मिथिलेश श्रीवास्तव की कविताएँ
पत्ते जब शांत होते हैं मन बहुत उदास हो जाता है
पत्ते शांत हैं जैसे आज
उनके खामोश रहने का दिन है
ख़ामोशी भी ऐसी जैसे हिलेंगे तो बोल पड़ेंगे
उनको जैसे ख़बर लग गई है
कि आज का दिन उनके लिए उदास रहने का है
पिछली रात खूब बरसात हुई थी
पत्तों पर जमीं धूल की परतें धुल गयी हैं चमकते पत्तों की हरियाली
की रोशनी दुनिया में फैली हुई है हम लेकिन इस रोशनी को इस अंधेरे में महसूस कर नहीं पा रहे हैं
पत्ते जब शांत होते हैं मन बहुत उदास हो जाता है.
बच्चे पूछ रहे हैं शांत पत्तों से लगातार
पत्ते शांत हैं पिछली रात बच्चों की चीखें उनके कानों में पड़ी थीं
पत्ते जान गए हैं कि दरिंदे हर मुल्क़ में मौजूद हैं
दरिंदो के हाथों में सहज ही आ जाते हैं हथियार
दरिंदो की उंगलियां ट्रिगर पर सहज ही सध जाती हैं
दरिंदो को बंदूकों में भरने के लिए सहज ही मिल जाती हैं गोलियां
दरिंदो को कौन देता है बंदूकें गोलियां और शैतानी दिमाग
बच्चे पूछ रहे हैं शांत पत्तों से लगातार.
पत्ते शांत हैं कि हवा शांत है कि आदमी उदास है
पत्ते हिलेंगे तो बयार बहेगी
बयार शांत है कि शांत हैं पत्ते
प्रकृति के अभ्यंतर में कोई दबाव नहीं है
बयार चले तो पत्ते हिलें तो उदास आदमी चलने लगे
आदमी चले तो कुछ हलचल हो इस सहमी हुई सी दुनिया में
पत्ते शांत हैं कि हवा शांत है कि आदमी उदास है.
पत्ते शांत हैं कि एक दिन वे पीले पड़ जायेंगे
पत्ते शांत हैं कि एक दिन वे पीले पड़ जायेंगे
पेड़ से विलग होकर धरती पर झर जाएंगे.
पत्ते शांत हैं कि नेता लोग आएंगे और कहेंगे
पत्ते शांत हैं कि नेता लोग आएंगे और कहेंगे
इसमें उनका क्या दोष की भारी बारिश के कारण सड़ गईं गेहूं की बालियां
सूरज उगा तो समुन्द्र का पानी बना बादल
हवा चली तो बादल आए बादल आए तो हुई बरसात
किसान किसी को कुछ नहीं कहेगा न हवा को न बादल को न समुन्द्र को न सूरज को
वह तो इनको पूजता है वह कोसेगा अपने भाग्य को और करेगा आत्महत्या
उसकी आत्महत्या पर पत्ते होंगे उदास.
एक राज की बात
वह अपनी कुल्फ़ी की दूकान सहेजे ठीक दोपहर के बाद आता है
और अपने खरीदारों को घंटी की ध्वनियों से अपने आने की ख़बर देता है
पत्ते उस समय शांत होते हैं और मुझे एक और दिन बीत जाने का एहसास होता है
और मैं उदास हो जाता हूं एक राज की बात बताऊं यह जीवन
शांत पत्तों उदास मन और इस मिन्नत के साथ गुजर रहा कि कोई हवा का झोंका आएगा और
पत्तों को हिलाएगा
इस उदास मन को कुल्फी हमेशा बेस्वाद लगी है.
चश्में में चीजों की बदली हुई काया दिखती है
चश्में में चीजों की बदली हुई काया दिखती है
यह बदलाव की वास्तविक स्थिति नहीं हो सकती है
सच पूछिए तो अब लोग नहीं चाहते कि चीज़ें ठीक वैसी ही दिखें जैसी कि वे हैं
इसीलिए शायद लगभग सब ने चश्मे लगा लिए हैं
कोई कहता है चश्मा लगा लेने के बाद भूख अब कोई समस्या नहीं है
कोई कहता है भूख से अब कोई नहीं मरता है
भंडार में इतना अनाज है कि कोई भूख से मर नहीं सकता है
आप मरते हैं क्योंकि आप काहिल हैं हाथ-पैर चला नहीं सकते
यह भी तो कहते हैं कि जो श्रम का सम्मान नहीं करेगा वह भूख से मरेगा
भूख के बारे में कोई कुछ भी कह सकता है
मुंह में कौर डालते समय कोई कह सकता है भूख लगी है.
यह दरवाज़ा मैंने रौशनी के लिए खोला है
यह दरवाज़ा मैंने रौशनी के लिए खोला है
लेकिन इससे होकर हवा भी आने लगी है
हवा कुछ अधिक गर्म है और गर्म हवा सहने की ताकत इस जिस्म में नहीं है
खैर सहते हुए ही जिंदगी बीत रही है
सहते नहीं तो क्या करते
हवा गर्म है तो क्या हुआ रौशनी तो है न
यह नसीब है जो रौशनी है
रोज़ सुबह हो जाती है इस वतन में देर-सवेर
लोग काम पर जाने का हौसला पा जाते हैं
दुश्मनों का चेहरा दिख जाता है साफ़-साफ़
इस रौशनी में ही देख पाया था तुम्हे गौर से
हम अंधेरे में फ़िलहाल अपनी मर्जी के नारे लगा रहे हैं.
शब्दकोष में क़ैद शब्द
अलमारी में सलीक़े से सजे हुए हैं शब्दकोष
धूल की काली-पीली परतें शब्दकोषों पर जमी हुई हैं
धूल पोछने लगता हूं तो धूल में सने हुए शब्द धूल के साथ बिखरने लगते हैं
कई शब्द धूल की परतों के साथ रगड़ कर घिस गए हैं
उनके उपसर्ग और प्रत्यय इतने कमज़ोर हो चुके है कि अपने शब्द से
अलग होकर कहीं और जाकर जुड़ जाते हैं
अहिंसा का अ धूल के साथ फर्श पर गिर जाता है
और अहिंसा हिंसा में बदल जाता है
गिरा हुआ अ हवा के साथ उड़ता है और सहिष्णु से जा सटता है
और सहिष्णु असहिष्णु हो जाता है
कुछ शब्द हवा में कुछ देर तक तैरते हैं
और फिर अपने ककहरे में लौट जाते हैं
निष्कलुष शांति सदभाव सेवा बहुत नाराज़ हैं
उनको लगता है इस दुनिया को उनकी ज़रूरत नहीं है
दादी दादा पोता पोती मामा मामी मौसी बहन बहनोई
ये सब नाराज़ हैं दुनिया शायद बदलने लगी है
हिंदी के शब्दों से वाक्य बनाने का पाठ कोई पढ़ना नहीं चाहता
अहिंसा मुझसे पूछती है इस देश में हिंसा क्यों है
अहिंसा खुद कहती है क्योंकि मैं शब्दकोष के ककहरे में फंस के रह गयी हूं
हिंसा फैलाने वाले हिंसा को रोज़ शब्दकोष से निकाल ले जाते हैं
सारी दुनिया में उसका जश्न मनाते हैं
आपलोग तो शब्दकोष में झांकना भी नहीं चाहते.
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मिथिलेश श्रीवास्तव
25 जनवरी 1958, हरपुरटेंगराही, गोपालगंज (बिहार)
किसी उम्मीद की तरह, जहाँ मैंने प्रार्थना लिखी तथा पुतले पर गुस्सा कविता संग्रह प्रकाशित
युवा कविता सम्मान (हिंदी अकादेमी, दिल्ली), कविता मित्र पुरस्कार (दिल्ली विश्वविद्यालय), सार्क लेखक सम्मान (फाउंडेशन ऑफ सार्क राइटर्स एंड आर्टिस्ट्स)
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