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Home » कविता वीरेन : सदाशिव श्रोत्रिय

कविता वीरेन : सदाशिव श्रोत्रिय

कविता पढ़ते हुए हाशिये पर हम उसका प्रभाव या कोई बात जो इस बीच अंकुरित हुई है लिखते चलते हैं. यह भी एक तरीका है संवाद का. वीरेन डंगवाल की सम्पूर्ण कविताओं के संग्रह ‘कविता वीरेन’ पर ये टिप्पणीयाँ इसी तरह की हैं. कविता को समझती और खोलती हुईं. कविता    वीरेन          […]

by arun dev
October 31, 2018
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कविता पढ़ते हुए हाशिये पर हम उसका प्रभाव या कोई बात जो इस बीच अंकुरित हुई है लिखते चलते हैं. यह भी एक तरीका है संवाद का. वीरेन डंगवाल की सम्पूर्ण कविताओं के संग्रह ‘कविता वीरेन’ पर ये टिप्पणीयाँ इसी तरह की हैं. कविता को समझती और खोलती हुईं.

कविता    वीरेन                                  

सदाशिव श्रोत्रिय        



वीरेन डंगवाल की कविता का मूल मंत्र  प्रेम है. प्रेम-भाव से यह कवि लबालब भरा है. अपने इस प्रेम के दायरे में वह न केवल “पेप्पोर,रद्दी पेप्पोर !” (कविता वीरेन, नवारुण प्रकाशन. 2018, पृष्ठ 254) के बैसाख की तपती गर्मी में रद्दी की तलाश मे निकले किसी बच्चे को ले सकता है, वह उसमें चिड़ियों, बंदरों, हाथियों आदि को भी ले लेने में समर्थ है :
चीं चीं चूं चूं चीख चिरौटे ने की मां की आफ़त
‘तीन दिनों से खिला रही है तू फूलों की लुगदी
उससे पहले लाई जो भंवरा कितना कड़वा था
आज मुझे लाकर देना तू पांच चींटियां लाल
वरना मैं खु‌द निकल पड़ूंगा तब तू बैठी रोना
जैसे तब रोई थी जब भैया को उठा ले गई थी चील
याद है बाद में उसकी खु‌शी भरी टिटकारी ? ’
                            
(मानवीकरण , वही, पृष्ठ 268 )
इस कवि की यह विशिष्ट प्रेम-क्षमता इतनी अद्भुत है कि वह डीज़ल इंजन, जलेबी,समोसे, लहसुन आदि निर्जीव कही जाने वाली वस्तुओं को भी प्रेम की ऐसी नज़र से देख सकता है कि वे एकबारगी उसकी कविता का विषय बन जाएं :
आओ जी, आओ लोहे के बनवारी
अपनी चीकट में सने-बने
यह बिना हवा की पुष्ट देह, यह भों-पों-भों
आओ पटरी पर खड़कताल की संगत में विस्मृत हों सारे आर्त्तनाद
आओ, आओ चोखे लाल
आओ चिकने बाल
आओ, आओ दुलकी चाल
पीली पट्टी लाल रुमाल
आओ रे, अरे उपूरे, परे, दरे, पूरे, दपूरे
के रे, केरे ?                                             
(डीज़ल इंजन , वही, पृष्ठ 185 )


कवि के रूप में वीरेन डंगवाल का यह गुण दुर्लभ और आश्चर्यजनक है क्योंकि आज की दुनिया में जिस चीज़ की तेज़ी से कमी होती जा रही है वह प्रेम ही है. प्रेम का उलट आत्मकेंद्रितता है और हम देख रहे हैं कि व्यक्तिवाद और आत्मकेंद्रितता में दिन-दूना रात-चौगुना इज़ाफ़ा हो रहा है. ऐसे में यह बात मन में आती है कि व्यापारिक मानसिकता से उपजी इस स्वार्थपरता का काट क्या कहीं वीरेन डंगवाल जैसे संवेदनशील कवियों की कविता में भी ढ़ूंढा जा सकता है ?
परम्परिक दाम्पत्य सम्बंधों में भी प्रेम की जिस आत्मीय गहराई तक यह कवि पहुंचता-पहुंचाता है वह सचमुच विलक्षण है. “प्रेम कविता” (वही, पृष्ठ 51) में वह एक बुद्धिजीवी पति और उसकी समर्पित भाव से गृहस्थी चलाने वाली पत्नी के बीच के जटिल-मधुर-कोमल सम्बंधों का अत्यंत काव्यात्मक चित्रण करता है :
प्यारी, बड़े मीठे लगते हैं मुझे तेरे बोल !
अटपटे और ऊल-जलूल
बेसर-पैर कहां-से-कहां तेरे बोल !
कभी पहुंच जाती है अपने बचपन में
जामुन की रपटन-भरी डालों पर
कूदती हुई फल झाड़ती
ताड़का की तरह गुत्थम-गुत्था अपने भाई से,
कभी सोचती है अपने बच्चे को
भांति-भांति की पोशाकों में,
मुदित होती है
इस कविता के माध्यम से कवि यह  साबित कर देता है कि गृहस्थी का वह रूप भी, जो कि बहुत ज़्यादा नारी-स्वातंत्र्य या गैरबराबरी के नारों से  संचालित नहीं है, जिसमें पति और पत्नी की रुचियां अलग-अलग तरह की और अलग-अलग स्तर की हैं  और जिसमें पति और पत्नी की भूमिकाएं  परम्परा द्वारा पूर्वनिर्धारित और पूर्वस्वीकृत हैं, एक अप्रकट किंतु आत्मीय और अत्यंत गहरे दाम्पत्य-प्रेम की संभावनाओं को छिपाए रख सकता है :
हाई स्कूल में होमसाइंस थी
महीने में जो कहीं देख लीं तीन फिल्में तो धन्य
प्यारी !
गुस्सा होती है तो जताती है अपना थक जाना
फूले मुंह से उसांसें छोड़ती है फू-फू
कभी-कभी बताती है बच्चा पैदा करना कोई हंसी नहीं
आदमी लोग को क्या पता
गर्व और लाड़ और भय से चौड़ी करती आंखें
बिना मुझे छोटा बनाये हल्का-सा शर्मिंदा कर देती है
प्यारी
किंतु इसी कविता में  आगे जब यह कवि इस दाम्पत्य-प्रेम के एक अनूठे ब्रह्मांडीय आयाम से अपने पाठक का परिचय करवाता है तब हमें उसकी दुर्लभ रचनात्मक क्षमता का सही-सही अनुमान हो पाता है :
दोपहर बाद अचानक में उसे देखा है मैंने
कई बार चूड़ी समेत कलाई को माथे पर
अलसाये
छुप कर लेटे हुए जाने क्या सोचती है
शोक की लौ जैसी एकाग्र
यों कई शतब्दियों से पृथ्वी की सारी थकान से भरी
मेरी प्यारी !
समूची मानवता को जोड़ कर देखने वाला एक विश्वव्यापी प्रेम हमें वीरेन डंगवाल की अनेक कविताओं में यत्र-तत्र बिखरा मिलता है. उदाहरण के लिए उनकी “उठा लंगर खोल इंजन” (वही, पृष्ठ 288) को ही लिया जा सकता है जिसे वे  अपने ‘जहाजी बेटे पाखू के लिए लिखी एक स्कूली
कविता’ कहते हैं :
उठा लंगर, छोड़ बंदरगाह !
नए होंगे देश, भाषा, लोग, जीवन
नया भोजन, नई होगी आंख
पर यही होंगे सितारे
ये ही जलधि-जल
यह आकाश
ममता यही
पृथ्वी यही अपनी प्राणप्यारी
नएपन की मां हमारी धरा.
हवाएं रास्ता बतलाएंगी
पता देगा अडिग ध्रुव         चम-चम-चमचमाता
प्रेम अपना
दिशा देगा
नहीं होंगे जबकि हम तब भी हमेशा दिशा देगा
लिहाज़ा,
उठा लंगर खोल इंजन छोड़ बंदरगाह !

यह वह कवि है जो निराशापूर्ण से निराशापूर्ण स्थितियों में भी अपना हौसला बनाए रखता है और आशावादिता का दामन नहीं छोड़ता :
आदमी है  आदमी है  आदमी
आदमी कम्ब‌‌ख़्त का सानी नहीं है
फोड़ कर दीवार कारागार की इंसाफ़ की ख़ातिर
तलहटी तक ढूंढता है स्वयं अपनी थाह.
उसे पूरा विश्वास है कि तमाम सामाजिक, वैचारिक, आर्थिक और तकनीकी परिवर्तनों के बावजूद मानवता की प्रगति कभी रुकेगी नहीं :
हम नए हैं
पुनर्नव संकल्प अपने
नया अपना तेज़
उपकरण अपने नए
उत्कट और अपनी चाह
सो धड़धड़ा कर चला इंजन
उठा लंगर
छोड़ बंदरगाह.


वीरेन जी के अदमनीय आत्मविश्वास का एक अनूठा उदाहरण मैं उनकी कविता “बांदा” (वही, पृष्ठ 152) में भी पाता हूँ. यह छोटी कविता इस तरह है :
मैं रात, मैं चांद, मैं मोटे काँच
का गिलास
मैं लहर ख़ुद पर टूटती हुई
मैं नवाब का तालाब उम्र तीन सौ साल.

मैं नींद, मैं अनिद्रा, कुत्ते के रुदन में
फैलता अपना अकेलापन
मैं चांदनी में चुपचाप रोती एक
बूढ़ी ठठरी भैंस
मैं इस रेस्टहाउस के ख़ाली
पुरानेपन की बास.
मैं खपड़ैल, मैं खपड़ैल.
मैं जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार.

इस कविता में हम दो भिन्न- भिन्न प्रकृति  के बिम्ब  देखते हैं. एक ओर जहाँ इसमें  मोटे कांच के गिलास, ख़ुद पर टूटती हुई लहर, अनिद्रा, कुत्ते के रुदन में फैलते अपने अकेलेपन, चुपचाप रोती एक बूढ़ी ठठरी भैंस, खाली पुरानेपन की बास और “खपडै़ल” के नकारात्मक बिम्ब हैं वहीं  दूसरी ओर  इसमें चाँद, नींद , चांदनी , जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार, केदार जी, तीर्थस्थल केदारनाथ और अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध तीर्थ बूढ़े केदार के सकारात्मक बिम्ब भी हैं.
भिन्न प्रकृति के इन  बिम्बों के माध्यम से यह कवि इस कविता में क्या  कहना  चाहता है ?
बाँदा के वातावरण में  यह कवि आज  शायद  एक प्रकार की पतनशीलता को व्याप्त पाता है. वह नगर जो पहले कभी कृष्ण राय, मस्तानी, बाजीराव के नाम  और उनके नवाबी ठाठ–बाट से जुड़ा रहा  था अब जैसे  बदहाली, प्रगतिशून्यता, साधनविहीनता, भुखमरी और जर्जरता से घिर गया  है.

कोई भी पाठक अनुमान लगा सकता है कि कवि की बांदा यात्रा के दौरान उसे किसी पुराने रेस्टहाउस में ठहराया गया है जो शायद अब अक्सर खाली रहता है और जिसमें  आवश्यक रखरखाव की कमी और साफ़- सफ़ाई न होने  के  कारण कोई पुरानी  बदबू बराबर बनी रहती है. रेस्ट हाउस के किसी कमरे में  कुछ देर सोने  के बाद कवि की नींद उड़ गई है और अब वह पुनः सो नहीं पा  रहा है. कुछ देर बाद उसे दूर से किसी कुत्ते का मनहूस  रुदन सुनाई देता है और  कुत्ते के इस रुदन में कवि जैसे अपने खुद  के अकेलेपन को फैलता हुआ महसूस करता है. रेस्ट हाउस के बाहर फ़ैली चांदनी में  कवि को एक  बूढ़ी भैंस दिखाई दे जाती है जो पर्याप्त घास के अभाव में ठठरी हो  गई है.  भूख और अभाव को कवि व्यापक रूप से उस पर्यावरण के  ही एक हिस्से के रूप में देखता है,जिसमें कवि स्वयं  जी रहा है. इसीलिए वह भैंस के निःशब्द रुदन को भी सुन सकता है. 

रेस्ट हाउस खाली-खाली, महंगी कटलरी  से शून्य और पुराना है. जैसे इस अभाव, फटेहाली और सौन्दर्यात्मक पतन को अभिव्यक्ति देने के लिए ही  कवि के मन में खपरैल के बजाय खपड़ैल शब्द उभरता है.

पतनशीलता (decadence) का भाव कविता में स्पष्ट  है. बांदा अब वह नगर  नहीं रहा जो वह पहले कभी हुआ करता था. यहाँ के अतिथि-गृहों में पतले कांच वाली  महंगी  कटलरी का स्थान अब मोटे कांच के गिलासों ने ले लिया  है. अतिथिगृह के आसपास का रात्रिकालीन वातावरण श्वान-रुदन के अशुभ और आशंकापूर्ण  संकेतों और भैंस की  मरणान्तक भुखमरी के दृश्यों से भरा है.
पर एक कवि इस निराशा और पतनशीलता के  बीच भी  सौन्दर्य और अमरत्व खोजने  की अपनी कोशिश नहीं छोड़ता. इस खोज में उसकी आत्मा उन चीज़ों में प्रवेश करती है जो समय  के साथ भी सौंदर्यविहीन, पुरानी  और आनंदशून्य नहीं हुई हैं  :
मैं जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार
मैं केदार, मैं केदार, मैं कम बूढ़ा केदार.

एक कवि के नाते वीरेन केदारजी के साथ अपना साम्य खोज लेते हैं. वे केदार जी की तुलना में कम अनुभवी, कम परिपक्व और कम प्रसिद्ध कवि हैं. पर फिर भी वे एक केदार की उपस्थिति अपने भीतर भी महसूस करते हैं. कविता में  केदार और बूढ़ा केदार का साथ-साथ प्रयोग उसे एक अतिरिक्त आयाम भी दे देता है– किसी तीर्थस्थल की सी  पावनता का आयाम.  कवि होने के नाते वह अपनी कल्पना उस चहुँओर व्याप्त  पतनशीलता से अप्रभावित इन्सान  के रूप में भी कर पाता है. अन्य लोगों की तुलना में  उसमें कुछ विशिष्ट है: जैसे अन्य स्थानों की तुलना में एक तीर्थस्थान में कुछ विशिष्ट होता है.
अपने बारे में यह विशिष्टता-बोध ही अंतत: कवि को उस निराशा भाव से बचा लेता है जो पतनशीलता के इस वातावरण में उसे पूरी तरह लील लेने को उतारू है. अपने आत्मविश्वास और आशावादिता को इस तरह यह कवि इस कविता के माध्यम से एक बार पुन: अपने लिए लौटाने में कामयाब होता है.
__

पुनश्चः
मुझे अफ़सोस है कि “बांदा” के सम्बन्ध में मैं अपनी बात शायद ठीक से कह नहीं पाया.
हिंदी कविता के पाठकों के लिए बांदा का नाम अविभाज्य रूप से कविवर केदारनाथ अग्रवाल के साथ जुड़ा रहा है जो इसी नगर में निवास करते थे और जिनकी कविताओं में यहां का ज़िक्र बार बार आता है.
कल्पना में हर प्राणी और हर वस्तु के साथ अपने आपंको एकाकार कर लेने की अपनी अद्भुत क्षमता की बदौलत यह कवि बांदा के एक पुराने रेस्टहाउस में मोटे कांच के सस्ते गिलास , एक भूख सहन करती भैंस ,और रोते श्वान के साथ एकाकार होते पाता है और इस प्रक्रिया में न केवल इस नगर के वातावरण में बल्कि शायद इसके बाहर भी सामाजिक और सांस्कृतिक पतन के लक्षण देखता है. इस पतनशीलता के एक भाग के रूप में अपनी कल्पना उसे विचलित करती है पर वह शीघ्र ही प्रयत्नपूर्वक अपने आपको इस निराशा से उबार लेता है. वह बांदा की अमर और स्थाई महत्व की चीज़ों (यथा “ जामा मस्जिद की शाही संगेमरमर मीनार” या कविवर केदार) के बारे में सोचता है और स्वयं भी एक कवि होने के नाते सरलता से उनके साथ एकाकार करने में सफल होता है. बूढ़ा केदार भी एक अपेक्षाकृत कम प्रसिद्ध तीर्थ है.
 
आशा है यह अतिरिक्त व्याख्या इस कविता को समझने में मदद करेगी.

_____________________                               
5/126 गो वि हा बो कोलोनी,
सेक्टर 14,
उदयपुर -313001, राजस्थान.
मोबाइल -8290479063  
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