• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » कथा- गाथा : विप्लवी : निवेदिता

कथा- गाथा : विप्लवी : निवेदिता

(photo courtesy:  NICK UT) निवेदिता रंगकर्मी, पत्रकार और एक्टिविस्ट के साथ-साथ कवयित्री भी हैं, उनके दो कविता संग्रह ‘ज़ख्म जितने थे’ और ‘प्रेम में डर’ प्रकाशित हैं. स्त्री मुद्दों पर वह लेखन से लेकर प्रदर्शन तक अनवरत, अनथक संघर्षरत हैं. उनकी यह कहानी एक पत्रकार की है जो धार्मिक कट्टरता के समझ झुकता नहीं और […]

by arun dev
October 18, 2018
in Uncategorized
A A
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

(photo courtesy:  NICK UT)



निवेदिता रंगकर्मी, पत्रकार और एक्टिविस्ट के साथ-साथ कवयित्री भी हैं, उनके दो कविता संग्रह ‘ज़ख्म जितने थे’ और ‘प्रेम में डर’ प्रकाशित हैं. स्त्री मुद्दों पर वह लेखन से लेकर प्रदर्शन तक अनवरत, अनथक संघर्षरत हैं.
उनकी यह कहानी एक पत्रकार की है जो धार्मिक कट्टरता के समझ झुकता नहीं और मारा जाता है. जिस तरह का कट्टर और घृणा का हम समाज बना रहे हैं यह कहानी उसी की दारुण कथा कहती है.

विप्लवी                                
निवेदिता


दीदी काँप रही है.  अखबार के पन्ने हाथ में बेजान से पड़े हैं. मैंने दीदी को थामा और चुपचाप खड़ी रही. उसकी देह हिल रही थी जैसे हजार-हजार समुद्र की लहरें अपना सर पटक रही हो. मौत अख़बार  के पन्नों पर सिहर रही थी.  दीदी !  संभालो खुद को.  दीदी के चेहरे पर  सदियों  पुराने जख्म उभर आये.  हमदोनों  घर की तरफ चलने लगे-ऊबड़-खाबड़ धरती पर उनकी खामोश छायाएँ ढलती हुई धूप में सिमटने लगीं….ठहरो !  दीदी के  होंठ फड़क उठे, तुम्हें कब पता चला ?  कल रात की खबर है.  ओह इतनी भयानक मौत.  ये कैसे हुआ ?  हिंदूवादी  संगठनों के नाम आ रहें हैं.   कुछ देर तक वो कुछ नहीं बोली, फिर जैसे बांध टूट पड़ा. आँखें बरस पड़ी. इतने बरसों बाद उसकी खबर मिली भी तो इसतरह !
वर्षों से दिल में दफ़न कोई भूला हुआ सपना झाँकता है.  गुनगुनी सी  हवा, मार्च की पीली धूप,  घास के तिनकों पर बिछ गई है… मैं उसे सहारा देकर कमरे में ले आती हूँ.. ये कितना अजीब है न कोई अपना चला गया और मैं खुलकर शोक भी नहीं मना सकती.  दीदी पर जैसे हाल आया था. वो बोल रही थी मैं सुन रही थी. तुम्हें पता है हम पिछली बार कब मिले थे ?… जब नरेंद्र दाभोलकर  की हत्या हुयी थी. उस घटना ने उसे बुरी तरह हिला दिया था. वही से लौटकर मिला था  मुझ से. मुझे  क्या पता था की ये हमारी  अंतिम मुलाकात थी.  लेकिन शायद उसे कुछ आभास था.  चितरंजन पर  दो बार हमले हुए थे. जिसमें बाल–बाल बचा था.. वह अपनी रौ में बोल रही थी.  कभी बोलत–बोलते  रुक जाती, कभी अपनी यादों के भीतर हंसती. 

पता है,
उसने मुझसे पूछा था
क्या हम फिर कभी मिलेंगे ?
क्यों ये सवाल क्यों कर रहे हो ?
बस यूँ हीं !
फिर भी बताओ क्यों पूछ रहे हो ?
मुझे लगता है मैं जिसे चाहता हूँ उसे खो देता हूँ.
मैंने उसकी पीठ पर एक  धौल जमाया बकवास मत करो. वो संजीदा हो गया. तुम्हें पता है मैंने  अपनी माँ को  सिर्फ आठ  साल की उम्र में उसे खो दिया. माँ  के लिए हमेशा रोता रहता था. एक दिन बाबा  ने कहा…तुम्हारी माँ अब असमान में नज़र आएगी.  तुम देखना जो सबसे चमकता तारा होगा वही तुम्हारी माँ  होगी. मैं अक्सर  रात को छत पर तारे निहारा करता. सोचता दुनिया में खोये  हुए लोगों को दुबारा पा लेना मुमकिन है क्या ? बाबा से पूछा तो उन्होंने कहा तुम्हें  पता है वैज्ञानिक क्या करते हैं ?  अंतरिक्ष में नया नक्षत्र खोजते हैं. तुम भी खोजों  मिल जाएगी. अगर हम किसी को बेपनाह मुहब्बत करते हैं तो वे हमारे पास आतें है ! बाबा कह रहे थे और उनकी आँखें भीग रही थी. माँ तो नहीं मिली पर मेरी रातें तारों के साथ गुजरने लगी. वो हंसा ! उसकी  हंसी दिल के भीतर धंस जाने वाली थी.   


उसके चेहरे पर  अजीब –सा ख़ालीपन  था. उसकी निगाहें मुझपर ठहर गयी. मुझे ऐसे देखने लगा जैसे कोई खोयी  हुयी चीज़ मिल गयी हो… अजीब बात है न जो कल तक मेरे पास था आज  वह हमारी स्मृतियों का हिस्सा हो गया. दीदी की  आवाज बहुत धीमी हो गयी. चाँद  की हलकी रौशनी उसके चेहरे पर गिर रही थी.  उसका चेहरा सुलग रहा था.
मैंने उसे  वही थाम लिया. दीदी  बहुत देर हो गयी है, अब तुम्हें सोना चाहिए !   उसे पलंग पर लिटा दिया. उसके सिराहने बैठ गयी.  थपकियाँ देने लगी. मैं चाहती  थी दीदी को नींद आ जाये. रात गहरी थी. आसमान  तारों से भर गया, एक हल्का सा आलोक चारों और फैला था.  दीदी अब नीद में थी. मैं  धीमें से पलंग से उठकर अपने कमरे की और मुड गयी, मुझे अजीब सा भ्रम हुआ जैसे चितरंजन दादा आसमान में झिलमिलाते तारों के बीच लेटे हों.
अगले सुबह अख़बार के पन्ने रंगे हुए थे. प्रधनमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री के बयान  थे. पता चला की उसकी शव यात्रा में पूरा शहर उमड़ आया था. चितरंजन दा से मेरी मुलाकात एक कॉलेज  में हुयी थी. दीदी वहां पढ़ाती थी. वे वहां रिसर्च के लिए आये थे. दीदी ने मिलवाया था. कनु ये मेरे दोस्त हैं चितरंजन. दीदी के चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान थी. पहली ही मुलाकात में मुझे वे बेहद संजीदा किस्म के इन्सान लगे थे. गोरा रंग, लम्बा कद और ऐनक के पीछे झांकती खूबसूरत आँखें. उनदिनों वे  “धर्मनिरपेक्ष  और कट्टरपंथी वर्गों के अंतर्विरोध” पर काम  कर रहे थे. उनके कई आलेख अलग-अलग अखबारों की सुर्खिया बनती थी. उनका  आलेख इनदिनों काफी विवाद  में था. उन्होंने कट्टरपंथ की जड़ों को तलाशना शुरू किया था और किस तरह वो आतंकवाद में तब्दील होता है उसकी बहुत तर्कपूर्ण व्यख्या की थी. जो सवाल उठायें थे वो समाज से निकलकर सत्ता तक पहुँचते  थे.
एकदिन उन्होंने पूछा मेरे साथ चलोगी ? कहाँ दादा ? चलो तुम्हें अख़बार  के लिए कुछ खास न्यूज़ देते हैं. जुलाई की एक शाम को जब बेहद गर्मी पड रही थी  हमदोनों कई गलियों को पार कर  एक  मकान के पास पहुंचे, जिसके सामने गन्दा नाला बह रहा था. दूसरी और सड़क थी.  इस घर के कई हिस्से किराये पर थे. जिनमें हर तरह के मेहनत-मजदूरी करने वाले लोग रहते थे. दर्जी, ताला बनाने वाला, बाबर्ची, कुछ बिहारी मजदूर. हम सीढियों से सबकी नज़रें बचाकर दाहिने तरह वाले दरवाजे में घुस गए. ये पीछेवाली सीढ़ी थी, अँधेरी और संकरी, सामने दरवाज़ा था. हमने घंटी बजायी. घंटी की इतनी कर्कस आवाज थी की हमलोग  चौक गए. घंटी पुराने  ताम्बे से बनी थी. 


दरवाज़े में से एक पतली सी दरार खुली. दरवाज़े के पीछे से दो आँखें दिखी. अंधरे में उसकी चमकती हुयी आँखों के सिवा कुछ नहीं दिख रहा था. दादा ने कहा में हूँ चितरंजन. कमरा खुला.  आपलोग अन्दर आयें. उस छोटे से कमरे की दीवारों पर पीला रंग पुता हुआ था.  खिडकियों पर मलमल के परदे लगे हुए थे.फर्नीचर काफी पुराना था. कमरे में सोफा  था. सोफे के सामने अंडाकार मेज़ थी. हर चीज़ बहुत साफ –सुधरी.  वह लंबे कद और छरहरे बदन का नौजवान है. काले और घुंघराले बाल. गालों  पर तमतमाहट की लाली. पेशानी पर लाल रंग का टीका चमक रहा था. वह दोनों हाथों से अपना सीना दबाये उस कमरे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक टहल रहा था. उसके होठ सूखे थे और उसकी साँस उखड़ी-उखड़ी चल रही थी.


उसकी आखें ऐसे चमक रही थी जैसे बुखार में चमकती है. उसने बहुत कठोरता से हमदोनों को देखा –तो आप क्या जानना चाहते हैं ?  फिर बिना सवाल सुने  बोलने लगा. मैंने ये खून इसलिए नहीं किया कि मैं अपने परिवार को मदद करूँ -ये बकवास है ! मैंने यह खून इसलिए नहीं किया दौलत और ताकत हासिल करना चाहता था. मैंने बस कर दिया क्यूकि इसके पीछे विचार था. कुछ लोग हमारे धर्म के लिए खतरा है. वे जेहादी हैं. ज्यादा बच्चे पैदा कर हमारे मुल्क पर कब्ज़ा करना चाहते हैं. वे हिन्दू धर्म के लिए खतरनाक हैं.  क्या मुझे उस तरह के कीड़ों का खून करने का अधिकार नहीं है ? ये बोलते हुए वो हाँफ रहा था. उसने मुझे सख्त नज़रों  से  देखा और बोलने लगा.
वे हमारे देश को नष्ट कर रहे हैं. हमारी लड़कियां उनकी मुहब्बत में गिरफ्तार हो रहीं हैं. वे हमारी नस्ल को बर्बाद कर रहें हैं. मेरा चेहरा तमतमा उठा. मैंने उन्हें  रोकते हुए कहा…..आप ये किस तरह कह सकते हैं ?   बीच में मत बोलें.  मुझे ये पसंद नहीं. मैं जनता हूँ आप जैसी लडकियों को ही  वे लोग टारगेट करते हैं. वे अपनी लडकियों पर पावंदी रखते हैं और हमारी लड़कियों को प्रेम के जाल में फंसा कर धर्म परिवर्तन करते हैं. 


वह  मेरी तरह देखते हुए गहरे घृणा और तिरस्कार से मुस्कुराया और अपनी दोनों कुहनियाँ घुटनों पर टिकाकर उसने अपना सर दोनों हाथों से जकड लिया.  तुम कितना दुःख झेल रहे हो दादा ने कहा. वो जोर से हंसा दुःख..! हाँ ये सब अच्छे  दिनों के खातिर !  क्या आप ये समझते हैं कि मैंने ये सबकुछ बिना सोचे समझे किया है? अरे नहीं ,मैंने बड़ी चालाकी से ये सब कुछ किया. पूरी योजना के साथ.
मैंने उसका खून किया जब वो सजदे में था. एक ही वार में काम  तमाम कर दिया. हाहाहा..उसके अल्लाह भी उसे नहीं बचा पायें. आप मेरी खबर छापें ताकि फिर कोई मुसलमान अपना सर इस मुल्क में उठा कर नहीं चल सके. उसके होठ तिरस्कार भरी मुस्कराहट से खुल गए. वे मुझे पकड़ नहीं पाएंगे उनके पास कोई भी पक्का सबूत नहीं है. मेरे लोग सारे इल्जामों से मुझे बरी करा लेंगे. बहुत होगा तो वे कुछ  दिन जेल में डालेंगे. फिर उन्हें मुझे छोड़ना पड़ेगा. उनके पास मेरे खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं है.. मुझे उम्मीद है आप इसे ठीक से छापेंगे. यह सब कुछ मैंने इसलिए बताया ताकि लोग हमारी “नवयुवक सेना” को जाने.   
इस देश में अगर मुसलमानों को रहना है तो उन्हें हमारी रहमों–करम पर ही  रहना होगा.  यह कह कर उसने हाथ जोड़ दिए. उम्मीद है इस बात चीत से आप समझ गए होंगे की हम क्या चाहते हैं. दादा उठ खड़े हुए .  उसने फिर कहा आपको मेरी ताकीद याद  है ना ! दादा रुक गए…आपने अपना काम कर लिया अब मुझे अपना काम करने दें.हम क्या छापेंगे ये आप मुझ पर छोड़ दें. मेरी कलम ने कभी डरना  नहीं सीखा. उसने हिकारत से देखा. ठहरिये  जनाब अभी आपने डर को महसूस नहीं किया है. मैं आपके भले के लिए कह रहा हूँ. आपका नाम चितरंजन नहीं होता तो हमारी ये मुलाकात नहीं होती. दादा हँसे ! शुक्रिया आपका , मेरा नाम चितरंजन है इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं है. ये नाम कुछ भी हो सकता था मसलन हामिद , तेग बहादूर सिंह या सुरेश विलियम. ये कह कर मेरा हाथ पकड़ दादा तेजी से निकल गए.
मैं सकते में थी. दादा ने मेरे  गाल  पर चपत लगाते हुए कहा कनु डर गयी क्या ? अरे बाबा ये सब प्रोफेशनल हजार्ड है. “ ओह “! दादा तुम ये सब मत करो. मुझे तुम्हारे लिए डर लगता  है. तुम इतना डरती किस बात से हो ? कुछ नहीं होगा. ये हमारा काम है. इसे हमलोग नहीं करेंगे तो कौन करेगा ?  हमदोनों सड़क पर थे. रात हो चुकी थी. पर मुम्बई में तो रात सोती नहीं. हम ट्रेन में बैठ चुके. खिड़की की बगल वाली सीट पर एक नौजवान बैठा था. ट्रेन से बाहर देखो तो हर चीज़ तेज रफ़्तार में भागती दिखती है. सड़कों के किनारे बड़ी बड़ी दुकानें. खंडरनुमा कुछ मकान, दूर तक फैली मलिन बस्ती. ये बस्तियां हमेशा याद दिलाती रहती हैं की मुम्बई के इस बैभव के पीछे हजारों कामगार मजदूरों का श्रम है. दादा  खिड़की  के बाहर देख रहे थे.  सपने में चुपचाप बहते हुए.  


मैंने मज़ा लिया दीदी को याद कर रहे हो. आज तो तुम्हारी जमकर खबर लेगी. वो हंसने लगा. मीनाक्षी   का डांटना अच्छा लगता है. हम स्टेशन से घर के लिए निकल पड़े. स्टेशन से घर दूर नहीं है इसलिए हमदोनो पैदल निकल पड़े. सड़कें खाली थी.  फुटपाथ वीरान. पैदल चलते हुए दीवारों की इबारतें पढ़ने का अपना मज़ा है.  चुनावी पोस्टर, जगह जगह शिव सेना के इश्तहार.  एक नीम खाली चायखाने पर कुछ नौजवान मजमा लगाये थे. कुछ पुरानी सुन्दर  इमारतें.. इमारतों की खिड़कियाँ लम्बी और संकरी थीं.  एक सौ साल पुरानी मेहराब इतनी ऊँची थी की उसे सर को उठा कर देखना पड़ा. हम घर पहुंचे दो दीदी सो चुकी थी.

चिरंजन दा  अपना अख़बार निकालते थे. “भोर टाईम्स”  समाचार पत्र मेरे हाथों में है  और नवयुवक सेना के साथ हुयी बातचीत का पूरा संवाद…. इस खबर ने देश में तहलका मचा दिया.  नव युवक  सेना के लोग अख़बार  के दफ्तर में आकर खूब तोड़ फोड़ कर गए..दादा को धमकाया. पुलिस  आई.  उन्होंने दादा से पूछा…क्या आप पुलिस सुरक्षा चाहतें हैं ?  क्या ये मेरे लिए ज़रूरी है ? मैं पत्रकार हूँ कहाँ-कहाँ सुरक्षा देंगे आप?  देखिये आपने जिनलोगों पर प्राथमिकी दर्ज की हमने उन्हें गिरफ्तार कर लिया है. फिर भी आपको सचेत रहना चाहिए कहीं कुछ ऐसा –बैसा न हो जाए.  दादा हँसे…जो असली गुनाहगार हैं वे अभी बचे हुयें है.
शाम को दादा घर आये. दीदी बहुत परेशांन थी. दोनों एक दूसरे के बगल में बैठे  बहुत उदास लग रहे थे. जैसे तूफान के बाद डूबे हुए जहाज के यात्री  निर्जन तट पर आ लगे हों. चित्तो तुम यह  सब छोड़ दो. पहले भी तुम पर हमला हो चुका है. अख़बार निकालना क्या ज़रूरी है ? दीदी ने घबरायी आवाज़ में कहा.  ये तुम कह रही हो मीनाक्षी ! तुमने ही तो जोर देकर अख़बार निकालने को कहा था. याद है तुमने कहा था अपना अख़बार होता तो हम उनलोगों की आवाज़ बन पाते जिनकी बातें नहीं आ पाती हैं.  दीदी की आँखों में प्यार उमड़ आया. उनके चेहरे को देखने लगी. दादा के चेहरे पर उजली –सी  हंसी चमक रही थी.  

दरवाजे पर घंटी बजी. कनु देखो कौन है. मामा आयें हैं दीदी. मामा को देखते दादा उठ गए. प्रणाम मामा. चित्तो मोशाय कैसे हैं ? ठीक हूँ मामा. भाई क्या करते रहते हैं आप ?  आज वे लोग दफ्तर  पर हमला किये कल आप पर हमला हो सकता है. आपकी खबर के बाद उसे गिरफ़तार किया गया है.  उसने अपना अपराध स्वीकार कर लिया है . उसके लोग उसे शहीद बनाने  पर तुले हैं.  मामा के चेहरे पर चिंता झलक रही थी. देखो, मैं मानता हूँ कि सच के साथ खड़ा होना चाहिए. पर समय बुरा है. कल उसकी पेशी है देखो क्या होता है. 
मुकदमें के दौरान उसे कोई खास परेशानी नहीं हुयी. अपराधी अपने बयान पर अटल रहा था. कोर्ट में जब उससे जिरह किया गया तो उसने साफ कहा “ इसे अपराध नहीं मानता हूँ मैं… उन्माद से वशीभूत होकर उसने कहा “ मैंने उस आदमी  का सफाया किया. मुझे कोई अफ़सोस नहीं है. एक ऐसे कौम के सफाया जिससे हमारे महान हिन्दू धर्म को खतरा हो. मैं हिंदू हूँ. हिंदू कोई दल नहीं है. हिन्दू एक जाति है. हिन्दू धर्म मूढ़ को भी मानता है. ज्ञानी को भी मानता है. उसमें सभी दल समाहित है. पर इस्लाम सिर्फ एक परमात्मा पर यकीं करता है और खुद को सर्वश्रेष्ठ कहता है. वे बाहरी लोग हैं और हमारे धर्म पर कब्ज़ा करना चाहते हैं. इस देश में उन्हें रहना है तो हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता को स्वीकार करना होगा. उसने अदालत को बताया कि उसने कब और कैसे हत्या की. उसने उस पूरी बात-चीत का ब्योरा दिया, और बताया कि  किस तरह  हत्या की. उसने साफ-साफ कहा कि उसने जो कुछ किया उसका कोई  मलाल नहीं है.  लम्बी जिरह के बाद  हत्या के आरोप में उसे सात साल की सजा हुयी.

फैसला आ गया. उस दौरान कोर्ट परिसर में काफी भीड़ थी. फैसले के खिलाफ नारेबाजी शुरू हो गयी. कोर्ट से बाहर मैं और दादा पैदल ही निकल पडे. मुझे तुरत खबर देनी थी  अख़बार को. गर्मी काफी थी. रास्ते में फल मंडी से गुजरते हुए  काजिम स्पेयर पार्ट्स एंड हार्डवेयर की दुकान के आगे भीड़ लगी थी. लोग जल्दी जल्दी दुकानें बंद कर रहे थे. उत्तेजित बेरोजगार नौजवान  चायखानो पर जमे थे. चाय की दुकान से आगे विशाल शो केश में महिलाओं के कपडे में सजी औरतों के पुतले खड़े थे. इस आड़े तिरछे रास्ते से शहर पार करने में हमें १५ मिनट लगे. तब तक शहर में हंगामा शुरु था. क्या मैं तुम्हें आफिस तक छोड़ दूँ ? नहीं दादा हम चले जायेंगे तुम जाओ, मुलाकात होती है.

चितरंजन मुंबई के झुग्गी से होता हुआ आगे मुख्य मार्ग पर आ गया. हजार साल पुराना विशालकाय गिरजाघर, सामने झुग्गियों से उठते धुएं की पतली लकीर. सामने बहता हुआ नाला, इन सारे दृश्यों से खामोश गुजरते हुए वो बहुत उदास था. अचानक उसे महसूस हुआ कोई उसके पीछे है. पर अंधरे में कुछ नज़र नहीं आया. उसे लगा शायद भ्रम हुआ है. तबतक उसे कुछ लोगों ने दबोच लिया. ये सब इतना अचानक हुआ की उसे कुछ सोचने का वक़्त नहीं मिला. अब वो कार में था. और अपनी पीठ पर बंदूक की नोक महसूस कर रहा था. उसकी नसों में डर पसरने लगा. फिर भी साहस बटोर कर पूछा. आपलोग कौन हैं ? मुझे कहाँ ले जा रहें हैं ? चेहरे पर नकाब लगाये उसके बगल में बैठे आदमी ने कहा पत्रकार महोदय चुपचाप बैठें. 



आपके सारे सवालों का जबाब दिया जाएगा. उसके लहजे में किसी घबराये हुए व्यक्ति की उत्तेजना थी. उसे आभास हो गया की ये लोग पेशेवर हत्यारे नहीं हैं. अंधरे सुरंग नुमा जगह से गुजरते हुए एक जर्जर इमारत के पास गाड़ी रुकी. उनलोगों ने उसे दबोचते हुए एक कमरे में धकेल दिया. कमरे में अँधेरा था.  इतना अँधेरा कि फर्नीचर की आकृतियाँ बमुश्किल से दिखाई दे रही थी.एक टूटी कुर्सी और पुरानी मेज़ पड़ी थी. बगल में एक पुराना पलंग था और उससे सटे बेत की कुर्सी. वो कुर्सी पर पड़े उन्धने लगा . 
लगभग आधे घंटे बाद बाहर गलियारे से किसी की क़दमों की आहट सुनाई पड़ी. वो सतर्क हो गया. एक नाटे कद का आदमी अन्दर दाखिल हुआ. वह सफ़ेद शर्ट और काले रंग का पतलून पहना था. उसके कंधे झुके हुए थे और तेल से चिपके  बाल के ऊपर पीले रंग की टोपी थी जिसपर लिखा था “गर्व से कहो हम हिन्दू हैं”.चेहरे से उसकी उम्र ३५, ४० के बीच लगती थी. उसकी छोटी –छोटी आँखें चर्बी की तहों में खोकर रह गयी थी. अचानक उसे कमजोरी महसूस होने लगी. उसकी पीठ में ऊपर से नीचे  तक सिहरन दौड़ गयी. उस आदमी ने उसकी तरफ देखा.

उसके होठ पर विजय की नफरत भरी मुस्कराहट थी.
तो तुम नास्तिक हो ?
और  मुसलमानों के लिए काम करते हो .
तुम्हें इस काम के लिए कितने पैसे मिलते हैं ?
देखिये आपको ग़लतफ़हमी हुयी है.
मैं पत्रकार हूँ !
वो हँसा !
तुम्हारी पत्रकारिता हिन्दुओं के खिलाफ काम करती है ?
पत्रकारों का जो काम है मैं वो करता हूँ.
हिन्दू और मुसलमान बनकर नहीं लिखता.
तुम हिन्दू होकर हिन्दुओं के खिलाफ लिखते हो.  
तुमने जो लिखा उसके कारण आज हमारा साथी जेल के सलाखों के पीछे है.
फिर भी हम तुमको इस शर्त पर छोड़ देंगे अगर तुम हमारे लिए लिखना शुरू करो.
अबतक चितरंजन संभल चुका था. उसने बहुत साफ और सधी हुयी आवाज में कहा..मैं पत्रकारिता करता हूँ दलाली नहीं. आप मुझसे कुछ और नहीं करा सकते.
पत्रकारिता के नाम पर तुम हिन्दू धर्म की आलोचना करते हो
नहीं मैं धर्म की नहीं  धर्म के नाम पर किसी कौम के साथ नफरत करने के खिलाफ लिखता हूँ
चाहे वो कोई धर्म रहे, मैंने इस्लाम के नाम पर की जा रही दहशतगर्दी के खिलाफ लिखा !
तब तो तुम दोनों धर्म के खिलाफ हो.
देखिये इस तरह की  बहस से कोई फायदा नहीं.
नहीं तुम बताओ कौन धर्म श्रेष्ठ है ?
देखिये मैं धर्म की श्रेष्ठता पर यकींन नहीं करता ,धर्म का काम है दुखी दिलों पर मरहम लगाना.
जो धर्म ये काम नहीं करता और इंसानों के बीच नफरत फैलता, उस धर्म से मेरा कोई नाता नहीं ! चितरंजन ने उसकी आँखों में आँख डाल कर कहा.

एक विचित्र मुस्कुराहट उसके चेहरे पर आई  उसने अपनी छोटी-छोटी आँखों को सिकोड़ते हुए कहा..देखो मुझे अपने आप पर काबू रखना अच्छी तरह आता है पर एक बार गुस्सा फटा  तो मेरी पिस्तौल उनलोगों की खबर लेती है जो हमारा कहा नहीं मानते.
देखिये मेरा काम लिखना है और मैं ये ईमानदारी  से करता हूँ

तुम अगर ये लिख कर दो की तुमने हमारे साथी के बारे में जो लिखा और तथ्य दिए वो पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी के दबाव में दिए तो हमलोग तुम्हें छोड़ देंगे.
ये नहीं हो सकता ! और अगर तुम्हारा ख्याल है कि मुझे मार कर तुमलोग बच जाओगे तो ये ग़लतफ़हमी है
तो फिर तैयार हो जाओ, अपने आखिरी समय में भगवान को याद  कर लो !
चितरंजन के चेहरे पर हलकी सी मुस्कान  आयी
उसने गहरी आँखों से उसे देखा
इतनी निर्भीक आँखें !
उसने नफरत से देखा–एक फुत्कारती-सी  साँस. उसने सख्त हाथों से पिस्टल पकड़ा
एक गोली चलने की आवाज आयी
दो गोली चलने की आवाज
अगली सुबह लोगों ने देखा चितरंजन की लाश मुबई के मुख्य सड़कों पर पड़ी थी. उसकी आँखें हलकी खुली थी  और चेहरे पर नीरव शांति.
नील विस्तीर्ण आकाश के आलोक मंडल में चमकता हुआ सूरज डूब रहा था.

__________________________

 niveditashakeel@gmail.com
ShareTweetSend
Previous Post

व्यक्तिगत भी राजनीतिक है : कैरोल हैनिच (अनुवाद अपर्णा मनोज)

Next Post

विनिता यादव (कविताएँ)

Related Posts

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन
समीक्षा

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी
समीक्षा

केसव सुनहु प्रबीन : अनुरंजनी

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण
संस्मरण

वी.एस. नायपॉल के साथ मुलाक़ात : सुरेश ऋतुपर्ण

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक