शिवकिशोर तिवारी
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(शिव किशोर तिवारी) |
भुवनेश्वर की कहानी ‘भेड़िये’ बिना अपवाद सभी द्वारा पसंद की जाती है. कसे हुए कथानक, कुशल शिल्प, बाप-बेटे के सशक्त चरित्रों और उच्च कोटि के भयानक रस के परिपाक के कारण अपने ढंग की यह पहली हिन्दी कहानी थी. 1938 में इसे सम्भवत: एक बहुत अच्छी रची हॉरर कहानी के रूप में समझा गया. पाठक को केवल यह बात नज़रअंदाज़ करनी थी कि ग्वालियर राज से ‘पछाँह’ के बीच दो-दो सौ भेड़ियों के झुंड नहीं होते होंगे, ज़्यादा से ज़्यादा 8-10 के होंगे, न जाड़ों में ये भेड़िये इतने भूखे होंगे कि बैलगाड़ियों पर हमला कर दें. भारत के संदर्भ में कथानक कुछ नक़ली और अविश्वसनीय है. परंतु भारत में भेड़ियों और मानवों के संघर्ष का इतिहास रहा है. कहते हैं भेड़ियों द्वारा मानव बच्चे उठाने तथा लोगों पर आक्रमण करने के फलस्वरूप कोई एक लाख भेड़िये उन्नीसवीं सदी में मारे गये थे. अत: इस कथानक को स्वीकार करने के लिए बहुत ज़्यादा ‘विलिंग सस्पेंशन ऑफ़ डिस्बिलीफ़’ दरकार नहीं है.पिछले तीसेक वर्षों में इस कहानी की पुनर्व्याख्या हुई है. अब इसे युगांतरकारी कहानी का दर्जा हासिल है.
लम्बी बर्फ़बारी के मौसम में भूखे भेड़ियों के बड़े झुंडों द्वारा मानवों पर हमले की कहानियाँ लगभग सारी रूस से आती हैं. आश्चर्य की बात है कि ख़ुद रूस में ये कहानियाँ बहुत प्रचलित नहीं रहीं. अधिकतर कहानियाँ किसी प्रवासी रूसी के द्वारा अन्य देशों में सुनाई गईं. एक ऐसी कहानी उद्धृत कर रहा हूँ, जिसके 1880 में प्रचलित होने का प्रमाण है पर उससे बहुत पुरानी हो सकती है. वक्ता रूसी है और कथा यह है –
“रूस के एक गाँव में एक शादी थी. वह हम मेनोनाइट लोगों का गाँव नहीं था; हमारे पड़ोस का कोई जर्मनों का गाँव रहा हो शायद. शादी में सबने छककर पी. शादी के बाद बारात स्लेजों में बैठकर वापस हुई. अगले गाँव तक जाना था. इस गाँववालों ने मना किया क्योंकि इलाक़े में भेड़ियों का उत्पात था. जाड़े का मौसम था, भूखे भेड़िये बड़ी संख्या में मौजूद थे, इसलिए गाँव छोड़ना ठीक नहीं था. पर वे न माने. मेरे ख़्याल से सात स्लेजें थीं. वर-वधू एक स्लेज में बैठे जिसमें तीन घोड़े जुते थे. दो चालक थे. यह स्लेज आगे-आगे चली. अन्य स्लेजों में दो-दो घोड़े जुते थे. इनमें सवारों की संख्या क्षमता से अधिक थी.
थोड़ी देर चलने के बाद, जब वे दोनों गाँवों के लगभग बीचोबीच थे तब, भेड़िये सहसा प्रकट हुए. चारों तरफ बर्फ भेड़ियों से स्याह हो गई. लोगों ने घोड़े भगाये– जहाँ तक साज़ और जोत की औक़ात थी. सबसे पीछे वाली स्लेज उलट गई. भेड़िये सवारों और घोड़ों को खा गये. एक के बाद एक हर स्लेज का यही हाल हुआ. हर बार भेड़िये थोड़ी देर को थम जाते, लेकिन जल्दी ही अगली स्लेज तक पहुँच आते. फिर आदमियों और घोड़ों की चीख़ें. यही क्रम चलता रहा. अंत में दूल्हा-दुल्हन की स्लेज बच रही.
एक चालक ने पीछे की ओर देखा; दूसरे ने पूछा, “कितने हैं?”
“काफी सारे हैं – हमारे लिए बहुत हैं, कोई चालीस-पचास.”
दुल्हन ने मुड़कर पीछे देखा. तभी चालकों ने उसके पाँव पकड़कर उसे बाहर फेंक दिया. दूल्हा उसे बचाने को लपका तो चालकों ने उसे भी बाहर धकिया दिया. भेड़ियों ने उन्हें अपना ग्रास बनाया.
अब गाँव की रोशनियाँ दिखने लगी थीं. वे घोड़ों को शक्ति-भर भगाते हुए किसी तरह बच गये.
लेकिन यह बचना किसी काम का न हुआ. उस दिन के बाद न उनकी रिहाइश का ठिकाना रहा, न कोई उन्हें कोई अपने पास बैठने देता. इस गाँव से उस गाँव घूमते. कोई उन्हें काम न देता. दादी कहती थी, पता नहीं उन दोनों का क्या हुआ.”
(Russian Wolves in Folktales and Literature of the Plains –Paul Schach, Great Plains Quarterly, spring,1983)
अमरिकी उपन्यासकार विला कैदर के उपन्यास ‘माइ ऐंटोनिया’(1914) में कमोबेश यही कहानी एक रूसी पात्र के मुँह से कहलाई गई है. यहाँ घटना की पृष्ठभूमि यूक्रेन (तब रूस का हिस्सा) है . इस कथा के अंत में नायक जेम्स का यह कथन आता है:
“रात को सोने के वक़्त अकसर मुझे यह ख़्याल आता था कि मैं तीन-घोड़े-जुती एक स्लेज में बैठा हूँ, किसी ऐसे इलाक़े में तेज़ रफ़्तार से जाता हुआ, जो कभी नब्रैस्का की तरह लगता कभी वर्जीनिया की तरह.“ (बुक 1, अध्याय 8)
भुवनेश्वर की तरह जेम्स भी कथा का स्थानीय परिवेश कल्पित करता है. नब्रैका की तरुविहीन प्रेयरी, वर्जीनिया का बर्फ़ीले तूफ़ानों का क्षेत्र यूक्रेन के निर्जन, बर्फ़ से ढके परिवेश के तुल्य नहीं हैं पर जेम्स की निजी अभिज्ञता में उसका सबसे समीपी हैं. वैसे ही ग्वालियर राज और ‘पछाँह’ के बीच का निर्जन और रेगिस्तानी इलाक़ा भुवनेश्वर को रूसी बर्फ़ीले, निर्जन क्षेत्रों के सबसे क़रीब लगा होगा.
इसी तरह की कथा रॉबर्ट ब्राउनिंग की कविता ‘इवान इवानोविच’(1878) का विषय है. कथानक यह है: रूस के किसी गाँव में इवान इवानोविच नाम का एक बढ़ई रहता है. एक दिन तड़के इवान अपने काम में व्यस्त होता है, कि एक स्लेज उसके सामने आकर रुकती है. स्लेज का घोड़ा पूरी तरह बेदम होकर ज़मीन पर गिर पड़ता है. स्लेज के अंदर दिमित्री की बीवी है जो प्राय: मरणासन्न है. गाँव के कुछ और लोग भी आ जाते हैं. महिला को बाहर निकालकर उसे होश में लाकर प्रकृतिस्थ करते हैं. लोग जानना चाहते हैं कि दिमित्री और दम्पत्ति के तीन बच्चे कहाँ रह गए. महिला बताती है कि पूरा परिवार एक महीना पहले एक अन्य दूरस्थ गाँव में काम की तलाश में गया था. काम ख़त्म हो जाने के बाद जिस दिन वापस लौटना था उसी दिन उस गाँव में आग लग गई. आग बुझाने में गाँव वालों की मदद करने के दिमित्री रुक गया और स्त्री-बच्चों को वापस भेज दिया. रास्ते में भेड़ियों के झुंड ने उन पर हमला कर दिया. स्त्री बयान करती है कि किस तरह उसने अपने तीन बच्चों को बचाने की हरचंद कोशिश की पर न बचा सकी. लेकिन उपस्थित लोगों को अंदाज़ा हो जाता है कि उसने अपनी जान बचाने के लिए बच्चों को एक-एक करके भेड़ियों के हवाले कर दिया होगा. इवान स्त्री को अपनी कुल्हाड़ी से मार डालता है क्योंकि उसे “ईश्वर का आदेश” मिलता है. गाँव का ज़मींदार इवान पर मुक़दमा चलाने की बात करता है पर पादरी उसे माफ़ कर देता है.
इस कविता में भेड़ियों के स्लेज की ओर आने का चित्रण अत्यंत रोमांचक है. देखिये-
Anyhow, Droug starts, stops, back go his ears, he snuffs,
Snorts, – never such a snort! Then plunges, knows the soughs
Only the wind: yet, no – our breath goes up too straight!
Still the low sound – less low, loud, louder, at any rate
There is no mistaking more! Shall Iean out–look– hear
Whatever it be? pad, pad! At last I turn – “ …
जो हो, घोड़ा चौंका, एक क्षण को रुका, उसके कान पीछे की ओर मुड़ गये,
उसने हवा को सूँघा, नथुने फड़फड़ाये, नथुनों की ऐसी तेज़ फड़फड़ाहट जैसी पहले न सुनी थी- और तेज़ी से भागने लगा, उसे पता था हवाओं के बारे में. केवल हवा : लेकिन हमारे नथुनों की भाप तो एकदम सीधी जा रही है !
अब भी आ रही है आवाज़ – हलकी, कम हलकी, तेज़, और तेज़,
कि अब शक की गुंजाइश नहीं. बाहर सिर निकालकर देखूँ ? सुनूँ
जो भी हो पीछे – पंजों की धप धप आवाज़, आख़िर मैं मुड़ी”–)
भुवनेश्वर की कहानी में दिन का समय है; लेकिन भेड़ियों के आने का वर्णन मिलता-जुलता है- ‘…और इसी वक्त अचानक बैल एकदम रुककर पूँछ हिलाकर जोर से भागे. मैंने सुना मीलों दूर एक आवाज आ रही थी, बहुत धीमी जैसे खंडहरों में से आँधी गुजरने से आती है– हवा आ आ आ आ आ आ आ आ !
‘हवा’ मैंने सहमकर कहा. ‘भेड़िये’ मेरे बाप ने नफरत से कहा, और बैलों को एक साथ किया. पर उन्हें मार की ज़रूरत नहीं थी. उन्हें भेड़ियों की बू आ गई थी और वे जी तोड़कर भाग रहे थे. दूर मैं एक छोटे-से काले धब्बे को हरकत करते देख रहा था. उस सैकड़ों मील के चपटे रेगिस्तानी बंजर में तुम मीलों की चीज देख सकते हो. और दूर उस धब्बे को काले बादल की तरह आते मैं देख रहा था’.
(इन वाक्यों में दो असामान्य प्रयोग हैं – ‘मेरे बाप ने नफ़रत से कहा’ और ‘चपटे रेगिस्तानी बंजर में’. सामान्यत: हम कहेंगे, ‘मेरे बाप ने हिकारत से कहा’ और ‘सपाट, बंजर रेगिस्तान में’. लगता है जैसे भुवनेश्वर मन-ही-मन अंग्रेज़ी मुहावरों ‘said with disdain/disdainfully’ और ‘flat desert waste’ का अनुवाद कर रहे हैं. ये मुहावरे ऊपर के स्रोतों में नहीं हैं. तो क्या कोई और स्रोत भी है ? या कुछ अन्य लेखकों की तरह अंग्रेज़ी में सोचने और हिंदी में लिखने की आदत का नतीजा है ? कहना मुश्किल है.)
यद्यपि पूरे विश्वास से कहना कठिन है, फिर भी लगता है कि कहानी की केन्द्रीय कल्पना भुवनेश्वर को ब्राउनिंग और/या विला कैदर से मिली होगी.
भेड़िये मई 1991 में पुन: ‘हंस’ में छपी. इस अवसर पर शुकदेव सिंह ने इसे ‘नई कहानी की पहली कृति’ बताया. नामवर सिंह यही दर्जा निर्मल वर्मा की लम्बी कहानी ‘परिंदे’ (1956) को दे चुके थे. कहते हैं शुकदेव सिंह ने नामवर जी को ‘भेड़िये’ के कथ्य पर अपना दृष्टिकोण समझाया और बुज़ुर्गवार समझे भी. शुकदेव सिंह की टिप्पणी और उससे उपजी बहस के बारे में मुझे ज़्यादा जानकारी नहीं है. इसलिए मैं केवल कृति को दृष्टि में रखकर निम्नलिखित तीन मानकों के आधार पर इस प्रश्न पर विचार करूँगा कि कहाँ तक ‘भेड़िये’ को हिन्दी कहानी में नई प्रवृत्तियों का वाहक मान सकते हैं –
1. मानवीय दशा का चित्रण
2. कथ्य से सम्बन्धित प्रयोग
3. शिल्प से सम्बन्धित प्रयोग
मानवीय दशा अंग्रेज़ी के ‘ह्यूमन कंडिशन’ का कामचलाऊ अनुवाद है. अंग्रेज़ी में भी यह अभिव्यक्ति कामचलाऊ ही लगती है. जन्म, मरण, प्रेम, घृणा, सार्थकता, निरर्थकता, आस्था, अनास्था, आदर्श, नैतिकता आदि हज़ारों चीज़ों को एक शब्द ‘कंडिशन’ कैसे व्यंजित कर सकता है ? परंतु यहाँ हमारा सरोकार इस बहुआयामी अभिव्यक्ति के उस तत्त्व से है जो साहित्य में नवीनता की सूचना देता है. विचारकर देखें तो मोटे तौर पर इस तत्त्व को इस तरह परिभाषित कर सकते हैं –
‘नये आभ्यंतर और बाह्य संघर्ष जो पूर्ववर्ती साहित्य में मुखर न हो सके’. इस दृष्टि से हिन्दी कथाकार के लिए अंत:संघर्ष का समय द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद और विशेष रूप से स्वतंत्रता के बाद आया. विश्वयुद्ध की विभीषिका ने विश्व में सभी पर असर डाला, फिर भारत तो उसमें सीधे साझेदार था. युद्ध भारतीयों ने भी दूर देशों में लड़ा और कुछ लड़ाइयाँ भारत की ज़मीन पर हुईं. आर्थिक रूप से विश्वयुद्ध ने इस देश को पूरी तरह खोखला कर दिया. युद्ध के अप्रत्यक्ष प्रभाव के रूप में 1942-43 के बंगाल के अकाल में 30 लाख लोगों की मृत्यु हुई. स्वतंत्रता के बाद व्यापक हिंसा, फिर आशा-उत्साह का काल जो जल्दी ही निराशा, मोहभंग और असंतोष की आँधी में उड़ गया– यह और ऐसी अनेक घटनायें नई कहानी की पूर्वपीठिका निर्मित करती हैं. इसलिए नई कहानी को 1950 से 1960 तक के कालखंड में रखा जाता है. मानवीय दशा के अंकन की दृष्टि से अमरकांत की ‘डिप्टी कलक्टरी’ (1956?) नई कहानी की श्रेष्ठ प्रतिनिधि है. इस कहानी में आज़ादी के बाद के माहौल में एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार के अपने वर्ग के ऊपर उठने की महत्त्वाकांक्षा का चित्रण हुआ है. विश्वास है कि ऐसा होना संभव है क्योंकि पहले बेईमानी होती थी, अब नहीं होगी – “अरे अब कैसी बेईमानी साहब, गोली मारिये …”.
अलबत्ता मानसिकता अब भी औपनिवेशिक काल की ही है और डिप्टी कलक्टरी राजयोग के बराबर है. प्रतियोगिता में बैठने वाला लड़का अपनी मेहनत पर भरोसा करता है पर माँ- बाप देवी-देवताओं की शरण गहते हैं– विशेषत: पिता, जो इसके पहले इतने धर्मपरायण नहीं थे. अंत में लड़का सफल तो होता है पर सोलहवें स्थान पर आता है जबकि रिक्तियाँ दस हैं. क्षीण आशा है कि कुछ सफल प्रतियोगी कलक्टरी की परीक्षा में सफल होने के कारण डिप्टी कलक्टरी ज्वाइन नहीं करेंगे और एकाध मेडिकल में फ़ेल हो जायेंगे. कथांत निर्णायक की जगह प्रतीक्षित रह जाता है. स्वतंत्रता के बाद के एक बड़े वर्ग की यह अपरिणत कथा मानवीय दशा की सशक्त अभिव्यक्ति है.
‘भेड़िये’ 1938 में प्रकाशित हुई, नई कहानी आंदोलन जिसे कहा जाता है उसके काल से बारह साल पूर्व. परंतु 1930-38 के कालखंड में भी अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हुईं– साइमन कमीशन, सूबों में चुनाव जिसमें कांग्रेस की भारी जीत, नमक सत्याग्रह, 1935 का ‘गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट, कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध, आजाद और भगत सिंह की शहादत आदि. भारतीयों के लिए यह राष्ट्रीय चेतना का काल था. परंतु सामाजिक-आर्थिक जीवन में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ था. मुष्टिमेय अंग्रेज़ी जानने वाला वर्ग यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद आये आधुनिकतावादी साहित्य से परिचित था और भारत में तुलनीय स्थितियों का आविष्कार कर रहा था. भुवनेश्वर स्वयं इसी जमात में थे.
अब प्रश्न यह है कि ‘भेड़िये’ में भुवनेश्वर किस समकालीन घटना का संकेत दे रहे हैं या किन नये बाह्य या आंतरिक संघर्षों की सूचना दे रहे हैं. कथानक जैसा है उसमें समकालीन जीवन का संधान करने के लिए कहानी को रूपक की तरह पढ़ना पड़ेगा. तो खारू, भेड़िये, नटनियाँ, बंदूक आदि सब प्रतीक हैं? किनके? मुझे तो नहीं सूझ रहा.
एक और तरीक़ा हो सकता है – मानवीय दशा परिवर्तनशील न होकर सनातन हो– प्रेम-द्वेष, समाज-व्यक्ति, अमीरी-ग़रीबी, युद्ध-शांति आदि, परंतु द्वंद्व या संघर्ष का निराकरण नया हो. उस समय इस निराकरण के दो सिद्धांत भारत में लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहे थे– गांधीवाद और समाजवाद. तो क्या यह कहानी गांधीवादी या समाजवादी रूपक है? या कोई और रूपक है जो मनोविज्ञान या विकासवाद जैसे किसी नवीन शास्त्र के आलोक में सनातन द्वंद्वों को देखता है?
मुझे दो प्रमुख चरित्रों में कोई ख़ास परिवर्तन या विकास नहीं दिखता. बाप-बेटे कठोर, हिंसा को सहज भाव से स्वीकार करने वाले, अपना पुश्तैनी धंधा छोड़कर लड़कियाँ ख़रीदने-बेचने का धंधा अपनाने वाले, संघर्ष और मृत्यु को जीवन का सहज अंग मानकर स्वीकारने वाले, ‘मर्द’–टाइप चरित्र हैं जो पढ़े-लिखे वाचक/लेखक को अजीब तरीक़े से आकर्षित करते हैं. लेखक का कमाल है कि वही अजीब आकर्षण पाठक भी अनुभव करता है. परंतु चरित्र बहुत कम विकसित होते हैं. कहानी में तीन क्षण आते हैं जब चरित्रों का आचरण अलग लग सकता है. एक, जब खारू दूसरी लड़की को फेकने के बजाय बैल को खोल देता है– परंतु यह व्यावहारिक निर्णय है. खारू का तर्क है कि दो लड़कियों को फेक दिया तो व्यवसाय का क्या होगा. दो, जब खारू को उस लड़की को फेकना है जो उसे अच्छी लगने लगी है. खारू उसे ढकेलना नहीं चाहता है, इसलिए कहता है, मैं फेकूँ या ख़ुद कूद जायेगी. लड़की कूद जाती है. खारू की कमजोरी से बाप-बेटे का कठोर निर्णय नहीं बदलता. तीन, जब बूढ़ा कूद जाता है. यह भी व्यावहारिक निर्णय है. दो में से एक को जाना है तो वही जाये जिसने ज़िन्दगी जी ली है.
दोनों में कोई भावुक नहीं होता. बूढ़े के पास नये जूते हैं. वह उतारकर छोड़ जाता है इस निर्देश के साथ कि मरे आदमी का जूता नहीं पहनना चाहिए इसलिए बेटा उन्हें बेच ले. जीवन को जैसे-आता-है-वैसे स्वीकारने का मनोविज्ञान केवल मुख्य चरित्रों तक सीमित नहीं है. लड़कियाँ भी अपनी नियति को कमोबेश स्वीकार कर लेती हैं. केवल एक लड़की भय से जड़ दिखाई गई है. बाक़ी दोनों में अपरिहार्य का साहसिक स्वीकार दिखाई पड़ता है. खारू के अंदर सारे घटना-चक्र के बाद भी कोई अपराधी-भाव नहीं है. यह भी कम विस्मयजनक नहीं है.
इसलिए मुझे कहीं पढ़ी यह बात समझ में नहीं आती कि ‘भेड़िये’ इफ़्तिख़ार के खारू बनने की कहानी है. खारू का नाम कभी इफ़्तिख़ार या ऐसा कुछ रहा होगा यह कथावाचक का अनुमान है और एक कैजुअल टिप्पणी है. कहानी के अंदर वह सदा खारू है या बाप के पुकारने में ‘खारे’. भेड़ियों की कहानी में वह जैसा होता है वैसा ही वह वाचक को कहानी सुनाते समय है – जवान की जगह बूढ़ा, थोड़ा और कठोर, पर मूलत: वही व्यक्ति.
एक और व्याख्या पढ़ी है. खारू व्यक्तिवादी है. अपने अस्तित्व को बचाये रखना उसका एकमात्र लक्ष्य है. कहानी के घटनाक्रम के बाद वह व्यष्टि को समष्टि में तिरोहित करना सीख जाता है. इसका प्रमाण अंतिम पंक्तियों में है. खारू जब बाद में साठ भेड़ियों को मारता है तब वह व्यक्ति न होकर समूह की इच्छा का प्रतिनिधि बन जाता है.
कहानी में स्पष्ट लिखा है कि खारू अपने पिता से वादा करता है, “जिन्दा रहा तो एक-एक भेड़िये को काट डालूँगा”. बाद में उसने भेड़िये मारे तो व्यक्तिगत प्रतिशोध की भावना से. इसमें ‘सामूहिक इच्छा’ कहाँ से आ गई?
किसी भी तरह इस कहानी की कोई प्रतीकात्मक व्याख्या सम्भव नहीं. एक पंक्ति भी ऐसी नहीं है जो इस हॉरर कथा के रूपक होने का संकेत दे. न घटनाओं और चरित्रों में ऐसा कोई इंगित है.
कहानी में कथानक यथार्थ होने की उम्मीद की जाती रही है. परंतु बहुत से लेखकों ने घटना-रहित, बिना कथानक की या अयथार्थ कथानक वाली कहानियाँ लगभग 1910 से आरंभ करके अब तक विश्व भर में लिखी हैं. स्ट्रीम ऑफ़ कांशसनेस से लेकर मैजिक रियलिज़्म तक यथार्थवादी कथानक पुरानी चाल की चीज़ समझा जाता रहा. हिंदी में कृष्ण बलदेव वैद और निर्मल वर्मा ने इस तरह के प्रयोग किये हैं. इस प्रकार की पहली हिंदी कहानी सम्भवत: अज्ञेय की ‘गैंग्रीन’ (अन्य नाम ‘रोज़’) होगी जो 1934 में प्रकाशित हुई थी.
कथ्य की ऐसी कोई नवीनता ‘भेड़िये’ में नहीं है. उसमें पारम्परिक कहानी की तरह चरित्र और घटनायें हैं और स्वप्न, आभ्यंतर आत्मालप, फ़ैंटेसी आदि का सहारा बिलकुल नहीं लिया गया है. इस तरह के फ़ैशनेबुल और अर्जित आधुनिकतावाद को यदि एकमात्र मानक स्वीकार भी करें तो हिंदी की पहली नई कहानी ‘गैंग्रीन’ होनी चाहिये.
भेड़िये शिल्प की दृष्टि से विशिष्ट है. मितकथन के ऐसे अन्य उदाहरण विरल हैं. खारू पहली लड़की को फेकता है. दो पंक्तियों में उसके भयानक अंत का यह बयान देखें : ‘एकदम से वह नजर से ओझल हो गई. जैसे किसी कुएँ में गिर पड़ी हो’. लगभग सभी प्रसंगों को इसी मितव्ययी दक्षता से बयान किया गया है.
भाषा और मुहावरों की प्रामाणिकता कथा की विश्वसनीयता बढ़ाती है– आईन (शायद ब्रिटिश भारत), पनेठी (छोटी लाठी), गड्डा, गड्डा अफसर था (सबसे अच्छी बैलगाड़ी थी), गिरस्ती (प्रतिदिन उपयोग होने वाली चीज़ें), जैसे बंजारिनें ब्यानेवाली भैंसों की नकल करती हैं (संभवत: बंजारों की कोई रस्म या खेल), इत्यादि.
परंतु अंत के वाक्यों में मितवाचन अस्वाभाविक हो जाता है. बाप के भेड़ियों द्वारा खा लिए जाने का प्रभावोत्पादक वर्णन समाप्त करने के बाद कथाकार खारू के बच निकलने की कहानी को केवल एक वाक्य में ख़तम कर देता है, “मैं ही किसी तरह भेड़ियों से बच गया”. इतनी हड़बड़ी वाला अंत निराश करता है.
अंतिम पंक्तियों में खारू अगले साल भर में साठ भेड़ियों को मारने का दावा करता है (उसने बाप से वादा किया था कि एक-एक भेड़िये को काट डालेगा). एक साल में साठ भेड़ियों को रेगिस्तान में ढूँढ़कर मारने का दावा शेखी बघारने जैसा लगता है, जो खारू के चरित्र से मेल नहीं खाता, न कहानी की विश्वसनीयता में कुछ जोड़ता है. आख़िरी वाक्य – ‘और वह भूखा, नंगा उठकर सीधा खड़ा हो गया’ – शेष कहानी की तुलना में नाटकीय है और लेखक की मितवाचक शैली को पटरी से उतारता है. इस वाक्य से लेखक का क्या उद्देश्य सिद्ध होता है यह पता नहीं चलता.
शिल्प की इस संक्षिप्त चर्चा के बाद यह देखना है कि इसमें युगप्रवर्तक नवीनता क्या है. कहानी पारम्परिक ढंग से लीनियर रूप से चलती है. पिछले युग की एक और प्रथा लेखक काम में लाता है. कहानी लेखक/वाचक को कोई और (खारू) सुनाता है और लेखक उसे केवल पाठक के लिए दुहराता है. इस तरह श्रेष्ठ शिल्प के बावजूद यह कहानी शिल्प के क्षेत्र में कोई नवीन प्रयोग नहीं करती.
1.‘भेड़िये’ बहुत अच्छी हॉरर कथा है. पर इससे अधिक कुछ नहीं है.
2.कहानी संभवत: पूरी तरह मौलिक नहीं है. प्रबल सम्भावना है कि इसका केन्द्रीय तत्त्व अन्य स्रोतों से उधार लिया गया है.