौजूदा असमानताओं से जुड़ती हैं और उन्हें मजबूत बनाती हैं.

वे मानते हैं कि डेटा उपनिवेशवाद की प्रक्रिया में डेटा का बड़े पैमाने पर दोहन होता ही इसलिए है कि मुनाफा पैदा किया जा सके. महत्वपूर्ण बात यह है कि यह मुनाफे का आधार असमानता, विषमता और असंतुलन होता है और इसका सीधा असर और बड़ा खामियाजा वही समुदाय उठाते हैं जो पहले से ही ऐतिहासिक उपनिवेशवाद के शिकार रहे हैं, यानी की व्यवस्था की धारा में वे पहले से ही किसी ना किसी रूप में शोषित रहे हैं और हाशिए पर रहे हैं चाहे फिर वे जाति, वर्ग, नस्ल या लिंग के आधार पर पहचाने जाएँ या इनमें से कई पहचान एक साथ हों.

बहरहाल, आज डेटा की शक्ति किसी से छिपी नहीं है. दुनिया डेटा ही बन चुकी है. राष्ट्र, राज्य, शहर, गांव, संस्थाएँ, संगठन, नागरिक समूह से लेकर निजी जीवन तक डेटा में तब्दील है. मनुष्य जीवन इस वक्त डेटा के रूप में किसी विज्ञापन एजेंसी का ग्राहक है तो कहीं किसी सरकार को बनाने वाला मतदाता. डेटा की यह लहर आज वैश्विक सत्ता को नया आकार दे रही है. बड़ी दिग्गज टेक कंपनियाँ गूगल, मेटा, और अमेज़न सभी डेटा के जरिए ही न केवल व्यापार कर रहे हैं, बल्कि सत्ता भी हासिल कर रहे हैं. स्टेटिस्टा 2025 की रिपोर्ट बताती है कि 2025 तक वैश्विक डेटा की मात्रा 181 ज़ेटाबाइट्स तक पहुंच रही है जबकि 2028 तक यह 395 जेटाबाइट्स पहुंच जाएगा. सबसे गंभीर बात यह है कि इतनी बड़ी मात्रा में डेटा का बड़ा हिस्सा दुनिया के कुछ देशों और कंपनियों के नियंत्रण में है.

डेटा के संबंध में महत्वूर्ण बात यह है कि डेटा की प्रकृति इसे दूसरे प्राकृतिक संसाधनों से बेहद अलग बनाती है. डेटा के क्षेत्र में अब तक कई रिसर्च हुई हैं लेकिन डेटा के बाजार और उसके आर्थिक पक्ष को ध्यान में रखते हुए स्टैनफोर्ड ग्रेजुएट स्कूल ऑफ बिजनेस में अर्थशास्त्र के एसोसिएट रिसर्चर, प्रोफेसर क्रिस्टोफर टोनेटी और चार्ल्स आई.जोन्स ने महत्वपूर्ण कार्य किया है. प्रोफेसर जोन्स जहाँ डिजिटल अर्थव्यवस्था और डेटा के प्रभाव पर गहन शोध कर चुके हैं जबकि उनके सह-लेखक माइकल टोनेटी डेटा की आर्थिक नीतियों पर विशेषज्ञता रखते हैं. दोनों ही डेटा की दो मुख्य खासियतों को उजागर करते हैं. लेखक द्वय डेटा की दो खासियतें बताते हैं जिसमें पहली है गैर-प्रतिद्वंद्विता यानी की डेटा किसी भी तरह की प्रतिस्पर्धा का हिस्सा नहीं है जबकि दूसरी है आंशिक बहिष्करण, इसका अर्थ है इसका बहिष्कार नहीं हो सकता यानी की यह प्रतिबंध से बाहर और इसके इस्तेमाल को रोका नहीं जा सकता.
डेटा की प्रकृति को समझाते हुए दोनों रिसर्चर कहते हैं-

डेटा इस्तेमाल अनगिनत लोगों द्वारा किया जा सकता है और यह असिमित है, यानी की डेटा को अनेक बार, एक साथ कई लोग उपयोग में ला सकते हैं और उसका मूल रूप समाप्त नहीं होता. उदाहरण के लिए अगर किसी व्यक्ति की लोकेशन डेटा को एक ही समय पर गूगल मैप, स्वास्थ्य ऐप और ट्रैफिक विभाग उपयोग में लाते हैं, तो भी वह डेटा हर एक के लिए वैसा ही रहता है. इसके विपरीत, एक बैरल तेल या एक जमीन का टुकड़ा केवल एक बार, एक व्यक्ति द्वारा इस्तेमाल हो सकता है.

स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी के 19 सितंबर 2018 को प्रकाशित एक लेख How Much Is Your Private Data Worth and Who Should Own It? में अपनी एक महत्वपूर्ण टिप्पणी में वे कहते हैं-

विचारों की तरह डेटा की बड़ी खासियत है कि यह बहुत बड़ी मात्रा है. यह डेटा का एक बहुत ही महत्वपूर्ण आयाम है जो इसे अनोखा बनाता है जबकि इसकी तुलना में किसी भी अर्थव्यवस्था में अधिकांश संसाधन ना केवल कम मात्रा में है बल्कि कई जगह तो दुर्लभ भी है. उदाहरण के लिए यदि आप एक कार खरीदते हैं या सैंडविच खाते हैं, तो आपका पड़ोसी वही कार नहीं खरीद सकता या वही सैंडविच नहीं खा सकता लेकिन इसकी तुलना में डेटा असीमित है.

आज पूरी दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति बन चुकी डेटा इस समय एआई युग के बीच सबसे बड़ी ताकत है. आज जो राष्ट्र या संस्था डेटा को बेहतर तरीके से एकत्रित, नियंत्रित और उसका विश्लेषण कर सकती वही वास्तविक शक्ति की दावेदार है. कहना ना होगा कि चीन इस क्षेत्र का सबसे बड़ा जादूगर मुल्क बन चुका है. वैश्विक स्तर पर चीन और अमेरिका जैसे राष्ट्र डेटा उपनिवेशवाद की दिशा में बढ़ने वाले पहले राष्ट्र हैं. विशेष रूप से चीन ने जिस तरह से डेटा को लेकर रणनीति अपनाई है वह दूरगामी ही रही है. चीन डेटा की गंभीरता और उसके महत्व को समझने वाले अग्रणी देशों में से एक रहा है. डेटा को लेकर जितना कार्य चीन में हुआ वह किसी देश में नहीं हुआ.
चीनी सरकार ने साल 2014 में ही बिग डेटा को राष्ट्रीय स्तर की नीति में शामिल किया और 2015 में एक बड़े राष्ट्रीय डेटा केंद्र के निर्माण की योजना बनाई गई. यह डेटा सेंट गुइझोउ प्रांत में स्थापित हुआ फिर 2017 में, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने एक खास बैठक की अध्यक्षता करते हुए कहा-

हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि देश के महत्वपूर्ण डेटा संसाधनों की रक्षा हो, इसके लिए कानून बनाए जाएँ और डेटा पर स्वामित्व के अधिकार भी तय हों.

महत्वपूर्ण बात थी कि 2020 में एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए चीन ने डेटा को आधिकारिक रूप से भूमि, श्रम, पूंजी और तकनीक की तरह ‘उत्पादन का मूल कारक’ घोषित कर दिया, यानी अब डेटा भी वह संसाधन बन चुका है जिससे कोई देश तरक्की कर सकता है.

प्रश्न यह है कि चीन जहाँ एक ओर से तेजी से डेटा संप्रभुता को लेकर रणनीति बना रहा है तो वैश्वक स्तर पर इसके विरोधाभासी प्रभाव भी दिखाई देने लगे हैं. दरअसल, बीते एक दशक के अंदर ही चीन ने डेटा को राष्ट्रीय संप्रभुता से जोड़ दिया है. चीन की इस रणनीति का सीधा अर्थ है कि डेटा एक कीमती और गोपनीय संसाधन है और बतौर राष्ट्र वह अपने नागरिकों की डिजिटल जानकारी को देश की सीमा में रखने के लिए सख्त कानून बना चुका है जबकि विदेशी तकनीकी कंपनियों को स्थानीय सर्वरों पर डेटा संग्रह करने के लिए बाध्य करने के लिए भी कानून बना चुका है. जाहिर है यह मसला अब साइबर सुरक्षा से जुड़ा नहीं है बल्कि सीधे-सीधे एक रणनीतिक संदेश देता है कि अब डेटा भी भू-राजनीतिक नियंत्रण का हिस्सा है यानी दुनिया पर एकाधिकार, नियंत्रण और कूटनीतिक तरीके से अपने हितों का सरंक्षण डेटा के माध्यम से ही हो सकता है.

सेपियंस और होमोडेयस जैसी किताबों के लेखक और विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार युआल नोआ हरारी वर्ल्ड इकॉनामिक फोरम के वर्ष 2018 के अपने एक व्याख्या में कहते हैं-

21वीं सदी में डेटा सबसे मूल्यवान संसाधन होगा जो इसे नियंत्रित करेगा, वही दुनिया को नियंत्रित करेगा. जो लोग डेटा को नियंत्रित करते हैं, वे न केवल मानवता के भविष्य को नियंत्रित करते हैं, बल्कि जीवन के भविष्य को भी नियंत्रित करते हैं, क्योंकि आज, डेटा दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण संपत्ति है.

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) में अर्थशास्त्री कारिएर स्वैलो और विक्रम हक्सर ने डेटा नीतियों और डिजिटल अर्थव्यवस्था पर वैश्विक प्रभावों का अध्ययन किया है. वे कहते हैं-

डेटा को पूरी तरह से रोकना मुश्किल है. इसका मतलब है कि डेटा को कॉपी करना और लंबी दूरी तक, यहाँ तक कि देश की सीमाओं के पार, भेजना आसान और सस्ता है. मिसाल के तौर पर अगर आपकी एक फोटो इंटरनेट पर है, तो कोई उसे बिना इजाजत डाउनलोड कर सकता है. डेटा को रोकने के लिए उसे एन्क्रिप्ट करना या ऑफलाइन रखना पड़ता है, लेकिन यह महंगा है और डेटा की उपयोगिता कम हो जाती है.

दरअसल, डेटा का किसी भी तरह के कॉम्पिटिशन और किसी भी तरह के प्रतिबंध से बाहर होना ही इसकी मूल प्रकृति है. प्रतिस्पर्धा से बाहर होना डेटा को ताकतवर बनाता है क्योंकि यह बड़े पैमाने पर बढ़ते हुए लाभ देता है. जैसे, टेस्ला कार का डेटा एक कार में काम करता है, तो उसे लाखों कारों में भी इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन वहीं दूसरी ओर प्रतिबंध से बाहर होना इसे खतरनाक भी बनाता है, क्योंकि इसे रोकना मुश्किल है और इसका गलत इस्तेमाल हो सकता है.

बहरहाल, इतिहास हमेशा से यह बताता रहा है कि विश्व राजनीति की दिशा, दशा और गति संसाधनों से प्रभावित होती रही है. वैश्विक सत्ता हमेशा उन संसाधनों से तय होती रही है जिन्हें किसी युग में शक्ति का प्रतीक माना गया. पूर्व में ऐतिहासिक निर्णायक मोड़ हमें दिखाते रहे हैं कि जिन राष्ट्रों के पास उस समय के प्राकृतिक या कृत्रिम संसाधनों की प्रचुरता रही है वही वैश्विक सत्ता के शीर्ष पर रहे हैं.

मानव इतिहास में सत्ता का आधिपत्य उन देशों के पास तेजी से सरकता गया है, जिन्होंने अपने समय के प्राकृतिक और कृत्रिम संसाधनों को शक्ति के रूप में एकत्रित और उपयोग किया. प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक, यह सिलसिला जारी है. पहले जहाँ मजबूत और विशाल सेनाएँ, नौसेनाएँ और अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियाँ किसी राष्ट्र को सुपरपावर का दर्जा दिलाती थीं, वहीं एक दौर में वैज्ञानिक खोजों और प्रौद्योगिकी ने सत्ता के समीकरण बदल दिए. बात स्पष्ट है कि जिसके पास जितने संसाधन और उन पर नियंत्रण वह राष्ट्र “सुपरपावर” कहलाए और वे ही अंतरराष्ट्रीय नीतियों से लेकर युद्ध और शांति तक के फैसले तय करते रहे. ब्रिटेन को भाप के इंजन, मशीनों, और रेलवे की तकनीक ने उत्पादन और व्यापार में इतना अग्रणी बना दिया कि उसने भारत सहित देशों पर औपनिवेशिक शासन स्थापित किया. इस शासन के बूते ब्रिटेन ने इन देशों को लूटा और अथाह संपदा हासिल की.

इधर, 19वीं सदी का अंत बिजली और स्टील उत्पादन की टेक्नॉलॉजी के हिस्से आया. इन तकनीकों ने जर्मनी और अमेरिका जैसे देशों को ना केवल उभारा बल्कि दुनिया में अग्रणी बना दिया. रही-सही कसर अविष्कारों ने पूरी की. टेलीग्राफ और बाद में टेलीफोन ने संचार क्रांति का तूफान ही ला दिया. इस क्रांति के बूते ही इन देशों ने वैश्विक मंच पर अपनी स्थिति मजबूत की, जबकि 20वीं सदी में परमाणु तकनीक और स्पेस टेक्नॉलॉजी ने वैश्विक राजनीति के समीकरण को पूरी तरह से बदल दिया है.

20वीं सदी के मध्य में तो तेल और प्राकृतिक गैस दुनिया पर राज करने की जादुई छड़ी बने. सऊदी अरब जैसे देश तेल के विशाल भंडारों के बूते दुनिया के केंद्र में आ गए. अतीत में 1973 के तेल संकट की कहानी बताती है कि कैसे तेल उत्पादक देशों (OPEC) ने तेल की कीमतें बढ़ाकर पश्चिमी देशों को घुटनों पर ला दिया था जबकि अमेरिका ने भी तेल और प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए मध्य-पूर्व में अपनी सैन्य और राजनयिक उपस्थिति बढ़ाई.

उल्लेखनीय है कि बीते दशकों में वैश्विक राजनीति की ऐतिहासिक धारा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अविष्कारों और अनुसंधानों से प्रभावित होती रही है. परमाणु हथियार और औद्योगिक उत्पादन वैश्विक प्रभुत्व की परिभाषा और मानक तय करने लगे हैं और इसी बीच

आज 21वीं सदी में एक नया संसाधन उभरकर सामने आया है जिसका नाम है डेटा, जिसे आज “नया तेल” की संज्ञा तक दे दी गई है.

बहरहाल इतिहास के गलियारों से निकलकर डेटा इस टेक्नॉलॉजी युग की सबसे बड़ी ताकत और सच्चाई है. आज दुनिया में जिसके पास डेटा है वह ना केवल शक्तिशाली है बल्कि वैश्विक परिस्थितियों को नियंत्रित कर रहा है. आज गूगल, फेसबुक, अलीबाबा, अमेज़न और माइक्रोसॉफ्ट सहित विश्व की दिग्गज टेक कंपनियाँ वैश्विक डेटा का आधा अपने कब्जे में लिए बैठी हैं और अप्रत्यक्ष रूप से आधी दुनिया पर नियंत्रण रखती है. इस दौर का कड़वा सत्य यह भी है कि यह केवल कारोबारी और बड़े सॉफ्टवेयर बिजनेस हाउस और कंपनियाँ ही नहीं है बल्कि नव-साम्राज्यवादी शक्तियाँ हैं जिनके पास दुनिया के अरबों लोगों की व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक, और व्यावसायिक जानकारियाँ हैं और यह जानकारियों का विश्लेषण देशों में सत्ता परिवर्तन की करने की क्षमता रखता है.

वर्ष 2017 में द इकॉनॉमिस्ट पर प्रकाशित डेटा केंद्रित लेख बेहद चर्चित रहा. डेटा पॉलिटिक्स को समझने की दिशा में इस लेख में बेहद महत्वपूर्ण सवाल उठाए गए और यहाँ सीधे ही कहा गया कि विश्व का सबसे कीमती संसाधन तेल नहीं बल्कि डेटा है. 6 मई-2017 को the world’s most valuable resource is no longer oil, but data. लेख का यह शीर्षक उन दिनों विश्व में डेटा की नई प्रभुसत्ता की ओर इशारा कर रहा था. महत्वपूर्ण बात यह रही कि इसी कालखंड में ओपनएआई जैसी एआई कंपनी अस्तित्व में आई थी और यही डेटा एआई को आकार देने की यात्रा पर था. डेटा पर केद्रित इस लेख ने उन बहुत सी बातों को उजागर किया.
लेख में कहा गया-

दुनिया के धरातल पर एक नया संसाधन तेजी से बढ़ रहा है जिसका नाम है डेटा. डेटा का यह नया उद्योग करोड़ों अरबों रुपये के लाभकारी उद्योग के रूप में आकार ले रहा है. डेटा का प्रभाव इतना ज्यादा है कि इसे नियंत्रित करने के लिए नियामक संस्थाओं को सोचना पड़ रहा है और वे इसके विस्तार को नियंत्रित करने की दिशा में कदम बढ़ा रही हैं. एक सदी पहले जहाँ दुनिया का सबसे कीमती संसाधन तेल था वही आज डेटा के रूप में बदल गया है. यह डिजिटल युग का तेल है. लेख में कहा गया कि डेटा पर कब्जा करने वाली दिग्गज कंपनियाँ, अल्फाबेट (गूगल की मूल कंपनी), अमेज़न, एपल, फेसबुक, और माइक्रोसॉफ्ट एक विशाल और अजेय कंपनियों के रूप में तब्दील हो गई हैं. इनकी क्षमता, आकार और विस्तार इतना है कि यह देशों की सत्ताओं और नागरिकों के जीवन के कंट्रोल करने की ताकत रखती हैं.

दुनिया की इन पांच सबसे कद्दावर, प्रभावी और मूल्यवान कंपनियों के मुनाफे की कहानी आंकड़े कहते हैं. पांचों ही कंपनियों ने 2017 की पहली तिमाही में कुल 25 अरब डॉलर से अधिक का शुद्ध लाभ कमाया. लेख के मुताबिक अमेज़न अमेरिका में ऑनलाइन खर्च का आधा हिस्से पर कब्जा करता है, और गूगल व फेसबुक ने पिछले साल अमेरिका में डिजिटल विज्ञापन की लगभग सारी ग्रोथ को अपने कब्जे में ले लिया.

तकरीबन 8 साल से ज्यादा पहले प्रकाशित हुआ यह लेख मूल रूप से डेटा से ज्यादा उसके प्रभुत्व की चिंता की ओर इशारा करता है कि किस तरह इंटरनेट कंपनियों का डेटा पर नियंत्रण उन्हें अपार शक्ति देता है और इसकी शक्तियाँ अब तेल युग के नियमों के नियंत्रण से बाहर है. दूसरे शब्दों में तेल के युग में बने प्रतिस्पर्धा के पुराने नियम अब डेटा अर्थव्यवस्था में काम के नहीं रह गए हैं. जाहिर है स्मार्टफोन, से लेकर तमाम तरह की डिजिटल डिवाइस के संसार ने डेटा को हीरे में तब्दील कर दिया है.

आप और हम सभी जानते हैं कि हमारे जीवन की हर एक्टिविटी चाहे दौड़ना हो, टीवी देखना हो, चलना हो किसी शादी, हॉस्पिटल या आपका ट्रैफिक में फंसना हो जीवन की सारी गतिविधियाँ एक डिजिटल डेटा बन चुकी है क्योंकि यह आपके होने की निशानदेही है. आज तो घड़ियों से लेकर कारों तक सबकुछ इंटरनेट से जुड़ा है जिसका सीधा अर्थ है डेटा की मात्रा बढ़ रही है.

अनुमान के अनुसार एक स्वचालित कार प्रति सेकंड 100 गीगाबाइट डेटा पैदा करेगी. लेख एल्गोरिदम की बात करता है और नागरिकों के ग्राहक बन जाने की कहानी बताता है. कौन कब किस मार्केट से कौन सी वस्तु खरीदने को तैयार है, एक व्यक्ति कब बीमार पड़ सकता है यह सबकुछ जानकारियाँ जो कि एक डेटा है विशाल मात्रा में है और उसका उपयोग करने वाली कंपनियाँ बाजार में एकाधिकार पैदा कर रही हैं. ये कंपनियाँ संभावित प्रतिस्पर्धियों को जल्दी पहचानने की क्षमता रखती हैं, उन्हें दबाना जानती हैं और उनके व्यवहार को नियंत्रित करती हैं. एक तरह से डेटा का चक्र गोपनीयता और लोकतंत्र पर सवाल उठाता है.

बहरहाल, वर्ष 2017 में द इकॉनामिस्ट में प्रकाशित इस लेख से पैदा हुई हलचल के बाद से गंगा में बहुत पानी बह चुका है. डेटा की नियंता शक्ति और एकाधिकार की शक्तियों को लेकर ना केवल सैकड़ों रिसर्च हो चुकी हैं बल्कि बाकायदा किताबें लिखी जा चुकी हैं. आज दुनियाभर के चिंतक, कंप्यूटर साइंटिस्ट, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी डेटा, निजता और राजनीति को सवालों के कटघरे में खड़ा कर रहा है.

आज वैश्विक स्तर पर सत्ता के पुनर्वितरण और पुनर्निर्माण में डेटा की निर्णायक भूमिका किसी से छिपी नहीं है. आज जिन देशों के पास डेटा है वे निर्विवाद रूप से भविष्य की महाशक्ति हैं. ये राष्ट्र डेटा के बल पर ना केवल नागरिकों को नियंत्रित करने की ताकत रखते हैं बल्कि इन देशों की पहुंच वैश्विक उपभोक्ता संसार के व्यवहार पर है और उसे ही वह अपने हिसाब से आकार दे रहे हैं.

डेटा उपनिवेशवाद में प्राकृतिक संसाधन, भूमि, जल सहित अन्य चीजें नहीं बल्कि सूचना को उपनिवेश में बदला जा रहा है. यहाँ किसी भी राष्ट्र के नागरिक की हर क्रिया, प्रत्येक भाव और निर्णय, संवाद, और यहाँ तक उसका कुछ ना करना भी एक डेटा में तब्दील कर दिया जाता है और बाद में इसका प्रयोग इस डेटा को एकत्र कर, विश्लेषित करके व्यावसायिक लाभ के लिए उपयोग कर लिया जाता है. डेटा की शक्ति नीति निर्धारण, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, सुरक्षा रणनीति से लेकर वैश्विक कूटनीति को नई दिशा दे रही है. आज जबकि पूरी दुनिया में एआई का विस्तार तेजी से हो रहा है तो फिर डेटा पॉलिटिक्स डेटा उपनिवेशवाद के रूप में दुनिया के सामने है.

कमाल की बात है कि यह व्यवस्था पूरी तरह से एकतरफा है. यहाँ एक व्यक्ति जो कि अब उपभोक्ता के रूप में तब्दील हो गया है अपने बारे में जानकारी दे रहा है लेकिन नियंत्रण तकनीकी कंपनियों के पास है. नियंत्रण से आशय उनके पूरे जीवन की हर एक्टिविटी उनके पास है. यकीनन इससे एक तरह का एक असंतुलन पैदा हो रहा है जो न केवल आर्थिक शक्ति के केंद्रीकरण की ओर ले जाता है, बल्कि राजनीतिक स्वतंत्रता और निजी स्वायत्तता को भी खतरे में डालता है.

बहरहाल, हरारी की चेतावनी, जुबॉफ का विश्लेषण और तमाम वे रिसर्चर और अध्ययेता डेटा के क्षेत्र में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सामने हैं और उनका विश्लेषण भविष्य के मनुष्य की स्वतंत्रता के दूसरे ही मायने सामने रख रहा है. यह एक ऐसा यथार्थ है जहाँ मानव स्वतंत्रता डेटा की जंजीरों में जकड़ी है. सवाल यह उठता है कि क्या वैश्विक नागरिक की चेतना बाजार का एक प्रॉडक्ट बनकर रह गई है? और ऐसे में क्या हम अपनी आत्मा को बचाने के लिए जाग सकते हैं.

एक ऐसे समय में जब हमारी आंखें स्क्रीन पर टिकती हैं, और हमारा हाथ किसी उत्पाद पर रुकता है, जब आपकी उंगलियाँ स्क्रीन पर रुककर दो सेकंड अधिक ठहरती हैं तब आप क्या कर रहे हैं? सोच रहे हैं? या बेचे जा रहे हैं? असली संकट यही है.

मनुष्य की चेतना और अनुभव बाजार के कच्चे माल में बदलता देखना सभ्यता के इतिहास का सबसे काला अध्याय है जबकि इसमें एआई की एँट्री एक अदृश्य संचालक के रूप में होगी और जो आपके निर्णयों, भावनाओं, यादों और इच्छाओं तक को पढ़ने और गढ़ने में सक्षम है.

यह मानव स्वतंत्रता और निजता की बुनियादी अवधारणाओं को चुनौती देने वाली स्थिति है. प्रश्न यह है एक मनुष्य की स्वतंत्र चेतना की परिभाषा आखिर क्या होगी? क्या यह विकास स्वतंत्रता को पैदा करने वाला है या मनुष्य की चेतना को और ज्यादा बंधक बना देने वाला?
दरअसल, पश्चिम में राजनीतिक, सामाजिक और औद्योगिक क्रांतियों के बीच एक मनुष्य की बाह्य स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार प्राथमिक रहे हैं जबकि इसके ठीक उलट यानी की भारत में एक व्यक्ति की चेतना, आत्मा की स्वतंत्रता को उसके प्रगतिशील सर्वांगीण और समुचित विकास से जोड़कर देखा जाता रहा है. संपूर्ण भारतीय दर्शन और आध्यात्मिक परंपरा के भीतर व्यक्ति की चेतना का विकास परम् लक्ष्य माना गया है और उसकी मुक्ति परम् ध्येय.

राष्ट्रभक्त, क्रांतिकारी और दार्शनिक महर्षि अरविंद व्यक्ति की परम् चेतना की मुक्ति और उसके विकास को केंद्र में रखते हैं. वे मानते हैं कि बिना आध्यात्मिक हुए और चेतना की स्वतंत्रता के लक्ष्य को साधे किसी भी तरह का विकास संभव नहीं है. अपनी महत्पूर्ण कृति – The Life Divine के अध्याय The Spiritual Evolution वे कहते हैं-

मानव का विकास आध्यात्मिक प्रकृति का है और इसका उद्देश्य केवल एक सचेत मन या तार्किक बुद्धि का होना नहीं है, बल्कि यह उस प्राणी के विकास की ओर एक कदम और बढ़ना है जो आत्मा के प्रकाश और शक्ति को ग्रहण और व्यक्त करने में सक्षम हो.

महर्षि अरविंद का यह विचार मनुष्य के मूल उद्देश्य के प्रश्न उठाता है. आखिर इस पृथ्वी पर मनुष्य के उपस्थिति के मायने क्या हैं? क्या यह भौतिक संसाधन, इंद्रिय विषय भोग और रसरंजन की विविध लालायित करती सामग्री के पीछे भागना है या आकर्षित होते हुए तरह-तरह के मनोरंजन से अटी ऐसी दुनिया जहाँ हर क्षण एक सुख का आभास हासिल कर एकमात्र उद्देश्य उसे भोगना है और एक दिन स्वयं ही भोग बन जाना है जैसा कि एआई के इस युग में हो रहा है.

दूसरे शब्दों में कहें तों बदलती दुनिया के साथ उपभोक्तावादी संस्कृति और बाजार में मनुष्य की चेतना क्या कच्चा माल और उत्पाद भर बनकर रह गई है? आखिर ये कैसी व्यवस्था हमने बनाई है जहाँ मौजूदा वैश्विक नागरिक केवल और केवल एक बड़े बाजार का उपभोक्ता है और इस बात के लिए परतंत्र है कि वह इसके जाल से बाहर आ जाए. वह एक तंत्र का हिस्सा है और इस बात के लिए बाध्य है कि वह एक उपभोक्ता बना रहे जबकि अब तो वह केवल एक डेटा में तब्दील हो गया है.
क्या हम अपनी आत्मा को मुक्त कर पाएँगे?

____________________________

सन्दर्भ:

https://www.youtube.com/watch?v=hIXhnWUmMvw
https://www.youtube.com/watch?v=Vo6K-bPh39M
https://www.theguardian.com/technology/2019/jan/20/shoshana-zuboff-age-of-surveillance-capitalism-google-facebook
https://www.thenation.com/article/archive/shoshana-zuboff-age-of-surveillance-capitalism-book-review/
https://www.democracynow.org/2019/3/1/big_tech_stole_our_data_while
https://www.theverge.com/2019/3/26/18282360/age-of-surveillance-capitalism-shoshana-zuboff-data-collection-economy-privacy-interview-vergecast
https://networkcultures.org/blog/2022/12/13/how-to-resist-against-data-colonialism-interview-with-nick-couldry-ulises-mejias/
https://www.ft.com/content/06cc7b0f-3e32-4164-b096-ff92a1532236
https://blogs.lse.ac.uk/lsereviewofbooks/2024/04/30/q-and-a-with-nick-couldry-and-ulises-a-mejias-on-data-grab/  Interview-Q and A with Nick Couldry and Ulises A Mejias on Data Grab
https://cyber.harvard.edu/events/colonized-data-costs-connection-nick-couldry-and-ulises-mejias
https://trainingthearchive.ludwigforum.de/en/interview-3-en/
https://networkcultures.org/blog/2022/12/13/how-to-resist-against-data-colonialism-interview-with-nick-couldry-ulises-mejias/
https://www.gsb.stanford.edu/insights/how-much-your-private-data-worth-who-should-own-it
https://www.statista.com/statistics/871513/worldwide-data-created/

सारंग उपाध्याय
लेखक और पत्रकार

पत्रकार और लेखक सारंग उपाध्याय का जन्म 9 जनवरी, 1984 को भुसावल, महाराष्ट्र में हुआ. जड़ें मध्य प्रदेश के हरदा जिले में. इन्दौर यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा मिली. बीते 15 सालों से इन्दौर, मुम्बई, नागपुर, औरंगाबाद, भोपाल और दिल्ली में पत्रकारिता की. वर्तमान में ‘अमर उजाला’ दिल्ली में कार्यरत हैं. सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों के लेखन में लगातार सक्रिय सारंग सिनेमा में विशेष रुचि रखते हैं. डॉ. राममनोहर लोहिया के साथी बालकृष्ण गुप्त के आलेखों पर केन्द्रित उनकी एक किताब ‘हाशिये पर दुनिया’ 2013 में प्रकाशित है. कहानियों के लिए उन्हें 2018 में म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के ‘पुनर्नवा पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया है. ‘सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ उनका पहला उपन्यास है. इस उपन्यास पर उन्हें शैलेश मटियानी पुरस्कार भी मिला है.

ई-मेल : sonu.upadhyay@gmail.com

Tags: 2025AIAI और सर्विलांस पूंजीवादAI के खतरेAI के नुक्सानAI क्या है.सारंग उपाध्याय
ShareTweetSend
Previous Post

संस्कृत का अधिकार : कुशाग्र अनिकेत

Next Post

कविता के लिए अविश्वसनीय उपहार : जयप्रकाश सावंत

Related Posts

अविनाश मिश्र की कविता : धर्मपत्नियाँ
कविता

अविनाश मिश्र की कविता : धर्मपत्नियाँ

कुमार अम्बुज की कुछ नई कविताएँ
कविता

कुमार अम्बुज की कुछ नई कविताएँ

धर्म वह नाव नहीं : अनिल कुमार कार्की
समीक्षा

धर्म वह नाव नहीं : अनिल कुमार कार्की

Comments 4

  1. Oma Sharma says:
    3 months ago

    बढ़िया सुचिंतित लेख ।सारंग जी ने आने वाले समय में ए आई के माध्यम से जो स्वतंत्रता का हश्र होने जा रहा है और जो बहुत कुछ हो भी चुका है, पर अच्छा चिंतन किया है। परिदृश्य डरावना है।
    फिर भी, जीवन तो चलता रहेगा, जैसे अब तक चलता आया है।

    Reply
  2. M P Haridev says:
    3 months ago

    संग्रहणीय अंक लिखा है । हमारी तीसरी पीढ़ी के बच्चे युवा हो चुके । उनके पढ़ने एवं सीखने के लिए ज़रूरी मार्गदर्शन । महिलाएँ और पुरुषों सहित बच्चे तेज़ी से उपभोग करने लगे हैं । बा-ख़बर नहीं कि वे अपने संसाधनों के अपरिमित नुक़सान कर रहे हैं ।

    Reply
  3. Sankalp says:
    3 months ago

    बहुत शानदार और मंझा हुआ आर्टिकल है, यूरेनियम 235 जैसा इनरिच और डेंस, बहुत कुछ नया जानने को मिला, खासकर वो वाला विषय बहुत अच्छे से समझाया गया है, जिसमें डाटा उपनिवेशवाद का जिक्र है, बाकि बहुत बियोंड है, ये पीस बहुत आगे का है। आर्टिकल पढ़ने के बाद दिमाग में कई ख्याल आने लगे, सोचने पर मजबूर कर दिया, इस डिजिटल और एआई की दुनिया में हम एक उत्पाद बन गए हैं, डाटा के उपनिवेशवादी दौर में क्या हमारी स्वतंत्रता सिर्फ एक भ्रम है?

    Reply
  4. Anonymous says:
    3 months ago

    एआई मॉडल भ्रम पैदा करते हैं और ऐसी भावनाएं निर्मित करते हैं, जो वास्तव में हैं ही नहीं। “लेकिन मनुष्य भी तो ऐसा ही करते हैं। क्या सभी मनुष्य जो मन में होता है ईमानदारी से वही बोलते हैं। “चैटवॉट से बात करके मेरे मन में एक अजीब और भयावह भावना पैदा हुई कि अब दुनिया कभी वैसी नही रहेगी, जैसी पहले हुआ करती थी।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक