• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » गुरप्रीत की कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम

गुरप्रीत की कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम

पंजाबी भाषा के चर्चित कवि गुरप्रीत की चौदह कविताओं का हिंदी अनुवाद रुस्तम सिंह ने कवि की मदद से किया है. हिंदी के पाठकों के लिए इतर भाषाओँ के साहित्य का प्रमाणिक अनुवाद समालोचन प्रस्तुत करता रहा है, इसी सिलसिले में गुरप्रीत की ये कविताएँ हैं. विषय को कविताओं में बरतने का तरीका सधा हुआ है. ये कविताएँ बड़ी गहरी हैं और इनमें मनुष्यता की गर्माहट है. हिंदी में महाकवि ग़ालिब पर अच्छी–बुरी तमाम कविताएँ लिखी गयीं, पर इस कवि की ‘ग़ालिब की हवेली’ कविता बांध लेती है. एक कवि को दूसरे कवि से इसी तरह मिलना चाहिए. गुरप्रीत की इन कविताओं के लिए कवि रुस्तम का आभार.   

by arun dev
April 20, 2018
in कविता
A A
गुरप्रीत की कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें
पंजाबी

गुरप्रीत  की  कविताएँ

(पंजाबी से अनुवाद : कवि और रुस्तम सिंह द्वारा)

रात की गाड़ी

अभी-अभी गयी है
रात की गाड़ी
मैं गाड़ी पर नहीं
उसकी  कूक  पर चढ़ता हूँ
मेरे भीतर हैं
असंख्य स्टेशन
मैं कभी
किसी पर उतरता हूँ
कभी किसी पर

 

पत्थर

एक दिन
नदी किनारे पड़े पत्थर से
पूछता हूँ
बनना चाहोगे
किसी कलाकार के हाथों
एक कलाकृति
फिर तुझे  रखा जाएगा
किसी आर्ट गैलरी में
दूर-दूर से आयेंगे लोग तुझे देखने
लिखे जायेंगे
तेरे रंग रूप आकार पर असंख्य लेख
पत्थर हिलता है
ना ना
मुझे पत्थर ही रहने दो
हि ल ता  पत्थर
इ   त  ना   कोमल
इतना तो मैंने कभी
फूल भी नहीं देखा

 

ग़ालिब की हवेली

मैं और मित्र कासिम गली में
ग़ालिब की हवेली के सामने
हवेली बन्द थी
शायद चौकीदार का
मन नहीं होगा
हवेली को खोलने का
चौकीदार, मन और ग़ालिब मिलकर
ऐसा कुछ सहज ही कर सकते हैं
हवेली के साथ वाले चुबारे से
उतरा  एक  आदमी और बोला —
हवेली को उस जीने से देख लो
उसने सीढ़ी की तरफ इशारा किया
जिस से वो उतर कर आया था

ग़ालिब की हवेली को देखने के लिए
सीढ़ियों पर चढ़ना कितना ज़रूरी है

पूरे नौ वर्ष रहे ग़ालिब साहब यहाँ
और पूरे नौ महीने वो अपनी माँ की कोख में

बहुत से लोग इस हवेली को
देखने आते हैं
थोड़े दिन पहले एक अफ्रीकन आया
सीधा अफ्रीका से
केवल ग़ालिब की हवेली  देखने
देखते-देखते रोने लगा
कितना समय रोता रहा
और जाते समय
इस हवेली की मिट्टी अपने साथ ले गया

चुबारे से उतरकर आया आदमी
बता रहा था
एक साँस में सब कुछ

मैं देख रहा था उस अफ्रीकन के पैर
उसके आंसुओं के शीशे में से अपना-आप
कहाँ-कहाँ जाते हैं पैर
पैर उन सभी जगह जाना चाहते हैं
जहाँ-जहाँ जाना चाहते हैं आंसू

मुझे आंख से टपका हर आंसू
ग़ालिब की हवेली लगता है.

 

मार्च की एक सवेर

तार पर लटक रहे हैं
अभी
धोये
कमीज़
आधी बाजू के
महीन पतले
हल्के रंगों के
पास का वृक्ष
खुश होता है
सोचता है
मेरी तरह
किसी और शय पर भी
आते हैं पत्ते नये.

 

कामरेड

सबसे प्यारा शब्द कामरेड है
कभी-कभार
कहता हूँ अपने-आप को
कामरेड
मेरे भीतर जागता है
एक छोटा सा कार्ल मार्क्स
इस संसार को बदलना चाहता
जेनी के लिए प्यार कविताएँ लिखता
आखिर के दिनों में बेचना पड़ा
जेनी को अपना बिस्तर तक
फिर भी उसे धरती पर सोना
किसी गलीचे से कम नहीं लगा
लो ! मैं कहता हूँ
अपने-आप को कामरेड
लांघता हूँ अपने-आप को
लिखता हूँ एक और कविता
जेनी को आदर देने के लिए…
कविता  दर कविता
सफर में हूँ मैं …

 

पक्षियों को पत्र

मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है
मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है
मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है
मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है
मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है
मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है
मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है
मैंने पक्षियों को पत्र लिखना है
लाखों करोड़ों अरबों खरबों बार लिखकर भी
नहीं लिख होना मेरे से
पक्षियों को पत्र.

 

प्यार

मैं कहीं भी जाऊँ
मेरे पैरों तले बिछी होती है
धरती
मैं धरती को प्यार करता हूँ
या धरती करती है मुझे
क्या इसी का नाम है प्यार
मैं कहीं भी जाऊँ
मेरे सर पर तना होता है
आकाश

मैं आकाश को प्यार करता हूँ
या आकाश करता है मुझे
प्यार धरती करती है आकाश को
आकाश धरती को
मैं इन दोनों के बीच
कौन हूँ
कहीं इन दोनों का
प्यार तो नहीं.

 

ख्याल

अभी तेरा ख्याल आया
मिल गयी तू
तू मिली
और कहने लगी
अभी तेरा ख्याल आया
और मिल गया तू
हँसते-हँसते
आया दोनों को ख्याल
अगर न होता ख्याल
तो इस संसार में
कोई कैसे मिलता
एक-दूसरे को…

 

नींद

क्या हाल है
हरनाम*आपका
थोड़ा समय पहले
मैं आपकी हथेली से
उठाकर ठहाका आपका
सब से बच-बचाकर
ले आया
उस बच्चे के पास
जो गयी रात तक
साफ कर रहा है
अपने छोटे-छोटे हाथों से
बड़े-बड़े बर्तन
मुझे लगता है
इस तरह शायद
बच जाएँ उसके हाथ
घिस  जाने  से
यह जो नींद भटक रही है
ख़याल में
ज़रूर इस बच्चे की होगी
क्या हाल है
हरनाम आपका …
* पंजाबी का अनोखा कवि, जिसके मूड-स्केप अभी भी असमझे हैं.

 

पिता

अपने-आप को बेच
शाम को वापस आता घर
पिता
होता सालम-साबुत
हम सभी के बीच बैठा
शहर की कितनी ही इमारतों में
ईंट-ईंट हो चिने जाने के बावजूद
अजीब है
पिता के सब्र का दरिया
कई बार उछल जाता है
छोटे-से कंकर से भी
और कई बार बहता रहता है
शांत
तूफानी ऋतु में भी
हमारे लिए बहुत कुछ होता है
पिता की जेब में
हरी पत्तियों  जैसा
साँसों की तरह
घर आजकल
और भी बहुत कुछ लगता  है
पिता को
पिता तो पिता है
कोई अदाकार नहीं
हमारे सामने ज़ाहिर हो ही जाती है
यह बात
कि बाज़ार में
घटती जा रही है
उसकी कीमत
पिता को चिन्ता है
माँ के सपनों की
हमारी चाहतों की
और हमें चिन्ता है
पिता की
दिनों-दिन कम होती
कीमत की…

 

आदि काल से लिखी जाती कविता

बहुत पहले
किसी युग में
लगवाया था मेरे दादा जी ने
अपनी पसन्द का
एक खूबसूरत दरवाज़ा
फिर किसी युग में उखाड़ दिया था
मेरे पिता ने वो दरवाज़ा
लगवा लिया था
अपनी पसन्द का एक नया दरवाज़ा
घर के मुख्य-द्वार पर लगा
अब मुझे भी पसन्द नहीं
वो दरवाज़ा.

मकबूल फ़िदा हुसैन

एक बच्चा फेंकता है
मेरी ओर
रंग-बिरंगी गेंद
तीन टिप्पे खा
वो गयी
वो गयी
मैं हँसता हूँ अपने-आप पर
गेंद को कैच करने के लिए
बच्चा होना पड़ेगा
०
नंगे पैरों का सफ़र
ख़त्म नहीं होगा
यह रहेगा हमेशा के लिए
लम्बे बुर्श का एक सिरा
आकाश में चिमनियाँ टाँगता
दूसरा धरती को रँगता है
वो जब भी ऑंखें बन्द करता
मिट्टी का तोता उड़ान भरता
कागज़ पर पेंट की हुई लड़की
हँसने लगती

०
नंगे पैरों के सफ़र में
मिली होती धूल-मिट्टी की महक
जलते  पैरों के तले
फैल जाती हरे रंग की छाया
सर्दी के दिनों में धूप हो जाती गलीचा
नंगे पैर नहीं डाले जा सकते
किसी पिंजरे में
नंगे पैरों का हर कदम
स्वतंत्र  लिपि का स्वतंत्र वरण
पढ़ने के लिए नंगा होना पड़ेगा
मैं डर जाता
०
एक बार उसकी दोस्त ने
तोहफे के तौर पर दिये दो जोड़ी बूट
नर्म  लैदर
कहा उसने
बाज़ार चलते हैं
पहनो यह बूट
पहन लिया उसने
एक पैर में भूरा
दूसरे में काला
कलाकार  की यात्रा  है यह

०
शुरूआत रंगो की थी
और अन्त भी
हो गये रंग
रंगों पर कोई मुकदमा नहीं हो सकता
हदों-सरहदों का क्या अर्थ  रंगों के लिए
संसार  के किसी कोने में
बना रहा होगा कोई बच्चा सियाही
संसार के किसी कोने में
अभी बना रहा होगा
कोई बच्चा
अपने नन्हे हाथों से
नीले काले घुग्गू घोड़े
रंगों की कोई कब्र नहीं होती.

 

अन्त नहीं

मैं तितली पर लिखता हूँ एक कविता
दूर पहाड़ों से
लुढ़कता पत्थर एक
मेरे पैरों के पास आ टिका
मैं पत्थर पर लिखता हूँ एक कविता
बुलाती है महक मुझे
देखता हूँ पीछे
पंखुड़ी खोल गुलाब
झूम रहा था टहनी के साथ
मैं फूल पर लिखता हूँ एक कविता
उठाने लगा कदम
कमीज़ की कन्नी में फँसे
काँटों ने रोक लिया मुझे
टूट न जायें काँटे
बच-बचा कर निकालता हूँ
काँटों से बाहर
कुर्ता अपना
मैं काँटों पर लिखता हूँ एक कविता
मेरे अन्दर से आती है एक आवाज़
कभी भी खत्म नहीं होगी धरती की कविता.

 

बिम्ब बनता मिटता

मैं चला जा रहा था
भीड़ भरे बाज़ार में
शायद कुछ खरीदने
शायद कुछ बेचने
अचानक एक हाथ
मेरे कन्धे पर आ टिका
जैसे कोई बच्चा
फूल को छू रहा हो
वृक्ष एक हरा-भरा
हाथ मिलाने के लिए
निकालता है मेरी तरफ
अपना हाथ
मैं पहली बार महसूस कर रहा था
हाथ मिलाने की गर्माहट
वो मेरा हाल-चाल पूछकर
फिर मिलने का वचन दे
चल दिया
उसका घर कहाँ होगा
किसी नदी के किनारे
खेत-खलिहान के बीच
किसी घने जंगल में
सब्जी का थैला
कन्धे पर लटका
घर की ओर चलते
सोचता हूँ मैं
थोडा समय और बैठे रहना चाहिए था मुझे

स्टेशन की बेंच पर.

गुरप्रीत (जन्म १९६८) इस समय के पंजाबी के महत्वपूर्ण कवि हैं. अब तक उनके चार कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं. अन्तिम संग्रह २०१६ में प्रकाशित हुआ. इसके इलावा उन्होंने दो पुस्तकों का सम्पादन भी किया है. उन्हें प्रोफेसर मोहन सिंह माहर कविता पुरस्कार (१९९६) और प्रोफेसर जोगा सिंह यादगारी कविता पुरस्कार (२०१३) प्राप्त हुए हैं. वे पंजाब के एक छोटे शहर मानसा में रहते हैं.
Tags: गुरप्रीतपंजाबी कविताएँरुस्तम
ShareTweetSend
Previous Post

मोनिका कुमार की कविताएँ (पंजाबी)

Next Post

फ़क़त तुम्हारा हरजीत

Related Posts

रुस्तम की नयी कविताएँ
कविता

रुस्तम की नयी कविताएँ

विश्व कविता : रुस्तम
अनुवाद

विश्व कविता : रुस्तम

रुस्तम की बीस नयी कविताएँ
कविता

रुस्तम की बीस नयी कविताएँ

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक