केदारनाथ सिंह
क्या आप विश्वास करेंगे !
पंकज चतुर्वेदी
कैसा विचित्र संयोग है कि यशस्वी कवि केदारनाथ सिंह के देहावसान के सिर्फ़ पंद्रह दिन पहले मैंने अपनी डायरी में दर्ज किया था कि हर साल पतझर के आसपास उनका यह गीत ज़रूर याद आता है, जब ज़िंदगी आगे नहीं जाना चाहती और सतृष्ण निगाह से अतीत की ओर देखती है, बेशक यह जानते हुए कि इस देखने का कुछ हासिल नहीं –
”झरने लगे नीम के पत्ते, बढ़ने लगी उदासी मन की
उड़ने लगी बुझे खेतों से
झुर-झुर सरसों की रंगीनी
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों—सुधियों की चादर अनबीनी
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की.”
और कवि ने अंतिम विदा लेकर कहीं गहरे बहुत उदास कर दिया और मालूम होता है कि सचमुच जीवन, यानी हिंदी कविता की प्रगति उनकी अनुपस्थिति के सुनसान में रुक-सी गयी है. दरअसल मैं इस आघात के लिए बिलकुल तैयार नहीं था. हालाँकि बीते जाड़े में कोलकाता से, उन्हें निमोनिया हो जाने और फिर उनके अस्पताल में दाख़िल होने की ख़बर आयी थी, मगर यक़ीन यही था कि वह स्वस्थ होकर घर लौट आयेंगे. ऐसा हुआ भी, पर शायद अस्पताल उन्हें दोबारा जाना पड़ा और यह अनहोनी होकर रही. कुछ वर्ष पहले मैंने उनका एक इंटरव्यू लिया था, जिसमें ज़िंदगी से जुड़े एक सवाल पर प्रकारांतर से उन्होंने शतायु होने की कामना का इज़हार किया था कि ‘मेरी माँ अभी सौ वर्ष पूरे करके गयी है.’ दूसरे, वह इतने सुंदर और प्रियदर्शन थे कि जो लोग किसी भी स्तर पर उनके क़रीब रहे हैं, वे उनकी बीमारी और मृत्यु की कल्पना भी नहीं कर सकते. कविता हो या जीवन, अगर सार-रूप में पूछा जाय, तो दोनों में अपने वक़्त की चुनौतियों का सामना करते हुए भी दो चीज़ों का उन्होंने बराबर ख़याल रखा और उन्हें आहत नहीं होने दिया : सौंदर्य और गरिमा. लाज़िम है कि वह अपनी कविता की कलात्मकता के लिए मशहूर हुए और व्यक्तित्व की सर्वप्रियता के लिए भी.
(एक)
कुछ कवि इतने मूल्यवान् होते हैं कि उनका जाना सिर्फ़ शोक-संतप्त नहीं करता, बल्कि दहशत भी पैदा करता है. उनका न रहना किसी एक भाषाई समाज की नहीं, समूची मानव-सभ्यता की क्षति होती है. कवि केदारनाथ सिंह की विदाई ऐसी ही है. बिरले कवि होते हैं, जो बहुत कम शब्दों में महान कथन संभव करते हैं, जिनके चिंतन में ज़िंदगी का सारभूत सच समाहित रहता है और जो सहजतम ढंग से मनुष्यता को उसके उदात्त लक्ष्यों की पहचान कराते हैं. इन विशेषताओं की बदौलत केदारनाथ सिंह की कविताएँ मुहावरों की तरह लोकप्रिय हुईं और जाने कितनी पीढ़ियों की ज़बान पर रहती आयी हैं.
उनकी कविता में बराबर प्रेम को मौजूदा समय में असंभव बना दिये जाने के यथार्थ से जनमी एक उदासी अन्तःसलिल है. यह लिखकर उन्होंने हमारी सभ्यता की केंद्रीय विडम्बना की शिनाख्त की थी कि
”…..सच तो यह है कि यहाँ
या कहीं भी फ़र्क़ नहीं पड़ता
तुमने जहाँ लिखा है ‘प्यार’
वहाँ लिख दो ‘सड़क’
फ़र्क़ नहीं पड़ता
मेरे युग का मुहाविरा है
फ़र्क़ नहीं पड़ता.”
उनकी शायद सबसे अच्छी कविताएँ प्रेम के संदर्भ में ‘इंडिफ़रेंस’ या बेज़ारी के इसी रवैये से चुपचाप जूझते रहने की उनकी फ़ितरत का नतीजा हैं. मसलन ‘हाथ’ : ‘
‘उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए.”
इसीलिए अपने प्रिय के जाने से अधिक स्तब्ध और विचलित करनेवाली जीवन की कोई घटना नहीं हो सकती, इस सच को जितने सांद्र और ख़ूबसूरत ढंग से केदारनाथ सिंह ने बयान किया, आधुनिक कविता में वह बेमिसाल है :
”मैं जा रही हूँ—उसने कहा
जाओ—मैंने उत्तर दिया
यह जानते हुए कि जाना
हिंदी की सबसे ख़ौफ़नाक क्रिया है.”
ग़ौरतलब है कि भारतीय चिंतन और कविता में प्रेम के अभाव या प्रिय के बिछोह में दहशत के इस एहसास की एक सुदीर्घ परम्परा मिलती है, जिससे केदार जी की यह कविता कहीं गहरे जुड़ी हुई है. पालि, अवधी और उर्दू की रचनात्मक अभिव्यक्तियाँ इस लिहाज़ से बहुत सुंदर और मार्मिक हैं. सबसे पहले ‘धम्मपदम्’ में तृष्णा-श्रेणी में प्रेम, काम, रति एवं तृष्णा के संदर्भ में बुद्ध के ऐसे वचन द्रष्टव्य हैं :
”पियतो जायती सोको पियतो जायती भयं
पियतो विप्पमुत्तस्स नत्थि सोको कुतो भयं.”
(प्रिय से शोक होता है और प्रिय से भय ; मगर जो उससे भली-भाँति मुक्त है, उसे शोक नहीं होता, भय की तो बात ही क्या !)
इसी तरह तुलसी के ‘रामचरितमानस’ में सीता के वियोग में राम, अपने छोटे भाई लक्ष्मण को संबोधित करते हुए कहते हैं :
”घन घमंड गरजत नभ घोरा. प्रियाहीन डरपत मन मोरा..”
या फिर :
”देखहु तात वसंत सुहावा. प्रियाहीन मोहिं भय उपजावा..”
महज़ इत्तिफ़ाक़ नहीं कि मीर भी अपनी मशहूर ग़ज़ल में इस आशय का इज़हार करते हैं कि मुसीबतें तो और भी थीं, मगर प्रिय की विदाई एक अनोखे हादसे की मानिंद है :
”मसाइब और थे, पर दिल का जाना
‘अजब इक सानिहः-सा हो गया है.
सरहाने मीर के, कोई न बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है.”
कहने की ज़रूरत नहीं कि भारतीय भाव-बोध से इस गहन संसक्ति के नतीजे में केदार जी की कविता हमारे भीतर न सिर्फ़ ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान के तारों को कई स्तरों पर झंकृत करती है, बल्कि इसी बदौलत अपने समय की सीमा को अतिक्रांत कर कालजयी भी होती है.
केदारनाथ सिंह ने गीतों से अपने रचनात्मक सफ़र की शुरूआत की थी. एक कवि-सम्मेलन में जब वह गीत सुना रहे थे, तो उसकी अध्यक्षता कर रहे मर्मज्ञ कवि अज्ञेय उनसे प्रभावित हुए और ठाकुरप्रसाद सिंह के हाथों उनके पास एक चिट भिजवाई, जिसमें लिखा था : ‘क्या इन गीतों को ‘प्रतीक’ में प्रकाशित करने की अनुमति देंगे ?’ अज्ञेय उस ज़माने के शीर्ष कवियों में-से थे, इसलिए यह आमंत्रण केदार जी के लिए किसी पुरस्कार से कम न था. बाद में अज्ञेय ने उन्हें ‘तीसरा सप्तक’ में शामिल कर अपनी अनुशंसा को एक तार्किक परिणति प्रदान की. इसलिए केदार जी उनके प्रति एक कृतज्ञता अंत तक महसूस करते रहे.
लेकिन आज की तारीख़ में यह कहना कि वह ‘अज्ञेय के प्रशंसक’ थे, एक अर्द्ध-सत्य का प्रचार करना है और इस सचाई से ध्यान भटकाने की प्रच्छन्न कोशिश मालूम होती है कि हिंदी में लम्बे समय तक व्यक्ति-स्वातंत्र्य-प्रिय आधुनिकतावाद और मुक्तिधर्मी प्रगतिवाद के बीच जो साहित्यिक समर चलता रहा; उसमें रचनात्मक और वैचारिक, दोनों स्तरों पर केदार जी ने अज्ञेय के बरअक्स प्रगतिशील ख़ेमे का ही साथ दिया.
अज्ञेय की काव्य-यात्रा के पूर्वार्द्ध की वह सराहना करते हैं, मगर उसके उत्तरार्द्ध में बढ़ती गयी आत्मबद्धता, शास्त्र-निर्भरता और रहस्यमयता से मायूस होकर लिखते हैं कि
‘अज्ञेय की कहानी खुलेपन में विश्वास रखनेवाले एक कवि के क्रमशः बंद होते जाने की विडंबनापूर्ण कहानी है.’
अज्ञेय का प्रसिद्ध मौन उन्हें दार्शनिक मौन नहीं जान पड़ता और इस तर्क से भी वह सहमत नहीं कि यह मौन जीवन के सघन विषाद की स्वाभाविक निष्पत्ति था :
”विद्यानिवास मिश्र का कहना था कि क्रांतिकारी के रूप में उन्होंने जो दिन जेल में बिताये और जो यातनाएँ झेलीं, उसने उन्हें मौन कर दिया. लेकिन मैं नहीं जानता कि इसकी वजह वही थी.”
केदारनाथ सिंह ने कवि के रूप में शुरूआत से ही अपनी एक अलग राह निर्मित की और उनकी कविता पर अज्ञेय का थोड़ा-बहुत असर हो तो हो, कोई ख़ास प्रभाव नज़र नहीं आता. ज़रूरत पड़ने पर वह अज्ञेय के ‘साहित्यिक नेतृत्व’ की विफलता की भी शिनाख़्त करते हैं. मसलन उन्होंने कवियों के जो तीन सप्तक सम्पादित किये, उनमें सम्मिलित इक्कीस कवियों में-से दस-बारह कवि कालांतर में हिंदी के बड़े कवि साबित हुए. लेकिन ‘चौथा सप्तक’ प्रायः असफल रहा और उसका कोई कवि उतना महत्त्वपूर्ण नहीं बन सका. एक बार केदार जी से चौथे सप्तक के बारे में उनकी राय पूछी गयी, तो बोले :
‘मुझे लगता है कि अज्ञेय ने तीनों सप्तकों के कवियों से बदला लेने के लिए ‘चौथा सप्तक’ निकाला है.’
आधुनिक समय में नये कवियों के प्रति वरिष्ठ कवियों के नज़रिये की दो परम्पराएँ बन गयीं. एक के जनक निराला हैं, जो ‘हिंदी के सुमनों के प्रति पत्र’ में इस आशय की बात कहते हुए भी कि ‘अब मेरे सूर्यास्त का समय है ‘, नये कवियों के अभ्युदय का मुक्त हृदय से स्वागत करते हैं, अगरचे इस आत्माभिमान और सचाई के इसरार के साथ कि ”मैं ही वसंत का अग्रदूत !” अपने विकट संघर्ष की स्मृतियों और अवदान की विशद महत्ता के एहसास को अतिक्रमित कर वह जिस तरह नये कवियों के चरणों तले अपने वजूद को बिछाकर उनका अभिनंदन करते हैं, बल्कि सच कहें, तो उनके आगमन का उत्सव मनाते हैं, वैसी आत्यंतिक सहृदयता के मद्देनज़र यह कविता अप्रतिम है और एक क्लासिक है :
”मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज,
तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन
मैं हूँ केवल पदतल-आसन,
तुम सहज विराजे महाराज.”
दूसरे नज़रिए के प्रतिनिधि या पितृ-पुरुष अज्ञेय हैं ; जो ‘नये कवि से’ शीर्षक कविता में, बयान के लहजे से ज़ाहिर है कि नये कवियों द्वारा की गयी अपनी उपेक्षा और आलोचना से बहुत आहत और क्षुब्ध हैं ; इसलिए लगातार स्व-निर्मित ‘विशिष्ट’ काव्य-पथ के औचित्य-निरूपण, उससे जुड़े संघर्ष और श्रेष्ठता के बखान में मुब्तला रहते हैं और सदाशयता के सारे आडम्बर के बावजूद उनके प्रति अपने अंतःकरण में निहित कटुता और तिरस्कार को छिपा नहीं पाते. यहाँ तक कि उन्हें अमर्यादित, ‘गतानुगामी’, यानी अ-मौलिक और ‘दर्प-स्फीत’ भी कहते हैं. गोया ये कृतघ्न लोग आयेंगे और उनका अपमान करते हुए भी उनकी अर्जित सम्पदा का अपहरण कर लेंगे :
”आ, तू आ, हाँ, आ,
मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,
मिटाता उसे, मुझे मुँह भर-भर गाली देता–
आ, तू आ!”
कहना ग़ैर-ज़रूरी है कि इन दोनों धाराओं से सम्बन्ध रखनेवाले कवि हिंदी में आज भी सक्रिय हैं ; अलबत्ता नवागत कवियों के स्वागत के मामले में केदार जी, निराला की परम्परा से जुड़ते हैं.
केदार जी ने अपनी रचनात्मक यात्रा की शुरूआत गीतों के सृजन से की थी, मगर बाद में गीत लिखना छोड़ दिया. इसका कारण स्पष्ट करते हुए उनका यह बयान बहुत मशहूर हुआ कि ‘गीत में पहली पंक्ति एक तानाशाह की तरह व्यवहार करती है.’ बाक़ी गीत उसी टेक की तर्ज़ पर लिखना पड़ता है. नतीजतन, कहना आप कुछ चाहते हैं और छंद के आग्रह से कोई दूसरी ही बात कहने को मजबूर होते हैं. इसलिए कविता के अपने लोकतंत्र की रक्षा के ख़याल से गीत लिखते रहना उन्हें असंभव जान पड़ा. ग़ौरतलब है कि देश में भी अगर लोकतंत्र के बजाए अधिनायकवादी तंत्र हो, तो सच बोलना नामुमकिन हो जाता है. मगर फिर भी कोई यह साहस करता है, तो उसे इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है. बावजूद इसके, केदार जी की कविता लोकतंत्र के सतत समर्थन में रची गयी है, तभी वह कहते हैं :
”ठण्ड से नहीं मरते शब्द
वे मर जाते हैं साहस की कमी से
कई बार मौसम की नमी से
मर जाते हैं शब्द.”
इसलिए उनके लेखे, किसी भी सत्ता-तंत्र और शक्ति-संरचना पर सवाल उठाना, उसे संदेह, बहस और आलोचना के दायरे में लाना बहुत ज़रूरी है. अन्यथा हम एक नये इतिहास की रचना नहीं कर सकते और अपनी भाषाओं को निरर्थक होने से बचा नहीं सकते :
”पूछो
यह दिन है कि रात
मार्च है कि दिसंबर
कटनी है
कि काठगोदाम
पूछो…………मगर पूछो
क्योंकि पूछने से पृथ्वी पबनने लगता है समय
पूछो कि पूछ्ने वालों की सूची में
नहीं है तुम्हारा नाम
फिर भी पूछो
चाहे ख़ुद से ही पूछो
जैसे वायुयान का चालक
पृथ्वी से पूछता है
जैसे पृथ्वी पूछती है
तारों के राडार से
पूछो
पूछो कि पूछने से भाषाएँ
ज़िंदा रहती हैं.”
इसी आधुनिक लोकतांत्रिक दृष्टि से वह धर्म और शास्त्रों को भी देखते थे. उन्हें हिंदू धर्म पसंद था, मगर इसलिए कि यह अपने अनुयायियों को आकाशधर्मी स्वतंत्रता प्रदान करता है और किसी एक आचार-संहिता के पालन के लिए बाध्य नहीं करता. एक बार वह हम लोगों से बोले कि
‘हिंदुओं का कोई एक धर्म-ग्रन्थ नहीं है, यह कितनी अच्छी बात है !’
यहाँ बहुत-से धार्मिक मतों और दार्शनिक धाराओं का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व है, जो इस देश को विशिष्ट, सुंदर, समृद्ध और सशक्त बनाता है. आप कुछ भी मानने के लिए स्वतंत्र हैं और न मानने के लिए भी. आख़िर वैदिक काल से ही आस्तिकों के साथ-साथ नास्तिकों और चार्वाकों की भी परम्परा चली आती है.
मैंने उनसे कहा कि ‘गीता में कहीं-कहीं बहुत श्रेष्ठ कविता मिल जाती है.’ उनका जवाब था कि
‘वह तो ठीक है, पर उसमें कृष्ण का यह कथन मुझे अच्छा नहीं लगता : ”सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज. अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः..” यानी समस्त धर्मों का परित्याग कर मुझ एक की शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मोक्ष प्रदान करूँगा, चिंता मत करो !’
‘एक’ का यह आत्यंतिक आग्रह उस बहुलता या स्वतंत्रता को सीमित करता है, जो धर्म के संदर्भ में हमारे यहाँ प्रदत्त है.
केदार जी को वैसी कविता ज़्यादा प्रिय थी, जो परम्परा और संस्कृति की गहनता से छनकर आती हो. जैसे नागार्जुन की कविता :
”कालिदास, सच-सच बतलाना
इंदुमती के मृत्यु-शोक से
अज रोया या तुम रोये थे !”
वह कहते थे कि जिस कविता की जड़ें अपनी संस्कृति में जितनी गहरे गयी होती हैं, किसी और भाषा में उसका अनुवाद उतना ही मुश्किल होता है और श्रेष्ठ कविता की एक परिभाषा यह भी है कि वह अनुवाद को असंभव बना देती है. परम्परा एक वृहद् कैनवास की तरह है, जिस पर न जाने कितने मनीषियों और कवियों ने अपने विचार और रचनाएँ अंकित कर रखी हैं. उन्हीं के बीच जो ख़ाली छूटी जगहें हैं, उनमें नये कवियों को लिखना होता है—अपने पूर्वजों का ऋण स्वीकार करते हुए और उनके दाय को वहन करने के लिए, इस तरह कि अपनी अनन्यता को भी व्यक्त किया जा सके ! यही चैलेंज है, इसलिए उत्कृष्ट कवि वे होते हैं, जो कोरी स्लेट पर नहीं लिखते. इस लिहाज़ से उनकी ‘एक कविता — निराला को याद करते हुए’ अविस्मरणीय है, जो ‘गीता’ की इस स्थापना को सत्यापित करती है कि कवि का भाव-योग, दूसरों के ज्ञान-योग और कर्म-योग के समकक्ष है :
”उठता हाहाकार जिधर है
उसी तरफ़ अपना भी घर है
ख़ुश हूँ — आती है रह-रहकर
जीने की सुगन्ध बह-बहकर
उसी ओर कुछ झुका-झुका-सा
सोच रहा हूँ रुका-रुका-सा
गोली दगे न हाथापाई
अपनी है यह अजब लड़ाई
रोज़ उसी दर्ज़ी के घर तक
एक प्रश्न से सौ उत्तर तक
रोज़ कहीं टाँके पड़ते हैं
रोज़ उधड़ जाती है सीवन
‘दुखता रहता है अब जीवन’ ”
(दो)
केदार जी मितभाषी थे. क्लास में बोलना तो विवशता थी, वैसे हम शिष्यों से बोलते बहुत कम थे. लगभग नहीं. इस लिहाज़ से पास होते हुए भी वह काफ़ी दूर थे. पढ़ाते वक़्त अपनी मूल्यवान संवेदनशील अंतर्वस्तु और विश्लेषण के आकर्षक अंदाज़ से वह एक सम्मोहक वातावरण रच देते थे. इसलिए बीच-बीच में जब वह घड़ी देखते, तो मुझे डर लगता कि ‘कहीं ये चले न जायें !’ अभिवादन का जवाब भी हमेशा निःशब्द रहकर देते थे—हवा में आधा उठा हुआ हाथ उनकी जानी-पहचानी मुद्रा थी, गोया वह उनकी कविता की ही एक सुंदर भंगिमा हो. किसी को यह ‘मैनरिज़्म’ लग सकता था, मगर ऐसा था नहीं. आरम्भ से वह ऐसे ही थे. ‘तीसरा सप्तक’ में अपने ‘परिचय’ में उन्होंने लिखा है :
”कविता, संगीत और अकेलापन, तीन चीज़ें मुझे बेहद प्रिय हैं. मित्र बहुत कम बना पाता हूँ, क्योंकि एक व्यावहारिक व्यक्ति में जो खुलापन होना चाहिए, उसका मुझमें नितांत अभाव है.”
वह सुदर्शन और सुव्यवस्थित बहुत थे. हमेशा ताज़ादम, साफ़-सुथरे और संजीदा दिखायी पड़ते. ज़िंदगी में चाहे जो अभाव या पीड़ा रही हो, मैंने उन्हें कभी अस्त-व्यस्त, उदास और उजड़ा हुआ नहीं देखा. शायद इसके पीछे उनका चिंतन यह रहा हो कि जीवन को पूरे सम्मान के साथ जिया जाना चाहिए. उनके व्यक्तित्व की प्रतिकृति की मानिंद कविता भी इस मंतव्य का इसरार करती है. उसमें शब्द-स्फीति और मुखरता नहीं है. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने बहुत सही आकलन किया है कि
”अतिकथन और मितकथन के बीच का रास्ता केदार ने बड़ी चिंता के साथ खोजा है.”
कम और सारवान् अभिव्यक्ति के आग्रह के चलते उनकी उम्र की तुलना में देखा जाय, तो उन्होंने ज़्यादा नहीं लिखा है : हाल ही में प्रकाशित नव्यतम कविता-संग्रह ‘मतदान-केन्द्र पर झपकी’ को मिलाकर उनके कुल नौ संग्रह हैं. पहले और दूसरे संग्रह के बीच तो बीस वर्षों का दीर्घ अंतराल है. उनकी कविता गवाह है कि सार्थकता अर्जित करने के लिए मौन और विचारमग्न रहने की तपस्या करनी पड़ती है :
”ओ मेरी भाषा
मैं लौटता हूँ तुम में
जब चुप रहते-रहते
अकड़ जाती है मेरी जीभ
दुखने लगती है
मेरी आत्मा”
दूसरी बात यह है कि ज़िंदगी की विडंबना का कई बार कोई समाधान नहीं होता, उसके समक्ष चुप रह जाने के सिवा चारा क्या है ? सूरदास के कृष्ण ब्रज को याद करते हुए प्रेम के उस टूट और बिखर गये स्वप्न-लोक को संभवतः पुनर्सृजित करना, उसमें लौटना चाहते हैं; पर इसे असंभव जानकर अंततः चुप और विषण्ण रह जाते हैं :
“ऊधो, ब्रज मोहिं बिसरत नाहीं……..सूरदास प्रभु रहे मौन ह्वै, यह कहि-कहि पछ्ताहीं ..”
यानी आप जितने संजीदा होंगे, यह जीवन आपको उतना ही अकेला और निःशब्द करता जायेगा. मसलन भारत-विभाजन की ट्रेजेडी के अनंतर अपने गाँव के नूर मियाँ को कविता में याद करते हुए केदार जी का अंदाज़ और उनके द्वारा सिरजे गये नूर मियाँ के बिम्ब बहुत मर्मस्पर्शी और विचलित करनेवाले हैं. लेकिन किया क्या जाय ? किया कुछ नहीं जा सकता ! बँटवारा हो चुका है और नूर मियाँ कभी न लौटने के लिए पाकिस्तान जा चुके हैं. गंगा-जमुनी संस्कृति के उस परिवेश को अलविदा कहकर, उसे विपन्न बनाते हुए, जिसमें कवि पला-बढ़ा था. गोया विस्थापन के निजी दंश को उजागर करती हुई यह कविता हमारी सामासिक संस्कृति की एक महान विफलता का बहुत शांत और मार्मिक आख्यान बन जाती है और तमाम वाचाल राजनीतिक कविताओं से कहीं अधिक अर्थ-गर्भित. समापन बेचारगी के इस विकल एहसास से होता है :
”तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह
क्या तुम्हारा गणित कमज़ोर है?”
केदार जी कविता के ‘निकटस्थ अध्ययन’ के हिमायती थे. ये उनके प्रिय शब्द थे. अगर ग़ौर से देखेंगे, तो उनकी कविता में एक चुप्पी और विषाद घुला-मिला है, जो ‘जीवन की जटिल समस्या’ का निराकरण न कर पाने के गहन एहसास से जनमा है. जो बात कबीर ने कही थी कि ”दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवे”, उसे केदारनाथ सिंह लगभग अदृश्य ढंग से पृथ्वी के समस्त कवियों का साझा बयान बना देते हैं ; मगर सारी विडंबना के बावजूद तल्ख़ी या व्यंग्य के साथ नहीं, बल्कि कृतज्ञता या कहें कि शुभकामना के अपने ही शालीन, सुहृत् लहजे में :
”और जब सारा शहर सो जाता है
तो इन सारी कविताओं में
भरा अवसाद
दुनिया पर बरसता है
सारी-सारी रात
पर मौसम
चाहे जितना ख़राब हो
उम्मीद नहीं छोड़तीं कविताएँ
वे किसी अदृश्य खिड़की से
चुपचाप देखती रहती हैं
हर आते-जाते को
और बुदबुदाती हैं
धन्यवाद ! धन्यवाद !”
केदारनाथ सिंह बड़े-बड़े शब्दों से स्वयं को मंडित किया जाना अस्वीकार करते थे. एक इंटरव्यू में उनसे कहा गया कि ‘आप लम्बे समय से साहित्य-साधना करते आ रहे हैं’, तो उन्होंने जवाब दिया : ”साधना शब्द का मैं अधिकारी नहीं हूँ.” यह विनम्रता सुंदर है, क्योंकि सत्य से उनकी प्रतिश्रुति इसमें नज़र आती है. किसी मक़सद के लिए जूझ जाने या अपने को विकट संघर्ष में खपा देने का उनका स्वभाव नहीं था.
यह ज़रूर है कि आडम्बर, अलंकरण या वाचालता के बग़ैर कविता को कैसे निखारा जाय, इस चिंतन में वह हर पल निमज्जित रहते थे. उनकी कविता में कला है और ख़ूब है, पर वह अपनी कलात्मकता में सहज है. वह यांत्रिक, आत्महीन, उबाऊ और बोझिल नहीं है कि थका दे ! इसके विपरीत अपनी नैसर्गिकता की बदौलत संजीदा, आकर्षक और आत्मीय है.
कविता के लिए बेशक अध्यवसाय ज़रूरी है, मगर वह पाठक पर मढ़ने के लिए नहीं, कवि की अपनी ज़िम्मेदारी है. शायद इसीलिए वह कहते थे कि कविता में ‘प्रयास का पसीना’ नहीं दिखना चाहिए.
ग़ालिब का शे’र है :
”कोई मेरे दिल से पूछे, तिरे तीर-ए-नीमकश को
यह ख़लिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता.”
कविता का सौंदर्य और वेधकता कई बार उसके तीर के आधा खिंचा हुआ होने में है. इसी सिफ़त से वह दिल को लहूलुहान करती हुई भी उसका हिस्सा हो जाती है. एक मानी में केदारनाथ सिंह की कविता का यही वैशिष्ट्य है. उनकी सबसे प्रिय कविता थी ‘बनारस’, जिसमें उस शहर के बारे में जो वह कहते हैं, वह उनकी कविता का भी सच है :
”अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं है.”
सीधा और निरावरण वार करना उनका स्वभाव नहीं था, न कविता में, न जीवन में. यह मितकथन का लहजा, यह नफ़ासत या संभ्रांतता ही उन्हें केदारनाथ सिंह बनाती है………..और इसी की बदौलत उनकी कविता में वह कशिश और मर्मस्पर्शिता है कि वह स्मरण में रह जाती है. उसमें अभिव्यक्ति का संकोच है, पर उसकी अनिवार्यता का इसरार भी और यह कशमकश उसे आकर्षक और वेध्य बनाती है :
”मैं जानता हूँ बाहर होना एक ऐसा रास्ता है
जो अच्छा होने की ओर खुलता है
और मैं देख रहा हूँ इस खिड़की के बाहर
एक समूचा शहर है
एक विशाल फूल की तरह खिलता हुआ शहर
जहाँ मेरे बहुत-से दोस्त हैं
और बहुत-से बधस्थल”
वह हमारे गुरु रहे, पर दुर्लभ सच है कि हमसे कभी कोई कठोर बात नहीं कही. ऐसा सिर्फ़ एक प्रसंग याद आता है. वह कविता पढ़ा रहे थे और पूरे प्रवाह में थे. सहसा किसी विद्यार्थी ने एक बहुत साधारण शब्द का अर्थ उनसे पूछा. ध्यान भंग हुआ. इसलिए उसके बग़ल में बैठे हुए छात्र से वह बोले :
”क्लास के बाद इन्हें इस शब्द का आशय बता देना !”
केदारनाथ सिंह माँ, मातृभूमि, मातृभाषा और भारत की जीवन-रेखा गंगा नदी से गहन और अनथक लगाव के कवि हैं. कहीं-कहीं तो प्यार के ये रंग इतने संश्लिष्ट हो गये हैं कि उन्हें अलगाया नहीं जा सकता. माँ मनुष्य के जीवन में आख़िरी उम्मीद की तरह होती है—जब चारों ओर अँधेरा हो, तब भी रौशनी के क़तरे की मानिंद. इस हद तक कि उसे यक़ीन रहता है, माँ जिस भी अँधेरे संसार में जायेगी, अपने होने की आभा से उसे समुज्ज्वल करेगी. शायद इसी मानी में कवि केदारनाथ सिंह कहते हैं कि माँ को—उसके देहावसान के अनन्तर—गंगा को समर्पित कर आया हूँ और तकलीफ़देह सही, पर इससे बेहतर विदाई हो नहीं सकती, क्योंकि गंगा उसे प्रिय थी :
“जैसे दिया सिराया जाता है
कल माँ को सिरा आया भागीरथी में
कई दिनों से गंगा नहाने की
कर रही थी ज़िद”
गंगा भारतीय जन-जीवन में प्राणधारा की तरह समादृत है और विज्ञान यह मानता है कि मृत्यु के बाद कोई जीवन नहीं ; फिर भी दिवंगत का जीवन तब तक चलता है, जब तक उससे जुड़े लोगों की साँस चलती है. इसलिए अंतिम विदा के बाद कवि को भय लगता है कि अथाह अँधेरे जल-मार्ग में माँ पर जाने क्या बीते और वह कुछ देर नदी-तट पर अनिश्चय और अवसाद में खड़ा रहता है, पानी में खो गयी माँ को देख पाने की विफल कोशिश करता हुआ.
तभी उसे ख़याल आता है कि माँ को मातृभाषा के अलावा कोई भाषा नहीं आती, इसलिए जिस रास्ते वह गयी है, उसे कितने परायेपन का सामना करना होगा ! जीवन जितना पानी पर निर्भर है, उससे कम भाषा पर नहीं—-तनाव के इसी मिलन-बिंदु पर कविता का समापन घटित होता है. एक अर्थ में वह आश्वस्त है, क्योंकि माँ गंगा से एकात्म हो गयी है और वह भी माँ है, लेकिन फिर उसे यह भय घेर लेता है कि अपनी भाषा से अपरिचित संसार में वह कैसे जियेगी ! इसलिए कवि गंगा से प्रार्थना करता है कि ‘माँ का ख़याल रखना !’ मनुष्य और मातृभाषा के संवेदनशील रिश्ते पर इससे मार्मिक कविता शायद ही लिखी गयी हो :
“कुछ देर इस उम्मीद में
शायद कुछ दिख जाए
खड़ा-खड़ा देखता रहा जल के भीतर की
वह गहरी अँधेरी जाम-लगी सड़क
और जब कुछ नहीं दिखा
तो मैंने भागीरथी से कहा—
माँ,
माँ का ख़याल रखना
उसे सिर्फ़ भोजपुरी आती है.”
उनकी कविता इस सवाल के सन्दर्भ में भी माँ के आत्यंतिक महत्त्व को रेखांकित करती है कि उत्कर्ष के लिए बधाई का अधिकारी कौन है? अगर मनुष्य आकाश की-सी ऊँचाई तक पहुँचता है, तो इसके लिए सम्मान का वास्तविक हक़ पृथ्वी को है, जो जीवन की आधारशिला है. दूसरे शब्दों में, माँ है.
कवि की श्रेष्ठता के लिए अंततः हम उसकी मातृभूमि के प्रति कृतज्ञ होते हैं, जिसने उसे जन्म दिया. केदारनाथ सिंह अपनी माटी को विस्मृत नहीं हो जाने देते, उससे आत्मिक संसक्ति बनाये रखते हैं. बिम्ब या कहन के लालित्य से चकित लोग बहुधा यह ध्यान नहीं दे पाते कि यही राग या मूल्यनिष्ठा परिष्कृत होकर उनके यहाँ अभिनव सौंदर्य में रूपांतरित होती है :
”पृथ्वी के ललाट पर
एक मुकुट की तरह
उड़े जा रहे थे पक्षी
मैंने दूर से देखा
और मैं वहीं से चिल्लाया
बधाई हो
पृथ्वी, बधाई हो !’”
(तीन)
केदार जी बलिया जनपद के चकिया गाँव के रहनेवाले थे, जो गंगा नदी के तट के पास में है. ‘तीसरा सप्तक’ में अपने परिचय में वह लिखते हैं : “जन्म सामान्य किसान परिवार में. बचपन सहज सुख और सुविधाओं में बीता.” इसके बाद जिस तरह के सुखद और स्वर्णिम संयोग घटित होते चले गये, जो उनकी प्रतिभा एवं पुरुषार्थ की तार्किक एवं न्यायपूर्ण संगति में थे और जिनकी बदौलत वह राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय ख्याति के अत्यन्त समादृत एवं बहु-पुरस्कृत कवि के रूप में स्थापित हुए ; उनके मद्देनज़र यह अतिशयोक्ति न होगी कि कैंसर जैसी घातक बीमारी के नतीजे में जीवन-संगिनी के करुणाजनक असमय देहांत के सिवा जीवन उन्हें एक मानी में सुखद अचरज या चमत्कार के मानिंद ही मिला था. इसलिए अपनी उत्कृष्टतम कविताओं में वह जिस जादुई यथार्थ की सृष्टि करते हैं, वह कुछ आलोचकों के लिए कभी हैरत और सम्मोहन, तो कभी असुविधा या आपत्ति का सबब हो सकता है ; मगर ख़ुद उनके लिए बहुत स्वाभाविक स्थिति थी. प्रसंगवश, उनकी एक मशहूर कविता ‘भिखारी ठाकुर’ का अंश है :
“पर क्या आप विश्वास करेंगे
एक रात जब किसी खलिहान में चल रहा था
भिखारी ठाकुर का नाच
तो दर्शकों की पाँत में
एक शख्स ऐसा भी बैठा था
जिसकी शक्ल बेहद मिलती थी
महात्मा गाँधी से.”
गाँधी जी के द्वारा भिखारी ठाकुर के नाच का देखा जाना जितना अविश्वसनीय था, उतना ही सच भी हो सकता था—विस्मय और वास्तविकता की इस संधि से तत्कालीन भारत में भिखारी ठाकुर की कला के माहात्म्य की सूचना मिलती है. ऐसी अनेक घटनाएँ ख़ुद केदार जी के साथ घटित हुईं, जिनसे अप्रत्याशित स्थितियों को जीवन की सहज सुंदर परिणति मानने की रचनात्मक अंतर्दृष्टि उन्हें मिलती रही होगी. मसलन नयी दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में आने के पहले वह कई वर्षों तक पडरौना के एक महाविद्यालय में प्राध्यापक थे और फिर उसके प्राचार्य हो गये थे. वहाँ नागरिक समाज में वह इतने प्रतिष्ठित थे कि उन्होंने ख़ुद मुझे बताया था, एक बार इंदिरा गाँधी ने कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए उनके पास प्रस्ताव भिजवाया, जिसे बहुत शालीनता से उन्होंने नामंज़ूर कर दिया.
ज़ाहिर है कि शब्द की गरिमा से अधिक आकर्षण उन्हें सत्ता के गलियारों में महसूस नहीं हुआ, वर्ना कौन जानता है कि आज वह एक प्रभावशाली नेता हुए होते और हम एक बड़े कवि को शायद खो देते ! उन्हें अपनी माटी, नज़दीक स्थित अपने गाँव से इतना लगाव था कि पडरौना छोड़कर जाना तो वह जे.एन.यू. भी नहीं चाहते थे, पर नामवर जी के स्नेहिल दबाव के सामने झुकना पड़ा. फिर वह आजीवन दिल्ली में रहे, मगर आख़िरी साँस तक नियमित रूप से हर साल अपने गाँव जाते और एक महीने रहते. लोगों को ताज्जुब होता कि मई-जून की तीखी गर्मी में कैसे वह वहाँ रह पाते हैं, लेकिन प्रेम तो अदम्य होता है, वह किसी बाधा को कहाँ स्वीकार करता है ?
एक बार मैंने उन्हें फ़ोन किया, तो बहुत आत्मीयता से बोले:
”मैं भी गंगा किनारे का हूँ और तुम भी !”
घर में ही आजीविका का साधन हासिल हो जाय और इसके लिए इंसान को प्रवासी न होना पड़े, ऐसी स्थिति को वह किसी वरदान से कम नहीं मानते रहे होंगे. वर्ष 1996 में अपने गृह-जनपद कानपुर के एक महाविद्यालय में जब मुझे प्रवक्ता की नौकरी मिली, तो उन्होंने प्रसन्न होकर कहा : “यह दोहरी नियुक्ति है!” इस क़दर प्रगाढ़ अपने परिवेश और प्रकृति से उनकी संसक्ति थी. गोया भौतिक अस्तित्व दिल्ली में था, पर आत्मा गाँव के खेत-खलिहानों की परिक्रमा करती थी. वह एक किसान के बेटे थे, इसलिए अंत में पारिवारिक आग्रह पर जब खेत बेचने पड़े, तो एक अफ़सोस उनके भीतर घर कर गया. कहीं उन्हें यह गहरा मलाल था कि आजीविका के लिए वह दिल्ली आये ज़रूर, मगर यहाँ से लौटकर अपने ‘देश’ नहीं जा पाये ! इसलिए कई बार वह जायसी की यह चौपाई दोहराते थे :
”सो दिल्ली अस निबहुर देसू. कोइ न बहुरा कहै सँदेसू ..” सूरदास के ‘जहाज के पंछी’ की मानिंद वह लौट-लौटकर अपने गाँव जाते रहे और सच्ची मुक्ति का एहसास उन्हें मातृभूमि में ही होता था:
”यह हवा
मुझे घेरती क्यों है
क्यों यहाँ चलते हुए लगता है
अपनी साँस के अंदर के
किसी गहरे भरे मैदान में चल रहा हूँ.”
उनकी कविता के अनगिनत पहलू हैं और एक-एक पहलू विस्तृत विमर्श की माँग करता है, पर स्वाधीन भारत में गाँव और शहर के बीच जो दूरी और अजनबीपन क्रमशः बढ़ता गया है और जिसने अब तो मानो एक अनुल्लंघ्य खाई की शक्ल ले ली है ; उसे एक बड़ी विडंबना की तरह वह रेखांकित कर पाये, क्योंकि इसकी पीड़ा से वाबस्ता रहे :
”अब आ तो गया हूँ
पर यह कैसे साबित हो
कि उनकी आँखों में
मैं कोई तौलिया या सूटकेस नहीं
मैं ही हूँ.”
उनकी ‘चिट्ठी’ शीर्षक कविता में अपने बेहद प्रिय गाँव से लगाव और अलगाव की यह कशमकश और विडंबना बहुत सघन और मर्मस्पर्शी ढंग से उजागर हुई है :
“कल गाँव से
एक चिट्ठी आई
बहुत दिनों बाद
शायद नदी ने भेजी थी
न दिन
न तारीख़
न सिरनामा
बस ऊपर कोने में
एक बूँद की तरह
टँका था
छोटा-सा प्यारा-सा
गाँव का नाम —
‘चकिया’
शहर के
उस सबसे व्यस्त चौराहे पर
सबसे छिपाकर
मैं देर तक पढ़ता रहा
उस ख़ाली-ख़ाली चिट्ठी को
और सारी चिट्ठी में
गूँजता रहा
चीख़ता रहा
बस एक ही शब्द
चकिया ! चकिया !
मुझे याद आई
एक और भी चिट्ठी
जो बरसों पहले
मैंने दिल्ली में छोड़ी थी
पर आज तक
पहुँची नहीं चकिया”
इसीलिए एक नागरिक और कवि के रूप में शायद उनकी सबसे बड़ी आकांक्षा आम भारतीय जन से मिलने, उसके साथ रहने की थी ; पर इस तरह कि सत्ता की निर्मम संस्कृति, महानगरीय सभ्यता की आत्ममुग्धता और कविता के आभिजात्य के बग़ैर निश्छलता से उससे मिला जा सके. वजह यह कि अपशकुन से शुरूआत हो, तो किसी शुभ की प्राप्ति कैसे संभव है :
”मिलूँ
पर किस तरह मिलूँ
कि बस मैं ही मिलूँ
और दिल्ली न आये बीच में
क्या है कोई उपाय
कि आदमी सही-साबूत निकल जाये गली से
और बिल्ली न आये बीच में ?”
मेरा दोहरा सौभाग्य रहा कि मैं उनका शिष्य रहा और उनकी कविता का प्रेमी भी. उन्होंने एम.ए. और एम.फ़िल. में मुझे पढ़ाया था. हिंदी का अध्यापन कितना दिलचस्प, सुखद, सुंदर और श्रेष्ठ अनुभव हो सकता है, यह उनके छात्र ही जानते होंगे या वे, जो उनके व्याख्यान सुन पाये हों. एक वाक़िया याद आता है, जिसमें उनके स्वभाव की संपूर्ण झलक मिलती है. एम.ए. में विशेष कवि का एक वैकल्पिक प्रश्नपत्र पढ़ना था और दो विकल्प उपलब्ध थे—
तुलसी और निराला. केदार जी ‘निराला’ पढ़ाते थे और एक मैडम ‘तुलसी’ को. मैडम अच्छा नहीं पढ़ा पाती थीं, इसलिए हम सत्ताईस छात्रों में-से सिर्फ़ एक ने तुलसी को चुना और बाक़ी छब्बीस ने निराला को. वह जब पहली बार क्लास में आये, तो मैंने ध्यान से देखा कि अपनी उत्कृष्टता या लोकप्रियता का यह सबूत मिलने पर कुछ ख़ास प्रसन्न नहीं हुए. इसके उलट उन्होंने कहा कि ख़ुद निराला पढ़ रहे होते, तो तुलसीदास को ही चुनते !
हमारे दबे स्वरों में मैडम की आलोचना करने पर उन्होंने एक मार्मिक बात कही कि ‘अपने सच की तलाश स्वयं करनी पड़ती है’ और गौतम बुद्ध के इस वचन की याद दिलायी : ‘अप्प दीपो भव’, यानी अपना दीपक स्वयं बनो ! यह नहीं कि आलोचना वह कर नहीं सकते थे, बल्कि उन्हें वह व्यर्थ का काम लगता था और विपरीत परिस्थिति को भी कैसे वरदान में बदला जा सकता है, यह विवेक उन्होंने हमें दिया.
कवि केदारनाथ सिंह कभी किसी की निंदा नहीं करते थे. किसी-किसी को लगता है कि यह ‘अजातशत्रु’ बने रहने की उनकी रणनीति थी. मगर मेरा मानना है कि जो सचमुच बड़ा होता है, उसे किसी की निंदा करने की ज़रूरत नहीं. निंदा छोटे लोग करते हैं. मेरा आशय यहाँ निंदा से है, आलोचना से नहीं. आलोचना तो वह करते थे. उनकी कविता और आलोचनात्मक लेखन ख़ुद इसका साक्ष्य है.
जब मैं एम.ए. का छात्र था और वह क्लास में आये, तो उस दिन मेरे हाथ में ‘आजकल’ पत्रिका का नया अंक था, जिसमें मेरी भी कविता छपी थी. किसी साहित्यिक पत्रिका का नया अंक आया हो, तो वह उसे देखे बग़ैर रह नहीं पाते थे. इसलिए मुझसे उन्होंने पत्रिका माँगी. उसी समय मेरे एक सहपाठी ने उनसे वह कह दिया, जो मैं कभी कहने का साहस नहीं कर सकता था : ‘सर, इसमें पंकज की कविता छपी है.’ वह पूरा अंक पलटते गये और चूँकि उनसे कह दिया गया था, इसलिए मेरी कविता ध्यान से पढ़ी. फिर सिर्फ़ इतना बोले :
‘अच्छी कविता है.’
बाद में मैं सोचता रहा कि कविता तो उनके प्रतिमानों के लिहाज़ से अच्छी नहीं थी, फिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा ? शायद उनका मंतव्य यह रहता था कि जो लिखना सीख रहा हो, उसे लिखने देना चाहिए, निरुत्साह क्यों करना ?
ढूँढ़कर, झपटकर हिंसा करना आलोचना नहीं है. जो उपेक्षा के लायक़ है, उसे जताना कि ‘तुम उपेक्षणीय हो’, इसमें कौन-सी मनुष्यता है? किसी को लिखने नहीं देंगे, तो वह कभी अच्छा भी कैसे लिखेगा ?
दूसरे, सार को ग्रहण करने के लिए समग्र पर ग़ौर करना ज़रूरी है. हाल ही में मैं केदार जी का एक इंटरव्यू पढ़ रहा था, जिसमें उनसे पूछा गया कि ‘सोशल मीडिया पर बड़े पैमाने पर जो कविताएँ लिखी जा रही हैं, उनके सम्बन्ध में आपका क्या अभिमत है ?’ उनके जवाब में फिर वही रचनात्मक उत्साह और गरिमा नज़र आती है, अवज्ञा या हिक़ारत का भाव नहीं : ‘मेरा ख़याल है कि उन पर ध्यान दिया जाना चाहिए.’
(चार)
केदार जी आलोचना करते थे, मगर सपाट और विध्वंसात्मक शैली में नहीं, बल्कि कवि-सुलभ सांकेतिक और संवेदनशील ढंग से, अक्सर ‘बिटवीन द लाइन्स.’ वह अपने गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के इस कथन को उद्धृत किया करते थे कि
‘गुलाल को फेंककर मारना नहीं, लगाना चाहिए.’
दूसरों के नज़रिए के प्रति उनमें एक गहरी सहिष्णुता थी. सबूत यह कि ख़ुद अपनी आलोचना से विचलित होकर वह संयम नहीं खोते, बल्कि उसका जवाब प्रशंसा से देते थे. बीस-पच्चीस बरस पहले नीलाभ जी का लम्बा इंटरव्यू शायद ‘कथ्य-रूप’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने केदार जी की एक कविता का विश्लेषण करते हुए उन्हें सामंती भाव-बोध का कवि बताया था. मेरा सीधे साहस नहीं हुआ, इसलिए मैंने अपने एक सहपाठी मित्र को प्रेरित किया कि वह इस बात को केदार जी को बतायें, देखें, क्या कहते हैं ! उसने बताया. वह ज़रा देर चुप रहे. फिर सिर्फ़ एक वाक्य बोले :
”नीलाभ तो ख़ैर क्रांतिकारी कवि हैं !”
इसी तरह एक बार वह पढ़ा रहे थे, तो किसी प्रसंग में दक्षिणपंथी सोच के विद्वान् विष्णुकांत शास्त्री का ज़िक्र आने पर कक्षा में मौजूद विद्यार्थी हँसने लगे. शायद वह दिल्ली में किसी संगोष्ठी में व्याख्यान देने आ रहे थे या निराला पर उनके आलोचनात्मक लेखन को केदार जी ने महत्त्वपूर्ण, पठनीय और विचारणीय बताया था. साथियों के हँसने पर उन्होंने बग़ैर क़तई नाराज़ हुए, बहुत सहज, आत्मीय और संजीदा लहजे में एक बात कही थी, जो आज भी मेरे ज़ेहन में गूँजती रहती है :
“बात सबकी सुननी चाहिए.”
दरअसल वाद-विवाद-संवाद में सब कुछ जायज़ है और सबसे सही या श्रेष्ठ अभिमत तक पहुँचने के लिए हमें सभी मतों को परीक्षा की कसौटी पर रखने के मक़सद से उन्हें स्वीकार करना होता है. ठीक इसीलिए अन्य या विरोधी विचारों और दृष्टियों की अभिव्यक्ति मात्र को सेंसर किया जाना अनुचित है. इसके विपरीत, जब हम लम्बे समय तक ‘दूसरों’ को सुनने से ही इनकार करते रहते हैं, तो इतिहास में ऐसे क्षण भी आ सकते हैं, जब उन्हें सुनने के लिए हमें आतंकित, अपमानित और मजबूर किया जाने लगे और एक-दूसरे के लिए हमारा वजूद ही असह्य हो जाय !
हाल के वर्षों में भारत जैसे लोकतांत्रिक समाज में बहस की उदारमना संस्कृति के बजाए इस तरह का अदृश्य, चुप्पा और तीखा विभाजन दुखद और विडम्बनापूर्ण है और इसके ख़तरे को केदार जी ने काफ़ी पहले भाँप लिया था, जो उनकी उपर्युक्त सलाह से ज़ाहिर है. लेकिन इसका मतलब प्रतिक्रियावादी ताक़तों से कोई समझौता कर लेना या उन्हें रिआयत देना हरगिज़ नहीं था. उनकी बाबत केदार जी किसी ख़ुशफ़हमी के शिकार नहीं थे ; बल्कि उनका मानना था कि जैसे-जैसे इस क़िस्म के तत्त्व सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया में प्रभावशाली और निर्णायक होते जायेंगे, रचनात्मक साहित्य के लिए अवकाश उसी अनुपात में छीजता जायेगा. प्रमाण है, इसी साल की शुरूआत (2018) में प्रकाशित हुई ‘इंडिया टुडे’ की साहित्य वार्षिकी में छपे एक लेख में दर्ज यह संवाद : मौजूदा कॉर्पोरेटपरस्त, दक़ियानूस और अधिनायकवादी निज़ाम में भारत ही नहीं, दुनिया-भर में साहित्य के हाशिये पर चले जाने के अजित राय के सवाल पर केदार जी कहते हैं:
“देखो, समय बदल चुका है. आज देश में जो निज़ाम है और मैं चाहूँ या न चाहूँ, अभी यही निज़ाम रहनेवाला है, तो इस निज़ाम में साहित्य-संस्कृति के लिए कोई न तो जगह है न उम्मीद. पर देश-भर में साहित्य-लेखन बंद नहीं हुआ है. पर उसकी कोई बड़ी या सामूहिक उपस्थिति नहीं है. और यह सब सारी दुनिया में हुआ है. जिस रूस में एक-से-एक दिग्गज लेखक हुए, वहाँ आज क्या हालात हैं?”
उनमें एक अनूठा शिशु-सुलभ खिलंदड़पन भी था, जिसकी बदौलत एक निश्छल शरारत, एक निर्मल हँसी उनके जीवंत चेहरे और होंठों पर खेलती रहती. इसलिए उनके संग-साथ से कोई कभी उकता नहीं सकता था. वह विलक्षण क़िस्सागो थे, बीच-बीच में अपनी ज़िंदगी के नायाब संस्मरण सुनाते. मसलन एक बार उन्होंने बताया कि-
जब वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते थे, तो उनके वरिष्ठ सहपाठी, सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी साथ ही छात्रावास में रहते थे. एक कोई छात्र रोज़ नहा-धोकर अपना लाल रँग का लँगोट विश्वनाथ जी के कमरे के दरवाज़े के ठीक सामने टाँग देता. वह कई दिनों तक इसे बर्दाश्त करते रहे. एक दिन उनसे रहा नहीं गया, तो उस विद्यार्थी से जाकर बोले : ”इसे आप राष्ट्रध्वज समझते हैं क्या, जो मेरे कमरे के सामने टाँग देते हैं ?”
सांसारिक दृष्टि से देखा जाय, तो स्वयं सफलता के शिखर पर रहने के बावजूद कवि केदारनाथ सिंह उन संघर्षों और विडम्बनाओं से बेज़ार न थे, जिनके कारण प्रतिभाशाली भी ठोकरें खाने को मजबूर होते हैं. इसलिए वह एक बात अक्सर कहते थे :
”डिग्री और नियुक्ति का प्रतिभा से कोई सम्बन्ध नहीं है.”
बरसों पहले जब हमारे एक सीनियर की भिलाई के पास किसी क़स्बे के सरकारी कॉलेज में प्रवक्ता पद पर नियुक्ति हुई और छत्तीसगढ़ के उस पिछड़े इलाक़े में जाने को लेकर अपने असमंजस की बाबत वह केदार जी से मिले, तो उन्होंने पूर्वज कवि की अनूठी स्मृति से उन्हें प्रेरित किया :
”जब मुक्तिबोध वहाँ पढ़ा सकते थे, तो तुम क्यों नहीं?”
बतौर कवि अपनी प्रशंसा उन्हें एक हद तक बेशक अच्छी लगती रही होगी और इससे वह रचनात्मक प्रोत्साहन महसूस करते होंगे ; मगर उसके प्रति कोई विशेष आसक्ति उनके मन में नहीं थी. मुझे याद आता है कि वर्ष 1995 में ‘पहल’ के अंक–52 में कवि ज्ञानेन्द्रपति का एक लम्बा साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने ऐंद्रिय अवलोकन-क्षमता, आकर्षक बिम्ब-विधान और भाषा की लाक्षणिकता सरीखी विशेषताओं के लिए केदारनाथ सिंह की कविता की सराहना की थी. हालाँकि वह इन ख़ूबियों को ‘आज के दौर में कलावादी ख़ेमे की कविता के लक्षणों’ के तौर पर भी पहचानते हैं ; मगर प्रकृति और ग्राम-जीवन से केदार जी की अविराम संसक्ति के चलते अंततः उन्हें कवि के रूप में रघुवीर सहाय के बरअक्स अधिक दीर्घायु मानते हैं :
”………मुझे तो वे रघुवीर सहाय की तुलना में ज़्यादा कालक्षम—कालयात्राक्षम कवि प्रमाणित होने की संभावना रखते दिखायी देते हैं.”
यह एक बहसतलब, कह लें कि ज़रा विवादास्पद स्थापना है, फिर भी ऐसी कि जिससे केदार जी को ख़ुशी हो सकती थी ; ख़ास तौर पर जब साहित्यिकों के एक वर्ग को दो सबसे अहम समकालीन कवियों में एक छद्म-प्रतियोगिता का काल्पनिक आयोजन करने में विशेष आनंद आता हो. हमने यह जाँचने के लिए केदार जी के घर जाकर ‘पहल’ में उनके सम्बन्ध में क्या छपा है, इसकी जानकारी दी. वह बोले:
“सुना मैंने भी है कि ऐसा इंटरव्यू आया है, पर ‘पहल’ अभी मुझे मिली नहीं है.”
उनके चेहरे पर हर्ष-विषाद का कोई भाव नहीं आया और इस बाबत आगे कोई बात न हो, शायद इसलिए वह खिड़की के बाहर का दृश्य देखने लगे.
आदर्श स्थिति में कवि का काम कविता लिखते ही सम्पन्न हो जाता है, बाद उसके क्या होता है—स्तुति या निन्दा—इससे उसे यथासंभव असम्पृक्त रह सकना चाहिए, ताकि रचनात्मक सफ़र कभी स्थगित न हो. सबूत हैं ‘मोड़ पर विदाई’शीर्षक उनकी कविता की ये पंक्तियाँ :
”अब जाओ मेरी कविताओ
सामना करो तुम दुनिया का
यदि बजता है तो सिर्फ़ वहीं
यह इकतारा निरगुनिया का…..
दो दस्तक हर दरवाज़े पर
फिर चल दो आगे उसी वक़्त
हर आमन्त्रण को राम-राम !
हर स्तुति से, निन्दा से विरक्त
भरने दो अपने शब्दों में
सारे शहरों की ख़ाक-धूल
इस यात्रा में वापसी नहीं
बस चलते जाना है अकूल”
22 मार्च, 2018 को सागर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग ने दिवंगत कवि केदारनाथ सिंह पर स्मृति-सभा का आयोजन किया, जिसमें एक वक्तव्य मुझे भी देना था. उसके पहले जब उनकी तस्वीर पर मुझसे माल्यार्पण करवाया गया, तो उसे देखकर मेरी आँखों में बहुत आँसू उमड़ आये, क्योंकि तस्वीर से सहसा लगा कि अब वह इस दुनिया में नहीं हैं. मन तब तक शायद इस सत्य पर विश्वास नहीं कर पा रहा था. सत्य के पहले ‘अप्रिय’ विशेषण का इस्तेमाल करते-करते मैं ठिठक गया, क्योंकि याद आया, एक बार उन्होंने ही मुझसे कहा था कि
”सत्य तो सत्य होता है, वह प्रिय या अप्रिय नहीं होता !”
उस वक़्त थोड़ी देर आँखों से आँसू गिरते रहे, फिर केदार जी का यह कथन याद आया कि
मैथिलीशरण गुप्त से निराला का अंदाज़ सर्वथा भिन्न है. गुप्त जी के यहाँ ज़िंदगी की विषम परिस्थितियों के बरअक्स बहुत विलाप, गलदश्रु भावुकता और हाय-हाय है ; जबकि निराला की कविता में दुख कहीं अधिक सांद्र है और उसकी अभिव्यक्ति संयमित.
‘राम की शक्ति-पूजा’ में राम, रावण से युद्ध में आसन्न पराजय की आशंका से विचलित होकर दो बार रोते हैं और दोनों ही बार कम. पहले अवसर पर जब उन्हें ‘सीता के राममय नयन’ याद आते हैं और उसी समय रावण का अट्टहास सुन पड़ता है, तो मानो नेत्रों से दो सजल मोती ढलक जाते हैं :
”भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्ता-दल.”
दूसरी बार जब वह विभीषण से कहते हैं कि
”मित्रवर, विजय होगी न समर,……अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति !”,
तब भी उनकी आँखें भीग जाती हैं और थोड़े-से आँसू गिर पड़ते हैं :
”कहते छल-छल हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृग-जल.”
लेकिन इससे ज़्यादा नहीं.
केदार जी ने कहा था, बड़े लोग रोते कम हैं. मैं बड़ा तो नहीं, पर उनकी यह बात याद करके जब-तब अपने को संयमित करता हूँ.
केदारनाथ सिंह जे.एन.यू. के भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष, भाषा संकाय के डीन और प्रोफ़ेसर एमेरिटस रहे, आज इन पदों के लिए लोग तरसते हैं, पर उनमें इसका क़तई अभिमान न था. वह सरापा कवि थे. इसलिए ऐसी औपचारिकताओं और व्यस्तताओं से परेशान होकर ग़ालिब को अक्सर याद करते थे:
”फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और यह वबाल कहाँ !”
यह अतिशय कथन नहीं कि केदारनाथ सिंह सरीखे गुरुओं के बिना जे.एन.यू. जैसे विश्वविद्यालय एक इमारत भर रह जाते हैं और यह दुनिया हमारे लिए और कठिन और असह्य हो जाती है. वह अपनी वैचारिकता में प्रगतिशील थे, पर नज़रिए में संकीर्ण नहीं. उन्होंने हमें सिखाया कि अपनी परम्परा और संस्कृति के तिरस्कार से हमें कुछ हासिल नहीं होगा, बल्कि उसके सर्वश्रेष्ठ को अर्जित करके ही आगे का सफ़र तय किया जा सकता है. जब भी हम उनकी कविता पढ़ते हैं; एक दुर्लभ आलोक से विस्मित और अभिभूत, सौंदर्य की मार्मिकता से रूबरू होते हैं और एक ताज़गी और ऊर्जा का संचार हमारे समूचे स्नायु-तंत्र में होता है, शायद वैसे ही, जैसा उन्हें तुलसी को पढ़ते हुए लगता था :
”मेरी हड्डियाँ
मेरी देह में छिपी बिजलियाँ हैं
मेरी देह
मेरे रक्त में खिला हुआ कमल
क्या आप विश्वास करेंगे
यह एक दिन अचानक
मुझे पता चला
जब मैं तुलसीदास को पढ़ रहा था.”
पंकज चतुर्वेदी pankajgauri2013@gmail.com
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