• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मैं और मेरी कविताएँ (८) : लवली गोस्वामी

मैं और मेरी कविताएँ (८) : लवली गोस्वामी

लवली गोस्वामी की कविताएँ और मैं क्यों लिखती हूँ.

by arun dev
February 28, 2020
in कविता
A A
मैं और मेरी कविताएँ (८) : लवली गोस्वामी
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
‘Poetry heals the wounds inflicted by reason.’
Novalis
कवि सदियों से प्रेम और न्याय की कविताएँ लिखते आ रहें हैं, दुःख, दर्द, पीड़ा गाते आ रहें हैं. सभ्यताएं उन्हें सुनती हैं, संस्कृतियाँ उनसे खुद को बुनती हैं. क्या उनका कुछ असर होता है, हुआ है? 
आदमी का आततायी कब बाहर आ जाता है पता नहीं चलता, अँधेरा होते ही सबसे पहले वे ही घिर आते हैं उनपर जो कमजोर, अकेले और निहत्थे हैं. रक्तपात से भरी है हर जगह. ऐसे में क्या कविता और कैसा साहित्य कई बार सवाल उठता है मन में ? व्यर्थता बोध और अकर्मण्यता की जैसे कोई जगह हो आज लिखना-पढ़ना.
 
क्या रक्त को हम रक्त से धो सकते हैं ? खून पानी से धुलेगा, आँखों के टपकते जल से. वहाँ प्रेम का फूल खिलना चाहिए. और साहित्य यही करता है. कविताएँ यही करती हैं. अंतत: वह मनुष्यता में विश्वास रखती हैं. लवली गोस्वामी की कविताएँ यही विश्वास दिलाती हैं. और इस जरूरत को रेखांकित करती हैं कि जिन हाथों में पत्थर है काश उनमें कविता की कोई लकीर होती.
मैं कविता क्यों लिखती हूँ              
लवली गोस्वामी
 

मैं क्यों लिखती हूँ? यह कहना मुश्किल है. सीधा जवाब है कि क्योंकि मुझे लिखने की इच्छा होती है. लेकिन यह बस अभी-अभी की बात है, जब मैं दो किताबें लिख चुकी हूँ. इससे पहले की बात सोचती हूँ तो याद आता है कि मैंने कब लिखना शुरू किया. मुझे पांच वर्ष की उम्र में वाक्य बनाना सिखा दिया गया था. जब मेरे मन में जिज्ञासा आती मैं पूछने के लिए बड़ों के पास जाती थी, अक्सर जो जवाब मिलते उनपर विश्वास करना कठिन होता था. मैं पूछती \”मैं कौन हूँ\” जवाब मिलता तुम लड़की हो, हमारी बेटी हो. मुझे समझ नहीं आता इसे कितना सही मानूं. मैं लड़की हूँ यह तो इस संसार में आकर तय हुआ. किसी की रिश्तेदार या संतान हूँ यह इस देह में आकर. यह मेरी देह है, यह मेरी नाक है, मेरी आँख है, यह सब मेरे शरीर के अंग हैं, इनसे परे “कुछ” मेरी आत्मा है मेरा मन है. लेकिन मैं कौन हूँ. मैं अपने सवाल, मुझे मिले जवाब, उनपर मेरी कुढ़न. यह सब कॉपी में लिखती थी. मैं पांच वर्ष की उम्र से अपनी असंतुष्टि अपनी जिज्ञासा लिखती आ रही हूँ. कभी-कभी मुझे लगता है अगर मुझे यह असंतुष्टि लिखने से रोक दिया जाए तो न जाने मैं क्या लिखूंगी. लेकिन यह तो तय है मैं कुछ न कुछ लिखूंगी ही क्योंकि यह “लिखना” अब यह आदत और प्रेम दोनों बन चुका है.

भारतीय दर्शन का वह उदाहरण याद कीजिये जिसमे रथ का उदाहरण देते हुए दार्शनिक इस प्रसिद्द प्रश्न का उत्तर देता है कि वह कौन है. रथ का पहिया रथ नहीं है, रथ की ध्वजा रथ नहीं है उसका धुरी रथ नहीं है, उसका कोई हिस्सा अकेले रख दिया जाए तो वह रथ नहीं है. फिर रथ क्या है? रथ भी मेरी तरह एक प्रश्न है. जो कुछ मैं लिखती हूँ इसी प्रश्न का उत्तर है कि मैं कौन हूँ. और मन में मैं वही पांच साल की बच्ची हूँ जिसे अब तक कोई उत्तर संतुष्ट नहीं कर सका है. मैं सिर्फ इस बात का जवाब पाने के लिए पढ़ती रही. मैं खुद से इस सवाल के हर पहलू को जांच सकूं, मैं इसलिए भी  लिखती हूँ. मैं एक पुत्री, एक बहन, एक पत्नी एक मित्र, एक माँ  या कुछ और भी हो सकती हूँ लेकिन वह सिर्फ मेरा एक हिस्सा है. पूर्ण रूप से मेरी अंतिम साँस के पहले नहीं जाना जा सकेगा कि मैं कौन हूँ. मैं उस अंतिम सांस के इंतजार में लिखती हूँ.

मुझे बोलना पसंद नहीं है. लेकिन मुझे संवाद पसंद है. खुद से और अपने जैसे बहुत से लोगों से इस सवाल का जवाब जान और सुन सकूं मैं इसलिए लिखती हूँ.  यह संवाद अन्य कला के ज़रिये भी संभव था लेकिन मेरा पारिवारिक माहौल इस तरह का नहीं था कि मुझे अन्य कलाओं के अभ्यास के लिए छूट दी जाती. पढना और लिखना ऐसी बातें थी जिसे रोज़ के काम के बीच एक बच्चा छिपा कर आसानी से कर सकता था. इसलिए मैंने साहित्य को चुना. अगर मुझे आज़ादी मिलती तो मैं नृत्य करती, फिल्मे बनाती, संगीत या चित्र रचती और इन सब में मैं उसी एक सवाल का जवाब खोजती कि मैं कौन हूँ. यह नहीं हो सका इसका मुझे अफ़सोस है भी और नहीं भी. मुझे लगता है अफ़सोस और निराशा जीवन के अभिन्न हिस्से हैं और वे भी हमारा जीवन उतने ही प्यार से बनाते हैं जितना की ख़ुशी और प्राप्तियां, मैं इस बात को समझने के लिए भी लिखती हूँ.

मेरा लिखना उसी एक सवाल से शुरू हुआ था जो आरम्भ में मैंने यहाँ लिखा, लेकिन अब इसमें कई बातें जुड़ गई है. अब मेरा दायरा, मेरी सोच के विषय बढे हैं और इसके साथ मेरे सवाल भी बढे हैं. उन सवालों के जवाब भी बढे हैं, और उनको हर कोण से व्याख्यायित करते विषय भी बढे हैं. मैं इन सब की जांच करने के लिए भी लिखती हूँ.

मुझे लिखने से ख़ुशी मिलती है मैं इसलिए लिखती हूँ. मुझे लगता है मैं जिन कष्टों से गुजरी उन्हें बाँट कर मेरा दुःख कम होगा, मैं इस स्वार्थ के कारण भी लिखती हूँ. जिन्होंने मुझे प्रेम किया उनके साथ मिले ख़ुशी के क्षण अमर (मेरा अंधविश्वास है कि लिखे हुए शब्द कभी मिटते नहीं हैं) हो जाएँ इस इच्छा में मैं इस ऋण से मुक्त होने के लिए भी लिखती हूँ. जिसने अपमान झेला, दुःख सहे उस मनुष्य को यह बताने के लिए लिखती हूँ कि तुम अकेले नहीं हो, मैंने भी अपमान और दुःख झेले हैं, आओ हम साथ मिलकर उनसे मुक्त हो जाएँ, यह सन्देश देने के लिए लिखती हूँ. मैंने जो महसूस किया वह बताने के लिए लिखती हूँ, जो न महसूस कर सकी उसकी पड़ताल करने को लिखती हूँ. बस इतनी ही बातों के लिए लिखती हूँ.

लवली गोस्वामी की कविताएँ

 

दूरफल

बकरियाँ, ऊंट जितनी लम्बी होती
तब बेरी की झाड़ी भी खजूर के पेड़ की जितनी ऊँची होती

भक्षक की क्षुधा को मात देने के लिए
उसके कद से बड़ा होना पड़ता है

सबसे अधिक
स्त्रियाँ ही जानती है ये बात.

जिंदा रहना जीव का सबसे बड़ा धर्म है
भले ही बढ़ते रहने के एवज में वह
छाया देने का वरदान खो दे

और सबकी पहुँच से दूर हो जाएं
उसके फल.

 

तुमसे पहले

अतियों से मेरे प्रेम के बीच
हमेशा तुम खड़े होते हो दीवार बनकर

मैं इतनी थकी हूँ कि तुम्हे देखकर
तुमसे पीठ टिका कर सो जाती हूँ.

प्रेम करना तो एक बात है लेकिन
कभी – कभी मुझे महसूस होता है
तुमसे मिलने से पहले मैं थी ही नहीं.

 

बेरोजगार ईश्वर

कवि और ईश्वर में नित होड़ चलती है. ईश्वर नए दुःख बुनता है. कवि उस दुःख को उसके बराबर सुन्दरता गढ़ कर जीत लेता है. ईश्वर मुस्कुराता है और फिर नया दुःख गढ़ देता है.

दुःख के बिना कवि और ईश्वर दोनों बेरोजगार हो जायेंगे.

 

उत्तराधिकार

अपने तमाम बच्चों को लेकर
एक दिन ईश्वर यात्रा पर निकला.

उसकी लापरवाही से
एक बच्चा स्टेशन पर छूट गया
वह छूट गया बच्चा कवि था.

बहुत दिन बीते इस बात को
ईश्वर को ज़रा भी भान नहीं
कि कविता में न्याय करना
अनुवांशिकता की ढिठाई है.

 

जिजीविषा

तमाम जुगनू
एक ठंढे सूरज की चिंगारियाँ हैं
जिसे हथौड़ा मारकर तोडता जा रहा है कोई
रात दर रात.

एक रात वे अपना बिखरा हुआ समुदाय एकत्र करेंगे
रौशनी जोड़कर सूरज जितना बड़ा मधुकोष बनायेंगे,
तब तक कोई कुछ भी कर ले
वे बुझेंगे नहीं.

 

सटीकता

गंध कभी धोखा नहीं देती
वे ठीक उसी चीज की याद दिलातीं हैं
जिससे वे उठ रहे होतीं हैं.

कुछ लोग भाषा से
दुःख पहुँचाने के मामले में
गंध जैसे ही सटीक होते हैं.

 

नहीं

चोंच काटकर बो देने से चहचहाहट के खेत नहीं उगते
जुगनुओं को निचोड़ने से रौशनी नहीं टपकती
ओस ओढ़कर चट्टानें कोमल नहीं होती
उदास गीत पानी में डूबते हुए बुलबुले नहीं बनाते
कविता में पंक्तियाँ चीटियों की कतार नहीं होती
इच्छा और दुःख में गहरा संबंध है लेकिन
अनिच्छा और सुख भी कोई सहोदर नहीं होते
काग़ज़ों पर अगर नहीं लिखे जाएँ सुन्दर शब्द
तो वे अजीर्ण और कुपोषण से मर जाते हैं.

 

मृत्यु से पहले

एक कथा में मैं ऐसा किरदार हूँगी
जिसे बाल सँवारने से नफ़रत है
तुम अपनी उँगलियों के पोर पर
केश–तैल की कटोरियाँ उगाना.

कड़ी धूप में चप्पल के नीचे रहने वाले
विनम्र अँधेरे की तरह
हरी पत्ती के नीचे
मासूम नींद सो रही तितली की तरह
हम कुछ वक्त छाया और सुख में रहेंगे.

आज के बाद पूरी ज़िन्दगी
हम एक गीत गुनगुनायेंगे
जिससे सब जान जाएं
यह रहस्य :
कगार पर खड़े वृक्ष हैं हम
सांझ की बेला हमारी छायाएं आगे बढेंगी
एक दूसरे से लिपट जायेंगी

राहत की एक साँस बनकर आएगी मृत्यु
जो कुछ हमने भोगा
हमें एक दूसरे से हमेशा के लिए जोड़ देगा.

 

जड़ों के बारे में

जड़ें ही जिंदा नहीं रखती पेड़ को
पेड़ भी जड़ों को जीवन देते हैं

बाज़ दफ़ा कट जाने के बाद शाखाएँ
नई जड़ें ऊगा कर खुद को बचा लेती हैं

बाज़ दफ़ा तना खोकर जड़ें पाताल के
अधेरों में लुप्त हो जाती हैं.

जड़ें हमेशा
रौशनी के विपरीत जाती हैं.

जड़ों से जुड़े रहने की वफ़ादारी
हमेशा बड़ा नहीं बनाती

बड़ी होती है मूल से कट कर
नई मिट्टी में पनप जाने की जिद.

मैं चाहती हूँ कहावत में
एक बार यह भी कहा जाए
कि जड़ों को
अपने पेड़ नहीं भूलने चाहिए.

शाखाओं को आना चाहिए
नया पेड़ हो जाने का हुनर.

 

कठबीज

कसैले- खट्टे आमले का *कठबीज है दिल
मरूं तो **गाड़ना नहीं, जला देना मुझे
कसैले फलों का पेड़ किसी के काम का नहीं होता.

फीका न रह जाए इसलिए मन को
अधिक ही पका दिया मैंने

देर तक पकी चाय कि तरह
तेज़ और कड़वे हो गये मन के बोल

किसी को परोसने से पहले
इसकी थोड़ी मात्रा में
बहुत सारा पानी मिलाती हूँ

त्वचा छोड़ कर मेरी पलकें अक्सर
सूदूर ब्रह्माण्ड में तैरती हैं, बिना पतवार

जितनी देर प्रेमी एक दूसरे को अपलक देखते हैं
मैं उनकी पलकें ओढ़कर सोती हूँ

देर तक देखती रही मैं अपनी हथेलियाँ
हाथों कि रेखाएं
झुर्रियां बनकर माथे पर ऊग आयीं

हीरा बनीं दिल में गहरे दबी आंसू की एक बूँद
उसी के बराबर का कोई दूसरा हीरा
तराश सकेगा उसे

जीवन के सागर में दुःख के सब भारी पत्थर डूबे
कविता की पंक्तियाँ लिखी थी जिनपर
तैरे केवल वे ही दुःख

उनपर पैर रखकर ही पार किया मैंने अथाह जल
कविता सेतु है मेरा
मेरे ईश्वर का नाम शब्द है.

______
*“लवली” (Phyllanthus distichus Muell.-Arg ) संस्कृत साहित्य में एक लतानुमा पौधा है, जिसका ज़िक्र कवि अक्सर करते हैं. इस कविता का शीर्षक मेरे स्वयं के नाम-रूप एक लता के बीज का द्योतक है. इसके फल खट्टे – कसैले आंवले जैसे होते हैं, जिसमे औषधीय गुण होते हैं. यहाँ यह लिखना भी समीचीन है कि “कठकरेजा” मेरी मातृभाषा “खोरठा” का शब्द है जिससे मैंने शीर्षक का शब्द “कठबीज” बनाया है. कठकरेजा का अर्थ होता है ऐसा मनुष्य जिसका ह्रदय कठोर हो. इस आँवले का बीज भी काष्ठीय होता है.
** मैं योगिओं के नाथ संप्रदाय से हूँ. नाथ सम्प्रदाय में शव को समाधि दी जाती है, अन्य हिन्दू जातिओं की तरह जलाया नहीं जाता. लेकिन मैं चाहती हूँ मेरे शव को जला दिया जाए. मैं अग्नि के ताप के प्रति अधिक आकर्षित हूँ बनिस्पत पृथ्वी के अँधेरे के. मानती हूँ देह के साथ जीवन खत्म हो जाता है, इसलिए देह को भी खत्म हो जाना चाहिए. यह बस इच्छा है, कोई सम्प्रदाय या मत इससे आहत महसूस न करें. मैं सभी के मृत्यु उपरांत कर्मकांड का सम्मान करती हूँ.

____

लवली गोस्वामी
एक कविता संग्रह ‘उदासी मेरी मातृभाषा है’ तथा मिथकों पर एक पुस्तक ‘प्राचीन भारत में मातृसत्ता एवं यौनिकता’ प्रकाशित. कुछ कविताओं के अनुवाद अंग्रेजी और नेपाली पत्रिकाओं में भी प्रकाशित.
l.k.goswami@gmail.com
Tags: कविताएँलवली गोस्वामी
ShareTweetSend
Previous Post

भाषा का काव्यात्मक यातना-गृह : स्लावोय ज़िज़ेक (अनुवाद : आदित्य)

Next Post

कृष्णा सोबती का लेखकीय व्यक्तित्व: सुकृता पॉल कुमार

Related Posts

लवली गोस्वामी की कविताएँ
कविता

लवली गोस्वामी की कविताएँ

पूनम वासम की कविताएँ
कविता

पूनम वासम की कविताएँ

सुमित त्रिपाठी की कविताएँ
कविता

सुमित त्रिपाठी की कविताएँ

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक