जब कुछ मतिमूढ़ लोग प्रेमियुगलों पर आक्रामक थे, जे.एन.यू के छात्र–छात्राओं ने एक परम्परा शुरू की, १४ फरवरी की रात प्रेम कविताओं के काव्य-पाठ के आयोजन की. यह सार्थक प्रतिवाद है. परम्परा में भी वसंतोत्सव मनाने का चलन रहा है जो एक तरह से ‘मदनोत्सव’ ही था. समालोचन, कवयित्री सुमन केशरी की कुछ प्रेम कविताओं के साथ इसी परम्परा में है.
सुमन जी की पहचान मिथकों को वर्तमान अर्थवत्ता देने वाली एक विदुषी की है. पर ये कविताएँ अपनी सहजता में विस्मित करती हैं इसलिए कि प्रेम की प्रकृति सहजता की ओर है. ‘अति सूधो स्नेह को मारग हो’. एक विस्मय और कि कैसे इन कविताएँ ने एक युवतर स्त्रीमन की आकुलता, सूफियाना चाहत को अब तक संजो रखा है.
प्रेम को मनकों सा फेरता मनसुमन केशरी
आगरा से गुजरते हुए मन
ताज के अंधियाले तल में
पल भर रुकता है
गहरी साँस लेता
प्रेम को मनकों सा फेरता
बंध कर रह जाता है उसी डोर से
तुम मेरे जीवन में
वही डोर हो प्रिय
जिसमें गुंथे मनको को
मेरी उंगलियाँ
अहर्निश फेरा करती हैं
अनथक…
कभी कभी लगता है
तुम्हारे मन में
उसी तरह उतरूँ
जैसे उतरती हैं वर्षा की बूंदें
रिस रिस कर ढूहों के अंतर्तल में
ट्रेन से गुजरते हुए
अक्सर ही लगा
हाथ बढ़ाकर छू दूंगी
तो हरहरा कर गिर पड़ेंगी ये ढूहें
भेद खोलतीं अपने मन का
मैं कई बार उन ढूहों में उतरी
तुम्हे खोजते हुए
लगता कितना सरल है तुम्हें पा जाना
पर अक्सर ही ढूहें
दीवार सी खड़ी हो जाती हैं
जिसके गिर्द इतने रास्ते निकलते हैं
कि पता ही नहीं चलता
किस राह पे मुड़े हो तुम
तुम्हारे कदमों के निशान कभी नहीं मिले
इन ढूहों में मुझे
पर हाँ
तुम्हारे गंध से व्याकुल रहती हैं
यहाँ की हवाएँ
घटाएँ
मैं उन दीवारों के पार जाना चाहती हूँ प्रिय!
तुमसे मिलने से पहले
देखीं थीं मैंने
तुम्हारी आँखों की गहराई
चंबल के नील जल में
उसके गहरे जल में दफ्न हैं
हजारों हजारों साल पुरानी
हमारी ख्वाहिशें
वे ख्वाहिशें
जिन्हें मैं चाहती थी
नाव सी तिरें
हमारे मन में
तुमने छू दिया है
हाथ बढ़ाकर चंबल-जल धीरे से
देखो तो
तट पर कितनी बतखें
तैर रही हैं पंखों में गर्माहट भरे …
कभी ले चलो न चंबल-तट पर
मुझे प्रिय
तुम नहीं जानते
मैंने तुम्हें पहली बार
वहीं विचरते देखा था
एकाकी मन
तुम नहीं जानते
तुम्हे पिछुआती…खोजती …पुकारती
जाने कब से खड़ी हूँ मैं
एकाकी तन
मुझे मुझसे ही मिलवा दो न
चंबल-तट पर
मेरे प्रिय…
उस जल तक
जिसमें पकी थी कभी रसोई इस पार
और जिसे पी रहा था एक शेर उस पार
उसी समय जब खाना सींझ रहा था
चूल्हे पर इस पार
उस जल तक
मैं जाना चाहती हूँ तुम्हारे संग
प्रिय
देखो बस कुछ कदमों की दूरी पर बहता है वह जल…
सच में क्या?
सच में क्या?
सच में क्या?
तिघरा से होते हुए
दीख पड़ा
गुप्तेश्वर महादेव
कई कई बार सुना नाम गुप्तेश्वर
ठीक तुम्हारे मन की तरह
न खुला
न बंद
कितनी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं
वहाँ पहुँचने के लिए
फिर वापस खुद तक लौटने के लिए
जो कभी हो ही नहीं पाया
न कभी पहुँची
न लौटी ही
उस दिन भी
दीख पड़ा
गुप्तेश्वर महादेव
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