पृथ्वी के लिए शब्दसंतोष अर्श |
John Keats
हमारे यहाँ अवध में विवाह से पूर्व एक बड़ी प्यारी रस्म ‘छेई’ की होती है. इसमें घर-गाँव के लोग गाँव से बाहर एक आम का पेड़ ढूँढ कर उसके तने पर बाँके या छोटी कुल्हाड़ी से हल्का घाव करते हैं. फिर उस घाव में हल्दी और गुड़ का मिश्रण भरते हैं. उसी जगह पेड़ के नीचे घी-लौंग का अगियार होता है. पेड़ को एक लोटा पानी दिया जाता है. तने के उस घाव के पास ही पेड़ को सिंदूर की टिकुली दी जाती है. फिर पेड़ के तने पर हल्दी और चौरीठे (चावल का आटा) के घोल की थापे देते हैं. यह हाथ के पंजे की थाप छेई में आए सभी लोग अपनी पीठ पर लेकर घर लौटते हैं. सभी में गुड़ बाँट कर खाया जाता है. यह ज़रूर कोई आदिम प्रथा है जो पेड़ को मनुष्यवत या देवोपम बनाती है.
फोटो आभार : कल्याण वर्मा |
पर्यावरणवाद की सम्पूर्ण अवधारणाएँ प्रकृति को मनुष्य द्वारा दिये घावों पर मुनहसिर हैं. प्रकृति को इतने घाव दिये जा चुके हैं कि अब उन्हें भर पाने में हमें अपने असामर्थ्य का बोध होने लगा है. जैसे–जैसे पूँजी का वर्चस्व और निजी संपत्ति की प्रवृत्ति बढ़ती गई, प्राकृतिक पर्यावरण दूषित होता गया. यह एक खुली हुई स्पष्ट और सरल-सहज बात है. भौतिकशास्त्री और ब्रह्मांडविद् स्टीफन हॉकिंग ने यहाँ तक कह दिया कि अगले सौ वर्षों के पश्चात हमें दूसरी पृथ्वी की ज़रूरत होगी. इसे प्राकृतिक-पर्यावरण अवनयन, पारिस्थितिकी-असंतुलन, जलवायु परिवर्तन और दिन-प्रतिदिन पृथ्वी की ख़राब हो रही सेहत को लेकर, विश्व नागरिकों को गंभीर कर देने वाला बयान माना जाना चाहिए.
दूसरी पृथ्वी कहाँ है ? अगर मिल भी गई तो क्या आज के मुनाफ़ाख़ोर, लालची और उपभोगवादी लोग उसे भी कुछ दिनों में ख़राब नहीं कर देंगे ?
साहित्य और पर्यावरण के अंतर्संबंध पर्यावरण अवनयन के बोध के साथ बनने प्रारम्भ हुए. कुछ-कुछ उत्तर-आधुनिक परिस्थितियों में. रचेल कर्सन की पुस्तक ‘साइलेंट स्प्रिंग’ 1962 में आई थी. यहीं से साहित्य और पर्यावरण के अंतर्संबंधों का प्रस्थान माना जाता है. बैरी लेविस ने 1960 से 1990 के मध्य के लेखन को ‘डोमिनेंट पोस्ट-मॉडर्निस्ट राइटिंग’ माना है. यह उत्तर-औद्यौगिक और उत्तर-औपनिवेशिक समय भी है. इसी समय के दौरान हम पर्यावरण और साहित्य के बनते हुए संबंधों को देख सकते हैं. यह दुनिया भर में पर्यावरणवादी आंदोलनों का भी समय था. कहीं न कहीं इन आंदोलनों का प्रभाव भाषा-साहित्य की दुनिया पर भी पड़ा. धीरे-धीरे कैम्ब्रिज, हावर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में साहित्य और पर्यावरण का अंतरअनुशासनात्मक अध्ययन ज़ोर-शोर से शुरू होता है. इकोलॉजी और साहित्य का यह इंटरडिस्प्लिनरी अध्ययन एक नवीन अनुशासन के रूप में स्थापित हुआ. पर्यावरणवादी साहित्यालोचन को इकोक्रिटिसिज़्म कहा गया, जिसे हिन्दी में पारिस्थितिक-आलोचना कह सकते हैं. ग्रेग गरार्ड जिनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘इकोक्रिटिसिज़्म’ 2004 में प्रकाशित हुई, ने इसे ‘मनुष्य और मनुष्येतर संबंधों का अध्ययन’ कहा है.
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पारिस्थितिकीवाद या पर्यावरणवाद अब एक ऐसी वैश्विक विचारधारा बन चुकी है जिसमें मनुष्य के उन तौर-तरीकों की आलोचना की जाती है, जिनके साथ वह पृथ्वी पर रह रहा है. पर्यावरण-चिंतन एक गंभीर विषय है. बीसवीं सदी के अंतिम दशक में यह मान लिया गया था कि पृथ्वी को बचाए रखना इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी चिंता होगी. पर्यावरण-विज्ञान को एक अनुशासन बनाने के अतिरिक्त, मानविकी के प्रत्येक क्षेत्र में इस विचारधारा को संश्लिष्ट रूप में थोड़ा-बहुत अपनाया गया. इसी विचारधारा के अंतर्गत इको-क्रिटिसिज़्म या पारिस्थितिक-आलोचना आती है. पारिस्थितिक-आलोचना वस्तुतः पर्यावरणिक दृष्टिकोण से साहित्य की आलोचना करना है. मनुष्य के भौतिक वातावरण से उसके संबंध साहित्य में कैसे अभिव्यक्त हुए हैं यह इस बात की तस्दीक़ करती है.
यद्यपि पश्चिम में भी साहित्य के प्रति पारिस्थितिक दृष्टिकोण देर से ही विकसित हुआ. इसके लिए उत्तर-आधुनिक परिस्थितियों को बुनियाद के रूप में समझना चाहिए. लेकिन हिंदी साहित्य में रामविलासीय आलोचना के प्रभाव से मुक्त न हो पाने वाले आलोचकों ने अपनी तमाम ऊर्जा उत्तर-आधुनिकता के विरोध में ही खर्च कर डाली. संभवतः इसीलिए हिंदी आलोचना में अब तक कोई पारिस्थितिक दृष्टिकोण विकसित नहीं हो सका. एकाध अधकचरी पुस्तकें अहिंदीभाषी क्षेत्रों के अकादमीशियनों द्वारा अवश्य लिखी गईं. जिनमें टोने-टोटकों, मिथकों का प्राचुर्य और तार्किकता, वैज्ञानिकता का अभाव है.
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पश्चिम में जोसेफ़ मीकर की पुस्तक ‘दि कॉमेडी ऑफ सरवाइवल’ ने साहित्य में पर्यावरणवाद को स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई. 1970 का यह समय पर्यावरणवादी रुचियों के विस्फोट का समय था. इस समय पश्चिम में कई पुस्तकें पर्यावरणवादी रुझानों को लेकर लिखी गईं. 1990 में अमेरिका के ग्लेन लव ने इकोलोजिकल आलोचना की आवाज़ उठाई. इसी समय ब्रिटेन में जोनाथन बेट के विचार ‘रोमांटिक इकोलोजी : वर्ड्सवर्थ एंड दि एनवायरमेंटल ट्रेडिशन’ शीर्षक से प्रकाशित हुए. ग्लेन लव के प्रयासों से ही 1992 में अमेरिका के युवा अध्येताओं ने मिलकर ‘एसोसिएशन फॉर द स्टडी ऑफ लिट्रेचर एंड एनवायरमेंट’ (ASLE) का गठन किया जिसका प्रथम सम्मेलन 1995 में कोलराडो में हुआ. इन्हीं संगठनों और अभियानों के तहत साहित्य और पर्यावरण का सम्मिलित अध्ययन विस्तृत और प्रासंगिक हुआ. हम पाते हैं कि यही समय विश्व में पर्यावरणवादी आंदोलनों और पर्यावरण को लेकर हुए वैश्विक सम्मेलनों का भी समय था. 1971 में रमसार कन्वेंशन (जो ईरान वेटलैंड को लेकर हुआ था) और 1992 में आयोजित हुए संयुक्त राष्ट्र के रियो सम्मिट के मध्य में पर्यावरण को लेकर कई संधियाँ, सम्मेलन समझौते आदि हुए. अनेक मानवजनित पर्यावरणीय दुर्घटनाएँ भी इसी समय के दरम्यान हुईं. भूमंडलीकरण या सार्वभौमीकरण में पर्यावरण और पारिस्थितिकी का मुद्दा ऐसा है जो पूरी तरह से भूमंडलीकृत है. पर्यावरण का मुद्दा अमीर-गरीब, गोरे-काले, दलित-सवर्ण, पूरब-पश्चिम, मनुष्य-मनुष्येतर सबके लिए ही अहम है.
यूरोपीय और अमेरिकी अंग्रेज़ी साहित्य में हम पारिस्थितिक आलोचना को लेकर कुछ महत्वपूर्ण कार्य देख सकते हैं. इनमें डाउनिंग क्लेस का ‘इकोलोजी एंड एनवायरमेंट इन यूरोपियन ड्रामा’ उल्लेखनीय है. जिसमें ग्रीक ट्रेजडी से लेकर ब्रेख्त के नाटकों तक का पारिस्थितिक या हरित अध्ययन हुआ है. इसमें लेखक ने साहित्य के पारिस्थितिक दर्शन और पारिस्थितिक इतिहास पर भी विचार किया है. इसके परिचय में ही वे पर्यावरण एक्टिविस्ट, कवि और किसान ‘वेंडेल बैरी’ को उद्धृत करते हुए लिखते हैं, ‘प्रकृति और मानव-संस्कृति, जंगलीपन और घरेलूपन एक दूसरे के विरोधी नहीं, अपितु परस्पर एक दूसरे पर निर्भर हैं.’
यह देखना दिलचस्प है कि ‘हरित शेक्सपियर’ जैसे अध्ययन भी वहाँ हो चुके हैं. लौरेंस बुएल जो प्राथमिक पारिस्थितिक आलोचकों में गिने जाते हैं, उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘दि फ्यूचर ऑफ एनवायरमेंटल क्रिटिसिज़्म’ है. इसमें इन्होंने साहित्यिक कल्पना और पर्यावरण अवनयन को लेकर विचार किया है. यद्यपि पारिस्थितिक आलोचना की सैद्धांतिकी और शाब्दिकता कुछ नवीन है. इसमें सामाजिक-पारिस्थितिवाद, गहन-पारिस्थितिवाद, इको-मार्क्सवाद, पारिस्थितिक-समाजवाद या हरित मार्क्सवाद, पारिस्थितिक-नारीवाद प्रमुख हैं.
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ग्राम्यवाद या रोमानी ग्राम्यवाद, चरवाहा संस्कृति, मानवेतरवाद, महाप्रलयवाद, देशजता, साकल्यता, जंगलीपन और आदिमपन भी इसकी सैद्धांतिकी में सम्मिलित हैं.
आदिम ग्राम्यवाद और बंजारावाद पारिस्थितिक-आलोचना की दो ऐसी धाराएँ हैं जो मनुष्य की आधार संस्कृति से जुड़ती हैं. ये धाराएँ साहित्यिक आलोचना को लोकोन्मुखी बनाती हैं और ग्रामीण जीवन से लेकर महानगरीय जीवन तक एक समानान्तर रेखा खींचती है.
इसी प्रकार आवश्यकतावाद अथवा अपरिहार्यवाद पारिस्थितिक-आलोचना की एक ऐसी वैचारिक कड़ी है जो मानवीय अतियों, संपत्तिवाद, वर्चस्ववाद, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद का निषेध करती है.
पारिस्थितिक-आलोचना का उद्देश्य मूल रूप से साहित्य में मनुष्य द्वारा प्रकृति के प्रति होने वाले व्यवहार और अलगाव को स्पष्ट करना है. यह मनुष्य के प्राकृतिक जीवन को मुखर करने के लिए एक प्रकार की हरित-सामाजिकता का विकास करती है तथा पारिस्थितिक संकट उत्पन्न करने वाले कारकों के विरुद्ध प्रतिरोध निर्मित करती है. विध्वंसक पूँजीवादी विकासवाद और सांस्कृतिक अतिक्रमण के समक्ष पारिस्थितिक-आलोचना भाषा, लिंग, मानवीय अस्मिता और पर्यावरण जैसे विषयों को संयोजित करके एक नवीन आलोचना का मार्ग विकसित करती है.
सबसे प्रमुख है पर्यावरणिक न्याय या एनवायरमेंटल जस्टिस, जो सामाजिक न्याय का सार्वभौमिक, वृहत्तर रूप है. इसके अंतर्गत मनुष्य ही नहीं मनुष्येतर प्राणी को भी रखा गया है. पर्यावरणिक न्याय वस्तुतः पर्यावरण अवनयन से प्रभावित होने वाले मनुष्यों और अन्य प्राणियों के न्याय की बात करता है. यह प्राकृतिक पर्यावरण को नुकसान पहुँचा कर पाई गयी भौतिक सुविधा या मुनाफ़े में इससे प्रभावित होने वाले लोगों की हानि को न जोड़े जाने पर विचार करता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले कुछ लोग ही होते हैं, किन्तु पर्यावरण अवनयन से उपजी जैविक विसंगतियों का सामना निर्दोष मनुष्यों और मनुष्येतर जीवों के बड़े समुदाय को करना पड़ता है. यदि कोई पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुँचाता है, बावजूद इसके उसे पर्यावरण प्रदूषण का अतिक्रमणकारी आतंक सहन करना पड़ता है तो यह उसके साथ अन्याय ही तो है ?
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रॉब निक्सन की पुस्तक ‘स्लो वाइलेंस एंड दि एनवायरमेंटलिज़्म ऑफ दि पुअर’ का भी उन्होंने उल्लेख किया है. यह भी गौरतलब है कि पारिस्थितिक आलोचना के दायरे में केवल साहित्य न होकर फिल्में भी हैं. यान मर्टेल की ‘लाइफ ऑफ पाइ’ जैसी फिल्मों का अध्ययन भी इस हवाले से किया जा चुका है. हम देखते हैं कि पश्चिमी साहित्यालोचन में पर्यावरणवाद की संतोषजनक, सैद्धान्तिक पैठ हो चुकी है.
अमेरिका के नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2015 में हुई ‘पेरिस एग्रीमेंट ऑन क्लाइमेट चेंज’ से अमेरिका को बाहर कर लिया है. यानी सभी तरह के समझौतों को मानने से इंकार कर दिया है. कारण यह है कि वह कार्बन उत्सर्जन में कटौती की शर्तों को मानने के लिए तैयार नहीं हैं. जिस पर फ्रांस के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति मैक्रोन ने कहा कि
‘जलवायु परिवर्तन पर कोई गलती नहीं हो तो बेहतर है, कोई दूसरा रास्ता नहीं है क्योंकि दूसरी पृथ्वी भी नहीं है.’
अमेरिका की आबादी विश्व की छह प्रतिशत है, लेकिन वह विश्व के तीस से चालीस प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग अकेले करता है. इसे हम एक बड़े पर्यावरणिक अन्याय के रूप में देख सकते हैं. यूरोपीय देश भी उसी के पिछलग्गू हैं. फिर एशिया-अफ्रीका के लिए क्या बचता है ? वैश्विक हालात तो ऐसे हैं कि ग़रीब देशों को नर्क बना दिये जाने की पूरी तैयारी है. सोमालिया के समुद्र तट पर मिला ज़हरीला कबाड़ हो या विकासशील देशों में विकसित देशों द्वारा ई-कचरे की डम्पिंग, ये घटनाएँ पर्यावरणिक अन्याय का ही हिस्सा हैं.
अनुपम मिश्र का पर्यावरणवादी लेखन उल्लेखनीय है. उन्होंने भारत के लोक-जीवन की पर्यावरणप्रेमी या इको-फ्रेंडली संस्कृति को पहचानने में कामयाबी हासिल की. ग्राम्यवाद अनुपम मिश्र के विचार-चिंतन का आधार है, क्योंकि वे गाँधीवादी हैं. गाँधी कहते थे कि भारत गाँवों में बसता है. ग्राम्यवाद पर्यावरणोन्मुखी अवधारणा है. उनकी पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ वस्तुतः ग्राम्यवाद का ही एक हिस्सा है. तालाब आज भी गाँव के प्राण हैं. जल संरक्षण पर अनुपम मिश्र का लिखा-पढ़ा गया सराहनीय है. गाँधीवाद हमें कुछ-कुछ पर्यावरणप्रेमी भी बना देता है यह उसकी विशेषता है. ‘हिन्द स्वराज’ इन बातों को लेकर गाँधी जी की महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध पुस्तक है. गाँधी जी की यह उक्ति विदेशों में भी लोकप्रिय है कि,
‘पृथ्वी प्रत्येक व्यक्ति की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है, लेकिन किसी एक भी व्यक्ति के लालच के लिए नहीं.’
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भाषा और पर्यावरण को लेकर भी अनुपम मिश्र ने विचार किया है. ‘भाषा और पर्यावरण’ हिन्दी भाषा को लेकर लिखा गया उनका एक महत्वपूर्ण निबंध है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए. इसमें उन्होंने सबसे बड़ा प्रश्न यह उठाया है कि अपने समाज को जाने-समझे बिना हम उसका विकास कैसे कर सकते हैं ? वे लिखते हैं, ‘अपने को, अपने समाज को समझे बिना उसके विकास की इस विचित्र उतावली में गज़ब की सर्वसम्मति है.’ यह बहुत बड़ी बात है. उन्होंने भाषा और पर्यावरण के सम्बन्धों को भी अपने इस निबंध में रेखांकित किया है. ‘किसी समाज का पर्यावरण पहले बिगड़ना शुरू होता है या उसकी भाषा- हम इसे समझ कर संभल सकने के दौर से अभी तो आगे बढ़ गए हैं.’ पर्यावरण के साथ भाषा भी या तो अवनयित, प्रदूषित होती रहती है, या जैव विविधता की तरह संकटग्रस्त रहती है. विलुप्त हो चुके प्राणियों की तरह शब्द भी विलुप्त होते रहते हैं. पर्यावरण और भाषा का गहरा संबंध है. किसी एक समय की भाषा जब उस समय के पर्यावरण के साथ विलुप्त हो जाती है तो हमारे पास दो-चार मुहावरों के सिवाय कुछ नहीं बचता. अनुपम मिश्र का पर्यावरणवादी लेखन प्रशंसनीय है किन्तु उसमें रोमांटिसिज़्म की अधिकता है. निरे रोमांस से भी पर्यावरण नहीं बचाया जा सकता. पारिस्थितिकी और पर्यावरण विज्ञान भी हैं. विज्ञान तर्कानुमोदित, तथ्यात्मक विश्लेषण की माँग करता है.
बहुत कुछ बचाने के लिए मूल तक जाना होगा. मसलन यदि ध्रुवीय भालू को बचाना है तो पहले ग्लेशियर बचाने होंगे. जब ग्लेशियर बचेंगे तो बर्फ़ बचेगी, बर्फ़ बचेगी तो सील बचेगी, सील बचेगी तभी सुंदर हिम-भालू बचेगा. सीधे हिम भालू को बचाने की बात करने वाले लोग या तो मूढ़ हैं, या छलिया.
संतोष अर्श
(1987, बाराबंकी, उत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह ‘फ़ासले से आगे’, ‘क्या पता’ और ‘अभी है आग सीने में’ प्रकाशित.
अवध के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक लेखन में भी रुचि
‘लोकसंघर्ष’ त्रैमासिक में लगातार राजनीतिक, सामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन.
2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित.
फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी
poetarshbbk@gmail.com
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