केसव सुनहु प्रबीन
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‘केसव सुनहु प्रबीन: मुग़लकालीन हिन्दी साहित्यिक परिवेश’ एलिसन बुश की किताब ‘पोइट्री ऑफ़ किंग्स’(2011 ई.) का हिन्दी अनुवाद (2025 ई., वाणी प्रकाशन) है. रेयाजुल हक़ इसके अनुवादक हैं तथा भूमिका और सम्पादन दलपत राजपुरोहित का है.
अनुवादक ने आरंभ में यह लिखा है कि
“बहुत कम किताबें अपने विषय से जुड़े हुए क्षेत्र को बदल देने की क्षमता रखती हैं, और बुश की यह किताब उनमें से एक है.”[1]
इस किताब को पढ़ने के बाद यह एक वाक्य सबसे सटीक लगता है बात शुरू करने के लिए . सिर्फ इस वाक्य को पढ़कर पाठक के मन में यह सहज सवाल आना वाजिब है कि आखिर ऐसा क्या है इस किताब में जिसका जवाब बिना इसे पढ़े नहीं मिल सकता! कोई जवाब दे भी तब भी बिना स्वयं पढ़े शायद वह अनुभूति नहीं होगी. रीति-साहित्य एक ऐसा क्षेत्र है जो कई तरह के पूर्वग्रह से ग्रसित है, मसलन वह “अश्लील है, दरबारी काव्य है, चमत्कार-प्रिय है, रूढ़िवादी है.”[2] एलिसन इन्हीं पूर्वग्रहों को रेखांकित करते हुए अपनी बात शुरू करती हैं तथा रीति-साहित्य की वह दुनिया हमारे समक्ष प्रस्तुत करती हैं जिसके अभाव में लगभग दो सौ वर्षों का साहित्य अपने ही देश में उपेक्षित है. यह किताब छह अध्यायों में विभक्त है.
‘ओरछा के केशवदास’,
‘रीतिकाव्य का सौन्दर्यबोध’,
‘ब्रजभाषा के बुद्धिजीवी’,
‘मुग़ल दरबार में रीति साहित्य’
वृहत्तर हिन्दुस्तान में रीति साहित्य’ तथा
‘औपनिवेशिक भारत में रीति साहित्य का भाग्य’.
अध्यायों में प्रवेश से पहले एलिशन ने ‘प्रस्तावना : अतीत का विस्मरण’ लिखा है जिसमें वे अपने उद्देश्यों को स्पष्ट करती हैं, जहाँ वे रीति साहित्य संबंधी पूर्वग्रहों के उल्लेख से शुरुआत करते हुए, उन परिस्थितियों के पड़ताल के प्रयास के रूप में इस किताब को प्रस्तुत करती हैं. इस प्रस्तावना में ही हमें आश्चर्य होता है कि जिन विषयों पर हमारा ध्यान नहीं जाता उनसे ही वे अपनी बात शुरू करती हैं, विषय में प्रवेश करती हैं. भारत में यदि हिन्दी से जुड़े किसी भी विद्यार्थी/अध्यापक से पूछा जाए कि रीति-साहित्य क्या है तो इस तरह का जवाब मिलने की संभावना अधिक है कि जो रीतिकाल में लिखा गया वह रीतिसाहित्य है, और रीतिकाल यानी कि 1650ई. से लेकर 1850ई. तक. लेकिन एलिसन ब्रजभाषा के उभार के घटकों के उल्लेख से आरम्भ करते हुए रीति साहित्य को परिभाषित भी करती हैं. वे लिखती हैं–
“भले ही इसके नाम से संकेत मिलते हों कि इसकी उत्पत्ति हिन्दू समुदायों में हुई थी, ब्रजभाषा आरम्भ से ही एक बहुत ही बहुमुखी काव्य की भाषा थी जिसने कई लोगों को आकर्षित किया. जैसे वैष्णवों ने भक्ति के लिए इसका उपयोग किया, यह अकबर के काल से ही एकाएक और बहुत प्रतिष्ठा के साथ एक प्रमुख दरबारी भाषा बन गयी, जैसा कि ऐतिहासिक दस्तावेज़ संकेत करते हैं. इसी ब्रजभाषा में, और विशेषकर दरबारी परिवेश में रचे गये साहित्य को, इतिहास-लेखन की एक ऐसी आम सहमति के साथ जो आधुनिक काल में जाकर बनी, रीति साहित्य कहा गया.”[3]
इसके बाद वे अध्यायों के जरिए रीति साहित्य की एक नई दुनिया हमारे सामने खोलती हैं, जिसमें सिर्फ़ साहित्य ही नहीं बल्कि उसके बनने की तमाम राजनीतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक स्थितियों को स्पष्ट करती चलती हैं. इस किताब में उन्होंने केशवदास का आधार कवि की तरह अध्ययन किया है और उन्हें उस सांस्कृतिक परिघटना के संस्थापक के रूप में स्थापित किया है जिसे अब रीतिकाव्य कहा जाता है. हिन्दी में यह प्रचलित है कि रामचन्द्र शुक्ल ने केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत कहा है. यह सवाल विश्वविद्यालयों में पढ़ाने से लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं तक पूछा जाता रहा है कि केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत किसने कहा है? लेकिन एलिशन केशवदास पर विचार करते हुए लिखती हैं कि
“बेचारे केशवदास पर किसी और ने नहीं बल्कि आधुनिक हिन्दी आलोचना के संस्थापक रामचन्द्र शुक्ल ने ही हृदयहीन होने का कलंक लगा दिया. इसके बाद के कई विद्वानों ने उन्हें “कठिन काव्य का प्रेत” कहा.”[4]
इसके लिए वे विजयपाल सिंह और किशोरीलाल का संदर्भ देते हुए कहती हैं कि दोनों ही केशवदास के महत्त्वपूर्ण विद्वान हैं. वे ब्रज परम्परा के अग्रणी क्लासिकल कवि के इस भ्रामक मूल्यांकन पर खेद व्यक्त करते हैं. यह कथन हम पाठकों को सोचने का नया सिर देता है कि हम इसकी जाँच करें कि असल में केशवदास को कठिन काव्य का प्रेत किसने कहा था. यह ताज्जुब की बात है कि रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’(1929 ई.) में कहीं किसी संदर्भ के रूप में भी ‘कठिन काव्य का प्रेत’ का उल्लेख नहीं मिलता है .
केशवदास ऐसे कवि थे जिन्होंने अपनी परम्परा से विद्रोह किया था, जिन्होंने संस्कृत छोड़कर ब्रजभाषा अपनाई. अपनी सुप्रसिद्ध रचना ‘कविप्रिया’ में वे अपना परिचय देते हुए लिखते हैं कि
“भाषा बोलि न जानई, जिनके कुल को दास
भाषा कवि भो मंदमति, तिहि कुल केशवदास..”[5]
यानी कि उनके कुल में नौकर भी ‘भाषा’ बोलना नहीं जानते थे, संस्कृत ही बोलते थे, इसलिए उस परंपरा को छोड़ने के कारण केशवदास अपने को मंदमति कहते हैं लेकिन एलिसन केशवदास का साहित्य के इतिहास में महत्त्वपूर्ण योगदान बताते हुए यह लिखती हैं कि “उन्होंने संस्कृत के सौष्ठव से समझौता किये बिना देशभाषा में काव्य-रचना के तरीकों की खोज की.”[6] इन सबके साथ ही एलिसन देशभाषा के लेखक होने के नुकसान की ओर भी हमारा ध्यानाकर्षित करती हैं –
“देशभाषा का लेखक होने का मतलब भाषाई और बौद्धिक असफलता का प्रदर्शन करना था…देशभाषाएँ अपनी परिभाषा में ही अपभ्रष्ट थीं. उनकी निम्नतर स्थिति का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि उन्हें अपने नामों के लायक भी नहीं समझा गया. उन्हें बस भाषा कहा जाता था. इसके उलट संस्कृत प्रतिष्ठा के सबसे ऊँचे स्थान पर न सिर्फ़ स्थित है बल्कि यह उसका प्रतिमान भी है. संस्कृत का अर्थ ही है ‘परिमार्जित’ या ‘परिष्कृत’.”[7]
लेकिन हम जानते हैं कि ब्रजभाषा में निरंतर हो रहे लेखन के बाद इसकी ऐसी स्थिति नहीं रह गई थी कि उसे कमतर माना जाए बल्कि वह पूर्ण रूप से स्थापित भाषा हो चुकी थी. यहाँ भाषा के विकास, उससे संबंधी राजनीति पर भी स्वत: ध्यान जाता है. एक ओर ऐसा समय रहा जब संस्कृत के आगे ब्रजभाषा का कोई महत्त्व नहीं था लेकिन फिर वही ब्रजभाषा लगभग दो सौ वर्षों तक सर्वाधिक लोकप्रिय, प्रचलित, आम जन की भाषा बन गई. आज जितने भी हिन्दी साहित्य के इतिहास संबंधी लेखन उपलब्ध हैं उसमें ब्रज का हिन्दी भाषा की तरह ही उल्लेख किया गया है लेकिन 1900 ई. के बाद से जिस तरह भारतीय परिवेश बदला उसके बाद फिर ब्रजभाषा हाशिये पर चली गई. यह सत्ता और भाषा के अंत:संबंध की ओर भी हमारा ध्यान ले जाता है कि कैसे भाषा, जो कि सहज ही मानव-जीवन से जुड़ी हुई है, उसे भी सत्ता व्यापक रूप से प्रभावित करती है, उसे संचालित करती है.
रीति साहित्य पर एक आरोप यह भी लगता रहा है कि यह संस्कृत-ग्रंथों के नकल के रूप में अधिकांशतः आया. एलिसन इसका खण्डन करती हैं. वे बताती हैं कि कैसे भावभूमि एक होते हुए भी रीतिकवी इसमें नयापन ला रहे थे, जिसके बारे में नामवर सिंह भी यही कह रहे थे –
“रीतिकालीन प्रत्येक कवि की अपनी व्यक्तिगत पहचान है. बिहारी को पढ़कर कभी भी आपको यह भ्रम नहीं होगा कि यह किसी और का दोहा है. घनानन्द और मतिराम में आपको साफ़ फ़र्क मालूम होगा, देव और घनानन्द में फ़र्क मालूम होगा. हर कवि की अपनी निजी विशिष्टता है.”[8]
इसी तरह का विचार हमें एलिसन के यहाँ भी मिलता है जहाँ वे स्पष्टत: इसका उल्लेख करती हैं कि
“किसी भी रीतिग्रन्थ की पृष्ठभूमि में एक या अधिक संस्कृत स्रोत कहीं न कहीं मौजूद हैं. स्पष्ट रूप से इसका मतलब यह नहीं है कि रीति लेखकों को महज़ नकलची लेखकों के रूप में नकार दिया जाना चाहिए…रीति लेखकों ने पूर्ववर्ती रचनाओं को अपनाने में एक बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि अपनाई.”[9]
आगे वे यह भी लिखती हैं कि
“ऐसा बहुत दुर्लभ ही मिलता है कि किसी एक विषय पर चर्चा को पूरी तरह से एक लेखक से लिया गया है…पूरे रीति रचना संसार में यही ज़ोर देखा जा सकता है कि अतीत के सिद्धान्तों में छोटे-मोटे परिवर्तन लाकर और उनको पुनर्व्यवस्थित किया जाये. आमेर दरबार में सक्रिय कुलपति मिश्र चिन्तामणि के एकदम समकालीन थे. उन्होंने मम्मट की मौलिक रचना काव्यप्रकाश(ग्यारहवीं सदी) को अपने प्रमुख रीतिग्रन्थ रसरहस्य(1670) में पुनर्प्रस्तुत किया.”[10]
साथ ही जहाँ उनको लगता है कि रीतिकवियों ने कोई नया प्रयास नहीं किया उसे भी दर्ज़ करती हैं –
“कुछ रीति लेखकों ने क्लासिकल व्यवस्था में और समृद्धि लायी . लेकिन कइयों ने सिद्धान्त को जस का तस लिया. उन्होंने इसे नई दिशाओं में विकसित करने का कोई प्रयास नहीं किया.”[11]
इसके साथ ही नायिका-भेद का संबंध जुड़ जाता है. नायिका-भेद रीति साहित्य का एक प्रमुख, सर्वाधिक चर्चित-प्रचलित विषय है. आज स्त्रीवादी अध्ययन इसकी कड़ी आलोचना करता है क्योंकि मुख्यत: नायिका-भेद स्त्री की संकुचित छवि प्रस्तुत करता है, जो कि मूलत: उसकी देह, उसके प्रेम-संबंध पर आधारित है. इस संदर्भ में मुकेश गर्ग द्वारा संपादित पुस्तक ‘स्त्री की नज़र में रीतिकाल’ (2020 ई.) उल्लेखनीय है जिसमें चुनिंदा लेखिकाओं के रीतिकाव्य के प्रति विचार सम्मिलित हैं. एलिसन बुश नायिका-भेद की आलोचना किए जाने के विरुद्ध नहीं हैं लेकिन सर्वप्रथम उनका विनम्र निवेदन है कि हम उसे परंपरागत शैली के आधार पर पहले अध्ययन करें, क्योंकि “कवि से अपेक्षा की जाती थी कि वह सौन्दर्य के स्वीकृत नियमों के आधार पर अपनी नायिका को चित्रित करेगा.”[12]
वे परंपरागत साहित्यिक श्रेणियों को सीधे-सीधे नकार देने के बजाय बौद्धिक रूप से श्रमसाध्य काम यह करने कहती हैं कि यह समझने की कोशिश की जाए कि जिन लोगों ने इन श्रेणियों का उपयोग किया, उनलोगों के लिए श्रेणियों का क्या अर्थ था और उन्होंने क्यों इन्हें इतना महत्त्वपूर्ण माना. उनका स्पष्ट कहना है कि
“अगर एक काव्य सिद्धान्त जटिलता और साहित्यिक अलंकारों के प्रति सशक्त आग्रह दिखाता है, और जो हमारे अपने सिद्धान्तों से बुनियादी तौर पर भिन्न हैं, तब भी केशवदास और आधुनिक काल के पूर्व के दूसरे भारतीय लेखकों के प्रति हमारा देय इतना तो बनता ही है कि हम उनके कार्यों को पहले उनकी कसौटियों पर देखें, न कि अपनी कसौटियों पर.”[13]
यहाँ इस सवाल पर सोचने का भी एक प्रस्थान बिन्दु आता है कि आखिर रीति साहित्य को अश्लील क्यों माना जाता है? संभवत: इस कारण कि मुख्यत: रीतिकाव्य को बहुत ही संकुचित अर्थ में हम लेने लगे, केवल यही मानने लगे कि रीति साहित्य में केवल शृंगारिक काव्य ही है, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण नायिका-भेद ही है. हम उन ग्रंथों को छोड़ देते हैं जो अन्य विषयों पर लिखे गए, जिनमें बहुलता राजदरबार, शासक की कार्यप्रणाली, आदि की है. इन्हें एलिसन साहित्येतहास के तौर पर पढ़ने का आग्रह करती हैं और केशवदास के प्रत्येक ग्रंथों का विवरण भी प्रस्तुत करती हैं जो केवल नायिका-भेद से संबंधित नहीं हैं.
इन सबके साथ ही उनका यह भी कहना है कि “‘परम्परागत’ को कभी भी अ-रचनात्मक का पर्यायवाची नहीं माना जाना चाहिए.”[14] आज लोगों के मन में प्राचीन अथवा मध्यकालीन-अध्ययन संबंधी यह बहुत बड़ी गलतफ़हमी बैठी हुई है कि बौद्धिक रूप से पिछड़े लोग इन विषयों का अध्ययन करते हैं. यह कितना दुखद है कि साहित्य की एक लंबी परंपरा इसी तरह के आरोपों से घिरी हुई है. यहाँ लोक बनाम शास्त्र के द्वन्द्व की स्थिति पर भी हमारा ध्यान जाता है. यह मान लेना कि एक धोती-कुर्ता पहनने वाला व्यक्ति आधुनिक नहीं हो सकता और एक कोट-पैन्ट पहनने वाला व्यक्ति रूढ़िवादी नहीं हो सकता, बेहद सरलीकृत लगता है, क्योंकि आधुनिकता के मूल में कपड़ों का वर्गीकरण नहीं रहा है. ठीक यही स्थिति साहित्य के संबंध में भी बन गई है.
इन सबके अलावा एलिसन रीति साहित्य की व्यापकता को बहुत ही विस्तार बताती हैं. इसकी शुरुआत वे उन कारणों से करती हैं कि आरम्भिक दौर में उत्तर भारतीय दरबारी समुदायों में ऐसा क्या घटित हुआ कि 1650 ई. आते-आते उन सारी जगहों पर ब्रज कवियों की माँग बढ़ गयी जो साम्राज्य के लिए महत्त्वपूर्ण थीं या ब्रजभाषा साहित्य किस तरह राजाओं की कविता में ढला. यानी मुख्यत: वे मुग़लकालीन साहित्यिक परिवेश की बात करते हुए एक बहस को जन्म देती हैं कि रीतिकवियों को आश्रय पहले किसने दिया? मुग़ल या राजपूत ने? और अपना स्पष्ट मत प्रस्तुत करती हैं कि
“मुग़ल-राजपूत सम्बन्धों पर आधारित मेरी परिकल्पना यह है कि रीतिकाव्य गम्भीर रूप से सबसे पहले मुग़ल दायरों में विकसित हुआ और इसके बाद ही पूरे भारत के अधीनस्थ दरबारों में इसका प्रसार हुआ, उन दरबारों में भी जो मुग़लों के विरोधी थे.”[15]
आज के राष्ट्रवादी(?)दौर में यह बहुतों को खराब लग सकता है कि हिन्दी साहित्य मुग़लों के कारण कैसे विकसित हो सकता है? चूँकि हमारे सामने सामान्यत: हिन्दू राजाओं का उल्लेख ही ज्यादा होता आया है, मसलन मतिराम बूँदी नरेश भावसिंह के यहाँ थे, बिहारी जय सिंह के संरक्षण में थे, भूषण शिवाजी व छत्रसाल के संरक्षण में थे, केशवदास इंद्रजीत सिंह के शासन में थे इत्यादि. इसलिए अलग से हमारा ध्यान प्राय: इस पर जाता भी नहीं कि मुग़ल दरबारों में रीति साहित्य की क्या स्थिति थी? या वहाँ वह साहित्य उपलब्ध था ही नहीं. यह किताब इस मामले में भी महत्वपूर्ण है कि एलिसन ऐसे तमाम नाम और उनका कार्य हमारे सामने एक-एक कर बताती चलती हैं जो ब्रजकवि मुग़ल दरबार से जुड़े हुए थे, उदाहरणत: बीरबल, (जिनके कुछ दर्जन पद ‘ब्रह्मा’ की छाप से मिलते हैं) अकबर के दरबार में थे.
रहीम तो प्रसिद्ध हैं ही. इनके अलावा लाल ख़ान, उनके बेटे ख़ुशहाल और विश्राम, सुन्दर कविराय, कवीन्द्राचार्य सरस्वती शाहजहाँ के दरबार में, फ़क़ीरुल्लाह, मिर्ज़ा रोशन(ब्रज में तखल्लुस ‘नेही’) औरंगज़ेब के दरबार में, श्रीपति भट्ट, बलबीर, कृष्ण कवि (हिम्मत ख़ान मीरा इसा, औरंगज़ेब के एक मनसबदार के संरक्षण में), वृन्द (औरंगज़ेब के पोते के आश्रय में) थे.
रीति साहित्य संबंधी एक सवाल से हम अक्सर जूझते हैं कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि जिस भाषा में लगभग दो सौ सालों तक प्रचुर मात्रा में साहित्य उपलब्ध है, वह धीरे-धीरे समाप्त तो हुआ ही साथ ही अनेक तरह से आरोप/आक्षेपों से घिर गया?
इस दुविधा की ओर दलपत राजपुरोहित की किताब ‘सुन्दर के स्वप्न’(2022 ई.) भी ध्यान दिलाती है. वे रीतिकविता के प्रति सुन्दरदास के दृष्टिकोण का उल्लेख करते हैं जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि रीतिकाव्य की आलोचना उसी समय से शुरू हो गई थी और फिर धीरे-धीरे आगे चल कर यह राष्ट्र-भावना से जुड़ गई और महावीर प्रसाद द्विवेदी का इसमें जो योगदान रहा इन सब पर बहुत विस्तार से यह किताब तथ्य प्रस्तुत करती है.
एलिसन भी इससे संबंधित बहुत से कारकों, परिस्थितियों का बेहद सूक्ष्म विश्लेषण करती हैं. पूर्व में जो भाषा और सत्ता के अंतःसंबंध का ज़िक्र हुआ उसका विस्तार हमें इस किताब के छठे व सबसे अंतिम अध्याय में मिलता है. उन्नीसवीं सदी में ब्रजभाषा के खिलाफ़ हुए तीन हमलों का उल्लेख करती हैं.
“पहला विक्टोरियाई युग की नैतिक बन्दिशें जिसने ऐन्द्रिकता पर पाबन्दी लगाने की कोशिश की; दूसरा ऐसे उपनिवेशवादी और फिर राष्ट्रवादी विचारों का मजबूत होना कि भारत ‘मुस्लिम’ शासन में सांस्कृतिक रूप से कमज़ोर था; तीसरा प्रोटेस्टेन्ट मत और उपयोगितावाद में दरबारी संस्कृति और साहित्यिक आडम्बर को लेकर एक आम शैक्षिक क़दम.”[16]
इसके तहत ही खड़ी बोली का प्रचार-प्रसार होना, महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा ब्रजभाषा का तिरस्कार, रामचन्द्र शुक्ल का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में नए कालों को प्रस्तावित करना, साथ ही उनके ढाँचे में ऊँच-नीच का मजबूत बोध उत्पन्न करना, यह सब रीतिकाव्य को धूमिल कर रहा था. एलिसन रामचन्द्र शुक्ल के रीतिकाव्य संबंधी विचारों के लिए खूब आलोचना करती हैं –
“ब्रजभाषा के दरबारी लेखन का मूल्यांकन द्विवेदीनुमा सुधारों के तीन दशकों से त्रस्त तो था ही, लेकिन हिन्दी साहित्य का इतिहास के प्रकाशन ने मानो इसके बारे में अन्तिम फ़ैसला सुना दिया. शुक्ल ने रीति लेखकों का इतना भरपूर खण्डन किया, और उनके साहित्यिक और बौद्धिक वजूद के आधारों की ही इतनी गलतबयानी की, कि उनके लिए अपनी पुरानी प्रतिष्ठा को फिर से हासिल करने की कोई उम्मीद ही नहीं बची.”[17]
यह सारे संदर्भ हमें रीतिकाव्य के विषय में नए सिरे से सोचने को प्रेरित करते हैं. ना सिर्फ़ यही बल्कि यह किताब कई मामलों में नई दृष्टि प्रदान करती है लेकिन साथ ही उन कमियों, चुनौतियों का भी उल्लेख करती है जो रीति साहित्य पर काम करने के क्रम में आती हैं, मसलन पांडुलिपियों का अभाव, काल-विभाजन की जड़ता, हिन्दी अध्ययन में बौद्धिक रूढ़िवाद. ज़ाहिर है रीति साहित्य इन आक्षेपों से तभी मुक्त हो पाएगा जब बिना किसी पूर्वग्रह के उनके पास जाया जाए, उनके अध्ययन के लिए नए प्रतिमान आएं, जो प्रत्येक पाठक/आलोचक का अपना-अपना होगा और जहाँ तक पांडुलिपि की अनुपलब्धता की बात है तो क्या यह जानकर कि एक ‘गैर-भारतीय’ एक भारतीय विषय पर अपना पूरा अकादमिक जीवन लगा रही हैं, हम स्वयं से नज़र मिलाने योग्य हैं?
यदि इस किताब को रीति साहित्य संबंधी अब तक की सर्वश्रेष्ठ आलोचनात्मक किताब कही जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि हिन्दी में रीति साहित्य संबंधी जितनी आलोचनात्मक किताबें मिलती हैं वे सब प्राय: प्राप्त तथ्यों, अवधारणाओं का विश्लेषण भर हैं जबकि यह किताब एलिसन बुश के शोध के परिणामस्वरूप कई नए तथ्य भी प्रस्तुत करती है.
संदर्भ :
- केसव सुनहु प्रबीन: मुग़लकालीन हिन्दी साहित्यिक परिवेश- एलिसन बुश, अनुवाद- रेयाज़ुल हक़, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2025, पृ. 21
- हिन्दी रीति साहित्य – भगीरथ मिश्र, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1991 ई. पृष्ठ सं. 19
- केसव सुनहु प्रबीन- वही, पृ. सं. 39
- वही- पृ. सं.129
- वही- पृ. सं.65
- वही- पृ. सं.132
- वही- पृ. सं. 67
- साहित्य की पहचान- नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2012 ई., पृष्ठ सं. 42
- केसव सुनहु प्रबीन, वही, पृ.सं. 179 वही-पृ. सं.184
- वही-पृ. सं.142
- वही-पृ. सं.133
- वही-पृ. सं.130
- वही-पृ. सं.132
- वही-पृ. सं.301
- वही-पृ. सं.329
- वही-पृ. सं.364
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Allison Busch ऐलिसन बुश (1969-2019 ई.) मुग़ल-राजपूत दरबारी संस्कृति और तत्कालीन भारत में विशेष रुचि. ‘पोइट्री ऑफ़ किंग्स’ पहली प्रकाशित पुस्तक है. दूसरी पुस्तक ‘कल्चर एंड सर्कुलेशन: लिटरेचर इन मोशन इन अर्ली मॉडर्न इंडिया’ है जिसे उन्होंने थॉमस डे ब्रुइन के साथ 2014 ई. में सम्पादित किया था. |
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समुचित अध्ययन एवं अकादमिक श्रम के अभाव में उपेक्षित मान लिए गए महत्त्वपूर्ण विषय पर एक ज़रूरी किताब की सार्थक चर्चा के लिए लेखिका को साधुवाद और सम्पादक को धन्यवाद.
रीतिकाल के प्रसंग में नगेन्द्र के साथ ही मैनेजर पाण्डेय के ‘रीतिकाल : मिथक और यथार्थ’ शीर्षक निबंध की भी चर्चा आवश्यक है.
केशव के साथ अन्याय तो हुआ है। अप्रवीणा लिखते हुए मैं उनके लिखे से करीब से परिचित और उनकी मेधा से अभिभूत हुई। काव्य के दोष बताने के लिए उन्होंने दोषपूर्ण छंद लिखे और उदाहरण सहित बताया है। भले ही सूरदास जैसी करुणा उनके यहां नहीं मिलती लेकिन जो कौशल केशव के पास है वह अन्यत्र नहीं है।
शोधकर्ता विद्यार्थियों के लिए महत्वपूर्ण पुस्तक है ।
बहुत ज्ञानवर्धक लेख है