सरबजीत गरचा हिंदी और अंग्रेजी में कविताएँ लिखते हैं. मराठी से हिंदी और अंग्रेजी में उनके किये अनुवाद सराहे गए हैं. यहाँ उनकी पांच कविताएँ प्रस्तुत हैं.
इन कविताओं में सादगी है. इधर की हिंदी कविताओं में वक्रोक्ति का जो अतिवाद फैला हुआ है, और जिसकी अपनी एक रीति निर्मित हो गयी है और जो अब उबाने भी लगी है.
इन कविताओं की सहजता में ताज़गी है, सच्चाई है. इस काव्यांश की तरह
“आत्मा होगी
तो शर्म भी आएगी
झूठ का क्या है
आज नहीं तो कल
उघड़ ही जाएगा ”
सरबजीत गरचा की कविताएं
ख़ुश रहो
दीवारों पर पलस्तर पूरा हो गया है साहब
अब हम चलते हैं
आप पानी मारते रहना
पानी जितना रिसेगा
उतनी ही मजबूत होगी दीवार
यह कहकर उस राजमिस्त्री ने
उस दिन की मज़दूरी के लिए
अपना हाथ आगे बढ़ाया
पिता ने पैसे थमाए और
धीरे से बंद कर दी मिस्त्री की मुट्ठी
मानो कह रहे हों इस घर की याद
अब तुम्हारे हाथ में है
इसे बड़े जतन से रखना
ताज़े पलस्तर की गंध से
पूरा घर महक रहा था
ठंडी दीवारों को बार-बार
हाथ लगाने और उनसे सटकर
खड़े रहने का मन करता था
छूने पर लगता जैसे
दीवार के ठीक पीछे खड़ा है मिस्त्री
मैं उससे कुछ कहना चाह रहा हूं
लेकिन वह मुझे सुन नहीं पा रहा है
दूसरी तरफ़ जाने का भी कोई फ़ायदा नहीं
जब तक मैं वहां पहुंचूंगा वह जा चुका होगा
सालों बाद अब उभरने लगी हैं
घर में दरारें
ख़ुश रहो कहना जो भूल गया था मिस्त्री को
और वह भी शायद किसी छोटी सी बात पर
नाहक गुस्सा होने से बच नहीं पाया होगा
उसने ज़ोर से भींची होगी अपनी मुट्ठी
तभी तिड़क गई होगी
उसके हाथों में संजोई
मेरे घर की स्मृति
अब मैं किसी को ख़ुश रहो
कहना नहीं भूलता
घर
जब लूंगा आख़री सांस
तब किस किताब का
कौन-सा पन्ना होगा खुला
आंखों के सामने?
किस कविता की किस पंक्ति पर
लगी होगी अंतिम टकटकी?
शायद एक ही विचार करेगा
दिल में रतजगा
निर्दोष पंक्तियों के सदोष रचेता को
क्यों न लगा पाया भींचकर गले
ढूंढता रहा सपनों के लिए जगह
शब्दों के लिए वजह
जो कुछ पाया
पुतलियों ने पिघलाया
यही तो थी वह जगह
जहां सपने बन जाते हैं
बिना पते वाली चिट्ठियां
था कोई डाकिया जो आता था
पीछे वाले दरवाज़े से
कभी दिखाई नहीं दिया वह
मैं भी कैसे कर सकता था दावा
कि जो चिट्ठियां मुझे मिलीं
वो मेरी ही थीं
दिन में जिनसे बात न कर सका
वही दोस्त मुझे दिखते रहे सपने में
एक धीमी नदी में छोड़ी
उनकी काग़ज़ की कश्तियां
मुझे रह-रहकर मिलती रहीं
मेरी भी मिली होंगी
कुछ और दोस्तों को
जिन्हें मैं किनारे बैठकर
देख नहीं सका था
पानी स्याही को मिटा नहीं पाया
शायद उसे भी कोई
लिखा हुआ संदेश भा गया था
संवाद नहीं हुआ
फिर भी कुछ पतों पर होता रहा
बातों का लेनदेन हमेशा
वही नदी न भी आई हो
सभी दोस्तों के सपने में
फिर भी सब ने दी
उस अदृश्य डाकिये को दुआ
जिसने बनाए हमारे घर
बिना पते वाली चिठ्ठियों के गंतव्य
बाक़ी घरों से मन ही मन जुड़ा हर घर
बन गया कवि का घर
अंतराल के बाद
लंबाई चौड़ाई गहराई
और इन्हें सुई की तरह बेधता समय
मिलकर बनते हैं चार आयाम
जिन्हें भौतिकीविद काल-अंतराल कहते हैं
इस काल-अंतराल में पनपते हैं सारे दु:स्वप्न
जो बार-बार हमसे टकराते हैं
नींद उन्हें बांधने में हमेशा नाकाम रहती है
दु:स्वप्न घूमते रहते हैं बेपरवाह
घुलते जाते हैं तेज़ी से बढ़ रही भीड़ में
डालते हैं एक विशाल काला परदा
दुनिया के सारे सुंदर दृश्यों पर
हमारी चेतना के रेशों से बुना धागा
सुई के छेद में एक ही तरफ़ से डाला जा सकता है
उस पर हमारी मर्ज़ी नहीं थोपी जा सकती
उसकी यात्रा की दिशा हमेशा
भूत से भविष्य की ओर रहती है
फिर भी दु:स्वप्न उससे जुड़े रहते हैं
हमारा अस्तित्व सुई के छेद के आकार
और गहराई में क़ैद है
उस महीन खिड़की में
वर्तमान सिर्फ़ एक इंतज़ार है
धागा हमें छूकर गुज़रता है
और उस पर लगी कालिमा को हम
काजल मानकर लगा लेते हैं अपनी आंखों में
लेकिन हम उस पर सवार होकर
या उसके सहारे झूलकर
किसी भी दिशा में नहीं जा सकते
इसके बावजूद दूर भविष्य में
हवा चाहे जितनी ख़ुश्क हो जाए
धागे में जगह-जगह समाई नमी को
सुखा नहीं पाएगी
धागे को आंखें मूंदकर छूने वाले हर प्रेमी को
एक दिन दिखाई देगी
सुई के छेद से छनकर आती स्वछ निर्मल रोशनी
जो कर देगी पृथ्वी पर पानी की
प्रत्येक बूंद को इतना प्रज्ज्वलित
कि बूंद-बूंद में झलकने लगेंगे एक के बाद एक
खिड़की के उस पार के समय में समाए वो सारे क्षण
जिनमें उसके अनगिनत अपनों ने बहाए थे आंसू
और किया था रोशनी को
दु:स्वप्नों की कालिमा से मुक्त
सलेटी धुआं
मेरे दादाजी 30 नंबर ब्रैंड की बीड़ी पिया करते थे
पर कहते उसे एक नंबरी थे
बीड़ी के बंडल पर एक तस्वीर छपी होती थी
जिसमें एक जवान मर्द का दमकता चेहरा होता था
बेदाग़ माथा
सर के बाल पीछे काढ़े हुए
पैनी निगाह
और ज़बरदस्त अंदाज़
ये सब 30 नंबर बीड़ी से ही मिलेगा
गोया यही उस तस्वीर का आदमी
अपने बंद होंठों से कहता था
हांलाकि उसके चेहरे की आकृति के इर्द-गिर्द
धुंए का नामो-निशान नहीं दिखता था
मुझे शक़ होता था कि वह
सचमुच बीड़ी पीता भी है या नहीं
ईंट की छोटी-सी दीवार को ही
बेंच बनाकर उस पर बैठा एक छैल-छबीला
गर्दन को थोड़ा टेढ़ा करके
बीती हुई शाम और धीरे-धीरे आती हुई
रात की ट्यूबलाइट वाली रोशनी में
अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से
बीड़ी पीते बुज़ुर्ग और
उसके पोते-पोतियों की रेलपेल को
घंटों देखने-सुनने की क़ाबिलियत रखता था
रबर के खिलौनों को
ऊबने की सहूलियत जो नहीं होती
वह दबाने पर आवाज़ करने वाला गुड्डा था
पर उसकी दीवार की बुनियाद में लगी सीटी
ख़राब हो चुकी थी
दादाजी उसी सीटी के रास्ते
गुड्डे के शरीर में
अपने मुंह से बीड़ी का सलेटी धुंआ
भर दिया करते और
खिलौने को ब्लो हॉर्न की तरह दबा-दबाकर
पूरे कमरे में उस धुंए की पिचकारियां छोड़ते
कहीं आसपास ही रखे बीड़ी के बंडल पर
छपी तस्वीर का आदमी भी
अब अपने ही कारखाने में
सूखे पत्ते में लपेटे गए तंबाकू के
धुंए से अनछुआ नहीं रह पाता था
और अब तक मैं भी अनछुआ नहीं रह पाया
नींद के सन्नाटे से जगाकर
मुझे सपनों की चहल-पहल में ठेलती
दादा की माचिस की तीली से
आती आवाज़ से
और एक तीली रोशनी से
जो दिल के बहुत पास वाली
किसी दूर की दुनिया को
जगमगाती है.
बिना कलई
आत्मा होगी
तो शर्म भी आएगी
झूठ का क्या है
आज नहीं तो कल
उघड़ ही जाएगा
कवि कभी कलई पर
आश्रित नहीं होता
बार-बार आंखों में
नौसादर झोंकने से
आंखें तो बंद हो जाएंगी
लेकिन बिना कलई वाली
आत्मा की दमक का
क्या करोगे
अस्तित्ववान हैं आज भी ऐसे धातु
जिनके लिए आग भी एक घर है
जिसमें वो सिर्फ़ धधकते हैं
दबकते कभी नहीं.
________________________
सरबजीत गरचा
कवि, अनुवादक, संपादक एवं प्रकाशक. अंग्रेज़ी में दो एवं हिंदी में एक कविता संग्रह और अनुवाद की दो पुस्तकें प्रकाशित. संस्कृति मंत्रालय की ओर से कनिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय फ़ेलोशिप प्राप्त. कॉपर कॉइन पब्लिशिंग के निदेशक एवं प्रमुख संपादक.
हिंदी-अंग्रेज़ी परस्पर अनुवाद और मराठी कविता के हिंदी एवं अंग्रेज़ी अनुवाद के लिए चर्चित. अंग्रेज़ी में अगला कविता संग्रह, अ क्लॉक इन द फ़ार पास्ट, शीघ्र प्रकाश्य.
sarabjeetgarcha@gmail.com
sarabjeetgarcha@gmail.com