वागीश शुक्ल
प्रचण्ड प्रवीर ने अपनी कहानियों के माध्यम से हिन्दी के कथा-साहित्य में एक परती तोड़ी है. उनकी कई कहानियों में समकाल की उपस्थिति प्रत्न-झंकृतियों और अल्पज्ञात संवर्धनों (=classical resonances and arcane enrichments) से समृद्ध हो कर एक ऐसा अन्दाज़-ए-बयाँ रचती हैं जिसमें वर्तमान के पार्श्व में अतीत और भविष्य अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराते रहते हैं तथा जिस देस में पैर टिके हैं उसकी खिड़कियों को पड़ोस खड़खड़ाता रहता है. ‘कथ्य’ और ‘शिल्प’ के कल्पित किन्तु सुविधाजनक विभाजन का आश्रय लें तो उनके कथ्य के मर्म में उनका शिल्प अनुस्यूत है और एक प्रचलित मुहावरे का सहारा लें तो लिफ़ाफ़े को देख कर मज़मून भाँपा जा सकता है. किन्तु उनके रचना-उद्यम की चाहत को समझने के लिए इस मुहावरे को एक अँगरेज़ी मुहावरे की मदद से थोड़ा आगे तक बढ़ा लेना सहायक होगा : वह मुहावरा है to push the envelope, जिसका अर्थ है कुछ ऐसा करना जिसकी उम्मीद दिये गये संसाधनों के भरोसे नहीं थी और जिसे किसी ने इसके पहले कभी करने का प्रयास भी नहीं किया था. इस मुहावरे के हिन्दी अनुवाद ‘लिफ़ाफ़े को ठेलना’ का बेढंगापन भी इस शिल्प के बारे में कुछ बताता है.
अब उन्होंने इस शिल्प को सीमान्त तक धकेलते हुए एक निश्चित योजना का प्रारम्भ किया है– वे पूरे राशिचक्र में कथा को टहलाते हुए कहानियाँ लिख रहे हैं जिसकी पहली किश्त में उन्होंने अपने इस कहानी संग्रह उत्तरायण के माध्यम से आधे राशिचक्र की यात्रा पूरी कर ली है.
इस संग्रह तक पहुँची हुई इस शिल्प-यात्रा का नवाचार एक ऐसे रास्ते पर चलने का संकल्प है जिस पर मनुष्य के कौतूहल के पदचिह्न तो कभी नहीं धुँधलाये किन्तु उन पदचिह्नों में हिन्दी कथा-साहित्य के फ़िलहाल ने कोई पगडन्डी भी नहीं तलाशी. यह रास्ता भारतीय ज्योतिष के गणित और फलित स्कन्धों से गुजरता है. पराभौतिक और भौतिक की धूपछाँव में झिलमिलाती हुई इन कहानियों के लिए मुझे लगता है कि लिफ़ाफ़े और मज़मून वाले रूपक को थोड़ा और खींचा जा सकता है और ‘रिन्द’ लखनवी का यह पूरा शेर ही सामने रखना उचित है :
आदमी पहचाना जाता है क़ियाफ़० देख कर
ख़त का मज़मूँ भाँप लेते हैं लिफ़ाफ़० देख कर
[क़ियाफ़० = हुलिया, आकृति, शरीर-लक्षणों के आधार पर किसी व्यक्ति के बारे में जानकारी देने वाला शास्त्र, अंगविद्या, सामुद्रक]
किसी का माथा देख कर या हस्तरेखा पढ़ कर, या कुण्डली बाँच कर जैसी और जितनी पहचान की जा सकती है वैसी और उतनी ही पहचान ज्योतिष के परिचय से इन कहानियों की भी जा सकती है, नीमरंग और प्रातिभासिक, जिसमें यह पहचानना मुश्किल है कि धूल के बगूले घर लौटती गायों के खुरों से उठ रहे हैं या घोड़ों की टापों से, या रेगिस्तान में घूमते बवन्डर से.
किन्तु इस शिल्प यात्रा में कई चौराहें हैं जिनसे फूटती हुई वीथियाँ इतिहास, मिथक, खगोल, तन्त्र साधना से ले कर समकालीन जीवन की सर्जना और वर्णना की कई बस्तियों तक जाती हैं और इन सबकी गन्ध इस संग्रह की कहन में मौजूद है. इस कहन का कुछ अनुमान कहानियों पर अलग-अलग बात करने से ही लग सकता है जो मैं करने का प्रयास करता हूँ.
संग्रह की पहली कहानी मकर शायद सबसे महत्त्वाकांक्षी कहानी है. लेखक ने इसका प्रेरणा-स्रोत अम्बर्तो ईको के उपन्यास ‘फ़ूको’ज़ पेन्डुलम (=Foucault’s Pendulum)’ को बताया है. कहानी की बुनावट देखते हुए यह विश्वसनीय लगता है, और कहानी के भीतर इस उपन्यास के कुछ दृश्य भी पहचाने जा सकते हैं किन्तु निर्माण सामग्री और वास्तु प्रचण्ड प्रवीर के स्वगत ही हैं. ईको का नाम यदा-कदा हिन्दी के साहित्यकर्मी लेते हैं किन्तु उनके उपन्यासों में यह उपन्यास जटिलतम है और इसे पूरा पढ़ने का दावा करने वाले कम ही हैं. मुश्किल-पसन्दी प्रचण्ड प्रवीर के शिल्प की विशेषता है किन्तु जितनी उँचाई पर नज़र होती है, चढ़ाई उतनी ही मुश्किल होती है और परिणामत: इस कहानी में मुश्किल-पसन्दी की इन्तिहा है. कहीं-कहीं कहानी के बीच में लेखक ने पाठक की सहायता करने का प्रयास किया है किन्तु यह प्रयास कथा- प्रवाह की कीमत पर नहीं है और इसलिए कहानी पढ़ने का आस्वाद कहानी पढ़ने की मशक्कत का सानुपाती है.
कहानी अपने बुनियादी ढाँचे में सीधी-सादी ‘फ़ेमिनिस्ट’ सँदेसे वाली है, ‘मकर’ एक शक्ति संस्थान है जिसकी वास्तविक अधिष्ठात्री धनिष्ठा है किन्तु उसके परिवार के पुरुष सदस्य उस संस्थान को हथिया कर उसे पाप-कर्म के लिए प्रयुक्त करते हैं. कहानी का अन्त सीधा-सादा सुखान्त आदर्शोन्मुख आशावादी है– धनिष्ठा प्रकट हो कर पुन: मकर का नियन्त्रण अपने हाथ में ले लेती है और कहानी की वाचिका भैरवी एक ऐसे पुत्र को जन्म देती है जिसका अवतरण शब्द और अर्थ के उस सम्बन्ध को स्थिर करने के लिए है जिसका शिथिलीकरण मकर के पापात्मक पौरुष नेतृत्व द्वारा संसार को दासत्व में बाँधने का बुनियादी हथियार था. इन बच्चे का नाम ‘पाणिनि’ रखा जाता है.
मकर के संघटन का प्रारम्भ भारत में ठगी के उन्मूलन के बाद बचे-खुचे ठगों में से एक हत्या के अपराध में पकड़े जाने के डर से साधु-वेश अपना कर तपस्वियों और महात्माओं के बीच घुसपैठ से होता है जो अपनी अगली पीढ़ी के मकरन्द मलानी को ठगी के नये गुर बताता है :
“मैं कहता हूँ बेटा, कुछ ऐसा धन्धा करो जिससे आम जन के बोल-चाल में फ़र्क़ आ जाय.
“क्यों?” मकरंद मलानी ने पूछा.
“जिसकी बोली में फ़र्क़ आ जाएगा, उसकी सोच में फ़र्क़ आ जायेगा. जिसकी सोच में फ़र्क़ आ जाएगा, वह बहकावे में आ जाएगा. माँ भुवनेश्वरी की कृपा से वह विना प्राण खोये अपना सर्वस्व तुम्हें सौंपेगा या तुम्हारे इशारे पर सौंपेगा. “
‘विना प्राण खोये’ – पुरानी पीढ़ी के ठग को मनुष्य के सर्वस्व-हरण के लिए उसके प्राण लेने होते थे, नयी पीढ़ी के ठग को मनुष्य के सर्वस्व-हरण के लिए उसकी सोच बदलनी होगी. यह काम सूचना और भाषा पर क़ब्ज़ा करके संसार को ‘पोस्ट-ट्रुथ’ में बाँध लेने से होना है. शुरुआत साधार-सी दिखती है– मकरन्द मलानी द्वारा अख़बार का मालिक बन कर सम्पादकीय स्वतन्त्रता को समाप्त करने से नयी ठगी का पहला क़दम पड़ता है.किन्तु बोलचाल बदलने के लिए शब्द और अर्थ के परस्पर सम्बन्ध पर की समस्त प्रासंगिक दार्शनिक ऊहापोह की ऊर्जा का विनियोजन आवश्यक है और हम देखते हैं कि दिङ्नाग, भर्तृहरि, कुमारिल, प्रभाकर, वाचस्पति मिश्र जैसे तमाम नाम अपनी समझ और शक्ति भर स्वतन्त्र सैद्धान्तिक विमर्श करते हुए वस्तुत: मकर के लिए काम कर रहे हैं.
तस्वीर यह उभरती है कि एक शक्ति संस्थान अपने आप में अच्छा या बुरा नहीं होता, प्रश्न यह है कि उसका विनियोजन किसके हाथ में है. वस्तुत: धनिष्ठा द्वारा परिकल्पित मकर को जब तक उसका पिता मकरन्द मलानी और उसका भाई श्रवण मलानी अपने क़ब्ज़े में मानते हैं, वह संसार पर नियन्त्रण का माध्यम है किन्तु जिस समय धनिष्ठा प्रकट हो कर उसे अपने स्वामित्व में ले लेती है, उसी समय से वह सृष्टि-स्थिति-संहार-तिरोधान- अनुग्रह के पंचकर्म के अधिष्ठान के रूप में अपना वास्तविक स्वरूप धारण कर लेता है. भारतीय ज्ञान- परम्परा में यह पंचकर्म शैव और शाक्त सिद्धान्तों में क्रमश: शिव और शिवा की विभूतियाँ मानी जाती हैं. इस कहानी में लेखक ने शाक्त संस्करण का चुनाव किया है और इसके लिए दश महाविद्याओं के तहत आने वाले कथांशों में दिये गये प्रस्तुतीकरण अपने विवरणों में तथ्यात्मक हैं किन्तु पाठक को यह स्वयं ही समझना होगा कि धूमावती से कौओं का सम्बन्ध और मातङ्गी से तोते का सम्बन्ध शास्त्र-समर्थित है.
इन प्रस्तुतियों से समंजस होने में पाठक को जो श्रम करना पड़ेगा उसकी कहानी की रचना में एक सार्थक भूमिका है. दश महाविद्याओं में से कई के मूर्तन उग्र हैं और भयानक तथा बीभत्स के उन अवतरणों में ओतप्रोत हैं जिन्हें हम अशुभ और अवांछनीय में पहचानते हैं किन्तु वे सभी अन्तत: अभय और वर प्रदान करने वाले हैं. भय को अनावृत कर के ही अभय का, शाप को अनावृत कर के ही वर का, मृत्यु को अनावृत कर के ही जीवन का साक्षात्कार किया जा सकता है, यह दश महाविद्याओं की आराधना का अनावृत उपदेश है. यह आराध्य की ही नहीं, आराधक की भी पहचान का नियामक है. हम तन्त्र- साधना के पंच- मकारों – मद्य, मांस, मीन, मुद्रा, मिथुन – से सामान्यत: परिचित हैं और उसके रहस्य से अभिभूत रहते हैं किन्तु वर्जना के पार जाने की चुनौती हमें बहुत आगे तक धकेलती है.
उदाहरणार्थ, शायद ही संसार की कोई अन्य उपासना-पद्धति होगी जिसमें अपना जूठा देवता को अर्पित करने का विधान हो किन्तु तन्त्र-साधना ने इसे मान्यता दी है और मातङ्गी (= उच्छिष्टचाण्डाली) तथा उच्छिष्टगणपति जैसे देवताओं के लिए यह विहित है. कुरूप और सुरूप स्वरूपों में शक्ति का अवतरण स्वीकार करना तथा उसके परमार्थिक तत्त्व को उस कुरूपता और सुरूपता से परे उसकी अ-रूपता में साक्षात्कृत करना ही इस साधना का साध्य है. थोड़ा ध्यान से देखने पर सुरुचि और सात्त्विकता के आवरणों में लिपटी साधना-पद्धतियाँ भी अन्तत: उसी लक्ष्य और चेतना तक पहुँचाती है.
कहानी में इन दश महाविद्याओं में मूर्त शक्ति स्वरूपों से रू-ब-रू होता हुआ पाठक इस समझ से भी रू-ब-रू होता है कि धनिष्ठा का बगलामुखी के रूप में अवतरित हो कर श्रवण की कटार का स्तम्भन कोई स्वतन्त्र घटना नहीं है, केवल बगलामुखी और स्तम्भन के रूपात्मक सम्बन्ध के व्याकरण का अनुपालन है. वास्तविकता कुछ भिन्न है, जैसा कि वाचस्पति मिश्र ने इस कहानी में एक जगह कहा है, जैसे होलोग्राम को हिस्सों में बाँटने के बाद भी हर हिस्से में पूरा होलोग्राम मौजूद होता है, वैसे ही मकर अपने हर हिस्से में मौजूद है. दश महाविद्याओं में से प्रत्येक में सभी महाविद्याएँ हैं, यह जानने के लिए यह कहानी पढ़ना ज़रूरी नहीं किन्तु इसे जानने से यह कहानी पढ़ना आसान हो जाता है. इसी जानने को मैंने ‘पाठक का श्रम’ कहा है.
‘श्रम’ से ही पाठक को यह भी समझ में आ सकता है कि कहानी में आये प्रत्येक नामोल्लेख का सांगोपांग अनुवाद कथा में पिरो लेना लेखक का उद्देश्य नहीं है. उदाहरण के लिए मकर के अन्तर्गत अभिजित् को जोड़ते हुए चार नक्षत्र गिनाये गये हैं किन्तु ‘मकर’ के सर्वाधिकारी मकरन्द मलानी की तीन ही सन्तानें बतायी गयी हैं – उत्तराषाढा नाम की कोई सन्तान नहीं है और अभिजित् मलानी की कहानी में कोई भूमिका ही नहीं है. कई सूचनाएँ भारतीय ज्योतिष और पाश्चात्य ज्योतिष से मिला-जुला कर ली गयी हैं और इस मिलावट से कथा का सौन्दर्य बढ़ा ही है.
संग्रह की दूसरी कहानी कुम्भ का शीर्षक राशिचक्र के क्रम के अनुसार ‘मकर’ से अगली राशि ‘कुम्भ’ के नाम पर है. इस शीर्षक से कहानी के आँकड़ों का सम्बन्ध ऊपरी-सा-ही दिखता है. कहानी का मुख्य पात्र विपिन कुमार जाति से कुम्हार है और अपना आस्पद ‘कुम्भकार’ लिखता है. वह आई आई टी का ऐसा छात्र है जो पढ़ाई में कमजोर है– शिक्षा का माध्यम अँगरेज़ी है और इस भाषा से परिचय क्षीण है.
अस्तु, इस छात्र की राशि ‘कुम्भ’ है और उसे दुर्भाग्यवश ‘चिकना घड़ा’ कह कर चिढ़ाया भी जाता है. कहानी का वाचक उसे पढ़ने और आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है जिसका उस पर कोई असर नहीं होता किन्तु यही सीख जब उसे अपने ही जैसे ग़रीब और अँगरेज़ी में कमज़ोर एक अन्य छात्र से मिलती है जो इस अर्थ में सफल रहा है कि वह रिसर्च कर रहा है, तो उसका आत्मविश्वास उदित होता है और वह पढ़ाई में जुट जाता है जिसके बाद वह वाचक की इस भविष्यवाणी को भी पूरा कर दिखाता है कि वह नार्वे जा कर रिसर्च करेगा. उत्साह की इस जागृति में कुछ योगदान इस सूचना का भी है कि ‘कुम्भ’ राशि को जलापूर्ति से तृप्त करते हुए मनुष्य के रूप में चित्रित किया जाता है. यह रूपंकरण पाश्चात्य ज्योतिष का है. इस प्रेरक की भी राशि कुम्भ ही है, और यद्यपि कहानी में यह स्पष्ट नहीं किया गया है, उसके नाम में ‘शतभिषक्’ का होना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय ज्योतिष के अनुसार शतभिषा नक्षत्र में जन्म लेने वालों की राशि कुम्भ होती है.
इस सारी प्रस्तुति में कुछ और मजबूती शायद होती अगर यह न बताया गया होता कि रिसर्च वे छात्र करते हैं जो आर्थिक या अन्य विवशताओं के चलते एम बी ए नहीं कर पाते किन्तु चूँकि सच है कि आई आई टी के अधिकतर छात्र ऐसा ही सोचते हैं इसलिए समकालीन शिक्षा के एक और कटु यथार्थ से भी हमारा सामना होता है जिसमें ज्ञान के विस्तार में भागीदारी एक बेचारगी का काम माना जाता है.
जैसा मैंने पहले कहा, ज्योतिष का सम्बन्ध इस कहानी में सांयोगिक है. किन्तु वह इसकी पुष्टि करता है कि उपदेश तभी सार्थक और प्रभावशाली होता है जब उपदेष्टा और उपदेश्य में सह-अनुभूति और साहचर्य के सम्बन्ध हों. यह कहानी इस ओर भी ध्यान दिलाती है कि हमारी वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था ने किस प्रकार विद्या को केवल अर्थकरी अवतरणिकाओं तक सीमित कर दिया है और फिर किस तरह इन अवतरणिकाओं तक पहुँच को उन लोगों तक सीमित रखा है जो पहले से ही समर्थ हैं. समता, क्षमता, ‘अफ़र्मेटिव ऐक्शन‘ और ‘ईक़्वल अपार्चुनिटी’ जैसे तमाम शब्द और सद्विचार अपना वायवीय अवतार खोते ही ज़मीन पर उतरने की कोशिश में किस प्रकार अन्तरिक्ष से टूटते उल्कापिण्डों की तरह निष्क्रिय और अदृश्य हो जाते हैं, इसका साक्षात्कार इस कहानी में एक कसक की तरह वर्तमान है जिसकी समस्या और उसके समाधान को उस तर्करेखा में नहीं खींच उतारा जा सकता जिसका हमारा आधुनिक समाज – चिन्तन और उसका आज्ञाकारी साहित्य-चिन्तन अभ्यस्त है.
चूँकि लेखक ने चेख़व की कहानी भिखारी से इस कहानी के सम्बन्ध की सूचना दी है शायद हमें उसकी ओर भी एक नज़र डालनी चाहिए. उसमें एक भिखारी को एक वकील ने ‘काम के बदले रोटी’ का सिद्धान्त अपनाते हुए लकड़ी फाड़ने जैसे काम के बदले प्रारम्भिक मदद पहुँचायी और जब वह सन्तुष्ट हो गया है कि यह सिद्धान्त भिखारी की समझ में आ गया है तो उसे कुछ लिखत-पढ़त का काम दिलवा दिया है जिससे वह भिखारी बख़ूबी कर रहा है. कुछ समय बाद जब वकील की भेंट इस बेहतर स्थिति में पहुँच चुके भिखारी से होती है तो उसे पता चलता है कि शुरुआती वक़्त में उस भिखारी ने लकड़ी नहीं फाड़ी थी अपितु वकील की रसोई बनाने वाली नौकरानी ने ख़ुद ही लकड़ियाँ फाड़ कर झूठ-मूठ में उसे मज़दूरी दिलवा दी थी. इसका ठीक-ठीक समान्तर यह कहानी नहीं हो सकती क्योंकि विद्यार्जन स्वयं ही करना पड़ता है किन्तु इतनी बात तो दोनों कहानियों में उभयनिष्ठ है ही कि चेख़व की कहानी में भी भिखारी को वह नौकरानी अधिक समझ सकी है और शायद इसीलिए कि दोनों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में वंचना के अनुभव समान हैं जबकि वकील के लिए भिखारी से ऐसी आनुभविक निकटता सम्भव नहीं है. चेख़व की कहानी की कई व्याख्याएँ की गयी हैं किन्तु मेरी समझ में यही वह बिन्दु है जहाँ दोनों कहानियाँ मिल सकती हैं.
संग्रह की तीसरी कहानी राशिचक्र के अनुक्रमानुसार मीन शीर्षक से है.इस राशि का चित्रांकन एक घेरे में घूम रही दो मछलियों के रूप में होता है जिनमें एक का मुँह दूसरी की पूँछ की ओर है. इसे लेखक ने कहानी में एक घरेलू फ़िश टैंक के भीतर घूमती मछलियों के रूप में प्रतिबिम्बित किया है जिसका एक बृहत्तर संस्करण एक तालाब में घूमती मछलियाँ हैं.
कहानी में एक परिवार है और इस परिवार के तीन बच्चे– दो बहनें, एक भाई केन्द्र में हैं. लड़का एक दिन घर से निकल जाता है- इसे आज़ादी की तलाश भी कह सकते हैं और आवारगी भी क्योंकि हमें मालूम है कि उसका हेयरकट आवारा लड़कों जैसा है. वह भटकते हुए रेवती सिन्हा के बंगले पर पहुँच जाता है जो उसके कस्बे से काफ़ी दूर एक पहाड़ी पर है. उसे उसके घर वापस छोड़ने के लिए रेवती सिन्हा उसके घर आती हैं जो उसके पड़ोसियों का अहोभाग्य है क्योंकि रेवती सिन्हा बड़े घर की बेटी, बड़े घर की बहू हैं और स्वयं भी इतनी बड़ी हैं कि बिहार के मुख्य मन्त्री उनसे आशीर्वाद लेने उनके घर आते हैं. वे अगली छुट्टी के दिन परिवार को अपने यहाँ बुलाती हैं, तीनों बच्चे उनके यहाँ जाते हैं. पोखर की मछलियाँ देखने लड़का जाता है दोनों लड़कियाँ नहीं जातीं क्योंकि “लड़की की ज़िन्दगी में बहुत सी बन्दिशें होती है“.
यह बड़ी लड़की वीणा ने रेवती सिन्हा को बताया है. रेवती सिन्हा पर कोई बन्दिश कभी नहीं रही है. और जैसा उन्होंने वीणा को बताया उनकी माँ अगर उन पर बन्दिशें लगातीं तो वे झगड़ा करतीं और उन बन्दिशों को तोड़तीं. किन्तु फिर वे वीणा को आज़ादी का अर्थ एक प्रयोग द्वारा समझाती हैं. सब बच्चों की कमर में एक रेशमी रस्सी बाँध दी जाती है और वे पूरे घर में घूम सकते हैं बशर्ते कि रस्सी न खुले. यही ‘आज़ादी’ का चरित्र है : हर आदमी की कमर में एक डोरी बँधी है और वह उतना ही आज़ाद है जितनी दूर वह डोरी उसे जाने की इजाज़त देती है. पाठक इसे आगे तक ले जा सकता है : हम ब्रह्माण्ड में घूमती मछलियों की तरह हैं – उस हद तक आज़ाद जिस हद तक ब्रह्माण्ड की सीमा हमें घूमने देती है.
कहानी के समापन में रेवती सिन्हा का लड़का उनके द्वारा बच्चों के लिए भिजवाये एक घरेलू फ़िश टैंक को ले आता है जिसके भीतर मछलियाँ आज़ाद घूम रही हैं. रेवती सिन्हा बीमार हैं. क्या वे अन्ततः आज़ाद हो जायेंगीं? प्रश्न किया नहीं गया है और यदि आप करते हैं तो अनुत्तरित है क्योंकि उनके अच्छे हो जाने का आश्वासन-वाक्य ही कहानी का समापन-वाक्य है. किन्तु वस्तुतः बन्ध और मोक्ष की परिभाषाओं के दोराहे तक ले आना ही कहानी की रथयात्रा का समापन था जहाँ उतर कर पाठक को पैदल ही चलना पड़ेगा. मछलियाँ टैंक के भीतर आज़ाद हैं या टैंक टूटने के बाद पानी बह जाने के बाद आज़ाद होंगीं? रेवती सिन्हा का मीन राशि में जन्म और वीणा की आँखों का मछलियों की आँखों जैसा होना व्यष्टि – निष्ठ विशेषताएँ नहीं, समष्टि-व्यापी उपलक्षण हैं जिनके भीतर से यह प्रश्नोत्तरी झाँकती है.
संग्रह की अगली कहानी मेष पहली ऐसी कहानी है जिसमें फलित ज्योतिष से कोई स्पष्ट आधार लिया गया है. यह एक प्रेम-कथा है जिसे विभ्रम की एक कहानी के रूप में प्रस्तुत किया गया है और इसके लिए एक फलित कथन का आश्रय लिया गया है जिसके अनुसार भरणी नक्षत्र के प्रथम चरण (अतः मेष राशि) में जन्म लेने वाले जातक को यदि केतु की महादशा में मेष सौर मास के दौरान धूमकेतु के दर्शन हों तो उसमें विभ्रम उत्पन्न होता है जिसका सम्बन्ध प्रेम से होता है. कथावाचक नायक इसी स्थिति में है – धूमकेतु देखते ही उसने नौकरी छोड़ दी और एक प्रेमिका के पीछे उत्तराखण्ड चला गया जहाँ वह प्राचीन कथाओं में वर्णित प्रेमियों के अनुकरण पर बाँसुरी बजाते घूमते हुए प्रेमिका से संवाद स्थापित कर रहा है- ऐसा करते समय उसे यह बोध भी है कि वह एक जादूगर होने का अभिनय कर रहा है. एक सुबह उठने पर वह अपने को स्वर्ग में पाता है जहाँ उसकी भेंट अप्सराओं और फिर महादेव से होती है. वार्तालाप के समय महादेव उसे बताते हैं कि सच्चा जादूगर तो सृष्टिकर्ता ही है. वे यह भी बताते हैं कि शोभन मृत्यु की केवल दो ही स्थितियाँ हैं– एक वह जब इच्छा बहुत उत्कट हो और दूसरी वह जब कोई इच्छा ही न बचे. नायक इन दोनों कसौटियो॑ पर खरा नहीं उतरता अतः वह मृत्यु के योग्य नहीं है.
कहानी का समापन इस बोध-वाक्य से होता है कि जादूगर कभी आशिक़ नहीं बन सकता आशिक़ शायद जादूगर बन सके. कहानी में इश्क़ और जुनून के उस अपरिहार्य सम्बन्ध को सामने लाने की कोशिश की गयी है जिसका विवरण हमें पूरी दुनिया के प्रेम-साहित्य में मिलता है किन्तु मेरी समझ में कहानी की बुनावट इस विस्तार को संभाल पाने में नाकामयाब रही है – इसलिए कि उसने गागर में सागर से सिर्फ़ आधा भरा.
अगली कहानी वृष : सिटीलाइट्स में ‘वृष’ शीर्षक का ज्योतिषीय औचित्य यह है कि कथावाचक की पत्नी का नाम ‘रोहिणी’ है और रोहिणी नक्षत्र के जातकों की राशि वृष होती है. शीर्षक के अन्तर्गत का ‘सिटीलाइट्स’ चार्ली चैपलिन की इस नाम की फ़िल्म के नाते है जिसकी कहानी से तालमेल बिठाने की चेष्टा कहानी के बयान में बहुत स्पष्ट है. फ़िल्म के आवारा अ-नायक की ही तरह कथा-वाचक का एक मित्र है और कथा-वाचक को सन्देह है कि उसकी पत्नी रोहिणी इस आवारा से प्यार करती है. यह सन्देह उसके मन में रोहिणी द्वारा की गयी इस व्याख्या से उपजता है कि फ़िल्म का शराबी रईस-जिससे कथा-वाचक अपने को समीकृत करता है-नशे में अपने को इसलिए डुबोये रहता है कि उसकी पत्नी बेवफ़ा है.
कथा-वाचक अपने को इस रईस की भूमिका में रखता है फ़िल्म की अन्धी लड़की की जगह अपनी पत्नी को और फ़िल्म के आवारा की जगह अपने दोस्त को. मेरी समझ में कहानी पर बोर्ख़ेस की कहानी ज़ाहिर का दबाव अधिक है जिसका ज़िक्र कहानी में किया गया है रोहिणी की यह व्याख्या ही ‘ज़ाहिर’ है जिसे देखने के बाद आदमी ज़िन्दगी भर उसी के बारे में सोचता है. यह कोई नया वास्तव नहीं है कि शक का भूत कभी नहीं उतरता किन्तु यहाँ थोड़ा फ़र्क़ यह है कि जो शक का शिकार है उसे इस शक के बारे में भी शक है यद्यपि इससे उसकी बेचैनी पर कोई सीमा नहीं बंधती. मुझे निजी तौर पर यह लगता है कि यद्यपि कहानी के भीतर फ़िल्म को कुछ इस तरह प्राधान्य दिया गया है कि फ़िल्म की कथा का कहानी पर प्रत्यारोपण सहज स्वीकार्य माना जाय कहानी प्रारम्भ करने के पूर्व रोहिणी नक्षत्र से सम्बन्धित जो पुरा-कथा दी गयी है उससे कहानी का बयान अधिक संगत है– हम अपेक्षाकृत अधिक सरलतापूर्वक वाचक से विरक्त रोहिणी को दूर जाते हुए और वाचक को सन्देह के बाण से विद्ध होते हुए देख सकते हैं.
अगली, और संग्रह की अन्तिम कहानी, मिथुन इस राशि से सम्बद्ध ग्रीक मिथक की सूचना के साथ प्रारम्भ होती है : इस राशि के दो तारे कैस्टर और पोलक्स दो ग्रीक देवता ज्यूस और लेडा के पुत्र हैं.यह सूचना हीसिआड के अनुसार है और होमर के अनुसार इनके पिता का नाम टिन्डरिअस था जो एक देवता नहीं थे और इस प्रकार अमर नहीं थे. जो विशेष प्रचलित मिथक है उसके अनुसार पोलक्स तो देवता की सन्तान है किन्तु कैस्टर के पिता टिन्डरिअस ही हैं और इस प्रकार कैस्टर मर्त्य है जब कि पोलक्स अमर है और कैस्टर की मृत्यु के बाद पोलक्स ने अपने पिता से अनुरोध कर के उसे भी अमरत्व दिलवाया जिसके बाद दोनों आकाश में मिथुन राशि के अंग हो कर प्रतिस्थापित हैं. मिथक का यही संस्करण कहानी से अधिक संगत है.
कहानी गाँव के एक रईस राजेन्द्रनाथ सिंह के छुट्टियों में गाँव आये हुए पौत्र उदय (पोलक्स ?) और उनके गाँव के किशोर लोहार के बेटे संजय (कैस्टर ?) के बीच उभर आयी दोस्ती की है. हैसियत में फ़र्क़ के अलावा राजेन्द्रनाथ और किशोर में अलगाव का एक कारण और भी है एक फ़ौजदारी मुक़दमे में किशोर ने गवाही में सच बोल दिया था जिसके नाते राजेन्द्रनाथ फँस गये थे और मुक़दमा चल ही रहा था. इसके पहले कि कहानी को दुनियावी प्रपंचों से बेख़बर दो मासूमों के बीच की निष्कपट मैत्री का बखान मान लिया जाय हमारा ध्यान इस ओर जाता है कि राजेन्द्रनाथ जी के परिवार में उनकी पत्नी और उनके वयस्क बेटे किशोर से पारिवारिक स्तर पर कोई द्वेष नहीं रखते कि किशोर को राजेन्द्रनाथ के उसी बेटे से अपने आर्थिक उद्धार की उम्मीदें हैं जो इस मुक़दमे से अपने पिता को निकाल लेने की जुगत में लगा हुआ है और इन उम्मीदों में कहीं यह शर्त नहीं है कि किशोर को लाभान्वित होने के लिए अपनी गवाही से मुकरना पड़ेगा, कि `अमीर की बरजोरी और ग़रीब की कमज़ोरी’ के जो भी संकेत हैं वे या तो उन बैठकबाज़ों की बातचीत में हैं जिनका इस मामले से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है या फिर किशोर की नौ बरस की उस लड़की के वाक्यों में जो किसी सामाजिक यथार्थ को नहीं उघाड़ रही है अपने छोटे भाई संजय के इस दावे को झुठला रही है कि उदय से उसकी दोस्ती हो गयी है. इस प्रकार कहानी निर्बल और बलवान् की द्विध्रुवीयता के चुम्बकीय क्षेत्र से बाहर ही अपना मैदान चुनती है और एक बहुप्रिय भेड़ियाधसान में घुसने से अपने को रोक लेती है.
किन्तु ऐसा लगता है कि एक दूसरी लीक पकड़ ली गयी है: निर्दोष मैत्री की लीक जिस पर न केवल संसार के रागद्वेष की छाया नहीं पड़ी है अपितु जो इस छाया के कलुष को अपने बूते धो-पोंछ देने में भी सक्षम है. उदय का संजय के प्रति मैत्रीभाव उसके साथ की उन लड़कियों में भी स्वतः संक्रमित हो जाता है जो उसके यहाँ मेहमान के रूप में आयी हुई हैं और हमें यह सोचना पड़ता है कि एक प्रबल भावोद्वेग में क्या इतनी शक्ति हो सकती है कि उसके द्वारा वैषम्य की उपेक्षा की जा सके? कैस्टर और पोलक्स की कथा ऐसा बताती है जिसमें मर्त्य कैस्टर को पोलक्स से मैत्री के आधार पर अमरता दे कर आकाश की एक ही कक्षा में प्रतिस्थापित किया जाता है. कहानी में उदय की मैत्री के आधार पर संजय को उसकी कक्षा में स्थापित करने का इशारा कितनी गहराई तक कहानी में उतर सका है, यह देखने की चीज़ है.
राशिचक्र को आधार बन कर लिखी गयी कहानियों का प्रचण्ड प्रवीर ने यह प्रथम खण्ड प्रस्तुत किया है और एक दूसरा खण्ड आना बाक़ी है. यह स्वाभाविक ही है कि राशियों के इर्दगिर्द के मिथकों और विश्वासों का इन कहानियों में रचनात्मक उपयोग हो. इस खण्ड की कहानियों को देखने से लगता है कि लेखक ने इन मिथकों का उतना ही उपयोग किया है जितने से कहानियाँ समृद्ध हो सकें और मिथकों को सांग रूपक के आकार में कथा पर हावी नहीं होने दिया है. अपने शिल्प की अन्य विशेषताओं- फ़िल्मी गानों तथा शास्त्रीय उद्धरणों को कथा-वास्तु की नींव में जमाते चलना तथा सहज जीवन-व्यवहार के रोज़मर्रा की भित्तियाँ उन पर उठाना-को भी उन्होंने ज़रूरत से ज़ियादा तरज़ीह नहीं दी है. अपने चुने हुए सन्दर्भ-कस्बाई और महानगरीय `लोक’ तथा अनचीन्हे ज्ञान का क्षितिज-के प्रति वफ़ादार रहने की उन्होंने पूरी कोशिश की है. कुल मिला कर साहस और संयम का एक स्पृहणीय सन्तुलन उनकी कहानीकला में दिखता है जिसमें ‘कुछ और चाहिए वुसअत मेरे बयाँ के लिए’ की तड़प साफ़ महसूस की जा सकती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि इस कहानी-संग्रह के दूसरे खण्ड में – और उसके आगे भी – उनकी कहानियों में यह ऊर्जा वर्तमान और वर्धमान रहेगी.
(जन्माष्टमी, सन् २०१९)
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