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Home » रंग- राग : छोटे शहर का बड़ा पर्दा : संजीव कुमार

रंग- राग : छोटे शहर का बड़ा पर्दा : संजीव कुमार

अभिनेत्री श्री देवी के सम्मान में _______________________ कला माध्यमों में सिनेमा को अपार लोकप्रियता मिली है, वह हमारे सार्वजनिक जीवन में हर जगह उपस्थित है. वह अब हमारी संस्कृति का अटूट हिस्सा है. कुछ दशक पहले शहरों और कस्बों में मिलने, बैठने, खाने-पीने और प्रेम सीखने का वह एक दिलफरेब अड्डा था. पर अब वे […]

by arun dev
February 26, 2018
in Uncategorized
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अभिनेत्री श्री देवी के सम्मान में
_______________________

कला माध्यमों में सिनेमा को अपार लोकप्रियता मिली है, वह हमारे सार्वजनिक जीवन में हर जगह उपस्थित है. वह अब हमारी संस्कृति का अटूट हिस्सा है. कुछ दशक पहले शहरों और कस्बों में मिलने, बैठने, खाने-पीने और प्रेम सीखने का वह एक दिलफरेब अड्डा था. पर अब वे वहां अपनी आखिरी सांसे ले रहे हैं.
लेखक आलोचक संजीव कुमार ने बड़ी शिद्दत से उस समय को याद किया है जब युवा होता लड़का सिनेमा के चमकीले परदे की ओर रुख करता ही था, कभी बेटिकट भी. यह  आम मध्यवर्गीय सिनेमची किशोर की ज़िंदगी में एक दिलचस्प अध्याय है.  

छोटे शहर का बड़ा पर्दा                                                  
आज़ादी के आस्वाद पर चंद छुट्टे नोट्स
संजीव कुमार

(भात-दाल-तरकारी तक तो ठीक है, पर विशेष व्यंजन मैं स्वांतः सुखाय नहीं बना सकता. कोई होना चाहिए जिसके लिए मैं विशेष व्यंजन बनाऊँ. इसी तरह संस्मरण और व्यंग्य जैसी विधाओं में लेखन मैं तब तक नहीं कर पाता जब तक किसी जुटान के अवसर पर कुछ सुनाने का न्योता न हो. लिखी हुई चीज़ के श्रोता मिलने जा रहे हैं, इस आश्वस्ति से ही मेरे लिए संस्मरण या व्यंग्य लिखना सुकर हो जाता है. पहली बार अपने बचपन के एक सिनेमा-घर को याद करते हुए संस्मरण तब लिखा जब सेंटर फॉर स्टडीज इन डेवलपिंग सोसाइटीज़ (सीएसडीएस), दिल्ली में ‘सराय’ के उद्घाटन का जलसा रखा गया और रविकांत ने मुझे उस मौक़े के लिए कुछ ऐसा लिख लाने को कहा जिसमें ‘सराय’ की शोध रुचियों के क्षेत्र, यानी मीडिया, सिनेमा, शहर इत्यादि की कुछ झलक हो. मैंने लिखा, सुनाया, और लोगों को वह पसंद आया. प्रभात रंजन उन दिनों ‘बहुवचन’ का सम्पादन कर रहे थे. उन्होंने उस संस्मरण में बेहतरी लाने के कुछ उम्दा सुझाव दिए और उन परिवर्धनों के साथ ‘बहुवचन’ में उसे छापा भी. उनके सुझावों में से एक यह था कि जे.पी. मूवमेंट के बारे में कुछ और बातें शामिल कीजिये. दूसरा यह कि शीर्षक ‘दास्तान-ए-वैशाली’ कुछ जम नहीं रहा. तो मैंने जे.पी. मूवमेंट वाले हिस्से को थोड़ा बढ़ाया और संस्मरण का शीर्षक रखा, ‘मानस चलान्तिका टीका के मटमैले परदे पर दास्तान-ए-वैशाली’. फिर इस शीर्षक की व्याख्या करते हुए एक भूमिका-सी लिखी.

इसी शीर्षक से वह ‘बहुवचन’ में प्रकाशित हुआ. यह 2002 की बात है. उसके बाद फरमाइश पर मैं व्यंग्य-लेखन तो करता रहा, पर संस्मरण की बारी नहीं आयी. हालांकि मेरे दोस्त, ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ वाले संजय जोशी  बीच-बीच में टोकते रहे कि दर्शक के रूप में अपनी और यादों को कलमबद्ध कीजिये, पर हो नहीं पाया. अभी कोई दो हफ़्ते पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज के इतिहास के विद्यार्थी अयन मृणाल और वहाँ के बेहद लोकप्रिय शिक्षक मुकुल मांगलिक ने कहा कि ‘हद-अनहद’ के नाम से इतिहास विभाग का जो सालाना जलसा होता है, उसमें इस बार ‘टाइम, मेमोरी, सिनेमा’ पर एक हिस्सा रखा गया है जिसमें मुझे भी विद्यार्थियों को अपना वही संस्मरण सुनाना है. मुझे तुरंत लगा कि इतने समय बाद तो एक अवसर हाथ आया है, और उसे भी मैं पुराना संस्मरण सुनाकर ज़ाया कर दूं? सुनने के लिए कुछ लोग होंगे, और वह भी कॉलेज में पढ़नेवाले युवा, इस प्रेरणा से ही मेरे अन्दर कई यादें उमड़ने-घुमड़ने लगीं. मैंने मुकुल से कहा कि कुछ नया सुनाऊंगा. उन्हें क्या दिक्क़त थी! इस तरह यह संस्मरण तैयार हुआ….
अब देखें, अगली प्रेरणा कब मिलती है! –सं.कु.)

सिने-प्रेमी के रूप में मेरी कहानी पिछली सदी के 80 के दशक के एक आम मध्यवर्गीय सिनेमची किशोर की कहानी है, जो निस्संदेह थोड़े फेर-बदल के साथ अनगिनत ज़िंदगियोंमें लगभग इसी तरह दुहराई गयी है, पर बहुत कम सुनी-सुनाई गयी है. यह चाहत, लगन, आतुरता और दुस्साहस से भरी ऐसी कहानी है जिसे याद करते हुए, पता नहीं किस जादू से, इसकी हर शै कॉमेडी में ढल जाती है और इसीलिए कोई इसे गंभीरता से नहीं लेता.
पर आश्चर्यजनक रूप से, सिनेमा के साथ की मेरी कहानी अपनी शुरुआत में गाढ़ी भावुकता से लबरेज़ है, और वह इतनी सच्ची है कि मैं उसे किसी भी कीमत पर कॉमेडी में ढलने देने को तैयार नहीं हूँ.
पहली छवि एकदम क्षणिक और अधूरी है. गोद वाले बच्चे के रूप में देखा गया एक धुंधला, डबडबाया-सा बिम्ब…. मैं रो रहा हूँ और शायद चुप कराने के लिए कोई मुझे हॉल से बाहर ले जा रहा है. पीछे परदे पर उभरती श्वेत-श्याम तस्वीर में लम्बी दाढ़ी वाला एक बेहद उदास चेहरा है और गाने की आवाज़ आ रही है, ‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछड़े चमन’. उस चेहरे पर खेलता निचाट अकेलापन ही है जो शायद मुझसे देखा न गया होगा और रुलाई फूट पड़ी होगी. आज भी यह गाना सुनता हूँ तो बुक्का फाड़ने का मन करता है. बहुत बाद में मैंने अपनी मां से पूछा तो पता चला, ‘काबुलीवाला’ मेरी पहली फिल्म थी, जिसमें मैंने उन्हें खूब तंग किया था.
दूसरी छवि भी इससे बहुत अलग नहीं है. सुबह का वक्त है. मैं अपने बिस्तर पर घुटने अन्दर की ओर मोड़े, सिर तकिये में गाँथे, बाक़ायदा रो रहा हूँ. बारी-बारी से सब आते हैं. बड़ी बहन, मां, पिता. सब जानना चाहते हैं कि हुआ क्या, मैं क्यों रो रहा हूँ? काफ़ी मान-मनौव्वल के बाद मैं भेद खोलता हूँ, ‘उसके हाथी को मार दिया, इसलिए.’ पिछले ही शाम हमने ‘हाथी मेरे साथी’ देखी है. ‘नफरत की दुनिया को छोड़के प्यार की दुनिया में ख़ुश रहना मेरे यार’, यह गाना कानों में नहीं, कहीं मेरी आत्मा में गूँज रहा है…. मेरा जवाब सुनकर सभी हंसने लगते हैं. मुझे खूब प्यार किया जाता है, लेकिन घर भर में इस कोने से उस कोने तक हर किसी के चेहरे पर हंसी है…. मैं दुलारा हूँ, पर उतना ही हास्यास्पद भी.
शायद यहीं से मैंने फिल्मों को लेकर अपनी भावुकता के सार्वजनिक प्रदर्शन पर रोक लगाने की शुरुआत की होगी. बहुत बाद तक यह सिलसिला जारी रहा कि जिन फिल्मों को देखकर अपनी भावुकता के विरेचन का पर्याप्त मौक़ा मिलता, उन्हें अपनी पसंदीदा फिल्म बताने से मैं बचता था. ‘दीवार’ मेरी सबसे पसंदीदा फिल्मों में से है, जिसे देखकर आज भी कम-से-कम दस बार तो रोता ही हूँ, और अगर निर्मल वर्मा के शब्दों में ज़मीन से डेढ़ इंच ऊपर हुआ, तो शायद बीस बार भी (यह अलग बात है कि आधी बार वे खुशी के आंसू होते हैं). लेकिन विडम्बना देखिये कि जब पहली बार एम. ए.में पढ़ते हुए हिन्दू कॉलेज की वार्षिक पत्रिका के लिए फिल्म पर कुछ लिखने का मौक़ा मिला तो मैंने उसमें ‘मृगया’ का ज़िक्र किया, ‘दीवार’ का नहीं. यह बात बहुत बाद में समझ आयी कि ‘दीवार’ का मुझ पर जो गहरा असर था, वह भी सोचने-विचारने का विषय हो सकता है. अब मैं हिन्दी सिनेमा की अपनी क्लास में ‘दीवार’ को एक पाठ के रूप में पढाता हूँ और हर साल अपने विद्यार्थियों के आगे फिल्म के एक प्रतिनिधि दृश्य की द्वयर्थकता पर मुग्ध भाव से बात करता हूँ. अपनी कहानी पर वापस आने से पहले थोड़ी बात उस दृश्य की.

यह ‘दीवार’ की कथा का एक निर्णायक सीक्वेंस है जहां क़ानून का रखवाला छोटा भाई यह तय करता है कि ग़ैर-कानूनी धंधे में लगे बड़े भाई का केस अपने हाथ में लेने से उसे बचना नहीं है और खून के रिश्ते को क़ानून की हिफ़ाज़त के रास्ते में—या फिल्म के एक संवाद से प्रेरणा लें तो, उन उसूलों की हिफ़ाज़त के रास्ते में जिन्हें गूंथकर एक वक्त की रोटी भी नहीं बनायी जा सकती—आने नहीं देना है. यह तीन दृश्यों की एक शृंखला है. पहला है जिसमें इंस्पेक्टर अजय वर्मा यानी शशि कपूर बाज़ार में कुछ चुराकर भागते हुए एक लड़के का पीछा करता है और आख़िरकार गोली चला देता है. लड़का गिर जाता है और जब इंस्पेक्टर उसके पास पहुंचता है तो यह देखकर ग्लानि से भर जाता है कि वह पावरोटी चुराकर भाग रहा था. अगले दृश्य में वह उस लड़के के घर पहुंचता है. दुखी पिता ए के हंगल से मुलाक़ात होती है. ये एक रिटायर्ड शिक्षक हैं. घर की माली हालत बहुत खराब है. बेटे के बारे में पूछे जाने पर कुछ बहानेबाज़ी करते हैं, पर इंस्पेक्टर यह ज़ाहिर कर देता है कि उसे सचाई पता है. वह उनके घर के लिए रोटियाँ लेकर आया है. जैसे ही यह पता चलता है कि यह वही पुलिसवाला है जिसकी गोली से इस घर का लड़का घायल हुआ है, अन्दर से लड़के की मां निकल आती है और इंस्पेक्टर को खूब खरी-खोटी सुनाती है. उसकी बात का लब्बोलुआब यह है कि इसी शहर में बड़े-बड़े ग़ैर-कानूनी धंधे करनेवाले खुले आम घूम रहे हैं, उन्हें तो पुलिस कुछ करती नहीं, और एक पाव चुराने वाले लड़के को गोली मार कर बहुत शाणा बनती है. सुनकर शशि कपूर की ग्लानि और बढ़ जाती है. अगले दृश्य में वह अपने बॉस के पास पहुंचता है और कहता है कि विजय वर्मा यानी बड़े भाई का केस उसे ही सौंप दिया जाए. मतलब बहुत साफ़ है. पाव चुरानेवाले की मां ने उसकी आँखें खोल दी हैं. विजय इस शहर की उन्हीं अंडरवर्ल्ड हस्तियों में से है जिस तक क़ानून के हाथ नहीं पहुँच पाते.
लेकिन क्या एक दर्शक के रूप में मेरे लिए भी इसका यही मतलब है? मुझे लगता है, इस पूरे प्रसंग की द्वयर्थकता अद्भुत है जिससे यह फ़िल्म अपनी असल ताक़त हासिल करती है. पाव चुराने वाले लड़के की मां जो कुछ कहती है, वह जितना विजय के ख़िलाफ़ जाता है, उतना ही उसके पक्ष में. वह भी तो कल का पाव चुरानेवाला लड़का ही है! वह भी तो एक प्रतिकूल दुनिया में उन अन्यायों से लड़कर यहां तक पहुंचा है जिनके ख़िलाफ़ स्टेट उसे कोई संरक्षण नहीं दे पाता! तो इंस्पेक्टर अजय उस मां के संवाद से जो भी सन्देश निकाल ले, हम जैसे दर्शक वही सन्देश कैसे निकाल सकते हैं जो विजय के संघर्ष के सबसे क़रीबी साक्षी रहे हैं, जिन्होंने उसकी लड़ाई को अपने विशिष्ट वेंटेज पॉइंट के कारण खुद विजय की दुनिया के किसी भी मनुष्य के मुक़ाबले ज़्यादा क़रीब से देखा है! कोई आश्चर्य नहीं कि ‘जाओ साइन लेके आओ उस आदमी का’ बेहद नाटकीय और अस्वाभाविक होते हुए भी हिन्दी फ़िल्मी इतिहास के सबसे दमदार और कन्विंसिंग संवादों में से है. वह पूरी व्यवस्था पर लगाया गया महाभियोग है जिसे उचारते हुए विजय पाव चुराने वाला किशोर बन जाता है और क़ानून के रखवाले और क़ानून तोड़नेवाले के बीच आपकी पूरी सहानुभूति क़ानून तोड़नेवाले के साथ चली जाती है. बल्कि कहना चाहिए कि क़ानून का प्रश्न ही आपके लिए बेमानी हो जाता है, छोटे भाई के लिए और फ़िल्म की कथा के प्रकट सन्देश के लिए वह जितना भी मानीखेज़ हो. गरज़ कि फ़िल्म जो कुछ कहती हुई दिखना चाहती है, वह एक कमज़ोर फुसफुसाहट में तब्दील हो जाता है और जो कहती हुई दिखना नहीं चाहती, वह अमिताभ की संवाद-अदायगी की तरह हमें सबसे ठोस आवाज़ और स्पष्ट उच्चारण में सुनाई पड़ता है.   

पर अपनी कहानी में मैं ‘दीवार’ की कहानी को क्यों घुसा रहा हूँ? एक तो इसलिए कि जिस फ़िल्म को देखकर मैं ज़ारो-क़तार रोता आया हूँ, उसका विश्लेषण करके अपने रोंदू दर्शक स्वभाव को एक सम्मानजनक आधार दे सकूं. आख़िर अपनी पसंदीदा फ़िल्म पर इस तरह से सोच पाने का ही तो असर है कि आज मैं अपने रोंदूपने को निस्संकोच सार्वजनिक कर पा रहा हूँ! दूसरे इसलिए कि हिन्दी सिनेमा भले ही अपने राष्ट्रीय कर्तव्य के तहत हमेशा से प्रकटतः अच्छे नागरिक बनने का सन्देश देती आयी हो, अच्छे नागरिक को अच्छे मनुष्य का पर्याय बनाने की ग़लती शायद उसने कभी नहीं की. उसका प्रच्छन्न सन्देश रहा है कि बुरे नागरिकों में भी अच्छे और बुरे मनुष्य हो सकते हैं—एक ओर डाबर और विजय, तो दूसरी ओर सावंत और उसके आदमी (दीवार); या एक ओर बिरजू, तो दूसरी ओर सुक्खी लाला (मदर इंडिया). इसने सिनेमा के किशोर दर्शक के रूप में हमें अच्छे नागरिक बनने की चिंता से बरी कर दिया और नागरिकता की जगह मनुष्यता हमारा सरोकार बना. हमने समझा कि बुरे यानी अनुशासनहीन बच्चे बनने का मतलब बुरा मनुष्य होना नहीं है. मेरी आगे की कहानी सुनकर शायद इस बात का मतलब खुले.   
मैं ऐसे परिवार से नहीं आता जहां फ़िल्में ख़राब चीज़ मानी जाती हों और उन्हें देखना प्रतिबंधित रहा हो (हमें औसतन हर महीने एक फ़िल्म दिखाई जाती थी). लेकिन हमारा परिवार इतना खुला भी नहीं था कि हर तरह की फ़िल्म देखने की इजाज़त हो. जब मैं तीसरी कक्षा का छात्र था, तब पटना में ‘बॉबी’ लगी थी और ‘हम तुम एक कमरे में बंद हों’ जैसे ‘अश्लील’ गाने वाली यह फ़िल्म हमें देखने नहीं दी गयी थी, हालांकि फ़िल्म की कहानी कॉमरेड ख्वाज़ा अहमद अब्बास की लिखी हुई थी और उनके प्रति मेरे पिता के मन में उतना ही सम्मान था जितना हंसिये हथौड़े से अपना प्रतीक-चिन्ह बनानेवाले कॉमरेड महबूब खान या इप्टा में धूम मचाकर फिल्मों की ओर रुख करनेवाले कॉमरेड बलराज साहनी और कॉमरेड ए के हंगल के प्रति था. बावजूद इसके हमें ‘बॉबी’ से दूर रखा गया तो शायद इसीलिए कि आख़िर कामरेड्स भी गाहे-ब-गाहे विचलन के शिकार होते हैं और बाज़ दफ़ा तो उनसे ऐतिहासिक भूलें भी हो जाती हैं! और जहां तक अब्बास साहिब का सवाल है, उनके पास तो विचलन का शिकार होने के अलावा कोई उपाय भी नहीं था. अपनी सुपर फ्लॉप फ़िल्में बनाने के लिए उन्हें पैसों की ज़रूरत होती थी और वह राज कपूर के लिए सुपर हिट फ़िल्में लिखकर ही कमाये जा सकते थे.
तो कुछ फ़िल्मों के देखने पर प्रतिबन्ध या महीने में ज़्यादा-सेज़्यादा एक फ़िल्म देखने के नियम का ही नतीजा रहा होगा कि टीन-एजर होते-होते हम उस पतन के शिकार हुए जिसे ‘भागकर फ़िल्म देखना’ कहते हैं. ‘भागकर फ़िल्म देखना’ एक पारिभाषिक पद है जिसका मतलब है, घरवालों को बिना बताये फ़िल्म देखना या स्कूल न जाकर सिनेमा हॉल पहुँच जाना. यह दूसरा तरीका मैं कभी आजमा नहीं पाया, क्योंकि मां उसी स्कूल में पढ़ाती थीं जिसमें मैं पढता था. आज भी सोचकर दुःख होता है कि एक जनम यूं ही निकल गया. अगले जनम में तो भला क्या देख पाऊंगा. इसी जनम में वह ज़माना देख लिया जब सिनेमा हॉल में जाकर फ़िल्म देखना पॉकेट पर इतना भारी पड़ता है कि महीने में एक बार जाने की भी क़ायदे से हिम्मत नहीं होती! हमें अपनी किशोरावस्था में फ़िल्म देखने के लिए महज़ दो रुपये पचपन पैसे की ज़रूरत होती थी जो आज के हिसाब से भी 25-30 रुपये से ज़्यादा नहीं ठहरते. इतने पैसे तो दो या अधिक-से-अधिक तीन बार की सब्ज़ी खरीद में बचाए ही जा सकते थे! आप कितनी बार में बचा पायेंगे, यह इस पर निर्भर था कि आपमें कितना बड़ा स्कैम कर गुज़रने का माद्दा है. बचाने की क्षमता, असल में, घोटाले को पचाने की क्षमता का ही दूसरा नाम था.
खैर, हम बात कर रहे थे कि स्कूल को गच्चा देकर फ़िल्में मैं नहीं देख पाया. लेकिन कोई वजह तो है कि मैं छुप-छुपाकर फ़िल्में देखने के दौर को स्कूल से अलग रखकर नहीं सोच पाता. दरअसल, यह स्कूली अवस्था यानी बच्चा कहलाने की उम्र ही थी जब बाहर रहने की सफ़ाई देनी पड़ती थी और भगोड़ेपन का सम्बन्ध इसी सफ़ाई से था. कॉलेज में आने के बाद तो कौन किसे पूछता है और कौन किसे सफ़ाई देता है! तो मेरी ज़िंदगी में घरवालों को बिना बताये फ़िल्में देखने का सिलसिला तब शुरू हुआ, जब तक मैं आठवीं-नवीं कक्षा में था, यानी जीवन के 13-14 वसंत मैंने देख लिए थे. इस समय तक आते-आते घर से थोड़ी ज़्यादा देर तक बाहर रहने के सिलसिले को मौन स्वीकृति मिल चुकी थी, मगर फिल्मों के मैटिनी, ईवनिंग और नाईट शो की समय-सारणी इतनी तयशुदा थी कि अभी भी ऐन 2:30 बजे घर से निकलकर 6:30 बजे घर लौटने का मतलब था कि बालक तीन से छह वाले मैटिनी शो से लौट रहा है. इसलिए इस काम में ख़ासा दिमाग लगाना पड़ता था कि कैसे अपने ग़ायब होने को शक के घेरे में न आने दिया जाए.
घर में एक अदद अलार्म घड़ी थी. वही टाइम देखने के काम आती थी. उस घड़ी में पीछे कई चाभियाँ बनी थीं. एक चाभी तो उसमें चौबीस घंटे चलने की ताक़त भरती थी. दूसरी उसमें अलार्म सेट करने के लिए थी. तीसरी चाभी से सुइयों को आगे-पीछे करने का काम लिया जाता था. और चौथी चाभी, लगता है, बनानेवाले ने हम जैसों के लिए ही बनायी थी. वह घड़ी की सुइयों के चलने की गति को कम-ज़्यादा कर सकती थी. यही चाभी मेरी सिने-सफलता की कुंजी बनी. घर से ढाई बजे निकलते हुए घड़ी की सुई को तीन पर सेट किया जाता (ताकि नज़र रखनेवालों के लिए यह सनद रहे कि हम तीन बजने के बाद घर से निकले ही थे) और फिर चौथी चाभी की मदद से सुइयों की गति को इतना कम कर दिया जाता कि जब हम साढ़े छह बजे लौटें तो घड़ी छह बजा रही हो. इस तरह चार घंटे बाहर रहने पर घड़ी के हिसाब से हम तीन घंटे ही बाहर होते थे. इस तरक़ीब का इस्तेमाल कर मैंने कितनी ही फ़िल्में देखीं. अनुशासनप्रिय मां घड़ी पर निगाह रखती भी थीं या नहीं, पता नहीं, लेकिन यह सारा इंतज़ाम अपने संतोष के लिए था. अगर संतोष ही न हो तो दुनिया में फिर क्या है!
भागकर देखी हुई कई फ़िल्में एक से बढ़कर एक फालतू थीं, लेकिन आज सोचकर लगता है कि उनका सारा सुख असल में भागे हुए होने का सुख था—मुक्ति का सुख—डर जिसका स्थायी हमज़ाद था. दोनों साथ पैदा हुए थे. उस डर के बगैर यह सुख नहीं था और यह भोगनेवाले पर निर्भर था कि वह दोनों में से किसे अधिक अहमियत दे. मेरे ज़्यादातर लंगोटिया यार डर को ठेंगे पर रखते थे, उन्होंने गब्बर की बात मान ली थी कि ‘जो डर गया समझो मर गया’, पर मैं कॉलेज के दिनों की शुरुआत होने से पहले तक डर और सुख के सी-सॉ में झूलता रहा. आज भी निषिद्ध सुखों को लेकर अपना यही चिरकुटाना रवैया है.

बहरहाल, इस तरह देखी हुई पहली फिल्म का नाम था, ‘चौकी नंबर 11’. विनोद मेहरा हीरो थे और फिल्म निहायत बण्डल थी. इसी तरह के नाम वाली एक और फिल्म थी, ‘कमरा नंबर 555’, जिसने मुझे सबसे अधिक धर्मसंकट में डाला. मैं फिल्म शुरू होने के 5-10 मिनट बाद हॉल में घुसा था. अँधेरे में अपनी सीट तलाशते हुए स्क्रीन पर हैट और ओवरकोट में अमजद खान दिखे थे जो किसी आदमी के कमरे में अन्दर तक घुसकर उससे पूछ रहे थे, ‘क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ?’ यही देखते हुए मैं टटोलकर अपनी सीट पर बैठा था. स्क्रीन पर तस्वीरें बहुत साफ़ नहीं थीं. सब कुछ धुंधला-धुंधला-सा दिख रहा था. दसेक मिनट इसी तरह गुज़र गए तो मैंने बगल में बैठे सज्जन से पूछा कि इतना धुंधला-धुंधला, नीला-नीला-सा क्यों दिख रहा है? सज्जन ने फुसफुसाकर कहा, “ब्लू फिल्म है ना, नहीं जानते हैं? ऐसे ही दिखता है, ब्लू ब्लू टाइप.” मुझे काटो तो खून नहीं. भागकर फिल्म देखने का रोमांच तो चाहिए था, पर ब्लू फिल्म जैसी बदनाम चीज़ देखने के रोमांच के लिए मैं अभी तैयार नहीं था. उसके लिए तैयार होने में अभी कई साल बाक़ी थे.
भागकर देखी हुई ज़्यादातर फ़िल्में बण्डल क्यों होती थीं, इसके दो कारण समझ में आते हैं. एक तो साल में लगभग बारह फ़िल्में हम बाइजाज़त और बाइज्ज़त देख सकते थे. तो कायदे की फ़िल्में उसी खाते में निकल जाती थीं. दूसरे, रद्दी फिल्मों के साथ ही ऐसा संभव था कि उनमें टिकट-संग्राम के लिए बहुत सारा वक्त हाथ में लेकर चलने की ज़रूरत न हो. चर्चित फिल्मों का टिकट-संग्राम हमसे लगभग दो घंटे अधिक समय की मांग करता था और वह हमारे पास होता नहीं था. उस ज़माने के कुछ पटनहिया सिनेमा-घरों में फर्स्ट और सेकंड क्लास की टिकट खिड़कियों के आसपास का सरंजाम देखकर ही आप समझ जाते कि संग्राम कितना भीषण होता होगा! खिड़की तक पहुँचने के लिए उससे जुड़ा लगभग 40-50 मीटर लंबा सुरंगनुमा सीमेंटेड ढांचा बना होता था. इसमें इतनी ही जगह होती थी कि आदमी औसत से ज़्यादा लंबा हो तो किसी तरह सिर झुकाकर और औसत से ज़्यादा चौड़ा हो तो किसी तरह बदन सिकोड़ कर 50 मीटर की दूरी तय करे. अब आप सोचिये कि वे कैसे वीर बांकुड़े होते होंगे जो ऐसी सुरंग में भी लोगों के सिरों के ऊपर से गुज़र कर टिकट खिड़की तक पहले पहुँच जाते होंगे! सुरंग की खुरदुरी छत उनकी पीठ और पिछवाड़े का, और मां-बहन की गालियाँ उनकी आत्मा का कैसा हाल करती होंगी! लेकिन टिकट जैसी नायाब चीज़ इन सारे जख्मों का अचूक मरहम थी. वे जब टिकट लेकर सुरंग की दूसरी तरफ़ निकलते तो उन्हें देखकर कोई कह नहीं सकता था कि उनकी देह और आत्मा जख्मों से छलनी है.

टिकट-संग्राम को लेकर मेरा यह भी अनुभव रहा कि कई बार उनका सम्बन्ध ज़रूरत से नहीं, उसूल से होता था. उन्हीं दिनों एक बार मैं अपेक्षाकृत छोटे कस्बे कटिहार में फिल्म देखने पहुंचा. यह दसवीं के इम्तहान के ठीक बाद की बात है. मैं कटिहार के पास एक गाँव में बने प्राकृतिक चिकित्सालय में मां की तीमारदारी पर था. उन्हें दिन भर डाभ यानी कच्चे नारियल के पानी पर रखा जाता. वही खरीदने मुझे कटिहार जाना होता था. तो एक बार किसी अनजान प्रेरणा से मेरे पैर क़स्बे के एकमात्र सिनेमा घर की ओर मुड़ गए. देखा कि मनोज कुमार और हेमा मालिनी की कोई पांच-सात साल पुरानी फिल्म ‘दस नम्बरी’ लगी है. अन्दर फिल्म से ठीक पहले चलनेवाली फिल्म प्रभाग की न्यूज़-रील शुरू हो चुकी थी और बाहर टिकट खिड़की पर मार मची हुई थी. यह टिकट खिड़की खुले में थी, किसी सुरंग के आख़िरी छोर पर नहीं. मैंने पाया कि महज़ पांच लोग खिड़की पर हैं और उनका घमासान ऐसा है कि पचास की भीड़ का वहम होता है. अगर वे क्यू में होते तो उनके निपटने में दो मिनट से ज़्यादा का वक्त न लगता. लेकिन यहां तो मामला उसूल का था. बिना घमासान किये टिकट ले कैसे लें! मैं मायूसी से इधर-उधर देखने लगा. तभी ‘टिकट-टिकट-टिकट’ की दबी आवाज़ लगता एक ब्लैकियर पास से गुज़रा. मैंने पूछ लिया, ‘भाई, कितने का?’ पता चला, 2 रुपये 55 पैसे का टिकट महज 2 रुपये 65 पैसे में मिल रहा है. इतनी बड़ी सहूलियत के लिए सिर्फ़ 10 पैसे का सर्विस चार्ज! और वह भी कोई टिकट-संग्रामी उसे देने को राज़ी नहीं! इस प्रेरक घटना से मेरा यह विश्वास और दृढ हुआ कि टिकट-संग्राम ज़रूरत का नहीं, उसूल का मसला है. और यह भी कि शहर जितना छोटा होगा, लोग उसूल के उतने पक्के होंगे.
तो टिकट-संग्राम के लिए समय न होना एक बड़ी वजह थी कि भागकर देखी गयी सत्तर फ़ीसद फ़िल्में ऐसी निकलीं जिन्हें किसी भी दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता. बावजूद इसके, भागकर देखने का लोभ कम नहीं हुआ. और ऐसा भी नहीं था कि भागकर देखने में अच्छी फिल्म की गुंजाइश बिल्कुल न हो. उस ज़माने में पुरानी फ़िल्में दुबारा, तिबारा, चौबारा भी रिलीज़ होती थीं. उसे स्थानीय अखबारों में छपे विज्ञापनों में ‘ग्रैंड गाला रिवाइवल’ कहा जाता था. उन फिल्मों में वैसी मार न पड़ती. मैंने ‘आवारा’, ‘श्री चार सौ बीस’, ‘मेला’, ‘कोहिनूर’, राज कपूर-नर्गिस वाली ‘चुपके-चुपके’, ‘तीसरी क़सम’, ‘वक्त’ जैसी फ़िल्में ग्रैंड रिवाइवल पर ही देखीं, अलबत्ता यह याद करना मुश्किल है कि इनमें से कौन-सी भगोड़े दौर में देखी थी और कौन-सी वह दौर बीतने के बाद.

हमारे भगोड़े दौर में एक नया आयाम तब जुड़ा जब मेरे कुछ लंगोटिया यारों ने हमारे मोहल्ले में बने सिनेमा-घर ‘वैशाली’ में हाफ टाइम से मुफ़्त फिल्म देखने का एक नायाब तरीक़ा ईजाद कर लिया (‘वैशाली’ पर लिखे गए एक संस्मरण में यह प्रसंग आ चुका है, बस दुहरा रहा हूँ). तरीक़ा यह था कि इंटरवल से ठीक पहले अगर हॉल की चारदीवारी के भीतर चले आओ तो इंटरवल में बाहर निकली हुई भीड़ के साथ अंदर जाकर बैठा जा सकता है और बाद की आधी फ़िल्म देखी जा सकती है. ‘जानी दुश्मन’ का हाउसफुल दौर बीतने के बाद आइडिया पर अमल किया गया. क़ामयाबी मिली. उत्साहित होकर ‘जानी दुश्मन’के उत्तरार्द्ध को हमने सात-आठ दफ़ा देखा. इसके बाद तो सिलसिला ही चल पड़ा. इस कार्रवाई में सिर्फ़ दो-तीन चीज़ों का ख़याल रखना पड़ता था. एक तो यह कि मैटिनी शो के दौरान चार से सवा चार बजे के बीच हॉल की चारदीवारी के भीतर चले जाएं, क्योंकि इंटरवल से ठीक पहले मेन गेट बंद कर दिये जाते थे. दूसरा यह कि बालकनी में बैठें, क्योंकि उसके वर्गीय आधार के चलते वहां चेकिंग कम होती थी. तीसरे, एक बार में चार से ज़्यादा लोग न जाएं. ये सावधानियां बरतते हुए हम साल भर से ज़्यादा समय तक यह सिलसिला चला ले गये. उसके बाद, छोटी-सी इक भूल ने सारा गुलशन जला दिया. हुआ यों कि एक दिन हम तीन लोग बालकनी के सुख से ऊब कर फ़र्स्ट क्लास में बैठ गये और वह भी ऐसी क़तार में जहां हमारे अलावा और कोई नहीं था. राजेंद्र कुमार की कोई फ़िल्म थी जिसका नाम सदमे के कारण भूल गया हूं. जनाब अभी यात्रा से लौट कर नायिका को तस्वीरों से भरी अलबम दिखा ही रहे थे कि हमारे चेहरों पर टॉर्च की चुंधियाती रोशनी पड़ी. रोशनी ने टिकट की मांग की और हमने रोशनी से ही मुख़ातिब होकर कहा कि नहीं है. ‘तीनों को बुक करो,’ रोशनी ने गरज कर कहा. फिर दो लोग हमें अर्द्धचंद्र यानी गर्दनिया देकर बाहर की ओर चले. क़तारों के बीच धकियाये जाते हुए मैंने विधाता को धन्यवाद दिया जिसने हॉल के भीतर अंधेरे का प्रावधान रखा है. साथ ही यह प्रार्थना भी की कि यह जो तकनीकी शब्दावली है—बुक करना—उसका कोई भयावह अर्थ न हो.

बाहर आये. पहलवान जी, अर्थात् मुख्य दरबान के सामने पेशी हुई. पहलवान ने क़द-काठी में सबसे बड़ा देख कर मुझी से पूछना शुरू किया.
‘अंदर कैसे आया?’
‘इंटरवल में.’
‘कहां रहता है?’
‘राजेंद्र नगर, 1 नंबर.’
‘कहां पढ़ता है?’
‘पाटलीपुत्रा.’
‘किस क्लास में?’
‘नौवां नवीन.’
‘सेक्शन?’
‘ए.’
‘रौल नंबर?’
‘एक.’
पहलवान हैरत से मुझे ऊपर-नीचे देखने लगा. पाटलिपुत्र उच्च विद्यालय में सेक्शन ‘ए’ का रोल नंबर 1 होना मायने रखता था. उसका मतलब था, इस नामी स्कूल के एक पूरे बैच में अव्वल आने वाला विद्यार्थी. लिहाज़ा, पहलवान का स्वर थोड़ा बदल गया. जैसे किसी देवता को पतित होता देख रहा हो, इस अंदाज़ में उसने पूछा, ‘पाटलीपुत्रा में फस्ट आता है, और ई धंधा? क्लास-टीचर शमीम साहब हैं ना?’
‘जी.’
‘बतला दें उनको?’
‘…’
‘जाओ, भागो. आगे से आया है त बड़ी मार मारेंगे. बड़ा आदमी बनना है कि हॉल का दरबानी करना है!’
हम बुक न किये जाने का—उसका जो भी मतलब हो—शुक्र मनाते बाहर आए. फिर बेटिकट क्या, बाटिकट भी वैशाली में घुसने का साहस कम-से-कम मुझे अगले एक-डेढ़ साल तक नहीं हुआ…..
यह घटना, जैसा कि आप सुन चुके हैं, तब की है जब मैं नौवीं में था.  साल-डेढ़ साल बाद दसवीं पास करके कॉलेज में आ गया. हमारी पीढ़ी आज के बच्चों की तरह अभागी नहीं थी जिन्हें हमारी तुलना में दो साल बाद तक स्कूली बच्चे बने रहना पड़ता है. हमने ग्यारहवीं-बारहवीं की पढ़ाई कॉलेज में की. कॉलेज का मतलब था, भरपूर आज़ादी. पहली बार हमने जाना कि एक बार हाज़िरी लगाकर एक ही कमरे में बैठे नहीं रहना पड़ता. आप घूम-घूमकर क्लास करते हैं और यह आपकी सदिच्छा पर है कि एक क्लासरूम से निकलते हुए दूसरी में जाएँ या किसी और दिशा की ओर मुड़ जाएँ.
इस आज़ादी के साथ हमारा भगोड़ा दौर ख़त्म हुआ. ‘भागकर फिल्म देखने’ का कांसेप्ट गुज़रे ज़माने की चीज़ हो गया और एक आम मध्यवर्गीय सिनेमची किशोर की ज़िंदगी में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई.

______________________
संजीव कुमार,  नवम्बर 1967, पटना
बहुत अलग-अलग तरह के मुद्दों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कई निबंध-टिप्पणियां प्रकाशित.
एक आलोचना-पुस्तक ‘जैनेन्द्र और अज्ञेय: सृजन का सैद्धांतिक नेपथ्य’ प्रकाशित, जिस पर 2011 का देवीशंकर अवस्थी सम्मान मिला;
2013 में प्रकाशित ‘तीन सौ रामायणें एवं अन्य निबंध / ए.के.रामानुजन का आलेख: विवाद और विमर्श’ पुस्तक का संपादन
वसुधा डालमिया के साथ सह-संपादन में भारतेंदु द्वारा निकाली गई हिंदी की पहली स्त्री-पत्रिका ‘बालाबोधिनी’ की पूरी फ़ाइल एक ज़िल्द में शीघ्र प्रकाश्य;
‘सारिका’, ‘कथादेश’ और ‘बनास जन’ में कहानियां प्रकाशित; पिछले पांच सालों से जलेस केंद्र की पत्रिका ‘नया पथ’ के संपादन से संबद्ध.
संप्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कालेज में अध्यापन.
मोबाइल ९८१८५७७८३३

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