आशुतोष भारद्वाज
कई जिल्दों में फैली कृष्ण बलदेव वैद की डायरियों में प्रवेश का एक रास्ता है लेखक का अपने सबसे क़रीबी मित्र के साथ सम्बंध जिसका ज़िक्र १९५० के दशक से लेकर पचास साल बाद उनकी मृत्यु तक वैद की डायरियों में अनेक रूप में आता है. अगर किसी पाठक को इन दोनों लेखकों की दोस्ती और लेखन के बारे में रत्ती भर भी इल्म न हो, तब भी ये डायरियाँ उस रिश्ते और उसके आईने से इनकी लेखकीय सृष्टि की बड़ी प्रामाणिक तस्वीर बनाती हैं.
शुरुआत तीन नवम्बर दो हजार चार की इस डायरी से करते हैं.
“कल रात के स्वप्न में निर्मल और मैं कहीं एक साथ थे. आमने-सामने बैठे हुए. निर्मल ने अंग्रेजी में कहा: यू नो दैट माई एंटायर रायटिंग इज़ डायरेक्टिद ऐट यू? इससे पहले कि मैं कुछ कहता उसने कह दिया: आई नो दैट यूअर एंटायर रायटिंग इज़ डायरेक्टिद ऐट मी. जब वह यह कह रहा था तो मुझे काफ़्का का अपने पिता के नाम के नाम वह मशहूर लम्बा ख़त याद आ रहा था को इस वाक्य से शुरू होता है और जो काफ़्का की मृत्यु के बाद ही प्रकाश में आ सका था और जिसे काफ़्का ने अपने पिता को भेजा नहीं था. और साथ ही अनाइस नीन की डायरी में लिखी यह बात कि उसका सारा लेखन उसके पिता को संबोधित एक लम्बा ख़त ही था.”
एक रचनाकार के स्वप्न में दूसरा लेखक आकर कहता है कि हम दोनों का लेखन मूलतः और अंततः एक दूसरे को ही संबोधित है, हम एक दूसरे के लिए ही लिखते हैं. वह रचनाकार सुबह उठ इस सपने को डायरी में दर्ज करता है, उसे प्रकाशित कर सार्वजनिक भी कर देता है. इसके निहितार्थ को समझने के लिए स्वप्न-विज्ञान में महारत हासिल करने की जरूरत नहीं है.
वैद की डायरियों में तमाम लेखक, चित्रकार आते हैं, उनके साथ बिताये लम्हे भी. लेकिन एक लेखक हमसाये और हमनवाज़ की तरह शुरू से ही उनके साथ चलता है, उनके सपने में आ कुलबुलाता है. वैद की डायरियों में उस लेखक का सबसे पहला उल्लेख १९५६ का है जब दोनों दिल्ली में रहते थे, तंगी के दिन थे, दोनों एक ही लड़की को ट्यूशन पढ़ाया करते थे.
“ट्यूशन पढ़ा कर लौटा हूँ. बस का इंतज़ार घंटों करना पड़ा. खाना भी काफ़ी ख़राब मिला. ट्यूशन वाली लड़की के मज़ाक़ से भी मूड ख़राब है. उसने मेरे चेहरे की तुलना चिड़िया से करते हुए पूछा कि मैं इतना सूख क्यों गया हूँ. लड़की शमशाद बेगम की बेटी! उसने देख लिया होगा कि मुझे उसकी उपमा बुरी लगी है. मैं उसे अंग्रेज़ी पढ़ाता हूँ, निर्मल इतिहास. बदले के तौर पर कल उसे पढ़ाने नहीं जाऊँगा.”
इसके कुछ साल दोनों भारत छोड़ देते हैं, एक यूरोप चला जाता है, दूसरा अमरीका. दोनों भारतीय कथा साहित्य में नए किले स्थापित करते हैं, विलक्षण गद्य का संधान करते हैं. दोनों का अध्ययन विपुल है, शब्द के प्रति समर्पण घनघोर, आत्म-प्रचार से दूर, साधक-लेखक की छवि को चरितार्थ करते हुए. दोनों की दोस्ती गहरी होती जाती है. निर्मल अमरीका में वैद के घर रुकते हैं, वैद निर्मल के पास प्राग आते हैं, दोनों प्राग से कृष्णा सोबती को एक पिक्चर पोस्टकार्ड लिखते हैं.
लेकिन कुछ और भी घटित होता है — हिंदी जगत निर्मल की कथाओं से तो तुरंत सम्मोहित हो जाता है, उसका बचपन एक क्लासिक का दर्जा हासिल ज़रूर करता है, वैद के लेखन के मुरीद कई बनते हैं, लेकिन वैद का पाठक वर्ग निर्मल जितना व्यापक नहीं हो पाता, और इस दरमियाँ कहीं दोस्ती भी धीरे-धीरे दरकने लगती है.
क्या इसकी एक वजह वह है जो वैद १९९३ की अपनी डायरी में दर्ज करते हैं?
“निर्मल जब से प्रतिष्ठित हुआ है तब से वह मुझे काट रहा है, ऐसे संकेत मुझे कई दिशाओं से मिलते रहे हैं कि उसने मेरे काम को नकारा है, उसकी निंदा की है. शुरू के दौर में वह मेरा प्रशंसक हुआ करता है. अब अगर कोई मेरी प्रशंसा करे तो वह हैरान होता है, हैरानी के माध्यम से यह व्यक्त करता है कि वह मेरे काम को कमतर समझता है. कहीं-न-कहीं उसे यह असुरक्षा है कि मैं उसका हमपल्ला हूँ, शायद उससे बेहतर हूँ, मेरी निंदा सुन वह ख़ुश होता है. मेरी कोशिश यह रहती है कि कोई मेरे सामने उसकी निंदा न करे. मेरे मन में उसके काम को लेकर कई संकोच हैं लेकिन मैं उसकी ख़ूबियों को नकारता नहीं, अपने मन में भी नहीं.”
इन दोनों दिगज्जों के बीच की दरार हिंदी को दिखने लगी है, इसकी ध्वनियाँ भी सुनाई देती हैं.
१९९७ में वैद उदयपुर आए हुए हैं. एक दिन नामवर सिंह उनसे मिलने आते हैं, वैद डायरी में लिखते हैं:
“नामवर जी अचानक बोले — वैद और निर्मल के द्वंद्व से कृष्णा सोबती ने ख़ूब फ़ायदा उठाया है. मैंने या किसी और ने उनकी इस बात को आगे नहीं बढ़ाया. वे न जाने क्या कहना और कहलवाना चाहते थे.”
नामवर किस “फ़ायदे” का ज़िक्र कर रहे थे?
वैद इससे अनभिज्ञ नहीं हैं कि उनके तमाम लेखक मित्र निर्मल के गद्य के शायद कहीं बड़े शैदाई हैं,
कई युवा लेखक तो लगभग भक्त हैं. अस्सी के दशक में निर्मल कुछ वर्ष निराला सृजन पीठ पर भोपाल में रहते हैं,
उसके बाद वैद भी उसी पीठ पर आते हैं,
और १९८८ में भोपाल की यह डायरी.
“लड़कों (मुन्ना, मदन, ध्रुव) से आज छोटी सी बैठक हुई. तीनों “निर्मल जी” से आक्रांत” हैं लेकिन तीनों उस आतंक से मुक्त भी होना चाहते हैं.”
(दो)
कई बरस पहले मैंने वैद का लम्बा साक्षात्कार किया था. उसमें वे निर्मल से अपनी दोस्ती को लेकर खुल कर बोले थे:
“लेखकों की मित्रता में बीतते वक्त के साथ विकार आने लगते हैं. भारत में ही नहीं बाहर भी. काम्यू-सार्त्र का झगड़ा तो मशहूर है. वैचारिक मतभेद, पर्सनल बातें भी आ जाती हैं. शुरुआत की सी घनिष्ठता आखिर के दिनों में नहीं रहती. जैनेंद्र और अज्ञेय में नहीं थी. उसका कुछ न कुछ अवशेष लेकिन आखिर तक भी रहता है जैसा निर्मल और मेरे साथ रहा. एक खास किस्म की निकटता थी जो किसी और के साथ उसकी भी शायद न थी, मेरी भी नहीं. लेकिन दूरियाँ भी थीं. बीच में कुछ बातें आने लगती हैं. ईगो कह लीजिये.”
उन्होंने निर्मल से अपनी शिकायतों का भी उल्लेख किया था.
“अपने कुछ दोस्तों, खासतौर पर निर्मल से, मुझे यह शिकायत होने लगी थी कि वे सैल्फ-राइचस होते जा रहे थे. निर्मल में शायद यह प्रवृत्ति शुरु में भी होगी लेकिन बाद में यह प्रबल होती गयी थी. उनके आखिरी दिनों में दो चीजों ने उन्हें बहुत गिराया, अपने पद से और मेरी नजर से, कि उनके जो दोष दूसरों को साफ दिखाई देते थे उनसे वे बेखबर रहने लगे थे. दूसरों की दृष्टि और विचारों में दोष निकालते हुये वे ऐसे इंसान की मुद्रा बना लेते थे जिसे यह शक जरा भी न हो कि उसमें भी ये दोष हो सकते हैं. जब वे दूसरों को ईमानदारी का उपदेश देने लगते थे तो अपनी बेईमानी को भूल जाते थे.”
जब मैंने पूछा कि क्या आप दोनों एक दूसरे को अपनी पांडुलिपियाँ पढ़वाते थे, अपने लिखे पर राय लेते थे, तो वैद बोले कि निर्मल ने उनसे कभी राय नहीं ली,“लिखने या छपने के बाद हाँ पढ़ते थे एक दूसरे को लेकिन फिर वो भी कम होता गया.”
“आपने एक दूसरे को पढ़ना ही बंद कर दिया?”
“नहीं, मैं तो पढ़ता रहा लेकिन मेरा ख्याल है निर्मल ने बंद कर दिया.”
“हो सकता है वे भी आपको पढ़ते रहे हों लेकिन बताया नहीं हो आपको.”
“हाँ, हो सकता है यह भी.”
(तीन)
नाइजीरियन-अमरीकन लेखक तेजू कोले ने वर्जीनिया वूल्फ की डायरी पढ़ने के अपने अनुभव पर एक निबंध लिखा है. वह देर रात तलक डायरी पढ़ते रहे, सुबह सोकर उठे तो आँखों के सामने धुंधला महसूस किया. डायरी पढ़ने के बाद “मैं उनके शब्दों के आलोक में सोने चला गया. तक़रीबन तीन का वक्त था. मैं बिना सपनों के सोया. उठा तो मेरी बाईं आँख पर स्लेटी पर्दा छाया था. पूरी तरह दृष्टि नहीं खोयी थी, मैं उस पर्दे के धुंधले किनारे देख सकता था. कोई दर्द भी नहीं था. बाथरूम की सिंक में आँखों पर ठंडा पानी छिड़कते वक्त मुझे लगा कि क्या यह मेरे अवचेतन की क्रिया थी? क्या मैं उन निरीह लोगों में से हूँ जो लिखे हुए शब्द के प्रति करुणा के वशीभूत हो अँधेरे में डूबते जाते हैं?”
वर्जीनिया वूल्फ की डायरी जो तेजू पढ़ रहे थे १९४०-४१ में लिखी गयी थी, वूल्फ ने उसमें विश्व युद्ध में नष्ट हुए अपने लन्दन के घर, हवाई हमलों की भीषणता, अपने प्रेमी के प्रति उमड़ती आकांक्षा, जेम्स जॉयस की असामयिक मृत्यु के बाद का अवसाद दर्ज किया था. सत्तर साल पहले दर्ज हुआ एक अंग्रेज लेखिका का निजी अनुभव तेजू को बैचैन करता है, यह डायरी विधा की शक्ति, उपलब्धि है.
रचनाकार की डायरी पाठक को बड़े आत्मीय तरीक़े से संबोधित करती है, उससे अपनापा जोड़ लेती है. डायरी को लेखक की नोटबुक कहा जाता है, जिसमें वह अपने लेखन का कच्चा माल संजोता है. डायरी लेकिन एक मंच भी है. एक विराट रंगमंच जहाँ लेखक खुद से संवाद करता है. हेमलेट सा मोनोलोग, आत्मालाप, जिसे पाठक जब अरसे बाद पढ़ता है उस लेखक की रूह को मथते तत्वों से गुजरता है. आत्ममंथन के यही क्षण किसी डायरी को ऊपर उठाते हैं. कितनी बेबाकी, क्रूरता से लेखक खुद को, अपनी वासना, हसरत, अंतर्द्वंदों को उकेरता है, उनसे जूझता है.
कृष्ण बलदेव वैद की डायरियाँ एक गद्यकार के रचना कर्म, सहयात्रियों और जीवन के अनेक पक्षों को उजागर करती उस तिलिस्म को खोलने की चाभी भी हैं वैद की कथाएं निर्मित करती हैं. दूसरा न कोई का अकेला मरता जलावतनी बूढा, बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ का शरारती नायक, उसका बचपन में खाली ढोल की तरह बजता काला दुःख — इन सबके चिन्ह उनकी डायरी में मिलते हैं. अपने लेखकीय जीवन की शुरुआत से ही वैद ने डायरी को अपना दर्पण बना लिया था, जिसके भीतर वह अपने को तलाशा-तराशा किया करते थे.
मुल्कराज आनंद पर शोध करने के लिए वह उनके घर खंडाला रहे थे लेकिन उनकी भाषा और उपन्यासों का नकलीपन जान उनसे मोहभंग हुआ. मित्रों पर बेबाक टिप्पणियां, अशोक वाजपेयी की नफासत, सलीके और अफसरियत का जिक्र और यह कथन — “अगर रमेश चंद्र शाह सहज हो जाएँ तो उनकी बात दिलचस्प और खरी हो जाती है, लेकिन वे सहज कम ही हो पाते हैं.”
अपना स्वर हासिल करने की आकांक्षा वैद में आरंभ से ही थी,
उनकी डायरी इसकी साक्षी रही है:
“अब कुछ ऐसा लिखना चाहिए जिसके लिए अगर सूली पर भी चढ़ना पड़े तो झिझक न हो — ख़ौफ़नाक, गहरा, नरम.”
उनका यही स्वभाव उन्हें अज्ञेय से दूर ले जाता है. पचास के दशक में अज्ञेय कई लेखकों के महानायक बन उभरे थे,
वैद ने लेकिन शेखर में नकलीपन चिन्हित कर लिया था —
“शेखर में खोखलाहट और बनावट ज्यादा है. शेखर बतौर किरदार और इंसान अरोचक है, अज्ञेय उसे रोचक मानते हैं, इस पर हैरानी होती है.”
१९५५ में दर्ज हुआ ये दो वाक्य एक युवा लेखक के दुस्साहस का, हिंदी कथा साहित्य की प्रचलित राह से अलग अपनी जगह बनाने का संकेत हैं.
वैद अपने और निर्मल के फ़र्क़ को इस तरह देखते हैं:
“निर्मल और मुझमें बड़ा अंतर: वह मर्यादा का मुरीद, मैं विरोधी.”
लेकिन क्या निर्मल वाकई उतने ‘मर्यादा-प्रेमी’ थे जैसा वैद इंगित करते हैं? क्या वैद अपने दोस्त के प्रति ज़्यादती कर रहे हैं? क्या यह आंकलन उस बारीक खाई का सूचक है जो दोनों के बीच चलती और बढ़ती गयी है? मसलन १९८९ की यह डायरी: “कल शाम शीला संधू के घर निर्मल की शादी की दावत दबी दबी सी. ठंडी और उबाऊ. जब हम पहुँचे तो निर्मल शामलाल जी से बात कर रहा था, उस बात को एक आड़ के तौर पर इस्तेमाल कर रहा था…निर्मल बूढ़ा दूल्हा बना शामलाल जी के साथ ही जुड़ा रहा…भीष्म ने कुछ अश्लील लतीफ़े मुझे सुनाए लेकिन उनसे से भी बात नहीं बनी.”
ज़्यादती के इस प्रश्न को किसी आगामी लेख या इन दोनों के जीवनीकार के लिए छोड़ते हैं.
वैद निर्मल की बढ़ती ‘सार्वजनिकता’ देख नाख़ुश भी होते हैं. उनकी १९८५ की डायरी: “इस बार जब निर्मल के घर गया तो बाहर से सब कुछ बुझा बुझा और बासी नज़र आया…निर्मल का मुस्कराता हुआ चेहरा जैसे कोई टेढ़ा बूढ़ा कमल खिलने की कोशिश कर रहा हो…बातों बातों में पता चला कि कुछ ही दिन बाद निर्मल किसी गांधी मेले में शामिल होने जा रहा है. उसकी ज़िंदगी के इस पक्ष को में समझ नहीं पाया — उसका मंच-मोह!”
यहाँ यह भी जोड़ना चाहिए कि वैद अपने प्रति भी बड़े निर्मम हैं. उन्हें पाठक और आलोचक की दरकार नहीं, अपनी डायरियों में वह किसी लेखक की शायद सबसे बड़ी कमज़ोरी — पाठक की आकांक्षा — से भी उबरते दिखाई देते हैं. वे पाठक भी अपनी ही शर्तों पर चाहते हैं. मसलन सात जून दो हजार चार को वह लिखते हैं:
“आज शाम रमेश दवे की किताब — कृष्ण बलदेव वैद: गल्प का विकल्प — के प्रूफ मुझे भेजे गए. तीन-चार घंटे उसी को दिए. दोहराव बहुत है. मुझे ‘प्रतिष्ठित’ करने का प्रयास जहीन है, लेकिन शोध में कई दोष हैं और उतावली के कई प्रमाण भी. फिर भी किताब अपने यहाँ के मानकों के सन्दर्भ में मजबूत है, ‘बुरी’ नहीं, बड़ी भी शायद न हो.”
वैद का लेखकीय संसार विराट है लेकिन उन पर आलोचकीय काम बहुत कम हुआ है. तमाम लेखक लालयित रहते हैं कोई उन पर कुछ लिख दे, दो-चार लाइन ही घसीट दे, लेकिन वह ख़ुद पर लिखी गयी ‘आलोचना’ किताब को कोई खास महत्व नहीं देते.
वह एक जगह लिखते हैं:
“मैं कड़ा नक्काद हूँ, अपना भी औरों का भी. इसलिए मैं औरों को पसन्द हूँ न अपने आपको. इसलिए मैं इतना अकेला और अकुलाया हुआ रहता हूँ.”
जाहिर है ऐसा इंसान अपने दोस्तों के काम का भी कड़ा आलोचक होगा. लेकिन वैद की डायरी में निर्मल का जिक्र सिर्फ तल्खी या शिकायत के साथ ही नहीं आता, ऐसे तमाम अवसर हैं जब वैद जिस ‘निर्मलीय भावुकता’ पर सवाल उठाते हैं, उसी भीगे हुए भाव से अपनी दोस्ती को दर्ज करते हैं.
छब्बीस फ़रवरी दो हज़ार पाँच को वैद बीमार निर्मल को देखने उनके घर जाते हैं. निर्मल अरसे से बीमार चल रहे हैं. तब तक दोनों के बीच तमाम झगड़े हो चुके हैं,
लेकिन वैद लिखते हैं:
“देखने में वह लाचार और कमज़ोर नज़र नहीं आ रहा था. उसकी आवाज़ कमज़ोर थी और उसके फेफड़ों से बोलते समय ‘घर-घर’ की आवाज़ आ रही थी…तनाव तो नहीं था, कसाव कुछ था. सब जाने के लिए एक साथ ही उठे. घर से बाहर निकलने से पहले मैं और निर्मल बग़लगीर हुए. वह क्षण शुद्ध आत्मीयता का था. गगन देख रही थी और भर्रायी हुई मुस्करा रही थी. मैंने निर्मल से कहा: तमाम बातों के बावजूद तुम और मैं ‘सोल-मेट्स’ हैं, हमात्मा हैं.”
या बाईस नवम्बर दो हजार दो की यह पेरिस डायरी.
“परसों रात निर्मल सुबह चार बजे तक मेरे कमरे में बैठा रहा. कुछ पीते रहे, कुछ भावुक हुए, दो बजे तक मुन्ना साथ था, फिर वह हमें अकेला छोड़ने के लिए ही शायद चला गया — दो बूढ़े साबिका दोस्तों को आपसी रंजश दूरी दूर या काम करने का अवसर देने के लिए ही शायद. हम अपने-अपने प्रोस्टेट ऑपरेशन के बारे में बात करते रहे.”
दो वयोवृद्ध लेखक विदेश यात्रा पर हैं, अपने प्रोस्टेट ऑपरेशन के बारे में सुबह चार बजे तक बात कर रहे हैं.
वैद की डायरियाँ उकसाती है कि इस दोस्ती को टटोला जाए, इस दोस्ती के कभी नज़दीक कभी दूर घटित होती दोनों की कथा-यात्रा के सहारे दोनों की जीवनी लिखी जाए.
वैद की डायरी निर्मल की बीमारी का बड़ी मार्मिकता से ज़िक्र करती है. मृत्यु के बाद तो कई पन्ने निर्मल पर हैं. पच्चीस अक्तूबर दो हजार पाँच, मृत्यु से कुछ ही घंटे पहले की वैद की यह डायरी: “आज कृष्णा के फोन के दौरान जब निर्मल का जिक्र आया और मैंने उसे निर्मल की बुरी हालत के बारे में बताया तो वह बुझ गयी और हम दोनों उदास हो गए.”
और अगले दिन चिता के सामने यह डायरी: “निर्मल की मौत में मुझे अपनी मौत दिखाई देती रही.“
डायरियाँ निर्मल ने भी काफ़ी लिखी हैं, लेकिन हैरानी की बात है कि जो इंसान उनकी मौत में अपनी मौत देख रहा था, जिसके साथ निर्मल ने तमाम चीज़ें साझा की थीं, शायद प्रेम भी, जिसके साथ वह जवानी के दिनों में एक लड़की को ट्यूशन पढ़ाने जाते थे, जो उनका “हमकलम, हमनवा, हमराज़, हमग़म, हमजौक़, हममज़ाक़” था, उसका ज़िक्र निर्मल की डायरी में कहीं नहीं आता.
जीवनीकार को यह अनुपस्थिति भी प्रेरित कर सकती है.
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