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समालोचन

Home » सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन

सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन

69 वर्षीय अमिताभ का पहला और एकमात्र कविता-संग्रह ‘समस्तीपुर और अन्य कविताएँ’ 2023 में प्रकाशित हुआ और इसे इसी वर्ष मंगलेश सम्मान से सम्मानित किया गया. यह संग्रह कथ्य और कहन दोनों में अलग है और आवश्यक भी. इसकी चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार और लेखक त्रिभुवन.

by arun dev
May 9, 2025
in समीक्षा
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सहजता की संकल्पगाथा : त्रिभुवन
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सहजता की संकल्पगाथा
त्रिभुवन

“समस्तीपुर से मेरा प्यार एक भ्रम था
वह कोई ज़िला-विला नहीं है
मैं वहाँ कभी नहीं गया
फिर वह कौन था जो कहता था
पंजाब कॉलोनी गली नंबर एक में आ जाइए
या रुकिए मैं अभी रेलवे गुमटीपर हूँ वहीं मिल लेते हैं
ये सब एक ग़ायब हो गई लड़की के चक्कर में हुआ
समस्तीपुर उसी का मायालोक था
उसी के साथ गायब हो गया”

अब कोई इतने साधारण शब्दों का इतने साधारण तरीक़े से इस्तेमाल करके कोई कवि पाठक के भीतर मायालोक रच दे और वह सहज रहते हुए भी अपने आपको अवाक महसूस करे तो यह क्या है? निर्वर्ण शब्दों का यह करिश्मा क्या कहता और क्या कहलाता है?

हिन्दी कविता की अपनी एक वर्ण-व्यवस्था और उसका अपना एक ब्राह्मण-धर्म है. उसमें लफ़्ज़ों के भी वर्ण हैं, धर्म हैं, जातियाँ हैं और गोत्र हैं. कुल हैं. उनकी अपनी कुलीनताएँ हैं. और थोड़ा सा व्याकरण के पहलुओं को शामिल कर लें तो हिन्दी कविता में अरबी और फ़ारसी मूल के विदेशी तत्त्व मौजूद हैं. यह बहुत नफ़ासत से सांकेतिक तौर पर ध्वनित करते हैं कि भाषा की वर्ण व्यवस्था कैसी होनी चाहिए. दु:खद है कि हिन्दी और संस्कृत में इसी का नाम व्याकरण है.

लेकिन समस्तीपुर के इन शब्दों की सहजता और उसके साधारण की संकल्पना को देखें तो उसमें हमें कहीं भी लिट्रेरी ब्लेज़न नहीं मिलेगा. उनकी कविता के मर्म को देखें तो उनकी संकल्पगाथा के भीतर निर्वर्ण शब्दों से फूटता अडिग उजास मिलेगा. ठीक वैसे ही जैसे

“दो सोलह और सत्रह साल की लड़कियाँ मेला घूमने गईं. …
लड़कियों से कई चूक हुईं
लड़कियों से आगे भी चूक होती रहेगी. कभी वे अपनी उम्र भूल जाएँगी
कभी अपना धर्म
मेले का आकर्षण और पान खाने का मज़ा,
इन पर आदमी का कोई वश नहीं.”

ऐसी अलंकरणहीन, बिंबविहीन, फिर भी भीतर से दीप्त कविता-यात्रा को कोई क्या ही कहे. गहन साहित्यिक स्पर्श की अनुभूति, लेकिन सहजता में. आप चाहें तो भी इसमें कोई और रंग या रूप नहीं जोड़ सकते. किसी कवि की भाषा की ऐसी अलंकरणहीनता उनकी अधिकतर कविताओं में समान रूप से उपस्थित हो और वह उसमें निहित प्रतिबद्धता, यात्रा और आत्मिक दृढ़ता को भी निरंतर उकेरता चलता है तो यह एक क़माल है. साथ ही, इन कविताओं की एक विशिष्टता इनका एँ जांबमेंट है. हर पंक्ति अगली पंक्ति में अविरल बहती है और उनमें प्रवाह और तनाव दोनों बने रहते हैं.

अभी मेरे हाथों में “समस्तीपुर और अन्य कविताएँ” है, जो समकालीन कवि अमिताभ बच्चन का काव्य संग्रह है और इसे मैं दो साल से भी शायद अधिक समय से बहुत बार पढ़ चुका हूँ. भूपिंदर बराड़ के अद्भुत आवरण चित्र और मंगलेश सम्मान 2023 से सम्मानित यह कृति “निबंध” प्रकाशन से छपी है और 288 पेज की है. इस पूरे संग्रह की अधिकतर कविताओं में एक ख़ास तरह का फ्रैग्मेंटेशन है, जहाँ विचारों, छवियों और समकालीन विद्रूपताओं भरे जीवन की टीसती बिखरन झलकती है.

कविताएँ पढ़ें और एक के बाद एक पढ़ें तो एक हर जगह एक अनएडोर्नेड फ्लेम भीतर महसूस होने लगती है. अमिताभ की इस पॉएटिक पिल्ग्रिमेज में सब कुछ अन्कंप्रोमाइज्डरूप से सामने आता है. कहीं भी कुछ भी अमूर्त नहीं. कोई ऐब्स्ट्रेक्शन नहीं. उनकी कविताओं में बार बार-बार एक बात प्रतिध्वनित होती है और वह यह कि एक सहज सादापन कहीं भी फ्लिंच करने का साहस नहीं कर पाता. मैं बहुत बार कुमार अंबुज को पढ़ता हूँ तो उनकी इमैजिज़्म के मूल में ठोस, संवेदी और सीधा-सा कुछ मिलता है. उनकी और असद ज़ैदी की तरह अमिताभ की कविताओं का एक भी एक स्टैन्ज़ाइक स्ट्रक्चर है. यहाँ भी वह उपस्थित, लेकिन थोड़ा अलग अंदाज और अदा में.

रघुवीर सहाय को पढ़ता हूँ तो नफ़ासत से बरते गए शब्दों को हैरानी से देखता हूँ. कम शब्द और मार्मिक अर्थ ध्वनियाँ. असद ज़ैदी को पढ़ो तो बीहड़ के अंधेरे में करुणा का ऐसा जल प्रवाह कि देह को प्रकंपित करता हुआ चले. कविता की मॉबलिंचिंग के इस युग में जब राजनीति ने जीवन के आम लोक में नाना प्रकार के डिटेंशन कैंप तैयार कर दिए हैं, तब भद्रलोक रीतिकालीन कविता को नए वस्त्राभूषण पहनाकर एक नया सांस्कृतिक वैभव रचे हुए हैं. कहीं कोई कोलाज नहीं, लेकिन एक कंक्रीट पैटर्न. बस एक सीजुरा, जो कविता के भीतर कभी एक विराम और कभी एक ठहराव लेकर आता है, लेकिन अंततः अनुभूतियों को बहुत गहराई देता है. मर्म तक ले जाता हुआ.

हिन्दी कविता के भीतर मानवीयताओं से आप्लावित लैंडस्केप अब बहुत सिकुड़ गया है तो वहाँ किसी ऐसे नए कवि का होना नई प्रसन्नताओं को बुनता है, जो ठोस और बिंबहीन होकर गहराई में उतरता है. जहाँ शब्दों की अर्थवत्ता, रूपात्मक अनुशासन और ऐतिहासिक साक्ष्य को केंद्र में रखने के बजाय एक सहज सुभाय का सौंदर्य अलग रूप रखता है. हम जब अमिताभ की कविता में कलात्मकता, काव्य तत्व और सामाजिक प्रयोजन— तीनों को गहराई से परखने की कोशिश करते हैं तो वहाँ एक सहज अलंकारविहीनता अठखेलियाँ करती है. कोई अनुप्रास नहीं, कोई श्लेष नहीं; लेकिन एक ख़ास तरह का ऐलिटरेशन हर जगह.

हिन्दी कविता पाठक को भावुक बनाती रही है, वह अपने सौंदर्य से चकित करती रही है, वह बिंदु को नभ-सा विस्तार देती रही है; लेकिन अमिताभ की कविता वह है जो हम सबको आज के यथार्थ का तटस्थ साक्षी बनाती हुई आगे बढ़ती है. अमिताभ की कविता का यह आत्म तत्व है और संभवत: एक आधुनिक दृष्टिबोध में यही कविता की आत्मा भी है. अमिताभ के यहाँ शब्दों की बहुत कठोर सादगी है; लेकिन अर्थ की दृढ़ता के साथ. कोई अनावश्यक और अवांछित शब्द नहीं और कोई अलंकार या रूपकात्मकता भी नहीं.

“मैं हिंदू हूँ इन हत्यारे हिंदू समयों में” जैसी पंक्तियाँ न तो शोर मचाती हैं, न ही भावुक होकर पलायन करती हैं. वे एक गहन नैतिक चुप्पी से भरी हुई हैं, जिसमें भय, शर्म और प्रतिरोध है. “मैं सुरक्षित रह कर क्या करूंगा?” यह एक साधारण प्रश्न नहीं, बल्कि सुरक्षा के नाम पर आत्मा के सौदे का अस्वीकार है. उनका रूपकात्मक अनुशासन और नैतिक अभिप्राय उल्लेखनीय है. बच्चन की कविताएँ सजावट नहीं, साक्ष्य हैं. वे काव्यात्मक सौंदर्य को नहीं, नैतिक जिम्मेदारी को महत्व देती हैं. “जज और जज क्यों मांग रहे हैं जबकि कहीं कोई मामला लंबित नहीं है” जैसी कविता देखें, जहाँ दोहराव का तो प्रश्न ही नहीं, एक छेनी है और जैसे एक सुंदर हथौड़ी का सांगीतिक प्रहार. यह कविता पठन में नहीं आती, चेतना नामक बचे रह गए किसी ऐंद्रिक बिंदु पर चोट करती है. इनके भीतर एक ऐसा एसोनेंस है, जो कविताओं को पढ़ लेने के काफी बाद में हमारे भीतर एक जैसी स्वर ध्वनियों की अनुगूंज पैदा करता है.

अमिताभ की कविता में वर्तमान तो है ही, इतिहास, संस्कृति, बाज़ार और बहुत से डर और चेतावनियाँ भी हैं. जीवन की पूरी झलक लिए हुए. वे इतिहासों और संस्कृतियों को अपने काव्य में बुनते हैं. अमिताभ बच्चन जीवित इतिहास को कविता में ढालते हैं, उसी कुरूपता, पीड़ा और यथार्थ के साथ. उनकी “मेरा पता” कविता कोई रूपक नहीं; बल्कि गुरबत का एक जीवंत जुगराफिया है. गली, गाँव, दरगाह, गंगा; सब एक जलते और बेचैन करते हुए भूगोल का हिस्सा हैं.

“कच्चे आम की ख़ुशबू और पीले कनेर के फूलों की आभा
से मुझे बचपन के एक मंदिर का अहाता याद आता है
जो बाक़रगंज में है जो रहमगंज के बाद शुरू होता है
कभी आइए हमारे घर
देखिए हमारा ग़रीब शहर.”

बच्चन की कविता में मौजूद कठोर साक्ष्य ही उनकी करुणा के स्रोत हैं. न्याय की पुकार हैं.

“धर्मराज की माँ कहती है मरने से पहले धर्मराज अच्छा हो गया था”, यह वाक्य इतिहास का व्यंग्य नहीं, इतिहास के उस वर्तमान का कटु यथार्थ है. बच्चन माँ के आँसू नहीं दिखाते, वे उस साड़ी को दिखाते हैं जो साहूकार ने उसकी गोद भरने के बदले दी. बच्चन किसी विचारधारा के प्रचारक नहीं हैं, पर उनकी कविता आर्थिक और सामाजिक अन्याय को नग्न रूप में सामने लाती है. ऋण, जाति, विस्थापन, धार्मिक उन्माद आदि विषयों पर बच्चन की दृष्टि सहज मानवीय और विवेकशील है, न कि घोषणात्मक. उनकी कविताओं में समाजशास्त्रीयदायित्वों का बोध भी अनुपस्थिति रूप से उपस्थित है. जैसे कहीं कोई इंटरनल राइल नहीं और कहीं कोई लयात्मकता नहीं. कहीं कोई पैटर्न नहीं, लेकिन फिर भी एक पैटर्न है.

बच्चन की कविता यह नहीं पूछती कि “कविता से क्या बदलेगा?” बल्कि वह यह दिखाती है कि यदि कोई नहीं बोलेगा तो पतन का दस्तावेज़ कौन रखेगा? “बिस्मिल्लाह ख़ाँ बेखौफ़ रात भर शहनाई बजाएँगे” यह एक सांस्कृतिक उद्घोषणा है, सद्भाव की अंतिम आवाज़, जिसे कवि स्मृति में संजोता है. कविता करवट तभी लेती है, जब हम देखें कि उसमें कुछ नया और सिलसिलेवार टूटता दिखे. प्रखंडित होता हुआ. और नया बनता हुआ. यानी उनकी विजुअल इमेजरी बहुत शानदार है. वे दृश्य अनुभवों को जीवंत करने वाले साधारण शब्दों का बरताव करते हैं और एक ऐसा अदृश्य मोटिफ़ लाते हैं, जो थीम को मज़बूत करता है.

अमिताभ बच्चन वास्तव में भारतीय समाज के लिए एक नई कविता गढ़ते हैं, जो लोकोन्मुख है, यथार्थवादी है और किसी भी प्रकार के भावनात्मक संतुष्टिबोध से बचती है. कविता जो केवल कला नहीं, चेतना है और इस चेतना के इस कवि की बिना सिमिली और बिना सिंबोलिज़्म वाली ये कविताएँ गाती नहीं, गुनगुनाती नहीं, वे दर्ज़ करती हैं, प्रतिकार करती हैं और मनुष्य की अंत: प्रवृत्तियों को बेचैन करती हैं, झकझोरती हैं. ये कविताएँ न तो काल्पनिक हैं, न ही आभासी. ये लोक और सत्ता के बीच फँसे मानव की उखड़ती जुड़ती सांसें हैं.

कवि रिपोर्टर रहे हैं और एक सजग-सचेतन रिपोर्टर की झोली में अपार मेटाफ़र रहते हैं. कितने ही गहरे अनुभव भी, जो उनकी कविताओं से साफ़ दिखते हैं. लेकिन उनकी कविता मेटाफ़र को उतार देती है और अनुभव को पीकर चलती है. वे अनुभवों से भारतीय यथार्थ की अंतरात्मा में अपनी तरफ से बहुत कुछ नया जोड़ती हैं. यह काव्य, सौंदर्य नहीं माँगता, यह न्याय माँगता है. अमिताभ ने अपनी कविताओं के भीतर कठिन सौंदर्य को बहुत श्रम और साधना से साधा हुआ है. न-रस, न-छंद, न-बिंब, न-अलंकार और फिर भी कविता, यही उनकी कविता का कठिन सौंदर्य है.

लेकिन समाज की आयरती को प्रकट करती ये कविताएँ ऐंबिग्युइटी से बहुत दूर हैं. कई कविताओं में वे विरोधी छवियों और विचारों को आसपास रखकर बहुत गहराई से तनाव पैदा करते हैं और हम एक जकस्टापोज़ीशन को सामने देखते हैं.

उनकी कविता फूलों, सूक्तियों या सांगीतिकता से नहीं सजती. वहाँ माँसल सौंदर्य की तलाश की कल्पना तो सुदूर तक नहीं. यथार्थ का एक निष्कवच सौंदर्य तो वहाँ है, लेकिन हृदय और आत्माओं को सुकून देने वाली गाढ़ी ऐंद्रिकता वाले लिजलिजे रसीलेपन को जैसे करीने से बुहारा गया है. पोस्टमॉडर्निज़्म की कविता की कुछ ख़ूबियों को वे और आगे ले जाते हैं. उनका साहित्यिक दृष्टिकोण विखंडन, आत्मसंदेह, बहुत आयामी सत्यों या विडंबनाओं को इंटरटेक्सचुअलिटी तक ले जाता है. इतने बड़े संग्रह में इतनी सारी कविताएँ हैं और पढ़ते हुए आप महसूस करते हैं कि हर कविता किसी दूसरी कविता से संवाद कर रही है और यही संवाद एक समकालीन यथार्थ की एक वृहत्तर तस्वीर हमारे सामने रखते हैं.

कविताओं में कोई चमत्कारी बिंब भी न हो, प्रतीकों की जादूगरी भी न हो, तरकीबों और तरतीबों से भी साफ़ इनकार हो तो इस तरह की इंटरटेक्सचुअलिटी स्थिर व्याख्याओं को तोड़ती और उसके अंतर्निहित विरोधाभासों को उजागर करती है. यह एक तरह का डीकंस्ट्रक्शन शैली का कंस्ट्रक्शन है.

‘ग़ायब आदमी’, ‘फ़ोन’,’दो लड़कियाँ’ या ‘मेट्रोवासी’ जैसी कविताएँ इस बात की साक्षी हैं कि बच्चन की कविता लय, छंद, रस और शैली के सामान्य उपकरणों को अस्वीकार करके कविता को उसके ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आनुभूतिक संदर्भों में पढ़ने को बाध्य करती है. यह एक नई तरह का हिस्टोरिसिज़्म है.

यह रचना नहीं, घोषणा भी नहीं— बल्कि एक दर्ज़ है; जैसा कि एज़रा पाउंड ने कहा था, “पॉएट्री मस्ट बी एज़ हार्ड एज़ ग्रेनाइट.” अमिताभ की मेटापॉएट्री में यह ग्रेनाइट खूब है.

अलंकरणों से सुदूर और धरती के यथार्थ से जुड़ी कविता का यह लोक एकबारगी बहुत सुकून देने वाला नहीं है. यह बार-बार के पाठ से ही सध सकता है. जैसे ग्रेनाइट भी गहरी घिसाई पर ही दमकने लगता है. प्रारंभिक तौर पर तो यह पाठक को और पाठक इसे ख़ारिज ही करता है. ‘दरभंगा की दौलत’,‘कमला नदी के पश्चिमी तटबंध पर’ और ‘समस्तीपुर’ जैसी कविताएँ न किसी सौंदर्य-बोध की माँग करती हैं, न सांस्कृतिक स्मृति की चाशनी में लिपटी हैं.

ये सूखी रेत पर लिखी गई कविताएँ हैं. यहाँ कविता हरियाली उगाने नहीं आई है. घास तक नहीं बोती. यह कविता शोक-गान नहीं, शोक की गूंगी साक्षी है. ‘अख़लाक़ के हत्यारे’, ‘सभी धर्मों से समान दूरी पर’, ‘मुसलमानों में ख़ौफ़ के बारे में’, ‘हिंदू समय में’ इन शीर्षकों से ही स्पष्ट है कि बच्चन की कविता किसी साहसिक दिखावे या पब्लिक पोज़ की नहीं, एक अंदरूनी नैतिक कसौटी पर चलने की कविता है. इन कविताओं में नैतिक आग्रह दिखावा नहीं है. वह साँस की तरह आता है. इन कविताओं में कोई प्रयोजन नहीं, पर गहरी प्रयोज्यता है.

ये सामाजिक दखल नहीं देतीं, पर सामाजिक पीड़ा की संरचना में अविचल सन्नाटा भर देती हैं. आत्मसंयम की इन कविताओं की कोई शैली नहीं है. ‘कहानी’,‘विमान यात्रा’,‘ऑटो युग’ और ‘रतन जी से मुलाक़ात’ जैसी कविताएँ किसी ‘शैली’ में लिखी नहीं जातीं, बल्कि बिना किसी साज-सज्जा के एक कठोर, आत्म-निग्रहपूर्ण चुप्पी में पैदा होती हैं. यह कविता की असहज मुद्रा है, जहाँ कोई आत्मप्रदर्शन नहीं, नायकत्व नहीं, बस कठिन राह पर पग धर-धर चलती एक मनुष्यता है.

यह ऐसा कवि है, जिसकी भाषा में न तो गेयता है और न ही बहाव या प्रवाह. बस यथार्थ की एकज़िद है. ‘पिस्तौल’,‘सभा’,‘शैतान’,‘कब्र का जीवन’ जैसी कविताएँ ऐसी ज़बान में लिखी गई हैं, जो कोई कवि प्रायः अपनाने से डरता है; क्योंकि वहाँ कोई ‘लयात्मकता’ नहीं, कोई ‘आलंकारिक चमक’ नहीं होती. यह ज़बान झूठ नहीं बोलती, लेकिन सच्चाई का शोर भी नहीं मचाती.

यह ‘कठोर चुप्पी’ है, जैसे कोई आत्मा अपनी क़ब्र से बोल रही हो. बिंबात्मकता से एकदम बेनियाज़ और फिर भी दृश्य सा ठोस, सांद्र. ‘कनाट प्लेस’,‘अहमदाबाद’,‘ग़रीबों का होटल’,‘उस सुबह’ और ‘मां नास्तिक कैसे बनी’ जैसी कविताएँ बिंब रचने की कोशिश नहीं करतीं, बल्कि स्वयं ‘बिंब’ बन जाती हैं, एक सामाजिक स्थिति, एक ऐतिहासिक पीड़ा, एक मानवीय गाथा का ठोस फ्रेम.

कविता यहाँ किसी दृश्य का रंग नहीं रचती, यह दृश्य का खुरदुरापन छोड़ती है. न शैली है और न परंपरा; बस एक विचित्र वर्तमान का साक्ष्य-उत्कीर्ण. ‘कहानी’और ‘क्या पूछूं’—ये कविताएँ शैली के विरुद्ध खड़ी हैं. यहाँ कोई परंपरा नहीं निभाई जा रही, कोई लय नहीं साधी जा रही. यह कविता का आत्म साक्षात्कार है—बिना मेटाफ़र, बिना इशारों, बिना लिबास के.

यह वह निरालापन है, जो शोर नहीं करता, पर जिसकी प्रतिध्वनि समय के भीतर गूंजती रहती है. यह कविता नहीं, एक कठिन तप है और इस तप कानिरंतर साधक है अमिताभ बच्चन, जिसकी कविता कोई आंदोलन नहीं, कोई क्रांति नहीं, कोई स्टाइल नहीं. यह एक संयमित आत्मा का कठिन व्रत है, जो समकालीन कविता में सबसे अलग है.

यह कविता की उस संभाव्यता की याद है, जो सारे काव्य तत्वों से रहितहोकर भी जीवित रह सकती है.

यह एक तरह का कंडेंसेशन है, विचार, भावना या छवि को बहुत ही संक्षेप, गहन और प्रभावशाली रूप. अलग तरह की मौलिकता लिये हुए. यह कविता है, क्योंकि यह कविता नहीं दिखना चाहती. अलंकारहीन नैतिक उपस्थिति; अमिताभ की कविता, उस रास्ते पर चलती है, जहाँ कोई फूल नहीं उगते, कोई संगीत नहीं बहता, कोई दृश्य बिंब नहीं गढ़े जाते. यह कविता न तो पाठक को पुचकारती है, न बहलाती है. यह कविता स्वयं को सुंदर बनाने की चेष्टा भी नहीं करती.

‘ग़ायब आदमी’, ‘अख़लाक़ के हत्यारे’, ‘उस सुबह’, ‘कब्र का जीवन’, ‘हिंदू समय में’ जैसी कविताएँ न कथा कहती हैं, न अनुभव को सजाती हैं.

 

दो)

ये कविताएँ सिर्फ एक चीज़ पर केंद्रित हैं— तनाव की उपस्थिति. यानी वर्तमान असहनीय है और इसलिए बिना किसी मोह के उसे सहना ही होगा. इस यथार्थ को बसूले से छीलतीऔर छेनियों से आकार देती. यहवर्गीय चेतना और वर्गों से बाहर खड़ी कविता है. इन कविताओं में कवि का वर्ग बोध मौजूद नहीं है.

‘ग़रीबों का होटल’, ‘दलितों का क्षोभ’, ‘दरभंगा की दौलत’, ‘कंगालों के बारे में’, ‘बस स्टैंड’, ‘समस्तीपुर’ जैसी रचनाएँ न तो मध्यवर्गीय सुविधा का रोना रोती हैं, न ही नॉस्टैल्जिया की चाशनी में डूबी हैं. यहाँ वंचितों के लिए एक सहानुभूतिपूर्ण परंतु मूक साझेदारी है. नायकत्व का कोई आग्रह नहीं. बस, एक सह नागरिक की कठिन नैतिक उपस्थिति है. एक सह नागरिक की अधीर धीरता और धीर अधीरता.

‘पिस्तौल’, ‘मुसलमानों में ख़ौफ़ के बारे में’, ‘क्या पूछूं’, ‘चोर’,‘बर्बर प्रेमी की चिंता’; ये कविताएँ अलंकरण के विरुद्ध एक काव्य-व्रत की तरह खड़ी हैं. शब्दों का वजन उनकी चमक में नहीं, उनकी खुरदरी सच्चाई में है. बिंबात्मकता से विरक्ति है और यथार्थ का संकल्प. अमिताभकी कविताओं में कोई दृश्य रचने की कोशिश नहीं की जाती. ‘सूरज’, ‘अवसाद’, ‘रातेंकाली नहीं होतीं’, ‘फोन’, ‘विमान यात्रा’, ‘मेट्रोवासी’; इन रचनाओं में कोई बिंब नहीं टिका रहता, कोई चित्र नहीं बनता. यह दृश्य कविता नहीं, स्थिति कविता है. हर कविता एक दस्तावेज़ है; मौन की रोशनी में लिखा हुआ सत्य.

यह न कवि की वाणी है, न कथा वाचक की; बस एक साक्षी की आवाज़ है. ‘माँ नास्तिक कैसे बनीं’, ‘सभा’, ‘शैतान’, ‘कहानी’, ‘रतन जी से मुलाकात’ जैसी कविताएँ कोई उपदेश नहीं देतीं. ये केवल यह दर्ज करती हैं कि इस समाज में कौन अदृश्य है, कौन मारा गया, किसे भूला गया. कवि न तो भगवान बनता है, न रिपोर्टर. वह बस वर्तमान के भीतर खड़ा एक नागरिक है; गवाही देता हुआ, चुपचाप. जहाँ भी देखो, जितना भी देखो, एक कठिन करुणा की खोज अनवरत है.

‘लड़की’, ‘दो बहनें’, ‘दो लड़कियाँ’, ‘तितलियाँ’ जैसी कविताएँ किसी लाड़ में नहीं डूबी हैं. ये नारी संवेदना को सहेजती नहीं, बल्कि उसे छूने से भी कतराती हैं, ताकि वह अपनी गरिमा में खड़ी रह सके. यह करुणा दिखाने की वस्तु नहीं, सहमते हुए पहचानने की प्रक्रिया है. एक नैतिक अनुशासन में नया काव्य है, जो आम तौर पर कम दिखता है.

अमिताभ की कविता, कविता होने से इनकार करती है; क्योंकि आज की कविता बहुत सजावटी हो गई है. यह ‘फॉर्म’ को भी एक नैतिक परीक्षण की तरह देखती है. कविता तभी ईमानदार हो सकती है जब वह खुद को भी सजाने से मना कर दे. कविता का यह मार्ग कठिन है, लेकिन आवश्यक है और ख़ासकर आज की परिस्थितियों में. अमिताभ की कविता न कथ्य की शरण में है, न शैली की. यह एक निर्वासित स्वर है, जो अपने समय को उसकी जटिलता में स्वीकार करता है, और फिर भी उसमें गरिमा ढूँढ़ने का प्रयास करता है.

यह कविता बहुत सहजता से कविता की परिभाषा को चुनौती देती है. यह शोर नहीं करती; लेकिन उसकी चुप्पी गूँजती है. अमिताभ की कविता न केवल एक काव्यात्मक वक्तव्य है, बल्कि अपने समय की कविता की चुपचाप की गई आलोचना भी है. इसमें न शोर है, न इरादा, लेकिन फिर भी यह दृश्य कविता के हाव-भाव और स्वांग से अलग खड़ी होती है; और इसी अलगाव में वह अपनी समय-सापेक्ष शक्ति अर्जित करती है. यह अपने आप में समकालीन काव्य की मौन आलोचना भी है. एक मौनविद्रोह भी.

यह किसी मैनिफेस्टो का हिस्सा नहीं है, किसी काव्य आंदोलन की परछाईं नहीं है. यह आलोचना है; बिना आलोचक के. विरोध है; बिना घोषणा के. उनकी कविताएँ ‘हिंदू समयमें’, ‘मुसलमानों में ख़ौफ़ के बारे में’, ‘कब्र का जीवन’, ‘सूअर’, ‘दलितों का क्षोभ’,‘माँ नास्तिक कैसे बनीं’, ‘दो लड़कियाँ’, ‘बर्बर प्रेमी की चिंता’; इनमें कोई रचना-सिद्धांत नहीं झलकता, फिर भी ये अपनी समकालीनता को तोड़ती-फोड़ती हैं और निर्वस्त्र करती हैं. दृश्य और अनुभूत जगत् का बहुत सादा, सजीव और संवेदनशील वर्णन कि वे एक नया भावबोध पैदा नहीं करतीं, बल्कि पढ़ लेने के बाद में एक ख़ास तरह का एक्फ़्रासिस रचती हैं.

यह आलोचना न दिखती है, न सुनाई देती है; लेकिन महसूस होती है जैसे मुक्तिबोध ने अपने समय की कविताओं को अंतःकरण से टटोला और शमशेर ने नम्र सौंदर्य के माध्यम से अपने युग के बोध का विखंडन किया, अमिताभ का स्वर भी यथार्थ का आलोचक है; पर विनम्रता अनुपस्थिति की तरह. वह आलोचना की मुद्रा नहीं बनाते; वह आलोचना की नैतिक ज़मीन पर खड़े होते हैं. कविता से कविता की आलोचना तक; एक नैतिक संकरता यहाँ मौजूद है.

अमिताभ की कविता सिर्फ़ कविता नहीं है, वह एक दार्शनिक इनकार है; छंदों, बिंबों, भावुकता और शैली के प्रति. यह कविता कहती नहीं है कि समकालीन कविता खोखली हो गई है; वह बस उसके सामने खड़ी होती है, ख़ामोश और इसलिए कहीं अधिक मुखर.

अमिताभ की कविता कविता की ही आलोचना है; लेकिन बिना आलोचना के दंभ के. वह अपने समय की कविता को, उसकी भाषा, शैली और संतुलन को, चुपचाप पुनर्परिभाषित करती है. अमिताभ की कविता पढ़ते हुए लगता है; कविता को कुछ नहीं करना है, सिर्फ़ होना है; ईमानदारी से, मौन में और नैतिकता के साथ. लेकिन अब हिन्दी गद्य में, विशुद्ध प्रोज़ आलोचना की तरह. कहीं कोई काव्यात्मकता नहीं, कोई बौद्धिक तीक्ष्णता नहीं, कोई गहन अवलोकन नहीं और कहीं किसी सर्जनात्मक असहमति का कोई सौंदर्यशास्त्र नहीं — बिना किसी विशिष्टता के सब कुछ.

वे न पाठक को बाँधती हैं, न बुलाती हैं. न ही बहलातीं, न चौंकाती हैं. इनकी भाषा सामान्य है; इतनी सामान्य कि उसकी सादगी असहज करने लगती है. वे पाठक से कोई इंटिमेसी नहीं चाहतीं. कोई संबंध नहीं बनातीं. न आलिंगन करती हैं, न विरोध.

वे सिर्फ़ उपस्थित हैं. और यही उपस्थिति — मौन, दृढ़, निर्विकार —आज के काव्य-प्रदूषणके बीच एक निसंग, निर्मम उत्तर की तरह खड़ी है. जब आज अधिकांश कविता सजावटी हो गई है,अति-सजीव, अति-संवेदनशील, अति-प्रस्तुतिपरक —अमिताभ वहाँ से हटकर खड़े हैं. वे किसी रचना-सिद्धांत की ओर झुकते नहीं. किसी आलोचना-संगति का बोझ नहीं ढोते. उनकी कविता आलोचना से बाहर है और इसी कारण सबसे सशक्त आलोचना बन जाती है.

हिन्दी कविता के संसार में ऐसी कविताओं को कहीं अधिक कविता माना जाता है, जो अफ़ेक्टिव डिस्परप्शन की ख़ूबी लेकर चलती हैं. भावनाओं को अचानक झकझोर देना या पाठुक के हृदय में एक असहज तरलता बुन देना. पाठक की भावनात्मक स्थिरता को तोड़कर उसे नए सिरे से सोचने पर मज़बूर कर देना; लेकिन अमिताभ की कविता इस विशिष्टता से बहुत दूर है. इस मामले में ‘अवसाद’,‘तितलियाँ’, ‘कहानी’, ‘विमान यात्रा’, ‘फोन’, ‘बस स्टैंड’, ‘दरभंगा की दौलत’ जैसी कविताएँ कई बार तो चौंकाने वाली चीज़ों का फैमिलियराइज़ेशन करती हैं.

 

तीन)
अमिताभ की कविताएँ न केवल अपने विषयों के चयन में, बल्कि अपने मौन और संयम में भी एक मेटा-पॉएट्री का निर्माण करती हैं. ख़ासकर आज की स्पेकुलटिव, इवेंट-केंद्रित और आत्ममुग्ध कविता पर. इन कविताओं की खूबी है समय की ध्वनि को शब्दों में नहीं, खालीपन में पकड़ना. यहआलोचना न तो वक्तव्य है, न विमर्श. यह आलोचना है “दस्तावेज़” की शक्ल में; युग के अंधेरे मोड़ों पर रखी गई अनाम रिपोर्टें. कविताओं का एक ऐसा सिलसिला, जो ख़ुद कविता लेखन की प्रक्रिया, भाषा या काव्य की प्रकृति पर मानो टिप्पणी करता हुआ चलता है और कविता को स्वयं-चिंतनशील बनाता हुआ. कविता के भीतर कविता के बारे में सोचता हुआ और रहस्यों, संदेहों और दुर्भिसंधियों के तर्कात्मक समाधानों को अस्वीकार करता हुआ.

इनमें कोई निष्कर्ष नहीं है, पर हर पंक्ति अपने समय को दर्ज करती है और उसकी गवाही बन जाती है. यह कविता समकालीन कविता को देखती है; पर बिना देखे. यह आलोचना करती है; परबिना बोले. कविता नहीं, एक नैतिक उपस्थिति है. अमिताभ की कविता अपने समय की न केवल कविता है, वह उसका साहसी आलोचनात्मक दस्तावेज भी है.

शब्दों से परहेज़ करते हुए भी, वह कविता की नैतिकता को पुनः स्थापित करती है; साधारणता, विरक्ति और करुणा के माध्यम से. इस प्रकार वह न केवल आज की कविता को चुनौती देती है, बल्कि कविता को पुनः एक नैतिक कर्म बनाती है. अमिताभ की कविता में स्वभावगत मौन है, उसकी अवांछित उपस्थिति है और कविता के घोषित या परंपरागत स्वाद से इनकार की सुंदरता. यहाँ सौंदर्यशास्त्रीय गंभीरता या आधुनिक चेतना जैसा कोई मूर्तिमान तत्व नहीं है. बस ये हिन्दी में रची कविताएँ हैं — जहाँ शीर्षकों, स्वर, नैतिक चेतना और सादगी की शक्ति को कविता के भीतर से पहचाना जा सकता है. अमिताभ की कविता की तरह बिना यह दावा किए कि यह कविता है. यही अमिताभ की रचनाशीलता की अंतःसलिला है. और यह कितनी बड़ी बात है कि अमिताभ की कोई कविता अपने कविता होने का दावा नहीं करतीं कि वह ‘कविता’ है. वह अपने अकविता होने की आत्महीनता भी नहीं बुनती.

‘पिस्तौल’, ‘कनाट प्लेस’, ‘विश्वयुद्ध’, ‘शोक’, ‘जवाब’, ‘तेल मालिश’, ‘तीन दिनों की बारिश में’, ‘खोपड़ी’, ‘मछली बाजार में’, ‘ध्रुपद का मज़ा’, इनमें से कोई भी शीर्षक ऐसा नहीं है, जो काव्यात्मक होने का स्वांग करता हो. वे किसी प्रतीक का तामझाम नहीं ओढ़ते. वे बाज़ारू ध्यान को लुभाने के लिए नहीं रची गईं; बल्कि वह कविता हैं जो बस ‘होती’ हैं. यहाँ कविता कॉलर पकड़कर खींचती नहीं. यहाँ उंगली पकड़कर नहीं ले जाती किसी रहस्यलोक में. यहाँ कविता बाहों में भरकर सान्त्वना भी नहीं देती. यह कविता आपको अपने भीतर तो क्या ही प्रवेश करने दे, यह छूने भी नहीं देती. यह कविता सिर्फ़ वहाँ है, जहाँ जीवन अपनी जटिल सादगी में उपस्थित है. जैसे बहुत बार घर में कोई बहुत आत्मीयता से भरा दिखता है. आत्मीयता का एक खुरदरा हाथ बनकर.

‘मजबूत राष्ट्र’, ‘डर’, ‘बच्चे’, ‘यकीन’, ‘दिव्य ज्ञान’, ‘अंततः’, ‘निहा खातून’, ‘गर्दन’,‘पतंगें’, ‘गरीबों का होटल’; ये सब वो शीर्षक हैं जो कविता के बजाय ख़बरों के शीर्षक की तरह लगते हैं. पर यही उनकी सबसे बड़ी काव्यात्मक विशेषता है. स्वादहीनता एक सौंदर्य है; जब कविता ‘बिना ज़ायके’ की सच्चाई चुनती है और वह इनके यहाँ है. इन कविताओं में कोई स्वाद नहीं है. ख़ासकर कविता जैसा स्वाद. ये एकदम बेस्वाद और बेज़ायका कविताएँ हैं; क्योंकि यह कृत्रिम मिठास से इनकार करती हैं. ये ऑर्गेनिक हैं; अपने स्वर, अपने कथ्य और अपनी नैतिक उपस्थिति में. यह ‘कविता’ के चिह्न नहीं ओढ़ती, इसलिए यह कविता है.

किसी तरह का इमेज़िज़्म नहीं. किसी प्रकार की दृश्य संवेदना भी नहीं. किसी प्रकार की लयात्मकता का प्रदर्शन नहीं, लेकिन अपने आपका एक अलग सांगीतिक अनुशासन. एक नैतिकता काव्य चेतना का मूल आलंबन. यह कवि कहीं से भी प्रीचर नहीं लगता. किसी प्रकार का कोई आग्रह, विग्रह या परिग्रह नहीं.

लेकिन एक संयत, गहरा नैतिक बोध हर कविता में मौन की तरह मौजूद है. वे जीवन में नैतिक हैं; और प्रीचर नहीं हैं तो प्रचारक भी नहीं. वे मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में खड़े हैं; लेकिन बिना झंडा उठाए. कठिन राहों के साधक; लेकिन कठिनता के सौंदर्य में नहीं, सादगी के अनुशासन में. अमिताभ की कविता कोई कठिन अभ्यास का शिल्प नहीं है. यह कठिन राह पर चलने वाले का साधु सरल संयम है.

यह वह कविता है, जो अहंकार से, तड़क-भड़क और समकालीनता की चकाचौंध से दूर खड़ी रहती है; और इसीलिए कहीं अधिक समकालीन है. यह कविता भीड़ में नहीं दिखती. लेकिन समय के माथे पर एक ठंडी हथेली की तरह रखी जाती है. यह कविता की चुप उपस्थिति है.

उनके शीर्षक— कश्मीर, तितलियाँ, कवि और मकान, बांस,विडियो क्लिप, विश्वयुद्ध, सुनीता, मिट्टी मजदूर, कानू, संत टेरेसा, ये पौधे मर नहीं सकते,पटपड़गंज, ये गाँव के भूमिपुत्र थोड़े ही न हैं, रतन जी से मुलाकात, सभा,प्रेम महान, ज़ालिमों की भाषा, सुदंर प्यारे पवित्र जजों की खोज में, मेरा नाम अमर्त्यसेन है, शपथ ग्रहण समारोह, तरह-तरह के हिन्दू, क्या पूछँ, पहाड़ पर, शैतान, राष्ट्रनिर्माण, बलात्कार, मैं शर्मिंदा हूँ, माँ नास्तिक कैसे बनी, मुसलमानों के ख़ौफ़ के बारेमें, बच्चे, जवाब, आरामकुर्सी, पेट, प्यार, कमला नदी के पश्चिम तटबंध पर-  कोई संकेत नहीं देते कि भीतर कविता है. वे अख़बारी हेडलाइन नहीं हैं. वे न तो भावुक हैं और न ही भाषिक रूप से मोहक. वे केवल कहते हैं —साधारण शब्दों में, एक अदृश्य नैतिक आग्रह के साथ.

अमिताभ की भाषा पर कोई सजावटी बोझ नहीं है. वे भाषा से कुछ करवाना नहीं चाहते. वे भाषा को उसकी सीमा के बहुत भीतर ही भीतर बरतते हैं. न तलवार की तरह, न लाठी की तरह—  बस, जैसे एक सीधी, साधारण बात कही जाती है बिना किसी ध्वनि, रंग या रूप के. वे कोई ‘काव्यात्मक’ प्रभाव नहीं पैदा करना चाहते. उनकी कविता में शिल्प नहीं, संयम है. कोई गल्प नहीं, कोई मिथकीय स्वर नहीं. यह कोई जादुई यथार्थ नहीं है— यह एक यथार्थ है जो जादू को नकार चुका है.

उनकी कविताएँ नायकत्व से दूर हैं. यहाँ कोई नैरेटर नहीं है, कोई ‘मैं’ नहीं है जो कथा कहताहो. यहाँ एक सहनागरिक है —जो इस देश, इस समय, इस शहर, इस वर्ग और इस असहिष्णुता को देख रहा है, और बिना कोई लाउडस्वर उठाए, उसकी भयावहता दर्ज कर रहा है.कविताके नाम पर जब हर ओर ग्लैमर, सनसनी और मुद्रा है— अमिताभ जैसे कवि एँ टी-डॉट की तरह आते हैं. वे किसी मीठे जहर के जवाब में एक फीकी, कड़वी, लेकिन ज़रूरी दवा की तरह हैं.

अमिताभ में रघुवीर सहाय, विष्णु खरे, असद जैदी, मंगलेश डबराल, कुमार अंबुज, कात्यायनी जैसेकवियों की वह विरासत है— जो कविता को सजावट नहीं, विवेक मानते हैं. उनकी कविता कोई सिद्धांत नहीं गढ़ती, लेकिन अपने आप में एक युग-सिद्धांत की तरह खड़ी हो जाती है. उनकी उपस्थिति ही समकालीन काव्य के लिए एक विवेकपूर्ण प्रश्न है—  कि क्या कविता को सुंदर, भावुक और आकर्षक होना ही ज़रूरी है? नहीं. कभी-कभी कविता को केवल होना होता है—  सचके सबसे कठोर और निर्विकार रूप में. एक निर्वर्ण, निर्जाति, निधर्म, निर्विचार काव्यलोक में. सादापन की एक गहरी कौंध के साथ. काव्य सिद्धांतों की विवेचना बताती है कि किसी भी क़ामयाब कवि को कल्चरल एल्युज़िवनेस की पालना करते हुए अपने पाठक की बौद्धिकता को चुनौती देनी चाहिए; लेकिन यहाँ यह सिद्धांत एकदम उलटा लटका हुआ दिखता है और यही इस काव्य पुस्तक की वह ख़ूबी है, जो इसे केंद्र से परिधि की ओर लाते हुए सादगी का एक विस्फोट करते हुए सादगी के सौंदर्यशास्त्र का बोध कराती है.

यह संग्रह यहाँ से प्राप्त करें.

 

त्रिभुवन
श्रीगंगानगर (राजस्थान)
लेखक-पत्रकार

कविता-संग्रह ‘कुछ इस तरह आना’ तथा लम्बी कविता ‘शूद्र’ प्रकाशित.
जयपुर में रहते हैं.
thetribhuvan@gmail.com

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Comments 4

  1. कात्यायनी says:
    2 weeks ago

    त्रिभुवन जी ने बहुत अच्छा लिखा है अमिताभ की कविताओं पर।

    Reply
  2. चन्द्रकला त्रिपाठी says:
    2 weeks ago

    गद्य का महाकाव्यात्मक संधान हैं ये कविताएं। भीतर विचार जैसे ज़िंदा फोर्स हैं, जो अर्थ को भविष्य तक जाने के लिए तैयार कर रहे हैं। कुछ भी स्थानीयता, तात्कालिकता या अतिरेक में रुढ़ नहीं है यहां। बहुत मजबूत कविताएं।

    Reply
  3. Usha Kumari says:
    2 weeks ago

    ‘कभी-कभी कविता को केवल होना होता है- सच के सबसे कठोर और निर्विकार रुप में। सादापन की एक गहरी कौंध के साथ।’ जैसी सररल और सशक्त कविताएं उतना ही सरल सशक्त विश्लेषण । अलंकरण और अतिरेक से दूर कविताओं का हमारे बीच होना सुखद है।

    Reply
  4. Poonam Sharma says:
    2 weeks ago

    समस्तीपुर और अन्य कविताएं पहले भी पढ़ा है । इस समीक्षा को पढ़ने के बाद एक बार फिर से पढ़ना होगा अब

    Reply

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