हिंदी सिनेमा में उमराव जान फ़िल्म का संगीत अलौकिक है. मिर्ज़ा हादी ‘रुस्वा’ का कालजयी उपन्यास, मुजफ़्फ़र अली का निर्देशन, रेखा का अभिनय, शहरयार की गज़लें, खय्याम का संगीत और आशा की आवाज़ यह मेल दुर्लभ है.
ललित कलाओं पर लिखने वाले युवा कवि यतीन्द्र मिश्र का यह आलेख विस्तार और गहराई से ख़य्याम की संगीत यात्रा की यात्रा करता है. शोध, लगाव और परिश्रम के साथ इसे लिखा गया है.
ये क्या जगह है दोस्तो…
(ख़य्याम और उमराव ज़ान)
यतीन्द्र मिश्र
मोहम्मद ज़हूर ख़य्याम हाशमी उर्फ़ ‘ख़य्याम’ का ताल्लुक संगीत की उस जमात से रहा है, जहां इत्मीनान और सुकून के साए तले बैठकर संगीत रचने की रवायत रही है. ख़य्याम का नाम किसी फि़ल्म के साथ जुड़ने का मतलब ही यह समझा जाता था कि फि़ल्म में लीक से हटकर और शोर-शराबे से दूरी रखनेवाले संगीत की जगह बनती है, इसलिए यह संगीतकार वहां मौज़ूद है. ख़य्याम का होना ही इस बात की शर्त व सीमा दोनों एक साथ तय कर देते थे कि उनके द्वारा रची जाने वाली फि़ल्म में स्तरीय ढंग का संगीत होने के साथ-साथ भावनाओं को तरजीह देने वाला रूहानी संगीत भी प्रभावी ढंग से मौजूद होगा.
हिंदी फि़ल्मों के संगीतेतिहास में ख़य्याम की एक निश्चित और अलग सी जगह बनती है, जिसमें उनकी तरह का संगीत रचने वाला कोई दूसरा फ़नकार नहीं हुआ. कहने का मतलब यह है कि उनकी शैली पर न तो किसी पूर्ववर्ती संगीतकार की कोई छाया पड़ती नज़र आती है न ही उनके बाद आने वाले किसी संगीतकार के यहां ख़य्याम की शैली का अनुसरण ही दिखाई पड़ता है. इस मायने में वे शायद सबसे अकेले और स्वतंत्र संगीतकार ठहरेंगे, जिनका न तो कोई पूर्वज है और न ही उनकी लीक पर चलने वाला कोई वंशज. ख़य्याम हर लिहाज़ से एक स्वतंत्र, विचारवान और स्वयं को संबोधित ऐसे आत्मकेंद्रित संगीतकार रहे हैं, जिनकी शैली के अनूठेपन ने ही उनको सबसे अलग कि़स्म का कलाकार बनाया है.
अपने शुरुआती जीवन में वे कुंदनलाल सहगल की तरह गायक-अभिनेता बनने की हसरत मन में पाले हुए थे. इसी के चलते बेहद कम उम्र में घर छोड़कर भागे और संगीत व सिनेमा की दुनिया में मुक़ाम बनाने के लिए संघर्ष शुरू किया. वे लाहौर के प्रसिद्ध संगीत निर्देशक ग़ुलाम अहमद चिश्ती के पास गए, जिन्होंने इनकी संगीत के प्रति दीवानगी के चलते अपना सहायक बना लिया. कुछ दिन उनसे सीखने के बाद पैसों की तंगहाली के चलते ख़य्याम ने 1943 में ब्रिटिश आर्मी में एक सैनिक के रूप में नौकरी कर ली. द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के दौरान 1945 में इस नौकरी से भी उन्होंने छुटकारा पा लिया. उनके पास दूसरा कोई काम नहीं था, इसलिए दोबारा वे जी.ए. चिश्ती के पास लौट गए, जहां रहने और खाने-पीने की सुविधा तो थी, मगर कोई पारिश्रमिक नहीं था. उन्हें पहला पारिश्रमिक निर्माता-निर्देशक बी.आर. चोपड़ा की वजह से मिला, जो एक सौ पचीस रुपये मात्र था और जिसे चोपड़ा ने चिश्ती साहब से गुज़ारिश करके इस प्रतिभावान सहायक को अपनी फि़ल्म चांदनी चौक (संगीतकारः रोशन) के निर्माण के दौरान दिलवाया था.
बंटवारे के दौरान जब जी.ए. चिश्ती ने लाहौर में ही रह जाने का मन बनाया, तो ख़य्याम के पास मात्र एक विकल्प बचा था कि वे अपने किशोरवय के दिनों के संगीत गुरु हुस्नलालके पास लौट जाएं, जो अपने भाई के साथ मिलकर हुस्नलाल- भगतराम नाम से फि़ल्मों में सक्रिय हो रहे थे. हुस्नलाल की ही सलाह पर ख़य्याम ने एक छद्म नाम ‘शर्मा जी’ अपनाया और इसी नाम से सिनेमा की दुनिया में भाग्य आजमाने निकल पड़े. हुस्नलाल ने ही ख़य्याम को एक गायक के बतौर पहला मौक़ा रोमियो एंड जूलियट फि़ल्म में दिया, जिसमें उन्हें एक युगल गीत ज़ोहराबाई अंबालावाली के साथ गाना था. गीत के बोल थे ‘दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के’. इस संगीतकार जोड़ी ने बाद में भी ख़य्याम को कई गीतों को गाने का अवसर दिया, जिसमें उनके साथी स्वरों में गीता राॅय, मोहनतारा तलपड़े और मीना कपूर शामिल थीं. फिर भी ख़य्याम का इससे कोई भला नहीं हुआ क्योंकि उस ज़माने में फि़ल्म के रिकाड्र्स पर गायकों-गायिकाओं का नाम दिए जाने का चलन नहीं था.
प्रख्यात अभिनेत्री मुमताज़ शांति के पति और फि़ल्म निर्देशक वली साहब ने ख़य्याम को ‘शर्मा जी’के रूप में पहली बार 1948 में हीर रांझा फि़ल्म के लिए बतौर संगीतकार इस हिदायत के साथ चुना कि वे गु़लाम हैदर की शैली में पंजाबी ढंग के गीत बनाएं. स्वाभिमानी ख़य्याम ने इस राय को नज़रअंदाज़ करते हुए अपने ही ढंग का संगीत बनाया, जिसमें उनके मित्र रहमान वर्मा भी सहयोगी थे और संगीतकार के रूप में दोनों का सम्मिलित नाम ‘वर्मा जी-शर्मा जी’ फि़ल्म के टाईटिल्स के साथ दिया गया था. इस जोड़ी के साथ तीसरे संगीतकार के रूप में अज़ीज ख़ां का नाम भी शामिल था. बाद में पर्दा, बीवी और प्यार की बातें नाम की फि़ल्मों में भी ख़य्याम ने संगीत दिया, जिसमें उन्हें संगीतकार के रूप में श्रेय भी दूसरे लोगों के साथ साझा करना पड़ा.
इस तरह के ढेरों संघर्षों से गु़जरते हुए ख़य्याम की निजी पहचान 1953 में फ़ुटपाथ फि़ल्म के माध्यम से तब बनी, जब उनकी कला से ‘शामे ग़म की कसम, आज ग़मगीं हैं हम’ जैसी अप्रतिम ग़ज़ल बनकर बाहर आई. तलत महमूद की रेशमी आवाज़ और ख़य्याम की एकदम नई धीमी लय वाली शैली ने जैसे रातोरात यह साबित कर दिया कि एक नए ढंग के संगीतकार का आगमन हो चुका है. बाद में फ़ुटपाथ की सफलता के साथ अपनी बेहद स्तरीय ढंग की संगीत शैली के चलते ख़य्याम ने लाला रुख़, फिर सुबह होगी (1958), बारूद (1960), शोला और शबनम (1961), शगुन (1964), मोहब्बत इसको कहते हैं (1965) एवं आखि़री ख़त (1966) के संगीत से ख़ुद की एक पुख़्ता पहचान बना ली, जो बाद के वर्षों में और सुंदर ढंग से विकसित होकर सामने आई.
ख़य्याम के संगीत में एक ख़ास कि़स्म की रवानगी थी, जो उनके दूसरे समकालीनों से सर्वथा भिन्न भी थी. वे पहले ऐसे संगीतकार के रूप में जाने जाते हैं, जिनके यहां पहली बार पहाड़ के सौंदर्य का रूप निर्धारण करने में वहां के लोक-संगीत का निहायत मौलिक प्रयोग किया गया. उन्होंने कुल्लू की वादियों में बजने वाले वहां के देशज वाद्यों से उठने वाली नितांत देसी आवाज़ों को अपने संगीत में स्थान दिया, जिसके चलते पहाड़ी धुनों में रची जाने वाली उनकी अधिकांश मोहक रचनाओं में वहां के घरेलूपन की अनुगूंजें सुनाई पड़ती हैं. यह ख़य्याम का सबसे प्रतिनिधि स्वर रहा है, जो लगभग हर दूसरी फि़ल्म में उनकी धुनों के माध्यम से व्यक्त भी हुआ. कई बार यह भी देखा गया है कि लोकधुनों एवं पहाड़ के प्रति अपने अगाध प्रेम के चलते उनके संगीत में एक हद तक एकरसता भी पाई गई.
दरअसल, ख़य्याम संगीत की पाठशाला के ऐसे चितेरे रहे हैं, जिनके यहां कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति अपने सबसे उदात्त अर्थों में संभव हुई है. वे भावुक हद तक चले जाने का जोखिम उठाकर कोमलता को इतने तीव्रतम स्तर पर जाकर व्यक्त करते थे कि सुनने वाले को जहां एक ओर उनकी धुनों में माधुर्य के साथ चरम मुलायमियत के दर्शन होते थे, वहीं कई बार उनकी शैली पिछले को दोहराती हुई थोड़ी पुरानी भी लगती थी. कई बार यह भी देखा गया है कि समकालीन अर्थों में व्याप्त संगीत को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करते हुए ख़य्याम बिलकुल अपनी शर्तों पर स्वयं को संबोधित संगीत ही रचते रहे. शायद इसलिए भी कइयों को उनके संगीत के साथ सामंजस्य बनाने में दिक्कत होती है और कई बार उसकी बारीकियों को गंभीरता से समझने में वे चूक भी जाते हैं. साठ व सत्तर के दशक में जब शंकर जयकिशन, एस.डी. बर्मन, चित्रगुप्त, रोशन, ओ.पी. नैय्यर, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर.डी. बर्मन, मदन मोहन एवं कल्याण जी-आनंद जी जैसे संगीतकार अपनी फि़ल्मों के द्वारा काफ़ी हद तक युवाओं को ध्यान में रखकर अपना संगीत रच रहे थे. साथ ही उस संगीत में शोख़ी, मस्ती, चंचलता, रूमानियत और आनंद के ढेरों पल संजोने का एक फड़कता हुआ दौर सृजित करने में मसरूफ़ थे, तब उस समय ख़य्याम जैसे कलाकार अपनी सादगी भरी लोकरंजक धुनों के माध्यम से जिस वातावरण की सृष्टि करने में तल्लीन नज़र आए, उसमें सुकून, धीरज, और संजीदगी के आवरण में लिपटी अवसाद की महीन बुनावट का काम हो रहा था.
यह अकारण नहीं है कि इसी के चलते उस दौर में गंगा-जमुना, घराना, जंगली, संजोग, एक मुसाफि़र एक हसीना, ज़बक़, बर्मा रोड, दिल ही तो है, बंदिनी, चित्रलेखा, गाईड, हक़ीक़त, लीडर, वो कौन थी, दिल दिया दर्द लिया, आम्रपाली, अनुपमा, वक्त, आए दिन बहार के, मेरे सनम जैसी तमाम ख़ूबसूरत संगीतमय फि़ल्मों के बरअक्स ख़य्याम उसी स्तर पर बिल्कुल नए मुहावरों में शांत कि़स्म का ज़हीन संगीत अपनी फि़ल्मों शोला और शबनम, फिर सुबह होगी, शगुन, मोहब्बत इसको कहते हैं एवं आखि़री ख़त के माध्यम से पेश कर रहे थे. आशय यह कि बिल्कुल अलग ही धरातल पर थोड़े गंभीर स्वर में रूमानियत का अंदाज़ लिए हुए ख़य्याम की कंपोज़ीशंस हमसे मुख़ातिब होती है. वहां पर मौज़ूद धुनों की नाज़ुकी भी इसी बात पर टिकी रहती है कि किस तरह संगीतकार ने अपनी शैली के अनुरूप उसे अंडरटोन में विकसित किया है, जिससे शायरी और संगीत दोनों की ही कैफि़यत पूरी तरह खिलकर सामने आई है. इस लिहाज़ से हमें उनके ढेरों ऐसे गीतों को याद करना चाहिए, जो अपनी संरचना में एक अनूठा विन्यास लिये हुए हैं. मसलन ‘है कली-कली के लब पर तेरे हुस्न का फ़साना’, ‘प्यास कुछ और भी भड़का दी झलक दिखला के’ (लाला रुख़) ‘रंग रंगीला सांवरा मोहे मिल गया जमुना पार’(बारूद), ‘पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है’, ‘बुझा दिए है ख़ुद अपने हाथों मुहब्बतों के दिये जला के’ (शगुन), ‘जीत ही लेंगे बाज़ी हम-तुम खेल अधूरा छूटे ना’ (शोला और शबनम) एवं ‘बहारों मेरा जीवन भी संवारों’ (आखि़री ख़त) जैसे भाव में भीगे हुए अत्यंत मधुर गीतों पर ख़य्याम की कारीगरी देखते ही बनती है.
अपना मुहावरा स्थापित कर लेने के बाद ख़य्याम ने सत्तर और अस्सी के दशक में सर्वाधिक उल्लेखनीय ढंग का संगीत दिया है, जो कई बार उनकी स्वयं की बनाई हुई पिछले समयों की सुंदर कृतियों को भी पीछे छोड़ देता है. उपर्युक्त फि़ल्मों के संगीत से अलग इस संगीतकार ने संकल्प (1974), कभी-कभी (1976), शंकर हुसैन (1977), त्रिशूल (1978), चंबल की क़सम (1979), दर्द, उमराव जान (1981), बाज़ार (1982), रजि़या सुलतान (1983) एवं अंजुमन (1986) जैसी उत्कृष्ट फि़ल्मों से अपने संगीत में कुछ और मौलिक किस्म की स्थापनाएं पिरोईं. यह देखना ज़रूरी है कि किस तरह शगुन (1964) से लेकर रजि़या सुलतान (1983) तक आते-आते ख़य्याम के यहां ग़ज़ल की संरचना में भी गुणात्मक स्तर पर सुधार हुआ और वह पहले की अपेक्षा कुछ ज़्यादा अभिनव ढंग से चमक कर निखर सकी.
इस दौरान ख़य्याम का संगीत कुछ ज़्यादा ही सहज ढंग से रेशमी होता गया है, जिसमें प्रणय व उससे उपजे विरह की संभावना को कुछ दूसरे ढंग की हरारत महसूस हुई है. ऐसा महीन, नाज़ुक सुरों वाला वितान, जो सुनते हुए यह आभास देता है कि वह बस हाथ से सरक या फिसल जाएगा; अपनी मधुरता में दूर तक बहा ले जाता है. इसी मौलिकता को बरक़रार रखने के जतन में ख़य्याम अपनी धुनों को लेकर इतने चैकस हैं कि गलती से भी कहीं दूसरे प्रभावों या कि समवर्ती संगीतकारों की शैली से मिलती-जुलती कोई बात कहने में सावधान बने रहते हैं. शायद इसीलिए उनके हुनर से विकसित कोई प्रेम-गीत हो या ग़ज़ल; दर्द भरा नग़मा हो या फिर उत्सव का माहौल रचने वाला गाना-सब कुछ जैसे किसी गहन वैचारिकी के तहत अपना रूपाकार पाता है. इस बात की पड़ताल के लिए हम आसानी से शंकर हुसैन, नूरी, कभी-कभी, संकल्प, रजि़या सुल्तान, उमराव जान, थोड़ी सी बेवफ़ाई और बाज़ार के गीतों से मुख़ातिब हो सकते हैं. अनायास ही इन फि़ल्मों के गाने अपनी शाइस्तगी को बयां करते हैं, जब कभी भी उनके चंद मिसरे या टुकड़े कानों में पड़ जाते हैं. ‘आप यूं फ़ासलों से गु़ज़रते रहे’, ‘अपने आप रातों में चिलमनें सरकती हैं’, (शंकर हुसैन), ‘तू ही सागर है तू ही किनारा’ (संकल्प), ‘अंग-अंग रंग छलकाए’ (संध्या), ‘कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है’ (कभी-कभी), ‘ऐ दिले नादां’ (रजि़या सुल्तान), ‘इन आंखों की मस्ती के’ (उमराव जान), ‘हज़ार राहें मुड़ के देखीं’ (थोड़ी सी बेवफ़ाई), ‘देख लो आज हमको जी भर के’ (बाज़ार) एवं ‘गुलाब जि़स्म का यूं ही नहीं खिला होगा’ (अंजुमन) जैसे कुछ गीत अपनी सांगीतिक बुनावट को अपनी संरचना के हर टुकड़े और पंक्ति में व्यक्त करते हैं.
ख़य्याम के संदर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी रेखांकित करने योग्य है कि उन्होंने अपने पूरे फि़ल्मी कैरियर में नई से नई आवाज़ों को मौक़ा दिया. कई बार उन्होंने नयापन लाने के लिए कुछ ऐसी आवाज़ों का भी इस्तेमाल किया, जो गायन के लिहाज़ से एक प्रयोग ही माना जाएगा. जैसे, अंजुमन फि़ल्म के लिए अभिनेत्री शबाना आज़मी से बेहद सुर व लय में गीत गवाने का उपक्रम. यह ख़य्याम ही थे, जिन्होंने लता मंगेशकर, तलत महमूद, आशा भोंसले और मो. रफ़ी के अलावा जगजीत कौर, सुमन कल्याणपुर, सुलक्षणा पंडित, हरिहरन, अनूप जलोटा, येसुदास, तलत अज़ीज, शब्बीर कुमार एवं कब्बन मिर्ज़ा से भी उतने ही बेहतरीन गीत गवाये हैं.
ख़य्याम की मक़बूलियत को तफ़सील से रेशा-रेशा व्यक्त करने के लिए हम उनकी उल्लेखनीय पांच-छह फि़ल्मों में से किसी एक का चुनाव कर सकते हैं. यह फि़ल्में अपने संपूर्ण कलेवर में संगीतकार की उस विशिष्टता को पूरी तरह संकेतित हैं,
जिसके लिए उनको पूरे आदर के साथ याद किया जाता है. शगुन, शंकर हुसैन, कभी-कभी, उमराव जान, रजि़या सुल्तान एवं बाज़ार में से कोई भी एक फि़ल्म ख़य्याम के हस्ताक्षर को समझने में मददगार हो सकती है. मैंने व्यक्तिगत रूप से उमराव जान का चयन किया है,
जो कि उनके पूरे कैरियर की सबसे महत्वपूर्ण फि़ल्म मानी जाती है तथा जिस फि़ल्म के माध्यम से उन्होंने व्यावसायिकता और कलात्मकता के दो सर्वथा विपरीत छोरों पर जाकर एक सी सफलता अर्जित की है.
मिर्ज़ा हादी ‘रुस्वा’ के ऐतिहासिक उपन्यास पर आधारित मुजफ़्फ़र अली की उमराव जान आज एक क्लैसिक फि़ल्म के रूप में मान्य हो चुकी है. मूलतः लखनऊ और फ़ैज़ाबाद के परिवेश में अवध की नवाबी तहज़ीब के दौरान विकसित किए गए इस फि़ल्म के कथानक में फ़ैज़ाबाद की मशहूर तवायफ़ उमराव जान ‘अदा’ के जीवन को आधार बनाया गया है. चूंकि फि़ल्म का पूरा परिवेश एक तवायफ़ और उसके समाज के इर्द-गिर्द घूमता है, इस कारण उमराव जान की संरचना में मुजरा गीतों से लेकर ग़ज़लों और शास्त्रीय रागों में बंधी बंदिशों की भरपूर गुंजाईश विद्यमान है. फि़ल्म में उमराव जान के रूप में अस्सी के दशक की चर्चित, शोख़ व संवेदनशील अभिनेत्री रेखा ने अभिनय किया है.
उमराव जान ख़य्याम की प्रतिभा की सर्वश्रेष्ठ बानगी है. यह कहा जा सकता है कि भारतीय फि़ल्म संगीत के इतिहास में नर्तकियों, तवायफ़ों एवं गणिकाओं को लेकर बनी फि़ल्मों के लिए जितना सफल और प्रयोगधर्मी संगीत रचा गया है, उसमें उमराव जान शायद सर्वोपरि ही गिनी जाएगी. यह अलग बात है कि उसके मुकाबले मात्र पाकीज़ा ही ऐसी फि़ल्म के रूप में उभरेगी, जो सर्वोच्च स्थान को उसके साथ साझा करेगी. पाकीज़ा और उमराव जान की तुलना में ऐसे विषयों की दूसरी संगीतमय फि़ल्में, मसलन-अनारकली, अदालत, ममता, आम्रपाली, मण्डी, शराफ़त, तवायफ़, उत्सव एवं सरदारी बेग़म अपने पर्याप्त सौंदर्य के बावज़ूद कहीं दूसरे स्थान पर पहुंचती नज़र आएंगी.
उमराव जान की चर्चा से पहले इस सर्वप्रचलित तथ्य का उद्धरण ज़रूरी जान पड़ता है कि फि़ल्म में नायिका रेखा के लिए जिस तरह की क़शिश भरी आवाज़ को ख़य्याम उभारना चाहते थे, उसके लिए उन्होंने आशा भोंसले की आवाज़ को उसके स्वाभाविक स्वरमान (पिच) से थोड़ा नीचे ठीक डेढ़ सुर उतारकर गवाया और बेहद अप्रत्याशित ढंग से ग़ज़ब के परिणाम सामने आए. इस तकनीकी दक्षता के साथ संगीतकार ने आशा भोंसले की आवाज़ में जो गुणात्मक परिवर्तन किया, वह अलग से विमर्श का हिस्सा है. हम आज भी उमराव जान जैसी फि़ल्म के पाश्र्व-गायन में आशा भोंसले को जितना अद्भुत ढंग से व्यक्त होते हुए देखते हैं, वह स्थिति सारी कलात्मकता के बाद उनके स्वाभाविक पिच पर कभी दोबारा दिखाई नहीं दी. इस समय यह भी कल्पना की जा सकती है कि यदि कुछ और फि़ल्मों के लिए उन्होंने इसी तकनीकी के अनुसार कुछ ग़ज़लें और गीत आदि गाए होते, तो कुछ दूसरे ढंग से उनकी सांगीतिक थाती समृद्ध हुई होती. इसी क्षण इस बात को रेखांकित करना भी समीचीन होगा कि अक्सर ऐसी नायिका-प्रधान एवं संगीत के लिहाज़ से कुछ अतिरिक्त रचने वाली फि़ल्मों में मुख्य गायिका के बतौर सदैव मौजूद रहने वाली सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर इस फि़ल्म में क्यों पूरी तरह अनुपस्थित रहीं. इसका कारण भी ख़य्याम ने अपने तर्कों के हवाले से स्पष्ट किया है. उनके अनुसारः
लता जी को लेने का एक बड़ा जोखि़म यह था कि गु़लाम मोहम्मद ने पहले ही तवायफ़ की जि़ंदगी पर आधारित पाकीज़ा के लिए उनसे बेहद स्तरीय ढंग के मुजरा गीत गवाये थे. मुझे भय था कि उमराव जान कहीं पाकीज़ा से तुलना के योग्य न समझी जाने लगे. ऐसे में उमराव जान के संगीत का पाकीज़ा के संगीत से बार-बार मिलान करना उचित नहीं होता. फिर, मुझे जिस तरह के मंद्र-स्वर (बेस-वाॅयस) की ज़रूरत रेखा के किरदार के लिए मुफ़ीद लगती थी, वह आशा जी के माध्यम से संभव हो सकती थी. इसीलिए लता जी की अत्यंत कोमल अति-तार तक जाने वाली आवाज़ के मुकाबले मैंने आशा भोंसले को पाश्र्व-गायन के लिए चुना.
ख़य्याम का यह तर्क उनके अनुसार कुछ वाजि़ब ही लगता है क्योंकि आशा भोंसले ने इस फि़ल्म के माध्यम से अपनी गायिकी में मंद्र सप्तक पर जाकर जितनी सुंदर हरकतें गले के माध्यम से व्यक्त की हैं, वह व्याख्यातीत है. एक खु़शनुमा सी परिकल्पना इस समय यह भी की जा सकती है कि यदि गु़लाम मोहम्मद ने पाकीज़ा के लिए आशा भोंसले को चुना होता और उमराव जान के लिए लता मंगेशकर स्वर दे रही होतीं, तब इन फि़ल्मों के गानों का मिज़ाज और रंग कैसा होता?
उमराव जान के संगीत के संदर्भ में जब मैंने ख़य्याम साहब से स्वयं इसकी रचना प्रक्रिया के बारे में जानना चाहा, तो उन्होंने कुछ ख़ूबसूरत चीज़ें इससे संबंधित मुझे बताईं, जिसका यहां जस का तस उल्लेख कर रहा हूं. ख़य्याम साहब के अनुसारः
मुझे याद पड़ता है कि मैंने आशा जी को उनके स्वाभाविक सुर से डेढ़ सुर नीचे उतारकर उमराव जान के गानों का अभ्यास करने के लिए दिया था. वे हफ्तों अभ्यास करके जब इस फि़ल्म के पहले गीत ‘दिल चीज़ क्या है आप मेरी ज़ान लीजिए’ की रेकाॅर्डिंग के लिए महबूब स्टूडियो आईं और साजि़ंदों के साथ साउंड रेकाॅर्डिस्ट के सामने गीत रेकाॅर्ड होने के ठीक पहले अपना अंतिम अभ्यास कर रही थीं, तो थोड़ी अन्यमनस्क और नाराज़ भी थीं. उन्होंने मेरी पत्नी जगजीत कौर को एक तरफ़ बुलाया और उनसे कहा- यह आप लोगों ने कौन सा सुर रख दिया है? यह नीचा सुर है, जिसे मैं ठीक से गा नहीं पा रही हूं. फिर यह मेरा सुर भी नहीं है. इस पर मैंने आशा जी को समझाते हुए यह कहा कि हमने बड़े सोच-विचार के साथ जान-बूझकर ऐसा सुर रखा है. रेखा पर खिलता हुआ जिस तरह गले का असर हमें चाहिए, वह ऐसे ही संभव हो सकता है. इस पर आशा जी ने मज़ाक करते हुए कहा- ख़य्याम साहब अगर मुझसे गाया ही नहीं जाएगा, तो भला उमराव जान को आवाज़ कैसे मिल पाएगी? काफ़ी जद्दोज़हद और उन्हें समझाने-बुझाने के बाद हम इस बात पर सहमत हुए कि गीत का एक टेक वे हमारे अनुसार डेढ़ सुर नीचे उतारकर देंगी, जबकि दूसरा टेक वे अपनी स्वाभाविक आवाज़ में रेकाॅर्ड कराएंगी. ख़ैर वे मान तो गईं, मगर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुईं. उन्होंने फिर कहा- ठीक है मैं गा देती हूं, लेकिन आप क़सम खाइए कि इस टेक के बाद मेरे सुर से इसे दोबारा रेकाॅर्ड करेंगे. इस पर मैंने उनसे कहा कि आशा जी आप भी मां सरस्वती की क़सम खाइए कि उमराव जान के लिए जिस टोन की हमें दरकार है, उसे बड़े अच्छे अंदाज़ से बिना मूड ख़राब किए हुए रेकाॅर्ड कराएंगी.
ख़य्याम साहब आगे बताते हैं कि ‘
गाना रेकार्ड हुआ,
जिस पर उन्होंने आशा जी को यह
कहकर म्यूजि़क रूम में बुलाया कि आप आकर एक बार इस प्रयोग किए हुए सुर के साथ ध्वनि-मुद्रित गाने को सुन लीजिए. सभी लोग स्टूडियो में बेहद डरे हुए थे कि कहीं आशा जी इसे रिजेक्ट करके उमराव जान के गानों को न गाने के लिए ही न ठान बैठें. हमने जब ‘दिल चीज़ क्या है आप मेरी ज़ान लीजिए’ को उन्हें सुनाना आरंभ किया, तो वह क्षण मुझे आज़ भी याद है और रोमांचित करता है. जैसे ही तानपूरे, सारंगी, स्वर-मंडल और सितार की ध्वनि पर आशा जी का आलाप उभरा और गीत आगे बढ़ा, उन्होंने अपनी आंखें मूंद लीं और लगा कि गीत बजने के दौरान आत्म-विस्मृति में चली गईं. बाद में उन्होंने मुझसे पूछा- यह किसकी आवाज़ है? क्या इसे मैं गा रही थी? मैंने अपनी आवाज़ तो ऐसी पहले कभी नहीं सुनी. फिर उत्साहित होकर बोलीं- ख़य्याम साहब हम इसी सुर में गाएंगे और इसी अंदाज़ में गाएंगे, जैसा आप चाहते हैं और जैसी आपके मन में बसी हुई उमराव जान की इच्छा है.’
यह एक ऐसा अत्यंत आत्मीय सांगीतिक संस्मरण है, जो कहीं से एक हुनरमंद संगीतकार और लाजवाब गायिका की आपसी सहमति से विकसित हुए शाहकार संगीत के प्रति अपनी जवाबदेही तय करता है. यह कहीं से हमें यह भी सिखाता है कि कुछ अप्रत्याशित नबेरने के जतन में कई बार फ़नकारों को कितना ज़ोखिम उठाना पड़ता है और कितनी बार उससे उपजी पीड़ा से भी रूबरू होना.
उमराव जान में कुल नौ गाने थे, जिसमें एक गीत वह भी सम्मिलित था, जो पूरी तरह शास्त्रीय बंदिशों पर आधारित राग-माला है. फि़ल्म के सबसे महत्वपूर्ण गीत वह थे, जो आशा भोंसले की आवाज़ में स्वरबद्ध किए गए. ‘दिल चीज़ क्या है आप मेरी ज़ान लीजिए’, ‘इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं’, ‘जु़स्तज़ू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने’, ‘ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है’जैसी संवेदनशील ग़ज़लों के अलावा एक सुंदर क़ता ‘जब भी मिलती है मुझे अज़नबी लगती क्यूं है’ के साथ आशा भोंसले पूरे भाव-प्रवण ढंग से उपस्थित थीं. यह समझना भी उमराव जान के गीतों के संदर्भ में आवश्यक है कि मुख्य रूप से कोठे का परिवेश रचने में जिस तरह की पारंपरिक ठुमरी, दादरा या सादरा नुमा गीतों की दरकार होती है, उसकी कोई प्रचलित परिपाटी को संगीतकार ने इस फि़ल्म में नहीं निभाया है. फि़ल्म में प्रयुक्त किए गए तीनों मुजरा गीत, दरअसल बिल्कुल सामयिक अर्थों में वे आधुनिक कि़स्म की ग़ज़लें थीं, जिन्हें संगीत के लिहाज़ से मुजरा के प्रारूप में ढाला गया था. इस फि़ल्म के लिए जिस तरह मुजफ़्फ़र अली की पहली पसंद ख़य्याम थे, उसी तरह इसके गीतों के लिए भी उनकी फि़ल्मों में गीत रचने वाले मशहूर वामपंथी शायर शहरयार ने क़लम चलाई थी.
यह इतिहास सम्मत तथ्य रहा है कि उमराव जान अपने दौर की जितनी ख्यात तवायफ़ रहीं हैं, उतनी ही वह एक मशहूर शायरा भी थीं. उमराव की तरह अवध में उन दिनों तमाम अन्य शायर भी सक्रिय थे. इसका जि़क्र भी मिर्ज़ा हादी ‘रुस्वा’ ने अपने उपन्यास की भूमिका में किया है. उनके अनुसारः
इसमें शक नहीं कि उमराव जान की ज़बान बहुत साफ़-सुथरी और सुधरी हुई थी. और क्यों न होती! एक तो पढ़ी-लिखी, दूसरे आला दरजे की रंडियों में परवरिश पाई, शहज़ादों और नवाबज़ादों के साथ बैठीं-उठीं, शाही महलों तक पहुंचकर जो कुछ उन्होंने आंखों से देखा था, औरों ने कानों से सुना होगा…मैं उमराव जान को उस ज़माने से जानता हूं, जब उनकी नवाब सुल्तान साहब से मुलाक़ात हुई. उन दिनों मैं अक्सर उनके यहां बैठा करता था…वह मुशायरों में जाती थीं, मुहर्रम की मज़लिसों में सोज़ पढ़ती थीं और कभी-कभी वैसे भी गाने-बजाने के जलसों में शरीक होती थीं.
इसी के साथ उन्होंने उमराव जान का कहा हुआ एक उम्दा शेर भी पढ़ा है, जो ऐसे बयां होता है- ‘किसको सुनाएं हाले-दिलेज़ार, ऐ ‘अदा’/आवारगी में हमने ज़माने की सैर की.’ अब ऐसी तरक्क़ी पसंद और इल्म की पक्की शायरा के संदर्भ में फि़ल्म के लिए मुजरा-गीत और संगीत बनाते समय यदि इसके निर्देशक, संगीतकार एवं गीतकार ने मिलकर ग़ज़ल की पैरवी की, तो वह हर हाल में जायज़ ही लगती है. एक ऐसी महत्वपूर्ण तवायफ़, जो अपने व्यक्तित्व में एक संवेदनशील शायर का किरदार रखती हो, उसके लिए ठुमरी या दूसरे तरह की श्रृंगार-प्रधान पदावलियों का प्रयोग फि़ल्म अथवा नाटक के लिए उचित नहीं ठहरेगा. इस लिहाज से ग़ज़लों को मुजरे की शक्ल में ढालने का जो बेहद ख़ूबसूरत संयोजन उमराव जान में किया गया है, वह क़ाबिले तारीफ़ है.
फि़ल्म के निर्देशक मुजफ़्फ़र अली ने उमराव जान से संबंधित एक महत्वपूर्ण पहलू की ओर ध्यान दिलाया,
जो कि इस फि़ल्म के गीतों की सार्थकता के संबंध में भी ख़ास दृष्टिकोण रखता है. उनके अनुसारः
हमने हादी ‘रुस्वा’ के उपन्यास के आधार पर फि़ल्म का कथानक अवश्य रखा, मगर उसकी पूरी पटकथा को उमराव जान की शायरी को आधार बनाकर ही विकसित किया था. आप ग़ौर करें, तो ध्यान आएगा कि किस तरह उमराव जान की परवरिश और उनके पूरे किरदार को शायरी और संगीत से सजाया गया था. फि़ल्म के शुरुआती दृश्यों में एक दृश्य है, जिसमें युवा उमराव को मौलवी साहब शायरी पढ़ा रहे हैं. मैंने इसे प्यार के अमूर्त रूप को शायरी के माध्यम से बीजारोपण करते दिखाया था, जो कि मेरे लिहाज़ से उमराव ज़ान साहिबा की एक ज़रूरी कैफि़यत है. आप देखें कि उनके व्यक्तित्व में मौज़ूद आत्मबल और स्वाभिमान को दर्शाने के लिए एक ग़ज़ल में आता है ‘कहिए तो आसमां को ज़मीं पर उतार लाएं/मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए.’ इसी तरह इश्क़ के विसाल में हिज्ऱ का डर भी उनकी शायरी से बयां होता है, जब वे कहती हैं- ‘तुझसे बिछड़े हैं तो अब किससे मिलाती है हमें/जि़ंदगी देख ये क्या रंग दिखाती है हमें’. इश्क़ से पैदा होने वाली ख़लिश भी उनके यहां कुछ ऐसे जु़बां पाती है- ‘तुझको रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमां न हुए/इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने.’ तो मेरे कहने का मतलब यह है कि जब तक सारी ग़ज़लें एक साथ उसी क्रम में रखकर आप न सुनें, उमराव ज़ान का कैरेक्टर ही खुलता नज़र नहीं आएगा. पहली ग़ज़ल से लेकर आखि़री मुजरे तक उमराव जान की पूरी जि़ंदगी का फलसफ़ा शायरी और संगीत के द्वारा ही उभारने का काम हम लोगों ने किया था. शायद इसीलिए इसके गाने आज भी सुनने वालों को रूह तक उतरे हुए महसूस होते हैं.
यह काफ़ी हद तक एकदम न्याय-संगत और संवेदनशील आकलन है, जिसके माध्यम से किसी फि़ल्म को कुछ गंभीर एवं प्रासंगिक गीत सुलभ हो सके हैं.
इस लिहाज़ से उमराव जान के किरदार के लिए रचे गए, फि़ल्म के तीन प्रमुख मुजरा गीत, दो बेहतरीन क़ता एवं दर्द में डूबी हुई एक नायाब ग़ज़ल- ऐसी सुंदर सांगीतिक निर्मिति के रूप में बदल चुकी हैं, जो संगीत के इतिहास में एक स्थायी छाप छोड़ने में सफल रही हैं. फि़ल्म का पहला ही मुजरा ‘दिल चीज़ क्या है आप मेरी ज़ान लीजिए’ इतनी संवेदनशीलता के साथ स्वरबद्ध किया गया है, जिसका कोई सानी नहीं. यह ग़ज़ल राग बिहाग पर आधारित है तथा इसमें कहरवा ताल के विविध ठेकों का सुंदर प्रयोग भी दिखाई देता है. ग़ज़ल की पूरी संरचना में सारंगी सबसे मुख्य वाद्य के रूप में उभरी है, जिसकी संगति में सितार, तबला और घुंघरू की जुगलबंदी देखते ही बनती है. इस मुजरे में सारंगी और घुंघरू का लयात्मक इस्तेमाल, इसकी नृत्यात्मकता में तो इज़ाफ़ा करता ही है, उसकी कर्णप्रियता को भी रोचक ढंग से विस्तृत करता है. ग़ज़ल को ध्यान से सुनने पर गीत के मध्य आए इंटरल्यूड्स में स्वर-मंडल का प्रयोग भी अद्भुत ढंग से बुना गया है. कुल मिलाकर ‘दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए’ एक ऐसी सुघर संरचना में तब्दील होती है, जिसको बार-बार सुनने का मन होता है. पहली ही पंक्ति को आशा भोंसले ने दो टुकड़ों में, पहले- ‘दिल चीज़ क्या है’, बाद में ‘आप मेरी ज़ान लीजिए’ जिस तरह मींड़ और मुरकी के जबर्दस्त इस्तेमाल से अलग करके एक ही लड़ी में पिरोया है, वह सुनकर ही महसूस किया जा सकता है. पूरे ग़ज़ल में आशा भोंसले की आवाज़, सारंगी और घुंघरू का उसके साथ आत्मीय बहाव, साथ ही मध्यवर्ती संगीत में एक निश्चित अंतराल पर स्वर-मंडल का आना गीत को उस असाधारण ऊंचाई पर पहुंचा देता है, जहां इससे पहले जल्दी-जल्दी कोई मुजरा पहुंच नहीं सका.
ठीक पहले मुजरे की तरह ही फि़ल्म के दूसरे मुजरे ‘इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं’ का विन्यास भी रचा गया है. इस ग़ज़ल में भी पहले की तरह ही सारंगी, सितार, तबला और घुंघरू का मनोहारी संयोजन देखते ही बनता है. यह मुजरा राग भूपाली पर आधारित है, परंतु प्रत्येक अंतरे के मध्य में शुद्ध मध्यम का ख़ूबसूरती के साथ किया गया प्रयोग इसमें राग यमन कल्याण (जैमिनी कल्याण) की छाया भी दिखा रहा है. इसमें कहरवा ताल को मध्य लय में बजाया गया है, जो ग़ज़ल में आई हुई शब्दावली को पर्याप्त अवकाश सुलभ कराता है कि सुनने वाले ग़ज़ल के हर मिसरे पर पूरी तरह ठहरकर आगे बढ़ सकंे. इस ग़ज़ल की अतिरिक्त सुंदरता शहरयार की क़लम की वजह से भी संभव हुई है, जो पूरी ग़ज़ल में परिलक्षित होती है. उदाहरण के लिए ग़ज़ल के दूसरे अंतरे को सुनना चाहिए, जहां यह कहा जा रहा है- ‘इक सिर्फ़ हमीं मय को आंखों से पिलाते हैं/कहने को तो दुनिया में मयख़ाने हज़ारों हैं’. शायरी की इतनी नाज़ुक अभिव्यक्ति भी कहीं इस ग़ज़ल को वह मुलायमियत बख़्शती है, जो गीत के पूरे कलेवर में फैले आस्वाद को बढ़ाता है. इसी समय बरबस इस ग़ज़ल पर रेखा की हल्की-हल्की नृत्य-भंगिमाओं के साथ किया गया मुजरा याद आता है, जो देखते हुए अपने संपूर्ण प्रभाव में बेहद सुरूर पैदा करने वाला लगता है.
फि़ल्म में आशा भोंसले की गाई हुई एक अद्भुत ग़ज़ल भी थी, जिसके बोल हैं- ‘जु़स्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने’. यह फि़ल्म की एकमात्र ऐसी ग़ज़ल है, जो ग़ज़ल की तरह ही पेश की गई है. इसके लिए कोई मुजरा का दृश्य नहीं रचा गया, बल्कि उसे महफि़ल में बैठी हुई तवायफ़ के द्वारा भावपूर्ण ढंग से गवाया गया है. हालांकि इस तरह के ग़ज़ल के संयोजन को हम फि़ल्मी अर्थों से अलग, संगीत की पारंपरिक शास्त्रीय शब्दावली में ‘बैठकी महफि़ल’ का एक सुंदर उदाहरण मान सकते हैं. कारण यह कि गाने वाली बाइयों व तवायफ़ों के यहां किसी महफि़ल में बैठकर ठुमरी, दादरा, सादरा, होली, मुबारकबादी, सोहर-बन्ना एवं ग़ज़ल आदि के सुनाने को ‘बैठकी महफि़ल’ के अंतर्गत गिना जाता है. इस लिहाज़ से उमराव जान में ‘जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने’ को इसी शैली में फि़ल्माने का उपक्रम, नवाबी दिनों की इस रवायत को कहीं प्रासंगिक अर्थों में व्यक्त करता है. इस समय यह याद करना भी महत्वपूर्ण होगा कि कुछ अन्य फि़ल्मी महफि़ल गीतों में इसी बैठकी-महफि़ल का सुंदर स्थापत्य रचा गया है. जैसे- ‘कजरारी मतवारी मदभरी दो अंखियां’ (नौबहार), ‘उनको ये शिकायत है कि हम कुछ नहीं कहते’ (अदालत), ‘रहते थे कभी जिनके दिल में’ (ममता) एवं ‘चलते-चलते यूं ही कोई मिल गया था’ (पाकीज़ा) कुछ बेहतरीन मुजरा गीत इस बात के सफलतम उदाहरण रहे हैं.
यह ग़ज़ल वैसे तो राग बिहाग के स्वरों पर आधारित है, मगर चलन की दृष्टि से देखें, तो यह पूरी तरह बिहाग नहीं है. मूलतः दादरा ताल पर निबद्ध इसकी संरचना सितार, सारंगी, तबला एवं स्वर-मंडल के सुरों की आपसी संगति से निर्मित होती है. ग़ज़ल की पूरी बनक थोड़ी गंभीरता के साथ ग़म का माहौल रचती है. लगता है कि जैसे यहां अदाकारा के माध्यम से संगीतकार ग़ज़ल के कलेवर में कोई ऐसा असर पैदा करना चाहता है, जो सोज़ख़्वानी के क़रीब लगती है. और इसी तरह की मिलती-जुलती कैफि़यत उस कता की भी है, जो फि़ल्म में इस गीत के तुरंत पहले फि़ल्माई गई है. आप ग़ौर करें, तो पाएंगे कि ‘जब भी मिलती है मुझे अजनबी लगती क्यूं है/जि़ंदगी रोज़ नए रंग बदलती क्यूं है’ का भाव विस्तार ही ‘जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने’ में जाकर व्यक्त हुआ है. इसी भाव को फि़ल्म की दूसरी क़ता भी स्वर देती है, जब उमराव जान अकेले ही दर्द में डूबी अपने कोठे पर यह गुनगुना रही होती हैं- ‘न जिसकी शक्ल है कोई न जिसका नाम है कोई/इक ऐसी शय का क्यूं हमें अज़ल से इंतज़ार है’.
फि़ल्म का सबसे महत्वपूर्ण गीत इसका अंतिम मुजरा है. कथानक के लिहाज़ से भी इसका
फि़ल्मांकन इतने भावनात्मक स्तर पर जाकर संभव किया गया है कि उसका पूरा संयोजन ही अलग से विमर्श की बात लगती है. ‘ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है’ ग़ज़ल को आशा भोंसले ने अपनी आवाज़ से इतना दर्द भरा बनाया है कि फि़ल्म से अलग इसे कभी रेकार्ड या रेडियो आदि से सुनने पर भी उसमें मौजूद पीड़ा और ग़म की एकदम भीतर तक धंसी हुई पुकार समझ में आती है. लगता है जैसे ख़य्याम और शहरयार दोनों ही ने मिलकर फि़ल्म के लिए मुजरा या ग़ज़ल नहीं बल्कि पूरी तरह मर्सिया ही रचा है. मुजफ़्फ़र अली भी इस मुजरे के संदर्भ में कहते हैं-
यह ग़ज़ल हमारी फि़ल्म का इमोशनल क्लाइमेक्स है. किसी फि़ल्म के लिए आप चाहकर भी ऐसी ग़ज़ल लिखवा नहीं सकते. शायरी को जब तक आप एहतराम के उस ऊपरी स्तर तक नहीं ले जाएंगे, तब तक वह आपके दिल की धड़कन नहीं बनेगी. हर आदमी का दिल पाक-साफ़ ही होता है. उसी तरह मौसीक़ी और शायरी का भी दिल होता है- पाक-साफ़ और गहरा. इस ग़ज़ल में वह बात पूरी तरह खुलकर सामने आती है.’
इस गीत के संदर्भ में यह कहना मुश्किल-भरा होगा कि इसकी गायिकी नायाब है अथवा ग़ज़ल के बोल अप्रतिम हैं या कि पूरे मुजरे के लिए बनाई गई धुन असरकारी है. सब चीज़ें आपस में मिल-जुलकर एक ऐसी कलात्मक पराकाष्ठा पर जाकर इस अकेली ग़ज़ल में संघनित हुई है कि उसका अलग-अलग स्तरों पर मूल्यांकन कठिन काम लगता है. राग यमन कल्याण और बिहाग के सहमेल पर आधारित इस गीत को कहरवा ताल के मध्य-लय के ठेके पर रचा गया है. एक बार फिर से शब्दों की अर्थान्विति को अलग-अलग स्पष्ट करने के लिए मध्य-लय के ठेके का चुनाव कहीं ग़ज़ल की गरिमा को और भी अधिक संप्रेषणीय बनाता है. कहना न होगा कि आशा भोंसले के पूरे संगीत-कैरियर में शायद यह ग़ज़ल अलग से चमकती हुई दिखाई पड़ती है. उन्होंने ख़य्याम और जयदेव के लिए फि़ल्मों एवं गैर-फि़ल्मों, दोनों ही तरह से ढेरों मक़बूल ग़ज़लें गायी हैं, परंतु उमराव जान की इस ग़ज़ल का वितान तो जैसे गायिकी में भी पुरानी सारी मान्यताओं को एकबारगी ध्वस्त कर डालता है. इस ग़ज़ल की शब्दावली पर भी ग़ौर करना चाहिए, जो कि पूरी तरह सोज़ (दुख) का माहौल रचने में उत्प्रेरक की तरह काम करती है. शहरयार की क़लम यहां उस पूरे परिवेश, मानवीय रिश्तों के जटिलतम अंतर्विरोधों एवं एक तवायफ़ की बेचारगी को जिस तरह नुमायां करती है, उसे पढ़ते और सुनते हुए कहीं बहुत गहराई से क्षोभ होता है. आप ग़ज़ल की इन पंक्तियों को बहुत हल्के से स्पर्श करें तो सहसा यह पाएंगे कि उसमें मौजूद पीछे छूट गए बचपन की अनादि वेदना, बिसर गई यादों की छटपटाहट, रिश्तों में बैठ गई सीलन भरी दरारों से उत्पन्न कसक और रूह के सन्नाटे को तोड़ती हुई एक उदास सरगम- सभी कुछ एक साथ संभव हो रहे हैं. ग़ज़ल के मिसरे यूं हैं-
ये किस मक़ाम पर हयात मुझको ले के आ गई
न बस ख़ुशी पे है जहां न ग़म पे अखि़्तयार है
तमाम उम्र का हिसाब मांगती है जि़ंदगी
यह मेरा दिल कहे तो क्या कि ख़ुद से शर्मसार है
बुला रहा है कौन मुझको चिलमनों के उस तरफ़
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेक़रार है
ये क्या जगह है दोस्तो ये कौन सा दयार है
हदे निग़ाह तक जहां गुबार ही गुबार है
रूह तक उतरी हुई ग़म में डूबी इस ग़ज़ल में सारंगी की उपस्थिति जहां इसकी पीड़ा को और भी ज्यादा गाढ़ा करती है, वहीं घुंघरू की आवाज़ भी जैसे तवायफ़ की बेचारगी को पूरे कसक के साथ अभिव्यक्त कर डालती है. व्यक्तिगत रूप से मेरी अवधारणा इस मुजरे के संदर्भ में यह रही है कि बरसों में जाकर कहीं ऐसा गीत व संगीत रचा जाता है, जिसकी मिसाल वह स्वयं बनता है और उसे चुनौती कोई दूसरा गीत फि़र जल्दी से दे नहीं पाता. आज़ यदि शहरयार, ख़य्याम एवं आशा भोंसले मिलकर ऐसा जादू फिर जगाना चाहें, तो वह मुश्किल से संभव होगा. यह भी बहुत संभव है कि ‘ये क्या जगह है दोस्तो’ जैसी चीज़ फिर भी न बन पाए. जैसा कि ख़य्याम के संगीत के संदर्भ में मैंने कहा हुआ है कि वह ऐसे रेशमी धरातल पर संभव होता रहा है, जो बस हाथ से फिसल-फिसल जाने को तत्पर दिखता है. अतः उसी धरातल पर ग़ज़ल की यह मर्सिया सरीखी लाजवाब अभिव्यक्ति कभी भी उसके अपने फ़नकारों के हाथ से छूटकर दूर जा सकती है.
ख़य्याम की धुनों पर लाजवाब पकड़ के संदर्भ में मुजफ़्फ़र अली का यह बयान भी उमराव जान की सांगीतिक गंभीरता को और भी अधिक समृद्ध करता है. वे कहते हैं.
ख़य्याम साहब का संगीत रूह तक उतरने वाला संगीत है. उनके साथ मौसीक़ी में बेइंतहा डूबकर मैं कोई तीसरी ही चीज़ निकाल लाता हूं, जो एक अजीब सी ख़लिश पैदा करती है. मुझे याद है कि उमराव जान से अलग उन्होंने मेरी फि़ल्म ज़ूनी (अधूरी) के लिए कमाल की ग़ज़लें आशा जी के साथ कंपोज़ की थीं. वे ग़ज़लें सोज़ को बयां करने में इतनी गहरी बन पड़ी हैं, कि उनको सुनकर आप अंदाज़ा ही नहीं लगा सकते कि क्या शाहकार काम इस संगीतकार ने कर दिया है. मुझे उसकी एक ग़ज़ल परेशान किए रहती है और ठीक से जीने भी नहीं देती. उसके बोल हैं- ‘जीने की कोई राह दिखाई नहीं देती बाबा मेरे बाबा/वरना मैं कभी ऐसी दुहाई नहीं देती बाबा मेरे बाबा.’ इस ग़ज़ल के अंत में आशा जी ने एक हिचकी ऐसी ली है, जिसे सुनकर आप बार-बार रोएंगे. मेरे लिहाज़ से ज़्ाूनी और उमराव जान ख़य्याम साहब की मौसीक़ी का भी सबसे बड़ा मक़ाम हैं.
यह सुनकर अनायास ही जूनी के उन गीतों को सुनने की उत्कंठा कई गुना बढ़ जाती है, जिसने ख़य्याम का उमराव जान वाला संगीत सुन रखा है. पर अफ़सोस यह कि संगीतकार और निर्देशक ने मिलकर इस फि़ल्म का दुर्लभ संगीत, रेकाॅर्ड या डिस्क पर अभी तक जारी नहीं किया है.
ग़म के इस माहौल को बदलते हुए फि़ल्म के उस बेहद लुभावने ब्याह गीत की व्याख्या भी करना चाहिए, जो अवध के लोक-संगीत की बनक लिए हुए फि़ल्म में उपस्थित है. जगजीत कौर एवं साथी स्वरों की आवाज़ में ‘काहे को ब्याहे बिदेस अरे लखिया बाबुल मोरे’ एक ऐसा सुंदर संयोजन है, जो उत्तर प्रदेश के विवाहोपरांत विदाई गीत का कलेवर अपने में समेटे हुए है. यह ग़ौरतलब है कि इस मशहूर गीत को हिंदी के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि अमीर ख़ुसरो ने रचा है, जिसके विभिन्न पाठ अवधांचल की वाचिक परंपरा में भी उपलब्ध रहे हैं. यह जानना भी समीचीन है कि मुख्य रूप से लोक-संगीत के आधार पर गाए जाने वाले इस पारंपरिक गीत को फि़ल्मों के अलावा उप-शास्त्रीय गायन एवं सूफ़ी संगीत की दुनिया में भी पहचान हासिल है. उत्तर प्रदेश के ज्यादातर सोहर, बन्ना, कजरी, झूला, बारामासा गीतों में जिस दीपचंदी ताल का प्रयोग किया जाता रहा है, उसी ताल में ख़य्याम ने इस गीत को बांधा है. ठीक इसी तरह लोक-संगीत का आस्वाद पकड़ने के लिए इसमें शहनाई, घुंघरू, ढोलक और ढफ़ली का सुंदर सामंजस्य रचते हुए संगीतकार ने राग तिलक कामोद को आधार बनाकर ‘काहे को ब्याहे बिदेस’ सिरजा है. जगजीत कौर की अत्यंत भाव-प्रवण आवाज़ इस गीत का वह अतिरिक्त आकर्षित करने वाला पहलू रही है, जिसने ढोलक और ढफली के साथ शहनाई के सुरों पर बिदाई को चरम अभिव्यक्ति प्रदान की है. शायद ऐसे गीत हिंदी फि़ल्म संगीत के कैटलाॅग में बहुत कम हैं, और जहां कहीं भी उपलब्ध हैं, अपना अमिट प्रभाव छोड़ते हैं. स्वयं ख़य्याम ने ऐसे लोक-संगीत में पगे हुए कुछ बेहतरीन गाने बनाए हैं, जो उमराव जान के इस गीत की तरह का आस्वाद उन फि़ल्मों के कथानक के अनुसार रचते हैं. मसलन ‘गोरी ससुराल चली डोली सज गई शगुनों वाली’ (शगुन), ‘साडा चिडि़यां दा चम्बा वे’ (कभी-कभी), ‘चले आओ सैयां रंगीले मैं वारी रे’ (बाज़ार) एवं ‘हरियाला बन्ना आया रे’ (रजि़या सुल्तान) जैसे गीत.
उमराव जान के लिए रचित ‘काहे को ब्याहे बिदेस’ के संदर्भ में इस तथ्य को रेखांकित करना भी आवश्यक लगता है कि हम यह याद कर सकें कि इसी बंदिश ‘काहे को ब्याहे बिदेस रे सुन बाबुल मोरे’ को संगीतकार अज़ीज़ ख़ां ने फि़ल्म हीर रांझा (1948, निर्देशकः वली साहब) के लिए लता मंगेशकर की आवाज़ में स्वरबद्ध किया था, जो आज भी ढूंढ़ने से सुनने को मिल जाता है. इस तथ्य के साथ एक दिलचस्प पहलू यह जुड़ा है कि इस फि़ल्म से बतौर संगीतकार ख़य्याम भी जुड़े थे. यह वह समय था, जब वे अपने मित्र के साथ मिलकर ‘वर्मा जी-शर्मा जी’ जी नाम से फि़ल्मों में संगीत दिया करते थे. इस फि़ल्म में भी वे ‘वर्मा जी-शर्मा जी’ नामकरण के अंतर्गत मौजूद थे, जबकि दूसरे संगीतकार के रूप में अज़ीज़ ख़ां की उपस्थिति देखी जा सकती है. हालांकि उमराव जान के संदर्भ में प्रयुक्त हुई इस बंदिश के बारे में यह जानना भी ग़ौरतलब है कि फि़ल्म के निर्देशक मुजफ़्फ़र अली ने इस संदर्भ में मुझे व्यक्तिगत रूप से यह बताया है कि इस गीत को उन्होंने ही चुनकर संगीतकार को रचने के लिए दिया था. ख़य्याम साहब के मुताबिक, जो उन्होंने मुझसे साझा किया कि दरअसल इस गीत की धुन तो पारंपरिक ही रही है, जिसे उन्होंने उठाया था. उनके अनुसार इस गीत को सिर्फ़ उन्होंने सज़ाया भर है, यह अलग बात है कि जगजीत कौर की आवाज़ की पाकीज़गी ने इस विदाई गीत को ख़ास बना दिया है.
‘काहे को ब्याहे बिदेस’ से अलग एक दूसरे धरातल पर राग तिलक कामोद पर ही आधारित झूला की एक सुंदर बंदिश ‘झूला किन्ने डाला रे अमरइयां’ को ख़य्याम ने शाहिदा ख़ान की आवाज़ में गवाया था. कहरवा ताल के एक प्रकार धुमाली ताल पर रचित इस झूला में शाहिदा ख़ान ने अपनी गायिकी का सुंदर रूप प्रस्तुत किया है. इसे सुनते हुए बरबस ही पाकीज़ा के लिए राजकुमारी का गाया हुआ ‘नजरिया की मारी मरी मोरी गुईयां’ याद आता है.
फि़ल्म में पुरुष स्वर में अकेली एक ग़ज़ल तलत अज़ीज के स्वर में ‘जि़ंदगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें’ मौजूद थी, जिसकी सहज रवानी आज भी मन को छू जाती है. इस ग़ज़ल ने उस समय लोकप्रियता के स्तर पर भी अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराई थी. तलत अज़ीज़ की गले की तैयारी और उससे निकलने वाली सधी लयकारी के साथ ग़ज़लों के लिए पूरी तरह मुनासिब उनकी आवाज़ ने इस ग़ज़ल को गायिकी के स्तर पर ख़ूबसूरत बना दिया है. फिर भी, उमराव जान के संदर्भ में यह कहने का मन होता है कि आशा भोंसले के द्वारा गाई हुई ग़ज़लों के सामने यह ग़ज़ल उस स्तर पर टिक नहीं पाती.
उमराव जान के गीतों की चर्चा के समय अक्सर जिस सबसे सुंदर कंपोजीशन को संगीत समीक्षक नज़रअंदाज़ करते हैं, वह फि़ल्म के लिए संजोया गया राग-माला गायन है. जहां इसे फि़ल्म में रेखा और प्रेमा नारायण की संगीत तालीम के संदर्भ में फि़ल्माया गया है, वहीं गायन के स्तर पर इसे उस्ताद गु़लाम मुस्तफ़ा ख़ां, शाहिदा ख़ान, रूना प्रसाद एवं साथियों ने स्वर दिये हैं. पूरी राग-माला को ऐसे क्रम में इस तरह संगीतबद्ध किया गया है कि फि़ल्म के कथानक के अनुसार यह दिखाया जा सके कि प्रातः भोर से ही तवायफ़ों का जो संगीत और नृत्य का रियाज़ आरंभ कराया जाता है, वह पूरे दिन के आठों प्रहर से होता हुआ देर रात्रि के अंतिम प्रहर में जाकर समाप्त होता है. इस तरह पूरे दिन के संयोजन में सारे रागों की तालीम के साथ-साथ साधना का वह उच्च आदर्श भी निर्मित किया जाता है, जिसके अंतर्गत कोई तवायफ़, नर्तकी या गवैया अपनी तालीम को सुदृढ़ करता है. इस संदर्भ में ख़य्याम ने पूरी दक्षता दिखाते हुए सुबह के पहले प्रहर के राग रामकली से लेकर अंत भैरवी में जाकर किया है, जो किसी भी सभा, संगति या महफि़ल का ही अंतिम राग नहीं है, बल्कि वह रात्रि के अंतिम प्रहर में जाकर उषा-काल का राग भी बनता है. इस तरह रागों के द्वारा रियाज़ का चक्र पूरा करने के दृश्यांकन के सहारे फि़ल्म में कोठों और संगीत की रवायत पर भी यह राग-माला प्रभावी ढंग से रोशनी डालती है. राग-माला गायन फि़ल्म में इस तरह बढ़त लेती है- ‘प्रथम धर ध्यान दिनेस ब्रह्मा विष्णु महेस’ (राग रामकली, गायन समयः सुबह 6-8 बजे तक), ‘अब मोरी नैया पार करो तुम हज़रत निजामुद्दीन औलिया’ (राग मियां की तोड़ी, गायन समयः सुबह 8 से 10 बजे तक), ‘सगुन विचार आयो बमना कब पिया आएं मोरे मंदिरवा’ (राग शुद्ध सारंग, गायन समयः दिन में 10-12 बजे तक), ‘बिरज में धूम मचायो कान्हा कैसे घर जाऊं अपने धाम’ (राग भीमपलासी, गायन समयः दोपहर 2 से सायं 4 बजे तक), ‘दरसन दो शंकर महादेव, महादेव तिहारी शरण बिना मोहे कल न परत घरि पल छिन दिन’ (राग यमन कल्याण, गायन समयः सायं 6 बजे), ‘पकड़त बैंया मोरी बनवारी चुडि़यां करक गईं सारी अनारी’ (राग मालकौंस, गायन समयः रात्रि 12 बजे से 3 बजे तक) ‘बांसुरी बाज रही धुन मधुर कन्हैया, खेलत जावत हो’ (राग भैरवी, गायन समयः रात्रि का अंतिम प्रहर अर्थात उषा-काल, प्रातः 4 बजे).
इतनी शास्त्रीयता के साथ उपर्युक्त बंदिशों के टुकड़ों को आपस में तीन ताल में गूंथते हुए राग रामकली के आलाप और गायन से शुरू होकर मियां की तोड़ी, शुद्ध सारंग, भीमपलासी, यमन कल्याण, मालकौंस और भैरवी के सुरों में उस्ताद गुलाम मुस्तफ़ा ख़ां और साथियों ने मिलकर उमराव जान के लिए एक ऐसा सांगीतिक ख़ज़ाना रच दिया है, जो ख़य्याम के हुनर पर भी सार्थकता का एक अमिट ठप्पा लगाता है. यह देखना दिलचस्प है कि उमराव जान में प्रयुक्त हुई यह शास्त्रीय राग-माला संगीत और गायन के स्तर पर जितनी अद्भुत बन पड़ी है, उतनी ही मुखरता से कलात्मक अभिव्यक्ति वह अपने फि़ल्मांकन के दौरान भी करती है. इस फि़ल्म की रागमाला को सुनते हुए पूर्व में वसंत देसाई द्वारा बनाई झनक झनक पायल बाजे एवं नौशाद द्वारा रची गई बैजू बावरा की अप्रतिम राग-मालाएं स्मरण में कौंधती हैं. मुजफ़्फ़र अली ने मुझसे व्यक्तिगत संवाद में यह बताया है कि उमराव जान के लिए झूला-गीत तथा राग-माला का चयन और संयोजन पूरी तरह उस्ताद गु़लाम मुस्तफ़ा ख़ां साहब ने किया था, जिसे उनके सहयोग पर संगीतकार ने अंजाम दिया. हमें इतनी सुंदर बंदिशों को सुनते हुए यह ध्यान रखना चाहिए कि उस्ताद ग़ुलाम मुस्तफ़ा ख़ां रामपुर सहसवान घराने के ऐसे प्रतिनिधि गायक रहे हैं, जिन्होंने प्राचीन ढंग के मूच्र्छना पद्धति के जाती-गान में भी सिद्धहस्तता अर्जित की थी. साथ ही यह जानना प्रासंगिक है कि उन्हें इस तरह की तालीम, संगीत के मर्मज्ञ आचार्य स्व. पंडित कैलाशचंद्र देव ‘बृहस्पति’ द्वारा प्राप्त हुई थी.
इस फि़ल्म के संगीत पक्ष को व्याख्यायित करते समय जिन पहलुओं की ओर निग़ाह अलग से जाती है, उसमें सारंगी की मुखर उपस्थिति ने फि़ल्म के संगीत को अलग से गरिमा प्रदान करने में मदद की है. यह सब इन्दौर घराने के मशहूर सारंगी-वादक उस्ताद सुल्तान ख़ां की कला का करिश्मा है, जो उन्होंने उमराव जान के समस्त गानों में अपनी बेजोड़ सारंगी द्वारा पैदा किया है. ख़य्याम साहब के मुताबिक सारंगी में सुल्तान ख़ां का साथ उस्ताद इकबाल ख़ां ने भी दिया था, जबकि तबले पर मशहूर कलाकार उस्ताद शराफ़त ख़ां साहब मौज़ूद थे. यह जानना दिलचस्प है कि शराफ़त ख़ां साहब आज की संगीतकार जोड़ी साजि़द-वाजि़द के वालिद थे.
सारंगी के अतिरिक्त जिस दूसरी चीज़ ने फि़ल्म के संगीत में बेशुमार खनक भरी है, वह घुंघरू का लयदार काम है. यह देखना अचंभित करता है कि घुंघरू को एक सह-वाद्य की तरह लगभग सारे मुजरा गीतों में एक सधी नृत्यात्मक लय में बजाया गया है, जिसके कारण यह आभास मिलता है कि घुंघरू धुन के हिसाब से बज नहीं रही, बल्कि वह तवायफ़ के पैरों में बंधी हुई मुजरा गीतों के समानांतर नृत्य की सरगम में आगे बढ़ रही है. एक हद तक घुंघरू का यह काम अवध के उन कथक घरानों की नृत्य शैली से प्रेरित है, जहां परंपरा में बेजोड़ कि़स्म के ततकार का अभ्यास किया जाता रहा है. यह जानना भी मौजूं होगा कि उमराव जान के लिए नृत्य निर्देशन कथक के दो अप्रतिम नर्तकों एवं गुरुओं क्रमशः गोपीकृष्ण एवं कुमुदिनी लखिया ने किया था. इन सबकी अद्भुत जुगलबंदी के चलते कलात्मकता और शास्त्रीयता के आपसी सहकार के तहत विकसित होकर जादू की तरह असर करने वाले इस फि़ल्म के संगीत की रौनक दिन-ब-दिन बढ़ती ही गई है. उमराव जान को सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायिका एवं सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री की श्रेणी का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया जाना भी इन्हीं कारणों की वजह से वाजि़ब लगता है.
इस पीरियड फि़ल्म के संगीत का वैभव बढ़ाने में इसके कथानक के अनुसार की गई कला-
सज्जा, सेटों एवं नवाब-कालीन इमारतों का भी परोक्ष रूप से योगदान रहा है. फि़ल्म में मुजरा गीत, यथार्थ के धरातल पर इसलिए संभव होते नज़र आए क्योंकि वहां उस दौर के मुताबिक संगीत रचने के अलावा तवायफ़ों द्वारा पहने जाने वाले पेशवाज़ (नृत्य की एक पारंपरिक वेशभूषा जिसमें लहंगे या अंगरखे के साथ नीचे चूड़ीदार पायजामा पहना जाता है) का भी सटीक चित्रण किया गया था. इसके अतिरिक्त पूरी महफि़ल में कोठे की रवायत को दर्शाने वाले आलीशान फ़ानूस, ईरानी गलीचे, पुराना समय बयां करने के लिए प्रयोग में लाई गईं बग्घियां, पानदान, हुक्के, चिक वाले परदे एवं पुरुषों द्वारा पहनी गई शेरवानी, नवाबी टोपियां, जामेवार के उत्कृष्ट दुशाले, फर्शी गरारे, बिसरा दिए गए अवध में प्रचलित ढेरों ऐसे जेवरात, मसलन-आरसी, पहुंची, तोड़ा, छंदी, पछेला, तौंक, हमेल, झूमर, छड़ा एवं पाजेब, जो अब सिर्फ़ इतिहास की किताबों में ही मिलते हैं, ने उमराव जान की सांगीतिक चित्रात्मकता को पराकाष्ठा पर जाकर व्यक्त किया है. यह सब मिलकर इसके गीतों की इतनी प्रामाणिक चाक्षुष अभिव्यक्ति करते हैं, जो सिर्फ़ फि़ल्म को देखते हुए ही आंकी जा सकती है.
ख़य्याम ने फि़ल्म संगीत की दुनिया में अपनी एक अलग शैली,
अपनी एक अलग रहगु़जर और अपनी एक अलग वैचारिकी बनाई है,
जो उनकी ऐसी फि़ल्मों के माध्यम से पूरी पुख़्तगी के साथ व्यक्त होती रही है. निश्चित ही उमराव जान के संगीत को सलाम करने का मन होता है. साथ ही शहरयार के शब्दों में इसके गीतों के लिए यह बार-बार कहने की उत्सुकता जागती है- ‘
इस अंजुमन में आपको आना है बार-बार…दीवार-ओ-दर को ग़ौर से पहचान लीजिए’.
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(हिंदी सिनेमा के संगीत इतिहास को आधार बनाकर लिखी गई यतीन्द्र मिश्र की किताब हमसफ़र से) ———
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