जाना केदारनाथ सिंह का |
‘जब कोई कवि मरता है
पृथ्वी पर
सबसे पहले छलकती है
ईश्वर की आँख.’
(एक अरबी कविता, द्वारा उदय प्रकाश)
कवि केदारनाथ
अशोक वाजपेयी
वे इस समय हिन्दी के शायद सबसे जेठे सक्रिय कवि थे. कोमलकान्त पर सशक्त, सबसे अधिक पुरस्कृत पर विनयशील और आत्मीय, बहुतों के सहचर-मित्र, बहुतों के सहायक, बहुतों के दुःख-दर्द में शरीक. अपनी प्रतिबद्धता में स्पष्ट और दृढ़ पर उसे आस्तीन पर चढ़ाये सबको बार-बार दिखाने की वृत्ति से हमेशा दूर. मितभाषी पर इधर थोड़े अधीर. सार्वजनिक आयोजनों में बार-बार घड़ी देखते हुए पर समय पर अपनी पकड़ बनाये हुए. उग्रताहीन विकलता, संसार को लेकर अपार जिज्ञासा पर दूसरों पर फ़ैसला देने और अपने को उचित ठहराने की दयनीयता का अचूक अभाव. हिंदी कविता के अजातशत्रु: शायद ही किसी के बारे में कोई सख़्त-कड़ी बात कभी केदारनाथ सिंह ने कही हो. प्रगतिशील होते हुए भी अज्ञेय के निकट और उनके प्रशंसक. हाथ से कुछ कंजूस पर दिल से बेहद उदार.
वे उन कवियों में से थे जिनकी नागरिक आधुनिकता में कोई झोल कभी नहीं पड़ा पर जिन्होंने अपने ग्रामीण अंचल को कभी भुलाया नहीं. जैसे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को अपने बचपन की कुआनो नदी याद रही वैसे ही केदार को माँझी का पुल. उनकी कविताओं में तालस्ताय से लेकर नूर मियाँ जैसे चरित्र आवाजाही सहज भाव से करते रहे. वे उन आधुनिकों में से भी थे, ख़ासे-बिरले, जिन्होंने अपनी आरंभिक गीतिपरकता को कभी छोड़ा नहीं और उसे आधुनिक मुहावरे में तब्दील किया. उनकी कविता का बौद्धिक विश्लेषण होता आया है पर उन्होंने बौद्धिकता का कोई बोझ अपनी कविता पर कभी नहीं डाला.
उनसे पहली मुलाक़ात इलाहाबाद में 1957 में हुए साहित्यकार सम्मेलन में हुई थी. यह भी याद आता है कि उस समय वे ब्रिटिश कवि डाइलेन टामस, अमरीकी कवि वालेस स्टीवेन्स और फ्रेंच कवि रेने शा के प्रेमी थे. कुछ का अनुवाद भी उन्होंने किया था. अपने क़िस्म की सजल गीतिपरकता शायद उन्होंने इन कवियों की प्रेरणा में पायी होगी. उनके पहले संग्रह का नाम, जिसे इलाहाबाद से कथाकार मार्कण्डेय ने अपने प्रकाशन से छापा था, ‘अभी, बिल्कुल अभी’ था. उसकी ताज़गी और एक तरह की तात्कालिकता उनकी कविता में बाद में भी बराबर बनी रही. वे साधारण वस्तुओं, चरित्रों आदि को कविता में बहुत आसानी से लाकर काव्याभा से दीप्त कर देते थे. एक अर्थ में उनकी कविता हमेशा ही ‘अभी, बिल्कुल अभी’ बनी रही.
इसमें सन्देह नहीं कि केदारनाथ सिंह की कविता राग, संसार से आसक्ति, उसे उसकी विडम्बनाओं के बावजूद सेलीब्रेट करनेवाली कविता रही है. हिन्दी में उनकी पीढ़ी का शायद ही कोई और कवि ऐसा हो जिसकी कविता शुरू से अन्त तक सुगठित कविता है: उसमें कभी ढीलापन या अपरिपक्वता नहीं आये. एक बार मैंने उनसे शिकायत की थी कि
आप कविता को इस क़दर संयमित कर देते हैं कि उनमें आपके कच्चे-रिसते घाव कभी नज़र नहीं आते.
दिल्ली की साहित्यिक महफ़िलों के वे रूहे-रवाँ थे. हममें से बहुतों को उनका संग-साथ, उनकी ‘कम ख़र्च बाला नशीं’ यारबाशी कभी बिसरेगी नहीं. उनके गरमजोशी से भरे हाथ, उनकी जिज्ञासु और मुस्कराती आँखें, दुनिया को सुन्दर बनाने की उनकी ललक सब अविस्मरणीय रहेंगे.
84 वर्षों का उनका भौतिक जीवन समाप्त हुआ और उनकी कविता का दूसरा जीवन अब शुरू हुआ है – यह दूसरा जीवन उनके भौतिक जीवन से काफ़ी लम्बा चलेगा इसमें सन्देह नहीं.
‘कठिन दिन आने वाले हैं
बेहद लम्बे और निचाट दिन
जब तुम्हारी साइकिलों से उम्मीद की जाएगी
वे अपना संतुलन बनायें रखें.
(केदारनाथ सिंह)
मानवाधिकारवादी कविता के सिरमौर
जगदीश्वर चतुर्वेदी
गुरूवर केदारनाथ सिंह की मृत्यु मेरी निजी और सामाजिक क्षति है. मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा और उससे सारी जिंदगी बहुत बड़ी मदद मिली. मसलन, उनका अपने छात्रों के प्रति समानतावादी नजरिया और कक्षा को गंभीर अकादमिक व्यवहार के रुप में देखने की दृष्टि उनसे मिली. यह निर्विवाद सत्य है कि कविता पढ़ाने वाला उनसे बेहतरीन शिक्षक हिंदी में नहीं हुआ.
एक मर्तबा नामवर सिंह जी ने एम. ए. द्वितीय सेमेस्टर में कक्षा में कविता पर बातें करते हम लोगों से पूछा कि आपको कौन शिक्षक कविता पढ़ाने के लिहाज से बेहतरीन लगता है, कक्षा में इस पर अनेक छात्रों ने नामवर जी को श्रेष्ठ शिक्षक माना, मैंने तेज स्वर में इसका प्रतिवाद किया और कहा कि केदार जी अद्वितीय काव्य शिक्षक हैं. इस पर मैंने तीन तर्क रखे, संयोग की बात थी कि गुरूवर नामवर जी मेरे तीनों तर्कों से सहमत थे और यह बात केदार जी को पता चली तो उन्होंने बुलाया और कॉफी पिलाई और पूछा नामवर जी के सामने मेरी इतनी प्रशंसा क्यों की ? मैंने कहा कि छात्र लोग चाटुकारिता कर रहे थे, वे गुरु प्रशंसा और काव्यालोचना का अंतर नहीं जानते, वे मात्र काव्य व्याख्या को समीक्षा समझते हैं, मैंने इन सबका प्रतिवाद किया था. इसी प्रसंग में यह बात कही कि आपकी काव्यालोचना छात्रों में कविता पढ़ने की ललक पैदा करती है. इसके विपरीत अध्यापकीय समालोचना काव्यबोध ही नष्ट कर देती है.
केदार जी का सबसे मूल्यवान गुण था उनके अंदर का मानवाधिकार विवेक, कविता और मानवाधिकार के जटिल संबंध की जितनी बारीक समझ उनके यहां मिलती है वह हिंदी में विरल है.
उल्लेखनीय है हिंदी काव्य में कई काव्य परंपराएं हैं, मसलन्, प्रगतिशील काव्यधारा, शीतयुद्धीय काव्य धारा, अति-वाम काव्य धारा, जनवादी काव्य धारा, आधुनिकतावादी काव्य धारा आदि. इन सब काव्य धाराओं में मानवाधिकार की समग्र समझ का अभाव है. यही वजह है कि केदार जी उपरोक्त किसी भी काव्यधारा से अपने को नहीं जोड़ते.
हिंदी में लोकतंत्र के प्रति तदर्थवादी नजरिए से काफी कविता लिखी गयी है लेकिन गंभीरता से मानवाधिकारवादी नजरिए से बहुत कम कविता लिखी गयी है. यही बात उनको लोकतंत्र का सबसे बड़ा कवि बनाती है. यही वह बुनियाद है जहां से केदारनाथ सिंह के समग्र कवि व्यक्तित्व का निर्माण होता है.
शीतयुद्धीय राजनीति, समाजवाद के आग्रहों और आधुनिकता के दवाबों से मुक्त होकर लोकतंत्र की आकांक्षाओं, मूल्यों और मानवाधिकारों से कविता को जोड़ना बडा काम है. वे हिंदी के कवियों में से एक कवि नहीं हैं, बल्कि वे मानवाधिकारवादी कविता के सिरमौर हैं. आज के दौर में उनका जाना मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और आंदोलन की सबसे बड़ी क्षति है.
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(द्वारा अनिल त्रिपाठी) |
‘बस एक कोने में
पिछले तीन दिनों से पड़े थे वे
एक अथाह नींद में
गहन
प्रशांत
और उस अजब से युद्ध में
इतने अकेले
कि लगभग धीरोदात्त !’
(कंधे की मृत्यु : केदारनाथ सिंह )
जाना एक चिर युवाकवि का
विजय कुमार
मृत्य एक पटाक्षेप है. सारी मुलाकातों, वार्तालापों , गपशप, संवादों, बहसों, जिज्ञासाओं पर एक पूर्ण विराम. हिन्दी कविता में कुंवरनारायण जी के जाने के बाद अब केदारनाथ सिंह जी के निधन ने एक अजीब सी रिक्तता का बोध पैदा कर दिया है. वरिष्ठों की एक पीढी ही नहीं, उनके साथ उनका समय, उनकी तहज़ीब, उनकी संलग्नता सब कुछ हमारे बीच से चला जा रहा है. इस अनुभव को ठीक ठीक व्यक्त कर पाना मुश्किल है. पिछले लगभग पैंतीस वर्षों में उनसे मुलाकातों की अनेक सुन्दर स्मृतियां मन में बसी हुई हैं. जब भी उनसे बातचीत हुई, उनकी वह स्निग्ध सादगी, देसज खुलापन, निष्कपट्ता और उष्म छवि ने हमे्शा अग्रज कवि के प्रति मन में कुछ हिलोरें पैदा कीं. हमेशा लगा कि वे अपनी फितरत, अपने व्यक्तित्व, अपनी रुचियों, अपने लेखन में एक चिर युवा कवि हैं. किसी के इस ‘युवा’ होने को ठीक ठीक ठीक परिभाषित कर पाना थोड़ा सा मुश्किल काम है.
अभी फरवरी में अशोक वाजपेयी द्वारा रज़ा फाउंडेशन के ‘कवि समवाय’ कार्यक्रम में भाग लेने दिल्ली जाना था. अपनी कुछ अस्वस्थता के चलते मैं नहीं जा पाया. राजेश जोशी, अरुण कमल, अष्टभुजा शुक्ल और कुछ अन्य मित्र रज़ा फाउंडेशन के उस कार्यक्रम के बाद दिल्ली के मूलचन्द अस्पताल में केदारनाथ सिंह जी मिलने गये थे. ये लोग बता रहे थे कि उनकी दशा को देखकर सभी के भीतर एक गहरी उदासी सी छा गयी थी. लम्बे समय से वे बिस्तर पर थे. दवाइयों के असर से वे कुछ खा पी नहीं रहे थे, भूख मर गयी थी, बहुत निर्बल हो गये थे, ज़्यादातर समय चुप ही रहते थे पर फिर भी अस्पताल में इन सबको देखकर एक झीनी सी उमंग उनके चेहरे पर छा गयी थी. उनकी वहीं चिर परिचित निश्छल चिर युवा हंसी उनके चेहरे पर अभी भी किसी हद तक मौजूद थी. एक दूसरे दिन जब विष्णु नागर उनसे मिलने गये तो नागर जी का हाथ अपने हाथों में लिये देर तक वे खामोश रहे. उनकी खुशी, उदासी, अंतरंगता, उष्मा सब जैसे एक गहन चुप्पी में संवाद कर रही थी.
केदार जी में जिस निश्छलता, ताज़गी और तत्परता को हमेशा देखा , मुझे लगा कि ये सब बातें हमारे साहित्यिक परिदृश्य में उन्हें कदाचित सर्वाधिक जीवन्त और ‘प्रेजेंटेबल’ रचनाकार बनाती थीं. यह बात उनकी समग्र सौन्दर्य चेतना, उसमें निहित सरसता, माधुर्य , लोक के प्रति उनके एन्द्रिक रुझान, उनकी भाषा के टटकेपन, उनके काव्यपाठ की सुन्दर प्रस्तुतियों, परवर्ती पीढी से उनके आत्मिक संबंध, व्यर्थ के विवादों, सतही किस्म की स्मार्टनेस या चातुर्य से दूर रहने की आदत, युवाओं के प्रति सहज जिज्ञासा, अभिव्यक्ति की एक खास मुहावरेदार कसावट और सबसे बड़ी बात कि उनके एक खास तरह के ‘सेंस ऑफ ह्युमर’ में देखी जा सकती थीं. बहुत सुन्दर और आकर्षक व्यक्तित्व तो उनका था ही. उनके व्यक्तित्व में कुछ और भी विशेषताएं देखने को मिलती रहीं, जिनका ज़िक्र ज़रूरी है.
कुछ वर्ष पहले विष्णु नागर और मेरी एक अतंरंग बातचीत मुम्बई से निकलने वाली पत्रिका ‘चिन्तन दिशा’में छपी थी. एक जगह प्रसंगवश मैंने और नागर जी ने केदारनाथ जी की कविता को लेकर कुछ प्रश्न उठाये थे. कुछ दिनों बाद उनका फोन आया और लगे मुझे फटकार लगाने. उस फटकार में नि:संदेह एक आत्मीयता भी थी. मैं उनसे क्या बहस करता, हंसता रहा. कुछ ही देर में वे खुद भी हंसने लगे और साहित्य में असहमतियों को लेकर कुछ मज़ेदार चुटकुले सुनाने लगे.
दिल्ली जाने पर कुंवरनारायण और केदारनाथ सिंह दोनों वरिष्ठ कवियों से मिलना मुझे स्फूर्ति से भर देता था. व्यक्तिगत भेंट में कुंवरनारायण जी से तो उनके सारे स्नेह और आत्मीयता बावजूद हमेशा उम्र की एक खास दूरी और सामान्य औपचारिकता सी बनी रहती थी पर उनकी वैचारिक गहनता थी जो मुझे बहुत आकर्षित करती थी. लेकिन केदार जी बहुत खुले – खुले, देसज, शरारती, किस्सेबाज़ और मित्रवादी व्यक्तित्व लगते थे. वे जहां भी होते उम्र का फासला मिट जाता, छोटे-बड़ों की एक महफिल सी सज जाती. खूब खुलकर हंसते थे, किस्सागो थे, गपबाज़ थे. वे जब हंसते थे, मैं उनके उस अत्यंत सुदर्शन, जीवंत, बच्चों जैसे मुक्त हास्य और उष्मा से भरे चेहरे को निहारता रहता जो अक्सर उनके राजकमल पेपरबैक कविता संकलन के मुख्पृष्ठ या पत्रिकाओं में उनके बहुत सारे लेखों के साथ सुशोभित रहता था.
एक उत्फुल्लता सी बिखेर देते थे वे. उनसे बहुत सारी विनम्र असमतियां भी रहीं लेकिन मुझे याद नहीं आता कि वरिष्ठ होने के नाते उन्होंने कभी अपने किसी दृष्टिकोण या मत को आरोपित किया हो या सम्बन्धों में किसी किस्म की कटुता को आने दिया हो. असहमतियों पर कभी कभी कुछ समय के लिये रुष्ट हुए भी थे पर बहुत जल्दी फिर से कोमल हो गये थे. और यह बात मैं, विष्णु नागार या विनोद दास बहुत अच्छी तरह से जान गये थे, जिन्होंने कुछ अवसरों पर उनकी कविताओं पर अपनी समझ से कुछ सवाल उठाये, उन्हें कुछ देर के लिये खिन्न किया और फिर उन्हें मना भी लिया था. ‘अकाल में सारस’ कविता- संग्रह जब छपा था तो ‘वागर्थ’ पत्रिका में मैंने अपनी अधकचरी समझ के आधार पर उसकी कुछ आलोचनात्मक समीक्षा लिखी थी.
उसके कुछ समय बाद जब वे भोपाल में साहित्य परिषद के एक कार्यक्रम में उपस्थित थे तो मैं उनसे मिलने से कुछ कतरा रहा था कि पता नहीं हिन्दी के वरिष्ठ और बेहद सम्मानित कवि ने मेरी उस समीक्षा को कैसे लिया है. लेकिन वे तो सामने से आकर मुझसे उसी उष्मा और सदाशयता से मिले. बल्कि चायपान के समय वे अपने संग्रह ‘यहां से देखो’ में संकलित एक कविता ‘टूटा हुआ ट्रक’ (जो मुझे बहुत पसंद है) पर लिखी मेरी एक विवेचना का ज़िक्र वहां उन एक दो मित्रों से करते रहे जो वरिष्ठ कवि और मेरे बीच किसी टकराहट को पैदा कर उसका लुत्फ उठाने के चक्कर में थे. अभी दो वर्ष पहले जब मुम्बई में ‘परिवार’ संस्था ने उन्हें सम्मानित किया था तो मैं विशेष रूप से उन्हीं से मिलने उस कार्यक्रम में पहुंचा था. वे बेहद आत्मीयता और बेतकल्लुफी से मिले. डिनर के समय उन्होंने आग्रह पूर्वक मुझे अपने बगल की कुर्सी पर बैठाया था. खूब बातचीत करते रहे. तब यह गुमान नहीं था कि यह उनसे अंतिम मुलाकात होगी.
नयी कविता युग के ‘तीसरा सप्तक’ और ‘अभी बिलकुल अभी’ जैसे कविता – संग्रहों के बाद बीस साल की एक लंबी खामोशी के बाद अस्सी के दशक में केदार जी ‘ज़मीन पक रही है’ संग्रह में भाषा का एक नया मुहावरा लेकर आये थे पर अकादमिक जगत में उस परिवर्तन पर अभी अधिक बातें नहीं हुई हैं. कुंवरनारायण जी ने एक जगह केदारनाथ सिंह की कविता पर लिखते हुए एक बहुत दिलचस्प बात कही है. वे कहते हैं
“श्रेष्ठ कविता रिवाज़ी किस्म की समीक्षा को बिलकुल नहीं सह पाती है, उसे तत्काल खारिज़ कर देती है. केदार पर काफी लिखा जाता रहा है, लेकिन उनकी कविताओं का और धीर – विश्लेषण और गहन अध्य्यन ज़रूरी है.”
मैं तो यहां यह भी कहूंगा कि ‘मेरे समय के शब्द’ तथा ‘कब्रिस्तान में पंचायत’ जैसे निबंध संग्रहों में उनके गद्द्य की जो विशेषताएं हैं, उन पर भी अधिक बातें नहीं हुई हैं. और कविता में बिम्ब पर केदार जी का वह शोध ग्रंथ तो अप्रतिम है. इतना ही नहीं , हिन्दी कविता की उस पीढी में भाषा के भीतर सत्य की खोज, समय के अन्तर्विरोधों से पहचान, विडम्बनाओं और अन्यायों से पेश आने के रास्ते, स्मृति के इलाके और सौन्दर्य चेतना के अलग अलग धरातल तथा किसी बुनियादी जिजीविषा के रूप कविता की सत्ता को लेकर रघुवीर सहाय, कुंवरनारायण और केदारनाथ सिंह का जो एक एक महत्वपूर्ण त्रिभुज हिन्दी में बनता है कि वे कहां एक दूसरे स़े जुड़ते हैं और कहां अलग हो जाते हैं – उस पर भी अभी बहुत सी बातें आगे होनी हैं. निश्चित ही बातचीत के कुछ नये ‘रेफेरेंस पॉइंट्स’ बनेंगे. पर उस सब पर चर्चा करने का यह समय नहीं है.
अभी तो वरिष्ठ कवि के चले जाने से पैदा हुई इस बड़ी रिक्तता से हमें उबरना है. वे बहुत सारी चीजों के लिये हमें याद आते रहेंगे. और मैं यह मानता हूं कि वह सब लिखा जायेगा, जिसकी ओर कुंवरनारायण जी ने संकेत किया है.
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(द्वारा Sudeep Sohni) |
‘तो मैंने भागीरथी से कहा
माँ,
माँ का ख्याल रखना
उसे सिर्फ भोजपुरी आती है’
(केदारनाथ सिंह – जैसे दिया सिराया जाता है)
लोक और नागर संवेदना के बीच आवाजाही
विमल कुमार
आज से ३६ साल पहले जब मैं दिल्ली आया था तो दिल्ली विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में जो पहला कविता संग्रह मैंने पढ़ा था. वह ‘जमीन पक रही है’ था उन दिनों इस बात की बेहद चर्चा थी कि केदार जी का संग्रह बीस साल बाद आया है. हिन्दी के शायद ही किसी कवि ने अपने दूसरे संग्रह के लिए इतना इंतज़ार किया हो. लेकिन अब मेरे मित्र देवी प्रसाद मिश्र ने यह रिकार्ड भी तोड़ दिया है. बहरहाल केदार जी का वह दूसरा संग्रह था जिस से वे धूमकेतु की तरह हिन्दी कविता में लौटे थे.
मैं पटना में ही केदार जी की कवितायेँ तीसरा सप्तक में पढ़ चुका था. उन दिनों अज्ञेय के बाद रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और श्रीकांत वर्मा की ही चर्चा थी. तब केदार जी की उतनी चर्चा नहीं थी और उनका इतना बड़ा नाम भी नहीं था लेकिन जमीन पक रही हैं ने हिन्दी कविता का परिदृश्य उसी तरह बदला था जिस तरह श्रीकांत वर्मा के जलसाघर ने.
उन दिनों कविता की वापसी का नारा था. पहचान सीरीज की चर्चा थी. मंगलेश जी, उदयप्रकाश, विष्णु नागर, रब्बी, असद जैदी की पुख्ता पहचान बन रही थी . ऐसे में केदार जी के इस संग्रह ने मुझ जैसे युवा काव्य प्रेमियों के भीतर जबरदस्त उत्तेजना पैदा की. उनकी कविता में एक अजीब नशा और आकर्षण था. एक गज़ब चमक थी. एक नया शिल्प था. एक नया विस्मय था. लोक भी था और एक नागर संवेदना भी. उसमे एक नयी आधुनिकता और समकालीनता समाई हुई थी. एक नया काव्य मुहावरा भी. सुगठित शिल्प और कसाव भी था. मितकथन भी. उसमे कोई काव्य स्फीति या कोई झोल नहीं था.
उनकी कविताओं में संपादन की कम गुंजायश थी. चुस्त भाषा और बिम्ब प्रतीकों से अपनी बात कहने का सलीका भी. एक लोककथात्मक तत्व भी. कुल मिलकर वह एक ताज़ा कविता थी. उसमे अज्ञेय वाली बनावटी दार्शनिकता नहीं थी जिस से काव्य पाठक उबने लगे थे. इस तरह मेरे जीवन में केदार जी की कविता ने प्रवेश किया और घर बनाना शुरू किया. तब केदार जी बड़े कवि नहीं हुए थे आज की तरह. उन्हें वह ख्याति नहीं मिली थी. उन्हें तब कोई बड़ा पुरस्कार भी नहीं मिला था. उन दिनों उदय प्रकाश, अनिल जनविजय भारत यायावर, विनोद दास, स्वप्निल श्रीवास्तव केदार जी के प्रशंसकों में थे और धीरे -धीरे वह सूची लम्बी होती गयी. वैसे रघुवीर सहाय स्कूल के कवि भी उन्हें पसंद करते थे पर वे इनके प्रति थोडा क्रिटिकल भी थे.
केदार जी से मेरा परिचय बाद में हुआ. उनसे मिलने में मैं संकोच करता था. दरअसल पटना से बी. ए. करने के बाद जब दिल्ली आया तो लेखकों को लेकर एक अजीब भाव था. अज्ञेय, नरेश मेहता, जैनेन्द्र, शमशेर, त्रिलोचन, रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल का बड़ा नाम था. रांची में पढ़ते हुए नामवर सिंह, विद्यानिवास मिश्र, देवेन्द्रनाथ शर्मा को तुलसी पर एक सेमिनार में सुन चुका था. लेकिन दिल्ली के इन लेखकों को देखा सुना नहीं था. ऐसे में केदार जी के रचना कर्म से साक्षात्कार हुआ और केदार जी की समकालीनता से एक रिश्ता बना. इसलिए उनसे मिलने की उत्सुकता थी पर मिला जाये कैसे यह सवाल था.
उन्हें कार्यक्रमों में देखता था पर स्वाभाव से संकोची होने के कारण उनसे मिलने से झिझकता रहा. एक दिन रेलवे सलाहकार समिति की बैठक थी. मुझे पता चला कि केदार जी उस समिति के सदस्य हैं. दरअसल एक गरीब रेलवे कर्मचारी को भ्रष्ट्र अधिकारीयों ने मुअत्तल कर दिया था. उसने मालगाडी से माल चुराने के गिरोह को पकड़ा था. इस से नाराज़ होकर अधिकारियों ने उसे एक झूठे मामले में उल्टा फंसा कर उसे मुअत्तल कर दिया, तब उस गरीब आदमी ने अदालत का दरवाजा खटखटाया. वह रोज मेरे दफ्तर आता था खबर देने के लिए. लेकिन खबर देने से उसकी समस्या नहीं सुलझी. उसकी मदद के लिए मैं केदार जी से एक समारोह में मिला और उनसे अनुरोध किया कि क्या आप सलाहकार समिति की बैठक में उस गरीब कर्मचारी का आवेदन सीधे रेल मंत्री जार्ज फर्नांडीस को दे सकते हैं. मैंने अपना परिचय एक पत्रकार का ही दिया. उन्होंने कहा कि मैं पूरी कोशिश करूँगा. बात आयी गयी. बाद में पता चला कि वह गरीब कर्मचारी जार्ज से मिला और जार्ज उस की इमानदारी से बहुत खुश हुए और भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ जांच के आदेश दिए. यह २५ साल पुरानी बात होगी. अपने प्रिय कवि से मिलने का यह पहला उपक्रम था लेकिन उस औपचारिक मुलाक़ात में साहित्य संवाद नहीं था लेकिन मैं तो उनसे साहित्य संवाद के लिए मिलना चाहता था.
मेरे दफ्तर में एक प्रगतिशील कवि रामकृष्ण पाण्डेय थे जो अरुण कमल के बाल सखा थे, नंदकिशोर नवल ने पहली बार उदय प्रकाश अरुण कमल, श्याम कश्यप के साथ रामकृष्ण पाण्डेय को धरातल में छापा था. उस से इन कवियों की पहचान बनी थी पाण्डेय जी जे. एन. यू. के छात्र रह चुके थे. उन्होंने केदारनाथ अग्रवाल पर शोध किया था. उन्होंने ही मुझसे कहा कि चलिए एक दिन चलते है आपको केदार जी से मिलवाते हैं. यह मेरे लिए सौभाग्य की बात थी और मैं लोभ संवरण नहीं कर पाया.
एक दिन वह मुझे उनके घर ले गए तब उनकी छोटी बेटी रचना सिंह जो अब हिन्दू कालेज में शिक्षिका है ने दरवाज़ा खोला. हमलोग ड्राइंग रूम में बैठ कर इंतज़ार करते रहे. थोड़ी देर में केदार जी आये. पाण्डेय जी ने उनसे मेरा परिचय करवाया और कहा कि ये विमल कुमार हैं. कवितायेँ लिखते हैं. केदार जी ने कहा कि लेकिन ये तो अरविन्द कुमार हैं , मुझ से मिल चुके हैं. तब पाण्डेय जी ने कहा कि दफ्तर में इनका नाम अरविन्द ही है लेकिन आपको विमल के रूप में मिलवाता हूँ. केदार जी की बातचीत से आभास हुआ कि उन्होंने मेरी कवितायेँ किसी न किसी पत्रिका में पढी थी. वे दिल्ली में मेरे लिए पहले लेखक थे जो मुझे मेरी रचना से जानते थे. यह बात मैंने बाद में भी देखी कि वह नए से नए कवियों को पढ़ते और जानते थे. नए कवियों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी. यह उनके वक्तव्यों, भेंटवार्ताओं से भी पता चला.
कुमार अम्बुज, एकांत, निलय, बद्री नारायण सभी केदार जी से मिलते थे. १९९२मे जब अम्बुज का पहला संग्रह आया तो उसका ब्लर्ब केदार जी ने ही लिखा था और उनके घर से वह ब्लर्ब मैं ही लेकर आया और गांधी नगर के इलाके में प्रेस में जाकर दिया था. इस तरह उनकी लिखावट देखने का मौका भी मुझे पहली बार मिला. इस तरह फ्हीरे धीरे उनसे सम्पर्क हुआ लेकिन मैं उनसे खुल नहीं पाया. एक संकोच और दूरी बनी रही. रचना की शादी में उन्होंने मुझे खुद फोन कर आमंत्रित किया था. लेकिन वे मुझको रघुवीर सहाय स्कूल का समझते रहे शायद .
इस घटना से यह बताना चाहूँगा कि वह नयी पीढी के साथ संवाद बनाना चाहते थे लेकिन धीरे धीरे खुल् ते थे. हालाँकि मैं कभी उनके निकट नहीं हो पाया पर उनकी कविता के निकट जरुर रहा. इसका एक मात्र कारण उनकी कविताओं की समकालीनता और रूमानियत है. वे निराला के आराधक थे और त्रिलोचन को अपना काव्यगुरु मानते थे. विदेशी कविता के गंभीर अध्येता भी. विजय मोहन सिंह उनके बारे में बताते थे. बनारस के लेखकों से उनका गहरा नाता था. वे पुरबिया लोगों से अधिक जुड़ते थे. ग़ालिब मीर के वे गहरे प्रेमी थे. उनमे समकालीनता प्रगतिशीलता आधुनिकता और क्लासिकता समाई हुई थे इसलिए उनकी कविता इकहरी नहीं थी पर उनपर यह भी लोग आरोप लगते रहे कि वे कविता बुनते हैं. उनका काव्य कौशल से संचालित है.
जमीन पक रही है के बाद मैं उनकी हर रचना जरुर पढता था. उनकी कुछ कविताओं का बिम्ब आज भी मेरे मन में कैद है. टूटा हुआ ट्रक तो सामने जीवित खड़ा हो गया. वे एक पूरा दृश्य रच देते थे. जब उन्होंने साखी और शब्द निकला तो मुझसे मेरी कवितायेँ माँगी. इस से मुझे अत्यंत प्रसन्नता हुई. केदार जी से कभी कभार ख़बरों प्रतिक्रिआओं के लिए फोनपर बात होती रहे. दो तीन बार साकेत वाले फ्लैट में भी गया लेकिन मैं उनसे अधिक निकट नहीं हो सका.
बहरहाल वे शांत और विनम्र नज़र आते थे. किसी के बारे में विरोधी बाते नहीं करते थे. अज्ञेय त्रिलोचन के किस्से जरुर सुनाते थे. कुछ सालों में उनके कई संग्रह आये और उनकी कवितायेँ परवान चढी. वे अपने काव्य व्यक्तित्व को लेकर काफी सजग थे. उनके साथ कई अवसरों पर कवितायेँ पढने के अवसर मिले. एक दो बार रेल यात्रा में भी साथ रहे अलग अलग डिब्बों में.
केदार जी के पाठकों की संख्या बढ़ती गयी. उनकी कविता का जादू उसी तरह लोगों के मैन पर था जिस तरह कथा साहित्य में निर्मल वर्मा का जादू लोगों के सर पर सवार था. रघुवीर सहाय का जादू उस तरह नहीं था. वे रोमानी कवि नहीं थे.
केदार जी लोक और नागर संवेदना के बीच आवाजाही करते रहे. उनकी प्रगतिशीलता में शोर नहीं था. वह एक मद्धम आंच की तरह थी. अकाल में सारस आया तो मेरे दिवंगत मित्र नीलाभ ने उस पर रएक लम्बा लेख लिखा. केदार जी ने मुझसे नीलाभ के बारे में पूछा था. नीलाभ ने बाघ पर भी एक लेख लिखा था. बाघ कविता मुक्तोबोध के अँधेरे में के बाद लम्बी कविताओं में महत्पूर्ण है. वह एक आधुनिक सभ्यता विमर्श की कविता है. जबकि कामायनी प्राचीन सभ्यता विमर्श की कविता थी, अज्ञेय निर्मल वर्मा के बाद सभ्यता विमर्श बाघ में ही नज़र आता है. यह उनकी सभी कविताओं का निचोड़ है और उनके काव्य का उत्कर्ष भी है.
केदार जी का मैं कभी छात्र रहा नहीं इसलिए उनके शिक्षक व्यक्तित्व से अपरिचित था. वे पिछले चार सालों से देश की राजनीतिक स्थिति से उद्विग्न थे. लेकिन पुरस्कार वापसी में वे खुलकर नहीं आये पर जब मैंने उनको फोन किया तो वे बोले कुंवर नारायण, अरुण कमल और मैं एक संयुक्त बयां जारी कर रहे हैं. आप अरुण कमल से बात कर लें वे एक बयान जारी कर रहे हैं. उस बयां पर उन लोगों ने मेरा नाम भी जोड़ दिया. उसमे मोदी सरकार की आलोचना तो थी इसलिए मैंने उसमे अपना नाम जाने दिया. वह फिर जारी हुई लेकिन मैं चाहता था कि जिस तरह अशोक वाजपेयी खुलकर सामने आये वे भी आते लेकिन शायद उनका यह स्वाभाव नहीं था.
कृष्ण बलदेव वैद प्रसंग में मैंने पुरुषोत्तम अग्रवाल जी, प्रियदर्शन ने हिन्दी अकेडमी का सम्मान वापस किया तो केदार जी के शलाका सम्मान लौटने से हमें बल मिला और खुशी हुई. वे मोदी की उपस्थिति में समारोह में भाग लेना नहीं चाहते थे. जब नेमाडे के ज्ञानपीठ समारोह में नामवर जी मोदी के सानिध्य में मंच पर उपस्थित होने वाले थे तो मैंने केदार जी से पूछा कि क्या आप उसका बहिष्कार करेंगे या जायेंगे. मैं दरअसल अपनी खबर की तलाश में था. मुझे लगा कि अगर एक ज्ञानपीठ विजेता ज्ञानपीठ के समारोह में मोदी के कारण नहीं जाये तो बड़ी खबर हो जायेगी.
वे बोले मैंने ज्ञानपीठ वालों से बहाना बना लिया है मैं उस दिन रहूंगा ही नहीं. उन्होंने यह भी कहा कि मैं तो यही चाहता था कि नामवर जी भी न होते लेकिन यह उनका निर्णय और उन्होंने ज्ञानपीठ को अपनी स्वीकृति दे दी है. केदार जी, नामवर जी से थोडा भिन्न थे. उनमे आत्मावलोकन और द्वंद्व का भी भाव था. शयद इसलिए उन्हें लोग प्यार करते थे. लेकिन मैं अपने प्रिय कवि को निराला नागार्जुन, त्रिलोचन की तरह देखना चाहता था. यह मेरी गलती थी क्योंकि हम सब मध्यवर्ग से आने वाले लोग है और मध्यवर्गीय आकांक्षा लिए होते हैं लेकिन उनके भीतर ही हम सत्ता समाज और अपनी अंतरात्मा से भी लड़ते हैं. केदार जी इन तीनों स्तर पर अपनी कविता में जरुर लड़ते रहे. हमें कवि की कविताओं के जरिये ही उस तक पहुंचना चाहिए. जीवन जीने के अनेक झमेले होते हैं.
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‘चुप्पियाँ बढ़ती जा रही हैं
उन सारी जगहों पर
जहाँ बोलना जरूरी था
बढ़ती जा रही हैं वे
जैसे बढ़ते बाल
जैसे बढ़ते हैं नाख़ून
और आश्चर्य कि किसी को वह गड़ती तक नहीं’
(केदारनाथ सिंह – चुप्पियाँ)
मानवीय प्रतिरोध के विराट कवि का जाना
ज्योतिष जोशी
केदारनाथ सिंह हिंदी की आधुनिक कविता के वे स्वर रहे जो कभी मद्धिम न हुए. गांव के ताप से बनी उनकी कविता सदा मनुष्यता का पक्ष लेती रही और मनुष्य को सदैव जाग्रत किये रही. उनकी कविता का वितान बहुत बड़ा है जिसमें हम अपनी जिजीविषा के साथ उस ऊर्जस्वित संकल्प को देख सकते हैं जिसमें दुनिया को बदल डालने और उसे रहने लायक बना सकने की हार्दिक आकांक्षा है. यह कविता विराट को सहज भाव से ग्रहण करने की उक्ति से जन्मती है जो हमारे मन प्राण को अनायास ही बांध लेती है. यह कविता निसर्ग की कविता है जिसमें हम अपनी ही तात्विक संरचना में जा मिलते हैं और एक बार फिर जी लेते हैं. प्रेम हो या विराग, जीवन हो या मृत्यु, संघर्ष हो या विराम, यह कविता संसार हमें अधिकाधिक जिम्मेदार और सजग बनाता है और हमें सतत एक जाग्रत बोध से सम्पन्न करता है. सहज भाषा की लोक लय में निबद्ध यह कविता जितनी मारक है उतनी ही बोधगम्य भी, क्योंकि इसमें एक पूरी संस्कृति की कथा है और उसके विषाद का कारुणिक वृत्तान्त भी.
हिंदी कविता को बिम्बों की चित्रमयता को व्यंजक मुहावरों में रखने की जो कुशलता केदारनाथ सिंह ने दिखाई वह कदाचित पिछले पचास साल की कविता में किसी और कवि के यहां पाना दुर्लभ ही रहा. यह अकारण नहीं है कि हिंदी की समकालीन कविता की पूरी तीन पीढ़ियों पर उनका जैसा प्रभाव रहा, किसी और कवि का न रहा. अपनी कविता में एक समग्र सांस्कृतिक विमर्श को खड़ा करते केदारनाथ सिंह हिंदी कविता को जिस ऊंचाई पर ले जाते हैं, उसमें हम भारतीय कविता की समवेत पुकार सुन सकते हैं जिसमें एक मुनादी होती है और सहसा हम ठहर से जाते हैं. यह मुनादी किसी भी चीज का अंत नहीं मानती. वह बार बार आरम्भ की बात करती है और अंत को मुहावरे से ज्यादा कुछ नहीं मानती जिसे शब्द अपने विस्फोट में उड़ा देते हैं. पर कच्चा सा आदिम मिट्टी सा आरम्भ सदा बचा रह जाता है. वह कभी खत्म नहीं होता.
उनकी एक कविता है-
अंत में मित्रो,
इतना ही कहूँगा
कि अंत महज एक मुहावरा है
जिसे शब्द हमेशा
अपने विस्फोट में उड़ा देते हैं
और बच रहता है हर बार
वही एक कच्चा – सा
आदिम मिट्टी जैसा ताजा आरंभ.
कहना न होगा कि अंत को नकारकर बार बार आरम्भ की मुनादी करता यह कविता संसार मानवीय संकल्प और उसकी ऊर्जस्वित चेतना की गवाही देता है. अपनी विराट काव्य संकल्पना में कवि केदारनाथ सिंह समूची भारतीय काव्य परम्परा में उन मूर्धन्यों में सहज ही शामिल हो जाते हैं जिनके होने में हम धन्यता का अनुभव करते हैं और अपने जी सकने को कोई मानवीय अर्थ देना चाहते हैं. हम केदारनाथ सिंह के युग में हो पाए इसका धन्यताबोध तो हमें है ही. ऐसे शलाका भारतीय कवि को हमारी प्रणति..
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‘रंग गंदुमी नाटा
फिरता है सड़कों पर
खुद से कटा-कटा सा
जाने क्या बकता है
भोजपुरिया में रोता है’
हिंदी में हंसता है’
(केदारनाथ सिंह – गुमशुदा कवि)
पुरबिहा
हृषीकेश सुलभ
उनसे मिलना, उनके निकट होना मुझे हमेशा आत्मदीप्ति से भर देता था. वे जब पास होते उनके निर्मल व्यक्तित्व का आलोक मेरे भीतर पैठता, और मैं एक उजास से भर जाता. उनके बोलने में एक आर्द्र स्पंदन था. उनके शब्द मेरे भीतर उतरते हुए एक अनूठे संसार की रचना करते, धूप के नन्हें-नन्हें द्वीप होते, पेड़ों की गझिन छाँह होती, और होतीं तरह-तरह की ध्वनियाँ. सब एक साथ. मैं शिशु होता और और वे मेरे भीतर आश्वस्ति का भाव भरते मेरे पुरखा होते. अक्सर मैं उन्हें एक टक निहारता. बोलता न के बराबर. वे बोलते और और जिज्ञासु बनाते जाते. मेरे भीतर का कंकड़-पत्थर सब पिघलता. मैं उनकी ऊँगली पकड़ वहाँ पहुँचता, जहाँ से जीवन निःसृत होता है. उनकी कविताएँ गहन संकट-काल में साथ रहतीं. आज भी, अभी, जब वे नहीं हैं, उनकी कविताएँ उनके लोप को,उनकी अनुपस्थिति को, उनके न होने को झुठला रही हैं.
“सिर्फ़ चक्की चलती रही
और माँ की आवाज़ आती रही
रात भर “
ठीक वैसे ही बीती हुए रात के गहन सन्नाटे में उनकी कविताओं के शब्द तैरते रहे और उनकी आवाज़ आती रही.
उन्होंने रोने नहीं दिया. छिन भर भी आँखों को नम नहीं होने दिया. रात भर बतकही करते रहे भोजपुरी में.
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‘जाने कैसी बनैली प्रजाति की लतर है
किसी राष्ट्रीय उद्यान में
खिलती ही नहीं’
(केदारनाथ सिंह – कविता)
भाषा और मनुष्य के गहरे और जटिल रिश्ते की पड़ताल
आशुतोष कुमार
मुक्ति का जब कोई रास्ता नहीं मिला
मैं लिखने बैठ गया हूँ
मैं लिखना चाहता हूँ ‘पेड़’
यह जानते हुए कि लिखना पेड़ हो जाना है
मैं लिखना चाहता हूँ ‘पानी’
‘आदमी’ मैं लिखना चाहता हूँ
एक बच्चे का हाथ
एक स्त्री का चेहरा
मैं पूरी ताकत के साथ
शब्दों को फेंकना चाहता हूँ आदमी की तरफ
यह जानते हुए कि आदमी का कुछ नहीं होगा
मैं भरी सड़क पर सुनना चाहता हूँ वह धमाका
जो शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होता है
यह जानते हुए कि लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ.
क्या मुक्ति शीर्षक की इस कविता का कवि सचमुच यह जानता है कि लिखने से कुछ नहीं होगा? फिर भी वह लिखना चाहता है तो क्यों? आखिर कोई कविता क्यों लिखता है? कविता बिना शक भाषा में की जाने वाली एक कार्रवाई है, लेकिन इस कार्रवाई से होता जाता क्या है? शब्दों का एक खेल? एक मनोरंजन या और भी कुछ?
आजकल भाषा विज्ञान का बड़ा जलवा है. हमें बताया गया है कि भाषा सच्चाई को जानने और बताने का एक माध्यम मात्र नहीं है. वह तो दरअसल सच्चाई को बनाने का और जरूरत पड़ने पर बिगाड़ने का जरिया है. सच्चाई का खुद कोई वजूद नहीं है. वह तो भाषा की एक निर्मिती है. इसलिए मनुष्य भी भाषा की ही एक निर्मिती है. भाषा के बाहर मनुष्य का न कोई अर्थ है, न अस्तित्व. यूं मनुष्य अपनी ही रची हुई भाषा के सामने इस कदर असहाय है, जैसे वह स्वयं द्वारा कल्पित ईश्वर के सामने होता है.
केदार नाथ सिंह की कविता की ढेर सारी खूबियों की चर्चा की जाती है. इस बात पर कम ध्यान दिया गया है कि भाषा और मनुष्य के गहरे और जटिल रिश्ते की पड़ताल उनके कवि कर्म की बुनियादी प्रेरणाओं में से एक है. उनकी कविता उस भाषाई नियतिवाद को चुनौती देती है, जो मानता है कि मनुष्य भाषा का एक खिलौना मात्र है. दूसरी तरफ वह उस नजरिए को भी नामंजूर करती है, जो भाषा को मनुष्य के खिलवाड़ का इलाका घोषित करती है.
ऊपर दी गयी कविता केदारजी की रचना प्रक्रिया का भेद खोलने वाली कविता है. कविता शब्द और आदमी की टक्कर से पैदा होने वाला धमाका है, एक ऐसा बेआवाज धमाका, जिससे कोई क्रान्ति भले ही न हो, लेकिन वह मनुष्य और भाषा दोनों को कहीं कुछ तोड़ता और तब्दील करता है. केदार नाथ की शक्ति यह है कि वे भाषा के एक दूसरे से उलट दोनों आयामों को समझते हैं. वह मनुष्य की आत्मा की कोख है, तो उसकी जबान कैद कर लेने वाली जंजीर भी.
मातृभाषा के बारे में उनकी मशहूर कविता यों है-
जैसे चींटियाँ लौटती हैं
बिलों में
कठफोड़वा लौटता है
काठ के पास
वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक
लाल आसमान में डैने पसारे हुए
हवाई-अड्डे की ओर
ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूँ तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा
लेकिन कवि यह देख कर हैरान है की जो भाषा के सब से बड़े जानकार हैं, वे ठीक उस वक्त खामोश रह जाते हैं, जब बोलना निहायत जरूरी होता है –
बिजली चमकी , पानी गिरने का डर है
वे क्यों भागे जाते हैं जिन के घर हैं
वे क्यों चुप है जिनको आती है भाषा
वह क्या है जो दिखता है हरा हरा -सा
जैसे घर एक शरणस्थली है और एक बंदीगृह भी, वैसे ही भाषा भी है. केदारजी वस्तुओं की स्वायत्तता का सम्मान करने वाले कवि हैं. दरअसल वे उस जमाने के कवि हैं, जिसमें कवियों को यह मुगालता नहीं रह गया है कि वे वस्तुओं को अपने मन माफिक उलट पलट सकते हैं, बदल सकते हैं. संसार जहां है, वहाँ है, मनुष्य उस का नियंता नहीं है, जैसे कि आधुनिक वैज्ञानिक मनुष्य को कभी लगता था.
लेकिन मनुष्य अपने रचे इतिहास के हाथों अपने कर्तापन को पूरी तरह गंवा चुका हो, ऐसा भी नहीं है. जैसे दुनिया के साथ है, वैसे ही भाषा के साथ भी है. भाषा अपनी स्वायत्तता में कितनी कठोर और तटस्थ हो, मनुष्य के साथ अपनी अंतरंगता में वह कविता में तब्दील होने के लिए बाध्य होती है. केदार जी निरपेक्ष संसार के साथ ऐसी ही मानवीय अंतरंगता को रेखांकित करते हुए अपनी कविता उपलब्ध करते है.
यह कोई कोमल मधुर संगीतमय संसार नहीं है, जैसा कि कुछ लोग समझाते हैं, वहाँ जीवन की सारी जटिलताएं हैं. प्रेमकविता की पंक्तियों के बीच हत्याओं के सुराग मिलते हैं. बनारस के सारे मिथकीय रहस्य को भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन तोड़ता है. उनकी कविता में सारस का दिखना किसी स्वर्गीय सरोवर के आसपास होने का संकेत न हो कर उस अकाल का संकेत है, जिसका साया समकालीन मनुष्य की नियति पर पड़ा दीखता है. लेकिन केदारजी सभ्यता के इस संकट को एक ठेठ हिंदी कवि की तरह कहते हैं-
मेरी भाषा के लोग
मेरी सड़क के लोग हैं
सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग
पिछली रात मैंने एक सपना देखा
कि दुनिया के सारे लोग
एक बस में बैठे हैं
और हिंदी बोल रहे हैं
फिर वह पीली-सी बस
हवा में गायब हो गई
और मेरे पास बच गई सिर्फ मेरी हिंदी
जो अंतिम सिक्के की तरह
हमेशा बच जाती है मेरे पास
हर मुश्किल में.
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(द्वारा Virendra Sarang) |
‘अब किससे पूछूँ
यह मेरा तो नहीं
आखिर किसका समय है’
जो बजता रहता है मेरी घड़ी में ’
(केदारनाथ सिंह – समय से पहली मुलाकात)
कवि का विज्ञान
देवेन्द्र मेवाड़ी
कवि और विज्ञान? हां, उस दिन कवि केदारनाथ सिंह ने विज्ञान के बारे में बातें की थीं. दिन था 12 अक्टूबर 2012. विज्ञान प्रसार की ओर से जीवन में विज्ञान और वैज्ञानिक सोच पर बातचीत चल रही थी. पंकज बिष्ट, प्रेमपाल शर्मा, गौहर रजा, डा. ओम विकास, डा. रणजीत साहा, डा. सुबोध महंती और अन्य वैज्ञानिकों की संगत थी. वे सभी की बातें बड़े गौर से सुन रहे थे. बातें कि समाज में सकारात्मक परिवर्तन के लिए विज्ञान जरूरी है, कि वैज्ञानिक सोच को बढ़ाने की जिम्मेदारी हम सभी की है, कि जब वैज्ञानिक जागरूकता बढ़ेगी तभी अंधविश्वासों का अंधेरा दूर होगा.
फिर कवि ने कहा. कहा कि आज मैं विज्ञान की बातें सुनने, सीखने और समझने आया हूं. कहा, जब छात्र था तो ‘टू कल्चर्स’ यानी दो संस्कृतियों की बड़ी चर्चा थी. अंग्रेज चिंतक और उपन्सासकार सी.पी. स्नो ने यह बहस छेड़ी थी कि साहित्य और विज्ञान दो अलग संस्कृतियों के रूप में आगे बढ़ रहे हैं लेकिन इनके बीच का फासला लगातार बढ़ता जा रहा है. यह तब भी चिंता का विषय था और आज भी है. कवि ने कहा, वैज्ञानिक सोच बढ़ाने के लिए विज्ञान का पूरा प्रतिबिंबन जरूरी है.
उन्होंने कहा कि यह बात आज हमें चकित करती है कि हिंदी विज्ञान लेखन को 100 वर्ष से अधिक हो चुके हैं. वह भी एक समय था जब चंद्रधर शर्मा गुलेरी ‘सरस्वती’ में ‘आंख’ पर लेखमाला लिख रहे थे. वे इतने मेधावी थे कि बचपन में ही पूरी गीता सुना दी. पूछा गया- क्या चाहिए तो बोले, लड्डु! बच्चे में बचपन जीवित था. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी को फलित ज्योतिष में विश्वास नहीं था. गुरू के लेख की आलोचना व्योमकेश शास्त्री के छद्म नाम से की. गुरू का पत्र मिला- तुम्हारा लेख पढ़ा, तर्कपूर्ण था लेकिन नाम छद्म क्यों? सदा सच के साथ खड़े रहो.
कवि केदारनाथ सिंह ने विज्ञान प्रसार से डा. शिव गोपाल मिश्र के संपादन में प्रकाशित ‘हिंदी में विज्ञान लेखन के सौ वर्ष’ ग्रंथ की सराहना की. कहा, इससे वैज्ञानिक चेतना के विकास का पता लगता है. यह भी कहा कि वैज्ञानिक जागरूकता इतनी फैले के भाषा और धर्म के भेद मिट जाएं. अगर समाज में ऐसी जागरूकता होती तो अयोध्या की दुर्भाग्यपूर्ण घटना न घटती. इसलिए भी साहित्य और विज्ञान के बीच का फासला कम होना जरूरी है.
राहुल सांकृत्यायन में विज्ञान की यह चेतना थी. ‘वोल्गा से गंगा तक’ और ‘बाइसवीं सदी’ में यह दिखाई देती है. महावीर प्रसाद द्विवेदी नई वैज्ञानिक प्रगति की बातें तुरंत ‘सरस्वती’ में प्रकाशित करते थे. हिंदी में विज्ञान की जानकारी आम लोगों तक इसी तरह निरंतर पहुंचनी चाहिए.
कवि के शब्दों में वे आम लोग:
मेरी भाषा के लोग
मेरी सड़क के लोग हैं
सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग
(केदारनाथ सिंह)
कवि को नमन और विदा. अलविदा.
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(द्वारा Sushil Krishnet) |
‘हर गिरा खून
अपने अंगोछे से पोंछता
मैं वही पुरबिहा हूँ
जहाँ भी हूँ’
(केदारनाथ सिंह – एक पुरबिहा का आत्मकथ्य)
हाथ की तरह गर्म और सुन्दर
पंकज मोहन
१९७३-७४ में जब पटना विश्वविद्यालय के प्राध्यापक प्रोफेसर नन्द किशोर नवल ने अपने एक व्याख्यान में कहा की केदारनाथ सिंह छायावादोत्तरकाल के सर्वश्रेष्ठ कवियों में पांक्तेय हैं, मैंने उनकी कविताओं को ध्यान से पढ़ना शुरू किया. उनके कवि जीवन की एक प्रारभिक कविता ‘पारिवारिक प्रश्न’ से मैं विशेष रुप से प्रभावित हुआ.
छोटे से आंगन में, मां ने लगाए हैं,
तुलसी के बिरवे दो
पिता ने उगाया है
बरगद छतनार,
मैं अपना नन्हा गुलाब कहां रोप दूं.
मुठ्ठी में प्रश्न लिए दौड़ रहा हूं.
वन-वन, पर्वत-पर्वत
रेती-रेती बेकार.
तुलसी में माँ के आँचल का दूध और आँखों का पानी अनुस्यूत है, तुलसी के बिरवे नारी की आस्था, विश्वास और वत्सल भाव के प्रतीक हैं. छतनार बरगद से पिता के पुरुषार्थ का बोध होता है जिसकी छत्र छाया में बच्चे बढ़ते हैं, धूप और बारिश से बचते हैं और फिर गृह- जीवन के सोपान पर चढ़ते हैं. लेकिन इस कविता में कवि ने जिस तीव्रता से यौवन, सौंदर्य और नूतन भावों के नवोन्मेष के प्रतीक गुलाब को आँगन में रोपने की बेचैनी व्यक्त की है, उसने मेरे किशोर मन पर गहरी छाप छोड़ दी.
1976 की जुलाई मे मैंने जेएनयू के स्कूल ऑफ़ लैंग्वेजेज में दाखिल लिया, और संयोग से उसी साल केदार जी भी जेएनयू में भारतीय भाषा केंद्र के प्रोफेसर बनकर आये. चूँकि मैं हिंदी का छात्र नहीं था, उनकी कक्षा में बैठकर उनसे औपचारिक रूप से हिंदी साहित्य के बारे में जानने समझने का अवसर नहीं मिला, फिर भी कवि सम्मलेन या सार्वजनिक व्याख्यान में उनको सुनता था. कभी- कभी उनसे बातचीत भी हो जाती थी. 1977-1978 मे उनके अनुरोध पर मैंने उनके सुपुत्र सुनील को शाम मे एक घंटा अंग्रेजी पढाना शुरू किया, इसलिए उनसे आत्मीयता बढी. उनका व्यक्तित्व अत्यंत ही सरल-तरल था, अहंकार या कलुष-कल्मष से निर्लिप्त थे, दूसरों के दुःख से करुणा-विगलित होने वाले विमलकीर्ति थे.
JNU आने पर मैं उनकी काव्य कृतियों को गहराई से पढ़ने और समझने का प्रयास किया. मुझे लगा कि वे काव्य-रचना के क्षेत्र में उतरने से पहले उन्होंने अथक साहित्य साधना की है. पहले उन्होंने पूर्ववर्ती और समकालीन कवियों की काव्यगत विशेषताओं की समग्र दृष्टि प्राप्त की, भाव के अनुकूल ढलने वाली लोकभाषा का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया.
केदारजी के पीएचडी शोध प्रबंध का विषय था “आधुनिक हिंदी काव्य में विम्ब विधान” जिसमे उन्होंने यह सिद्ध किया कि प्रसाद, निराला और पंत जैसे छायावाद के वृहतत्रयी ने शब्दों को रूढ़ परम्परा की कारा से मुक्त कर उन्हें आधुनिक जीवन के यथार्थ से जोड़ा जिससे उनमे नया निखार आया, उन्होंने यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि “मानव जलधि रहे चिर चुम्बित /मेरे क्षितिज उदार बनो” में अमूर्त क्षितिज नूतन अर्थ भंगिमा के साथ मूर्त हो उठता है. केदारजी ने भी क्षितिज शब्द को जीवन की वास्तविकता के संदर्भ से जोड़कर प्रयुक्त किया है :
“ज़रूरी है
हम जहाँ हों,
वहाँ से दिखता रहे
वह झिलमिलाता क्षितिज
जो केवल हमारा है”
सहज मानवीय संवेदनाओं के उच्छवास के स्वर के लिए केदारजी ने जैसे बिम्ब गढे हैं, और ग्रामीण तथा शहरी परिवेश के अपने अनुभवों के आधार पर जिन कालजयी कविताओं का सृजन किया है, वे हिंदी साहित्य के अनुपम धरोहर हैं. केदारजी के काव्य का उपजीव्य था ग्रामीण जनजीवन की उष्मा और ऊर्जा, लेकिन वे महानगर के प्रभाव के फलस्वरूप कुंद और कुंठित ग्रामीण संवेदना को भी कविता में उतारते थे और जीवन के शाश्वत मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए भी प्रयत्नशील थे. उनकी चिंता थी कि दुनिया हाथ की तरह नरम और सुन्दर हो ( “उसका हाथ/ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/ दुनिया को/ हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिए’ (हाथ – 1980).
जब तक भारत में नीम के पत्ते झड़ेगें, खेतों में रंगीन सरसो के फूल ढलेंगे, और खेतों के चेहरे की आभा बुझेगी, हम उदास मन से यह सोचेगें कि धरती को प्यार से सजाने और संवारने वाले केदारजी को ईश्वर ने क्यों स्वर्ग काव्य-कानन में बुला लिया ?
करीब चार मास पूर्व जब इन्डिया इन्टरनेशनल सेंटर भे उनसे मिला था, पुराने दिनों की सुधि आयी थी, सुख हुआ था. यही उनका अंतिम दर्शन था. उनकी स्मृति की बेदी पर अश्रु -सिक्त श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ .
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(द्वारा – Divik Ramesh) |
‘और मेरे पास रह गयी सिर्फ़ मेरी हिंदी
जो हमेशा बच जाती है मेरे पास
हर मुश्किल में’
(केदारनाथ सिंह – हिंदी)
गुरुवर केदारनाथ सिंह
प्रज्ञा पाठक
मुझे याद नहीं कि मेरा उनसे परिचय हिंदी के कवि के रूप में पहले हुआ था, या संध्या दी के पिता के रूप में. मैं बसंत कॉलेज, राजघाट में बी.ए. की विद्यार्थी थी. इसी समय हमें पढ़ाने के लिए एक नयी अध्यापिका आयीं. ये संध्या दी थीं. केदारनाथ सिंह की बेटी और बच्चन सिंह की बहू. हमारे विभाग द्वारा उनका परिचय इसी रूप में कराया गया था. क्लास की लड़कियों को किसी की बहू -बेटी से क्या मतलब? पर लड़कियों को वो अच्छी लगीं. युवा और अध्यवसायी शिक्षक को विद्यार्थियों में अपनी पंहुच बनाने में देर भी क्या लगनी थी. हालत ये हुई कि बी.ए. के तीसरे साल तक पहुँचते -पंहुचते हमारे लिए हर समस्या का समाधान संध्या दी हो चलीं थीं. पाठ्यक्रम से इधर- उधर जब भी वे कुछ बोलें -हम लपकने को तैयार. एक विलक्षण संस्थान के रूप में जे.एन.यू. का नक्शा आँखों के सामने खींचने वाली वही तो थीं.
ऑनर्स इयर में हमें छायावादोत्तर कविता पढ़ाने का जिम्मा उन्हें मिला था. हमें कविता पढ़ने में आनंद आने लगा था. हमारे पाठ्यक्रम में केदारनाथ सिंह की भी दो कवितायेँ थीं -अनागत और फर्क नहीं पड़ता. हमारा बैच उत्साही बालिकाओं का था तो ससंकोच संध्या दी ने हमें बताया कि ये कवि उनके पिता हैं. उन्हें भला क्या मालूम कि हमारा तो उनसे परिचय ही यहीं से शुरू हुआ था. ‘अनागत’ कविता में एक पंक्ति है- ‘फूल जैसे अँधेरे में दूर से ही चीखता हो ‘ दी ने बताया कि उन्होंने इस पंक्ति के बारे में अपने पिता से पूछा था कि ये पंक्ति आपके दिमाग में कैसे आयी? तब उन्होंने बताया कि उनके विद्यार्थी जीवन में वे छात्रावास (संभवतः बिड़ला ) में देर रात जग कर पढ़ रहे थे. ऐसे में एक बेहद तेज खुशबू लगातार उनका ध्यान आकर्षित कर रही थी. खुशबू का यह आकर्षण इतना तेज था कि रुकना असंभव हो गया और जब जाकर देखा तो ये एक गुलाब था जो हॉस्टल के लॉन में खिला पूरे दम ख़म से पुकार रहा था. इस तरह हम सिर्फ परीक्षा निपटाने के लिए कविताएं नहीं पढ़ रहे थे एक कवि की मनोभूमि और उसकी रचना प्रक्रिया से भी पूरी प्रामाणिकता के साथ रूबरू हो रहे थे.
समकालीन कविता को समझने और और उससे हमारा जुड़ाव बनाने में संध्या दी की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है. जबकि सच्चाई ये है कि हमें गद्य में ज्यादा दिलचस्पी थी. उन्हीं के सानिध्य में शेखचिल्ली का सपना दिमाग में जगह बना चुका था कि पढ़ने के लिए जे.एन.यू. जाया जाए और अगर वहां से रिसर्च करने का मौका मिले तो प्रो. मैनेजर पांडे के साथ काम किया जाए जो उपन्यास पर पी.एच. डी. करवाते हैं. हमारी जानकारी की सीमा बस यहीं तक थी इससे जरा भी इधर या उधर नहीं. इधर बी.ए. पूरा हुआ उधर संध्या दी का साथ छूटा. हम पहुँच लिए हिंदी विभाग बी.एच.यू .
एम.ए. करने के दिनों में तो केदारनाथ सिंह ‘बनारस‘ कविता के माध्यम से दिलो दिमाग पर छा चुके थे. बनारस में जन्म लेने वाला, बनारस में आ बसने वाला या बनारस को प्यार करने वाला हर आदमी ‘बनारसी‘ हो जाता है .इस बनारसी व्यक्ति का यदि साहित्य से थोड़ा भी लगाव हो तो ‘बनारस‘ उसकी प्रिय कविता. हिंदी विभाग से एम.ए. करने के बाद एम.फिल करने के लिए जे.एन.यू. पहुंचे जहाँ भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष उस समय केदार जी थे. एम.फिल में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा के बाद साक्षात्कार भी हुआ करता था. हम मॉरीशस के साहित्य पर शोध करने की इच्छा रखते हुए सिनॉप्सिस बना कर ले गए थे. सारे सवाल-जवाब के बाद केदार जी ने पूछा -तुम इसी टॉपिक पर रिसर्च करने की जिद तो नहीं करोगी? हमने कहा बिलकुल नहीं. फिर ठीक है जाओ. इसके बाद हम जे.एन.यू. के विद्यार्थी हुए और केदारनाथ सिंह आधिकारिक रूप से हमारे गुरु. केदार जी की दो पीढ़ियों से विपर्यस्थ क्रम से (पहले पुत्री और फिर पिता) शिक्षा पाने वाली संभवतः मैं इकलौती विद्यार्थी हूँ.
यह 1992 का अगस्त था . नामवर जी सेवानिवृति के बाद क्लास पढ़ाना बंद कर चुके थे. केदार जी हमारे विभाग के स्टार अध्यापक थे. ‘स्टार‘ से एक प्रसंग याद आया. बीते चार पांच वर्षों में किसी साल पुस्तक मेले में, मैं और मेरी सहकर्मी ललिता, वाणी प्रकाशन के स्टाल पर थे तभी केदारजी आते दिखाई दिए. मैंने अभिवादन किया अभ्यस्त मुद्रा में उठे हाथ से उन्होंने प्रत्युत्तर दिया और लोगों से घिर गए. मैं और ललिता अनेक अवसरों पर अनेक बार उनसे मिलते रहे हैं. लगभग हर पुस्तक मेले में, सेमिनारों में, व्याख्यानों में, एक बार तो चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में उन्होंने ललिता से पूछा भी कि तुम भी जे.एन.यू. से हो ?
उनकी उम्र और उनके प्रशंसकों की तादाद को देखते हुए इस तरह का भ्रम स्वाभाविक भी है. बावजूद इसके उस पुस्तक मेले में ललिता फुसफुसाई –‘प्रज्ञा! इनसे परिचय करा दो, हमारे तो यही अमिताभ बच्चन हैं‘. लोगों से घिरे केदार जी जब आगे बढ़ने को प्रवृत्त हुए तो बोले- अच्छा, प्रज्ञा! मैंने उन्हें बताया कि ये मेरी सहकर्मी है और ऐसे कह रही है. जोर से हँसे, फिर मेरे सर पर हाथ रखते हुए बोले -तुम्हें आशीर्वाद. फिर ललिता की ओर मुखातिब होकर बोले -आओ तुम्हें भी आशीर्वाद दें और उनका वत्सल हाथ अब ललिता के सर पर भी था. उस दिन थोड़ी देर तक हमारे पांव जमीन पर नहीं थे हम उड़े-उड़े घूमे.
एम.फिल में उन्होंने हमें तुलनात्मक भारतीय साहित्य पढ़ाया. उनकी क्लास की प्रतीक्षा हम विद्यार्थी बहुत जोर-शोर से किया करते थे. क्लास हो जाती तो हमारा दिन बन जाता था और किसी व्यस्तता की वजह से वे क्लास न ले पाते तो हम मायूस हो जाते थे. कठिन से कठिन विषय को अपने विद्यार्थियों के लिए कैसे सहज बनाना है ये कला उनको आती थी. बौद्धिकता के आतंक से पूरी तरह से मुक्त क्लास. सहज और बेहद सम्प्रेषणीय. बांग्ला कविता को पढ़ते हुए हम भाषा की सीमाओं से पार भी जाते और अनुवाद की सीमा और सामर्थ्य की समझ भी साथ साथ गुन लेते. हिंदी कविता के साथ उर्दू, अंग्रेजी और संस्कृत कविता की छानबीन और पड़ताल. बांग्ला, उड़िया, मलयालम,तमिल कवियों और उनकी कविताओं के साथ भारतीय साहित्य की एक मुकम्मल छवि उनके क्लास लेक्चर से बनी.
‘कविता का अनुवाद नहीं हो सकता‘ इस मूल स्थापना के साथ जब वे हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, बांग्ला, मराठी, उड़िया, मलयालम और तमिल के कवियों से हमें जोड़ रहे होते तो सब भाषायी दीवारें अनायास ही ढह जातीं. कविता और उसके सिद्धांतों की समझ साथ-साथ विकसित होतीं. उनसे पढ़ते हुए यह समझ में आता था कि एक कवि का कविता पढ़ाना क्या होता है. क्लास की समय-सीमा क्या है, इसका बोध उन्हें होता नहीं था और पढ़ने वाले तो वैसे ही उनके सम्मोहन के वशीभूत थे उन्हें भला कैसे होता.
एक दिन सर की क्लास थी. उनके आने से पहले अनामिका जी और उनकी कोई मित्र आयीं ,पूछा केदार जी की क्लास यहीं होगी? सकारात्मक प्रत्युत्तर पर उसी क्लास में बैठ गयीं. सर आए. पढ़ाने से पहले एक नज़र क्लास पर डाली. उन दोनों को देखकर बोले -अच्छा तुम भी यहाँ हो ? उसके बाद क्लास शुरू. उस दिन उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविता ‘निर्झरेर स्वप्न भंग‘ पढ़ाई थी कविता पढ़ने का वह जो अनुभव था वो कहकर नहीं बताया जा सकता.हमारी पूरी क्लास देर तक मंत्रमुग्ध बैठी रही थी. बेहद साफ-साफ सिद्धांत और स्थापनाएं थीं उनकी -भारतीय स्वछंदतावाद, साम्राज्यवाद से टकराकर खड़ा होता है जबकि पाश्चात्य स्वछंदतावाद, साम्राज्यवाद के पोषण पर खड़ा हुआ.
‘निर्झरेर स्वप्न भंग‘ कविता को भारतीय स्वछंदतावाद का पहला घोषणा पत्र बताते हुए निराला की ‘धारा‘कविता के साथ उसका सामानांतर अध्ययन. टैगोर के निर्झर की कठोरता और दृढ़ता के समक्ष निराला की धारा कविता की ‘छोटी सी कली‘ की कोमलता को भी उन्होंने रेखांकित किया और धारा कविता के रहस्यात्मक अंत के साथ होने वाले कविता के मुक्तिकामी स्वरुप के दुखद समापन को भी. ऐसा क्यों हुआ -असहयोग आंदोलन ने भारतीय युवा मन को एक खास किस्म का झटका दिया जिससे एक तरह की राजनैतिक अस्थिरता पनपी. गाँधी ने एक उग्रतम आंदोलन को पीछे लौटा दिया था कविता भी पीछे लौटी तो आश्चर्य क्या ? न सिर्फ भारतीय साहित्य, विश्व के साहित्यिक आंदोलनों और साहित्यकारों की उनको जानकारी थी. उनकी रेंज, अध्ययन और समझ बेहद प्रभावशाली थी.
केदार जी हिंदी के बड़े कवि हैं, उनकी कविता के साथ उठा पटक करने के लिए एक बड़ा पाठक और आलोचक समुदाय है. एक छोटा समूह उन लोगों का भी है जिसके वे बेहद प्रिय अध्यापक रहे हैं. शांत सौम्य और दृढ़. पढ़ाते हुए जितने सम्प्रेषणीय, टर्म पेपर और सेमिनार पेपर (जो पाठ्यक्रम की अनिवार्यता थी) इत्यादि के मामले में उतने ही लचीले. उनके कोर्स के लिए पेपर लिखना किसी भी विद्यार्थी के लिए बोझ न रहा होगा. वर्ना डेडलाइन के छात्रोचित आतंक से त्रस्त, एकाध पेपर तो शाम के साढ़े पांच बजे के बाद सम्बंधित अध्यापक के विभागीय कक्ष में हमने भी दरवाजे के नीचे से सरकाये हैं. और फिर पागल हुए घूमे कि अगर वो फुटमैट के नीचे चला गया होगा तो हमारा क्या होगा ? इतना ही नहीं हरेक विद्यार्थी के सबसे अच्छे ग्रेड भी केदार जी के ही पेपर में आते.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और हिंदी के नामचीन कवि के रूप में जैसी घनघोर छवि बनती है केदार जी का व्यक्तित्व उसके बिलकुल विपरीत था. बौद्धिकता के साथ जिस शुष्कता और कठोरता की सहज कल्पना होती है वह उनके यहाँ था ही नहीं. उनका व्यक्तित्व बेहद तरलता, आत्मीयता और वात्सल्य से भरा पूरा था और इन सब से ऊपर था आशीर्वाद की मुद्रा में उठा हुआ उनका हाथ.
जे.एन.यू. के अध्यापकों और विद्यार्थियों का सम्बन्ध अनूठा हुआ करता था. वे सेंटर में मिलते थे, घर में, रास्तों में, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में, गीता या जवाहर बुक डिपो में, छःसौ पंद्रह बस में, वॉक पर, नाटक में, साहित्य अकादमी में, शहर की गोष्ठियों में मिलते थे. चाहे अभिवादन में जुड़े हाथ और सर की जुम्बिश का प्रतिउत्तर भर हो पर भरोसा होता था कि आपका अध्यापक आपको उपलब्ध है.
मैं गोदावरी हॉस्टल में रहती थी. एम.फिल का शोध प्रबंध जमा करने के बाद, सिंगल सीटेड रूम मिल गया था. गोदावरी ईस्ट विंग और सड़क से लगा सबसे ऊपर की मंज़िल का कमरा. केदारजी का घर हॉस्टल के ठीक पीछे. घर और मेरे कमरे के बीच एक पेड़ सीधी दृश्यता में बाधा डालता था. सुनंदा और करुणा दी के कमरे से तो उनके घर का दरवाजा तक दिखाई पड़ता था.यूँ तो जे.एन.यू. पगडंडियों का बड़ा संजाल था पर उनके घर से मुख्य रास्ते बस पकड़ने जाने वाला व्यक्ति मेरी बालकनी से सहज ही दीखता था.एक बार उनके यहाँ से निकल कर बस पकड़ने जा रहे काशीनाथ सिंह सर को देखकर मैं फुर्ती से बस स्टैंड पंहुची और बस आने तक उनसे बातचीत करके लौट आयी. अपने दिल्ली प्रवास के दौरान बच्चन सिंह जी अकेले या अपने पोते पोती का हाथ थामे उसी रास्ते पर दिख जाते थे. कभी कभार उनके घर भी जाना होता था पर घर पर मुलाकात और बात मुख्यतः रचना दी से हुए करती थी. घर पर बहुधा ईया, बाबा, रचना दी और गुड़िया (सर की भान्जी) होते थे.
करुणा दी से पुख्ता जानकारी प्राप्त होने के बाद कि सर घर पर शाम को नहीं रहते हैं कई बार शाम को उनके यहाँ गए.लगभग एक सी उम्र की कई लड़कियों के समूह ने एक बार श्री राम थियेटर में ‘रुदाली‘ का मंचन भी साथ साथ देखा. जे.एन.यू. में विद्यार्थी रहने के दौरान सर से या संध्या दी से घर पर कभी मेरी मुलाकात नहीं हुई. संध्या दी से तो मेरी इकलौती मुलाकात रचना दी के विवाह में ही हुई थी. एक बार रचना दी से ‘नौकर की कमीज‘ उपन्यास ले आए पढ़ने को. किसी दिन सेंटर में कुछ उछल कूद मचा रहे थे कि पीछे से हमारे नाम की आवाज लगी देखा तो सर पुकार रहे थे. हमारी सिट्टी- पिट्टी गुम. पास गए तो पूछा -नौकर की कमीज तुम्हारे पास है? हमने हाँ में सिर हिला दिया तो कहा-कुछ काम था, जरा चाहिए. इतनी कोमलता से कभी किसी ने अपनी किताब वापस नहीं मांगी थी,शाम को पंहुचा आए. एकाधिक बार केदारनाथ सिंह सर पांडेय सर के घर पर मिले. जितनी आत्मीयता से दोनों बतिया रहे थे उनके लम्बे साहचर्य के बारे कुछ कहने सुनने की जरूरत नहीं थी.
जे.एन.यू. छोड़ने के बाद सबसे ज्यादा बार सार्वजनिक मुलाकात केदारनाथ सिंह सर से हुई है. अचानक यूँ ही कहीं भी- एक बार कनॉट प्लेस के खादी ग्रामोद्योग में मिले थे मित्रों के साथ थे. एक और बार ऋषिकेश में लक्ष्मण झूले के उस पार, वहां भी मित्रों के साथ थे. लगभग हर बार पुस्तक मेले में .दो बार वो चौधरी चरण सिंह विश्विद्यालय, मेरठ में आए एक बार रुसी भाषा विभाग में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में और दूसरी बार हिंदी विभाग द्वारा आयोजित हिंदी दिवस समारोह में. उनसे हुई हर मुलाकात और उनका वक्तव्य यादगार है. बड़े अध्यापक के सानिध्य में सूत्र मिलते है जिनका विस्तार करके जीवन भर विकास किया जा सकता है. मेरठ के हिंदी विभाग में उनके व्याख्यान से ‘मेरठ- होमवती देवी –अज्ञेय- स्मृति लेखा’का एक सूत्र मैंने थाम लिया. कई वर्षों की खोजबीन के बाद अब एक विद्यार्थी को होमवती देवी पर शोध करा रही हूँ.
नौकरी करने के सिलसिले में औपचारिक रूप से जे.एन.यू. छोड़ने के बाद रूडकी चली गयी और कई वर्षों बाद लौटकर शोध ग्रन्थ जमा किया. जब मेरा वायवा हुआ उस दिन केदारनाथ सिंह सर मिले थे. कुछ समय पहले ही मेरा विवाह हुआ था, मेरे पति से उन्होंने ऐसे बात की जैसे पूर्व परिचित हों. एक पुस्तक मेले में अपने नन्हे बेटे को लेकर गयी थी उसे प्यार किया आशीर्वाद दिया. बच्चों से उन्हें खासा लगाव था. मैं जानती हूँ उनके जितने विद्यार्थी अपने बच्चों के साथ उनसे मिले होंगे सबने उनसे प्यार पाया होगा. 2015 में जे.एन.यू. में उपन्यासों पर हुए सेमिनार में उनसे हुई मुलाकात को आखिरी मुलाकात मानने का मन नहीं करता. उठे हुए हाथ का वह आशीर्वाद अब स्मृतियों की पूँजी है इसे स्वीकार करना मुश्किल है.
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‘हज़ारों सोई हुई कब्रों के बीच
वह अकेली कब्र थी
जो जिंदा थी’
(केदारनाथ सिंह – ज्याँ पाल सार्त्र की कब्र पर )
बाघ सो गया है
मंगलमूर्ति
अचानक ठिठक गई वीणा
सुंदरियां पथरा गईं सारी
तार सभी मूक हो गए,
रागिनी सूक्ष्म बनकर
अलग हो गई वीणा से
मुंह छिपाकर हथेलियों में.
शब्द हाथ जोड़े मूर्तिवत खड़े हुए
अनमने-से बिम्बों के आस-पास
छंद ने धीरे-से उतारे अपने स्वर्ण-कंगन
लय ने पोंछ लिया अपना लाल सिन्दूर;
तुलिका डूब गयी शोक के घुले-मिले
गंदले रंगों की थथमी कटोरी में –
रंग सभी स्तब्ध हैं, निर्वाक, विमूढ़
चित्र-पटल उदास है, कोरा रंगहीन.
जंगल, पेड़, खेत-खलिहान,
चिड़ियाँ, गिलहरियाँ, मेमने
खंजन, टिटिहरी, नीलकंठ
खरगोश, भालू, सांप, तितली – सब आये
सुनकर ऐसा भयावह सन्नाटा –
और सबने देखा – उनका प्यारा बाघ
अब चुपचाप सो गया है शहर के बाहर
एक खँडहर में, एक ऊंचे बरगद के नीचे
दूर कहीं मंदिरों में बजने लगे घंटे
लेकिन बाघ तो अब सो चुका था
कभी न टूटने वाली अपनी नींद में.
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‘बनारस को रहने देना
वरुणा और गंगा के बीच के
दियारे में’
(केदारनाथ सिंह )
केदारनाथ सिंह की कविता
शरद कोकास
केदार जी का आविर्भाव एक ऐसे समय में हुआ जब आज़ादी से मोहभंग की स्थिति में वक्तव्य की तरह कविताएँ लिखी जा रही थीं. जीवन और संसार से जो मनुष्य की अपेक्षाएँ थी वह पूर्ण नहीं हो रही थीं फलस्वरूप कविता में एक तरह का आक्रोश था. उस कविता का स्वर विद्रोह का था.
केदार जी ऐसे समय जीवन में रचा बसा किन्तु न दिखाई देने वाला सौंदर्य अपनी कविता में लेकर उपस्थित हुए. इस भौतिक संसार की छोटी छोटी सी वस्तुओं में उन्होंने सौंदर्य की तलाश की. उन्होंने एक अलग भाषा में अपनी कविता रची. उनकी कविता बहुत वाचाल नहीं थी लेकिन उसमें मनुष्य की पीड़ा, उसकी जिजीविषा बहुत दबे स्वरों में अभिव्यक्त होती थी.
उस दौर में रघुवीर सहाय और केदारनाथ सिंह ऐसी दो धाराएं हिंदी कविता में थीं. रघुवीर सहाय की कविता में जीवन की और व्यवस्था की विसंगतियाँ मुखर होती थीं वहीं केदार जी की कविता में जीवन का सौंदर्य और जीवन के प्रति आशावाद एक नई काव्यभाषा के साथ उपस्थित होता है. जीवन की असुन्दरता के बरक्स वे जीवन के सौंदर्य के ऐसे प्रतिमान रचते हैं जो मनुष्य की सहज स्वाभाविक आकांक्षा होती है और मनुष्य जिसे पाने का सतत प्रयास करता है.
केदार जी की इस दृष्टि में केवल यह संसार और यहाँ रहने वाला मनुष्य ही शामिल नही होता बल्कि वे प्रकृति के विभिन्न उपादानों में भी जीवन का सौंदर्य देखते हैं. समाज मे रहने वाले बहुत निचले तबके के व्यक्ति चरवाहे, किसान, श्रमजीवी तक उनकी यह दृष्टि जाती है और उससे जुड़ी वस्तुओं, खेत, फसल, जल और उसमें रहने वाली मछलियाँ और वनस्पतियों तक तक मे वे जीवन के प्रति सकारात्मकता देखते हैं .
केदार जी के बिम्ब इस असुंदर संसार में न केवल एक अनदेखा सौंदर्य रचते हैं बल्कि निराशा भरे इस समय में बहुत धीरे धीरे ही सही आशा का संचार भी करते हैं. संसार को देखने का उनका अपना यह विशिष्ट दृष्टिकोण है जिसमें समय की सच्चाइयाँ मुखर होती हैं.
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‘चलना उनकी भाषा है
बैठना उनकी चुप्पी’
(केदारनाथ सिंह – पाँव)
मैं स्वीकार करूँ
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है!
अच्युतानंद मिश्र
उनके साथ ही एक कविता युग का अंत हो गया. वे तीसरा सप्तक के एकमात्र जीवित कवि रह गये थे, लेकिन उनकी यह वरिष्ठता उनकी समकालीनता में कभी बाधक नहीं बनी. उन्हें पहली बार मैंने 2006 में हिन्दू कॉलेज के एक कार्यक्रम में सुना. वहां उन्होंने रामचंद्र शुक्ल की मूंछ कविता पढ़ी थी. इस कविता को सुनते हुए पहली बार मेरी चेतना में रामचंद्र शुक्ल थोड़े मुलायम हुए. कविता पढ़ते हुए जो सहजता और स्पष्टता उनमें थी उसने मुझे आकर्षित किया. पहली बार महसूस किया सहजता और स्पष्टता भाषा का कितना बड़ा गुण है. उनके बिम्बों में मूर्त करने की जो बेजोड़ क्षमता थी, वह उन्हें हिंदी कविता का अद्वितीय कवि बनाती थी. सरल भाषा इतनी मूर्त हो सकती है, यह बात केदारनाथ सिंह की किसी कविता को पढ़कर समझा जा सकता है. केदारनाथ सिंह को हम कैसे याद करेंगे?
याद करने के लिए एक निश्चित दूरी होनी चाहिए. उस कवि को जिसके शब्द जिसकी ध्वनियां इतने करीब हो, जिसने हमें रिक्त स्थानों को पढ़ने का विवेक दिया हो, उससे दूरी बनाना कठिन है.
आज़ादी के बाद के जिस कवि का पिछले तीन दशकों की युवा कविता पर एकछत्र राज़ था वह केदारनाथ सिंह थे. क्या कारण था कि उनकी कविता युवाओं को सबसे अधिक आकर्षित करती थी? वे कुछ-कुछ लता मंगेशकर की तरह थे जितने वरिष्ठ होते गए उनकी कविता नई पीढ़ी के उतने निकट आती गयी.
केदारनाथ सिंह की कविता हमें भाषा के उस इलाके तक ले जाती है जहां निजी बातचीत और कविता के बीच की दूरी समाप्त हो जाती. संवाद का इतना अधिक काव्यात्मक उठान दुनिया भर की कविता में एक मिसाल है. अब जब उनकी भौतिक उपस्थिति नहीं रही उनकी कविता स्मृतियों के कारखाने से निकलकर इस दुनिया और मनुष्यता की हर नई इबारत में प्रवेश कर जाएगी. नए कवि का दुःख कभी समाप्त नहीं होगा और केदारनाथ सिंह उस दुःख की सूक्ष्मतम अनुभूतियों में मौजूद रहेंगे.
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‘काठ का जर्जर ढांचा ही सही
पर रहने दो ‘नांव’ को
अगर वह वहां है तो एक न एक दिन
लौट आएगी नदी ’
(केदारनाथ सिंह – नदी का स्मारक)
राष्ट्रीय शोक
गौरव सोलंकी
एक बेहतर दुनिया में आज राष्ट्रीय शोक होता. एफ़ एम वाले सुबह से रात तक केदारनाथ सिंह की कविताएं पढ़ते.
उदास मांएं अपने नन्हें बच्चों को बताती कि हमने क्या खो दिया है, कि कवि बहुत होते हैं पर ऐसे कवि कभी-कभी आते हैं जो अपनी भाषा को नदी में बदल देते हैं और सैंकड़ों मील दूर से भी तुम्हारे दुखों को सहने लायक बनाते हैं, मुश्किल दिनों को रहने लायक बनाते हैं.
एक बेहतर दुनिया में मैं और तुम आज अपने-अपने काम छोड़ देते और एक दूसरे का हाथ थामे लेटे रहते घंटों, आसमान को देखते हुए.
और अपने दिल और कंधों के दुखने पर यक़ीन करते, जैसा उन्होंने कहा था हमें.
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‘वह हवा थी अक्तूबर की
जिसमें नवम्बर के आने की हल्की- सी धमक थी’
(केदारनाथ सिंह –शोध)
पूरब का ठाठ
बाबुषा
वे पूरब का ठाठ थे. उनकी हिंदी से भी भोजपुरी झरती थी. उनकी भोजपुरी से हिंदी निकलती थी. उनकी कविता बहुत गहरे रोमान से भी अनुस्युत है, बहुत पक्के यथार्थ बोध से भी.
मेरे जीवन में केदार जी की कविताओं ने सदा उस चाभी का काम किया, जो जीवन के कई अलीगढ़ी ताले खोल देती है. कवि की तरलता-सरलता मुझे छूती है. जब वे दुनिया को हाथ की तरह नर्म और मुलायम बनाने की बात करते हैं तो मैं अपने हाथ जाँचती हूँ. उनके यहाँ उम्मीद के कई चेहरे मुझे दिखाई पड़ते हैं, फिर चाहे बाघ पढ़ने की कोशिश कर रहा हो या तवे में पकती रोटी की ख़ुशबू अचानक एक सभ्यता का संकेत हो जा रही हो. कहीं वे शब्दों से शब्दों तक जीने और जीने के लगातार द्वंद्व को रेखांकित करते हैं तो कहीं उनकी मुक्त चेतना चाँद को जेल की लालटेन बना क़ैदी पृथ्वीवासियों को देख फड़फड़ाती भी है. इस फड़फड़ाहट को दर्ज करने के लिए वे न्यूनतम ख़ुशी या राहत का विरोधाभास खड़ा कर देते हैं. कविता में ठीक इसी जगह वे माइक्रोस्कोपिक ढंग से व्याकुलता का वह भाव पकड़ पाते हैं जो शब्दों के बड़े-बड़े जालों की पकड़ से बच निकलता है.
“जाना हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है.” यह ख़ौफ़नाक क्रिया हरेक जीवन में घटती है.
किंतु यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं कि केदारनाथ सिंह जैसे कविता-पुंज कहीं भी चले जाएँ, वे जा नहीं पाते. वे अपनी कविता के प्रकाश में हमेशा उपस्थित रहते हैं
केदारनाथ सिंह हमारे बीच से चले गए, पर जितना वे गए उससे कहीं अधिक शेष रह गए हैं.
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‘जाती हुई चिड़ियों का पता पूछ लीजिए
जो थी तो क्या थी उनकी ख़ता पूछ लीजिए.’
(केदारनाथ सिंह- गज़ल)
कवि केदारनाथ सिंह को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि
जनतांत्रिक मूल्यों की अकाल-वेला में केदारनाथ सिंह की कविता जनप्रतिरोध के सारसों की अप्रत्याशित आवाज़ थी. उनका संग्रह ‘अकाल में सारस‘ 1988 में प्रकाशित हुआ था, जिसमें इसी शीर्षक की एक कविता है. कविता इस तरह शुरू होती है-
“तीन बजे दिन में
आ गए वे
जब वे आए
किसी ने सोचा तक नहीं था
कि ऐसे भी आ सकते हैं सारस
एक के बाद एक
वे झुंड के झुंड
धीरे-धीरे आए
धीरे-धीरे वे छा गए
सारे आसमान में
धीरे-धीरे उनके क्रेंकार से भर गया
सारा का सारा शहर
वे देर तक करते रहे
शहर की परिक्रमा
देर तक छतों और बारजों पर
उनके डैनों से झरती रही
धान की सूखी
पत्तियों की गंध…”
अकालग्रस्त देस-देसावर से सारसों के शहर में इस तरह आने की किसी को उम्मीद न थी. शहर की एक बुढ़िया सहानुभूति के भाव से अपने आंगन में पानी का एक कटोरा रखती है. लेकिन सारस उसकी अनदेखी कर लौट जाते हैं. लौटते हुए उनकी आँखों में दया और घृणा का मिलाजुला भाव है. सारसों की जगह किसानों को रख दें, तो यह समूची कविता हाल ही में मुम्बई में हुए पचास हज़ार किसानों के लॉन्ग मार्च का सशक्त रूपक बन जाएगी. किसानों के श्रम के शोषण से जगमागाते हुए शहरों में लॉन्ग मार्च करते हुए किसानों के अकस्मात आने और शहरी सहानुभूति को घृणा और दया की नजरों से देखते हुए लौट जाने में एक ठेठ किसानी प्रतिरोध है. इस प्रतिरोध की भाषा सारसों की भाषा है. या अकाल के विरुद्ध किसी सूखी नाली में शीशे के टुकड़ों के बीच उगी हुई दूब की भाषा है. या सड़क के किनारे बरसों से पड़े हुए ट्रक पर उग आई हरी लतरों की भाषा है.
इस भाषा में गर्जन-तर्जन का आभास नहीं, लेकिन एक प्रचंड रचनात्मक प्रतिकार है. प्रतिरोध की यह किसानी भाषा ओढ़ी हुई सहानुभूति की शहरी संस्कृति को समझ नहीं आती. लेकिन चम्पारण के सत्याग्रही गांधीजी को ख़ूब समझ में आती थी, जिन्हें केदार जी की एक कविता में किसी खलिहान में भिखारी ठाकुर का नाच देखने के लिए चुपचाप भीड़ के बीच बैठा देखा जा सकता है.
केदारनाथ सिंह एक ऐसे कवि हैं, जो भूमंडलीकरण के दौर की मेट्रोपोलिटन कविताई के बीच अचानक किसान के छूटे हुए कुदाल को एक प्रश्नचिह्न की तरह खड़ा कर देते हैं. ठीक इस समय जब जनविरोधी अर्थ-राजनीति का ‘दुकाल‘ अपने नग्नतम निशाचरी रूप में प्रगट होने को बेताब दिखता है, और उसके विरुद्ध जनवेदना सत्याग्रही प्रतिरोध का नया आख्यान रचने को कटिबद्ध हो रही है, केदारनाथ सिंह का जाना अत्यंत क्षोभजनक लगता है. क्योंकि यही वह समय है जब जड़ता के विरुद्ध कविता की इस ललकार की सबसे ज़्यादा जरूरत है कि ‘वे क्यों चुप हैं, जिनको आती है भाषा‘!
केदारनाथ सिंह का राजनीतिक प्रतिरोध कविता तक सीमित न था. एक सजग नागरिक के रूप में भी दमन के सामने चुप रहने का विकल्प उन्होंने कभी नहीं चुना.हालिया दौर को याद करें तो पुरस्कार-वापसी प्रतिरोध के दौर में लेखकों के पक्ष उनका प्रखर वक्तव्य याद आता है. एक सांझे बयान में देश में बढ़ती असहिष्णुता और साम्प्रदायिक फासीवादी उन्माद के विरुद्ध लेखकों के मुखर होने की उनकी अपील याद आती है. केदारजी की कविता जीवन का राग अलपाने वाले आम कवियों की तरह हाहाकार की तरफ पीठ देकर खड़ी नहीं होती.
‘उठता हाहाकार जिधर है, उसी तरफ अपना भी घर है‘ की घोषणा करने वाली उनकी कविता प्रतिरोध के लेखकों के सांझे बयान की तरह पढी जा सकती है. इसी हाहाकार में जीने की सुगंध भी है.‘ खुश हूँ आती है रह रह कर/ जीने की सुगंध बह बह कर.‘ जीने की सुगंध के बिना हाहाकार प्रतिरोध की ललकार नहीं बन सकता. हाहाकार और जीवन सुगंध को विपरीत पदों के रूप में देखने के अभ्यासी केदारजी की कविता की धार को समझने में चूक जाते हैं.
जैसे कविता कहीं खत्म नहीं होती, वैसे ही कवि की भी कभी मृत्यु नहीं होती. केदारजी नहीं रहे लेकिन उनकी कविता ‘आदमी के उठे हुए हाथों की तरह‘ हिन्दुस्तानी अवाम के संघर्षों को उसी तरह थामे रहेगी, जिस तरह उसने उनके प्रिय शहर बनारस को सदियों से थाम रखा है.
जनसंस्कृति मंच प्रगतिशील परंपरा के इस शीर्षस्थ समकालीन कवि के प्रति अपनी भावांजलि अर्पित करता है.