आमिर हमज़ा की कुछ नयी कविताएँ |
1.
एक अलम-नसीब बेटे की कविता
(अपनी मरहूम माँ के नाम जिसकी मिट्टी में शरीक न हो सकने का मलाल हमेशा मुझे कचोटता है)
एक कवि जिसने धरती पर हलनुमा क़लम से कविता लिखी
रोशनीनुमा क़लम से चन्द्रमा को गिटार में बदला
समंदर को शेर की तरह कोड़ेनुमा क़लम से आकाश के पिंजरे में ला खड़ा किया और
सूरज पर कभी भी किसी भी वक़्त भरोसेनुमा क़लम से लिख सकता था वह कविता
अपनी रगों में क़तरा-ए-ख़ून के दौड़ने तक कहता था-
माँ पर नहीं लिख सकता कविता!
मिट्टी से राख में तब्दील हो दरिया में बहाए जा चुके
अपने इस पूर्वज कवि से कहना चाहता हूँ कि गुस्ताख़ी माफ़ हो मेरी-
धरती पर कोई कविता नहीं लिखी मैंने- चन्द्रमा को भी गिटार में नहीं बदला- समंदर को भी शेर की तरह आकाश के पिंजरे में कभी खड़ा नहीं किया और सूरज पर कभी भी नहीं लिख सकता मैं कविता- बावजूद इसके रगों में अपनी क़तरा-ए-ख़ून के दौड़ने तक मैं बारम्बार-
माँ पर लिख सकता हूँ कविता!
ताज़िन्दगी करीमतर रहने वाली मेरी माँ
एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में पैदा हुई और
अपने पिता की ज़िद के चलते अपनी बड़ी बहनों की तरह
बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई में एक मज़दूर कम कबूतरबाज़ ज़्यादा पुरुष से ब्याह दी गई-
माज़ी की स्मृतियों के दरीचे की यह गवाही है कि-
यह विरासतों को नेस्तनाबूद करने की नींव रखे जाने का समय था-
यह फ़ज़ा में नारों के गूँजने का समय था-
यह आँगन-ए-नीम और खूँटी पर टंगे छिक्को से बिछड़ने का समय था-
यह अपने अपने घरों को नम आँखों से सदा सदा के लिए अलविदा कहने का समय था-
यह पलायन का समय था-
यह एक मुल्क के हज़ारों-हज़ार लोगों के चेहरों पर डर को पढ़े जाने का समय था-
यह एक मुल्क के लाखों-लाख लोगों के चेहरों पर हँसी को पढ़े जाने का समय था-
यह आँखें मूँदकर आधुनिकता से उत्तराधुनिकता की ओर बढ़ते चले जाने का समय था-
इस सबके बावजूद-
गुड़ मूँगफली दाल सिरका गेहूँ चावल के साथ माँ जब पीहर से अपनी ससुराल आई
तो बाँध लाई चुपके से
अपने पल्लू में गाँव की बड़ी बूढ़ी औरतों के कंठ से फूटता एक विदागीत
जिसे अपने एकांत में वह जब-तब गुनगुनाती रहती-
घर ख़ाली हो जाएगा री लाडो तेरे बिन
तेरे बाबा ने रो रो अँखियाँ लाल करी
री तेरी दादी का मन है उदास री लाडो तेरे बिन
अँगना ख़ाली हो जाएगा री लाडो तेरे बिन
तेरे बापू ने रो रो अँखियाँ लाल करी
री तेरे माँ का मन है उदास री लाडो तेरे बिन….
और फिर एक रोज़ इक्कीसवीं सदी की तीसरी दहाई में-
दिन-ओ-रात मुसलसल पृथ्वी के अपनी धुरी पर मग़रिब से मशरिक़ की ओर घूमते रहने के क्रम में
मंगल पर पानी खोजे जाने के दावे के साथ साथ बहुत से दुनियावी साइंसदान पृथ्वी से दूर कहीं बहुत दूर जब एक नई दुनिया की तलाश में मशगूल थे
बेटी की आस में चार बेटे पैदा करने वाली मेरी माँ-
अपनी उम्र के पैंतालीस साल पूरे करने की दहलीज़ पर खड़ी एक एक साँस के लिए जद्दोजहद करती शहर-ए-चंडीगढ़ के एक अस्पताल में तीन दिन वेंटिलेटर पर रहने के बावजूद गुज़रे हुए साल के माह-ए-मई की एक सुबह मर गई- यह इतिल्ला मुझे फोन पर मेरे भाई के आँसुओं से मिली-
यह पृथ्वी पर-
सैलाब-ए-अश्क का उत्सव था
उजाड़ का मृत्यु का उत्सव था
जहाँ अब इंसान को नहीं सिर्फ़ भाव को अहमियत थी-
अपनी स्मृतियों की दबीज़ चादर पर ज़रा-सा ज़ोर डालूँ तो-
एम्बुलेंस महज़ पचपन हज़ार !
ऑक्सीमीटर महज़ तीन हज़ार !
ऑक्सीजन सिलेण्डर महज़ पन्द्रह हज़ार !
ऑक्सीजन बैड महज़ पाँच लाख !
और इंसानियत ! और इंसानियत !
कहते कहते मेरी ज़बान लड़खड़ाने लगती है
अनुपलब्ध !
अनुपलब्ध !
अनुपलब्ध !
माँ!
अपने जीते जी जिसने न कभी कोई पहाड़ देखा
न कोई नदी और न ही कोई समंदर
जबकि-
कितने कितने पहाड़
कितनी कितनी नदियाँ
कितने कितने समंदर से सजी धजी है ये दुनिया-
माँ!
जिसकी ज़िन्दगी खेत से घर और घर से कूड़ी तक
ढोरों के लिए सुबह-ओ-शाम सिर पर चारा और गोबर ढोने से शुरू हुई
और ब्याह के बाद एक मज़दूर कम कबूतरबाज़ ज़्यादा पुरुष के साथ वक़्त काटते गुज़री
उसके हिस्से इस दुनिया में सिर्फ़-
सिर पर बोझा आया
माथे पर पसीना
हाथ में चिमटा आया
आँखों में धुआँ और
मुक़द्दर में चूल्हा आया-
दरअस्ल कुछ और था ही नहीं माँ के लिए इस दुनिया के पास
अलावा इसके कि वह जहाँ पैदा हुई
जिस मिट्टी में खेली-कूदी पली-बढ़ी
मर जाने के बाद उसी मिट्टी में दफ़ना दी गई
और उग आई एक रोज़ ज़मीन से आसमान की ओर घास की शक्ल में
रक्तपात से भरी इस नफ़रती बदरंग बेईमान जंगी दुनिया को
कुछ हरा करने का इरादा लिए.
२.
घर में नहीं है माँ की कोई तस्वीर
(जगजीत सिंह की ग़म से तर उस आवाज़ के लिए जिसके सहारे क़लम और काग़ज़ की मुसलसल गुफ़्तुगू होती रही)
चारपाई बुनती माँ से अपने बचपन में अक्सर मैं एक सवाल पूछता-
माँ! मर जाने के बाद कहाँ चले जाते हैं लोग?
माँ अनमने से कहती-
मर जाने के बाद चिड़ियाँ बन जाते हैं लोग
और फिर ऊँगली से अपनी
चबूतरे पर खड़े दरख़्त-ए-शहतूत पर उछल कूद करती काना बाती करती
कई कई सफ़ेद धारीदार गर्दन वाली चिड़ियों की ओर इशारा करते हुए
कुछ नाम बुदबुदाती- फ़हमीदा अनीसा सकीमन असगरी रुखसाना वग़ैरह वग़ैरह
और फिर कहती उन्हें देख रहा है-
ये सब चिड़ियाँ भी तेरी माँ हैं !
जो रोज़ सुबह-सुबह मुझसे मिलने आती हैं और
कहते कहते माँ की आँखें भर आतीं-
अक्सर माँ यह भी कहती मुझसे-
पता है तुझे अच्छे लोग दुनिया से क्यों रुखसत हो जाते हैं जल्दी !
मैं कहता- मैं नहीं जानता?
माँ कहती-
अल्लाह नहीं चाहता कि अच्छे लोग शरीक़-ए-गुनाह हो बैठें-
अब जबकि माँ नहीं है
है दफ़न दो गज़ ज़मीं के नीचे जिस पर कुछ रंग-बिरंगे फूल और कुछ घास उग आई है
बची है महज़ मेरी स्मृतियों के आँगन में
मुझे याद आता है-
याद आता है कि ख़ुद के मरने से चंद महीनों पहले हमेशा की तरह एक रोज़ माँ बाज़ार गई और
वहाँ से चूड़ियों, कपड़ों, और अपनी ज़रूरत की दीगर चीज़ों के साथ-साथ
ख़रीद लाई बेजान चिड़ियों का एक जोड़ा और
टांग दिया उसे दरवाज़े के दाहिने कोने पर
माँ को न बचा पाने की ग्लानि से भरा मैं एक बदनसीब बेटा
अब वक़्त-ए-तन्हाई में
जब-जब माँ के लाए बेजान चिड़ियों के इस जोड़े को देखता हूँ
तो दरअस्ल-
माँ को देखता हूँ-
क्योंकि-
मैं जिस मज़हब में पैदा हुआ जिस घर में पला-बढ़ा
वहाँ दीवारों पर
ज़िन्दा या मुर्दा इंसानों की तस्वीर लगाने की सख़्त मनाही है-
मैंने पूछी है इसके पीछे की वजह कई दफ़अ कबूतरबाज़ अब्बू से अपने
कि आख़िर ऐसा क्यों?
इबादत-ए-ख़ुदा के नाम पर सिर्फ़ नमाज़-ए-जुमा पढ़ने वाले मेरे कबूतरबाज़ अब्बू जिनकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा- चीनी गजरा हरा मुखी दुबाज कलदुमा कलसिरा छ्पावा देवबंदी नस्ल के कबूतरों की बाज़ी लगाते गुज़रा…
लड़खड़ाती ज़बान से अपनी कहते हैं—
‘घर में ज़िन्दा या मुर्दा इंसानों की तस्वीर लगाने से नेकी के फ़रिश्ते नहीं आते’
शायद कहते रहे होंगे कुछ ऐसा ही
अब्बू के अब्बू और उनके भी अब्बू पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक दूसरे से-
पूछा है मैंने अपने मज़हब के और भी कई लोगों से कई कई मर्तबा
कि आख़िर क्यों घर में ज़िन्दा या मुर्दा इंसानों की तस्वीर लगाने की मनाही है?
जवाब में मुझे सब फरिश्तों के ही पक्ष में खड़े नज़र आए
और माँ कटघरे में!
माँ! जिसे हमेशा से तस्वीर खिंचवाने का बड़ा शौक़ था
सुपुर्द-ए-ख़ाक हो जाने के बाद
घर में उसके हिस्से घर की कोई दीवार नहीं बल्कि मज़हबी बेड़ियाँ ही आईं
जबकि लगाई जा सकती थी कोई एक तस्वीर उसकी
घर की किसी एक दीवार पर कहीं-
मेरे घर की किसी दीवार पर कहीं कोई तस्वीर-ए-माँ नहीं है
मेरा मज़हब इसकी इज़ाज़त नहीं देता.
3.
कि जैसे गद्य की खाल ओढ़े कहीं एकांत के स्पर्श में रहती है कविता
अपने एकांत से प्रेम करो और इसकी पीड़ा को सहन करो-
यह तुम्हें कविताएँ लिखने का कारण देता है-
-रेनर मारिया रिल्के
(एक)
माना की तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
अल्लामा इक़बाल
वह आँखों का मल्लाह था- मल्लाह जो कभी कभी पलकों की डोंगी पर बैठ उसके आने न आने का इंतज़ार यूँ ही किया करता- रात होती और बस यूँ ही होती जाती- इंतज़ार होता और बस यूँ ही होता जाता- पलकों की देहरी पर खड़े एक हरे पेड़ से सटे लैम्प पोस्ट से एक कम पीली उदासी बेढंग हो आज़ादाना स्वर में झरती और बस झरती जाती- इंतज़ार गहराता और बस गहराता जाता- रात को हरसिंगार के फूल रोज़ की तरह खिलते और रोज़ जैसी सुबह की तरह ज़मीं के माथे पर महकने लगते- सड़कें हर सुबह गुलज़ार होने का अभिनय करतीं और शाम को एक फूँक मार दिए गए चिराग़ सी बुझ बुझ जातीं- यह ऐसा ही एक मुसलसल मरता हुआ अक्टूबर था- मेरे भीतर का मल्लाह कहता है मुझसे-
अक्टूबर मरी हुई स्मृतियों की डोंगी है
पलकों से बँधी हुई….
(दो)
मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है
मिर्ज़ा ग़ालिब
दरअसल उसे ख़्वाब पर कोई यक़ीन था ही नहीं- जैसे ख़्वाब को ख़्वाब की तरह- जैसे मछलियों को ज़मीन की तरह- जैसे कुकनूस को कहावत की तरह- लेकिन ख़्वाब की ठुड्डी पर चस्पा नुक़्ते पर वह ख़ूब ख़ूब यक़ीन करती- ख़्वाब जैसे नींद पर- मछलियाँ जैसे लहरों पर- कुकनूस जैसे बारिश पर-…कहा था उसने एक धुआँ-धुआँ अलसाई-सी घिर आई शाम में-
यह नुक़्ता दश्त-ए-ख़िज़ां से झाँकता वह महताब है जो हमारे होने का गवाह है
गवाह जिसके न होने से एक रोज़ हम एक नामालूम यात्रा पर निकल चुके होंगे
बीत चुके होंगे पैरों के कहीं बहुत पीछे छोड़ दी गई सड़क की तरह
…और एक रोज़ जब कतारबद्ध अपने अपने बिलों की ओर चली जा रही थीं चींटियाँ पीठ पर अपनी रखे हुए राशन ख़्वाब की ठुड्डी पर चस्पा नुक़्ता शाम-ए-फ़िराक़ में कहीं आँसुओं के बियाबाँ में गुम गया- एकदम तय किए गए की तरह अलग दिखे बग़ैर…लेकिन अलग दिखे बग़ैर आज तक कौन अलग हो सका है भला! आज मैंने आँगन-ए-तसव्वुर में ख़्वाब को ख़याल से मुख़ातिब पाया- ख़्वाब का ख़याल से कहना है कि वह हमेशा से उस अनाम की आँखों में-
जी भर ओस होना चाहता रहा…
जी भर ख़ाके-रहे-जानाँ…
जी भर महफ़िल-ए-सुख़न…
जी भर मसर्रत…
जी भर हाथ…
जी भर ग़मख़्वार…
वह जो एक ऐसी नाव पर सवार थी जिसमें नामालूम कितने कितने पैबंद लगे थे आज़ुर्दगी के…ख़ामोशी के…तरतीबी के…बेतरतीबी के…कहे के…अनकहे के….और नामालूम कितने कितने निशान थे एक अधूरी छोड़ दी गई यात्रा के…
ख़्वाब अब सच का महताब होना चाहता है
जाना चाहता है एक तवील यात्रा पर
न नाव पर नहीं
ख़याल पर सवार होकर-
(तीन)
खुल गई आँख तो ताबीर पे रोना आया
शकील बदायुनी
मैं ख़्वाब में देखता हूँ तारों का चाँदनी की चाश्नी में घुल घुल जाना- तुम बड़ी मग्मूम आवाज़ में मुझे अपने क़रीब से क़रीबतर बैठने को कहती हो- आसमान एक सुर्ख़ करवट बदलता है दफ़अतन कि एक (अ)पूर्ण को ठहराव का सबब मिल सके या साहिल को समंदर सा कुछ…या कि वर्तमान जेब में खनकते सिक्कों सी स्मृतियों को बुझा सके…यों भी शब्दकोशों की स्मृतियों में अर्थ के सिर पर टंगा ‘र’ कब से अधूरा है, बिलकुल तुमसे ख़्वाब में मुख़ातिब हुए की तरह-
(चार)
बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे
जौन एलिया
पेड़ की तरह खड़े हैं पेड़ यूँ ही मय-हवा में हवा का आभास भर है- अँधेरे की गिरफ़्त में है रोशनी- जुगनुओं ने कर दिया है आज टिमटिमाना स्थगित मार दिए गए जुगनुओं की याद में- चाँद थककर छिप गया है ठेलों पर सो रहे मज़दूरों के ठीक पीठ पीछे नज़र के बिलकुल सामने- ख़ुद ही ख़ुद की परछाईं पर भौंक विस्मय से भरा हुआ है एक कुत्ता अकेला- दिनभर के थके हारे ऑटो कतारबद्ध सुस्ता रहे हैं देह छिली सड़कों पर जंज़ीरो से बँधे खुलने की उम्मीद लिए- फुटपाथ पर कंबल ओढ़े पड़े आदमी की बगल में पड़ा एक कभी कभार का शराबी गुनगुना रहा है अपना ग़म ग़ुलाम अली के बहाने-
तेरी गली में सारा दिन दुःख के कंकर चुनता हूँ…
अपनी धुन में रहता हूँ…
अपनी लहर है अपना रोग दरिया हूँ और प्यासा हूँ…
अपनी धुन में रहता हूँ…
….और राजधानी के तिराहे पर खड़ी वेश्याओं की धमनियों में बहता ख़ून साँस के पुल पर रुककर सुस्ता रहा है दो घड़ी नींद में जाने से पहले- रात की दहलीज़ पर दस्तक देती खड़ी है सुबह मुठ्ठी में दिन लिए- झाड़ू लगाए जाने की फ़िक्र में ले रही है फ़िक्रभर नींद… माली दुःख की कोरों में बहते पानी से भरता जा रहा है हजारा अपना-कबूतर काँधों को मुंडेर समझ लड़ा रहे हैं अपनी चोंच विदा लेने से पहले- बलात्कार हत्या धोखाधड़ी जालसाज़ी जैसे शब्दों का राज क़ायम है चाय की टपरी पर एक बुज़ुर्ग के चुड़े हुए हाथों में खुले अख़बार में रोज़ की तरह रोज़- दीवार पर टंगी श्वेत-श्याम तस्वीर में चार्ली चैपलिन की बग़ल में बैठा बच्चा तलाश रहा है न जाने क्या रोज़ की तरह रोज़- मुँह छिपाए किसी के ख़यालों में मशगूल संगीत को उँगलियों से स्पर्श करती जाती फ्राक वाली लड़की की पीठ पीछे रोज़ की तरह रोज़ बीते हुए पर डालता हुआ पर्दा निकल रहा है रोज़ का सूरज रोज़ देखना बचाए हुए अपना
…रोज़ की तरह रोज़ कुछ नए की उम्मीद में जीता हुआ-
(पाँच)
और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
न दीखना कितना अजीब है दीखने जैसा…
…कि मैदान-ए-जंग में हताशा का रंग कैसा होता है? कि आसमान से बारिश का मुखौटा पहन मौत कैसे बरसती है साल-दर-साल? कि क़ब्र में पैदा हुए बच्चे की स्मृतियों का रंग कैसा होता है? कि कैसा होता है एक व्यक्ति की सनक के चलते एक दूसरे व्यक्ति को आदमखोर कुत्तों से नुचवा देना? कि गिद्ध बच्चों के चेहरों पर सूख गए आँसुओं पर बैठ आँखें कैसे फोड़ते हैं? कि एक युवा लड़की बंद कमरे में दरीचे की दरार से देह के लिए साँस कैसे जुटाती है रोज़-ब-रोज़?
जीवन, कि जैसे कुछ दीखा कुछ अनदीखा सा…
…कि एक समलैंगिक पुरुष सैनिक गिल्बर्ट ब्रैडली का प्रेम-प्रसंग वर्जित- कि आँखों में माँओं की कभी न ख़त्म होने वाले इंतज़ार का इंतज़ार- कि बाप के छिले हुए कांधों पर रखा क़र्ज़ का भारी गट्ठर- कि बिन ब्याही बहन के चेहरे पर झुर्रियों का बदनुमा जाल होठों पर पपड़ी- कि जंग में गए सिपाही की बीवी के दिल में हर पल बेवा हो जाने का डर- कि बलात्कार कर दूर कहीं बियाबाँ में फेंक दी गई औरतों के जिस्म पर बजबजाते कीड़े- कि ज़ईफ़ी में अपनी नदी में रेता छानती औरत के ख़याल और दिन-ब-दिन जवान होती जाती अपनी बेटी के साथ नीम की दातून बेचते बुज़ुर्ग बाप के माथे पर उभरती हुई सलवटों में हरदम अगले दिन की भूख-
कि दीखना जैसे न दीखना धीरे-धीरे…
…कि परवाज़ करते परिंदे आसमान से ज़मीं की क्या तारीफ़ करते हैं कि वह हर साल बरसे और मन को हरा कर जाए? कि झूठी इज़्ज़त के लिए पेड़ पर लटका कर मार दिए गए प्रेमी-युगल को देख पेड़ की आत्मा की चीख़ कैसी होती है? कि पेड़ काटती कुल्हाड़ी की लकड़ी कैसे मिलाती है नज़र पेड़ से? कि पेड़ से झरता आता पत्ता कहाँ ठहरता आता है ज़मीन का बोसा लेने से पहले? कि किस पुल पर सुस्ताते हैं बादल पहाड़ों से मैदान की ओर कूच करते? कि फुटपाथ पर पलते बच्चे किस भाषा में करते हैं दुआ अपने मानने वाले से कि सपनों में उनके ठोकरें न आए दर-दर की? कि धूप जाड़े में किस मचान पर लगाती है बिस्तर बस्तियों में अलाव जलने से पहले?
माज़ी में कई कई बार बसे-उजड़े शहर की एक इमारत में
तिमंजिले पर दीखा अनदीखा टंगा कवि
सोचता है बार बार कई बार
दीवार घड़ी को समय से मुठभेड़ करते देखते हुए-
4
कवि केदारनाथ सिंह की स्मृति में
आना
जैसे आता है वसंत पेड़ों पर ख़िज़ां के बाद
आते हैं माह-
आषाढ़ सावन भादो
ऋतुएँ मसलन-
वर्षा शरद हेमंत शिशिर
आना
जैसे-
आम पर बौर नीम पर निम्बोरी
गेहूँ में दूध दरिया में रवानी
आँखों की कोरों में फ़क़ीरों की ठहरा हुआ करुणामयी पानी-
आना
किसी झिलमिल रंग की स्वप्निल छवि की तरह
बच्चों के ख़्वाबों के चमन में तितली के पंखों पर फैली बू-ए-गुल की तरह
इबादत-ए-हमदम में मशगूल तस्बीह में गौहर-ए-शबनम की तरह
एक जवान होते जाते लड़के की निगाह में रात के तीसरे पहर चाँद का एक लड़की के बालों में खुसें गुलाब में तब्दील हुए की तरह
किसी चित्रकार के तसव्वुर के मरुस्थल में बहती रेत का नदी में तब्दील हुए की तरह-
आना
मुश्तरका-तहज़ीब की चाशनी में डूबी बिस्मिल्लाह खां की शहनाई में गंगा जैसे
तबले पर ज़ाकिर हुसैन के घोड़ों की क़दमताल जैसे
सरोद में अमज़द अली खां के मियाँ की मल्हार जैसे
गिटार में आर्मिक के नृत्यमग्न प्रेमपत्र जैसे
तस्वीरों में यूसुफ़ कार्श की मदर टेरेसा हेलन केलर और
पाब्लो पिकासो के हाथ जैसे-
बेग़म अख़्तर की आवाज़ में इसरार करती
सुदर्शन फ़ाकिर की ठुमरी के जैसे आना-
‘हमरी अटरिया पे आओ संवरिया
देखा देखी बलम होई जाए’-
दिन-ब-दिन ग़ायब होते जाते ठठेरों मदारियों सपेरों के जैसे आना
चौराहों पर लैटरबॉक्स और दुआरी में टाँड़ के जैसे
महज़ एक मछुआरे की कहानियों में ज़िन्दा बचे
दुभा कैंचकी कैला बोड़ाकी और उद्दा वाली जोहड़ों के जैसे आना
सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के बाहर इलाज के लिए भटकते
एक बुज़ुर्ग दम्पत्ति के लिए दरख़्तों की छाँव के जैसे-
आना
मुफ़्लिसी में गाँव छोड़ते बेटे के माथे पर चस्पा जैसे एक माँ के विदामयी बोसे असंख्य
मैदान-ए-जंग में दुश्मन सिपाही की गोली से लहूलुहान जैसे एक दुश्मन सिपाही को घूँटभर पानी
हिटलर की क़त्लगाह से चंद और मज़दूर यहूदी स्त्री पुरुष बच्चे न बचा सकने वाले ऑस्कर शिंडलर का जैसे एहसास-ए-कमतरी से भरा हुआ कंठ-
आना
मृत्यु के निकट जैसे कोई एक इच्छा आख़िरी
मैदान-ए-हश्र में जैसे कोई एक नेकी बहुत ज़रूरी-
आना
अमन का परिचय लिए आती है जैसे बुद्ध के चेहरे पर मुस्कान
दुनिया को और अधिक मुलायम करने का इरादा लिए आता है जैसे माधुर्य
नेरुदा-नाज़िम की किसी प्रेम कविता में
आना
कोई आता है जैसे अपना बरसों बाद तल्ख़ी-ए-दौराँ को पारकर
आती है जैसे कोहो-दमन पर ख़ुर्शीद-ओ-कमर की रोशनी-
आना
कुछ इस तरह आना-
आते हैं लौटकर अनवरत क्रम में जैसे
थके हारे पंछी
नील गगन से अपने अपने बसेरों की ओर
यह बताने
कि आना-
जाने से
कहीं ज़्यादा बेहतर है.
आमिर हमज़ा 03 मई, साल 1994 युद्ध संबन्धित साहित्य, चित्रकला, सिनेमा और फ़ोटोग्राफ़ी में विशेष दिलचस्पी |
शानदार कविताएं।
आमिर हमज़ा नये तेवर के रचनाकार हैं । मशरिक़ से मग़रिब तक पूरी धरती को ही नहीं कायनात को कवर करता यह अंक लाजवाब है । माँ की तस्वीर टाँगने के लिये दीवार का एक अदद टुकड़ा नहीं है । क्योंकि मज़हब में मनाही है ।
मैं अपनी ओर से लिख रहा हूँ कि काश पैगंबर मुहम्मद की तस्वीर बनाने की मनाही न होती तो मुसलमान दरगाह पर जाकर ज़ियारत न करते । बहरहाल, केदारनाथ सिंह की कविता आना जब समय मिले और समय न मिले तब भी आना । दिनों को चीरते फाड़ते और वादों की धज्जियाँ उड़ाते हुए आना । आना जैसे मंगल के बाद चला आता है बुध-कविता पर हमज़ा साहब ने नयी इबारत लिखी है ।
आमिर हमज़ा की कविताएँ उस नयेपन, संवेदना और जीवन के रोज़मर्रा के यथार्थ को दृश्यमान करती हैं जो किसी संभावनाशील युवतर कवि से अपेक्षित है। विडंबनाओं को कविता में कैसे रखा जा सकता है, ये कविताएँ इसका उदाहरण भी हैं। कवि को बधाई और शुभकामनाएँ।
कविता मेरे लिए अक्सर पहेली की तरह सामने आतीं हैं और सारी होशियारी के हेकड़ी निकाल देतीं हैं| आमिर हमज़ा की कविता सरलता से जेहन में उतर रहीं हैं और अपना सीधा सरल संदेश देने में सफल हो रही हैं|
आमिर हमज़ा की ये कविताएँ उनके अनुभव जगत के विस्तृत फलक की साक्षी हैं। शब्दों को चुन-चुनकर जो भाषा बुन रहे हैं, विस्मित करती है, आकर्षण में बाँधती है।
भारतीय समाज के टिपिकल मॉं-पिता की छवि निर्मित करने में वे सफल रहे हैं, साथ ही जिस तरह से दुनिया नाप रहे हैं, आश्वस्त करता है कि भविष्य में संश्लिष्ट गझिन रचते रहेंगे।
आज फिर से आमिर हमज़ा की कविताओं को पढ़ा ।
उम्दा कविताएं।आमिर को ढेरों शुभकामनाएं।
उम्दा कविताएं,आमिर को ढेरों शुभकामनाएं
वाह! बहुत ख़ूब कविताएं। कवि आमिर हमज़ा केलिए शुभकामनाएं।
सुबह से कोई एक लम्हा ढूँढ़ रही थी कि आमिर का शुक्रिया अदा कर सकूँ कि आज के दिन दुनिया की अज़ीम-तरीन कविताओं से भी इक्कीस हो गईं ये कृतियाँ मेरे लिए। मेरी माँ मेरे लिए दुनिया की सबसे सम्मोहक कविता है जो मेरे वुजूद को अजगर की तरह घेरे बैठी है। ग़नीमत कि यह अजगर अपने बलों के कसाव के लम्हों को मेरी जान की ख़ातिर मुल्तवी करता जा रहा है। इस अजगर की मरती हुई खूबसूरती का साक्षी तक हो पाने में जो बाधाएं मेरे हिस्से में आ रही हैं उनका बयान आमिर ने आज मेरे लिए कर दिया… आमिर की कविताओं को अपना मानकर कभी और अच्छे से पढूंगी। अभी तो मैंने इन्हें हल्का सा सूंघ कर निगल लिया है क्योंकि मेरे खुद के शब्द और वाक्य मुझे छोड़ चुके हैं। कविता का शब्द तक मुझे ख़्वाबीदा महसूस होने लगा है।
मुझे माँ से बड़ी कोई कविता नहीं लगती इन दिनों। पता नहीं कितने दिन का साथ है। इस साथ पर लगातार हिंसात्मक वार किए जा रहे हैं। बड़ी मुश्किल से दुश्मनों के खेमे में सेंध लगाकर मां से मुलाक़ात हो पाती है। इतने क़रीबी शत्रु भी किसी किसी को नसीब होते होंगे।
आमिर, तुम्हें मेरा दिल हमेशा दुआएँ देता रहेगा। मैं लौटूंगी तुम्हारी कविता की पनाहगार में कभी, जब माँ मुझसे ख़ुद को लिखवाना चाहेगी।
…..
“Now I’ve forgotten her. Now I can write about her.”
—Marguerite Duras
बहुत अच्छा