जब आँख ही से न टपका
तेजी ग्रोवर
“क्या तुम्हें इससे बेचैनी नहीं होती कि जीवन के बीतने के साथ ही ख़ुद तुम्हें ही तुम्हारा जिया हुआ जीवन किसी और का लगने लगता है, जैसे उस जीवन ने बिना तुम्हारे जाने ही तुमसे अलग अपना एक संसार बना लिया हो?”
उदयन वाजपेयी
बहुत वर्ष पहले की बात है, पिछली सदी के नौवें दशक की, ज़िला होशंगाबाद की तहसील बनखेड़ी के ग्राम पालिया पिपरिया में मेरे चार वर्षीय आवास की पहली होली थी वह. उन वर्षों में मैंने बड़ी कठिन ज़ाती परिस्थितियों में चंडीगढ़ में कॉलेज की नौकरी से लम्बी छुट्टी लेकर किसी नामी ग्रामीण संस्था में प्राथमिक शिक्षा के एक प्रयोगधर्मी कार्यक्रम के संयोजन का कार्यभार सम्भाला था. लेकिन इस संस्था में मेरी पहली होली के दिन घटी उस रोचक घटना पर, जो कृष्ण बलदेव वैद द्वारा मुझे अंग्रेज़ी में लिखे ख़तों को हिन्दी अनूदित करने के अनुभव और उसके हश्र का रूपक भी हो सकती है, मैं अभी कुछ समय बाद लौटकर आती हूँ.
1985 में मेरे यहाँ आने से कुछ ही समय पूर्व, पचमढ़ी में कृष्ण बलदेव वैद द्वारा आयोजित एक भव्य कथा शिविर सम्पन्न हो चुका था और इस शिविर की ऐतिहासिकता के बारे में, चालीस साल बाद, किसी सक्षम कलम का लिखा एक जोखिमपूर्ण और दोटूक संस्मरण का आना अभी तक दरकार है जिसे पढ़कर पाठक के हृदय में श्रृंगार और करुणा का संचार हो.
फ़ोटो आर्टिस्ट अशोक माहेश्वरी जिनके बारे में अशोक अग्रवाल एक सुन्दर संस्मरण लिख भी चुके हैं इस शिविर में सबकी ऐसी तस्वीरें खींच रहे थे जो अभी तक उस जमावड़े में शिरकत करने वालों के अलावा और भी कई लेखक-पाठक-आर्टिस्ट एक दूसरे को भेजते रहते हैं. रेस्ट-हाउस की विशाल सीढ़ियों पर अशोक की खींची एक तस्वीर थी, उन लोगों की, जो बहुत वर्ष तक एक दूसरे के लेखन में अहम भूमिका निभाने वाले थे. उनकी आपसदारी और उनकी कृतियों में कुछ हद तक दिलफ़रेब अन्तर्पाठीयता का उबरते आना उस प्रगाढ़ लेखकीय मैत्री का अपार सुख था.
सभी प्रगाढ़ साहित्यिक मित्रताओं की तरह इस मैत्री के श्वास भी गिने हुए थे, लेकिन प्रेम में पड़ते वक़्त मृत्यु का वरण करने से आज तक कौन बच पाया है? फिर ये मैत्रियाँ न मिलने, न मिल पाने की सूरत में ख़ला में ख़ूब ऐश्वर्य से और भी पनप जाती हैं. आप कभी-कभार यह भी चाहते हैं कि इससे पहले कि हम में से कोई मर जाये एक शाम हम सभी को तमाम छद्म गिले-शिकवे हृदय से मिटाकर एकबारगी मिल लेना चाहिए; लेकिन आपको यह भी पता है कि इस इच्छा के पूरे न होने में ही सबकी भलाई है.
मानुस का मानस इतना उलझा हुआ है कि वह बिलावजह डर जाता है; जहाँ प्रेम है, मैत्री है, वहाँ भय भी पसरा रहता है. अर्थ के बीसियों अनर्थ करता हुआ भय मानस को तार-तार किये देता है. मैत्री और प्रेम के आगे सीस नवाये एकान्त से प्रीत हो जाना एक समय के बाद ही हो पाता है. तब तक केवल तड़प और पीड़ा में बिछौना किये पड़े रहो. समाज के कुछ काज सँवारो. पशुओं की भाषा को पढ़ने का प्रयास करो. और बस…
१.
पचमढ़ी शिविर में अशोक माहेश्वरी की खींची उस तस्वीर में नींबुई साड़ी पहने एक ख़ूबसूरत युवती का चित्र भी था जो अपने शौहर के साथ वैद सा’ब के कथा-शिविर में आयी हुई थी. वह नव-विवाहित जोड़ा पूरे शिविर के दौरान वैद सा’ब और चम्पा जी सहित सबके स्नेह का पात्र बना रहा. मुझे उस वक़्त ज़रा भी आभास नहीं था उन दोनों से मिलने का मेरे जीवन में कैसा प्रभाव पड़ने वाला है.
इस शिविर के करीब दो बरस बाद जुड़वां बच्चों को जन्म देती हुई वह युवती इस दुनिया से चली गयी. उसके जाने का ज़ख्म हरा ही रहना था, हमेशा के लिए, और यह लाज़िम था कि कुछ गिने-चुने मित्रों को उसके जाने का मार्ग अपने-अपने लेखन में दृश्यमान भी रहे. मेरे लिए इस बेशकीमती मैत्री के इतिहास में यह युवा मृत्यु और उससे उफ़नता चला आता अनवरत महाविरह एक बीज संघटना थी. इस हादसे के बहुत वर्ष बाद बहुधा हिन्दी में लिखने वाले हमारे एक अग्रज, सिद्धांतकार और आलोचक की हैसियत से जिनकी तेजस्विता और मेधा निर्विवाद है, अपने एकमात्र बालक को ख़ुदकुशी से बचा पाने में विफल हुए. फिर उस युवा के जाने के बाद वे उसके प्रिय शायरों बेदिल और ग़ालिब पर काम में जुट गये.
जिस प्रकार कृष्ण बलदेव वैद पर सरेआम “अश्लीलता” का आरोप लगा और उन्हें मिलने वाला एक घोषित पुरस्कार रद्द कर दिया गया, वैसे ही पचमढ़ी कथा-शिविर में शिरकत कर चुके कुछ अन्य लेखकों पर मृत्यु के प्रति ऑब्सेशन का आरोप भी लगा; यहाँ तक कि भोपाल में चल रहे एक साहित्यिक आयोजन में किसी ने निर्लज्जता से “शवकामुकता” जैसे पद का भी उपयोग किया.
एक तरह से देखा जाये तो फ़्रांस के कुछ अज़ीम चित्रकारों को गरियाने के लिए उन्हें “इंप्रेशनिस्ट” करार दिया गया था. हम मित्रों के इस समूह में से एकाध मित्र की किसी कृति को, शिल्प की दृष्टि से, शायद, इसी तरह, हिन्दी की एक सुविख्यात स्त्री-उपन्यासकार ने “राग भोपाली” का तमगा दिया था. जिसे कालान्तर में कुछ लोगों ने “भोपाल स्कूल” कहना शुरू किया मैंने उस स्कूल को कई वर्ष इतनी संजीदगी से लिया कि मेरा मज़ाक उड़ाया जाने लगा. मैं ख़ुद ही उस संजीदगी को कहकहों में बदल देने को आतुर रहा करती, ताकि मैं अपने झेंप को मिटा सकूँ.
२.
मैं स्वयं बहुत लम्बे समय तक ग्राम पलिया पिपरिया में बच्चों से घिरे हुए माहौल से उठकर उन जुड़वाँ बच्चों के पिता से मिलने भोपाल नहीं जा सकी जिन्हें अपनी माँ का प्यार परिवार की अन्य स्त्रियों द्वारा मिलना था. मुझमें इस हादसे का सामना करने की हिम्मत ही नहीं थी; मैं प्रगाढ़ प्रेम-सम्बन्धों की भंगुरता से क्षुब्ध होकर जिस प्रान्त में आयी थी उसमें बसे समुदायों के काठिन्य को समझने की मेरी तैयारी भी नगण्य थी. नींबुई साड़ी में सीढ़ियों में बैठी वह तस्वीर हो चुकी स्त्री मेरे साथ रहने लगी थी…
अपने ज़ाती दुखों को नर्मदा पर बनने वाले बाँधों की आपदा, भोपाल गैस हादसे से मेरी वाबस्तगी और प्राथमिक शिक्षा में उस कठिन प्रयोग में विलय करने के मेरे सारे जतन विफल होते जाते थे. साहित्य मुझे बेहिचक अपने तिलिस्म से बाहर फेंक देता और थोड़ा-बहुत लेखन मैं केवल अपने सामाजिक-शैक्षणिक कार्य को लेकर ही कर पा रही थी. सुधा भारद्वाज (अब उसे कौन नहीं जानता?) उन दिनों मेरी टीम में काम कर रही थी, और मैं उसके हठयोग की क़ाइल हुए बिना नहीं रह सकती थी. वह बिना कोई शिकायत किये हमारी टीम के ग्रामीण साथियों का बहुत सा काम अपने ज़िम्मे ले लिया करती थी. मुझे मालूम था वह इस अतिरिक्त कार्यभार से किसी दिन थक कर वहाँ से चल देगी, लेकिन मैं यह बात किसी से साझा नहीं कर पाती थी.
सुधा का उन दिनों का साथी डॉक्टर दोस्त शंकर गुहा नियोगी के साथ शहीद हॉस्पिटल में कार्यरत था और उसका हमारी संस्था में आना-जाना लगा रहता था. हम सब युवा लोग राजनीतिक सक्रियता की नयी परिभाषाएँ सीख रहे थे और मेरे लिए तो यह संसार एकदम नया और अनचीन्हा था. मैं उन लोगों की सोहबत में थी जो भविष्य में इस देश के बड़े आन्दोलनों की बागडोर सम्भालने वाले थे. मेधा पाटकर अभी नर्मदा बाँधों को लेकर केवल पुनर्वास के मुद्दे को लेकर सक्रिय हुई थीं और हमारी संस्था में रमेश बिल्लौरे नाम का एक जाँबाज़ और हँसोड़ ऐक्टिविस्ट बाँधों की डूब में आने वाले दुर्गम इलाक़ों की अथक और अन्तहीन पैदल यात्राएँ करते हुए साथ-साथ अपने एकल सर्वेक्षणों का दस्तावेज़ीकरण करता जाता था. उन यात्राओं के अनुभव इतने विचित्र थे कि इस पृथ्वी के सम्भवत: सबसे रमणीय, शस्य-श्यामल और शीघ्र जलमग्न हो जाने वाले भूखण्ड में रमेश बिल्लौरे कच्चे घरों से उठते हुए धुएँ, संकरी सरिताओं, खजूर के पेड़ों को लैंडमार्क मानकर कभी-कभी पूरा दिन पैदल चलते हुए उसी स्थल पर वापिस पहुँच जाते थे जहाँ से उन्होंने तड़के-सवेरे चलना शुरू किया था.
जब ये क़िस्से वे संस्था में लौटकर हमें सुनाते हम लोग भी उनके साथ ख़ूब ज़ोर से ठहाके लगाते लेकिन नर्मदा मैया के प्रवाह को, यानी माटली माई को अपने ही लोगों के खेत-हार और उनके जंगलों-पर्वतों, उनके निसर्ग, उनके पुरखों के छोड़े संकेतों, चिह्नों और सदियों से संचित ज़मीनी ज्ञान, उनकी जीवन शैली, उनकी संस्कृति, उनकी रोज़-रोटी के जुगाड़, उनकी भाषाओं, जलचरों और मवेशियों को लील जाने के लिए कई स्थलों पर बाँधा जाने वाला था. उन बिल्लौरीय ठहाकों में इस अवसाद का स्वर भी रहा करता; बल्कि ये ठहाके हम सभी को यह सुझाते भी थे कि ये चुप रहने की घड़ियाँ नहीं थीं. यह पृथ्वी पर घिरा हुआ एक प्राणलेवा संकट था, एक ऐसा प्रलयंकारी प्रोजेक्ट जिसे हर ओर से चुनौती देना अनिवार्य था. मैं इस बात को कैसे नज़रअंदाज़ कर सकती थी कि हिन्दी के ऐसे लेखक जिनकी कृतियों से मुझे लगाव था बाँधों का समर्थन कर रहे थे. मुझे यक़ीन था कि अगर वे घाटी का स्पर्श एक बार भी ख़ुद पूरे होश-हवास में पा लेते तो उन्हें ये बाँध अपने लेखन के वैभव पर छाये हुए संकट के रूप में भी दृश्य होते.
हमारे कई साथियों को नर्मदा आन्दोलन का उद्गम रमेश बिल्लौरे की यात्राओं से होता जान पड़ता था. कालान्तर में रमेश के जोखिमपूर्ण काम पर आधारित क्लॉड अल्वारेज़ और रमेश बिल्लौरे की पुस्तक Damning The Narmada इस मुद्दे को लेकर पहली प्रकाशित पुस्तक की हैसियत से नर्मदा के इतिहास में दर्ज हुई. इस पुस्तक में रमेश ने पर्यावरण मन्त्रालय का एक ऐसा खुफ़िया दस्तावेज़ भी शामिल किया था जो वे पता नहीं किस विध मन्त्रालय के दफ़्तर से उड़ा ले आये थे. इस पाँच पन्ने के दस्तावेज़ में एक भी ऐसा अहम मुद्दा नहीं छूटा जो कालान्तर में आन्दोलन के प्रमुख मुद्दों में शामिल नहीं रहा. इसका आशय यह हुआ कि ऐसा नहीं है कि सरकार को पता नहीं था कि पर्यावरण और विस्थापन की दृष्टि से यह दुनिया का द्वितीय सबसे विनाशकरी पनबिजली प्रोजेक्ट था. रमेश बिल्लौरे के बड़े भाई नर्मदा पर बन रहे बाँधों के न केवल समर्थक थे बल्कि चीफ़ इंजीनियर भी थे. रमेश को दूर से आते देख उनके घर का एक कमरा बन्द कर दिया जाता था. रमेश ने काम के दस्तावेज़ों को चुपके से हथियाना शायद यहीं से सीखा था.
इस बीच कभी मेधा पाटकर को कई विचारकों और ऐक्टिविस्टों ने मिलकर आन्दोलन को केवल पुनर्वास के मुद्दे पर न टिकाये रखने को राज़ी कर लिया. उन्हीं दिनों हमारी संस्था में अक्सर आती चित्तारूपा पालित (सिल्वी) से भी मेरी प्रगाढ़ मैत्री हुई और जो अभी तक नर्मदा बचाओ आन्दोलन की अग्रणी ऐक्टिविस्ट है और इतने काठिन्य-भरे आन्दोलन में कई बार भूख-सत्याग्रह कर, नदी में कई-कई दिन तक खड़े रहकर और उपवास को किसी प्राकृतिक चिकित्सक की सलाह के बिना तोड़ते रहने से सिल्वी का स्वास्थ्य नाज़ुक होता आया है. यही बात मेधा और अन्य सत्याग्रहियों पर भी लागू होती है.
मुझे तभी से लगने लगा था कि ऐक्टिविस्टों के उस जमावड़े में ऐसे कई लोग थे जिनके भीतर की कोई असह्य पीड़ा उनके जीवन की दिशा को बदल दे रही थी. मैं क़यास-भर लगा रही हूँ. सिल्वी के माता-पिता को घर में पुताई करने आये दो लोगों ने एक म्यूज़िक सिस्टम ले जाने के चक्कर में बड़ी निर्ममता से मार डाला था. मेरी कभी इस बाबत सिल्वी से खुलकर बात करने की हिम्मत नहीं हुई और न ही सिल्वी का निष्कलुष हृदय कभी कठोर हुआ, न भयाक्रान्त.
वह यह अभी तक यह भी कहती है कि आन्दोलन का नाम नर्मदा बचाओ आन्दोलन नहीं होना चाहिए था. हम मानुस हैं; नदी हमारी प्राणरक्षा करती है; यह दम्भ हमें हरगिज़ नहीं होना चाहिए कि हम नदी को बचा रहे हैं.
३.
बहुत वर्ष पहले अमरीका से भारत आयीं मीरा अपने लगभग पूरे परिवार को एक विमान हादसे में खो चुकी थीं. वे वियतनाम युद्ध को लेकर इतनी क्षुब्ध थीं कि अमरीका की नागरिकता तज देना चाहती थीं. फिर उनकी मुलाक़ात अमरीका में भारतीय मूल के विज्ञान के एक छात्र से हुई जो वहाँ पीएच.डी. कर रहा था. वह उसके साथ उसके परिवार से मिलने जब भारत आयी तो उसकी अनुपस्थिति में वह विमान हादसा हुआ जो उसे ताउम्र अफ़्सुर्दगी की गिरिफ़्त में रखने वाला था. लेकिन मीरा भी, कार्ल युंग की भाषा में कहें, तो “wounded healer” थीं. मीरा की चिकित्सकीय क्षमताएँ केवल मानुस-जात के उपचार तक ही सीमित नहीं थीं. वे किसी भी घायल या रुग्ण पशु-पक्षी की उपेक्षा नहीं कर पाती थीं और किसी उनकी मेज़ की दराज में घायल साँपों का एक छोटा-मोटा अस्पताल तो सदैव चलता ही रहता था.
पीछे मुड़कर देखती हूँ तो जो एहसास मुझे होता है वह यह है कि इतने जुझारू और कर्मठ सामाजिक-राजनैतिक ऐक्टिविस्टों में ख़ुश रह पाने वाले कम ही थे. रमेश और सथ्यू (भोपाल हादसे के बाद सक्रिय अब विश्व-प्रसिद्ध ऐक्टिविस्ट सतीनाथ षड्ंगी) ख़ूब हँसते-हँसाते थे और उनका साथ हमें मिल जाता तो हम रंजीदा सूरतों को भी कुछ देर हँसी के दौरे पड़ जाया करते थे.
मैं और मेरे कुछ और साथ दोस्त संस्था के अन्तिम वर्षों में ही वहाँ आये थे, लेकिन हम में से किसी को इस बात का भान नहीं था. मेरे सहित मेरे कुछ अन्य साथियों को संस्था के कुछ ऐसे वरिष्ठ लोगों में, जो सामाजिक-राजनैतिक कार्य को अपना जीवन समर्पित कर चुके थे, असंदिग्ध रूप से अब सामन्ती लक्षण दिखने लगे थे. एक विस्फोटक घटना के माध्यम से संस्था की अन्तिम साँसों की इबारत अब साफ़-साफ़ उबर कर सामने आ रही थी. हुआ यूँ कि मज़दूर संगठन के किसी ग्रामीण कार्यकर्ता द्वारा संस्था को ललकारने की गर्ज़ से एक संरक्षित पेड़ की डगार को काटकर संगठन के भवन में बल्लम के रूप में उपयोग कर लिया गया. संस्था को चुनौती देने वाले संगठन को समझ में नहीं आया कि प्रतिरोध के इस प्रतीकात्मक कर्म के दूरगामी परिणाम क्या होने वाले थे.
स्वैच्छिक संस्थाओं के इतिहास में इस अध्याय की सियाही को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. हुक्मरान तो अंग्रेज़ों के बनाये क़ानूनों से देश की जनता का शिकार करते ही आये हैं, हमारी संस्था के नामी और आदरणीय संयोजक ने तैश में आकर बिना किसी से सलाह मशविरा किये, अविलम्ब, वन-विभाग में संरक्षित पेड़ की डगार काटने को लेकर शिकायत दर्ज कर दी. कितने वर्ष के कानूनी दुस्स्वप्न में हमारे साथी, वे जुझारू लोग, अपना पेट काटकर भिड़े रहे, यह तो मुझे याद नहीं, लेकिन हमारी उम्र के ग्रामीण कार्यकर्ताओं का यौवन इसी लड़ाई में मर-खप गया. संस्था के मध्यम-वर्गीय कार्यकर्ता भी दो हिस्सों में बँट चुके थे. हम जैसे कुछ युवा हर हाल में अपने उन अज़ीज़ों का समर्थन कर रहे थे, जिन्हें हमारे सचल साइकिल पुस्तकालय से प्रेमचंद, रेणु और गोर्की आदि के उपन्यास सहजता से उपलब्ध रहा करते थे और जिनके साथ गाँवों में घरों, चौपालों, खेत-हारों में महफ़िल जमाये संस्था के कैम्पस में रहने वालों की गम्भीर साहित्यिक चर्चाएँ हुआ करती थीं.
चूँकि हम संस्था द्वारा की जा रही कानूनी कार्यवाही के खिलाफ़ थे, हमारा हुक्का-पानी भी फ़ौरन बन्द कर दिया गया. संस्था की वह जीप जो हमें कभी-कभी उपलब्ध रहती थी, कैम्पस का पुस्तकालय और सामूहिक रसोई … ये सब सुविधाएँ हमसे छीन ली गयीं. हमारे पास कोई निजी रसोइयाँ तो थीं ही नहीं, न आसपास कोई ढाबा, न कोई हाट-बाज़ार ही उस परिवेश में था, तो ज़ाहिर था कि संस्था को छोड़कर जाने के सिवा हमारे पास कोई चारा बचा ही न था. सरकारी पाठशालाओं में चल रहे हमारे शैक्षणिक प्रयोग भी संस्था ने आधिकारिक रूप से बन्द करवा दिये थे. सिर्फ़ कामगार बच्चों के लिए चल रही सांध्य पाठशाला को, जो किसी दस्तावेज़ की मोहताज नहीं थी, हम लोग अपने उखड़े श्वास के साथ कुछ देर चला पाये; वह भी इसलिए क्योंकि अचानक इस बुलबुले के टूट जाने से जो अस्तित्वपरक संकट हमारे कार्यक्रम में शिरकत कर रहे छोटे बच्चों, किशोरों और उन सबके अभिभावकों पर घिर आया था, हमारी टीम के सदस्य स्वयं उसके लिए नैतिक रूप से ज़िम्मेदार मान रहे थे.
पेड़ की डगार को लेकर कानूनी कार्यवाही के शुरू हो जाने के बाद चूँकि संस्था और उन लोगों के बीच सौहार्द और सहयोग का बने रहना नामुमकिन था जिनके “विकास” के लिए कुछेक शहरी बुद्धिजीवी लोग अपनी सुख-सुविधाओं का परित्याग कर उस “सुदूर” इलाक़े में चले आये थे, 1972 में बनी वह संस्था अब 1989 के आसपास अपनी आसन्न मृत्यु को स्पष्ट देख रही थी. ग्रामीण और शहरी, बुद्धिजीवी और मजदूर-किसान, सदियों से इन सबके बीच की फाँक को सब अपनी-अपनी समझ के अनुसार चख रहे थे. ठेठ बुन्देली के कर्णप्रिय सुरों में खड़ी बोली और अंग्रेज़ी का अनधिकार हस्तक्षेप अब ख़त्म होने को आया था. लेकिन दोनों ओर के मनुष्य ताउम्र एक दूसरे की छब को बुहार कर हस्बे-मामूल अपनी-अपनी ज़िन्दगी जीने के क़ाबिल अब नहीं रह गये थे.
यह कहानी यदि पूरी लिखी जाये, उस अनूठे ग्रामीण परिवेश में, उन अपरिहार्य प्रेम-सम्बन्धों सहित, जिनका कोई उपाय नहीं था, कोई काट नहीं थी, तो ये पन्ने उस कहानी के लिए सही न होंगे. पहले से ही यह पुस्तक रास्ता भटक कर जिस जगह पहुँच गयी है मैं उस जगह को पहचान भी नहीं पा रही क्योंकि आँख-देखी और हाड़-बीती को कह पाना किसी-किसी के बस का ही होता है. बहरहाल, अभी-अभी, इतने वर्षों के बाद जो बात मुझे सूझी वह यह है कि मुझे उन छह-सात गाँवों की निवासी ग्रामीण लड़की या स्त्री याद नहीं आती जो संस्था के कैम्पस में रहते किसी शहरी पुरुष के प्रति आकर्षित हुई हो. हुई भी होगी तो उस आकर्षण का इज़्हार उसकी ओर से कभी नहीं हुआ. लेकिन ग्रामीण युवा और प्रौढ़ पुरुष अंग्रेज़ी में बात करने वाली शहरी स्त्रियों के प्रति अपने आकर्षण का इज़्हार किये बिना रह ही नहीं पाते थे. कभी-कभी बात इस हद तक बढ़ जाती कि ताउम्र न भूलने वाले काण्ड हो जाया करते.
संस्था में कई जगह से छात्राएँ आतीं; उनकी वेश-भूषा और बोलने के स्नेहिल अंदाज़ से संस्था में कार्यरत शहरी और ग्रामीण पुरुष दोनों के सर घूम जाते. शहरी स्त्रियों को भी कभी-कभी ग्रामीण-पुरुषों की मनुहार बेहद रूमानी लगने लगती और तब तो मुआमला और भी उलझ जाता क्योंकि सम्बन्धों को संगुप्त रख पाना उस विचित्र परिवेश में मुमकिन ही न था. हम में कई अकेले छूट गये लोगों के विच्छेद-विरह प्रसंग अभी नये-नये थे; घाव पूरे जोबन पर. पड़ोस में चाय की एक गुमटी तक न थी; डाकिये की आमद और भोपाल-सागर से सागर-भोपाल तक की हॉल्टिंग बस का संस्था के बाहर रुक जाना सबसे रोमांचक घटनाएँ हुआ करतीं. पता नहीं किसका ख़त आयेगा; बस में से कौन उतर कर आयेगा, हम में कुछ “सिंगल” लोगों के दिलों की धड़कन इन्हीं घटनाओं से परिचालित रहतीं.
कैम्पस पर किसी को कभी साँप ने नहीं काटा हालाँकि कुबेलू की छत से बिस्तर पर साँपों का टपकना आम बात थी. आसपास के साथ-आठ गाँवों में जिन तक हमारे सचल पुस्तकालय की पहुँच थी सर्प-दंश की घटनाएँ आम थीं. रात में ऐसा हो जाने पर संस्था में कई बार हड़कम्प मच जाता और संस्था की जीप कई मील दूर किसी अस्पताल की ओर जाने के लिए जब स्टार्ट होती तो हम सब समझ जाते कि क्या हुआ होगा. उस रात दोबारा कम ही लोगों को नींद आ पाती. मेरा बंगाली सहकर्मी तो उठकर गाँजे के दो कश लेकर ही राहत महसूस करता. गाँव के युवकों के साथ उसका याराना इस शै की बदौलत भी प्रगाढ़ हुआ था. इस निरीह नशे को सरकार महुए के पेड़ों की तरह ही नष्ट कर देना चाहती थी क्योंकि इतनी मामूली चीज़ से भला हुक्मरानों को क्या ही आमदनी होती! मैं जो ख़ुद गांजे का विरोध किया करती इसके औषधीय गुणों को तब तक न जान पायी जब तक शुरोजीत ने मुझे दमे के दौरे के शुरू होते ही दो कश लेने को आमादा न कर लिया. जैसे ही मुझे हंफनी आने लगती मैं शुरोजीत के कमरे की तरफ़ भागती. बावजूद इसके, गांजे या किसी और पदार्थ की लत मुझे नहीं लगी… न ही मैंने कभी इसके सेवन को लेकर कोई झगड़ा-फसाद ही किसी से किया.
इस बीच हम सब अपनी आँखों से देख चुके थे कि जानवरों को भी नशे की तलब होती है. बेशरम की झड़ियों के पास फूल चाबने के बाद बकरियों की टाँगें आढ़ी-टेढ़ी पड़ने लगतीं, और महुए के फूलों को खाये हुए सूअर तो मस्ती में झूमने लग जाते थे. अतिरिक्त पके हुए वे फल जिनमें खमीर उठ जाता है और जिन्हें खाकर चमगादड़ धुत हो जाते हैं, या भालू और हाथी जब कच्ची शराब पर धावा बोल देते हैं तो कौन उन्हें रोक पाता है? हमारी संस्था के सत्ताधारी यह चाहते थे कि हमें अगर हल्का सा भी जी को बहलाना है भोपाल जाकर ही बहलाएँ. वे ख़ुद भी ऐसा ही करते थे. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि उनकी यात्राएँ ख़ूब होती थीं, और हमें पाठशालाएँ और सचल पुस्तकालय रोज़ चलाना होते थे.
इन सब मुद्दों को लेकर भी हमें लगने लगा था कि अगर हमारे ग्रामीण साथी अपने वास्तविक रूप में हमें मिलते हैं तो दोहरा जीवन जीने की बाध्यता हमें क्यूँ महसूस हो? जब हमारे अधिकांश ग्रामीण साथी थोड़ा बहुत नशा सरेआम करते थे, और काम के दौरान तो क़तई नहीं, तो हमें ही क्यूँ अपनी नाम-मात्र की ज़रूरत को नक़ाब में रखने का स्वांग करते रहना था? यूँ भी संस्था से मिली 300 रुपये की पगार हम मित्रों को एक दूसरे के सामने हाथ पसारने को मजबूर कर ही देती. शुरोजीत की पत्नी उसे दिल्ली से कुछ पैसा भेज दिया करती. वह बैंक की, और मैं कॉलेज की नौकरी छोड़ कर आये थे. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि मेरी प्रिन्सिपल ने किसी विध मेरे लौटकर आने की सम्भावना को खुला रख छोड़ा था.
शुरो और मेरे बीच के लेन-देन का बारीक़ हिसाब रखा जाता था. उसकी पत्नी कभी-कभी मेरी देनदारी को सम पर लाकर मुझे ऋणमुक्त कर दिया करती. मेरी आमद के साल भर संस्था की ओर से बाद जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को मुझे फ़ेलोशिप देने की अर्ज़ी भेजी गयी तो वह पता नहीं कैसे स्वीकार हो गयी, क्योंकि संस्था का तेवर सत्ता-विरोधी था. मुझे अपने कुछ पुराने ऋण चुकाने थे और इस परिवेश में अपनी पोटली में पैसा बाँध कर भविष्य के लिए रखे रहना मुझे अनैतिक कर्म लगता था.
मैंने इस पूरे “स्वैच्छिक” अनुभव के दंश से उबरने की गर्ज़ से अपने गुरुवन्त दार्शनिक रामू गाँधी से चार-पाँच साल के इस काल-खण्ड के बारे में तफ़्सील से चर्चा की, और अपनी जिज्ञासा उनके समक्ष रखी कि इतने उद्दात आदर्शों के साथ शुरू हुए सदाशयी सामाजिक उपक्रम का ऐसा हश्र कैसे हो जाता है कि वह “अपने ही लोगों” के ख़िलाफ़ चला जाये? रामू ने इस प्रश्न का जवाब देने में बहुत अधिक समय नहीं लगाया. वे बड़े शान्त और निरुद्विग्न स्वर में बोले, “दुष्टता करने वाले का अहंकार अच्छे काम करने वाले के अहंकार की तुलना में कहीं कम होता है, तेजी!”
रामू के इस कथन को मैं कभी नहीं भूल पायी. यह कथन एक ऐसा उपकरण था जिसे लिये हुए कोई भी व्यक्ति, यदि वह ऐसा करना चाहे और इसे कर गुजरने की क़ुव्वत अगर उसमें हो, तो असंदिग्ध रूप से अपनी मंशाओं और अपने काजों का ईमानदार आकलन कर सकता है. मैंने बहुत बार इस कथन को मन-ही-मन गुनते हुए सामाजिक क्षेत्र में अपनी कथनी और करनी के बीच के अन्तर को चखा है. मेरी जिह्वा विरोधियों के सामने एकाधिक बार कटु-तिक्त हुई है, और कितनी बार होगी मैं नहीं जानती.
4.
वे रामू ही थे जो मुझ जैसे व्यक्ति को, जो कभी कुछ नहीं सीख पाया, ऐसी जगह ले गये जहाँ बिल्लियाँ उनके गिर्द बैठकर सुकून महसूस करती थीं और उनकी बरसाती की दीवारों पर विहार करतीं छिपकलियाँ उन्हें अपनी नानी-दादी सरीखी लगतीं; वे अपने युवा दोस्तों को आसमान की ओर दिन में कई बार देखने को कहते और किसी पुल की रेलिंग पर कुहनियाँ टिकाये ग्रौटोव्स्की की बनायी अपनी कोई प्रिय फ़िल्म फ्रेम-दर-फ्रेम सुना और दिखा भी देते. कुमार शहाणी की ख़याल गाथा उन्होंने मण्डी हाउस में मेरे संग बैठकर देखी और मैं जब भी अपनी इस प्रिय फ़िल्म को दोबारा देखती हूँ, रामू मेरे साथ ही आकर बैठ जाते हैं, या फिर उन्हें बैठे हुए देख ही मैं इस फ़िल्म को एक बार फिर देखने लग जाती हूँ. मीता वसिष्ठ का मेरे जीवन में होने का सुख भी इस फ़िल्म को रामू के साथ बैठकर मन-ही-मन बारबार देखने में झलकता आता है.
रामू का इस फ़िल्म के बारे में कहा और कुमार का मुझे उस कहे का जवाब देना मैं यहीं दर्ज किये दे रही हूँ. रामू ख़याल गाथा के अतिशय सौन्दर्य को लेकर अनाश्वस्त थे; उन्हें लगा पूरी फ़िल्म में अगर किसी वृद्धा के खाँसने का स्वर ही होता तो क्या हर्ज था. कुमार ने जब मुझसे पूछा कि रामू को फ़िल्म कैसी लगी, तो मैंने उन्हें बता दिया. कुमार बोले, तेजी, जब तुम रामू से मिलोगी तो उन्हें याद दिला देना कि खाँसी का यह स्वर तो फ़िल्म में बाक़ायदा है.
रामू और कुमार से फिर ठीक से मिल पाना, रामू के व्याख्यान और कुमार की फ़िल्मों को देखना, संस्था से चंडीगढ़ लौटने के बाद ही दोबारा मुमकिन हुआ. कृष्ण बलदेव वैद और चम्पा जी को मण्डी हाउस में हो रही किसी प्रदर्शनी या कार्यक्रम में दूर-दूर से देख पाना अब भी सम्भव था. निर्मल और गगन का “बरसाती” जीवन … हम सब खिंचे चले आते थे उस छत की ओर!
5.
संस्था में अपने चार-वर्षीय आवास के दौरान बीच-बीच में उन सभी ख़तों को मैं बाँचती रहा करती थी जिनसे मेरे सुख-दुख सरसब्ज़ रह पायें. उन ख़तों को लम्बे समय तक हिफ़ाज़त से रख पाना जब मेरा न कोई स्थायी ठिकाना था, न कोई ऐसा साथी जो मुझे अफ़्सुर्दगी से उबार सके, मेरे लिए आसान काम नहीं था. रामू गाँधी निर्मल (जी) और जयशंकर के अलावा मेरे अन्य लेखक दोस्तों से, जिनमें ज्योत्स्ना मिलन, हरजीत सिंह, मीना अरोड़ा नायक शामिल थे, यदा-कदा ख़तो-किताबत चल रही थी. माँ भी अपनी जान हलकान करते हुए, भाई-भाभी के घर-परिवार की ख़िदमत करते थकान में चूर होकर मुझे ख़त लिखने बैठ जातीं. हम दोनों की कोई साझी लिखित ज़बान नहीं थी. वे उर्दू में लिख सकती थीं, लेकिन बड़ा जतन कर सिर्फ़ मुझे लिख पाने की गर्ज़ से देवनागरी सीखने का प्रयास कर रही थीं.
कभी कोई अक्षर याद न आने पर वे गुरमुखी का कोई अक्षर लिख जातीं तो कभी अंग्रेज़ी का. माँ के ख़त ही मुझे सिखाते कि लिखने में जिस ज़बान में सबसे अधिक कठिनाई हो, जिसकी शब्दावली में आपका हाथ तंग हो, उसमें आप अपने जज़्बात की अभिव्यक्ति पूरे जोबन पर कर सकते हैं. मेरी छात्राओं द्वारा मुझे अंग्रेज़ी में लिखे ख़त और हमारे कार्यक्रम में शिरकत कर रहे बच्चे जो खड़ी बोली को नहीं समझते थे इतने नावीन्य से लिख पाते थे कि उसे साहित्य की तरह ही ग्रहण किया जा सकता था. उनकी लययुक्त बोली को सुन मैं स्वयं को अपर्याप्त महसूस करती. ज्यों-ज्यों मैं बुन्देली को सीखने का प्रयास करती जाती, मुझे उस परिवेश की हर चीज़ में नयी नामरूपवत्ता महसूस होने लगती. जब उनकी कहानी की किताबों में “जंगल में आश्चर्यजनक शोर हो रहा था” जैसे वाक्यों पर हम बुन्देली अनुवाद चिपकाते तो मुझे वही सुख मिलता जो माँ के ख़तों में : “डांग में अचरज-भरो ऐरो हो रओ थो”.
साहिबे-ज़बान कृष्ण बलदेव वैद के ख़त मेरे पास उन सालों में न होते, अगर उन्हें बीच-बीच में बाँचती न रहती, तो मेरी मुफ़्लिसी, बेशक, नाक़ाबिले-बयान होती. हस्तलिखित ख़त! रौद्र, हास्य, करुण, शृंगार … वह रस-बाहुल्य जिसका संश्लिष्ट रूप केवल उनके अंग्रेज़ी में लिखे ख़तों से ही ग्रहण किया जा सकता है.
अंग्रेज़ी में कृष्ण बलदेव वैद के लिखे उन ख़तों में ऐसा बहुत कुछ था जो सिर्फ़ “तूजी शेरजी” को लताड़ने, दुलारने और लेखन के प्रति उसकी सुषुप्तावस्था को भंग करने के लिए था, लेकिन वह एक ऐसे नौसिखिये हमज़ाद (अगर कोई हमज़ाद नौसिखिया हो सकता है तो) से भी मुख़ातिब था जो वैद की कृतियों में तो आख्याता द्वारा अथाह डामर में खींच लिया जाता है लेकिन ख़तों में वह लेखक को कुछ बहला ले जाता है, और स्वयं भी फुसला-बहला लिया जाता है. वह नौसिखिया हमज़ाद “तूजी शेरजी” का नाम धारण किये हुए तो है, लेकिन वह वैद का एक खिलंदड़ और सहनीय किरदार है जिसकी उन्हें सख़्त ज़रूरत थी और यक़ीनन आत्म-रक्षा में वह किरदार लेखक या फिर कृष्ण बलदेव वैद नामक किरदार पर अपने क़िस्म के हमले भी बोल सकता था और फ़ोन का चोंगा उठाकर उन्हें स्नेह-सरोकार से खरी-खोटी सुना भी सकता था. उन ख़तों में एक दोतरफ़े पाठ को खेला जा रहा था जिसका एक हिस्सा (तूजी शेरजी का लिखा) तो “लेखक” के हाथों फाड़ दिया गया होगा, भले ही वह उसे लेखन मान भोपाल की महफ़िलों में यदा-कदा तूजी शेरजी की कृतियों के रूप में पढ़कर सुनाता रहा हो. उस पाठ का दूसरा हिस्सा, यानि केबी/प्रेपी उर्फ़ कृष्ण बलदेव वैद के तूजी शेरजी उर्फ़ तेजी ग्रोवर को लिखे हुए ख़त हैं जो “इस” और “उस” संसार के बीच अटक गये हैं.
६.
उन दिनों सामाजिक-राजनैतिक सरगर्मियों को संप्रेषणीय रूप देने की गर्ज़ से देशभर में साइक्लोस्टाइल्ड पत्रिकाओं/अख़बारों का चलन था. हम लोग बच्चों के लिए माह में छह अंक निकाला करते. गुलगुला शीर्षक से जो साप्ताहिक पत्रिका निकलती, उसका विषय-वस्तु वही होता जो बच्चे बोलकर हमें लिखवाते. उन्हीं के मुख से कही कहानियाँ उन्हें पत्रिका में छपी मिलतीं. वही कहानियाँ पाठशाला की कच्ची दीवारों पर अख़बार की शक्ल में लगा दी जातीं. उनके हाथों में सुन्दर हस्तलिपि में गुलगुला का अंक होता, और उसमें छपी कहानियाँ दीवार पर बड़े अक्षरों में भी उन्हें पढ़ने को मिल जातीं. इस तरह बच्चे अपनी प्रारम्भिक पठन सामग्री तैयार करने में अपनी मदद खुद करते और अपने जीवन में घट रही घटनाओं के लिखित रूप से रूबरू होकर जो आह्लाद उनके चेहरों से हमें मिलता, वह संक्रामक होता. गुलगुला के अंक कई गाँवों से आयी सामग्री सहित जब पड़ोसी तहसीलों के हाट-बाज़ार में चवन्नी-चवन्नी के बिकते और बहुत से बच्चे चड्डी में चिल्लर खूंसे अपनी “शॉपिंग” करने आते तो शुरोजीत और मेरे बचपन के गम्भीर घावों पर मानो कोई मरहम लगा रहा होता.
बड़े बच्चे, जोकि कुछ हद तक लिख सकते थे, उनके लिए भी बाल चिरैया शीर्षक से साइक्लोस्टाइल्ड पत्रिका संस्था के पुस्तकालय में तैयार की जाती. गुलगुला के साथ-साथ इस पत्रिका को भी हम उन जगहों और संस्थाओं तक पहुँचाते जहाँ बच्चों की शिक्षा को लेकर काम चल रहा होता. देखते ही देखते हमारे साथी नरेन्द्र मौर्य की पहल से शुरू हुई इस पत्रिका से उत्प्रेरित होकर हम जैसा सोचने वाले शिक्षा-कर्मियों ने साइक्लोस्टाइल्ड पत्रिकाओं को एक आन्दोलन में ही रूपायित कर डाला. कालान्तर में इन पत्रिकाओं में छपी बहुमूल्य सामग्री को लेकर शोध-ग्रन्थ तैयार हुए और हमारी साथी संस्था एकलव्य ने छाँट-छाँट कर कुछ कहानियों को पुस्तकाकार भी छापा. उन “बच्चों” की प्रतिक्रियाओं का अनुमान लगाना आसान नहीं है जो अब चालीस से पचास की उम्र में अपने बचपन में लिखी किसी कहानी को पुस्तकाकार प्रकाशित देख रहे हैं.
साइक्लोस्टाइल्ड पत्रिकाओं का यह अद्भुत आन्दोलन हमारे इस प्रयास से पूर्ववर्ती उपक्रमों से भी ज़रूर उत्प्रेरित रहा होगा. संस्था के पुस्तकालय में विश्व-कविता के अनुवाद की एक पत्रिका आती थी ए-4 साइज़ की, जिसका नाम था हमकलम. वह जब आती सब काम छोड़कर मैं सबसे पहले उसी को पढ़ती (उसके अंकों को मैंने अभी तक एक पेटी में सहेजकर रखा हुआ है). ये अंक मुझे बहुत वर्ष बाद पत्रिका के तीन में से एक सम्पादक से ही प्राप्त हुए थे, जो उन्हें ठीक से संभालकर रख भी नहीं पा रहा था. सम्पादक-मण्डली में उसका का नाम देखकर मैं सोचा करती थी कोई पंजाब यूनिवर्सिटी का कोई पारसी छात्र है जो बहुत अच्छी हिन्दी जानता है, हिन्दी में खूब अच्छे अनुवाद कर लेता है, और कि वह ज़रूर साथियों के साथ मिलकर अपने पर खर्चे इस पत्रिका को निकालता होगा. हमकलम में संसाधनों का अभाव ठीक वैसे ही झलकता जैसे हमारी पत्रिकाओं में. त्रिलोचन जी तक भी वह पत्रिका पहुँचती जो इस सम्पादक-विशेष के प्रिय कवि थे….
रुस्तम का नाम उन दिनों मेरे लिए रहस्य में डूबा हुआ था. हिन्दी कवि लाल्टू (हमकलम के सम्पादक मण्डल में सत्यपाल सहगल के संग शरीक) ने ही शायद उसे हमारी संस्था का पता दिया होगा जहाँ वह तीन मित्रों द्वारा सम्पादित पत्रिका प्रेषित करता था. मज़ेदार बात यह थी कि जिस वर्ष रुस्तम ने पंजाब यूनिवर्सिटी में अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए दाख़िला लिया उसी वर्ष (रुस्तम से मिले बिना ही) मैंने अपनी नौकरी छोड़ अगले पाँच साल तक मध्य प्रदेश का रुख़ किया.
1990 में चंडीगढ़ लौटने पर शहर के कुछ कवियों के साथ रुस्तम से मेरी मुलाकात लाल्टू के घर में हुई. मेरी कुछ कविताओं के साथ जनसत्ता में मेरा एक साक्षात्कार छपा था, मेरी तस्वीर के साथ. बस रुस्तम ने उस सामग्री को देख, बल्कि इससे मुग्ध होकर, इस गोष्ठी का प्रस्ताव मित्रों को दिया. उस भव्य गोष्ठी में रुस्तम की कविताएँ मैं पहली बार सुन रही थी. उससे रूबरू होकर उसकी छवि को हक़ीक़ी छवि में रूपायित करने में मुझे कुछ समय ज़रूर लगा…. लेकिन उससे मिलकर जो पहला वाक्य मेरे मुँह से निकला वह यह था: “ओ…….तो तुम हो रुस्तम! वहाँ ग्राम पलिया पिपरिया में बैठे तुम मित्रों की हमकलम को पढ़ते हुए हम लोग सोचा करते थे, कैसा होगा रुस्तम”. उस पहले ही से मुग्ध बन्दे ने शरारत से मुस्कराते हुए पूछा, “कैसा लगा?”
7.
ऊपर जिस रूपक की ओर मैंने इशारा किया था, उसका सम्बन्ध संस्था में मेरी पहली होली से है. होली उन गाँवों में कैसे मनायी जाती है इसका मुझे ज़रा भी भान नहीं था. लिहाज़ा जब पलिया-पिपरिया से हमारे साथियों में से किसी एक के घर से एक बहुत बड़े भगोने में कैम्पस के रहवासियों के लिए पकौड़े लाये गये तो मैंने अलग-अलग तरह के ख़ूब सारे पकौड़े भकोस लिये. अगले पाँच दिन तक मैं भीषण रूप से बीमार रही. न केवल मेरा सिर घूमता रहा और मुझे लगता रहा कि मेरे मन में आ रहे हर विचार को हर कोई पढ़ पा रहा है, बल्कि मकान और पेड़ और ट्यूबवेल सब-के-सब आकार में एकदम छोटे नज़र आने लगे. अपने कमरे तक जाते हुए मुझे लगता मैं उसमें घुस ही नहीं पाऊँगी. गुड्डे-गुड़िया का संसार मेरे चहों ओर पसरा हुआ था, जी बेतरह मिचलाता था और सर किसी विराट झूले पर चढ़ा डूबता-उतराता चला जा रहा था. मैं ओंठों पर उंगली रखे हरेक से कहती फिरती, प्लीज़ यह बात किसी और को मत बतलाना. हर कोई मेरे मन की खुली किताब को मनचाहे ढंग से पढ़ रहा था, और मैं संकोचवश छिपने की ऐसी जगहें ढूँढ रही थी जिनमें मेरी पैठ हो सके, जो पाँव रखने से पहले ही सिकुड़ न जायेँ.
आठ महीने में केबी के लगभग समस्त लेखन को दोबारा पढ़कर, इस अज़ीम लेखक के लायक भाषा को अर्जित कर लेने पर ही मैंने अंग्रेज़ी में लिखे उनके ख़तों का अनुवाद सम्पन्न किया. उसे पुस्तक के तर्क पर खरा उतार चुकने के बाद जब तक मेरी खोपड़ी में कॉपीराइट्स का ख़याल कौंधा, बहुत देर हो चुकी थी. मुझे अगले कुछ माह तक वैसा ही यथार्थ-बोध और रुग्णता महसूस होती रही जैसी उन पकौड़ों को भकोसने के बाद.
कई माह तक वैसा ही आलम छाया रहा जैसे किसी भी क़िस्म के यथार्थ तक मेरी पहुँच मुमकिन ही न थी. मेरे चहों ओर सब कुछ इतना तंग और छोटा था कि मैं अपने भारी सिर को आराम देने जहाँ भी टेक लेती, वह टेक भरभराकर गिर जाती. कई माह तक मुझे भूख नहीं लगी और तब भी मैं कुछ ऐसे लोगों तक अपनी बात पहुँचाने का प्रयास करती रही जो वैद सा’ब के परिजनों को आश्वस्त कर सकें कि इस किताब का आना हिन्दी के लिए बेहद ज़रूरी है, कि यह वैद सा’ब के पाठकों को उनके लेखन के प्रति एक नवीन दृष्टि प्रदान करेगी, कि इन ख़तों को सहजता से वैद सा’ब का लेखन मान कर ग्रहण किया जाना चाहिए.
8.
कृष्ण बलदेव वैद के इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कहने के कुछ ही समय बाद अनिरुद्ध उमट की वैदानुराग प्रकाशित हुई. इस पुस्तक को पढ़ आप उसके बारे में अपनी राय ख़ुद बनायेंगे या बना चुके होंगे लेकिन अनुराग और अक़ीदत से उपजी इस पुस्तक के वुजूद में आने के बाद की बात आगे कहीं दर्ज है. अनिरुद्ध की सृजन यात्रा कृष्ण बलदेव वैद के सन्दर्भ में मेरी अपनी यात्रा से एकदम भिन्न है लेकिन पीढ़ियों के मध्य गहन और सारगर्भित संवाद की दृष्टि से उसकी सहोदरा भी है. उसी यात्रा का एक पड़ाव था कि अंग्रेज़ी में मुझे लिखे केबी (वे चाहते थे हम लोग उन्हें इसी नाम से पुकारें) के ख़तों का अनुवाद मैं हिन्दी पाठकों के लिए करती. लेकिन मैं ख़ुद कभी पहल न करती यदि अनिरुद्ध की मनुहार ने मुझे आखिरकार इस काम के लिए राज़ी न कर लिया होता.
मुझे नहीं पता कृष्ण बलदेव वैद सरीखे हठयोगी को पढ़ने वाले कितने पाठक हिन्दी ने पैदा किये हैं, और कितने ऐसे होंगे जो उनकी हर कृति के शाया होने के बाद रातों-रात उग आते हैं. लेकिन अपनी बची-खुची जान की ख़ातिर केबी के लिए जो कुछ भी मुझे करना था, उसे अञ्जाम न देने पाने की पीड़ा को बयान करने का अदना सा प्रयास मैं फिर भी यहाँ कर ही रही हूँ कमोबेश. दर्द ला दवा की कराहट मुझे कराहने को नहीं मिली, लिहाज़ा जो कराह सकती हूँ, उसे कराहने से न कोई मुझे रोक सकता है, न मैं स्वयं ख़ुद को.
कृष्ण बलदेव वैद द्वारा मुझे अंग्रेज़ी में लिखे ख़तों के हिन्दी अनुवाद की पाण्डुलिपि बन जाने के बाद मुझे सूझा कि मैंने कॉपीराइट के बारे में तो एक बार भी नहीं सोचा, मानो इस वैदीय नक्षत्र पर मैं निपट अकेले किसी बयाबान में असह्य (और असहनीय) छोड़ दी गयी होऊँ. इस नक्षत्र पर मेरी आँखें हर घड़ी तिरमिरायी हुई रहने लगीं थीं, गाढ़े अन्धकार में उतनी ही असह्य रोशनी का एहसास! मुझे ज़रा भी गुमान नहीं था कि अनुमति लेना मुझे विदीर्ण कर जाने वाली प्रक्रिया होगी. मैं सभी को अपने सहोदर-सहोदराएँ मानने की मासूमियत से ग्रस्त थी… हम डरे हुए लोग फोकट के क़यास लगाते हुए कब अपने टांगें कब्र में डुलाने लगते हैं, हमें ख़ुद ही इल्हाम नहीं हो पाता!
लेकिन जो सत्य कटु-तिक्त है वह यह है कि हिन्दी में यह भ्रांति तब तक बनी हुई थी ख़तों का कॉपीराइट उसी के पास होता है जिसे वे ख़त लिखे गये हैं. यह तो ऐसा ही है मानो कोई लेखक अपनी कोई पाण्डुलिपि आपके पास छोड़ गया हो और आप सोचें कि आप उसे अपनी शर्तों पर और अपने तईं छपवा सकते हैं!
मैं हिन्दी समाज को चेता दूँ कि किसी के भी लिखे हुए ख़तों के कॉपीराइट प्राप्तकर्ता के पास नहीं होते. उन ख़तों को अपने पास रखने का अधिकार उसे ज़रूर है और वह उन ख़तों को किसी से साझा भी कर सकता है, लेकिन उन्हें उद्धृत करने या छपवाने को लेकर वही नियम लागू होते हैं जो किसी के लेखन/कृति को लेकर होते हैं. प्राप्तकर्ता चाहे तो वह उन ख़तों को किसी को स्वेच्छा से दे भी सकता है, वसीयत भी कर सकता है, लेकिन उससे किसी द्वारा जबरन उन ख़तों को लिया नहीं जा सकता. यहीं मैं इस बात को दर्ज भी कर दूँ कि मेरी और रुस्तम की वसीयत के अनुसार, बतौर बौद्धिक-संपत्ति, कृष्ण बलदेव वैद द्वारा लिखे ये बेशकीमती ख़त युवा लेखक और वैद के अनूठे पाठक सौरभ पाण्डेय हमारे अभिलेखागार से प्राप्त कर सकेंगे. इसी पाठ को प्रमाण मान वर्षों से जगह-जगह यात्रा कर चुकीं ये चिट्ठियाँ सौरभ और उनकी मित्र प्राची के पास पहुँच जायेंगी.
युवा पीढ़ी में कृष्ण बलदेव वैद के ऐसे पाठक हैं जो उन्हें अपने से युवतर पीढ़ियों तक पहुँचाने की ज़ेहमत बख़ुशी उठायेंगे. इस बीच क्या पता, अगर जीवन रहा तो, इन्हें छपवाने की अनुमति वाजिब शर्तों की बिना पर मुझे मिल ही जाये! नास्तिक की प्रार्थनाएँ ज़्यादा सुगमता से सुनी जाती हैं, ऐसा कुछ गुमान मुझे है.
9.
जब आठ महीने का दिनरात में अंजाम दिया गया अनुवाद का यह नाज़ुक बुलबुला हक़ीक़त से जा टकराया तो मुझपर जैसा वज्रपात हुआ उसे यहाँ दर्ज नहीं करूँगी, लेकिन बहुत लम्बा समय अफ़्सुर्दगी ने मुझे अपनी गिरिफ़्त में लिये रखा. इसका कुछ ज़िक्र मैं ऊपर कर चुकी हूँ लेकिन जान हलकान करने की हद कभी-कभी पीड़ा अपना बह निकलने का, ख़ुद को तरह-तरह से ज़ाहिर करने का रास्ता तलाशती है. इस काम को अञ्जाम देते हुए कुछ समय मैंने अपनी माँ के साथ गुज़ारा. उन पूरे आठ महीनों के दौरान, माँ के सिरहाने बैठे-बैठे भी मैं बीच-बीच में ग़ालिब का ये शेर गुनगुनाती रही:
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
मेरी माँ पर जो बीत रही थी वह अपनी ही तरह की एक दारुण कहानी है जो मैं ख़ूब समय लेकर लिखती रहूँगी, अगर इस निरलंकार लेखन से उपजे अनवरत अवसाद से मेरी पहले ही से नाज़ुक हो चुकी मनस्थिति मुझे इस लेखन को सम्पन्न करने देगी तो. किसी भारतीय संयुक्त परिवार-विशेष की विभीषिका को दर्ज करना उतना ही कठिन है जैसे यातना शिविर में गुज़ारे हुए जीवन व मृत्यु के बारे में कोई लिखने का प्रयास कर रहा हो. उन कठिन दिनों को माँ के सन्दर्भ में रेखांकित करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि तब वैद-धुन में डूबी बाहोश और बेहोश के बीच सर्पाकार उठती लहरों को झेलती मैं वैद के समन्दर में अजीबतरीन वनस्पतियों और जलचरों से घिर चुकी थी. लिहाज़ा माँ की दिशा में मेरी एकाध यात्रा कुछ दिनों के लिए टल गयी होगी, और अब चूँकि वे ख़त प्रकाशित भी नहीं होंगे, मुझे अपनी दिवंगत माँ से चुराया वह समय बेहद चुभ रहा है.
प्रकाशनार्थ अनुमति लेने की गर्ज़ से एक उम्र और बीत गयी और मेरा लम्बा ई-व्यवहार चलता रहा. उत्तर ज्यों-ज्यों आते रहे मैंने कई मित्रों से मदद माँगी और रोने के लिए कन्धे भी. इस उपक्रम में सबसे उल्लेखनीय भूमिका चित्रकार मनीष पुष्कले की रही, कन्धा भी केवल उसी का मिला. अनिरुद्ध ने मुझे लिखा कि वैद पर काम करने का पुरज़ोर आग्रह कर मुझसे पूरा काज सम्पन्न करवाने के बाद उसे लगा मानो उसने एक मेमने को वध-स्थल की ओर धकेल दिया है.
मित्र मनीष पुष्कले मुझे यक़ीन दिलाने का प्रयास भी किया कि कालान्तर में वह वैद परिवार को उनके ख़तों और उनके गिर्द मेरे अपने लेखन को छपवाने की अनुमति ले पायेगा. यानी हिन्दी के समृद्ध हाशिये के मेरे सबसे प्रिय लेखक के प्रभा-मण्डल के एक और हाशिये में मुझे कुछ अपनी गूदा-गादी भी करना थी. लेकिन इसके पहले कि मनीष मुझे आश्वस्त कर पाता, वैद की सबसे मशहूर बेटी उर्वशी वैद अपने पिता के दो वर्ष बाद इस दुनिया से चली गयीं.
मुझे कोई युद्ध नहीं लड़ना था; मैं अपनी ही एक अज़ीज़ा को अपने सामने असमय जाते हुए देख और भी व्यथित हो उठी. उर्वशी का सोग मैंने भी कम नहीं मनाया और ख़ुदा का शुक्र अदा किया कि वैद दंपति को अपनी बेटी को कैंसर की पीड़ा से मरते हुए नहीं देखना पड़ा. वैद के विपुल डायरी लेखन से मुझे मालूम पड़ ही चुका था कि चम्पा जी उर्वशी के समलैंगिक पहलू से कुछ समय तक असहज तो थीं ही. उर्वशी समलैंगिक अधिकारों को लेकर इतनी शिद्दत से आजीवन संघर्षरत रहीं थीं कि अमरीका की सबसे यशस्वी हस्तियों में उनका शुमार है.
हालाँकि अनिरुद्ध ने भी मेरी ख़ातिर अनुमति-संवाद करने का प्रयास किया तो उसे यह उत्तर मिला कि वैद पर उसकी पुस्तक सराहनीय है, लेकिन वैद सा’ब के ख़तों को उस किताब में लेने की अनुमति उसे पहले ही से लेना चाहिए थी. वह एक मीठी सी फटकार थी, लेकिन मेरे सन्दर्भ में जो शर्तें लगायी गयीं, उन्हें मानना किसी भी वैदानुरागी के लिए सम्भव न होता. मुझे एहसास था कि केबी के लेखन के ऐसे विलक्षण नमूने मुझे लिक्खे उनके ख़तों में दर्ज हैं, जो उनके बाक़ी लेखन का अपरूप तो हैं लेकिन मानो पिंजरे में केबी की चीते सी वह चाल जो रिल्के की एक कविता में है, वह उनके इसी लेखन में बख़ूबी झलक पायी है. ख़तों के प्रकाशन सम्बन्धी लगायी शर्तें मुझे केबी के सन्दर्भ में स्वीकार्य नहीं लगीं, हालाँकि कॉपीराइट के लिए जिरह करना या उनके किसी क़रीबी को नाराज़ करना केबी को नाराज़ करने जैसा होता. यहीं यह बात दर्ज करना भी चाहूँगी कि केबी उन ख़तों को तुच्छ मान मुझे जलाने के लिए भी कहा करते थे:
“मैं यह भी चाहता हूँ कि तुम मेरे ख़तों को जला डालना और ऊपरी बरकोटा में उनकी राख़ को बिखरा देना –- यूँ भी वे तुच्छ बातों से भरे हुए थे. अगर तुम इस रस्म की अदायगी नहीं करोगी तो मैं तुमसे नाराज़ हो जाऊँगा (मई 19, 1984, दिल्ली से डलहौज़ी प्रेषित ख़त से)”.
लेकिन मैंने उन्हें गम्भीरता से इसलिए नहीं लिया क्योंकि वे ख़त मेरे निकट उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ थीं. और रिल्के की तर्ज़ पर युवा कवि “तूजी शेरजी”/ “बघियाड़ जी” को लिखा ग्यारह पन्ने का ख़त तो कई युवा कवियों को उनके इस दुनिया में रहते मैं पढ़वा भी चुकी थी. वैसा संयमित दुलार, फटकार और कटु आलोचना किस युवा कवि को दरकार नहीं होगी? इस ख़त का हिन्दी अनुवाद ब्रजरत्न जोशी ने मधुमती के जुलाई 2021 के अंक में छापा था तो एक तरह से वहाँ अवलोकनार्थ महफ़ूज़ रखा हुआ है, और प्रभात रञ्जन के ब्लॉग जानकी पुल पर भी इस ख़त को देखा जा सकता है. केबी का एक ख़त मेरे हिन्दी अनुवाद में अरुण देव द्वारा सम्पादित समालोचन पर भी है. (बाद में मैंने अरुण देव से पूछा तो उन्होंने याद दिलाया कि मैंने स्वयं ही उन्हें इसे समालोचन से हटा लेने को कहा था). कई मित्रों ने इन दोनों ख़तों के छपते ही इनके प्रिंट लेकर सहेज भी लिये थे. ये दोनों ख़त सार्वजनिक हो चुके हैं और कोई भी इन्हें पढ़ सकता है; इन्हें पढ़ना उसे वैद के लेखन एक अनूठे आयाम से वाक़िफ़ करवाएगा, ऐसा यकीन है मुझे. मनीषा कुलश्रेष्ठ ने उनके जीवन काल में ही उनसे पूछा था कि क्या वे केबी के उन्हें लिखे ख़त छपवा सकती हैं. मैंने मनीषा से ही सुना था कि उन्होंने अपने मरणोपरान्त उन्हें शाया करने की इजाज़त मनीषा को दी थी. लेकिन अगर मनीषा के पास लिखित अनुमति नहीं है तो पनघट की डगर…
केबी के लिखे अंग्रेज़ी ख़तों के हिन्दी अनुवाद में, कृष्ण बलदेव वैद की (कु)ख्यात सियाही और अन्धकार कुछ ख़तों में उछाह और उमंग में; ऊब, झल्लाहट और बेकली कुछ ख़तों में सौहार्द और कोमलता में रूपायित होती प्रतीत होती है, हालाँकि मुझे गरियाया भी कम नहीं केबी ने उस लेखन में. लेकिन वह गरियाया हुआ भी मेरे सर-माथे पर!
10.
भोपाल गैस त्रासदी के बाद के वर्षों में जब केबी निराला सृजन पीठ की अध्यक्षता कर रहे थे तो उन दिनों पीठ के सुन्दर, सरसब्ज़ मकान की जर्जर और फटेहाल दशा की बदौलत चम्पाजी और केबी पर जो प्यारी सी आफ़त आन पड़ी थी उसे वे बड़ी हिम्मत और विनोदप्रियता से झेल रहे थे और भोपाल में ललित कलाओं और देशी-विदेशी साहित्य के स्वर्णिम काल में शिरकत भी कर रहे थे, उसका रसास्वादन भी. (‘रस-रञ्जन’ जैसा सम्मोहक पद भी शायद जगदीश स्वामीनाथन, अशोक वाजपेयी, कृष्ण बलदेव वैद जैसी हस्तियों की मिलीभगत से उन्हीं दिनों ईजाद हुआ होगा!)
पीठ के माहौल, भोपाल की सांस्कृतिक-कलात्मक समृद्धि और कलाकारों-लेखकों के उस अद्भुत जमावड़े ने पीठ के मकान की जीर्णता को वैद दंपति के लिए भी पूरी तरह से हर लिया था. प्रोफ़ेसर्ज़ कॉलोनी में रवीन्द्र भवन के ठीक सामने की वह पीली और हरी “कोठी” अशोक अग्रवाल सहित और भी हिन्दी लेखकों के संस्मरणों का विषय बन चुकी थी. और केबी को अपने आवास के दौरान पूरा समय भोपाल के गैस हादसे की सुध रही होगी, ऐसा क़यास पंजाब की भीषण हिंसा को लेकर उनकी अनवरत उद्विग्नता, दहशत और अफ़्सुर्दगी की लम्बे समय गवाह रहकर मैं लगा सकती हूँ. एम्स दिल्ली से सात मई 1984 के दिन लिखे एक खत को यहाँ अपने हिन्दी अनुवाद में उद्धृत करने से मुझे उम्मीद है मैं किसी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुँचा रही:
“मैं बार-बार आग बबूला क्यों होता हूँ? तुम वाक़ई चाहती हो मैं तुम्हें बताऊँ क्यों? क्योंकि मैं फिर अवरुद्ध हो चुका हूँ; मेरा बहाव रुक गया है; मेरे रस उड़ चुके हैं; मेरा सुकून भंग हो चुका है; मेरा ज़ेहन एक बिखरे बिस्तर की तरह दिखने लगा है; मेरा तसव्वुर अब मुझे उन जगहों पर नहीं ले जाता जो मुझे खौफ़ और ख़ूबसूरती से हैरान कर दिया करती थीं; मेरा पंजाब पीड़ा में है; मेरी कुकी [उनकी पालतू डॉग] उदास है; मैंने “मैं” और “मेरा” पर बहुत ज़ोर देना शुरू कर दिया है.”
अगर केबी उन दिनों चंडीगढ़ में अचानक नमूदार न हुए होते, अगर उनकी उपस्थिति ने हमें यह न सिखाया होता कि लेखक साधक कैसे हो सकता है, कि उसके पास सिवा इसके कोई चारा ही नहीं है, तो शायद हम तीन दोस्तों में एक का जीवन बिलकुल अलग ही होता. मधुमती में मुझ जैसे “युवा कवि” को लिखा ख़त इसलिए हरेक को किसी विध पढ़ लेना चाहिए क्योंकि वह अनुमति-संवाद से पहले ही छ्प चुका था.
11.
केबी के भोपाल आवास के दौरान सबसे अहम बात मेरे निकट यह थी कि उनका घरेलू कामगार सियाराम मिश्र हमारे पास रहते हुए भी कहानियाँ लिखने लगा था. उसकी पहली कहानी “आसमान का सूरज ज़मीं पर” भी सोमदत्त के भव्य सम्पादन युग में साक्षात्कार में लगभग उसी समय प्रकाशित हुई जब उसी पत्रिका में मेरी पहली कहानी “सलेटी फूल वगैरह” छपी थी. वह ऐसा समय था जब सोमदत्त के क़द के कवि-सम्पादक युवा लेखकों को पलट कर ख़त भी लिखते थे. उनका ख़त तो मेरे पास सुरक्षित नहीं बच पाया लेकिन उनके कुछ शब्द यूँ थे:
“प्रिय तेजी, … आपकी पहली कहानी के इतने सच्चे और सुच्चे रचाव के लिए आपको बधाई देता हूँ”.
उन्हें मालूम था मेरा कहानी लेखन 1985 में पचमढ़ी में कृष्ण बलदेव वैद द्वारा आयोजित ऐतिहासिक (और कालान्तर में त्रासद और विस्फोटक) प्रयोगधर्मी शिविर से पहले शुरू हो चुका था. और जिस वक़्त वह शुरू हुआ मेरा पहला साथी अर्नेस्ट और मैं केबी और चम्पा जी की चंडीगढ़ वाली कोठी के रख-रखाव हेतु अपने स्वयं के “रतिलम्पट क्वार्टर” (केबी के शब्दों का अनुवाद) को उसके अपने हाल पे छोड़कर उनके आलीशान आशियाने में आ बसे.
हम लोग अपनी मामूली हैसियत के चलते डरते-डरते उस घर को अपना घर समझने के निरीह प्रयास करते रहे और उनकी श्वान कुकी, उनके सुन्दर बगीचे और घर सम्बन्धी केबी और चम्पाजी के बीसियों “सुझावों” पर अमल करने के प्रयास भी. क्योंकि केबी के लिखे ख़त मुझे उस भली सी कटे घुँघराले बालों और बला की ख़ूबसूरत उस लड़की का नाम तो याद नहीं आ रहा जो कोठी की सफ़ाई करती थी लेकिन कभी-कभी वह झाड़ू-पोछा करते वक़्त दमकती दीवारों पर अपनी पतली-लम्बी उँगलियों के निशान छोड़ती जाती थी (अब याद आया, उस बला का नाम बाला था!). मेरी तो गोईं ही बन चुकी थी वह और मैं उसके सामने हँसते-हँसते सेल्लो-टेप की मदद से दीवार पर लगे उन धब्बों को उसी के सामने छुड़ाया करती थी. जहाँ तक मुझे याद है सियाराम, वह लड़की, अर्नेस्ट (मेरा पहला साथी) और मैं कभी-कभी डायनिंग टेबल पर एक साथ बैठकर ऐश करते और सोचते कि यदि केबी हमें ऐसा करते हुए देख लेंगे तो वे क्या हमारी मण्डली को जान से मार डालेंगे? या फिर उनके भीतर उसका बचपन का बीरू अभी बचा हुआ था?
मुझे लगता है उनका बीरू तब भी उनके भीतर छिपा बैठा था जब वे लाल टोयोटा ख़रीदते वक़्त अपने कुछ मित्रों को दिल्ली से ख़त लिख रहे थे. उस कार को वे लाल परी कहते थे और मुझे याद नहीं मुझे उसमें कभी बैठने को मिला हो. उसे उन्होंने शायद अमरीका से मंगवाया था और अगर मैं चाहूँ तो उनके ख़तों को अपने हिन्दी अनुवाद में खोल कर बैठ सकती हूँ और केबी और चम्पाजी के जीवन के कुछ पलों को नेहपूर्वक उद्दीप्त कर सकती हूँ, लेकिन मैं ऐसा नहीं करूँगी क्योंकि अनुमति की दृष्टि से केबी के परिजनों को नाराज़ करने से किसी का हित नहीं सधेगा. बस उन्हें कोई यह भर बता दे कि उनके वैद के लेखन के गिर्द वुजूद में आया एक और कुनबा भी है जिनकी आँख से हर्फ़-दर-हर्फ़ उनके हठयोग का लहू टपकता है.
केबी का लेखन उनके उस परिजनों के लिए कॉपीराइट नहीं संयमित कॉपीलेफ़्ट का मुआमला होना चाहिए, कम-से-कम उनके लिए जिनके जीवन और सृजन पर उन्होंने अमिट छाप ही नहीं छोड़ी बल्कि जिनकी तराश-ख़राश करने में उनकी बहुत सृजनात्मक ऊर्जा खर्च हुई है. उनके एक इशारे पर ही मैं आलस्य तज अपने लेखन-कर्म को गम्भीरता से लेने का प्रयास करने लगती थी. मैंने अपनी एक ईमेल में क़रीबी लोगों को यह बताना भी ज़रूरी समझा कि वैद सा’ब की कई पुस्तकें अब उपलब्ध तक नहीं हैं, और वैद के इस जुनूनी कुनबे में लोग एक दूसरे को उनकी किताबों की फ़ोटोकॉपियाँ उपलब्ध करवाने में लगे रहते हैं. मैं वैद के क़रीबी नामों को एकसाथ उच्चारकर अपने उस गुरुवन्त का स्मरण कर रही हूँ जिसके उस अद्भुत लेखन को हिन्दी समाज की धरोहर मान आप सब मेरे उच्चारित अज़ीज़ मेरे अनुवाद को बाँचकर उसे छपवाने की अनुमति भविष्य में कभी मुझे दीजिए.
12.
इस अनिवार्य विषयान्तर के बाद मैं सियाराम मिश्र पर लौटती हूँ. ज़ाहिर था कि ऐसी सोहबत छोडकर सियाराम भोपाल नहीं जाना चाहता था. लेकिन केबी भोपाल में बैठे सियाराम और मेरी छपी कहानियों से इस कदर मुतासिर हुए कि उन्होंने मुझे तो पचमढ़ी शिविर में शिरकत करने बुला लिया, लेकिन अर्नेस्ट और सियाराम को शायद इसलिए नहीं बुलाया क्योंकि घर और कुकी को देखना ज़रूरी था. अर्नेस्ट के सुदीर्घ आत्मकथात्मक गद्य से भी केबी बहुत मुग्ध थे और सियाराम की कहानी तो ख़ैर अनमोल थी ही. काश मेरे पास वह बची रह गयी होती, क्योंकि उन दिनों के बाद हम सभी लोगों की बेमिसाल मिलनसारी को टूट ही जाना था.
सियाराम मेरे छोटे भाई जैसा था और वैद के चंडीगढ़ आवास के दौरान हम दोनों को केबी की डांट-फटकार को सहना होता था. कभी-कभी हम लोग आपस में कनखियों से मुस्करा दिया करते …लेकिन नेह और अक़ीदत की कोई कमी नहीं थी. केबी और चम्पाजी दोनों हम सबसे ख़ूब लाड़ करते और हम लोग केबी के रौद्र रूप से भी कम प्रेम नहीं करते थे.
बाद के वर्षों में जब मैं स्वयं प्रेमचन्द सृजन पीठ की अध्यक्ष होकर उज्जैन पहुँची तो वैसी ही सरसब्ज़ और भव्य बदहाली से लैस पीठ के उस मकान के जीर्णोद्धार में मेरा वक़्त और पैसा दोनों जमकर बर्बाद होने लगे. उस मानदेय में, जो हमें मिलता था, महीने का निर्वाह भी नहीं हो पाता था, तिस पर सिरे से मरम्मत और साफ़-सफ़ाई के वे खर्चे अलग. उन शानदार नियुक्तियों में निराला और प्रेमचन्द के नामों की गरिमा तो पर्याप्त थी लेकिन विक्रम विश्वविद्यालय में स्थित, उज्जयिनी वाले मकान में पहले-पहल तो मैं उस दुर्गन्ध का स्रोत भी न जान पायी जो सामान भीतर रखते समय मेरे पूरे वुजूद को नेस्तनाबूद करने पर तुली मालूम पड़ती थी. मैंने कॉलेज से बिना पगार की छुट्टी लेकर एक तिहाई मानदेय पर बख़ुशी और अपनी नियुक्ति होने पर सुखद आश्चर्य और कृतज्ञ भाव से सराबोर होकर हामी भरी थी.
कुछ सप्ताह की तहक़ीक़ात के बाद जब मुझे उस असहनीय दुर्गन्ध का स्रोत मालूम पड़ा तो मुझे लगने लगा मुझे सामान बाँध कर भाग जाना चाहिए. लेकिन तब तक मुझे बगीचे और बरामदे में टहलते, कूदते-फाँदते और उपद्रव करते बीसियों मोर, लंगूर और पीछे रहते चपड़ासी जी के नौ बच्चों ने अपने मोहपाश में कसकर बाँध लिया था और उन्हीं की बदौलत मेरे काव्य-संग्रह अन्त की कुछ और कविताएँ की इब्तिदाई कविताएँ आना शुरू हो चुकी थीं. जैसे ही ये कविताएँ नीले आसमान तले मयूर-मुग्ध हुईं एक श्रृंखला में पिरोयी जाने लगीं मुझे समझ में आया कि शौच के निकास पाइप जाने कब के फट चुके थे और उसके पीछे के मैदान पूरा मचा पड़ा था. और सफ़ाई के उस असम्भव अभियान के दौरान तब फिर दस साल पहले मानो किसी मेले में बिछुड़ गया वैद दंपति मुझे ख़ूब याद आने लगा.
वे ख़त जिनमें वे बिना किसी कड़ुवाहट के निराला पीठ की कारसेवा में लगे भोपाल के ख़ुशतबियत बाशिन्दे बन गये जान पड़ते थे मेरे साथ उज्जैन में भी थे, और इस वक़्त भी मेरे पास डैने पसारे फड़फड़ा रहे हैं. लेकिन मुझे पूरा एहसास था कि केबी से बिछुड़कर, दक्षिणास्वरूप, जो मुझे उन्हें अर्घ्य की मानिन्द दूर-दूर से अर्पित करना था, उसके लायक मैं अभी तक नहीं हुई थी.
मुझे लगता है कि अगर महाकाल मन्दिर के उस ग़ैबी और दिव्य भूखण्ड में केबी के मुझे लिक्खे ख़त मेरे पास न होते तो केबी के निराला पीठ में आवास के दौरान उनके गिर्द बनी हुई वह मित्र-मण्डली का अभाव, जिसकी कोई जोड़ मेरे पास उज्जैन में हो ही नहीं सकती थी, मुझे मार ही डालता. महाकाल मन्दिर के दक्षिण द्वार से भस्म-आरती हेतु ताज़ा जल रही चिता से जो कलश गर्भगृह में लाया जाता था वह मुझ जैसे नास्तिक के लिए भी निरा मिक्नातीस था और उज्जैन से माण्डू की यात्राओं ने, जिनमें बारी-बारी से चपड़ासी जी के तीन-तीन बच्चे मेरे साथ जाया करते, तो और भी प्रगाढ़ता से मुझे उज्जयिनी में टिकाये रखा.
उज्जैन में मेरे आवास के दौरान कुछ और भी चमत्कार हुए. हिन्दी में, लेकिन, कितने लोग ऐसे होंगे जो उस कवि का नाम तक जानते होंगे जो मेरे स्टेनो के पद पर उस पीठ में नियुक्त था? एक समय के बाद मैंने ख़ुद उसकी स्टेनो होकर उसके सृजन-बाहुल्य का थोड़ा बहुत इस्लाह करना शुरू किया और रुस्तम की मदद से एक अदद पाण्डुलिपि तैयार हो पायी जो छप चुकी है. उसके अप्रकाशित काव्य से कम-से-कम दस संग्रह छप सकते होंगे. वह हाशिया जिसे हिन्दी के समृद्ध हाशिये के लोग भी नहीं जानते, निश्चित ही केबी को ख़ूब सुहाता. इस कवि के बारे में कुछ और कहने से पहले मैं कुछ युवा, प्रौढ़ या फिर बुजुर्ग हो चुके और हिन्दी में संगुप्त रहे आये कवियों का नाम भर दर्ज कर रही हूँ जिन्होंने अपनी कविताओं को पुस्तकाकार हिन्दी में न छपवाने का मानो तहैया ही कर रखा हो. युवा कवि शुभम अग्रवाल का संग्रह रुस्तम और मैंने उसी तरह मनुहार से छपवाया जैसे शैलेन्द्र का. लेकिन प्रौढ़ और उम्र-दराज़ नामों में से कुछ तो, अगर वे इतनी किनाराकशी न करते, तो हिन्दी के बड़े नाम भी हो सकते थे: जितेन्द्र रामप्रकाश, शैलेन्द्र दुबे और वीरेन्द्र दुबे. वीरेन्द्र बाल-साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज करवा चुके हैं, कविताएँ पत्रिकाओं में छपी भी हैं लेकिन पुस्तकाकार अभी तक नहीं (मेरे लिए तो वे बड़े नाम हैं ही क्योंकि उनकी अप्रकाशित कृतियों का ताप मेरे देहात्म में बसा हुआ है). इसी तरह अंग्रेज़ी के भारतीय कवि मीरनशाह जो अपने के अब्र-ए-तख्खुलस के पीछे पूरी तरह छिपे हुए हैं और केवल नॉर्वीजी भाषा में उनकी कुछ कविताएँ उस भूखण्ड के युवा कवियों की प्रेरणा का अप्रतिम स्रोत बनी हुई हैं.
और काश कि समय रहते मैं केबी को कम-से-कम शैलेन्द्र दुबे की कविताएँ पढ़वा पाती, जिनमें से कुछ भारतीय कविता के एक महत्वपूर्ण स्वीडी संकलन में छपी थीं. स्वीडी कवियों-पाठकों को वे कविताएँ इतनी प्रिय हैं कि वे आज तक मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं शैलेन्द्र के कुछ और अंग्रेज़ी अनुवाद उन्हें भेज सकती हूँ. जिस सहजता से शैलेन्द्र की कविताएँ स्वीडी भाषा में छपीं और जिस शिद्दत से उन्हें पढ़ा गया, वैसा हिन्दी में इसलिए भी नहीं हुआ कि शैलेन्द्र ने स्वयं को प्रकाशित करने का कोई उपक्रम नहीं किया.
जो संग्रह (हमने ख़ुशी के कुछ दिन तय किये ) रुस्तम और मैंने तैयार किया था उसके बाद का उसका विपुल लेखन जस-का-तस उसके पास कम्प्यूटर में पड़ा है. मामूली आजीविका के लिए उसे कालिदास अकादमी, उज्जैन, की नौकरी छोड़ सपरिवार विदेश जाना पड़ा लेकिन उसकी कविता का सम्मोहक विक्षेप हिन्दी में अन्यत्र कहीं नहीं है; न युवा पीढ़ी में शुभम अग्रवाल सरीखा अमूर्त का ऐसा फ़नकार. आप सब समझ ही रहे होंगे कि मेरी इस “अरबर” को आत्मसात करने केबी से बेहतर सुपात्र मुझे कहीं नहीं मिलेगा, भले ही वे इसे सुनने से पहले मुझे कक्ष से बाहर कर देते.
अपनी सहज अभिव्यक्ति के दिनों में शैलेन्द्र ऐसी पंक्तियाँ लिखता :
तुम्हें बहुत सी चीज़ें नहीं आतीं
फिर भी तुम करते हो
जैसे कि प्रेम
और लगातार खोते जाते हो
अपने “चढ़े” और “आये” हुए दिनों में शैलेन्द्र ने सुग्राह्यता शीर्षक से एक सुदीर्घ गद्य-पाठ लिखा जिसने स्वीडी पाठकों में तहलका मचा दिया. केवल कुछ पंक्तियाँ कृष्ण बलदेव वैद को अर्पित कर रही हूँ इस उम्मीद में कि वे अब भी पढ़-लिख रहे हैं और हिन्दी की “भीनी भीनी अरबर” से अब भी उन्हें ऊब होती है:
आज शाम नहीं होगी क्योंकि वह अदृश्य होना चाहती है. आज दिन पूरा खड़ा रहेगा ताकि वह रात में बदलने से बच जाये और ‘वे’ रात में देख सकें कि ‘मैं’ किस अदृश्य से ‘वह’ के अदृश्य में आता है.
तेजी ग्रोवर, जन्म 1955, पठानकोट, पंजाब. कवि, कथाकार, चित्रकार, अनुवादक. छह कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास. आधुनिक नॉर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से तेजी के बीस पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित हैं. प्राथमिक शिक्षा और बाल साहित्य के क्षेत्र में भी उनका महत्वपूर्ण हस्तक्षेप और योगदान रहा है. तेजी की कृतियाँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में अनूदित हैं; स्वीडी, नॉर्वीजी, अंग्रेजी और पोलिश में पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित. 2020 में उनकी सभी कहानियों और उपन्यास (नीला) का एक ही जिल्द में अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित हुआ है. भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार और रज़ा अवार्ड से सम्मानित तेजी 1995-97 के दौरान वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलो चयनित होने के साथ-साथ प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन, की अध्यक्ष भी रहीं. 2016-17 के दौरान नान्त, फ्रांस में स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ़ एडवांस्ड स्टडी में फ़ेलो रहीं. 2019 में उन्हें वाणी फ़ाउंडेशन का विशिष्ट अनुवादक सम्मान, और स्वीडन के शाही दम्पति द्वारा रॉयल आर्डर ऑफ़ पोलर स्टार (Knight/ Member First Class) की उपाधि प्रदान की गयी. |
तेजी ग्रोवर की इन पीड़ाजनक स्मृतियों के लेखन के साहस को नमन। जितना दर्द इन पंक्तियों में है उससे अधिक ही पीड़ा उस संस्थान के बिखरने पर उन्होंने और अन्यों ने झेला जिनमें अनेक को मैं भी जानती हूं। क्यों कृष्ण बलदेव वैद के खत छापने की अनुमति उन्हें मिल ही नहीं पाई यह तो स्पष्ट नहीं है फिर भी केबी से उनकी निकटता, उन उथल पुथल भरे दिनों में सकारात्मक परिवर्तन की आकांक्षा और आशा के खट्टे मीठे तीते अनुभवों में पगा यह लेख उस युग को जीवंत कर देता है जो लंबा नहीं चल सका। तेजी को तो मैं हाल ही में मिली। एक टीस सी उठती है कि साहित्य और कला के भोपाल के वे सक्रिय दिन मुझसे अछूते रह गए। केबी! यह केवल एक व्यक्ति के, रचनाकार के नाम के अंग्रेजी प्रथमाक्षर नहीं थे, एक संगठन का नाम भी रहा, जिसे कर्मठ कार्यकर्ताओं ने जी जान से जुट कर खड़ा किया और जिसका क्षरण देखने को विवश हुए।
तेजी ग्रोवर के अंतस से निकली यह एक दीर्घ आह है। कौनसी सांत्वना उनके किस काम की है? शायद और लिखने पर यह पीड़ा कम हो। या उन्हीं पकोड़ों की थाल उन्हें फिर से मिले जिन्हें भकोस कर वे फिर से विराट हो जाएं, हर दरख्त छोटा हो जाए।
सुंदर तो वे लिखती ही हैं, मर्मस्पर्शी भी पर यह लेख कील की तरह चुभता है। चुभन दर्द देती है। ऐसे दर्द संक्रामक हो जाता है।
लिखती रहो, तेजी। संक्रमण का क्या, हो तो हो।
तुम्हारे जैसा सघन अनुभूतियों को सहेजने का हुनर मुझे नहीं आता। इन दिनों न स्मृति साथ दे रही है और न ही स्वास्थ्य। फिर भी किसी शिशु के पहली बार चलने की तरह अपना आत्मवृत्त लिखा है अंजीर का पेड़ और बूढ़ा’। स्वाभाविक है, इसमें तुम्हारे बारे में भी कुछ आधा अधूरा लिखा है।
सारा दिन स्मृतियों के इस सरोवर को धीरे धीरे पढ़ती रही. ख़त्म होते होते साँझ हो आई और मन एक अजीब सी longing से भर गया. मुझे आजतक longing के लिए एकदम उपयुक्त हिंदी शब्द नहीं मिला – एक ऐसा शब्द जो इसकी मूल ध्वनि को इसकी विस्तृत अमूर्तता में समेट सके. खैर. Teji Grover का लिखा खत्म होते होते मुझे उस विरक्ति के खामोश क्षण ने घेर लिया जिसमें हम एक साथ कई कई ग्रहों पर अपने कई कई जीवनों पर लगे ताले तोड़ आते हैं. एक अद्भुत स्मृद्ध जीवन का आख्यान जिसमें जितनी नागरिक चेतना और सामाजिक जिजीविषा है, उतनी ही चेतना की सतर्कता भी. शब्द और चेतना से नवाज़े गये इतने समृद्ध जीवन का भार जितना सुंदर हो सकता है , उतना ही असहनीय भी. आपको अपने जीवन की सुंदरता और आंतरिक समृद्धि को सहने की शक्ति मिलती रहे, प्रिय कवि . ♥️🙏
Teji Grover
सुबह सबसे पहले पढ़ने वालों में मैं था जो अब शाम को किसी तरह खुद को इतना पा रहा है कि कुछ शब्द कह सके। अरसे अरसे बाद तुम्हारा सघन गद्य पढ़ा वह भी तुम्हारी उस पुरानी परिचित जमीन का सा। और मन बेहद तृप्त भी हुआ व सुकून भी कि फेसबुक की इस सतही तात्कालिकता प्रिय कलुषित दुनिया से परे तुम अंततः जा पाई इसकी सबसे ज्यादा खुशी मुझे है। उसका इतना सुंदर प्रतिफल यह तुम्हारा स्मरणीय गद्य है। भाषा व भाव का वही आलाप। जेसे कोई बुजुर्ग साधक गायक आंखे मूंदे अपने सघन विलंबन में गा रहा हो मथ रहा हो।
स्मृतियों के अपने पल, अपनी नियत घड़ियां व स्थल होते हैं जब
वे खुद बोलने लगती हैं अपने को सुनने न की औरों को सुनाने जताने। तुम्हारे उस समय के जीवन का इतना जीवंत गद्य इसीलिए अपना रूप ले पाया है। वैसे इस पर प्रिंट ले कर फिर कागज पर लिखने की मनःस्थिति है वह अधिक प्रकृति के अधिक नजदीक है। यह की बोर्ड और सोशल मीडिया की सीमित क्षमता के परे का आत्मसृजन है। बल्कि लगता है सिर्फ पढ़े जाने का सृजन है और कोई प्रतिक्रिया की तात्कालिकता से परे जो अपना रूप खोलता ढकता पाठक को साथ लेता है। अतीत को तुमने अतीत रहते मात्र अतीत तक नहीं रहने दिया है
बल्कि उसे वर्तमान व भविष्य लायक अनुकूलन भी दे दिया है। यह तुम्हारे वयस्क बुजुर्ग लेखन का प्रतिफल है। एक साथ दो दुनियाओं के स्मरण को जिस तरह तुमने एकल व युगल हो जाना संभव किया है वह तुम्हारी कला में ही संभव था। इतनी गाढ़ी तरलता जीवन के रसायन की होती है कि किसी एक सूक्ष्म रेशे को अलगा पाना बेहद मुश्किल होता है उसके लिए इस गद्य सरीखे जतन का ही होना वांछित होता है। वैद साहब के पत्रों वाले समय व घटनाक्रम के उन दिनों को याद करते आज भी ताप व सनसन महसूस होता है जिसमें कुछ मीठी तरलता थी तो कुछ अजीब सी अकथनीय टीस भी। उन दिनों के उन पलों को याद करना अभी भी हरे घाव को छेड़ने सरीखा लगता है। मुझे उस हिस्से को पढ़ते गले व कान में अजीब सी अनुभूति हुई जो घुटन भी देती है और असहनीय सन्नाटा भी। वे तुम्हारे उन पत्रों के मेल मेरे मेल में अब भी होंगे जैसे मै समझता हूं अक्सर की वैद साहब अब भी बसंत कुंज में होंगे, होते हैं। मगर न मैं बसंत कुंज जाता हूं न मैं वे मेल फिर कभी देखने की सोच भी पाता हूं।
वे दिन जब हर दिन हर पल लगता था जैसे डाकिया हर रोज मेरे दरवाजे तुम्हारी डाक लाता था बल्कि कभी तो लगता जैसे वह एक डाक दे वह साइकिल मोड़ गली के मोड़ तक जाते वापस लौटता और फिर दस्तक, आवाज़ लगाता मुझे फिर एक और डाक तुम्हारी दे जाता, तो मन करता शायद वह फिर कुछ दूर जा फिर लौटेगा……उन पत्रों का वह जीवन तुम्हारे बाद मेरे संग रहने का यह कोई अपना रचाव था।जिन्हें उसबीते समय के ताप में मुझे अरसे बाद तुम्हारे ही निमित पढ़ना था। वे इस कदर ताजे थे कि हाथ लगाते ही सांस लेने लगते थे। उनकी नब्ज तब तक भी डूबी नहीं थी। (आज भी नहीं)। उन पत्रों के बड़े गुब्बारे में बैठ हम जमीन से ऊपर उठने लगे थे। बहुत ऊपर कि जमीन धुंधलाने लगे।
फिर उसमें कोई छेद हो गया हम जमीन से नीचे पाताल तक पहुंच गिरे।
रचना को कितने मेल किए मैने कितनी तरह से कितनी कितनी बार। आखिर में हार एक बेहद लंबा पत्र किसी वकालती की तरह
बिंदुवार बहस करते जमानत की गुहार लगाई… मगरशायद वैद साहब या चंपा जी अपनी वसीयत में उन्हें कह गए थे कि ऐसा कुछ कभी भी सर न उठाए। मैने व तुमने जिस ठंडे मुर्दानी संयम से उस आग्रह को स्वीकार लिया जो रचना चाहती थी। व पत्रों की
वह किताब जिसका आवरण तक बन गया था फिर अपने अंधेरे में पत्रों की सूरत तुम्हारे भाव में।
आज तुमने ये सब याद दिला मंद ठंडी पड़ी राख हिला दी और उसके नीचे से उन दिनों के अंग ठंडे अंग दिखने लगे।
फिर वह मैं हो गया।वहीं।
,
बड़ा ही सार्थक संस्मरण। धन्यवाद
तेजी जी का यह संस्मरण अपने प्रवाह में बहा ले जाता है। पिपरिया के उस शिक्षा- प्रयोग का साधना अग्रवाल ने दस्तावेजीकरण किया है जो ग्रंशशिल्पी से पुस्तक रूप में छपा है। लेकिन ऐसे सूक्ष्म विवरण और जीवंत प्रसंग तो ऐसे रचनात्मक लेखन में ही संभव थे। संस्मरण की जिगजैग गति हमें एक संवेदनशील और बनते हुए रचनाकार की मनस: यात्रा से भी रूबरू कराती है।
उनके द्वारा अनूदित पत्रों का संचयन प्रकाशित होना ही चाहिए।
तेजीजी का व्यक्तित्व बहुत ही उदारता से भरी दिव्यता का है जिसे ग्रहण कर लेने पर आपकी भीतरी सारी मनो-चेतनायें विस्फोटक प्रकार से प्रकट में बाहर दिखने लगती हैं, उनका औदार्य ही रहा मुझ जैसे बहुत ही साधारण जीवनयापन वाली राह पर चलते जाने वाले जीव के रूप में, प्रणाम करता हूँ उनके सानिध्य को❤️,