हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील परम्परा और समकालीन रचनाशीलता का वस्तुपरक विवेचन-मूल्यांकन करनेवाले आलोचकों में डॉ. नामवरसिंह पाठकों, समकालीन रचनाकारों और आलोचकों के बीच सर्वाधिक चर्चित रहे हैं. साहित्य की सैद्धांतिक आलोचना में जहां एक ओर उन्होंने पुराने रसवादी और नव-कलावादी मानदण्डों और मनोवृत्तियों से अनवरत संघर्ष किया, वहीं समकालीन आलोचना में उभरते सरलीकरणों और एकांगीपन का भी खुलकर विरोध किया. एक सहृदय पाठक और प्रबुद्ध रचनाकार के रूप में वे हिन्दी के नये रचनाकर्म के प्रति जितने सजग और संवेदनशील रहे हैं, अपने आलोचना-कर्म के प्रति वे उतने ही जवाबदेह भी.
लेखक के रूप में नामवरजी की पहली पहचान एक कवि के रूप में ही बनी थी – सन् 1940 से ’45 के बीच उन्होंने जमकर कविताएं लिखीं और उन कविताओं का एक संग्रह ‘नीम के फूल’ नाम से प्रकाशन के लिए तैयार भी हुआ, लेकिन किसी कारणवश प्रकाशित नहीं हो सका. इसी दौरान उन्होंने कुछ ललित निबन्ध और आलोचनात्मक लेख लिखने शुरू किये और उस काम में वे इतने रम गये कि जैसे और कुछ करने की फुरसत ही नहीं रह गई. सन् 1951 में उनकी जो पहली किताब प्रकाशित हुई वह थी ‘बक़लम खुद’, जिसमें उनके 17 निबंध संकलित हैं. उसके बाद सन् 1952 से ’57 के बीच उनकी ‘छायावाद’, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’, ‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’, ‘इतिहास और आलोचना’ आदि कई किताबें प्रकाशित होकर सामने आईं. ये सभी कृतियां उस जमाने में और बाद के सालों में हिन्दी आलोचना के क्षेत्र में सर्वाधिक चर्चित कृतियां मानी गईं. इसी क्रम में सातवें, आठवें और नौवें दशक में ‘कहानी नयी कहानी’, ‘कविता के नये प्रतिमान’, ‘दूसरी परम्परा की खोज’ और ‘वाद विवाद संवाद’ जैसी कृतियों के माध्यम से उन्होंने समकालीन साहित्य में ऐसी बहस का सूत्रपात किया, जिसकी अनुगूंज साहित्यिक हलकों में दूर तक सुनी गई.
साहित्य के गंभीर अध्येता और अग्रणी आलोचक के साथ ही नामवरजी की शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका रही है. एक शिक्षक के रूप में उन्होंने देश की अनेक बड़ी शिक्षण संस्थाओं जैसे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, सागर विश्वविद्यालय, जोधपुर विश्व-विद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्व-विद्यालय में जहां वर्षों हिन्दी भाषा और साहित्य के गंभीर पठन-पाठन में विद्यार्थियों का मार्गदर्शन किया, वहीं साहित्य की शिक्षण-प्रक्रिया और उसके पाठ्यक्रम को अद्यतन रूप देने में निर्णायक भूमिका अदा की है.
यही नहीं, आजादी के बाद के इन सालों में साहित्य–संस्कृति के साथ राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल, इस देश के सामाजिक परिवेश और उसमें राष्ट्र-नायकों की भूमिका, आर्थिक विकास की प्रक्रिया, भूमंडलीकरण, उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रसार और जन-संचार की बदलती भूमिका पर भी नामवरजी अपनी संपादकीय टिप्पणियों, लेखों और व्याख्यानों के माध्यम से वैचारिक बहस को बढ़ावा देते रहे हैं – वे उन खतरों से भी बराबर आगाह करते रहे हैं जो भारत जैसे विकासशील देश और तीसरी दुनिया के देशों के सामने चुनौती बनकर खड़े हैं.
साहित्य-परम्परा के पुनर्मूल्यांकन, नयी इतिहास-दृष्टि के निर्माण और समकालीन रचना-कर्म (नयी कविता और नयी कहानी) पर उनके नये विवेचन चर्चित और बहस-तलब रहे ही, उनके व्याख्यानों और साहित्य-संगोष्ठियों में दिये गये बयानों पर अक्सर हिन्दी जगत् में व्यापक प्रतिक्रिया हुई है. हिन्दी में वे अकेले ऐसे आलोचक-वक्ता हैं, जिनके वक्तव्य कई बार लिखे हुए शब्द की अपेक्षा कहीं बड़ी बहस का कारण बने हैं. यह भी एक तथ्य है कि आधुनिक काल में हिन्दी में जो भी महत्वपूर्ण रचनाकर्म सामने आया, उस पर नामवर जी की राय सबसे अधिक संजीदा, सामयिक और गौर-तलब मानी गई.
साहित्य-कला-संस्कृति और जन-संचार पर पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहने वाले लेखकों में सुधीश पचौरी हिन्दी के ऐसे लेखक हैं, जो एक समय जनवादी लेखक संघ के मुख्य संगठनकर्ता और मार्क्सवादी लेखकों में सबसे अधिक मुखर माने जाते थे. अपने आरंभिक लेखन के उसी दौर से उन्होंने नामवर सिंह की आलोचना-पद्धति पर विरोध के स्वर में बहुत-कुछ लिखा. अपने को उनसे अधिक क्रांतिकारी और सजग लेखक मानते हुए उन पर संशोधनवादी, पलायनवादी और वर्ग-सहयोगवादी होते जाने के आक्षेपों को खूब हवा दी, लेकिन अपने इसी मुखर अहंभाव के चलते जब मार्क्सवादी विचार और संगठन से खुद उनकी महत्वाकांक्षाएं टकराने लगीं, तो वे एकाएक उससे भी अलग जा खड़े हुए और पूंजीवादी प्रेस तथा व्यावसायिक पत्रिकाओं की गोद में बैठकर उसी सक्रियता से जनवादी सोच और प्रगतिशील परम्परा की जड़ें खोदने में जुट गये.
प्रगतिशीलता औैर जनवादी सोच को अब एकांगी, सीमित और समस्याग्रस्त मानने वाले यही सुधीश पचौरी इधर उत्तर आधुनिकतावादी लेखकों के संसर्ग में तर्क-वितर्क और अराजक भाषा के ऐसे-ऐसे खेल सीख गये हैं कि अब साहित्य और संस्कृति की दुनिया उनके लिए एक तरह का वाग्-विलास (डिस्कोर्स) होकर रह गई है, जिसे उन्होंने हिन्दी में विमर्श का पर्याय बनाकर प्रस्तुत किया है. उत्तर-आधुनिकतावाद की पैरवी के जुनून में अपने इन्हीं विमर्शों को वे अब किसी के भी विमर्श बनाकर पेश कर सकते हैं.
इन्हीं सुधीश पचौरीजी ने नामवरसिंह के अड़सठवें जन्म-दिवस पर एक ग्रंथ संपादित किया ‘नामवर के विमर्श’, जो प्रकारान्तर से उनकी उसी पुरानी ग्रंथि और किंचित् बदली हुई मानसिकता का परिचय देता है. व्यावसायिक वृत्ति वाले लेखक ऐसे अवसरों पर अक्सर अभिनंदन ग्रंथ की आयोजना कर लिया करते हैं, लेकिन सुधीश पचौरी चूंकि उत्त्र-आधुनिक हो चुके हैं, तो यह आयोजन वैसा अनुष्ठान बनने से बच गया. संकलित सामग्री के अपने महत्व के कारण उनके चाहे-अनचाहे यह एक ऐसा संग्रह अवश्य बन गया, जो समकालीन हिन्दी-आलोचना की केन्द्रीय चिन्ताओं और नामवरसिंह के अवदान पर गंभीरता से विचार करने का एक संयोग अवश्य प्रदान करता है.
इस ग्रंथ के प्रकाशन से पूर्व भी ‘पहल’, पूर्वग्रह’, ‘दस्तावेज’, ‘कहानी’, आदि पत्रिकाओं ने नामवर जी पर अलग-थलग अवसरों पर कुछ महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित की थी, जो पर्याप्त चर्चित रही, साथ ही रणधीर सिन्हा, नंदकिशोर नवल और डॉ. रामबक्ष ने अपने आलोचना-ग्रंथों में नामवरजी की आलोचना पद्धति और उनके अवदान पर काफी विस्तार से प्रकाश डाला. इन्हीं आलोचना ग्रंथों और पत्रिकाओं के विशेषांकों की काफी सामग्री यहां पुनः प्रस्तुत की गई, साथ ही पहले और दूसरे खंड में कुछ ऐसे भी आलेख पहली बार प्रकाशित हुए, जो नामवरसिंह के व्यक्तित्व और आलोचना-कर्म के कई अनछुए पक्षों को उजागर करते हैं. इस ग्रंथ के पहले खण्ड के कुछ संस्मरणात्मक आलेख वाकई लाजवाब हैं. लेकिन इसी ‘विमर्श’ खण्ड में कुछ नकारात्मक स्वर वाले आलेख भी शामिल किये गये हैं, जिनके चयन का कोई औचित्य स्पष्ट नहीं किया गया, न सम्पादक ने ही इन विवादी स्वर वाले आलेखों से उभरने वाले निष्कर्षों पर अपनी कोई राय-टिप्पणी प्रस्तुत की. वे चाहते तो ऐसी और सामग्री भी जुटा सकते थे, क्योंकि नामवरसिंह से असहमति रखने वाले लेखकों की तादाद भी कुछ छोटी नहीं है.
यह भी उल्लेखनीय है कि चौथे खण्ड में स्वयं संपादक सुधीश पचौरी ने नामवरजी को लेकर उनसे असहमति रखने वाले हिन्दी के दो वरिष्ठ लेखकों अशोक वाजपेयी और राजेन्द्र यादव के साथ काफी विस्तार से बातचीत की और वे स्वयं भी उस बातचीत में अपने प्रश्नों के जरिए नामवरजी के विरोध में उन्हें उकसाते हुए बहुत से मसलों पर ले गये हैं. अशोक वाजपेयी यों भी साहित्य-समय के सधे हुए खिलाड़ी हैं, इसलिए उन्हें प्रश्नों में घेर लेना इतना आसान नहीं होता, लेकिन राजेन्द्र यादव के अन्तर्विरोधी बयानों की हालत तो वाकई देखने लायक है.
कथा-आलोचना के क्षेत्र में नामवर जी के समीक्षा-कर्म को लेकर हिन्दी कथाकारों का एक वर्ग उनसे काफी अप्रसन्न रहा है – उनके समकालीनों में कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव और मोहन राकेश तो उनके कट्टर विरोधी थे ही, बाद की पीढ़ी के कथा-लेखकों को भी उनसे कुछ गंभीर शिकायतें रही हैं. नामवर जी की आलोचना-दृष्टि में कुछ बारीक असंगतियां देखने वाले आलोचक डॉ. मैनेजर पांडेय यह मानते हैं कि उन्होंने (नामवर जी ने) कहानी समीक्षा के विकास की जो सार्थक शुरूआत की थी, उसमें नवीनता और ताज़गी तो थी, कहानी की तात्विक आलोचना या शास्त्रीय समीक्षा से अलग हटकर वस्तुतात्विक विवेचन, संरचनात्मक विश्लेषण और कलात्मक मूल्यांकन का प्रयास भी किया, लेकिन उसमें जिस सहयोगी प्रयास और रचना-आलोचना संवाद की बात कही गई थी, उसका अंत कटु विवाद में ही हुआ. इसी विवाद की निरन्तरता के क्रम में कथाकार रमेश उपाध्याय तो उन्हें सुधीश पचौरी से भी बड़ा उत्तर-आधुनिकतावादी घोषित करते हुए उनकी कहानी-समीक्षा को कहानी के ही विरुद्ध मान बैठे. उनकी सबसे बड़ी शिकायत यह है कि नामवरजी कहानी में कथानक को ही अस्वीकार करते हैं, इसलिए वे ‘‘पश्चिम के उन मार्क्स- वाद विरोधी, यथार्थवाद विरोधी और यहां तक कि समस्त सोद्देश्य साहित्य और कला के विरोधी लेखकों के साथ जा खड़े होते हैं, जो पूंजीवाद के हित में कोई भी मिथ्या प्रचार कर सकते हैं और संसार की तमाम सुंदर चीजों को नष्ट कर सकते हैं.’’ इसी तरह मैनेजर पाण्डेय ने भी सन् 1974 के आसपास आलोचना में प्रकाशित संपादकीय आलेखों और ‘कविता के नये प्रतिमान’ में उनके दृष्टिकोण से कुछ बुनियादी असहमतियां जाहिर कीं.
साहित्य, संस्कृति और राजनीति के अन्तर्संबंधों पर विचार करते हुए नामवर जी ने लिखा था – ‘‘राजनीतिक परिवर्तन को लक्ष्य में रखते हुए भी एक लेखक के नाते वह अपनी रचनाओं के द्वारा सांस्कृतिक परिवर्तन की दिशा में सक्रिय होता है, क्योंकि सांस्कृतिक परिवर्तन के बिना राजनीतिक परिवर्तन कठिन है.’’ इस पर टिप्पणी करते हुए डॉ. मैनेजर पाण्डेय ने एक सैद्धान्तिक आशंका व्यक्त की थी कि सांस्कृतिक परिवर्तन के बगैर राजनीतिक परिवर्तन को कठिन कहना क्या प्रकारान्तर से बुनियादी बदलाव की प्रक्रिया में ऊपरी ढांचे को आधार से अधिक महत्व देना नहीं है ? पर यही बात जब फ्रेडिरिक एंगेल्स की तरफ से आती है तब शायद पाण्डेय जी को उस पर आशंका नहीं होती.
सुधीश पचौरी के इस आयोजन के पीछे दो कारण तो स्पष्ट नज़र आते हैं. पहला कारण है, नामवरसिंह पर केन्द्रित इस तरह की विवाद उपजाने वाली चर्चा के बहाने अपने को सम-सामयिक साहित्यिक परिदृश्य में प्रासंगिक बनाये रखने का उपक्रम और दूसरा, अपने अनुकूल विमर्शों की आड़ में नामवरजी को उत्तर-आधुनिकतावाद के खाते में खपा लेने की होशियारी. सुधीश पचौरी को डॉ. नामवर सिंह का आलेाचना-कर्म आज भी एक तरह से लीलाओं का दिलचस्प पाठ ही नज़र आता है और उनकी यह स्वीकारोक्ति भी दिलचस्प है कि “चूंकि ये मेरे पतन के दिन थे, इसलिए भी एक बड़े पतित से हमदर्दी होने लगी.\” (पृष्ठ-15) देखने की बात यह थी कि हिन्दी के व्यापक पाठक समुदाय से यह छोटा पतित अब तक कितनी हमदर्दी बटोर पाया. वैसे सुधीश पचौरी की उत्तर-आधुनिकतावादी सोच से उपजे एक अहम सवाल का उत्तर नामवरजी ने अपने साक्षात्कार में काफी नप़े-तुले शब्दों में दे दिया था, बशर्ते कि सुधीश पचौरी और उत्तर-आधुनिकतावादी इस पर गौर करना पसंद करते. वह सवाल-जवाब कुछ यों था –
“सुधीश पचौरी: जिसे आप बोलचाल, संवाद कहते हैं उसे हम डिस्कोर्स या विमर्श समझें और फूकोल्डियन डिस्कोर्स समझें, तो आरोप तो मैं नही कहूंगा, मगर मेरे मन में एक प्रश्न पैदा होता है कि जबसे आपने बोलना ज्यादा शुरू किया है, तब से साहित्य में राजनीति का विमर्श तो आप कर ही रहे हैं, लेकिन अब आप एक सत्ता का डिस्कोर्स भी कर रहे हैं. यह जो सत्ता का विमर्श आप कर रहे हैं तो साहित्य के अनुशासन के हेतु आप कर रहे हैं. आप इसमें जो साहित्य का अनुशासन हो रहा है, वह क्या बन रहा है?
नामवर सिंह: फूको का नाम लिया आपने. ज्ञान मात्र को उसने सत्ता के पर्याय के रूप में देखा है. यद्यपि मैं उस पूरे दर्शन को मानता नहीं हूं. सारे संघर्ष को सत्ता का संघर्ष ही मान लिया जाए तो ‘सत्य’ नाम की चीज़ तो रह नहीं जाएगी. ये हो जायेगा कि आज जो दमन करने वाले लोग हैं, जिनके हाथ में सत्ता है वो और दलित जो सत्ता में भागीदारी चाहते हैं, इसलिए दोनों समान रूप से दोषी होंगे. इसलिए साहित्य में वह कौन-सी सत्ता है, जिसको लेने के लिए, हथियाने के लिए संघर्ष चल रहा है, मैं नहीं जानता. मैं तो इतना ही जानता हूं, मेरी समझ में एक साहित्यकार के नाते जो ‘सच’ है उस सच का यदि गला घोंटा जा रहा हो, दबाया जा रहा हो, परदा डाला जा रहा हो तो हम कोशिश करते हैं कि कम से कम उसकी जितनी रक्षा की जा सके, की जाय. चूंकि मैं आलोचना ही लिखता हूं तो आलोचना में यही मेरा प्रयास होता है. (पृष्ठ-492-493)”
जाहिर था कि फूकोवादी डिस्कोर्स चलाने वालों को यह शालीन और सटीक उत्तर रास नहीं आया और आगे कभी इसकी कोई चर्चा चलाना भी उन्होंने कम ही पसन्द किया. उस आयोजन में इतना जरूर हुआ कि संपादक सुधीश पचौरी ने अपने पसन्दीदा चयन – अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव, गोविन्द द्विवेदी, कृष्णगोपाल वर्मा और ललित कार्तिकेय की आधी-अधूरी टिप्पणियों के माध्यम से अपने उद्देश्य को एक हद तक पूरा कर पाने में कामयाब रहे. उन्होंने इस अर्थ में ईमानदारी अवश्य बरती है कि अन्य समकालीनों से बातचीत करने के साथ स्वयं नामवर जी से भी साक्षात्कार आयोजित कर बहुत-सी जरूरी बातों का खुलासा उन्हीं से ले लिया, वे स्वयं उसे मानें न मानें, ये उनका अपना मामला था. इसी आयोजन के तीसरे खण्ड में प्रस्तुत नामवर जी के चुनिन्दा आलोचनात्मक निबंधों और चौथे खण्ड में उनके विस्तृत साक्षात्कार के बाद सुधीश के संपादकीय में नामवरसिंह के जिस नये पाठ की आवश्यकता पर बल दिया गया था, वह बात स्वतः ही अप्रासंगिक हो गई.
नामवरजी की कई बातों से असहमति रखने के बावजूद मैनेजर पाण्डेय यह अवश्य मानते रहे हैं कि उनके सम्पूर्ण आलोचनात्मक चिन्तन और व्यवहार में समकालीन रचनाशील प्रवृत्तियों की गहरी पहचान मिलती है, उसकी उपलब्धियों और कमजोरियों का विश्लेषण करते हुए ही समकालीन साहित्य में निहित प्रतिमानों की खोज का प्रयत्न भी संभव हो पाता है. इस अर्थ में डॉ. नामवर सिंह हिन्दी आलोचना के एक ऐसे अनिवार्य संदर्भ के रूप में उभर कर सामने आते हैं, जिन्हें छोड़कर, हिन्दी आलोचना पर शायद ही कोई संवाद संभव हो सके.
कौन जाने यह संयोग है या कोई सोची-बूझी रणनीति – सुधीश पचौरी के उस नामवर विरोधी अभियान को फिर से आगे बढ़ाते हुए बरसों बाद उन्हीं के संपादन में निकलने वाली ‘वाक’ पत्रिका में उनके मथुरावासी मित्र डॉ जगदीश्वर चतुर्वेदी ने हाल में राजकमल से आई नामवरजी की चार किताबों ‘कविता की जमीन और जमीन की कविता’, ‘प्रेमचंद और भारतीय समाज’, ‘हिन्दी का गद्य पर्व’ और ‘जमाने से दो दो हाथ’ पर एक लंबा समीक्षा लेख लिखा और उसमें जी भर कर नामवरजी को मार्क्सवाद विरोधी और उत्तर-आधुनिकतावादी सिद्ध करने का प्रयास किया है. उस समीक्षा आलेख पर नामवरजी की क्या प्रतिक्रिया रही, ये तो नहीं मालूम, डॉ जगदीशवर चतुर्वेदी ने जो आक्षेप गढ़े हैं, उनमें साहित्यिक विमर्श की न्यूनतम मर्यादाओं को जैसे ताक पर रख दिया गया है. चूंकि जगदीश्वर के उस समीक्षा आलेख का साहित्य में कोई नोटिस नहीं लिया गया, इसीलिए नामवरजी के 86वें जन्मदिन पर फिर से उनका हवाला देते हुए उन्हीं आक्षेपों पर फिर से ध्यान आकर्षित किया गया है. मैं जगदीश्वर के उन्हीं आक्षेपों को अपनी ओर से बगैर कोई टिप्पणी किये यथावत पेश कर रहा हूं, ताकि हिन्दी के सुधि पाठक दर्शक-दीर्घा में निष्क्रिय न बैठे रहें और समय रहते अपनी भूमिका पर विचार कर सकें –
नामवरसिंह की आलोचना पर जगदीश्वर चतुर्वेदी के प्रमुख आक्षेप –
1- नामवर सिंह ने आलोचना लिखना बंद कर दिया हैं. — मौटे तौर पर 1984-85 के बाद से आलोचना का नामवर सिंह के लेखन में समापन हो चुका है.
2- वे व्यक्तिगत और सार्वजनिक तौर पर उत्तर-आधुनिक शब्दावली का उपहास उड़ाते हैं, लेकिन लेखन में सारे उत्तर-आधुनिक पैंतरों और रणनीतियों का इस्तेमाल करते हैं.
3- सत्ता के खेल का अंग बनकर नामवर सिंह ने सब कुछ पाया, लेकिन आलोचना उनके पास से चली गयी है. — सत्ता के खेल ने उनके आलोचक पद का अवमूल्यन किया है उन्हें आलोचक की बजाय सैलीबरेटी बनाया है.
4- उनकी विश्वदृष्टि का आधार है भारतीय सत्ता के हित. वे इस चक्कर में वर्गीय, जातीय, जातिवादी और धार्मिक दायरे के परे जाकर देखते हैं. वे न तो मार्क्सवाद को विश्वदृष्टि का आधार बनाते हैं और ना ही किसी अन्य मार्क्सवाद विरोधी दृष्टिकोण को. बल्कि अमेरिकी उपयोगितावाद उनकी विश्वदृष्टि की धुरी है.
5- आपातकाल के बाद नामवर सिंह सत्ता के समर्थक और ‘पावरगेम’ का हिस्सा बन गए. इससे साहित्य, समीक्षा और प्रगतिशील शक्तियों की व्यापक क्षति हुई है.
6- ‘प्रेमचंद और भारतीय समाज’ कथा समीक्षा की महत्वपूर्ण किताब है. जबकि ‘जमाने से दो-दो हाथ’ उत्तर-आधुनिक विषयों पर नामवर सिंह की अधूरी किताब. इसमें नामवर सिंह वैचारिक रूप से चंचल नजर आते हैं.
7- नामवर सिंह का मार्क्सवादी सिद्धांत चर्चा से पलायन का प्रधान कारण है उनकी सामंती मनोवृत्तियां और सत्ताभक्ति. — नामवर सिंह के लिए मार्क्सवाद सुविधा की चीज है.
8- नामवर सिंह आलोचक कम और साहित्य के प्रौपेगैण्डिस्ट ज्यादा नजर आते हैं. प्रौपेगैण्डा राय को नियंत्रित करता है. हिन्दी साहित्य में नामवर सिंह राय बनाने और नियंत्रित करने का काम करते रहे हैं. इस अर्थ में वे कम्प्लीट प्रचारक हैं.
9- स्वातंत्र्योत्तर भारत में किसी भी लेखक के नजरिए को परखने के चार प्रस्थान बिंदु हैं पहला है भारत विभाजन, दूसरा, आपातकाल, तीसरा है स्त्री और चौथा है किसान. दुर्भाग्य से नामवर सिंह का आपात्काल और स्त्री के प्रति अलोकतांत्रिक और अवैज्ञानिक नजरिया है.
10- भारतीय साहित्य की मूलधारा पुंसवादी है, वहां स्त्री का पुंसवादी परिप्रेक्ष्य में व्यापक चित्रण हुआ है. साहित्य में स्त्री साहित्य की भयानक उपेक्षा हुई है. स्त्री के पुंसवादी चित्रण जैसे पति-पत्नी की मर्यादा के पुंसवादी चित्रण को नामवरसिंह आदर्श चित्रण मानते हैं. स्त्री के प्रति पुंसवादी नजरिए और स्त्री नजरिए में वे अंतर नहीं करते.
मुझे लगता है, आलोचक नामवर सिंह पर हो रहे ये आक्रमण अकारण नहीं हैं, और न इनके पीछे साहित्यिक मूल्यांकन का कोर्इ वस्तुपरक आग्रह ही. उनके अब तक के आलोचना-कर्म और आलोचना-प्रक्रिया पर संजीदगी से बात हो, उनके नजरिये और तरीके से सहमति या असहमति हो, इसमें भला किसी को क्यों ऐतराज होगा? लेकिन उनकी जीवन-शैली, शैक्षणिक कार्य-क्षेत्र और सार्वजनिक जीवन को लेकर अपने निजी राग-द्वेष रखने वाले लोग जब उनकी आलोचना-दृष्टि और उनकी आलोचनात्मक कृतियों पर बात करते हैं और उन पर अपने मनोगत निष्कर्ष आरोपित करते हैं, तो एक अलग तरह की अप्रिय बहस सर उठाने लगती है. ऐसे लोग दरअसल उनके आलोचना-कर्म पर नहीं, अपने ही किन्हीं वैयक्तिक राग-द्वेष पर बात करते हुए उसे सिद्धान्त या आलोचना का जामा पहनाने का प्रयास कर रहे होते हैं और यहीं आकर यह उत्तर-आधुनिकतावादी विमर्श अपनी सारी अर्थवत्ता खो देता है.