• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मोनिका कुमार की कविताएँ (पंजाबी)

मोनिका कुमार की कविताएँ (पंजाबी)

कवि दो अलग भाषाओँ में कविताएँ लिख रहा हो तो दोनों तरह की कविताओं में संवेदनात्मक, वैचारिक और शिल्पगत अंतर होंगे. क्या ये अंतर भाषा के हैं, भाषा के पाठकों को ध्यान में रखने से क्या कविता का चेहरा बदल जाता है ? क्या शब्द ही अर्थ गढ़ते हैं ?मोनिका कुमार समकालीन ‘हिंदी’ कविता की एक पहचानी जाने वाली कवयित्री हैं. हिंदी के अलावा पंजाबी में भी कविताएँ लिखती हैं. समालोचन पर आपने उनकी हिंदी कविताएँ पढ़ी हैं, आज उनकी कुछ पंजाबी कविताओं का उन्हीं के द्वारा किया गया अनुवाद प्रस्तुत है. 

by arun dev
April 18, 2018
in अनुवाद
A A
मोनिका कुमार की कविताएँ (पंजाबी)
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

मोनिका  कुमार  की  कविताएँ    

 

काला कैन्टीन वाला

 

लंबे लंबे क़दम रखता
किसी आदमी से बात कर रहा
काले को उस दिन मैनें बस अड्डे से निकलते हुए देखा

काला बस अड्डे पर !
काले को वहां देखकर मैं हैरान रह गई
काले को मैनें हमेशा कैन्टीन में देखा है
समोसे, ब्रैड पकौड़े, चाय और राजमांह चावल परोसते हुए

काला राशन के बढ़ते हुए दाम की चिंता और शिकायत करता रहता है
लेकिन किसी कार्यक्रम में खाने वालों की गिनती बढ़ जाए
तो खींच तान कर मौक़ा संभाल लेता है
प्रोफ़ेसरों की तीस पच्चीस साल की नौकरी की विदाई पार्टी की क़ीमत
काला दस मिनट में निकाल देता है

चौकन्ना और चिंतित
ठेकेदारी के झमेले में विवश
कैन्टीन में काम करने वाले प्रवासी लड़कों से काला हिंदी में बात करता है
काला हास्यस्पद पर सुघड़ व्यापारी है
उसे पता है कौन चाय में कितनी शक्कर डालता है
वह मतलब और बेमतलब की चाय का मतलब अच्छी तरह समझता है
पर इन सब तथ्यों का हिसाब मन में रखकर वह अपना समय नहीं ख़राब करता
काले के पास इतनी सूचनाएं हैं
कि वह लेखक बनने के बारे में सोच सकता है
पर काला सुघड़ सयाना है
वह सिर नीचे करके चुपचाप तेल की महक वाली अपनी गुच्छा मुछा कॉपी में
रोज़ की देनदारी और उधारी लिखता है

यह सब तो ठीक है
पर काला बस अड्डे पर !
काला उस आदमी से क्या बात कर रहा था ?
बेशक काला बस अड्डे जा सकता है
बल्कि शहर में कहीं भी आ जा सकता है
फिर भी काले को बस अड्डे में देखने से
कोई भ्रम टूट गया है
और काला मेरे लिए एक अजनबी बन गया है.

 

ईंटों की चिनाई

 

छत पर पड़े सामान का कोई वली ना वारिस है
ये गिरता लुढ़कता कई सालों तक यहीं पड़ा रहेगा
चमड़े का टूटा हुआ अटैची, कांच के कप प्लेट
लोहे की कुर्सी, प्लास्टिक की बाल्टी
और छोटा मोटा बहुत कुछ
कबाड़ी के पास इसे बेचने की बात बनते बनते ढह जाती है
छत पर रखे गमलों में कोई पानी नहीं डालता
फिर भी इस में उग आई घास हरी रहती है

इस छत को कोई नहीं बुहारता
पर यह साफ़ रहती है
हालाँकि सुंदर नहीं दिखती
यहाँ पड़ा सामान पड़ा पड़ा और भुरभुराता रहता है
बाल्टी का गुलाबी रंग उड़ गया है
पर बाल्टी के कोने में कटोरे जितनी जगह है
जिस में बारिश का पानी जमा हो जाता है
लोहे की कुर्सी की बाँह टूटी पड़ी है
पर एक दुबला बच्चा इस पर बैठ सकता है
अटैची का एक बटन अभी भी लग रहा है
जैसे रीझ से रीत गए शरीर में
बहुत धीरे पर दिल धड़कता रहता है

घर के अंदर इन चीज़ों की अब ज़रूरत नहीं है
फिर भी ये चीज़ें तुरंत नहीं मर जातीं
दम दम ख़त्म होकर अपना जीवन पूरा करती हैं

छत की ईंटों की चिनाई में राग बजता रहता है
इंतज़ार का मद्धम राग
इसके पास जा कर सुनो
तो लगता है
शरारती बच्चे छत पर ज़ोर ज़ोर से कूद रहे हैं.

 

दोपहर होने तक

 

दोपहर होने तक
चेत की हवा के टोने से
मुझे झपकी आने लगी थी
झूलते हुए सिर को हाथ से टेक जो दी
तो अचानक मेरे हाथों से लहसुन की गंध आई
हाथ की गर्मी से यह गंध और गहरी हो गई
लेकिन लहसुन की गंध ने मुझे होश लौटा दी

मुझे धीरे धीरे सब याद आ गया
छतों की दीवारें छोटी थीं
मेरे जैसे क़द का मनुष्य भी आसानी से दीवारें टाप सकता था
हमारे पड़ोसी दिन के समय मिलनसार थे
लेकिन संध्या का टोना सभी को बदल देता था
माएँ बच्चों को गलियों से घसीट कर घरों के अंदर ले जाती थीं
मुझे याद गया
ड्योढ़ी में शाम को साईकल निष्प्राण होकर गिर जाते थे
और पिता
पिता लौट कर घर को मेहमान की तरह देखते थे
बच्चे सुबह से कुछ बड़े हो गए थे
लहसुन की बघार से सीझ रही दाल की महक छत तक पहुँच जाती थी
और हम बरामदे में बैठ कर रोटी खाने लगते.

 

जुगनू

 

गर्मी की एक रात
उड़ते उड़ते एक जुगनू मेरे कमरे में घुस आया
अँधेरे में जलता बुझता जुगनू
घुसते ही कमरा नापने लगा था

हवा के बिना
यह रात काली खोह थी
पसीने में भीगी मैं
कमरे में पसरे सेंक को सूंघ रही थी
इस रात का हासिल सिर्फ ताप था
क्यूंकि गर्मी ने कमरे की हर चीज़ कील रखी थी
सेंक के तलिस्म में
मैं चमत्कार का इंतज़ार कर रही थी

इतने में कमरे में जुगनू घुस आया
उसे किताब के नीचे दबा कर मैनें बत्ती जलाई
जलता बुझता जुगनू कितना आम कीड़ा था!
मैं हैरान हुई
यह अद्भुत लौ इस निरीह देह में जल रही थी

डरता, काँपता और अपने पंख फड़फड़ाता
जुगनू मेरे जैसा ही स्तब्ध प्राणी था

सेंक के पहरे में
जुगनू की हाज़िरी में
रात का चमत्कार होने लगा था
मैंने जुगनू के ऊपर से किताब हटा दी
दीप्त कमरे को छोड़ कर जुगनू बाहर उड़ गया.

 

शहर का मोह

 

जिस दिन शहर छोड़ कर कुछ दिन बाहर जाना होता है
उसी दिन शहर का मोह जाग जाता है
अचानक याद आता है
यहाँ का गुड़ियों का संग्रहालय तो मैनें अभी देखा नहीं
बड़ा डाक घर नहीं, यहाँ का दशहरा नहीं
इसी उम्मीद में
कि आगे चल कर मन ख़ाली और समय खुला होगा
और शायद शहर भी दूध का भरा हुआ गिलास है
जिसे घूँट घूँट पीना ठीक रहेगा

घूँट घूँट पीते हुए भी कई साल बीत गए
डर भी लगता है
कि सारा दूध पी लिया
तो यहाँ से भी अन्न जल उठ जाएगा
कोई शहर जब अपना बन जाता है
तो लगता है यहाँ से दूर चले जाने का वक़्त आ गया है

मेरी रिक्शा स्कूल के बच्चों की बस की बगल से निकली
तो बस की खिड़की से एक बच्चा दिखा
उसके हाथ पर पट्टी बंधी हुई थी
खेल कर चूर हुआ बच्चा मूर्ति बना सीट पर बैठा था
मूर्ति जो दिखने में भारी और सुंदर लगती है
और जब हाथों में पकड़ो
तो पता चलता है यह कितनी हल्की और कीमती है
उसे देखकर
मेरे मोह को ममता की राह मिल गई

स्कूल की बस जल्दी से आगे निकल गई
मेरी रिक्शा भी बस अड्डे पहुँच गई
यह सोचते हुए मैं भी अपनी सीट पर बैठ गई
उस बच्चे को तो ठीक से अभी देखा भी नहीं.

“ये कविताएँ मैंने पंजाबी में लिखीं थी, इन में से कुछ कविताएँ पंजाब और पश्चिमी पंजाब के समकालीन लेखन को एक जगह लाने की नियत से शुरू की गई पंजाबी पत्रिका ‘वाहगा’ में 2017 में छपी थीं. कवितायों का हिंदी में अनुवाद मैनें समालोचन के लिए किया है.” 


मोनिका कुमार
अंग्रेज़ी विभाग

रीजनल इंस्टीच्यूट ऑफ इंग्लिश
चंडीगढ़.

Tags: पंजाबी कविताएँमोनिका कुमार
ShareTweetSend
Previous Post

भाष्य : मुक्तिबोध : अन्तः करण का आयतन : शिव किशोर तिवारी

Next Post

गुरप्रीत की कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम

Related Posts

देवनीत की कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम सिंह
अनुवाद

देवनीत की कविताएँ (पंजाबी): रुस्तम सिंह

जसविंदर सीरत (पंजाबी): अनुवाद: रुस्तम
अनुवाद

जसविंदर सीरत (पंजाबी): अनुवाद: रुस्तम

राजविन्दर मीर की कविताएँ (पंजाबी) : अनुवाद : रुस्तम
अनुवाद

राजविन्दर मीर की कविताएँ (पंजाबी) : अनुवाद : रुस्तम

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक