उत्सव का पुष्प नहीं हूँ शिव किशोर तिवारी |
कवि के पहले संग्रह की पहली कविता ‘क्या सोचती होगी धरती’ खूब लोकप्रिय हुई थी. किसी ने अंग्रेजी में अनुवाद भी किया था. इस दूसरे संग्रह की पहली कविता ‘वेटिंग रूम में सोती स्त्री’ में भी लोकप्रिय होने की संभावना खूब है. इस कविता में एक बहुत छोटा सा दृश्य है– दिन चढ़े एक स्त्री रेलवे प्रतीक्षालय में बेसुध सो रही है और आसपास कुछ अन्य औरतें बैठी हैं. शेष वाचक के ख्याल हैं, जिन्हें कालरिज की भाषा में ‘फैंसी’ कहेंगे. अंत में कल्पना, जिसे कालरिज ‘इमैजिनेशन’ कहते हैं, के माध्यम से मुक्त और स्वयंप्रभु स्त्री की एक संकल्पना प्रस्तुत की गई है.
(संक्षेप में, कल्पना मन की वह सृजनात्मक शक्ति है जो विचार या भाव की एकता बनाती है जब कि ख्याल उत्प्रेक्षा, रूपक आदि का निर्माण करने वाली अपेक्षाकृत स्थूल शक्ति है.)
कविता की शुरूआत साधारण ढंग से कुछ घिसे-हुए दो समानांतर रूपकों के साथ होती है–
हरे मखमली पत्तों पर सहेजा
चम्पा का शीलवान फूल नहीं
अज्ञात रेगिस्तान में
जहाँ-तहाँ भटकता
ख़ुदमुख्तार रेत का बगूला है
रेलवे के प्रतीक्षालय में बेसुध सो रही औरत.
परंतु इसके बाद ही कविता गति पकड़ लेती है और उत्प्रेक्षा, रूपक तथा शब्द-चित्र शक्तिशाली होते जाते हैं. यह चित्र देखें–
रेलवे वेटिंग रूम में सोती हुई अकेली स्त्री
जवाबदेह नहीं
चाय की असमय पुकार की.
एक साधारण दैनंदिन घटना किस तरह अनंत रूपों में प्रतिक्षण घटित होते अन्याय का रूपक बन जाती है! कविता की आखिरी पंक्तियाँ:
वह औरतों के
अकारण रात भर घर से बाहर रह सकने
की अपील पर
पहला हस्ताक्षर है.
यह पंक्ति एक बिम्ब में नारी-मुक्ति के अनेक आयाम समेट लेती है. फिर भी यह कविता अपनी सम्पूर्णता में मुझे क्यूरेट के अंडे की याद दिलाती है– ‘गुड इन पार्ट्स’.
संग्रह के शीर्षक से लगता है कि ये कविताएँ स्त्री के संघर्षों पर केंद्रित होंगी, परंतु संग्रह की सबसे आकर्षक कविताएँ प्रेम कविताएँ हैं.
प्रेम कविताएँ
कुल 68 कविताओं में से कोई बीस प्रेम कविताएँ हैं. ये सभी भाव, ऐंद्रिय बोध, कल्पना और शिल्प की दृष्टि से अधिकांश अन्य कविताओं से बेहतर हैं. ये ध्यान से पढ़ने वाली जटिल कविताएँ हैं. कवि अनेक संचारी भावों को एक बहुत बारीक स्थायी भाव या विचार के धागे से बांधकर प्रेम कविताओं का ढाँचा खड़ा करती हैं. संचारी भाव निकट और अधिगम्य हैं. उनका आधार ऐंद्रिय होने के कारण हमारे निकट स्पष्ट है. परंतु भाव/विचार का धागा इतना स्पष्ट नहीं है, वह ऐसा है जिसे अंग्रेजी में ‘ऐम्बिग्युअस’ कहते हैं– अर्थात् एकाधिक तरह से व्याख्यायित हो सकने वाला. एक उदाहरण से समझते हैं–
तुम मेरे पास हो इतने
कि मैं हवाओं की सहज गंध भूल गई हूँ
इतने कि मेरे होठ काँपते हैं
तुम्हारी दृष्टि की हलचल से भी
इतने कि हमारे मध्य
अब स्पर्श का स्वप्न भी शेष नहीं
इतने कि
नहीं देख पा रही
तुम्हारा हाथ बंदूक के घोड़े पर है
या धमाके के बटन पर
कविता का शीर्षक ‘कुर्ब’ है, यानी सामीप्य. यह सामीप्य शारीरिक भी है और मानसिक भी. यद्यपि इस सामीप्य से पैदा होने वाले शारीरिक-मानसिक परिवर्तन अपरिचित या अल्पपरिचित बिम्बों में व्यक्त हुए हैं तथापि बोधगम्य हैं. हवाओं की गंध भूल जाने का अर्थ है परस्पर देह-गंध का अनुभव करना.
‘ऐसी समीपता कि हवा के लिए भी जगह नहीं’ यह भी आशय हो सकता है. परंतु दोनों बिम्बों का अभिप्राय एक ही है. ‘मेरे होठ काँपते हैं तुम्हारी दृष्टि की हलचल से भी’ बहुत सुंदर बिम्ब है जिसे शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर घटित किया जा सकता है. इसके बाद वाला बिम्ब भी चाक्षुष न होते हुए भी ‘ऐम्बिग्युअस’ नहीं है. परंतु अंतिम चार पंक्तियाँ चकित करने के अतिरिक्त पहले की छह पंक्तियों के विपरीत अत्यंत ‘ऐम्बिग्युअस’ हैं. ‘बंदूक के घोड़े’ में इंदिरा गांधी की हत्या और ‘धमाके के बटन’ में राजीव गांधी की हत्या का संदर्भ है, ऐसा इंगित कविता में पहले आ चुका है.
पहले मामले में हत्यारे और मकतूल का संबंध रक्षक और रक्षित का मानसिक संबंध है; दूसरे में शारीरिक सामीप्य है. इन उपमानों से वाचक प्रेमिका क्या व्यक्त करना चाहती है? उसकी अपनी असुरक्षा की भावना हो सकती है जिसका प्रेमी से कोई सम्बंध नहीं है; अथवा पूर्व प्रेमियों का अप्रिय अनुभव हो सकता है या पुरुष मात्र का अप्रिय अनुभव. और गहरे स्तर पर, इन पंक्तियों में शायद यह भाव व्यक्त हुआ है कि वाचिका प्रेम में छले जाने की सम्भावना के प्रति सचेत होते हुए भी प्रेम करती है. सबसे दारुण संकेत यह हो सकता है कि प्रेम का अंत स्त्री के लिए सदा वंचना में ही होना है.
एक अन्य कविता से कुछ पंक्तियाँ –
प्रेम में तुम्हारे वक्ष पर माथा टिकाते
दूसरी बार भी नहीं सोचा था
प्रेम के बिना किन्तु
अपने कमरे से बाहर आते भी
धूप में निर्वस्त्र खड़े होने जैसी लाज
आती है.
‘दूसरी बार भी नहीं सोचा था’ शायद अंग्रेजी मुहावरे ‘हैड नो सेकंड थाट्स’ का हिन्दी रूपांतर है. यह कविता कदाचित् ऐंद्रिक (सेंसुअल’) प्रेम के बारे में है. वक्ष पर माथा टिकाना परिचित बिम्ब है जिसका आशय इस कविता में शारीरिक प्रेम हो सकता है. ‘कमरे से बाहर आते भी’ शारीरिक प्रेम के पश्चात् वाली मन:स्थिति का सूचक लगता है. परंतु मन:स्थिति को व्यक्त करने वाला वाक्य ‘प्रेम के बिना किन्तु… धूप में निर्वस्त्र खड़े होने जैसी लाज आती है’ सरल नहीं है. इससे यह ध्वनि निकल सकती है कि वाचिका के मन में प्रेमी को लेकर संदेह, या कम से कम अनिश्चय, का भाव है. कमरे के अंदर का विश्वास बाहर आकर डोल रहा है. अथवा यह भी भाव हो सकता है कि वाचिका को अपने प्रेम के बारे में ही आश्वस्ति नहीं है. या यह सीधा अर्थ हो सकता है कि प्रेम का साथ न हो (अथवा उसका वेग शमित हो) तो शरीरी प्रेम के प्रति एक अनाम ब्रीडा उपजती है.
अन्य, सभी प्रेम कविताओं की चर्चा संभव नहीं है. परंतु दो कविताएँ औरों से अलग, सम-लिंगी आकर्षण पर केंद्रित, प्रतीत होती हैं– ‘प्रेमिकाओं-सी लड़कियाँ’ और ‘रूमी का माशूक’.
प्रेमिकाओं-सी लड़कियाँ खूबसूरत कविता है. इसमें समलिंगी आकर्षण की हलकी सी झलक मिलती है, पर कोई यह व्याख्या स्वीकार न करे तो भी कविता उतनी ही सुंदर रहेगी. रूमी का माशूक रूमी और शम्स तमरेज के ‘ऐम्बिग्युअस’ सम्बंधों को विषय बनाती है. इस गद्य कविता को पढ़ते हुए कई बार कृष्ण कल्पित की याद आई, खास तौर से आखिरी पंक्ति को पढ़ते हुए–
दुनिया जानती है, मौलाना जलालुद्दीन रूम को खुदा और तबरेज के इश्क ने रूमी बनाया, किताबों ने नहीं.
प्रेम कविताओं में यही एक कविता मुझे निराशाजनक लगी.
इस चर्चा को विराम देने के पहले ये मोहक बिम्ब उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ–
1.
प्रतीक्षा बहुत निष्फल हुई है प्रेमियों की
तुम अनामंत्रित आ जाना
ऐसे कि मैं अलगनी से कपड़े उतारूँ
और तुम्हारा हाथ मेरे हाथ में आ जाए
2.
प्रेम में सब गँवा चुकने वाले भी
विरह में सब खो सकते हैं
मगर मैं यूँ बिछड़ी
जैसे मकड़ी गिरती है
पेड़ की शाख से
दूरी के साथ लंबा होता जाता है
नेह का तंतु
स्त्री-विषयक कविताएँ
प्रेम कविताओं में भी कई बार स्त्री की स्थिति का विचार प्रकट होता है परंतु बीस-इक्कीस शुद्ध स्त्री-विषयक कविताएँ भी संग्रह में शामिल हैं. इनमें सबसे अच्छी वे तीन-चार कविताएँ हैं जो स्त्री कवि के बारे में हैं. इस श्रेणी की अन्य कविताओं में गुणवत्ता असमान है. कुछ कविताएँ अत्यंत साधारण भी हैं.
स्त्री कवि होने की स्थिति एक मर्मस्पर्शी कविता में सहजभेद्य आत्मसंदेह के साथ प्रकट हुई है और अन्य एक कविता में प्रबल आत्मविश्वास के साथ. पहली कविता का शीर्षक है ‘कविता के असगुन’.
अमंगल की आशंका जीवन के साथ लगी है. वह कोई भ्रम या अंधविश्वास नहीं है, जीवन के अनुभवों से उपजा एक चोर भय है जो मन के किसी कोने में छिपा रहता है. कुछ अच्छा घटने के दौरान यह चोर अपनी उपस्थिति का संकेत देता रहता है और संशय उत्पन्न करता है.
यह कविता इस संशय के बारे में है. एक किशोरी कवि के लेखन पर मुग्ध होती है. शायद ये कविताएं कैशोर्य के अनुभवों से उपजी हैं, इसलिए. एक हमउम्र पुरुष इन कविताओं से झांकनेवाली स्त्री से प्यार करने लगता है. इसी क्षण कवि को भय सताता है- सृजन के किस बिन्दु पर पहुंचकर इस किशोरी का मोह और इस पुरुष का प्रेम निराशा और धिक्कार में बदल जायेंगे? इन प्रियजनों को कब तक अनुकूल बनाये रख सकते हैं!
‘सुनो, प्रियजन! मैं किसी सतत् चलने वाले उत्सव में प्रयुक्त होने वाला ताजा फूल नहीं हूं. जीवन ने मुझे फींचकर उज्ज्वल किया है. एक ऐसा समय था जब भरी-पूरी नदी मेरे देखने भर से सूख जाती थी. इसलिए अब कुछ अच्छा होने लगता है तो अंतर में अमंगल का भय ब्यापता है.’
कवि चाहने वालों से कहती हैं- “एक बार और देख लो. शायद मेरी कविता पर नाहक फिदा हो रहे हो. मुझे मालूम है मैं अंदर से कितनी साधारण हूँ. मुझे मालूम है मैं कितना छुपाती हूं और कितना कम बयान करती हूं. तुम अकारण इसे मेरी समग्र अभिव्यक्ति मानकर मुग्ध हो रहे हो. और तुम्हारे चाहने पर पूरा भरोसा करने का भरोसा भी मेरे अंदर नहीं है.
होंगे कोई भाग्यशाली लोग जो दूसरों का अहेतुक (अर्थात् जिसका कोई सीधा कारण- जैसे आपसी परिचय, रूप, बुद्धि आदि- न हो) प्रेम सहज रूप से स्वीकार कर पायें, बल्कि उसे अपना अधिकार समझें. मुझमें वह असंशय मति नहीं है.”
प्रसंगत:, संग्रह का शीर्षक इसी कविता से आया है.
इसके विपरीत ‘अरक्षणीय’ शीर्षक कविता में स्त्री कवि का यह शंखनाद है–
मैं वह रेखा
जो तुम्हारी ज्यामिति से बाहर निकल गई है
तुम्हारी खगोल विद्या से बाहर का तारा हूँ
मैंने कमरे के अंदर आना चाहा था बस
तुम्हारी शाला की विद्यार्थी नहीं मैं
पहली कविता की ‘वल्नरेबिलिटी’ और दूसरी कविता की दर्पित ललकार– दोनों ही वास्तविक हैं. हिन्दी में स्त्री कवि की स्थिति को दोनों ही अभिव्यक्त करते हैं. मनोविज्ञान के क्षेत्र में घुसने की न मेरी योग्यता है न इच्छा. परंतु कोई भी सावधान प्रेक्षक यह देख सकता है कि वल्नरेबिलिटी और आत्मदर्प दोनों ही स्त्री कवि के मनोविज्ञान के अंग है. इस कारण श्रेष्ठ स्त्री कवियों में परिस्थितियों के प्रति एक प्रकार का ‘न्यूरॉटिक रेस्पांस’ मिलता है. इसी संग्रह से देखें:
यह भी नहीं कि मौन वह सब कर रहा था मेरे लिए
जो औरों के लिए शब्द कर रहे थे
कितनी बार काटे होंठ
जीभ की तर अपनी ही लार से
पर्यायवाची ढूँढ़े
विलोमों से तटस्थ किया अर्थ को
इतना सोचा बोलने से पहले
कि बोलना स्थगित कर दिया हर बार
(‘स्थगित’)
स्त्री के पास जबान नहीं है, इसका कारण और समाधान नहीं मिलता कवि को. सामान्यत: इस प्रश्न का उत्तर कठिन नहीं होना चाहिए. परंतु यहाँ कठिनाई वाचिका के मनोविज्ञान को लेकर है. वह अपनी आवाज़ पाना चाहती है और उसके लिए प्रयास भी करती है. पर उसे तीखी बात का एक कोमल विकल्प ढूँढ़ना है. अपर पक्ष का दृष्टिकोण समझते हुए अपनी बात में संतुलन भी रखना है. फलत: वह वहीं पहुँच जाती है जहाँ से शुरू किया था– निर्वाक्यता की स्थिति.
संग्रह की स्त्री-विषयक कविताएं कहीं-कहीं शिल्प-कौशल से भाव या विचार की कमी को ढँकती हैं. ये कविताएँ प्रीतिकर होते हुए भी खोखली-सी लगती हैं. उदाहरण के लिए ‘देखने का ढब’ नामक कविता इस चमत्कारपूर्ण शब्द-चित्र से आरंभ होती है :
मिट्टी नाम की एक लड़की
बहुत कुचली गई तो
धूल बन गई
फिर आकाश-तो-आकाश
उसने गोधूलि का सूर्य भी ढक लिया.
पर इस कविता के कथ्य में कोई गहराई नहीं है. अंतिम पंक्तियों तक पहुँचते- पहुँचते कविता इस तरह के मामूली मुहावरे तक उतर आती है, जो केवल मंच पर पाठ करने लायक हो तो हो–
पूछना मत चुपचाप देखना
कि लिखते हुए एक लड़की
अपनी कलम को
कमल नाल की तरह पकड़ती है या तलवार की तरह.
ऐसी कविताओं की संख्या नितांत नगण्य भी नहीं है. देह भव, पीछे हटती हुई औरत, अमीर औरतें, गुम चोट आदि आठ-एक कविताएँ प्रदर्शित करती हैं कि कवि को स्त्री-विमर्श के क्षेत्र में कुछ और बौद्धिकता विकसित करनी होगी.
कुछ व्यक्तिगत संदर्भ
कितनी पुरुष हो जाना चाहती हूँ, माँ का असलहा, गुड्डो फिर चलाना साइकिल, वहाँ जाना तो है, घुसपैठिया, पिताओं की दुनिया में, पिता कहाँ हैं– और कदाचित्, मैं उससे यूँ बिछड़ी– में कवि के जीवन के व्यक्तिगत संदर्भ हैं ऐसा प्रतीत होता है: पिता की यादें और असाध्य बीमारी, माँ की मृत्यु, दो लड़कियों के बाद एक पुत्र की आशा कर रहे दम्पति के घर में कवि का जन्म लेना आदि. ये प्रामाणिक अनुभव की कविताएँ हैं, अत: निर्विवाद रूप से पठनीय है.
‘गुड्डो फिर चलाना साइकिल’ में पिता की रक्षणशीलता और इसके प्रति छोटी लड़की का अस्पष्ट-सा अस्वीकार सुंदर ढंग से व्यक्त हुए हैं. ‘मैं उससे यूँ बिछड़ी’ के व्यक्तिगत संदर्भ के बारे में बिलकुल भी आश्वस्त नहीं हूँ, पर यह कविता असाधारण रूप से प्रभावोत्पादक है. इसकी अंतिम पंक्तियों को मैंने ऊपर उद्धृत किया है – “प्रेम में सब गँवा चुकने वाले भी …”.
यदि कोई संग्रह की एक ही कविता पढ़ना चाहे तो मेरी संस्तुति इस कविता के लिए होगी.
‘कवि का गद्य’
अंतिम अठारह पृष्ठों में ‘कवि का गद्य’ शीर्षक से कई छोटी गद्य- रचनाओं को शामिल किया गया है. इनमें अधिकतर दस या इससे कम पंक्तियों की और थोड़ी-सी पन्द्रह-बीस पंक्तियों की रचनाएं हैं. केवल एक गद्यखंड एक पृष्ठ जितना लम्बा है. कवि के अनुसार इन्हें किन्हीं आमिर हमजा की प्रेरणा से लिखा गया है. ये आमिर हमजा कौन हैं मुझे नहीं मालूम, दास्तानों वाले हमजा तो न होंगे.
इन गद्यखंडों में कुछ चिंतन (म्यूजिंग्स) है, कुछ स्मृतियाँ और स्त्री की स्थिति पर तीन-चार टिप्पणियाँ. मुझे इनमें से कुछ ही अच्छे लगे परंतु संभव है आपको बहुत-से पसंद आयें. इस लेखन की भी एक अपील होती है.
एक गद्यखंड जो मुझे पसंद आया उद्धृत करता हूँ. पढ़ते समय कल्पना कीजिए कि यह रचना एक टीनेज लड़की के ‘क्रश’ के बारे में है.
“समंदर
किसी ने कहा था, तुम्हारे शहर में बारिश की बहुत जरूरत है, तुम्हें अपने समंदर के लिए भी तो पानी चाहिए
उसके बाद जब-जब बारिश होती मैं पानी को समंदर की ओर बहते देख आश्वस्त होती. मैं नहीं जानना चाहती थी कि उसने यह मज़ाक़ में कहा है
मेरे लिए इस शहर, इसकी बारिश, इसके समंदर से अधिक जरूरी वह आदमी था
जो इतने बड़े से समंदर और इतने छोटे से दिल को
एक सरसरी निगाह देखकर चला गया था
मैं साल भर बारिश का रास्ता देखती थी, मैं जिये भर मन्नतें माँगती थी कि मेरे शहर के समंदर में कभी पानी कम न हो.”
केवल दो पूर्ण विराम; इसे कविता कह सकते हैं.
समापन
कवि के रूप में अनुराधा सिंह पाँचेक वर्षों में बहुत आगे बढ़ आई हैं. इस संग्रह की प्रेम कविताओं को निर्द्वंद्व भाव से हिन्दी की श्रेष्ठ प्रेम कविताओं में शुमार करूँगा. वस्तुत: जयशंकर प्रसाद के ‘आँसू’ के अतिरिक्त मुझे कोई अन्य कृति याद नहीं आ रही है जिसमें प्रेम की इतनी छवियाँ इतने मौलिक और हृदयग्राही शब्दचित्रों में प्रकट हुई हों. स्त्री विमर्श की कविताओं में बहुत-सी श्रेष्ठ हैं पर मेरा मत है कि बौद्धिकता के पक्ष पर काम करना चाहिए– सीधे तरीके से कहूँ तो इस विषय पर और पढ़ना चाहिए. किन्हीं कविताओं में व्यक्तिगत जीवन की झलक अंतरंग कोमलता से भरी है. यह अंतरंगता कविता का गुण है, लेकिन मेरा अनुभव है कि यह कवि-व्यक्तित्व की खासियत भी है; जैसे, वीरेन डंगवाल का व्यक्तित्व और उनकी कविता.
यह संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.
शिव किशोर तिवारी २००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त. हिंदी, असमिया, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, सिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और आलोचनात्मक लेखन.5/31, विकास खंड,गोमती नगर, लखनऊ- 226010 |
आज यह विस्तृत समीक्षा पढ़ कर कॉलेज का जमाना याद आ गया । तब हम एक एक कविता पढ़कर उसका भावार्थ लिखा करते थें । 1981 से 85 तक हिंदी साहित्य को गंभीरता से पढ़ी थी उसके बाद साइकॉलजी आनर्स था इसलिए उस पर अधिक फोकस करना पड़ा और पालिटिकल साइंस के प्रोफेसर बहुत अच्छे थें तो उस तरफ़ ध्यान खुद ब खुद खींच गया । बरसों बरस बाद आज वो गुज़रा ज़माना याद आ गया । हालांकि काफी दिनों से हिन्दी साहित्य में लिख रही हूं पुस्तकें भी प्रकाशित हो रही हैं लेकिन आज आपके पुस्तक की समीक्षा पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ।
बहुत सुंदर, तिवारी जी💐
शिवकिशोर तिवारी जी को कविता के पाठ-विश्लेषण में महारत हासिल है. यह पुस्तक समीक्षा इसका साक्ष्य है कि कविता की गहन संरचना में भावानुप्रवेश करके कोई समालोचक कैसे उसकी बहुस्तरीय बुनावट को परत- दर- परत खोलकर सामान्य पाठकों के लिए अनुभवगम्य बना सकता है.आलोचना इससे सार्थक बनती है.
आलोच्य कविता संग्रह की रचनाओं की खूबियों की व्याख्या के साथ कमजोरियों की दो टूक शिनाख्त आदरणीय तिवारी जी के विश्लेषण को विश्वसनीय बनाती है.
राजशेखर की शब्दावली में कहें तो आलोचना के नाम पर सिर्फ़ तारीफ़ के पुल बाँधने अथवा शिकायती लहज़े में अपने पूर्वग्रहों को व्यक्त करने वाले दृष्टिदोष से पीड़ित आलोचकों (?) से भिन्न एवं विपरीत तिवारी जी एक ‘तत्वाभिनिवेशी’ समालोचक हैं.राजशेखर ने लिखा है कि किसी कवि को बड़े पुण्य-प्रताप से एक ऐसा आलोचक मिलता है जो परिश्रम से उसकी रचनाओं में निहित गूढ़ अर्थो का संधान करता है.
शिवकिशोर जी लेखन से सीखने की बात यह है कि रचना की व्याख्या के दौरान वे फ़तवा जारी करने के बजाय विनम्रता के साथ अपना अभिमत विचारार्थ प्रस्तावित करते हैं.
इस आलेख में यथास्थान उदधृत कविताओं को लेकर उनकी कुछ मान्यताएं बहसतलब हैं. बावजूद इसके उनमें इकहरापन नहीं है.
कवि को बधाई और हिंदी के इस वरिष्ठ समालोचक को सादर प्रणाम.
बहुत समृद्ध समीक्षा,एक बेहतरीन रचनाकार को रचनाकार के रूप में स्थापित करने ,लोक में रचना को पहुँचाने का काम एक ईमानदार बौद्धिक आलोचक कर सकता है.यह समीक्षा समृद्ध और सच्ची है. जितनी बधाई दी जाये कम है.
मैने अनुराधा सिंह की कवितायें अधिक नहीं पढ़ी हैं।मगर आपकी समीक्षा ये उत्सुकता जगा रही है कि ये काव्य संग्रह मंगवाकर पढ़ा जाए। समीक्षा हर कविता की पड़ताल करती है।उसके कई पहलू भी उजागर करती है। जो कि सामान्यतः ये पढ़ने को बहुत कम मिलते है।कोई कोई है जो इतनी मेहनत से समीक्षा लिखता है।समीक्षा बहुत अच्छी है। बधाई
किसी रचनाकार के लिए पहली किताब से दूसरी या तीसरी किताब तक पहुंचने की यात्रा चुनौती भरी होती है और अनुराधा जी कोई अपवाद नहीं हैं – उन्होंने सजग रह कर साबित किया कि उनकी काव्य यात्रा में गिनती से ज्यादा महत्वपूर्ण है वैचारिक और शिल्पगत खरापन। जाहिर है आगे बढ़ने के क्रम में कहीं ऊबड़ खाबड़ और कुहासे से ढंके रास्ते आते हैं जहां से निकल कर आगे बढ़ जाना पहला लक्ष्य होता है, ठहर कर झाड़ना पोंछना छूट भी सकता है। बड़ी बात यह है कि आपके हाथ में जो संकलन है वह एक जिल्द में बांध दी गई अलग अलग दिशाओं र्मे जाती कविताएं हैं या आपके सम्पूर्ण लेखन और आचार व्यवहार से प्रकट होते हुए वैचारिक आधार व कमिटमेंट पर फोकस्ड रचनाओं का समुच्चय है। रचनाओं के माध्यम से रचनाकार को पहचानना जरुरी होना चाहिए।
तिवारी जी जिस तरह के नो नॉनसेंस समीक्षक हैं वह कई बार कटु भी लगता है और अपने इस आलेख में भी उन्होंने इसे भली भांति रेखांकित किया है। वे रचनाओं के बाह्य स्वरूप के साथ साथ उन आंतरिक शक्तियों की पड़ताल करने की भी कोशिश करते हैं जिनके कारण कविता संभव हो पाई। एकदम सटीक उद्धरणों के साथ वे अपना पक्ष रखते हैं जो आजकल गायब होती जा रही प्रवृत्ति है। वे यहां मुझे घर के वरिष्ठ की भूमिका में लगे जिसे लाग लपेट नहीं आता बल्कि निष्पक्षता और आलोचना के शाश्वत पैमाने प्रिय हैं।
अनुराधा जी को नए संकलन की बधाई… तिवारी जी और समालोचन का किताब पर सार्थक चर्चा करने के लिए आभार।
यादवेन्द्र
बहुत दिनों बाद किसी आलोचक ने एक निष्पक्ष और संतुलित आलोचनात्मक समीक्षा की है ,आपकी कविताओं के पहले से प्रशंसक होने के बावजूद इस संग्रह पर विगत परिचय या स्नेह अनुराग से ऊपर उठकर सिर्फ और सिर्फ आलोचक समीक्षक की प्रांजल दृष्टि से इस पूरे संग्रह पर खूब बारीक दृष्टि फिराई है , जो अभी के समय में विरले देखने को मिलता है ।
रचनाओं को इस सूक्ष्मता से देखना और ईमानदार,निर्भीक राय देना भी एक साहस का काम है।
यहां लेखक बहुत आसानी से अपने गुण दोषों से अवगत हो पाता है ,वैसे भी लेखन एक निरंतर परिष्कृत होने की प्रक्रिया है ,और आलोचक ,समीक्षक का प्रथम धर्म रचना कर्म को और मांजना हीं होता है ।
प्रस्तुति गान या अतिरेक स्नेह से ऊपर उठकर शिव किशोर तिवारी जी ने बेहद शालीन पर स्पष्ट तरीके से खूबी कमी दोनों को रेखांकित किया है ।
इस आलेख को पढ़ने के बाद बहुत दिनों बाद किसी ऐसे आलोचक समीक्षक को जानने का मुझे अवसर मिला है जो रचनाधर्मिता के प्रति सचेत ,संवेदनशील और विवेकशील भी है।
ऐसी समीक्षाएं उस दर्पण की तरह होती हैं जिसमें पाठक कविता और कवि का थोड़ा स्पष्ट चेहरा देख पाता है ।
श्री शिव किशोर तिवारी कविता की व्याख्या और आलोचना बहुत अच्छी करते हैं । वे अधिकतर अंग्रेजी औजारों को भारतीय तरीके से उपयोग करते हैं। जिस भी कविता
का विश्लेषण करते हैं कई पहलुओं से करते हैं। कवि और कविता से तादात्म्य बना कर
फिर थोड़ी दूरी बना कर इधर उधर से घूम घूम कर देखते हुये करते हैं। पृष्ठभूमि में उसी तरह की दूसरी कविताऐं भी देखते हुये
नयापन अनोखपन पकड़कर अलग करते हुये बताते हैं। बासी उपमाओं रूपकों बिम्बों
सबको दूसरी टोकरी में डालते हुये ताजा टटका विचार भाव बिम्ब सब उठा उठा कर दिखाते हुये बताते चलते हैं। अनुराधा सिंह
में पर्याप्त तत्व हैं जिनको पहचाना जाना चाहिये और उनकी क़द्र की जानी चाहिये।
एक उदाहरण दिया है जैसे नारी विलगाव
में भी प्रेम के बारीक तंतु के विस्तार का, मकडी पेड़ की डाल से गिरती है जितना नीचे की ओर गिरती है एक उतना ही लम्बा महीन तंतु बनाती हुई जुड़ी भी रहतीहै। देशी बोली भाषा में जिसे लस लिगार बोला जाता है। नई पीढी जहाँ कविता में ऐसे बिम्ब और उपमायें लाने में जिसमें अलगाव के साथ अधिक सूक्ष्म सूत्र में अधिक गहनता और भारधारण की शक्ति हो को
कविता में उतारने में शिथिल और निष्चेष्ट लगती है वहीं अनुराधा सिंह आज के नारी जीवन उनके सम्बन्ध प्रेम की छीजन भरी अन्वति को कविता में नयी भाषा और नयी अनुभूति के साथ रखती हैं। यह शिवकिशोर तिवारी जैसी सक्षम आलोचकीय दृष्टि ही देख पाती है।
कवियत्री और समीक्षक दोनों को सही परिप्रेक्ष्य में रखने के समालोचन /अरुण देव के प्रयास प्रशंसनीय हैं। मुझे यह आलेख बहुत अच्छा लगा। –बजरंग बिश्नोई
एक बिन्दु पर माननीय शिव किशोर तिवारी जी के पाठ से सहमत नहीं हो पा रहा। मेरा पाठ इस प्रकार है:
“प्रेम के बिना किन्तु
अपने कमरे से बाहर आते भी
धूप में निर्वस्त्र खड़े होने जैसी लाज
आती है.”
प्रेम में होने पर
नहीं आती लाज
दिन के प्रकाश में भी
निर्वस्त्र
प्रेम के बिना
नहीं निकल पाते हम
निर्वस्त्र
अपने स्नानागार के बाहर
निपट अंधेरे में भी
धृष्टता के लिए बिना किन्तु परंतु क्षमा प्रार्थना करता हूँ।
बहुत दिनों बाद किसी आलोचक ने एक निष्पक्ष और संतुलित आलोचनात्मक समीक्षा की है ,आपकी कविताओं के पहले से प्रशंसक होने के बावजूद इस संग्रह पर विगत परिचय या स्नेह अनुराग से ऊपर उठकर सिर्फ और सिर्फ आलोचक समीक्षक की प्रांजल दृष्टि से इस पूरे संग्रह पर खूब बारीक दृष्टि फिराई है , जो अभी के समय में विरले देखने को मिलता है ।
रचनाओं को इस सूक्ष्मता से देखना और ईमानदार,निर्भीक राय देना भी एक साहस का काम है ।
यहां लेखक बहुत आसानी से अपने गुण दोषों से अवगत हो पाता है ,वैसे भी लेखन एक निरंतर परिष्कृत होने की प्रक्रिया है ,और आलोचक ,समीक्षक का प्रथम धर्म रचना कर्म को और मांजना हीं होता है ।
प्रस्तुति गान या अतिरेक स्नेह से ऊपर उठकर शिव किशोर तिवारी जी ने बेहद शालीन पर स्पष्ट तरीके से खूबी कमी दोनों को रेखांकित किया है ।
इस आलेख को पढ़ने के बाद बहुत दिनों बाद किसी ऐसे आलोचक समीक्षक को जानने का मुझे अवसर मिला है जो रचनाधर्मिता के प्रति सचेत ,संवेदनशील और विवेकशील भी है।
ऐसी समीक्षाएं उस दर्पण की तरह होती हैं जिसमें पाठक कविता और कवि का चेहरा और स्पष्ट देख पाता है ।
एक सरल वाक्य में कहूँ तो यह एक शानदार समीक्षा है – पाठकीय उत्कंठा और आलोचकीय गुणतत्वों से समृद्ध, और एक समानांतर रचना के पढ़ने के सुख जैसी। अपने प्रिय कवि पर लिखना एक अत्यंत कठिन दायित्व है। तिवारी शिव किशोर सर से यह साफ़गोई सीखने की ज़रूरत है। और, जितने तार्किक ढंग से उन्होंने Anuradha Singh जी को स्त्री-विमर्श से इतर विषयों का भी एक समर्थ कवि सिद्ध किया है, यह तो किसी भी कवि के लिए इतराने का मुक़म्मल सबब बनता है।
आलोचनात्मक समीक्षा रोचक भी हो, यह बहुत कम देखने को मिलती है। यह संग्रह इस निष्पक्ष प्रशंसा के सर्वथा योग्य है, यह कहने कि इसलिए भी ज़रूरत नहीं है क्योंकि इन दिनों इन्हीं कविताओं को पढ़ रहा हूँ। बधाई प्रिय कवि !