हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि शिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ आपके लिए.
शिरीष को समालोचन की तरफ से जन्म दिन की बहुत-बहुत बधाई.
शिरीष कुमार मौर्य
भूस्खलन
सड़कों पर खंड-खंड पड़ा है
हृदय
मेरे पहाड़ का
वह ढह पड़ा अपने ही गांवों पर
घरों पर
पता नहीं उसे बारिश ने इतना नम कर दिया या भीतर के दु:ख ने
मलबे के भीतर दबे हुए मृतक अब उन पर गिरे हुए पत्थरों की तरह की बेआवाज़ हैं
मृतकों के पहाड़-से दु:खों पर उनके पहाड़ के दु:ख
सब कुछ के ऊपर बहती मटमैली जलधाराएं शोर करतीं रूदन से कुछ अधिक चीख़ से कुछ कम
रोने और चीख़ने के प्रसंग मलबे के बाहर बेमतलब हुए जाते हैं
मलबे के भीतर तक जाती है हो चुके को देखने आतीं कुछ कारों के हूटरों की आवाज़
दिन के उजाले में लाल-नीली बत्तियां सूरज से भी तेज़ चमकती हैं
आतताईयों के जीतने के दृश्य तो बनता है
मगर मनुष्यता के हारने का दृश्य नहीं बनता
कुछ लोग गैंती-कुदाल-फावड़े-तसले लेकर खोदते तलाशते रहते हैं
मृतकों के विक्षत शवों के अंतिम संस्कार
उन्हीं मटमैली जलधाराओं के किनारे
उसी रूदन से कुछ अधिक
चीख़ से कुछ कम शोर के बीच होते हैं
बारिश में भीगी लकड़ी बहुत कोशिशों के बाद पकड़ती है आग
उसकी आंच में हाथ सेंकने वाले
दूर राजधानी में बैठते हैं अपनी कुर्सियों पर वहां से देते हैं बयान
उनके चेहरे चमकते हैं
उनकी आंखों के नीचे सूजन रोने से नहीं
ज़्यादा शराब पीने से बनती है
एक कवि अपने घर में सुरक्षित बैठा पागल हुआ जाता है भूस्खलन के बाद अपने भीतर के
भूस्खलन में लगातार दबता हुआ
वह कभी बाहर नहीं निकालेगा अपनी मृत कविताओं के शरीर
वे वहीं मलबे में दबी कंकाल बनेंगी
कभी जिन्दा शरीरों की हरकत और आवाज़ से कहीं कारगर हो सकती है
मृतकों की हड्डियों की आवाज़.
मेरा अंतत:
मेरे लोग शब्दों की तरह मेरी भाषा में आते हैं
हताशा, अवसाद और क्रोध से भरे
मेरे शब्द लोगों की तरह मेरी भाषा से बाहर जाते हैं
मेरे भीतरी भूकम्प, बेचैनी और दु:खों की तरह
एक तथाकथित सुखमय
प्रमुदित संसार में
बिना लज्जित हुए
बिना डरे
मैं अभी रच रहा हूं
बच रहा हूं मेरे जर्जर होते जीवन में
मसले रोज़ नए हैं
रोज़ नई लड़ाईयां
उन्हें संभालने की प्रक्रिया में रोज़ मृत्यु कुछ दूर
चली जाती है
रोज़ मेरा पदार्थ कुछ नष्ट होता है
ऊर्जा कुछ बढ़ जाती है
मेरा नियतांक
प्रकाश की गति नहीं
मेरे आसपास के अंधकार की क्षति है
मैं किसी विज्ञान से कविता में आया था
चला जाऊंगा किसी दिन कविता से फिर किसी विज्ञान में
एक असफल अनाड़ी अनाम वैज्ञानिक की तरह
लेकिन मेरी स्मृतियां कविता में होंगी
मैं शब्दों के किसी सरल समीकरण में बचूंगा
मेरा अंतत:
मेरी भाषा में वास करेगा.
मैं स्वप्न में अपनी मृत्यु देख रहा था
(चन्द्रकुंवर बर्त्वाल और वीरेन डंगवाल की विकल स्मृति के लिए)
मैं स्वप्न में अपनी मृत्यु देख रहा था
साफ़ कर दूं
कि अपनी मृत्यु का स्वप्न नहीं देख रहा था
स्वप्न में अपनी मृत्यु देख रहा था
मृत्यु कोई बनता हुआ बिम्ब नहीं थी स्वप्न में
घट रही घटना थी
उसमें सुकून नहीं था बेसम्भाल छटपटाहट थी
उसमें आखिरी शब्द बोलना जैसा कुछ नहीं था
घुटती-डूबती हुई
एक चीख़ थी
मेरे और उसके बीच सहमति नहीं थी
भरपूर ज़ोर-ज़बरदस्ती थी
वह अपने आगोश में नहीं ले रही थी मुझे
किसी सिद्धहस्त अपराधी की तरह
लूट रही थी
मैं मदद की पुकार नहीं लगा रहा था
लड़ रहा था
गालियां बक रहा था
एक गाली स्वप्न और नींद के बाहर छिटक गई थी
नोच-खसोट में एक खंरोंच माथे पर उभर आई थी
कुछ बाल तकिए पर गिर गए थे
ओढ़ना ज़मीन पर था आंखें खुलते हुए पलट गई थीं
मेरे जीवन ने झकझोर जगाया मुझको
कहा – किससे लड़ते हो
किसके लिए लड़ते हो
अपनी नींदें
अपने स्वप्न किन फितूरों में बरबाद करते हो
जानता हूं तुम्हारे शरीर में मृत्यु कुछ अधिक उपस्थित है
पर उससे लड़ना बेकार है
मेरे लिए लड़ो मेरी तरह लड़ो
मैं अपने लिए अपराधी की तरह नहीं लड़ता
तुम्हारे शरीर पर लगा हर घाव दरअस्ल मेरे ही वजूद पर
लगता है
मन पर लगी खंरोंचों से रक्त नहीं अवसाद
रिसता है
इस अवसाद से तुम अपने लिए कुछ ज़रूरी
विलोम बना सकते हो
कुछ नहीं कई दिन इस समाज में यूं ही लड़ते हुए बिता सकते हो
जर्जर स्वप्नों में बिस्तर पर रोग-जरा-मरण से लड़ते नहीं
मज़बूत क़दम चलते
धरा पर दिखो
अचानक गालियों पर उतरते हुए फिर कहा उसने-
साले लिखो
एडियां रगड़-रगड़ मरने से पहले
और सिर्फ़ लिखो नहीं जैसा लिखते हो वैसे ही बसो मेरे भीतर
लिखने के अलावा कई ज़रूरी काम हैं
मनुष्यवत्
उन्हें भी करो बल्कि पहले उन्हें ही करो
इस तरह
हो सकता है तुम बच जाओ कुछ और दिन के लिए
संसार में
अपने चूतियापे साकार करने की खातिर.
कितना होना है कितना नहीं
कई लोग कितना होना है कितना नहीं के बीच फंसे हैं
धर्म कितना हो कितना नहीं
इतना कि वोट मिल जाएं लोक-परलोक सध जाएं
इतना नहीं कि बहुर्राष्ट्रीय होने में आड़े आए
वाम कितना हो कितना नहीं
इतना कि बौद्धिक मान्यता और सहानुभूति मिल जाए
इतना नहीं कि बाज़ार जाएं और जेब ख़ाली रह जाए
प्रतिरोध कितना हो कितना नहीं
इतना कि मोमबत्तियां ले देर शाम इंडिया गेट घूम आएं
इतना नहीं कि दफ़्तर से छुट्टी लेनी पड़ जाए
जाति कितनी हो कितनी नहीं
इतनी कि आरक्षण पर अपना प्रिय विमर्श सम्भव कर पाएं
इतनी नहीं कि कोई अधीनस्थ पदोन्नति पा सर चढ़ जाए
नारी मुक्ति कितनी हो कितनी नहीं
इतनी कि पत्नी नौकरी पर जाए चार पैसे कमाए
इतनी नहीं कि लौटकर थकान के मारे खाना तक न पकाए
कितना हो कितना नहीं
संतुलन बताया जाने वाला अज़ाब है
समकालीन समाज में
लोग तय ही नहीं कर पा रहे
कल में रहें कि आज में
नींद में
नींद में मुझे सुनाई दी एक आवाज़
मुझसे किसी ने कहा – उठो
मैं पूछने लगा
कहां से उठूं
नींद से उठूं
कि सपने से उठूं
जहां बैठा हूं उठूं वहां से
उठ कर क्या करूं
कोई नहीं बताता
उठूं तो कैसे उठूं
कंठ में प्यास की तरह उठूं
आंख में किरकिरी की तरह
या एकदम उठ जाऊं
एक असम्भव बारिश में नदियों के पानी की तरह
घरों में घुस जाऊं
किस की तरह उठूं
बिल्ली की तरह चपल उठूं
चुपचाप
और हो रही सुबह का शिकार कर लूं
नभ हो जाए कुछ और लाल
या आदमी की तरह ही उठूं ऊंघता हुआ
बैठ जाऊं
कि मुझसे फिर कहा जाए –उठो
एक ख़्वाब है कविता में
मीर की तरह उस गली से उस तरह उठूं
जिसे
जिस तरह उन्होंने
‘जैसे कोई जहां से उठता है’
कहा था
नींद को कविता में बदल दूं
मुझसे कोई कहे उठो
तो नींद से नहीं कविता से उठूं
उठकर कहीं चला जाऊं बिना बताए
बिना कोई निशान छोड़े
मुझे कोई न खोजे
दुनिया में नींद और कविता से भी बड़ी चीज़ें हैं
ज़्यादातर बड़ी ही चीज़ें हैं.
एक अनगढ़ वृत्तान्त
हो रही सुबह के बीच चिड़ियों का बोलना
जाहिर है उसकी रोशनी में दाने और कीड़ों के बेहतर दिखने के
स्वागत में बोलना है
मेरा रवैया इस प्रकरण में कवित्वपूर्ण न होकर व्यवहारिक और तथ्यपूर्ण अधिक है
सुबह होती है
चिड़ियें बोलती हैं
पेड़ हिलते हैं
हवा चलती है
इसी होती सुबह बोलती चिड़ियों हिलते पेड़ों चलती हवा के बीच
12 बरस का एक लड़का भवाली हल्द्वानी रोड पर
हरसौली से खुटानी मोड़ की ओर बढ़ता है तेज़ क़दम उसे अपने काम की दुकान पर
मालिक के पहले पहुंचना है पकौडियों के लिए तेल गर्म करना है
इस तरह काम पर आते हुए
रोज़ चूल्हे से पहले उसके दिल सुलगा है
इसमें कोई रूपक नहीं कि उसका किशोर चेहरा सिर्फ़ आग और धुंए की आंच में नहीं
दु:ख और क्रोध से भी झुलसा है
सुबह होती है चिड़ियें बोलती हैं पेड़ हिलते हैं हवा चलती है के इस अत्यन्त कवित्वपूर्ण प्रकरण को
मैं इस लड़के के नाम कर दूं?
ये प्राकृतिक घटनाएं अपनी जगह सुन्दर और अनिवार्य हैं
पर रोज़-रोज़ सुबह की धुंध से भरी उस लड़के की आत्मा और उसका जीवन
प्राकृतिक घटना नहीं है
ठीक उसी तरह जैसे चालीस के क़रीब पहुंचकर उतनी सुबह
मेरा कार चलाना सीखना भी कोई प्राकृतिक घटना नहीं है
मुझे कोई अधिकार नहीं कि मैं कार चलाना सीखूं और साथ ही
उस लड़के की जाया हो रही सुबहों से तआल्लुक भी रक्खूं
मैं अपनी सुबह में से कार निकाल दूं
तो उसकी सुबह में कितना उजाला बढे़गा मैं नहीं जानता
ये सब इतने आसान हिसाब नहीं हैं
इनमें बहुत सारा अर्थशास्त्र लगता है बहुत सारी सांख्यिकी
इसकी एक अपनी है राजनीति
मैं ठीक इसी बारे में बात कर रहा था कविता की शुरूआत में
जब मैंने कहा –
हो रही सुबह के बीच चिड़ियों का बोलना
जाहिर है उसकी रोशनी में दाने और कीड़ों के बेहतर दिखने के
स्वागत में बोलना है
और इसी एक राजनीति की राह पर मैंने स्वीकार किया था –
मेरा रवैया इस प्रकरण में कवित्वपूर्ण न होकर व्यवहारिक और तथ्यपूर्ण अधिक है
किसी सुबह या किसी उम्मीद के बारे में लिखी जा रही कविता के समाप्त होने जाने की
यही सबसे मुफ़ीद जगह है
जहां एक अनगढ़ वृत्तांत पूरा होता है.
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शिरीष कुमार मौर्य
१३ दिसंबर १९७३
पहला क़दम (कविता पुस्तिका – १९९५ कथ्यरूप), शब्दों के झुरमुट (कविता संग्रह – २००४),
पृथ्वी पर एक जगह (कविता संग्रह – २००९)
धरती जानती है (येहूदा आमीखाई की कविताओं के अनुवाद का संग्रह अशोक पांडे के साथ- २००६)
कू सेंग की कविताएँ (२००८ पुनश्च पत्रिका द्वारा कविता पुस्तिका )
धनुष पर चिड़िया (चंद्रकांत देवताले की स्त्री विषयक कविताओं का संचयन २०१०)
लिखत पढ़त (वैचारिक गद्य – २०१२)
शानी का संसार – आलोचना, जैसे कोई सुनता हो मुझे – कविता संग्रह (शीघ्र प्रकाश्य)
सम्मान
२००४ में प्रथम अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार ,
२००९ में लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान २०११ में वागीश्वरी सम्मान
सम्पर्क : वसुंधरा ।।।, भगोतपुर तडियाल, पीरूमदारा, रामनगर, जिला-नैनीताल(उत्तराखंड)
पिन- 244 715