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Home » शेल आस्किल्ड्सन : रिहाई का एक आकस्मिक पल : अभिषेक अग्रवाल

शेल आस्किल्ड्सन : रिहाई का एक आकस्मिक पल : अभिषेक अग्रवाल

नॉर्वेजियन लेखक शेल आस्किल्ड्सन (Kjell Askildsen, 1929–2021) की कहानी ‘A Sudden Liberating Thought’ का प्रकाशन एक घटना है. इसे न्यूनतम अस्तित्ववाद (Minimalist Existentialism) की प्रतिनिधि रचना माना जाता है. यह कहानी दुनिया की कई भाषाओं में अनूदित हो चुकी है और इसी शीर्षक से एक संग्रह भी प्रकाशित हुआ है. उनके पात्र अक्सर मौन, एकाकी और अपने ही अस्तित्व से जूझते नज़र आते हैं. उनकी कहानियों में चुप्पियाँ भी संवाद बन जाती हैं. यह अनुवाद अभिषेक अग्रवाल द्वारा अंग्रेज़ी से किया गया है. यह कहानी ख़ास आपके लिए प्रस्तुत है.

by arun dev
July 25, 2025
in अनुवाद
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शेल आस्किल्ड्सन : रिहाई का एक आकस्मिक पल : अभिषेक अग्रवाल
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शेल आस्किल्ड्सन
रिहाई का एक आकस्मिक पल


अनुवाद : अभिषेक अग्रवाल

शेल आस्किल्ड्सन (Kjell Askildsen) नॉर्वे के सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली लेखकों में से एक माने जाते हैं. उनका साहित्यिक जीवन, लेखन शैली, निजी अनुभवों और समाज से टकराव ने उन्हें एक अनूठी और चिंतनशील आवाज़ दी.  30 सितंबर 1929, मंडाल, दक्षिणी नॉर्वे में जन्मे शेल आस्किल्ड्सन के पिता थॉमस आस्किल्ड्सन नॉर्वीजी नाज़ी पार्टी Nasjonal Samling के सदस्य थे उनका परिवार नॉर्वे में जर्मन कब्जे के दौरान विवादास्पद बना रहा. युद्ध के बाद शेल के लिए सामाजिक जीवन कठिन रहा. उन्हें ‘देशद्रोही के बेटे’ के रूप में देखा गया. इसने उनमें चीज़ों को देखने का एक तटस्थ दृष्टिकोण विकसित किया. यही अनुभव आगे चलकर उनके लेखन में एक बंद, ठंडी, आत्मसंवादी दुनिया के रूप में उभरता है.

उनका पहला और अंतिम उपन्यास ‘हेर लियोनार्ड लियोनार्ड फ्रेडरिकसन’ (Herr Leonard Leonard Fredriksen) 1953 में प्रकाशित हुआ. इस उपन्यास में सेक्स और नैतिकता को लेकर जो बातें कही गईं, उन्होंने हलचल मचा दी. सरकारी और धार्मिक संस्थानों ने इस उपन्यास की आलोचना की, और इसे अश्लील कहकर प्रतिबंधित करने की कोशिश की गई. लेकिन युवा लेखकों और आलोचकों ने इसे एक नई ईमानदारी की शुरुआत माना, जहाँ लेखक समाज से डरने की बजाय मानव अनुभवों की अंधेरी गलियों में उतरने को तैयार था. इस उपन्यास में एक अप्रत्याशित ठंडापन है, जैसे लेखक विषय के साथ कोई संबंध ही नहीं रखता है बस उसे किसी क्लिनिकल ऑब्जर्वर की तरह देख रहा है. इसके बाद उनका पूरा साहित्यिक जीवन लघुकथाओं को समर्पित रहा. उन्होंने फिर कोई उपन्यास नहीं लिखा. आस्किल्ड्सन ने कहा था, ‘‘लंबी रचना में बहुत कुछ भरने की ज़रूरत होती है, जबकि मैं चाहता हूँ कि पाठक उस शून्य को खुद महसूस करे.’’

अभिषेक अग्रवाल

pinterest से आभार सहित

 

मैं एक तहखाने में रहता हूँ; शायद इसलिए क्योंकि मेरी ज़िन्दगी हर मायने में नीचे ही जा रही है. यह बात मैं किसी व्यंजना में नहीं कह रहा हूँ, यह अक्षरशः सच है.

मेरे कमरे में सिर्फ़ एक खिड़की है, और उसका ऊपरी हिस्सा ही सड़क से थोडा ऊँचा है; इसी वजह से मैं बाहरी दुनिया को नीचे से देखते हूँ. यह दुनिया बहुत बड़ी नहीं है, लेकिन मुझे काफ़ी बड़ी लगती है.

मैं अपने तहखाने से सड़क पर चलते लोगों की केवल टाँगें या शरीर का निचला हिस्सा ही देख पाता हूँ, मगर यहाँ चार साल रहने के बाद अब मैं इसी से उन्हें पहचान लेता हूँ. ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि इस सड़क पर आवाजाही कम होती है; मेरा घर इस बंद गली के आखिर में है.

मैं कम बोलने वाला आदमी हूँ, लेकिन कभी-कभी ख़ुद से बातें करता हूँ. उस वक़्त मुझे लगता है कि जो कुछ भी मैं कह रहा हूँ, उसे कहे बिना नहीं रह सकता.

उस दिन, खिड़की के पास से, मैंने मकान-मालकिन को गुज़रते हुए देखा. अचानक उस पल मुझे इतना अकेलापन महसूस हुआ कि मैंने बाहर जाने का निश्चय किया.

मैंने जूते और कोट पहने, पढ़ने वाले चश्मे को एहतियातन कोट की जेब में रखा और बाहर निकल आया. बेसमेंट (तहख़ाने) में रहने का फ़ायदा सिर्फ़ इतना है कि जब आप आराम के बाद बाहर निकलते हैं, तो ऊपर चढ़ते है, और जब थककर घर लौटते हैं, तो नीचे उतरते है. मुझे लगता है कि यही इकलौता फ़ायदा है.

गर्मी का दिन था. मैं उस बंद पड़े दमकल केंद्र के पास वाले पार्क में गया, जहाँ आमतौर पर मुझे कोई परेशान नहीं करता. लेकिन अभी मैं ठीक से बैठा भी नहीं था कि मेरी ही उम्र का एक बूढ़ा बिलकुल मेरी बगल में बैठ गया, हालाँकि आसपास बहुत-सी खाली बेंचें पड़ी थीं. यह सही बात है कि मैं इसलिए बाहर निकला था क्योंकि मुझे अकेलापन महसूस हो रहा था, लेकिन किसी से बात करने का भी मेरा कोई इरादा नहीं था, बस थोड़ा बदलाव चाहता था. मैं भीतर-ही-भीतर घबरा रहा था कि कहीं वे बातें करना न शुरू कर दें. मैंने वहाँ से उठकर जाने का भी सोचा, लेकिन कहाँ जाता? यही तो वह जगह थी जहाँ बैठने का सोचकर मैं उस तहखाने से निकला था. ख़ैर, वे चुप ही रहें, और उनकी यह ख़ामोशी मुझे इतनी रहमदिल लगी कि मैं आश्वस्त महसूस करने लगा. मैंने बिना उनके ध्यान में आये उन्हें देखने की कोशिश की. लेकिन उन्होंने इसे भाँप लिया, और कहा,

‘‘मुझे माफ़ करें, पर मैं यहाँ इसलिए बैठता हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि यहाँ मुझे कोई परेशान नहीं करेगा. अगर आप कहेंगे तो मैं उठकर कहीं और चला जाऊँगा, मुझे कोई दिक़्क़त नहीं.’’

‘‘नहीं, आप बैठिए…’’,  मैंने कुछ हड़बड़ाकर कहा. फिर, मैंने उन्हें देखने की कोशिश नहीं की, उनके प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान उमड़ आया था, कुछ ज़्यादा ही. मैंने उनसे कोई बात नहीं की लेकिन मुझे अपने भीतर कुछ अजीब-सा महसूस हो रहा था. कुछ ऐसा जो अकेलापन नहीं, वरन एक तरह का सुखद एहसास था.

वे लगभग आधे घंटे तक वहीं बैठे रहे. फिर कुछ कठिनाई से उठे, मेरी ओर मुड़े और बोले — ‘‘धन्यवाद. विदा.’’

‘‘अलविदा’’

वे लंबे-लंबे डग भरते और अपनी बाँहें लहराते हुए वहाँ से चले गयें, मानो नींद में चल रहे हों.

अगले दिन लगभग उसी समय, या थोड़ा पहले, मैं फिर से पार्क गया. उन्होंने मुझमें जो तमाम विचार और अटकलें जगाई थीं, उनके बाद, ऐसा करना स्वाभाविक था, यह अब मेरी मर्जी की बात नहीं थी, खैर जो भी हो.

वे आएँ. मैंने उन्हें दूर से देखा और उनकी चाल से उन्हें पहचान लिया. उस दिन भी कई बेंचें खाली थीं, और मैं यह जानने को उत्सुक कि क्या वे मेरे साथ बैठेंगे. मैं ऐसा दिखाते हुए मानो मैंने उन्हें देखा ही नहीं दूसरी ओर देखने लगा, और जब वे मेरे पास बैठे तो मैंने ऐसा जताया जैसे मुझे उनका आभास ही नहीं. वे भी अनजान ही बने रहे; यह कुछ अजीब स्थिति थी. एक ऐसी मुलाक़ात जिसमें कोई मुलाकात न थी. मुझे यह मानना होगा कि मुझे नहीं पता था कि मैं क्या चाहता था . वे कुछ कहें या चुप रहें, और लगभग आधे घंटे के बाद भी मैं उतना ही अनिश्चित था कि मुझे चले जाना चाहिए या तब तक रुकना चाहिए जब तक वे चले न जाएँ. वास्तव में, यह कोई अप्रिय अनिश्चितता नहीं थी. मैं वहाँ वैसे भी बैठा रह सकता था. लेकिन अचानक, मुझे लगा कि उन्होंने मुझ पर बढ़त बना ली है, और तब मैंने सहज ही निर्णय ले लिया. मैं उठा, इतनी देर में पहली बार उनकी ओर देखा और कहा, ‘‘विदा.’’

मेरी आँखों में सीधे देखते हुए उन्होंने जवाब दिया,  ‘‘अलविदा.’’ उनकी नज़र में किसी भी तरह की कमी ढूँढ़ना मुमकिन न था.

मैं वापस चल दिया. जाते हुए मैं यह सोचने से ख़ुद को नहीं रोक पाया कि वे मेरे चलने के अंदाज़ के बारे में क्या सोचते होंगे, और तभी मुझे लगा कि मेरा बदन एकदम सख़्त हो गया है और मेरे क़दम अटपटे हो गए हैं. मैं चिड़चिड़ा महसूस कर रहा था, इसे अस्वीकार करने का कोई फ़ायदा नहीं था. उस शाम, जब मैं खिड़की के नीचे खड़ा बाहर देख रहा था, वैसे देखने को ज़्यादा कुछ था भी नहीं. मैंने सोचा कि अगर वे अगले दिन फिर आएँगे, तो मैं कुछ कहूँगा. मैंने यह भी तय किया कि क्या कहूँगा और बातचीत की शुरुआत कैसे करूँगा. मैं क़रीब पंद्रह मिनट तक इंतज़ार करूँगा और फिर, उनकी ओर देखे बिना, कहूँगा —

‘‘अब समय आ गया है कि हम बात करना शुरू करें.’’

बस इतना ही और कुछ नहीं. इसके बाद वे चाहें तो जवाब दें, चाहे न दें. और अगर उन्होंने कुछ नहीं कहा, तो मैं उठूँगा और कहूँगा कि

‘‘मुझे अच्छा लगेगा अगर आगे से आप किसी दूसरी बेंच पर बैठें.’’

उस शाम मैंने कई और बातें भी सोचीं, जिन्हें यदि बातचीत आगे बढ़ती तो मैं कह सकता था, लेकिन उनमें से ज़्यादातर बातों को नीरस और सामान्य समझकर छोड़ दिया.

अगली सुबह मैं इतना उत्साहित और अनिश्चित था, कि सोचने लगा शायद मुझे घर पर ही रुक जाना चाहिए. मैंने पिछली शाम के फैसले को स्थगित कर दिया; अगर मैं जाता हूँ, तो भी यक़ीनन कुछ नहीं कहूँगा.

मैं गया, और वे भी आ गयें. मैंने उनकी ओर नहीं देखा. मुझे यह सोचकर अजीब लगा कि वे हमेशा मेरे आने के पाँच मिनट के अंदर ही यहाँ पहुँच जाते हैं जैसे वह कहीं पास से ही मुझे आता हुआ देख लेते हों. यक़ीनन मैंने सोचा — ‘‘वे दमकल केंद्र के पास वाली इमारतों में से किसी एक में रहते होंगे, और वहीं खिड़की से मुझे देख लेते होंगे.’’

इस बारे में और अंदाज़ा लगाने का मुझे समय ही नहीं मिला, क्योंकि वे अचानक बोलने लगे. मानना पड़ेगा कि उन्होंने जो कहा, उसे सुनकर मुझे काफ़ी अजीब लगा.

‘‘माफ़ कीजिएगा…’’ — उन्होंने कहा, ‘‘अगर आप बुरा न माने, तो शायद अब हमें बातचीत करना शुरू कर देना चाहिए.’’

मैंने एकदम से जवाब नहीं दिया; फिर कहा, ‘‘शायद… अगर कहने को कुछ हो तो.’’

‘‘आपको यक़ीन नहीं कि कहने को कुछ है?’’

‘‘शायद… मैं आपसे उम्र में बड़ा हूँ.’’

‘‘हो सकता है.’’

मैंने और कुछ नहीं कहा. बातचीत उन्होंने शुरू की थी, और वह भी लगभग उन्हीं शब्दों में जिनसे मैंने शुरू करने के बारे में सोचा था; और मुझे वैसे जवाब देने पड़ रहे थे, जैसा मैं सोचता था कि वे देंगे. ऐसा लग रहा था मानो मैं उनकी जगह आ गया हूँ और वे मेरी — यह अजीब था. मैं वहाँ से उठ जाना चाहता था, लेकिन जिस तरह मैं अनचाहे ही उनसे ख़ुद को जोड़ चुका था, मुझे उन्हें आहत या नाराज़ करना मुश्किल लग रहा था.

‘‘मैं 83 साल का हूँ…’’, उनके यह कहने से पहले शायद एक मिनट बीत चुका था.

‘‘तो मैं सही था.’’

एक और मिनट बीत गया.

‘‘क्या आप शतरंज खेलते हैं?’’  उन्होंने पूछा.

‘‘बहुत समय पहले.’’

‘‘अब कोई भी शतरंज नहीं खेलता. जिन लोगों के साथ मैं शतरंज खेलता था, वे सभी मर चुके हैं.’’

‘‘कम से कम पंद्रह साल हो चुके हैं…’’ मैंने कहा.

‘‘आख़िरी दोस्त पिछली सर्दी में चला गया. वैसे वह कोई बढ़िया खिलाड़ी नहीं था. मैं हमेशा उसे बीस से भी कम चालों में हरा देता था. लेकिन उसे इसमें भी मजा आता था, शायद यही अंतिम सुख उसके पास बचा था. आप शायद उसे जानते हैं.’’

‘‘नहीं…’’  मैंने जल्दी से कहा ‘‘मैं उसे नहीं जानता था.’’

‘‘आप इतने… कैसे हो सकते हो! खैर, यह आपका मामला है.’’

उस बारे में आप सही हैं,  यह कहने का मेरा मन हुआ. मैंने मन ही मन, अपना सवाल पूरा नहीं करने के लिए उनकी सराहना की.

फिर मैंने उन्हें अपना चेहरा घुमाकर मेरी ओर देखते देखा. वे इस तरह काफी देर तक बैठे रहें. यह बिल्कुल भी सहज नहीं था, इसलिए मैंने कोट की जेब से चश्मा निकाला और पहन लिया. मेरे सामने की सभी चीजें- पेड़, घर, बेंच- धुंध में गायब हो गईं.

‘‘आप पास का चश्मा लगाते हैं?’’  कुछ समय बाद उन्होंने कहा.

‘‘नहीं…’’  मैंने कहा  ‘‘दरअसल उल्टा ही है.’’

‘‘मेरा मतलब… क्या आपको दूर की चीजें देखने के लिए चश्मा पहनना पड़ता है?’’

‘‘नहीं, उलटी ही बात है. मुझे पास की चीज़ें देखने में परेशानी होती हैं.’’

‘‘अच्छा…’’

मैंने कुछ नहीं कहा. जब मैंने देखा कि उन्होंने अपना चेहरा वापस घुमा लिया है, तब मैंने अपना चश्मा उतारा और उसे अपनी जेब में रख लिया. उन्होंने भी कुछ और नहीं कहा, जब मुझे लगा कि काफी समय बीत चुका है, तो मैंने खड़े होकर शिष्टतापूर्वक कहा, ‘‘लंबी बातचीत के लिए शुक्रिया. विदा.’’

‘‘हाँ लम्बी बातचीत…’’

उस दिन मैं स्थिर कदमों से लौट आया, लेकिन जब मैं घर पहुँचा और शांत हुआ, तो मैंने फिर से उनके साथ अगली मुलाक़ात के लिए जल्दबाज़ी में योजनाएँ बनानी शुरू कर दी. फर्श पर टहलते हुए, मेरे मन में कई बेहूदा विचार आए, कुछ सूक्ष्मता भी; मैं उन पर थोड़ी जीत हासिल करने से पीछे नहीं हट रहा था, लेकिन यह सिर्फ इसलिए था क्योंकि मैं उन्हें सब कुछ के बावजूद अपने समकक्ष के रूप में देखता था.

 

 

उस रात मैंने अच्छी नींद नहीं ली. जब मैं जवान था और भविष्य में होने वाली आश्चर्यजनक घटनाओं पर विश्वास रखता था, तब अक्सर ऐसा होता था कि मैं सही से सो नहीं पाता था. लेकिन वह बहुत पहले की बात है, जब मुझे यह समझ आ गया कि जिस दिन हम मरते हैं, तब यह मायने नहीं रखता कि हमारा जीवन अच्छा था या दयनीय, तब से मैं अच्छी नींद लेने लग गया था. तो उस रात मेरी ख़राब नींद ने मुझे हैरान और परेशान दोनों कर दिया. मैंने ऐसा कुछ भी नहीं खाया था जिससे यह हो सकता था, केवल दो उबले हुए आलू और सार्डीन का एक टिन; मैंने यह खाकर इससे पहले भी कई बार अच्छी नींद ली थी.

अगले दिन वे पंद्रह मिनट बीतने के बाद आयें. मैंने उनके आने की उम्मीद छोड़ ही दी थी;  यह एक अपरिचित अहसास थाः उम्मीद रखकर उसे छोड़ देना. लेकिन वे आयें. ‘‘सुप्रभात.’’  उन्होंने कहा.

‘‘सुप्रभात.’’

थोड़ी देर तक हमने कुछ और नहीं कहा. मुझे अच्छी तरह से पता था कि अगर विराम बहुत लंबा हो गया तो मुझे क्या कहना है, लेकिन मैं चाहता था कि वे ही शुरुआत करें, और उन्होंने ऐसा किया भी.

‘‘आपकी पत्नी… क्या वह अभी भी जीवित है?’’

‘‘नहीं, वह अब नहीं है, काफी समय हो गया है, मैं उसे भूल ही गया हूँ. और आप… आपकी पत्नी?’’

‘‘दो साल पहले आज ही के दिन…’’

‘‘ओह. तो यह एक दुखी दिन है.’’

‘‘हाँ है. आप उसकी कमी को महसूस करने से बच नहीं सकते. लेकिन मैं उसकी कब्र पर नहीं जाता हूँ. वहाँ बहुत झंझट हैं. मुझे माफ़ करें. मैंने अच्छे शब्द नहीं चुने.’’

मैं चुप रहा.

‘‘मुझे माफ़ कीजिए अगर मैंने आपकी भावनाओं को चोट पहुँचाई है, मेरा मतलब यह नहीं था.’’  उन्होंने कहा.

‘‘नहीं… आपने ऐसा कुछ नहीं कहा…’’

‘‘बढ़िया. मुझे लगा कि आप शायद धार्मिक हैं. मेरी एक बहन थी जो अनंत जीवन में विश्वास रखती थी. कितना घमंड है!’’

मैं फिर से चौंक उठा. वे वहाँ बैठे थे और मेरे शब्द बोल रहे थे. एक क्षण के लिए मैंने मूर्खतापूर्ण ढंग से सोचा कि मेरी बगल में बैठा यह व्यक्ति सिर्फ मेरी कल्पना है, और वास्तव में मैं ही वहाँ अकेला बैठा खुद से बात कर रहा हूँ. और शायद यही मूर्खता मुझे एक बिना सोचे समझे सवाल पूछने पर मजबूर कर गई — ‘‘आप वास्तव में कौन हैं?’’

अच्छा हुआ कि उन्होंने तुरंत जवाब नहीं दिया, और मैं इस असहज स्थिति में खुद को संभाल पाया.

‘‘मुझे गलत मत समझिएगा. मैं आपसे नहीं कह रहा था. बस ऐसे ही मुझे कुछ याद आ गया था.’’

उन्होंने अपना चेहरा मेरी ओर घुमाया, लेकिन इस बार मैंने अपना चश्मा नहीं निकाला. मैंने कहा,  ‘‘वैसे भी, मैं यह नहीं दिखाना चाहता कि मुझे उन सवालों को पूछने की आदत है जिनके कोई जवाब नहीं होते.’’

हम दोनों चुपचाप बैठे रहे. यह कोई सहज मौन नहीं था; मुझे चले जाना चाहिए था. मैंने सोचा कि अगर उन्होंने अगले दो मिनट में कुछ नहीं कहा, तो मैं चला जाऊँगा. मैंने मन ही मन सेकंड गिनने शुरू कर दिए. वे चुप रहे और अपनी गिनती ख़त्म करते ही मैं जाने के लिए उठ गया ठीक उसी पल वे भी खड़े हुए.

‘‘बातचीत के लिए शुक्रिया…’’  मैंने कहा.

‘‘आपका भी धन्यवाद, अफ़सोस कि आप शतरंज नहीं खेलते.’’

‘‘मुझे नहीं लगता कि आपको यह बहुत अच्छा लगता. वैसे भी, आपके साथी खिलाड़ियों को मरने की आदत है.’’

‘‘हाँ, सच ही है…’’  उन्होंने कहा, वे अचानक से खोये-खोये दिखने लगे थे.

‘‘अलविदा…’’  मैंने कहा.

‘‘विदा…’’

उस दिन जब मैं घर आया, तो कहीं ज्यादा थका हुआ था; मुझे कुछ देर लेटना पड़ा. कुछ देर बाद मैंने जोर से खुद को सुनाते हुए कहा — ‘‘मैं बूढ़ा हूँ. और ज़िन्दगी बहुत लंबी है.’’

 

 

 

अगली सुबह जब मैं उठा, तब बारिश हो रही थी. यह कहना कि मैं निराश हुआ, सौम्य बात होगी. जैसे-जैसे दिन बीतता गया और बारिश नहीं रुकी, मुझे एहसास हुआ कि मैं किसी भी हालत में पार्क जाऊँगा,  मैं खुद को रोक नहीं पा रहा था. मेरे लिए यह जरूरी नहीं था कि वे भी वहाँ आएँ; यह बात नहीं थी. बात बस इतनी थी कि, अगर वे आएँ, तो मेरा वहाँ होना ज़रूरी था.

बारिश से भीगे उस पार्क में पूरी तरह अकेले बैठा मैं खुद को, अपनी भावनाओं को उघाड़े किसी विवस्त्र व्यक्ति सा पा रहा था, मैंने चाहा कि वे न आएँ.

लेकिन वे आए,  क्या मुझे यह पहले से नहीं पता था. मेरी ही तरह उन्होंने ज़मीन को छूता काला रेनकोट पहना था. वे बैठ गए.

‘‘आपने मौसम को धोखा दे दिया…’’  उन्होंने कहा.

यह बस बातचीत शुरू करने का एक तरीका था लेकिन उनके आने से ठीक पहले जो मैं सोच रहा था, उस वजह से यह बात मुझे ख़राब लग रही थी, मैंने कोई जवाब नहीं दिया. मैंने महसूस किया कि मेरा मन ख़राब हो गया है और मुझे यहाँ आने का पछतावा हो रहा था. इसके अलावा, लगातार भीगने से मेरा कोट भारी लग रहा था, वहाँ बैठे रहने का विचार अब हास्यास्पद प्रतीत हो रहा था. मैंने कहा,

‘‘मैं सिर्फ ताजी हवा लेने के लिए बाहर निकला था, लेकिन थक गया हूँ आखिर एक बूढ़ा आदमी ही हूँ.’’

किसी भी तरह की अटकलबाज़ी से बचने के लिए, मैंने फिर कहा , ‘‘पुरानी आदत है, आप जानते ही हैं.’’

उन्होंने कुछ नहीं कहा, और यह मुझे बिल्कुल बेवजह उकसाने वाला लगा. और जब लंबी चुप्पी के बाद उन्होंने कुछ कहा, तो मुझे अच्छा नहीं लगा.

‘‘आप लोगों को ज्यादा पसंद नहीं करते, है न? या मैं गलत हूँ?’’

‘‘लोगों को पसंद करने से आपका क्या मतलब है?’’,  मैंने जवाब दिया.

‘‘अरे,  बस यूँ ही कह दिया. मेरा दखल देने का इरादा नहीं था.’’

‘‘बिल्कुल, मुझे लोग पसंद नहीं हैं. और हाँ, मुझे लोग पसंद भी हैं. अगर आप मुझसे पूछते कि क्या मुझे बिल्लियाँ पसंद हैं, या बकरियाँ, या फिर तितलियाँ,  लेकिन लोग? वैसे भी, मैं मुश्किल से ही किसी को जानता हूँ.’’

मुझे अपनी आखिरी बात कहने का पछतावा हुआ, लेकिन उन्होंने उस पर ध्यान नहीं दिया.

‘‘यह तो कमाल की बात है…’’ उन्होंने कहा,  ‘‘बकरियाँ और तितलियाँ!’’

मैं उनकी मुस्कराहट की आवाज़ सुन सकता था. मुझे मानना पड़ा कि मैं ज़रूरत से ज़्यादा टालमटोल कर रहा था, इसलिए मैंने कहा, ‘‘अगर आप एक सामान्य सवाल का सामान्य जवाब चाहते हैं, तो हाँ, मुझे बकरियाँ और तितलियाँ लोगों से अधिक पसंद हैं.’’

‘‘धन्यवाद, मैं यह बात बहुत पहले ही समझ गया था. अगली बार जब मैं आपसे कुछ पूछूँगा तो ज़्यादा सही शब्दों का चुनाव करूँगा.’’

उन्होंने यह बात दोस्ताना अंदाज़ में कही, और यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर मैं कहूँ कि मुझे अपने कठोर व्यवहार पर अफ़सोस हुआ, भले ही ऐसा सिर्फ़ मेरी उदासी की वजह से था. और क्योंकि मुझे अफ़सोस हुआ, मैंने कुछ ऐसा कह दिया जिसको कहने का मुझे तुरंत पछतावा हुआ, ‘‘माफ़ कीजिए, लेकिन अब मेरे पास आखिरी चीज़ के तौर पर शब्द ही बचे हैं. माफ़ कीजिए.’’

‘‘नहीं. यह मेरी गलती थी. मुझे सोचना चाहिए था कि आप कौन हैं.’’

मेरा दिल बैठ गया. क्या वे जानते थे कि मैं कौन हूँ?  क्या वे हर रोज़ यहाँ इसलिए आते थे क्योंकि उन्हें मेरी पहचान पता थी? मैं अपने अंदर एक अजीब सी बेचैनी और असुरक्षा महसूस किए बिना नहीं रह सका, इतनी कि मैंने लगभग अनायास ही अपने कोट की जेब में हाथ डालकर अपने चश्मे की तलाश शुरू कर दी.

‘‘आपका क्या मतलब है?’’,  मैंने कहा — ‘‘क्या आप मुझे जानते हैं?’’

‘‘हाँ, अगर यही सही शब्द है. हम पहले मिल चुके हैं. जब मैं पहली बार इस बेंच पर बैठा, तब मुझे यह पता नहीं था. धीरे-धीरे मुझे समझ में आया कि मैंने आपको पहले कहीं देखा है, बस पहचान नहीं पा रहा था. कल आपने कुछ कहा और अचानक ही मुझे याद आ गया कि मेरा आपसे क्या संबंध है. आपको मेरी याद नहीं है, है न?’’

मैं खड़ा हो गया.

‘‘नहीं…’’

मैंने सीधा उनकी तरफ देखा. मुझे जरा भी याद नहीं आया कि मैंने उन्हें कभी पहले देखा था.

‘‘मैं… मैं आपका जज था.’’

‘‘आप… आप’’

मैं कुछ नहीं कह पा रहा था.

‘‘कृपया बैठ जाइए.’’

‘‘मैं भीग चुका हूँ. सच में! वो आप थे… तो, यह आप थे. हाँ आप ही थे, अलविदा, मुझे जाना होगा…’’

मैं चला गया. यह गरिमापूर्ण तरीके से लौट जाना नहीं था, लेकिन मैं परेशान था, और मैं उतनी तेज़ी से चला जितनी तेज़ी से मैं कई वर्षों में नहीं चला था. जब मैं घर पहुँचा, तो मुझमें इतनी भी ताकत नहीं बची थी कि मैं बिस्तर पर गिर पड़ने से पहले अपना भीगा हुआ ओवरकोट भी उतार सकूँ. मेरा दिल तेज़ी से धड़क रहा था, और मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि मैं फिर कभी उस पार्क में कदम नहीं रखूँगा.

कुछ पलों बाद, जब मेरी धड़कन सामान्य हो गई, और मेरे विचार भी थिर हो आये. मैंने खुद को संभाल लिया था. उस पल जब मैं तैयार नहीं था, कुछ छिपा हुआ फिर से उजाले में आ गया था, बस इतनी ही बात थी. कोई रहस्य तो इसमें था नहीं.

मैं बिस्तर से उठ खड़ा हुआ. यह कहने में मुझे एक अजीब सा संतोष मिला कि मैं फिर से अपने पुराने रूप में लौट आया था. मैंने खिड़की के नीचे खड़े होकर जोर से कहा,  ‘‘वे मुझे फिर से देखेंगे.’’

अगले दिन अच्छा मौसम लौट आया, यह एक राहत की बात थी, मेरा कोट भी लगभग सूख चुका था. मैं नियत समय पर पार्क गया; वे मेरे बारे में कोई असमान्यता महसूस नहीं कर पाएँगे, न ही यह सोच पायेंगे कि उन्हें मुझ पर कोई बढ़त मिल गई है.

जब मैं बेंच के पास पहुँचा, तो वे पहले से ही वहाँ बैठे थे. तो असल में, वही असंयत व्यवहार कर रहे थे.

‘‘शुभ प्रभात.’’,  उन्होंने कहा.

‘‘सुप्रभात…’’,  मैंने जवाब दिया और बैठ गया. फिर बातचीत को अपने हाथ में लेते हुए कहा,  ‘‘मैंने सोचा था कि शायद आज आप नहीं आएंगे.’’

‘‘शाबाश…’’, उन्होंने कहा — ‘‘आपके लिए शून्य अंक.’’

यह ऐसा जवाब था जिसमें मैं कोई गलती नहीं निकाल सका. अब, वे मेरे बराबर थे.

‘‘क्या आपको अक्सर अपराधबोध महसूस होता था?’’,  मैंने पूछा.

‘‘मैं समझा नहीं…’’

‘‘एक न्यायाधीश के रूप में, क्या आपको अपराधबोध महसूस होता था? आखिरकार, आपका पेशा ही दूसरों को उनके हिस्से का अपराध सौंपना था.’’

‘‘मेरा पेशा कानून को परिभाषित करना था, जो दूसरों द्वारा किए गए अपराध के आधार पर होता था.’’

‘‘क्या आप खुद को सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं? यह करना ज़रूरी नहीं है.’’

‘‘नहीं मुझे कोई अपराधबोध नहीं. मैं अक्सर कानून की कठोरता के आगे खुद को मजबूर महसूस करता था. जैसा आपके मामले में भी हुआ.’’

‘‘हाँ. आखिर, आप अंधविश्वासी तो नहीं ही हैं. ’’

उन्होंने मुझे तेज नजर से देखा.

‘‘क्या मतलब है आपका?’’, उन्होंने कहा.

‘‘सिर्फ अंधविश्वासी लोग ही सोचते हैं कि डॉक्टर का काम उन लोगों के दर्द को बढ़ाना है जो पहले से ही बर्बाद हो चुके हैं.’’

‘‘आह… समझा. लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इच्छामृत्यु को वैध करने का दुरुपयोग किया जा सकता है?’’

‘‘नहीं, इसका दुरुपयोग नहीं किया जा सकता. क्योंकि तब इच्छामृत्यु, इच्छामृत्यु नहीं वरन हत्या कहलाएगी.’’

वे चुप रहें; मैंने उन्हें तिरछी नज़र से देखा, उनका चेहरा गुस्से से भरा और भावशून्य था. इससे मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता था हालांकि मुझे यह नहीं पता था कि उनकी यह हालत मेरी कही बात के कारण थी या वे ऐसे ही दिखते थे. कहना मुश्किल था, क्योंकि मैंने शायद ही कभी उनकी ओर गौर से देखा था. मुझे लगा कि मैंने जो अनदेखी की थी उसकी भरपाई करूँ और उन्हें पूरी तरह देखूँ, इसलिए मैंने ऐसा ही किया, खुलेआम, अपना चेहरा उनकी ओर मोड़कर अपनी नज़र उन पर टिका दी.

कम से कम मैं खुद को इतना हक़ तो दे ही सकता हूँ कि उस आदमी को गौर से देखूँ जिसने मुझे कई वर्षों के लिए जेल की सजा दी थी. मैंने अपनी आँखों पर चश्मा भी लगा लिया. इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी, मैं उन्हें बिना चश्मे के भी साफ़ देख सकता था, लेकिन मुझे अचानक उन्हें उकसाने की इच्छा हुई. किसी व्यक्ति को सीधे घूरना मेरे स्वभाव के बिल्कुल विपरीत था, और इस कारण मुझे एक पल के लिए अजनबी सा महसूस हुआ; यह एक अजीब लेकिन बिल्कुल भी अप्रिय अनुभव नहीं था.

और मेरे सामान्य व्यवहार का यह बदलाव, अप्रत्याशित रूप से संक्रामक साबित हुआ. कई वर्षों में मैं पहली बार, हँसा; यह शायद भद्दा सुनाई दिया होगा. खैर, उन्होंने मेरी ओर देखे बिना कठोर स्वर में कहा,  ‘‘मुझे परवाह नहीं कि आप किस बात पर हँस रहे हैं, लेकिन ऐसा नहीं लगता कि आप इसका आनंद ले रहे हैं. और यह अफसोस की बात है. क्योंकि बाकी मामलों में आप एक समझदार व्यक्ति हैं.’’

मैं फ़ौरन चुप हो गया, थोड़ी शर्मिंदगी भी महसूस हुई, मैंने अपनी नजरें उन पर से हटा लीं और कहा,  ‘‘आप सही कह रहे हैं. यह हँसने की बात नहीं थी.’’

इससे ज्यादा सांत्वना मैं उन्हें नहीं देना चाहता था.

हम चुपचाप बैठे रहे. मैंने अपनी दुखभरी ज़िन्दगी के बारे में सोचा और उदासी से भर गया. मैंने जज के घर की कल्पना की, जिसमें अच्छी कुर्सियाँ और किताबों की बड़ी अलमारियाँ थीं.

‘‘आपके पास कामवाली तो होगी ही…’’, मैंने कहा.

‘‘हाँ, लेकिन आप यह क्यों पूछ रहे हैं…’’

‘‘ऐसे ही मैं बस एक रिटायर्ड जज के जीवन की कल्पना कर रहा हूँ.’’

‘‘इसमें कुछ नहीं हैं आप जानते ही हैं बुढ़ापे के ख़ालीपन को…’’

‘‘हाँ समय बिताना मुश्किल हो जाता है.’’

‘‘और हमारे पास बस यह ही बचा होता है.’’

‘‘वक़्त धीमा महसूस होने लगता है, बीमारियों से भरा हुआ, जो इसे और भी धीमा कर देता हैं,  फिर यह सब खत्म हो जाता है. और जब वो आखिरी पल आता है, तो हम सोचते हैं— क्या ही बेकार ज़िन्दगी थी.’’

‘‘हाँ व्यर्थ की…’’

‘‘व्यर्थ…’’

उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. हम दोनों में से किसी ने कुछ नहीं कहा. कुछ समय बाद, मैं उठ गया, मैं अपनी उदासी उनके साथ साझा नहीं करना चाहता था चाहे मैं कितना भी अकेला महसूस कर रहा था.

‘‘विदा’’,  मैंने कहा.

‘‘विदा” डॉक्टर.“

उदासी भावुकता को जन्म देती है, और ‘डॉक्टर’ शब्द बिना किसी व्यंग्य के बोले जाने से मेरे अंदर एक गर्म लहर दौड़ गई. मैं अचानक मुड़ा और तेजी से आगे बढ़ गया. और ठीक उसी क्षण, मेरे पार्क से बाहर निकलने से भी पहले मुझे पता था कि मैं मरना चाहता हूँ. मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ; और, मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ है. मेरी उदासी और भावुकता दोनों ही गायब हो गईं. मैंने अपनी गति धीमी कर ली, मुझे अपने भीतर एक ऐसी आंतरिक शांति का एहसास हुआ जो मुझे धीमा चलने के लिए प्रेरित कर रही थी.

जब मैं घर पहुँचा, तब भी अपने अंदर उस अहसास को महसूस कर रहा था. मैंने लिखने के लिए कागज़ और एक लिफाफा निकाला. लिफाफे पर लिखा,  ‘‘उस न्यायाधीश के लिए जिसने मुझे सजा दी थी.’’ फिर मैं उस छोटी सी मेज पर बैठ गया, जहाँ मैं आमतौर पर खाना खाता हूँ, और इस कहानी को लिखना शुरू किया.

आज मैं आखिरी बार पार्क गया. मैं एक अजीब, लगभग दुस्साहसी मनोदशा में था. शायद इसलिए क्योंकि मैंने जज के साथ अपनी पिछली मुलाकातों को शब्दों में ढाल दिया था, या शायद इसलिए भी क्योंकि मैंने अपने निर्णय पर एक क्षण के लिए भी संदेह नहीं किया था.

आज भी, वे वहीं बैठे थे. मुझे लगा कि वे परेशान दिख रहे हैं. मैंने पहले से अधिक सौहार्दपूर्ण ढंग से अभिवादन किया; यह मुझसे सहज रूप से हुआ. उन्होंने मुझ पर तेज़ी से एक निगाह डाली, मानो यह परखने की कोशिश कर रहा हो कि क्या मैं वास्तव में ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ.

‘‘तो…’’, उन्होंने कहा — ‘‘आज आप अच्छे लग रहे हैं?’’

‘‘हाँ आज का दिन अच्छा है और आपका…’’

‘‘ठीक ही है, शुक्रिया… तो अब आप यह नहीं मानते कि जीवन का कोई अर्थ नहीं है?’’

‘‘ओहह… हाँ, पूरी तरह से…’’

‘‘हम्म… मुझे अभी तक ऐसा अनुभव नहीं हुआ है.’’

‘‘आप जीने की सहज इच्छा को भूल रहे हैं,  है न? यह बहुत मजबूत होती है और न जाने कितने तार्किक निर्णयों के लिए अभिशाप बन चुकी है.’’

उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. मेरा वहाँ ज्यादा देर बैठने का इरादा नहीं था, तो एक छोटे अंतराल के बाद मैंने कहा — ‘‘अब हम नहीं मिलेंगे. आज मैं आपसे विदा लेने आया हूँ.’’

‘‘क्या सच? यह अफ़सोस की बात है. आप कहीं जा रहे हैं?’’

‘‘हाँ…’’

‘‘और वापिस नहीं आयेंगे?’’

‘‘नहीं…’’

‘‘हम्म. सच में. उम्मीद है कि आप इसे मेरी दखलंदाजी न समझेंगे अगर मैं कहूँ कि मैं हमारी मुलाकातों को याद करूँगा.’’

‘‘यह सुन कर अच्छा लगा.’’

‘‘अब समय और भी धीरे बीतेगा.’’

‘‘और भी कई बेंचों पर कई अकेले आदमी बैठे हैं.’’

‘‘ओह, आप मेरा मतलब नहीं समझे. क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आप कहाँ जा रहे हैं?’’

कुछ लोगों का मानना है कि जो व्यक्ति यह जानता है कि वह चौबीस घंटे के भीतर मरने वाला है, वह जो चाहे करने के लिए स्वतंत्र महसूस करता है. यह सच नहीं है; तब भी, इंसान अपने स्वभाव के विपरीत कार्य करने में असमर्थ रहता है.

निस्संदेह, उन्हें एक स्पष्ट और ईमानदार उत्तर देना मेरे स्वभाव के विरुद्ध नहीं होता, लेकिन मैंने पहले ही तय कर लिया था कि मैं अपनी मंज़िल उन्हें नहीं बताऊँगा, क्योंकि मुझे कोई कारण नहीं दिखा जिससे उन्हें परेशान करूँ. आखिरकार, वे अकेले व्यक्ति थे, जो मेरी मृत्यु से दुखी होने वाले थे. लेकिन मैं क्या जवाब दूँ?

‘‘आपको पता लग जाएगा’’,  मैंने अंत में कहा.

मैंने देखा कि वे चौंक गए, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा. बस, अपना हाथ अंदर वाली जेब में डाला और बटुआ निकाला. उसमें कुछ पल देखने के बाद, उन्होंने अपना कार्ड मेरी ओर बढ़ाया.

‘‘धन्यवाद…’’,  मैंने कहा और उसे अपनी कोट की जेब में रख लिया. मुझे लगा कि अब मुझे चलना चाहिए. मैं उठ खड़ा हुआ. वे भी खड़े हो गए. उन्होंने अपना हाथ बढ़ाया. मैंने उसे थाम लिया.

‘‘ख्याल रखना…’’,  उन्होंने कहा.

‘‘आप भी… विदा.’’

‘‘विदा.’’

मैं चला गया. मुझे लगा कि वे दोबारा नहीं बैठे, लेकिन मैंने मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं समझी. मैं शांतिपूर्वक घर की ओर चला, कुछ विशेष नहीं सोचते हुए. मेरे भीतर कहीं कुछ मुस्कुरा रहा था. तहखाने में पहुँचकर, मैं कुछ देर खिड़की के नीचे खड़ा रहा और खाली सड़क को देखता रहा, फिर मेज़ पर बैठकर इस कहानी को पूरा करने लगा. मैं न्यायाधीश का कार्ड लिफ़ाफ़े के ऊपर रखने वाला हूँ.

सब कुछ हो गया. अभी मैं इन पन्नों को मोड़कर लिफ़ाफ़े में रख दूँगा. और अब, ठीक इससे पहले, जब यह होने ही वाला है,  जब मैं वह अंतिम निर्णायक कार्य करने जा रहा हूँ, जिसे मनुष्य वास्तव में कर सकता है. मेरे दिमाग़ में बस एक ही विचार सबसे ऊपर है,  मैंने यह पहले ही क्यों नहीं किया?

 


अभिषेक अग्रवाल
१९७७, हापुड़
पत्र-पत्रिकाओं में अनुवाद प्रकाशित
संभावना प्रकाशन देखते हैं/ संपर्क : 701743741

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Comments 6

  1. राजकुमार राकेश says:
    7 hours ago

    बहुत सुंदर कहानी है।
    उतना ही भव्य अनुवाद है।
    ऐसी दुर्लभ कहानी प्रकाशित करने के लिये साधुवाद।

    Reply
  2. Teji Grover says:
    5 hours ago

    वाह, इस लेखक की हिन्दी में यह दूसरी कहानी प्रकाशित हो रही है। पहली मेरे संकलन *दस समकालीन नॉरवीजी कहानियाँ* में शामिल है। वाणी प्रकाशन
    इसी शीर्षक से जो लेखक का कहानी संग्रह है उसके अनुवाद की भी तैयारी चल रही है। उम्मीद है 2026 में यह संग्रह हिन्दी पाठकों को उपलब्ध हो पाएगा।
    Abhishek Agarwal ने बड़े मनोयोग से मेरी इस प्रिय कहानी का अनुवाद किया है। हिन्दी में इसे पढ़ते हुए इस कहानी की एक मामूली सी घटना से मुझे वह भी समझ में आया जो पहले के बीसियों पाठों में सूझा ही नहीं था।
    इस तरह अनुवाद का एक और पक्ष भी उजागर हुआ। जो कृति अस्तित्व की अबूझ पहेलियों के आलोक और उनकी गिरिफ्त में लिखी जाती है, हर भाषा में अपने अर्थबाहुल्य की कोई अलग ही छटा दिखला जाती है। अभिषेक के अनुवाद को उसी के साथ कई बार पढ़ते-गुनते हुए मुझे ऐसा कई बार लगा कि कहानी की कुछ बारीकियां मुझसे छूट गयी थीं। यह इसलिए भी होता रहा क्योंकि इस लेखक की सभी कहानियों में ऐसा सस्पेंस है जिसको मैं हर पाठ से पहले भूल चुकी होती हूँ … पाठक की यह विस्मृति भी ऐसे विलक्षण लेखन की ही देन हुआ करती है। यह सस्पेंस थ्रिलर का सस्पेंस न होकर अस्तित्वपरक सस्पेंस है। आप हर बार यह जानने को आतुर रहते हैं कि किसी क़िरदार का जीवन-मरण को लेकर कोई अहम फ़ैसला इस बार किस बीहड़ को पार करते हुए हो रहा है। आप उसकी यात्रा को हर बार existential नावीन्य से महसूस कर रहे होते हैं।
    हम सभी जानते हैं हमारे जीवन में ऐसे कौन से लेखक हैं जो मृत्यु शैया तक हमारा साथ देंगे। ऐसे लेखक पृथ्वी पर कभी कभी ही पैदा होते हैं। और हर पाठक के हिस्से में इनमें से कुछ लेखक ही आते हैं…या वह इनमें से कुछ ही लेखकों का चयन करता है। अन्तिम शैया को अधिक लाद कर नहीं रखा जा सकता।
    इस अज़ीम लेखक की शान में इससे अधिक क्या कहा जा सकता है कि वह हिन्दी में आस्तित्विक अर्थों की विलक्षण पोटली हमारे समक्ष खोल रहा है…मुझे यक़ीन है आप इस लेखक को पढ़ते रहना चाहेंगे।
    अभिषेक और समालोचन का आभार इस कहानी को हिंदी पाठकों के सामने लाने के लिए। प्रतीक्षा कीजिए, पूरी किताब की।

    Reply
  3. Nishant Upadhyay says:
    5 hours ago

    बहुत ही सुंदर कहानी। कहानी में रहस्योद्घाटन की जगह ज़रा और ऊपर या एकदम आखिर में होती तो मुझ जैसे पाठक को और आनंद आता। कहानी में कहानी को खत में लिखने का टूल भी बेहद दिलचस्प।
    कहानी पढ़ते वक्त यह भी फिर याद आया कि विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों की संस्कृति और आंगिक भाषा के अलग होने के कारण कभी कभी संवाद या डायलॉग को रुचिकर बनाये रखना अनुवादक के लिए दुष्कर कार्य होता है।
    दोनों विश्व युद्धों, खासकर दूसरे, के बाद से यूरोप में छायी अवसाद भरी मिनिमलिस्टिक चुप्पी का प्रवेश जिस तरह से यूरोपीयन कला और समाज में हुआ, उस कारण यूरोपीयन कहानियों के कम बात करने वाले और संक्षिप्त वाक्य-विन्यासों को जब हिंदी जैसी बातूनी और रसपगी भाषा में अनुवाद करने पर कभी-कभी उन डायलॉग्स के नीरस हो जाना का खतरा बना रहता है।
    अभिषेक जी ने अधिकतर जगहों पर रस बनाये रखा है। इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।

    Reply
  4. Jaspal Banga says:
    5 hours ago

    एक शानदार गहन संवेदना से गुजारती कहानी मैं पहली बार पढ़ रहा हूँ, हिन्दी में इस कहानी का अनुवाद गहरी अनुभूतियों से भर देता है, धन्यवाद समालोचना और अनुवादक अभिषेक जी।

    Reply
  5. कुमार अम्बुज says:
    3 hours ago

    यादवेन्द्र जी ने क़रीब चार महीने पहले इनकी एक छोटी-सी कहानी ‘नाई की दुकान’ अनूदित की थी। वह मेरा इस शानदार कथाकार से पहला परिचय था। और अब यह किंचित लंबी और प्रभावशाली कहानी। यह दिमाग़ में जगह बना लेती है। अपना आवास। अभिषेक जी का अनुवाद सहज और प्रवाही है।
    इसे हिंदी में मुमकिन करने के लिए धन्यवाद।

    Reply
  6. रोहिणी अग्रवाल says:
    2 hours ago

    समय की तरह मनुष्य की अस्तित्व-संरचना भी बेहद जटिल और संश्लिष्ट है। अपनी ही दुश्चिंताओं और ख्वाहिशों, असुरक्षा और निरर्थकता बोध के बीच जीवन के प्रति आसक्ति- विरक्ति का निरंतर दुश्चक्र उसे व्यथित करता है। मोक्ष उसकी कामना है। लिहाज़ा तमाम दर्शन अपनी-अपनी तरह से मोक्ष के सवालों से टकराते हैं और हार कर मृत्यु में शरण लेकर जीवन की नित्यता का सिद्धान्त देते हैं।
    पर चाहकर भी मृत्यु का वरण क्या इतना सरल है?
    कहानी पढ़कर देर तक सोचती रही। मनुष्य की अंतिम शरणस्थली मृत्यु नहीं, दूसरों द्वारा ‘समझे’ और स्वीकारे जाने की आकांक्षा है। चुप्पियों, दमघोंटू उदासियों और प्रतीकों से बुनी इस कहानी में जिंदगी का उच्छ्ल आवेग कहीं नहीं है। टीसते दांत सा अतीत दर्दीली स्मृतियों को लिये हुए है। पत्नी की मृत्यु, अकेलापन, परिवार-समाज की बांधने वाली चौहद्दियों से दूर तहखाने सरीखा आत्मनिर्वासन। फिर भी विकल्प के तौर पर मृत्यु नहीं आती। वह आती है तब जब बेंच का अजनबी पहचान के रिश्ते जोड़ता है । एक थरथराते अतीत का कोलाहल कड़वी-मीठी यादों के साथ परोसता है। गुम हो गई पहचान को डॉक्टर जैसे पेशे के साथ जीवित करता है। उसके वजूद को उड़ता सूखा पत्ता नहीं, कुछ कर गुज़रने वाले इंसान का दर्जा देता है। यह पल आत्मसार्थकता का पल है। यह एक्सटेसी का पल है जिसके पार जीवन भी बेमानी है। यही मोक्ष का पल है।
    इच्छा-मृत्यु के क़ानूनी अधिकार को पाने के लिए मुकद्दमे में हार कर जेल जाता डॉक्टर बेंच पर बैठे अजनबी से नहीं मिलता जिसने जज की हैसियत से उसे सज़ा सुनाई थी। मिलता है ऐसी ख्वाहिश से जो अब लक्ष्यहीन निरर्थक जिंदगी की दौड़ में अनचाहे ही हांफ कर इच्छा-मृत्यु के विकल्प की ओर ही बढ़ चली है। इससे ज्यादा ग्लोरीफिकेशन के साथ किसकी जिंदगी का लक्ष्य पूरा होता है ?
    सुखांत की ओर बढ़ते अंत के बाद क्या शेष रह जाता है?
    कहानी यहाँ शब्दों में नहीं, रिक्तियों में है। ब्यौरे नहीं, प्रभाव व इम्प्रैशंस हैं।
    कहानी अंदर तक भिगोती है, अकेलेपन के दर्द से चीरती है, मृत्यु की आंकाक्षा को जिंदगी का ही एक राग समझने की चेतना देती है। किंतु अपनी तमाम दार्शनिक ध्वनियों के बावजूद मन को थका कर और भी अवसादग्रस्त कर डालती है । शायद इसलिए कि भारतीय दर्शन में मृत्यु ‘भय’ के साथ जोड़ कर देखी जाती है।
    बहरहाल अनुवाद बेहद जीवंत है और कहानी जिंदगी के गूढ़तम रहस्यों को गुनने का आह्वान।

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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