\’देखियो ग़ालिब से उलझे न कोई,
है वली पोशीदा और काफ़िर खुला.\’
मिथिलेश श्रीवास्तव के कविता संग्रह ‘पुतले पर गुस्सा’ के उमेश चौहान द्वारा लिखित ब्लर्ब पर विष्णु खरे की टिप्पणी पर प्रतिक्रियाओं के क्रम में उमेश चौहान ने प्रतिउत्तर दिया है, विष्णु खरे ने इस प्रतिउत्तर पर अपनी टिप्पणी दी है जो यहाँ प्रकाशित है.
विष्णु खरे हिंदी के वरिष्ठ महत्वपूर्ण कवि हैं, उनकी आलोचना को भी महत्व दिया जाता है इसके आलावा उन्होंने कई भाषाओँ से हिंदी में अनुवाद किया है. हिंदी में सिनेमा पर कुछ बेहतरीन लिखने वालों में वह हैं.
विष्णु खरे की आलोचना की भाषा और प्रवृत्तियों की जगह व्यक्ति को लेकर उनकी इधर की सक्रियता पर तमाम प्रश्न उठे हैं और उनकी मंशा पर संदेह व्यक्त किया जा रहा हैं. क्या वह एक कुंठित मेधा हैं जो अपनी उपेक्षा के प्रतिउत्तर में तमाम मूर्तियों का भंजन कर रहे हैं, या हिंदी की ऐसी स्थिति बन गयी है जिसमें एक अनभय, स्वाभिमानी और कलम से आजीविका चलाने वाले व्यक्ति अंतत: इसी दशा को प्राप्त होता है.
उम्मीद की जानी चाहिये की विष्णु खरे हिंदी में उम्मीद की तरह अपनी वापसी करेंगे. उनसे बहुत कुछ सार्थक पाना है अभी हिंदी जाति को.
विष्णु खरे
The road to Hell is paved with good intentions.
नरक के रास्ते का खड़ंजा सदाशयता से बना है.
श्री उमेश के.एस.चौहान,आइ.ए.एस. ने ‘’मोना लीज़ा’’ को पिकासो की कृति घोषित करने के लिए क्षमा माँग ली है, मिथिलेश श्रीवास्तव के कविता-संग्रह ‘’पुतले पर ग़ुस्सा’ की अपनी शोचनीय ब्लर्ब वाले कवर को हटवाने पर राज़ी हो गए हैं, हिंदी साहित्य को यह अभय-दान दे दिया है कि अब वह कभी कोई शस्ति नहीं लिखेंगे, लेकिन उनकी जली हुई दयनीय रस्सी के बल जा नहीं रहे हैं. उन्होंने अभी तक यह नहीं बतलाया है कि Faecesbook पर पहले ही दिन के अपने ‘स्टेटस’ में उन्होंने 20 सितम्बर की सभा के नागवार माजरे को छिपाया क्यों, जिसमें उनकी ब्लर्ब की आलोचना हुई थी और उन्हें उठकर स्पष्टीकरण देना पड़ा था. उन्होंने अपनी ‘’सच्चे मन से लोगों की और विभाग की सेवा’’ में Suppressio Veri,Suggestio Falsi का बाबू-फ़ॉर्मूला बखूबी सीख लिया है.
लिख चुका हूँ कि मैं मिथिलेश श्रीवास्तव को पिछले तीस से भी अधिक वर्षों से जानता हूँ और उनकी कविता का प्रशंसक हूँ. मुझे पता नहीं कि 1980 के दशक के पूर्वार्ध में ‘शिल्पायन’ प्रकाशन की स्थापना हुई भी थी या नहीं. मिथिलेश का यह संग्रह इतना अच्छा है – उसकी कविता ‘’लाल ब्लाउज़’’ तो इतने अविश्वसनीय ढंग से बेहतरीन है कि इसे ‘शिल्पायन’ तो क्या, कोई काला चोर भी छापता तो उसके विमोचन में जाता. चौहान बाबू यह जानकर और भी बौखला जाएँगे कि उनकी फ़जीहत के अगले ही दिन मैंने राजेंद्र भवन में ही मेरे जामातृतुल्य परवेज़ अहमद के शानदार अरंगेत्रं (debut) उपन्यास ‘’मिर्ज़ावाड़ी’’ पर हुई एक हिंदी-उर्दू गोष्ठी में हिस्सा लिया था और उमेश चौहान की बदक़िस्मती से उसका प्रकाशक भी ‘शिल्पायन’ है. चौहान साहब को चाहिए कि वह ‘शिल्पायन’ के ख़िलाफ़ एक ऑर्डर इशू करें-करवाएँ कि वह विष्णु खरे से सम्बद्ध लेखकों की उम्दा कृतियाँ न छापा करे,छापे तो उन लेखकों को खरे को दावत न देने का हुक्म दिया जाए, वर्ना ‘’अंकल पुलिस बुला लेंगे, अंकल पुलिस बुला लेंगे’’.
उमेश चौहान सरीखे औसत से भी नीचे के गद्य-पद्य ‘’लेखक-कवि’’ की कारुणिक कुंठा तो समझ में आती है लेकिन यह समझना मुश्किल है कि वह उन्हीं मिथिलेश श्रीवास्तव पर हमला क्यों कर रहे हैं जो उन्हें ‘’लिखावट’’ में बुलाकर और अपने इतने महत्वपूर्ण संग्रह की ब्लर्ब लिखने का सुनहरी मौक़ा देकर उन्हें हिंदी कविता में एस्टैब्लिश करने की अंततः असफल हो जाने वाली कोशिश कर रहे हैं ? यह श्रीवास्तव-चौहान ‘नैक्सस’ समझ में नहीं आ रहा है. फिर, चौहान कवियों का ‘’छपास-रोग’’ से ग्रस्त होना तो स्वीकार करते हैं किन्तु बहुप्रसवा शूकरी से उनकी किंचित् ‘ग्राफ़िक’ किन्तु ठेठ,रंगारंग तुलना को, जिसे मैं पहले भी इस्तेमाल करता रहा हूँ, आपत्तिजनक मानते हैं. उन्हें ख़ालिस झूठ पर भी आमादा होने से कोई गुरेज़ नहीं. मैं गुलदस्तों और पुष्पहारों के विरुद्ध हूँ, क्योंकि हमारे यहाँ वे कुरुचिपूर्ण और सस्ते ढंग से बनते हैं, अक्सर वे छोड़ या फेंक दिये जाते हैं, हमारे घरों या ठहरनेवाले कमरों में गुलदान नहीं होते. मैं बेकार शॉलों, नारियलों और भोंडे प्लास्टिकी, क्रोमियमी मेमेंटों का भी दुश्मन हूँ. कई बार उन्हें घटनास्थल पर ही ‘’भूलकर’’, छिपाकर या रास्ते में ‘डंप’ करके चला आता हूँ. इन पर भारत में रोज़ लाखों-करोड़ों रुपए बर्बाद होते हैं. लेकिन 20 सितम्बर की उस शाम मैं उस नक़ली, ग़लत-सलत संस्कृतनिष्ठ, अतिरंजनापूर्ण, गुड़-की-बासी-जलेबीनुमा भिनभिनाती भाषा का विरोध कर रहा था जो अक्सर गीतकार-सम्मेलनों के परिचयों की भोंडी परम्परा में सुनी जाती है.
अच्छा है कि उमेश चौहान रघुवीर सहाय की ‘हमारी हिंदी’ और कैलाश वाजपेयी तथा श्रीकांत वर्मा आदि की ऐसे ही शिरोच्छेदक तेवरों की कविताओं को लेकर सिलपट हैं वर्ना उन्हें आइ.सी.यू. में भर्ती रखना पड़ता. वरिष्ठ बाबू अशोक वाजपेयी का कुख्यात जुमला सुनकर कि ‘साहित्य कसाईबाड़ा है,यहाँ अपनी गर्दन की जोखिम पर ही घुसिए’ तो शायद उन्हें, जो उसे आइ.ए.एस. की तरह ( और उसकी वजह से भी ) महफ़ूज़ समझते होंगे, स्थायी मिर्गी हो जाती.
यह अवश्य है कि मालूम न था वह स्वयं को पांचाली-सखी-भाव से देखते हैं वर्ना 20 सितम्बर को ‘’खुले दरबार में द्रौपदी का चीरहरण’’ न होता, किसी अभयारण्य पिकनिक में कोई एकांत, अन्तरंग क्षण तलाशा जाता. लेकिन, ’महाभारत’ के सतही पाठ के आधार पर ही सही, कहा जा सकता है कि पतित दुःशासन और सब कुछ रहा होगा, लूती तो नहीं था (देखें मद्दाह, पृष्ठ 602,’’लू’’के नीचे). हमारे विश्ववन्द्य भारत के महान हिन्दू-आर्यों में लूतियत होती ही नहीं थी.
बाबू यू.के.एस.चौहान, जिन्हें ‘’ठाकुर’’ कहा जाना किन्हीं अज्ञात कारणों से शायद शर्मनाक, आपत्तिजनक और ‘’संकुचित सोच और घोर जातिवादी टिप्पणियों’’ जैसा लगता है, लेकिन ‘’चौहान’’ कुलनाम नहीं, अचानक किसी कबरबिज्जू की तरह गड़े मुर्दे उखाड़ने लगते हैं और कई महीने की गई रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मेरी आलोचना की दुहाई देने लगते हैं. मैं दुहराता हूँ कि रवीन्द्रनाथ अब अधिकांशतः अपाठ्य और अप्रासंगिक हो चुके हैं. मुझे डर है कि कहीं बाबू साहब मूर्च्छित न हो जाएँ किन्तु उन्हें मालूम नहीं है कि मैं सार्वजनिक रूप से कहता और लिखता आ रहा हूँ कि शीर्षस्थ दिवंगत दलित कवि नामदेव ढसाल मुझे आज विश्व-कविता स्तर पर रवीन्द्रनाथ से कहीं अधिक सार्थक और श्रेयस्कर लगता है. दुनिया की जो हालत है उसमें आज ठाकुर की अधिकांशतः सैन्टिमेंटल, गुडी-गुडी, आउट-ऑफ़-डेट कृतियों से क्या मिलना है ? प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय आदि महान लेखक हैं, नामदेव ढसाल जैसे भी, चलिए रवीन्द्रनाथ भी, उनका आदर करना ही चाहिए, उनसे सीखते रहना चाहिए और स्नेह रखना चाहिए, किन्तु उन्हें भगवान या गोमाता तो नहीं समझा जा सकता. हमारा पुंसत्वहीन दास्य-भावकुछ आधुनिक कविता को छोड़कर शेष समूचे हिंदी साहित्य को लगातार बालिश और शाहदौला का चूहा बनाए हुए है. इसमें खड़ी-बोली हिंदी के आदिकाल से ही केंद्रीय शर्मनाक, प्रतिक्रियावादी भूमिका हमारे घटिया विन्ध्योत्तर हिंदी विभागों के सवर्ण, जातिवादी, मूलतःअधकचरे प्राध्यापकों और वहीं अंडज ( spawned ) और पले-पुसे आचार्यों, बाबुओं तथा नामी मैनैजिंग ‘’आलोचकों’’ की रही है.
उमेश चौहान अब खिसियाकर मुझे ‘’मोनालिसा की मुस्कान के मर्म को समझने’’ की सलाह दे रहे हैं. प्रश्न है कि फिर ब्लर्ब में लिखते वक़्त कि ‘’पिकासो की चित्रकारी भले ही मोहक हो किन्तु वह गूढ़ता से ग्रस्त है’’ और ‘’पिकासो की मोनालिसा की मुस्कान (में) रहस्यात्मकता (है)” उन्होंने यह मश्विरा खुद को क्यों नहीं दिया ? जो शख्स यह कह सकता है कि पिकासो/दा विन्ची की कला मोहक किन्तु गूढ़ताग्रस्त है और हुसैन के चित्र गूढ़तामुक्त हैं वह न तो पिकासो को जानता है, न दा विंची को, न हुसैन को. और कला को लेकर तो वह कुन्द-ए-नातराश हुआ ही.
आगे चौहान बाबू अपनी लज्जास्पद भूल को निरर्थक वाग्जाल में छिपाने ही नहीं बल्कि उसका औचित्य ठहराने के लिए भी मुझे ‘’शब्द-परम्परा में निहित सदाशयता के मर्म को समझ’’ का प्रवचन देते हैं. यानी इस पर न जाइए कि उस दुष्ट राम ने कैसे वनवासी रावण की पतिव्रता पत्नी सीता का अपहरण किया था और जटायु के सहयोग से लंका उड़ गया, बल्कि शब्द-परम्परा की सदाशयता के मर्म को जानकर समझ जाइए – जो कि आपका उत्तरदायित्व और कर्तव्य है, गड़बड़रामायणी का नहीं – कि बाबू वाल्मीकि चौहान, आइ.ए.एस. दरअसल कहना क्या चाहते थे. वह शुरू तो करते हैं कि To err is human…लेकिन अपने अहंकार में इस अंग्रेज़ी सुभाषित को ‘’to forgive, divine’’ से पूरा नहीं करते. किस ग़ैर-बाबू की मजाल कि वह उन्हें divine forgiveness दे दे !
उमेश चौहान स्वयं को ‘’सदाशय’’ कहकर अपनी दयनीय पीठ ठोक रहे हैं जबकि सब जानते हैं कि हमारे समाज में लाखों लोग स्वयं को भोला-भाला, सादा, अनजान और सदाशयी बतलाते घूमते रहते हैं और अपने पाखण्ड, धूर्तता और शातिरी में घृणित-से-घृणित दुष्कर्म करते रहते हैं. हर धर्म में भी ऐसे बगुला-भगत मिल जाएँगे.आसाराम बापू तो एक उदाहरण है, हर शहर-क़स्बे में ऐसे पतित बाबा तथा गुरु मौजूद और सक्रिय हैं. हमारे मंदिरों-मस्जिदों-चर्चों-गुरुद्वारों आदि के धर्मगुरु और वहाँ जानेवाले करोड़ों धर्मध्वजी नागरिक स्वयं को सदाशय कहते नहीं अघाते लेकिन यह सभी को मालूम है कि भारत संसार का आठवां भ्रष्टतम देश है. बाबुओं, पूँजीपतियों और नेताओं की मिलीभगत से ही यह मुल्क बर्बाद हुआ है. रोज़ एफ़.आइ.आर. दर्ज़ हो रही हैं – आइ ए एस और अन्य केन्द्रीय काडरों के अफसरों की भी. अब तो न्यायपालिका और सेना भी संदेह से परे नहीं रहीं. निस्संदेह उमेशजी की नौबत वहाँ तक नहीं आई है न ईश्वर करे कि आए, लेकिन 20 सितम्बर की शाम की वारदात के बाद ब्लर्ब की बात छिपाते हुए सीधे Faecesbook के नाबदान में कूद पड़ने में, जिससे उन्होंने कई लोगों पर छींटे उड़ाये और उड़ा रहे हैं, कौन-सी सदाशयता थी ?अपनी सदाशयता में यदि वह संतों की तरह मौन रहे होते तो ऐसी सार्वजनिक फ़जीहत तो न होती.
विजयादशमी को असत्य पर सत्य की विजय का पर्व बताया जाता है. हमारी ऐसी तमाम लफ़्फ़ाज़ हिन्दू सदाशयता के बावजूद असत्य लेशमात्र भी पराजित नहीं हो रहा बल्कि चौतरफ़ा उसकी ऐतिहासिक जीत ही हुई है. बाबू उमेश के.एस.चौहान,आइ.ए.एस. को चाहिए कि यदि वे सचमुच सदाशय हैं तो आत्मपावन बूर्ज्वा सदाशयता को छोड़ें और पिकासो/दा विन्ची,हुसैन के घोड़ों और मोना लीज़ा ,मिथिलेश श्रीवास्तव, ’’लिखावट’’, ’शिल्पायन’, देश, मानवता, ब्रह्माण्ड और अपने जीवन के अंतर्संबंधों की जटिलताओं को पहचानें. और हर किस्म का खराब लेखन और चिंतन तज दें.
लिख चुका हूँ कि मैं मिथिलेश श्रीवास्तव को पिछले तीस से भी अधिक वर्षों से जानता हूँ और उनकी कविता का प्रशंसक हूँ. मुझे पता नहीं कि 1980 के दशक के पूर्वार्ध में ‘शिल्पायन’ प्रकाशन की स्थापना हुई भी थी या नहीं. मिथिलेश का यह संग्रह इतना अच्छा है – उसकी कविता ‘’लाल ब्लाउज़’’ तो इतने अविश्वसनीय ढंग से बेहतरीन है कि इसे ‘शिल्पायन’ तो क्या, कोई काला चोर भी छापता तो उसके विमोचन में जाता. चौहान बाबू यह जानकर और भी बौखला जाएँगे कि उनकी फ़जीहत के अगले ही दिन मैंने राजेंद्र भवन में ही मेरे जामातृतुल्य परवेज़ अहमद के शानदार अरंगेत्रं (debut) उपन्यास ‘’मिर्ज़ावाड़ी’’ पर हुई एक हिंदी-उर्दू गोष्ठी में हिस्सा लिया था और उमेश चौहान की बदक़िस्मती से उसका प्रकाशक भी ‘शिल्पायन’ है. चौहान साहब को चाहिए कि वह ‘शिल्पायन’ के ख़िलाफ़ एक ऑर्डर इशू करें-करवाएँ कि वह विष्णु खरे से सम्बद्ध लेखकों की उम्दा कृतियाँ न छापा करे,छापे तो उन लेखकों को खरे को दावत न देने का हुक्म दिया जाए, वर्ना ‘’अंकल पुलिस बुला लेंगे, अंकल पुलिस बुला लेंगे’’.
उमेश चौहान सरीखे औसत से भी नीचे के गद्य-पद्य ‘’लेखक-कवि’’ की कारुणिक कुंठा तो समझ में आती है लेकिन यह समझना मुश्किल है कि वह उन्हीं मिथिलेश श्रीवास्तव पर हमला क्यों कर रहे हैं जो उन्हें ‘’लिखावट’’ में बुलाकर और अपने इतने महत्वपूर्ण संग्रह की ब्लर्ब लिखने का सुनहरी मौक़ा देकर उन्हें हिंदी कविता में एस्टैब्लिश करने की अंततः असफल हो जाने वाली कोशिश कर रहे हैं ? यह श्रीवास्तव-चौहान ‘नैक्सस’ समझ में नहीं आ रहा है. फिर, चौहान कवियों का ‘’छपास-रोग’’ से ग्रस्त होना तो स्वीकार करते हैं किन्तु बहुप्रसवा शूकरी से उनकी किंचित् ‘ग्राफ़िक’ किन्तु ठेठ,रंगारंग तुलना को, जिसे मैं पहले भी इस्तेमाल करता रहा हूँ, आपत्तिजनक मानते हैं. उन्हें ख़ालिस झूठ पर भी आमादा होने से कोई गुरेज़ नहीं. मैं गुलदस्तों और पुष्पहारों के विरुद्ध हूँ, क्योंकि हमारे यहाँ वे कुरुचिपूर्ण और सस्ते ढंग से बनते हैं, अक्सर वे छोड़ या फेंक दिये जाते हैं, हमारे घरों या ठहरनेवाले कमरों में गुलदान नहीं होते. मैं बेकार शॉलों, नारियलों और भोंडे प्लास्टिकी, क्रोमियमी मेमेंटों का भी दुश्मन हूँ. कई बार उन्हें घटनास्थल पर ही ‘’भूलकर’’, छिपाकर या रास्ते में ‘डंप’ करके चला आता हूँ. इन पर भारत में रोज़ लाखों-करोड़ों रुपए बर्बाद होते हैं. लेकिन 20 सितम्बर की उस शाम मैं उस नक़ली, ग़लत-सलत संस्कृतनिष्ठ, अतिरंजनापूर्ण, गुड़-की-बासी-जलेबीनुमा भिनभिनाती भाषा का विरोध कर रहा था जो अक्सर गीतकार-सम्मेलनों के परिचयों की भोंडी परम्परा में सुनी जाती है.
अच्छा है कि उमेश चौहान रघुवीर सहाय की ‘हमारी हिंदी’ और कैलाश वाजपेयी तथा श्रीकांत वर्मा आदि की ऐसे ही शिरोच्छेदक तेवरों की कविताओं को लेकर सिलपट हैं वर्ना उन्हें आइ.सी.यू. में भर्ती रखना पड़ता. वरिष्ठ बाबू अशोक वाजपेयी का कुख्यात जुमला सुनकर कि ‘साहित्य कसाईबाड़ा है,यहाँ अपनी गर्दन की जोखिम पर ही घुसिए’ तो शायद उन्हें, जो उसे आइ.ए.एस. की तरह ( और उसकी वजह से भी ) महफ़ूज़ समझते होंगे, स्थायी मिर्गी हो जाती.
यह अवश्य है कि मालूम न था वह स्वयं को पांचाली-सखी-भाव से देखते हैं वर्ना 20 सितम्बर को ‘’खुले दरबार में द्रौपदी का चीरहरण’’ न होता, किसी अभयारण्य पिकनिक में कोई एकांत, अन्तरंग क्षण तलाशा जाता. लेकिन, ’महाभारत’ के सतही पाठ के आधार पर ही सही, कहा जा सकता है कि पतित दुःशासन और सब कुछ रहा होगा, लूती तो नहीं था (देखें मद्दाह, पृष्ठ 602,’’लू’’के नीचे). हमारे विश्ववन्द्य भारत के महान हिन्दू-आर्यों में लूतियत होती ही नहीं थी.
बाबू यू.के.एस.चौहान, जिन्हें ‘’ठाकुर’’ कहा जाना किन्हीं अज्ञात कारणों से शायद शर्मनाक, आपत्तिजनक और ‘’संकुचित सोच और घोर जातिवादी टिप्पणियों’’ जैसा लगता है, लेकिन ‘’चौहान’’ कुलनाम नहीं, अचानक किसी कबरबिज्जू की तरह गड़े मुर्दे उखाड़ने लगते हैं और कई महीने की गई रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मेरी आलोचना की दुहाई देने लगते हैं. मैं दुहराता हूँ कि रवीन्द्रनाथ अब अधिकांशतः अपाठ्य और अप्रासंगिक हो चुके हैं. मुझे डर है कि कहीं बाबू साहब मूर्च्छित न हो जाएँ किन्तु उन्हें मालूम नहीं है कि मैं सार्वजनिक रूप से कहता और लिखता आ रहा हूँ कि शीर्षस्थ दिवंगत दलित कवि नामदेव ढसाल मुझे आज विश्व-कविता स्तर पर रवीन्द्रनाथ से कहीं अधिक सार्थक और श्रेयस्कर लगता है. दुनिया की जो हालत है उसमें आज ठाकुर की अधिकांशतः सैन्टिमेंटल, गुडी-गुडी, आउट-ऑफ़-डेट कृतियों से क्या मिलना है ? प्रेमचंद, निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय आदि महान लेखक हैं, नामदेव ढसाल जैसे भी, चलिए रवीन्द्रनाथ भी, उनका आदर करना ही चाहिए, उनसे सीखते रहना चाहिए और स्नेह रखना चाहिए, किन्तु उन्हें भगवान या गोमाता तो नहीं समझा जा सकता. हमारा पुंसत्वहीन दास्य-भावकुछ आधुनिक कविता को छोड़कर शेष समूचे हिंदी साहित्य को लगातार बालिश और शाहदौला का चूहा बनाए हुए है. इसमें खड़ी-बोली हिंदी के आदिकाल से ही केंद्रीय शर्मनाक, प्रतिक्रियावादी भूमिका हमारे घटिया विन्ध्योत्तर हिंदी विभागों के सवर्ण, जातिवादी, मूलतःअधकचरे प्राध्यापकों और वहीं अंडज ( spawned ) और पले-पुसे आचार्यों, बाबुओं तथा नामी मैनैजिंग ‘’आलोचकों’’ की रही है.
उमेश चौहान अब खिसियाकर मुझे ‘’मोनालिसा की मुस्कान के मर्म को समझने’’ की सलाह दे रहे हैं. प्रश्न है कि फिर ब्लर्ब में लिखते वक़्त कि ‘’पिकासो की चित्रकारी भले ही मोहक हो किन्तु वह गूढ़ता से ग्रस्त है’’ और ‘’पिकासो की मोनालिसा की मुस्कान (में) रहस्यात्मकता (है)” उन्होंने यह मश्विरा खुद को क्यों नहीं दिया ? जो शख्स यह कह सकता है कि पिकासो/दा विन्ची की कला मोहक किन्तु गूढ़ताग्रस्त है और हुसैन के चित्र गूढ़तामुक्त हैं वह न तो पिकासो को जानता है, न दा विंची को, न हुसैन को. और कला को लेकर तो वह कुन्द-ए-नातराश हुआ ही.
आगे चौहान बाबू अपनी लज्जास्पद भूल को निरर्थक वाग्जाल में छिपाने ही नहीं बल्कि उसका औचित्य ठहराने के लिए भी मुझे ‘’शब्द-परम्परा में निहित सदाशयता के मर्म को समझ’’ का प्रवचन देते हैं. यानी इस पर न जाइए कि उस दुष्ट राम ने कैसे वनवासी रावण की पतिव्रता पत्नी सीता का अपहरण किया था और जटायु के सहयोग से लंका उड़ गया, बल्कि शब्द-परम्परा की सदाशयता के मर्म को जानकर समझ जाइए – जो कि आपका उत्तरदायित्व और कर्तव्य है, गड़बड़रामायणी का नहीं – कि बाबू वाल्मीकि चौहान, आइ.ए.एस. दरअसल कहना क्या चाहते थे. वह शुरू तो करते हैं कि To err is human…लेकिन अपने अहंकार में इस अंग्रेज़ी सुभाषित को ‘’to forgive, divine’’ से पूरा नहीं करते. किस ग़ैर-बाबू की मजाल कि वह उन्हें divine forgiveness दे दे !
उमेश चौहान स्वयं को ‘’सदाशय’’ कहकर अपनी दयनीय पीठ ठोक रहे हैं जबकि सब जानते हैं कि हमारे समाज में लाखों लोग स्वयं को भोला-भाला, सादा, अनजान और सदाशयी बतलाते घूमते रहते हैं और अपने पाखण्ड, धूर्तता और शातिरी में घृणित-से-घृणित दुष्कर्म करते रहते हैं. हर धर्म में भी ऐसे बगुला-भगत मिल जाएँगे.आसाराम बापू तो एक उदाहरण है, हर शहर-क़स्बे में ऐसे पतित बाबा तथा गुरु मौजूद और सक्रिय हैं. हमारे मंदिरों-मस्जिदों-चर्चों-गुरुद्वारों आदि के धर्मगुरु और वहाँ जानेवाले करोड़ों धर्मध्वजी नागरिक स्वयं को सदाशय कहते नहीं अघाते लेकिन यह सभी को मालूम है कि भारत संसार का आठवां भ्रष्टतम देश है. बाबुओं, पूँजीपतियों और नेताओं की मिलीभगत से ही यह मुल्क बर्बाद हुआ है. रोज़ एफ़.आइ.आर. दर्ज़ हो रही हैं – आइ ए एस और अन्य केन्द्रीय काडरों के अफसरों की भी. अब तो न्यायपालिका और सेना भी संदेह से परे नहीं रहीं. निस्संदेह उमेशजी की नौबत वहाँ तक नहीं आई है न ईश्वर करे कि आए, लेकिन 20 सितम्बर की शाम की वारदात के बाद ब्लर्ब की बात छिपाते हुए सीधे Faecesbook के नाबदान में कूद पड़ने में, जिससे उन्होंने कई लोगों पर छींटे उड़ाये और उड़ा रहे हैं, कौन-सी सदाशयता थी ?अपनी सदाशयता में यदि वह संतों की तरह मौन रहे होते तो ऐसी सार्वजनिक फ़जीहत तो न होती.
विजयादशमी को असत्य पर सत्य की विजय का पर्व बताया जाता है. हमारी ऐसी तमाम लफ़्फ़ाज़ हिन्दू सदाशयता के बावजूद असत्य लेशमात्र भी पराजित नहीं हो रहा बल्कि चौतरफ़ा उसकी ऐतिहासिक जीत ही हुई है. बाबू उमेश के.एस.चौहान,आइ.ए.एस. को चाहिए कि यदि वे सचमुच सदाशय हैं तो आत्मपावन बूर्ज्वा सदाशयता को छोड़ें और पिकासो/दा विन्ची,हुसैन के घोड़ों और मोना लीज़ा ,मिथिलेश श्रीवास्तव, ’’लिखावट’’, ’शिल्पायन’, देश, मानवता, ब्रह्माण्ड और अपने जीवन के अंतर्संबंधों की जटिलताओं को पहचानें. और हर किस्म का खराब लेखन और चिंतन तज दें.
(1) एक बौखलाए बाबू की मगरमच्छी ब्लर्ब-वेदना _________________________________________________
विष्णु खरे (9 फरवरी, 1940 छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश)
कविता संग्रह
1. विष्णु खरे की बीस कविताएं : पहचान सीरीज : संपादक : अशोक वाजपेयी : 1970-71
2. खुद अपनी आंख से : जयश्री प्रकाशन,दिल्ली : 1978
3. सबकी आवाज के परदे में : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली : 1994, 2000
4. पिछला बाकी : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली : 1998
5. काल और अवधि के दरमियान : वाणी प्रकाशन : 2003
6. विष्णु खरे – चुनी हुई कविताएं : कवि ने कहा सीरीज : किताबघर, दिल्ली : 2008
7. लालटेन जलाना (कात्यायनी द्वारा चयनित कविताएं) : परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ : 2008
8. पाठांतर : परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ : 2008
आलोचना
1. आलोचना की पहली किताब : (दूसरा संस्करण) वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2004
(चार आलोचना पुस्तकें प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली के यहां यंत्रस्थ)
सिने-समीक्षा
1. सिनेमा पढ़ने के तरीके : प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली : 2008
2. सिनेमा से संवाद : प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली : 2009
चुने हुए अनुवाद (हिंदी में)
1. मरु-प्रदेश और अन्य कविताएं (टीएस एलिअट की कविताएं) : प्रफुल्ल चंद्र दास, कटक : 1960
2. यह चाकू समय : (हंगारी कवि ऑत्तिला योजेफ की कविताएं) : जयश्री प्रकाशन, दिल्ली :1980
3. हम सपने देखते हैं : (हंगारी कवि मिक्लोश रादनोती की कविताएं) : आकंठ, पिपरिया : 1983
4. पियानो बिकाऊ है : (हंगारी नाटककार फेरेंत्स कारिंथी का नाटक) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली: 1983
5. हम चीखते क्यों नहीं : (पश्चिम जर्मन कविता) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1984
6. हम धरती के नमक हैं : (स्विस कविता) : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली : 1991
7. दो नोबेल पुरस्कार विजेता कवि :(चेस्वाव मीवोश और विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविताएं) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2001
8. कलेवाला : (फिनलैंड का राष्ट्रीय महाकाव्य) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : दूसरा, संशोधित संस्करण, 1997
9. फाउस्ट : (जर्मन महाकवि गोएठे का काव्य-नाटक) : प्रवीण प्रकाशन, दिल्ली : 2009
10. अगली कहानी : (डच गल्पकार सेस नोटेबोम का उपन्यास) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2002
11. दो प्रेमियों का अजीब किस्सा : (सेस नोटेबोम का उपन्यास) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2003
12. हमला : (डच उपन्यासकार हरी मूलिश का उपन्यास) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2003
13. जीभ दिखाना : (जर्मन नोबेल विजेता गुंटर ग्रास का भारत-यात्रा वृत्तांत) : राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली : 1994
14. किसी और ठिकाने : (स्विस कवि योखेन केल्टर की कविताएं) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 2002
हिंदी में विश्व कविता से सैकड़ों और अनुवाद किये, किंतु वे अभी असंकलित हैं.
अनुवाद (अंग्रेजी में)
1. अदरवाइज एंड अदर पोएम्स : श्रीकांत वर्मा की कविताएं : राइटर्स वर्कशॉप, कोलकाता : 1972
2. डिसेक्शंस एंड अदर पोएम्स : भारतभूषण अग्रवाल की कविताएं : राइटर्स वर्कशॉप, कोलकाता : 1983
3. दि पीपुल एंड दि सैल्फ : हिंदी कवियों का संग्रह : स्वप्रकाशित, दिल्ली : 1983
4. दि बसाल्ट वूम्ब : स्विस कवि टाडेउस फाइफर की जर्मन कविताएं, पामेला हार्डीमेंट के साथ : जे लैंड्समैन पब्लिशर्स, लंदन : 2004
अनुवाद (जर्मन में)
1. डेअर ओक्सेनकरेन : (लोठार लुत्से के साथ संपादित हिंदी कविताओं के अनुवाद) : वोल्फ मेर्श फेर्लाग, फ्राइबुर्ग, जर्मनी : 1983
2. डी श्पेटर कोमेन : (लोठार लुत्से द्वारा विष्णु खरे की कविताओं के अनुवाद) : द्रौपदी फेर्लाग, हाइडेलबेर्ग, जर्मनी : 2006
3. फेल्जेनश्रिफ्टेन : (मोनीका होर्स्टमन के साथ संपादित युवा हिंदी कवियों के अनुवाद) : द्रौपदी फेर्लाग, हाइडेलबेर्ग, जर्मनी : 2006
संपादित प्रकाशन
1 अपनी स्मृति की धरती : हिंदी अनुवाद में सीताकांत महापात्र की ओड़िया कविताएं : जयश्री प्रकाशन, दिल्ली : 1980
2. राजेंद्र माथुर संचयन (दो भाग) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1993
3. उसके सपने : (चंद्रकांत देवताले का काव्य-संकलन) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1997 [सह-संपादक]
चंद्रकांत पाटिल द्वारा इसी चयन का मराठी अनुवाद तिची स्वप्ने पॉप्युलर प्रकाशन, मुंबई से प्रकाशित
4. जीवंत साहित्य (बार्बरा लोत्स के साथ संपादित बहुभाषीय भारत-जर्मन साहित्य-संकलन) : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1998
5. महाकाव्य विमर्श : वाणी प्रकाशन, दिल्ली : 1999
6. पाब्लो नेरूदा विशेषांक : उद्भावना, दिल्ली : 2006
7. सुदीप बनर्जी स्मृति अंक : उद्भावना, दिल्ली : 2010
8. शमशेर जन्मशती विशेषांक : उद्भावना, दिल्ली : 2011
सम्मान-पुरस्कार
→ हंगरी का एंद्रे ऑदी वर्तुलपदक (मिडेल्यन)
→ हंगरी का अत्तिला योझेफ़ वर्तुलपदक
→ दिल्ली राज्य सरकार का साहित्य सम्मान
→ रघुवीर सहाय पुरस्कार
→ मध्य प्रदेश शिखर सम्मान
→ मैथिलीशरण गुप्त सम्मान
→ भवभूति अलंकरण
→ फिनलैंड का एक सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान “नाइट ऑफ दि वाइट रोज ऑफ फिनलैंड”
→ मुंबई की कला-संस्कृति-साहित्य संस्था “परिवार” का 2011 का
“हिंदी काव्य सेवा” पुरस्कार
“हिंदी काव्य सेवा” पुरस्कार
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