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Home » अखिलेश से पीयूष दईया का संवाद

अखिलेश से पीयूष दईया का संवाद

28 अगस्त को मशहूर चित्रकार अखिलेश अपने जीवन के साठ वर्ष पूरे करने जा रहे हैं. कोलकोता में १ दिसम्बर को अखिलेश जी की षष्ठिपूर्ति के सिलसिले में एक बड़ी प्रदर्शनी का आयोजन किया जा रहा है और वहाँ अखिलेश की ७ नयी किताबों का विमोचन भी होगा. कवि – संस्कृतिकर्मी पीयूष दईया ने अखिलेश से यह बातचीत हाल ही में सम्पन्न की है, और समालोचन पर ही प्रकाशित हो रही है. संवाद एक रंग- पीले रंग, पर एकाग्र है. इस किस्म का संवाद शायद ही कभी किसी चित्रकार के साथ किया गया हो.

by arun dev
August 28, 2016
in पेंटिंग
A A
अखिलेश से पीयूष दईया का संवाद

(पीयूष दईया और अखिलेश, फोटो द्वारा  योगिता शुक्ल)

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रंगों के बखान में पीताभ का वैभव                

___________________________________

अखिलेश से पीयूष दईया की  बातचीत

आप के चित्रों में रंग-लीला पर आग्रह प्रमुख है. रंगों के प्रति आप का आकर्षण व क्रीड़ा-भाव क्या बचपन से ही था? छुटपन में आप को स्वभावतः कौन से रंग ज़्यादा पसंद थे? और बचपन की दुनिया में पीले रंग से आप का रिश्ता किस किस्म का था?

 

रंगों के प्रति आकर्षण एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. मेरे ख्याल से सभी रंगों से प्रभावित होते हैं और अपने को उसके प्रति अनजाने में खींचा पाते हैं. ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो रंगाकर्षण को याद रख पाता हो. ​मेरा रंग के प्रति आग्रह उतना ही सहज रहा होगा जितना मैंने महसूस किया जिसे मैं सिर्फ कपड़ों के स्तर पर याद कर पाता हूँ. बचपन में मैं चित्रकला के प्रति अरुचि रखता था और इन सब से दूर रहा करता था. रंग लगाना या चित्र बनाना, इन सब से दूर, बाहर खेल मैदान में मेरा समय गुजरता था.

मेरे सभी भाई बहन चित्र बनाते थे. मेरे पिता चित्रकार थे. घर भर में चित्र और चित्रकला की बातें बिखरी रहा करती थीं जिनमें मेरी रुचि न के बराबर हुआ करती थी सिर्फ इसलिए कि ये सभी जो कर रहे हैं मुझे नहीं करना है. किसी भी रंग से कोई नाता बनाए बगैर मेरा बचपन अछूता रहा आया. पीला ही क्यों ? इस अछूते रंग समय में मेरी दुनिया खेलों के साथ अपना सम्बन्ध बनाए हुए थी जहाँ कीचड़, धूल, मिट्टी के रंगो का बोलबाला था. हाँ, कपडे पहनने में मेरे पास रंग की पैलेट खुली हुई थी. मेरे पिता चित्रकार थे और उनकी रुचियाँ लघु चित्रों से प्रभावित थी. हम लोग कम ही सही किन्तु रुचिपूर्ण और रंगदार कपडे पहनते थे. एक बार मैंने इतना भड़कीला कुरता सिलवाया था कि उसे पहन कर मैं ही खुद काँप उठा था. बमुश्किल उसे दूसरी बार पहना.

 

क्या ऐसा कहा जा सकता है कि बचपन/लड़कपन में जिन रंगों की तरफ़ आप का ध्यान व अनुराग अधिक व गहरा था, वे ही रंग आगे जा कर आप की रंग-पैलेट बने या वयस्क/ परिपक्व होने के बाद रंगों को लेकर आप का चुनाव वही नहीं रहा जो बचपन में था?

दूसरे शब्दों में, आगे जा कर जिन रंगों से प्रमुखतः आप की रंग-पैलेट बनी, क्या आप उन के प्रति बचपन से ही सजग थे? और क्या उन रंगों के प्रति आप का रंगानुराग गहरा व उज्ज्वल था? क्या उन दिनों पीला रंग आप का पसंदीदा रंग था?  अब पलट कर सोचने-देखने पर आप को क्या लगता है?

 

​हाँ, यह सच है. बचपन में जिन रंगों से मेरा सम्बन्ध बना था, ज्यादातर अनजाने में, बाद में वो सम्बन्ध उन रंगों से नहीं रहा. मैं इन धूसर रंगों को अपनी पैलेट अब नहीं देखता. जब कल महाविद्यालय गया तब भी इन रंगों के बजाय मुझे जीवन्त और खिले खिले रंग पसंद थे. ये तो नहीं कहूँगा कि उन रंगों का इस्तेमाल मैं किसी समझ के साथ करता था या किसी आकर्षण के कारण किन्तु सहज ही उन्हें लगाया करता था. इन सब रंगों की समझ या रंग के महत्व का अहसास भी नहीं था बल्कि चित्र में रंग का कोई महत्व होता है इसका अहसास बहुत बाद में हुआ.

पलट कर देखता हूँ तो पाता हूँ कि मेरा ध्यान उन दिनों रूप पर अधिक था, संयोजन दूसरी चुनौती लगाती थी, स्पष्ट रेखांकन ज्यादा महत्व का होता था. इन्हीं के प्रति लगाव, इन्हीं की चाहना मुझे उलझाये हुए थी. पीला रंग ही क्यों सभी रंग मेरे लिए समान रहे और मेरा ध्यान कला के अन्य पक्षों की तरफ रहा. मेरा रंगानुराग गहरा था उज्ज्वल भी था किन्तु केन्द्रित न था. रंग चित्र का केन्द्र हो सकते हैं इसका अभिज्ञान बहुत बाद में हुआ.

 

चित्र बनाने के अपने शुरुआती दिनों में आप ने काले रंग में ख़ूब काम किया. बल्कि आठ साल तक आप ने सिर्फ काले रंग में ही काम किया. काले रंग के साथ ही काम करते रहने के इस ऑब्सेशन के पीछे क्या वजहें रहीं? बल्कि आप ने काला रंग ही क्यों चुना? मसलन, पीला क्यों नहीं?

 

​ये ही वो जगह है जहाँ मेरा ध्यान रंगों की तरफ गया और मैंने काले रंग में लम्बे समय तक काम किया. १९७८ की बात है जब मैंने पहली बार किसी अमूर्त चित्र प्रदर्शनी को देखा. रज़ाके चित्रों की प्रदर्शनी भोपाल कला परिषद में लग रही है यह जान कर हम तीन दोस्त कादिर, हरेन शाह और मैं इन्दौर से आये और पहली बार इस प्रदर्शनी को देख मुझे रंग महत्व का ज्ञान हुआ. पहली बार मैंने इतने मुखर, इतने स्पष्ट और आकर्षक रंग अहसास को महसूस किया और जाना कि चित्रों में रंग का महत्व क्या है. इसी दौरान मैंने वैन गॉग का खत भी पढ़ा था जिसमें उसने अपने भाई थियो को लिखा कि भविष्य का चित्रकार रंगों का चित्रकार होगा. वो डेढ़ सौ साल पहले देख रहा था बाद के चित्रकारों का भविष्य. ये दोनों बात जुड़ गयीं और मैंने अपने को एकाग्र किया रंगों पर. जल्दी ही पता चल गया कि इस आरोपण के कारण या इस विचलन के कारण मेरा सामान्य रंग प्रयोग भी फीका होने लगा है. रंग की ताकत और उसका दूभर होना दिखाई देने लगा. रंग आसानी से नहीं आ जाते. आपके हाथ काँप जाते है उसे लगाने में.  कई बार चित्रकार हिम्मत कर उसे लगा देता है किन्तु अगले ही पल उसे वश में करने के लिए दूसरे रंग से धूसर करने लगता है. रंग लगाना ही काम नहीं है उसे सम्भालना और फिर उससे वो कहलाना जो आप चाहते हो यह सब एक लम्बी और मुश्किल प्रक्रिया है.

जब उस प्रदर्शनी को देखने के बाद मेरा रंगप्रयोग उखड गया तो मैंने अपने घर आने वाले उन अनेक चित्रकारों से रंगप्रयोग के बारे में पूछना शुरू किया. अब मैं जानता हूँ, उस वक़्त नहीं जानता था, कि उनके पास भी कोई जवाब न था. उस वक़्त सभी ने जो भी कहा वो इतना विरोधाभासी था कि मैं ही भ्रमित हो गया और उस वक़्त मसीहा की तरह एक चित्रकार, जो मेरे पिता का विद्यार्थी भी था, धवलक्लांत ने मुझे कहा यदि रंग को समझना चाहते हो तो छह महीने सिर्फ काले रंग में चित्र बनाओ.

काले रंग का चुनाव मेरा नहीं था धवलक्लांत का था और वे मेरे घर आने वाले अनेक चित्रकारों में विशिष्ट स्थान रखते थे, उनके चित्र देखने उनके घर जाना होता था और वे काले रंग और अनेक प्रयोगों के साथ अपने चित्र को एक रिलीफ जैसा बनाया करते थे. काले रंग की अनेक परतें, अनेक रंगतें, अनेक ऊबड़-खाबड़ टेक्सचर उनके चित्रों में विचित्र आकर्षण पैदा करते थे. उनका नाम था धवलक्लांत, उसमें भी विरोधाभास दीखता था. और कामों में भी अजीब सा विकर्षण, कुछ अलग सी गन्ध जो शायद सरेस या किसी तरह के गोंद की होती थी, जिसमें कभी कभी फंगस भी लगी होने के कारण उसकी गन्ध भी उसमें लिपटी रहती, जिसे वे दिखाने के लिए उसी वक़्त साफ़ कर रहे होते थे. ये सब आकर्षित करता था और वे रंग भी जो मात्रा में बहुत कम होते थे.

सो उनकी सलाह पर मैंने काम शुरू किया काले रंग में और लगभग दस सालों तक सिर्फ काले रंग का ही सहारा रहा.

यह स्थिर विचार (obsession) सिर्फ रंग को उसकी सत्ता में लगाने की कूवत हासिल करने के लिए रहा. मैं रंग को मारना नहीं चाहता था लगाना चाहता था. बहुत छोटी सी ख्वाहिश थी. रंग का सामना करना चाहता था अपने कैनवास पर. उस वक़्त मेरा अनुभव यही कह रहा था कि कैनवास पर रंगानुभव करना बहुत मुश्किल है और रज़ा के चित्रों में उसको फलित होते देखा था. काले रंग का चुनाव मेरे लिए लाभदायक रहा और यदि वो उस वक़्त पीले रंग के लिए कहते तो शायद पीले रंग में यह सब अनुभव करता.

​

अपनी एक बातचीत में आप ने कहीं कहा है कि पीले रंग में काम करना किसी भी कलाकार के लिए अत्यन्त चुनौतीपूर्ण है. लेकिन ऐसा आप को क्यों लगता है? पीले रंग में आख़िर ऐसा क्या काठिन्य छुपा है?

Franz Marc ने लिखा है:  Blue is the male principal, stern and spiritual. Yellow the female principal, gentle, cheerful and sensual. Red is matter, brutal and heavy and always the colour which must be fought and vanquished by the other two.

 

​हम अपने जीवन में दो रंगों को अनजाने लगातार अनुभव करते रहते हैं. नीला और हरा. हमारे सर के ऊपर तना नीला आसमान लगातार अपनी चुपचाप उपस्थिति दर्ज कराता रहता है और प्रकृति में फैला हरा रंग हम हमेशा देखते हैं. अधिकांश चित्रकारों की रंग पैलेट इन्हीं दो रंगों से संचारित है. आभूषण के तौर पर लगा लाल टीका लगाते मैंने कई चित्रकारों को देखा है. कोने में एक लाल टिपकि लगा कर उसे पूरे कैनवास पर लगाए रंग से सँभालने का काम करते हुए अक्सर बहुत से चित्रकार मिल जायेंगे. जिन्हें शायद यह अहसास ही नहीं हुआ हो कि रंग चित्र में बराबर का हिस्सेदार है. इसी तरह पश्चिम के चित्रकार के लिए धूसर रंग की लगातार उपस्थिति उसके मानस को संचारित करती है. चित्र बनाते वक़्त जिस तरह अपने महाविद्यालय के दिनों में मुझे अहसास नहीं था रंग के महत्व का.

पीला रंग, मुझे लगता है, किसी भी तरह का समझौता नहीं करता, वह आपको अपनी उपस्थिति से लगातार विचलित करता है कि बगैर मुझे पालतू बनाये, बगैर मेरे रूप को बिगाड़े, बगैर कोई समझौता किये, मुझे अपनी शुद्धता में, पवित्रता में मेरा उपयोग करो तो जानूँ. ये चुनौती कोई और रंग नहीं देता. मुझे चुनौतियाँ अच्छी लगती हैं. पीले रंग में उथलापन है जो शुरुआत में लगता है कि इसे कैसे सम्भालें और उसका यही गुण उसे किसी भी चित्रकार को अपनी तरफ आकर्षित नहीं होने देता. इसके कई रंग-भेद हैं जिसमें सबसे ज्यादा पीला, जिसे हम lemon yellow के नाम से जानते हैं, वही मुश्किलें पैदा करता है. उसे कम ही चित्रकार हाथ लगाते हैं. मैंने अपने होश में बहुत ही कम चित्रकारों को इसका प्रभावशाली उपयोग करते देखा है. इस पीले के साथ बहुत बड़ी समस्या मुझे ये भी लगती है कि इसे लगाने के बाद इसमें रंग-गहराई नहीं दिखती फिर कैसे इसका रूप बिगाड़े बगैर इसे लगाए कि पीला भी हो और किसी दूसरे रंग का सहारा न लिया गया हो. इसे कई साल सिर्फ काले रंग में काम करने बाद समझ पाया. ये फार्मूला भी नहीं हो सकता किसी रंग को समझने का. ये प्रयोग नहीं अनुभव की बात है. अनुभव के मुकाबले प्रयोग के दायरे सीमित होते हैं.

फ्रांज़ मार्क ने जो कहा वो उनके लिए सच है जिसे कला के सिद्धान्त की तरह नहीं लिया जा सकता जिस तरह मेरा चित्रानुभव मेरे लिए ठीक है सब पर लागू नहीं होता. अब यदि वो लाल को पालतू बनाने की जद्दोजहद से गुजरे हैं, जिसमें नीला और पीला उन्हें औजार की तरह लगते हैं, तो यह उनकी उस धूसर परिस्तिथियों में बड़ी और फैली समझ का ही प्रमाण है. उन्हीं परिस्थितियों में वैन गॉग भी रहे जिनका अनुभव उन्हें कहीं और ले गया और वे इन्ही दो रंगों का खूबसूरत प्रयोग करते हैं —-‘Starry Nights’ में. ये दो रंग, पीला और नीला, उन्होंने जादू की तरह लगा दिया. आप चित्र देखें तो अभी भी खुली है वो रेस्तराँ, यही लगता है.

पीले रंग में कठिनता कुछ नहीं है बस वो अपने आपे में नहीं रहता. ऐसा भी नहीं है कि उसे सम्हाला नहीं जा सकता किन्तु मैं चित्र में ट्रिक का इस्तेमाल नहीं करना चाहता. राजनीति में छल, चालाकी, चकमा देना आदि सब जायज होगा किन्तु यहाँ नहीं. (हालाँकि वहाँ भी नहीं होना चाहिए) किन्तु मनुष्य के छोटेपन का एकमात्र आश्रय स्थल भी छिन जायेगा, ऐसा नहीं होना चाहिए.

​

सम्भवतः पहले पीला रंग आप की रंग-पैलेट का हिस्सा नहीं था. मेरा मतलब है कि आप के चित्रों में पीले रंग की उपस्थिति प्रमुख व केन्द्रीय नहीं होती थी. लेकिन हाल के वर्षों में पीला रंग आप के चित्रों में जगह पाने लगा है. ऐसे अनेक चित्र बने हैं जिन में पीला रंग प्रमुख है.

दूसरे शब्दों में, हाल के वर्षों में आप के कैनवास पर पीले रंग के प्रकटीकरण को आप कैसे देखते हैं?

 

​मैं इसे एक लम्बी यात्रा के परिणाम के रूप में देखता हूँ .

 

मुख्यतः एक रंग में रची गयीं वान गॉग की सूरजमुखी-श्रृंखला कुछ और चित्रकारों के ऐसे चित्रों का ध्यान आता है जो एक रंग में निर्मित हैं. अपने चित्र-कर्म के पहले दौर में आप ने भी सिर्फ़ एक रंग—काले रंग—में चित्र बनाये हैं. लेकिन क्या आप ने इस के बाद भी कभी एक रंग में चित्र बनाये हैं? अगर हाँ, तो किस रंग में और क्यों. अगर ना, तो भी क्यों. बल्कि आप के लिए किसी भी एक रंग में चित्र बनाने के मानी और निहितार्थ क्या हैं?

 

वैन गॉग रंगों की शुद्धता को पहचान कर उन्हें सशक्त रूप से बरत रहा था. वैन गॉग की सूरजमुखी वाले चित्र बहुत प्रभावशाली हैं और उनमें पीले रंग का प्रयोग उसने पहली बार इतना उत्फुल्लित ढंग से किया कि वो अभी भी आकर्षित करते हैं. याने रंग प्रयोग उस चित्र को काल से परे ले आया. यह भी दिलचस्प है कि इन उत्फुल्लित सूरज मुखी को चित्रित करने के पहले वैन गॉग ने तीन या चार चित्र बनाये थे —-मरे हुए सूखे सूरजमुखी के. उनमें इन फूलों का सूखापन भी उसी कौशल से चित्रित किया है मानो वो अभ्यास कर रहा हो जीवन के खुशनुमा होने का. पीले रंग की बात पर लौटें तो बहुत कम चित्रकार हैं जिन्होंने lemon yellow का इस्तेमाल किया हो. आप उन्हें उँगलियों पर गिन सकते हैं. पश्चिम में वैन गॉग के बाद चित्रकारों में झिझक दूर हुई और वे रंग शुद्धता की ओर मुड़े. इसके पहले यहाँ की रंग पैलेट धूसर और रंगों को लगभग नीरस सा धूसर बना कर लगाया जाता रहा. पिकासो, मातिस, रोथको,​ शागाल आदि कुछ चित्रकार हैं जिन्होंने निर्बाध प्रयोग किया किन्तु इसमें रोथको के अलावा कोई नहीं है जिसने शुद्ध पीला रंग लगाया हो. भारतीय चित्रकारों में सिर्फ तीन नाम हैं जिन्होंने पीले को पीले की तरह लगा दिया और चित्र आकर्षण खड़ा रहा. हुसेन, रज़ा और स्वामीनाथन. इन लोगों का रंग प्रयोग तीन तरह का है किन्तु इन तीनों ने इस बात को समझा कि lemon yellow चित्र में लगाना जोखिम का काम है.

मेरे काले रंग प्रयोग के बाद कभी कभार मैंने सिर्फ एक रंग प्रयोग से कुछ चित्र बनाये हैं जिसमें लाल या नीला शामिल हैं. क्यों बनाये हैं ये शायद मुझे भी नहीं पता और इस का कोई कारण हो सकता है यह भी नहीं कहा जा सकता. इसका निहितार्थ सिर्फ चित्र बनाना ही है उसके अलावा मैं कोई और बात नहीं साध रहा था.

 

क्या आप पहले से यह तय कर के काम करते हैं कि हाँ, अब मैं अमुक रंग में काम करूँगा/चित्र बनाऊँगा अथवा रंगों का चुनाव औचक होता है? ख़ास तौर पर उस समय जब आप चित्र बनाना शुरू कर रहे होते हैं. ​

इस सन्दर्भ में Jasper Johns का वाक्य दिलचस्प है :

Sometimes I see it and then paint it. Other times I paint it and then see it. Both are impure situations, and I prefer neither.”

 

दोनों में ही कई बार एक निरन्तरता ही तय करती है रंगों को और कई बार औचक चुनाव उन्हें प्रकट करता है. बात चाहे कुछ भी हो, रंग लगाने का अनुभव इस बयान के बाहर है. ​जेस्पर जॉन्स का कहना बिल्कुल सही है—-कई बार आप चुनते हैं, कई बार रंग आपको चुनता है और जब वो चुनता है तब आप उसे बाद में ही देख पाते हैं. और चित्र बनाना ही अपवित्र कर्म है जिसे आप चुनते हैं और एक पवित्रता तक ले जाने की कोशिश में लगे रहते हैं. अब इसे पवित्र अपवित्र कर्मो में बाँटना भी एक गलत टर्म है जब हम उसे impure कह रहे हैं तब उसके अपरिपक्व होने का इशारा है. अपवित्र नहीं. हिन्दी में अभी चित्रकला की शब्दावली को लेकर कुछ काम नहीं हुआ है (बल्कि हिन्दी को लेकर भी सब एकमत नहीं हैं) इसलिए इस उधार से काम चलाना होता है जिससे मुझे बहुत तकलीफ होती है. अब बताये impure के लिए क्या शब्द इस्तेमाल हो ?

मैं चुनता हूँ उन रंगों को जो मेरे अवचेतन के सबसे नजदीक हैं. अब ये वाक्य गलत है—वास्तविकता के धरातल पर, जो अवचेतन में है, इसकी जानकारी का आधार क्या ? उसे कैसे कोई चुन सकता है ? किन्तु उन रंगों को मैं चुनता हूँ अपने विश्वास से, अपने अनुभव से जो मेरे अवचेतन का निर्माण करते हैं. जब कोई चित्र मैं पूरा करता हूँ तब कई बार उसमें लगाए गए रंग के विपरीत रंग चुनता हूँ चुनाव जानबूझकर करता हूँ. किन्तु मेरे लिए अब सभी रंग बराबर का दर्जा लिए हैं. सफ़ेद हो या काला.

पीले रंग के विषय में एक और दिलचस्प बात यह भी है कि भारतीय लघु चित्रों के लिए एक समय में बनाये जाने वाला पीला रंग जिसे Indian Yellow के नाम से जानते हैं दुनिया के लिए विशेष था. इस रंग को कई लघु चित्रों में देखा जा सकता है और इसके जैसा पीला न पहले कहीं था न अब है. व्यापार के लिए अंग्रेजों ने इस पर प्रतिबन्ध लगाया जिसे हम आज़ाद होने के बाद भी हटा नहीं पाये. कामशास्त्र में वर्णित सत, रज और तम तीन तरह की मनःस्थिति रखने वाले लोगो को सात्विक, राजसी और तामसिक ​प्रवृतियों में बांटा है जिसको सांकेतिक रूप से दर्शाने के लिए तीन रंगों का प्रयोग किया जाता रहा है— पीला, लाल और काला. अब आप इससे अंदाजा लगा लें कि सात्विक प्रवृत्तियों को दर्शाने के लिए पीले रंग का चुनाव किया गया है. ये बात उसी की तरफ इशारा करती है कि सात्विकता का प्रकटन आसान नहीं है.  ​

 

यूं पीला रंग शायद आप के पसंदीदा रंगों में से एक है. मसलन, आप को पीले रंग का शर्ट पहनना प्रिय है.

दूसरे शब्दों में, आप के जीवन में, अन्य रंगों के बीच, पीले रंग की जगह क्या है?

 

No Indian painter has ever seen any point in “killing colours as so many western artists do. – Philip S. Rawson​

बहुत पहले साठ के दशक में फिलिप का यह कथन उसके भारत अनुभव के बाद निकला है सो मैं भी रंग को मारने की जगह उसे वापरता हूँ उसकी गरिमा में. उसके वैभव में.

​उसकी अनंतता में. उसके हैरानी भरे सानिध्य में मैं सुकून हासिल करता हूँ. उसका साथ मेरी क्षमता है. उसका प्रकार मेरा विस्तार. उसका होना मेरा होना है ऐसा कहना ज्यादती होगी किन्तु मैं लाचार हूँ.

​सभी रंगों के लिए मैं एक जैसा महसूस करता हूँ. ​

 

जब आप सारे रंगों के प्रति एक जैसा महसूस करते हैं तब वह क्या तत्व है जिसके चलते रंग-पैलेट की निर्मिति होने लगती है?

 

एक समय बाद सारे रंग-प्रयोग जिस तरह आप चाहते हैं कर सकते हैं क्योंकि आप जानते हैं इन रंगों के भीतर के प्रकार, भीतर का व्यवहार, भीतर का भेद, भीतर की मुलायमियत और कठोरता और फिर भी आप नहीं भी जानते. रंग भी अपना सत सब खोलकर नहीं बता रहे. वो आकस्मिकता है जो आपको उसके पास ले जा रही है. ये उद्घाटन, ये मुलाकात आदि सब संयोग पर टिकी है. चित्र बनाते वक़्त आप इस संयोग की जमीन तैयार करते हैं और चौकन्ने रहते हैं उस साक्षात्कार के लिए. रंग पैलेट इस संयोगों से बनती होगी अन्यथा वो अपनी पसंद से बनी हुई है. रंग आकर्षक हैं और आकर्षण घातक है. वो सीमित भी कर सकता है और विस्तार में भी ले जा सकता है.   ​

आप के चित्रकर्म में एक ख़ास तरह का नैरन्तर्य रहा है और क्रमशः सूक्ष्म परिवर्तन भी. आप के नये चित्र क्या आप के अपने देखने का पुनर्नवा विस्तार हैं? अथवा, क्या यह स्वयं को पुनराविष्कृत करना है या बिलकुल नये सिरे से नयी ज़मीन तोड़ना है?

क्या यह कहा जा सकता है कि आप के काम की जड़ें आप के देखने में हैं?

 

निरन्तरता ही प्रकटन है विभिन्नता का, वैविध्य का, अजूबे का, अचम्भे का, ये मेरे ख्याल से सभी कलाकारों के अचम्भित होने का जतन है. जिस तरह एक दर्शक अचम्भित होता है उसी अचम्भे की तलाश में कलाकार सृजन करता है.  इसे इतना सरल भी नहीं कहा जा सकता किन्तु इसके मूल में यही एक बात है जो उसकी निरन्तरता का सबब है. उसकी तलाश में कई तत्व जुड़ जाते हैं. वो अपनी तलाश में अचम्भित होता है. पुनराविष्कृत होना, पुनर्नवा होना ये सब होने के बाद के निशान हैं. शायद इन सबके लिए ​सृजन नहीं होता होगा या नई जमीन तोड़ने की बात भी नहीं होती होगी.  मुश्किल है इसे किसी कारण में बांधना. यह कारण के परे सिर्फ अहसास पर टिका हुआ है जिसमें वो सब भी शामिल है जो उसका अनुभव है या जिसे उसने महसूस किया है.

_________________

todaiya@gmail.com

Tags: अखिलेश
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Comments 1

  1. प्रज्ञा पांडेय says:
    3 years ago

    अखिलेश जी से रंगों की इतनी सारी बातें सुनना सुकून से भर गया। चित्रकार की रंग यात्रा की गहराई और उसका विश्लेषण अद्भुत और बहुत रोचक है।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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