| बदली बनेंगे कि बरखा बनेंगे संतोष अर्श |
कविता के स्मृतिकोश में हाथों से फिसले और छूटे हुए जीवन की सलोनी संस्मरणात्मक चित्रकथाएँ होती हैं. वहाँ हमारे ख़ुद के अनेक चित्र होते हैं. दूसरों के, हमारे खींचे गये चित्र होते हैं और हमारे चित्र जो दूसरे खींचते हैं, वे भी. वहाँ हमारा मूल्य होता है, उतना ही, जितना हम औरों का लगाते हैं. औरों में, हमारे नात-बात, परिवार, परिजन, प्रियजन होते हैं. हमारी उखड़ी हुयी साँसें, हमारा डर, बेचारगी, तन्हाई सब वहाँ एकत्र होते हैं. किसी कोल्ड स्टोर में सुरक्षित मुरझाये फूलों की तरह. मर्च्युरी में धरा, परिजनों का रस्ता देखता कोई शव. किसी याद की याद. किसी पीड़ा के होने की पीड़ा. हथेलियों को स्पर्श कर भूमि पर गिरा जल, ठहर गया कोई पल. समय और स्थान की अपार बहती नदी की कलकल.
बूदे-आदम नमूदे-शबनम है
एक दो दम में फिर हवा है यह. (मीर)
स्मृति से ही ऐसे मूल्य बनते हैं जो आपे से बाहर जाती सभ्यता को आईना दिखाते हैं. कविता में यह मूल्यपरकता जीवन के सौन्दर्य के सामीप्य से उत्पन्न होती है. हमारे समय की अधिकांश कविता का संकट है जीवन के सौन्दर्य से इस निकटता का अभाव, राजनीतिक संरक्षण की चाह, कवि-स्वातंत्र्य का संकुचन, तात्कालिक और आंशिक जीवन की विवशताएँ. सतही कारोबार में संलिप्त चेतना में कविता का कोई नया फूल बड़ी मुश्किल से खिलता है. इसके अतिरिक्त कवि-कर्म को सुविधाजनक बनाने के प्रयत्नों के साथ-साथ पूँजी निर्मित बाजारू और सिंथेटिक जीवन के दुष्प्रभाव भी कारक हैं. इसलिए कृत्रिमता कविता में एक प्रवृत्ति बनती जा रही है. अपने जीवन को बचा-छिपा कर अच्छी, सरल और देर तक रहने वाली कविता नहीं रची जा सकती. जैसा नेरुदा ने कहा, ‘स्वाभाविक है. एक कवि का जीवन उसकी कविता में प्रतिबिंबित होना चाहिए. यही कला का नियम है और यही जीवन का नियम है.’
प्रभात के नये संग्रह ‘अबके मरेंगे तो बदली बनेंगे’ में कुछ पुरानी कविताएँ भी संकलित हैं, किन्तु संग्रह के नयेपन के साथ पुराने संग्रहों ‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ और ‘जीवन के दिन’ की अनुगूँजों को सुनने की चेष्टाओं के मध्य उनकी कविताई की सुसंगति की एक सरल रेखा खिंचती चली जाती है. जब हम प्रभात को आधुनिक हिन्दी कविता की परम्परा से जोड़ते हैं तो उसकी बुनियाद में प्रगतिवादी कविता की चन्दनवर्णी धूल के फूल खिलते हैं और नवें दशक की लोकाभिमुख मेड़ पर बैठे कवियों की पाँत का उनकी कविताई अभिवादन करती हुयी सी जान पड़ती है. बावज़ूद इसके हम उन्हें कविता की थोड़ी अलग-सी ज़मीन पर खड़ा हुआ देखते हैं तो वह स्मृति का जादू है. इस जादू में सादा-सूक्ष्म अनुभूतियों और लोक-जीवन के सौन्दर्य को मूर्त कर देने की देसी कारीगरी है. देशजता का शिल्प है. मनुष्यता की सुरीली धुन, यातना का करुण राग और लघुमानव की जीवन-लय से निर्मित संगीत की संगत है. उसी जीवन के अमूल्य सौन्दर्य के महावृक्ष पर प्रभात किसी मनौती की तरह कविता-पंक्ति बाँध देते हैं :
सरसों के फूल की तो
कोई क़ीमत नहीं संसार में. (सरसों के फूल)
प्रभात की काव्य-संवेदना मनुष्यता की नदी का धीमे बहने वाला सबसे निर्मल जल है, जिसमें आँख के पानी की गरमाइश है और भीगी हुयी घास की शीतलता है. उनकी कविताई सादा और हाशियानशीन आदमी की गरिमा, उसके संकल्प और मामूलीपन का उजास है, उसके हृदय की छिटकी हुयी चाँदनी है. प्रभात की कवितायें हमें स्मृति के उस धूल-फूल वाले रस्ते पर ले जाती हैं, जहाँ हम ज़्यादा मनुष्य की तरह अपनी-अपनी दिशाओं में चल रहे हैं. दुःख, सुख, जीवन, मरण सब जहाँ किसी उत्सव की तरह लगते हैं. ये ऐसी कवितायें हैं जो पूँजी के महाखटराग को बुहार कर एक किनारे कर देती हैं, जैसे कोई ग्रामीण स्त्री अपनी लूगड़ी (चुनरी) की लीर (किनारी) से बँधी हुयी झाड़ू से अपना द्वार बुहार कर कर्कट को एक किनारे लगा दे.
उपभोग की नयी सभ्यता और उसकी रसहीन एकांगी भूख को, जो लूट, विध्वंस, अन्याय, लालच, असंयम, से उत्पन्न है, जिसकी ज़द में प्रकृति, संस्कृति, मनुष्यता, करुणा, दया, ममता सब हैं, उसकी तरफ़ जब प्रभात देखते हैं और उसे एड्रेस करते हैं तो भारतीयता की पूरी, झिलमिलाती अवधारणा के साथ. उस मनुष्य की कोमल प्रियता से, जो कहीं पीछे रह गया है. जिसकी भूख ऐसी नहीं थी, जैसी आज के आदमी की है. ऐसी सम्वेदनाहीन भूख जो सब ही कुछ लील जाना चाहती है. असीम भूख, जो दूसरों के जीवन के सौन्दर्य को ग्रास बनाती है. गरुड़ की भूख भी जिसके आगे छोटी है :
हरा टिड्डा तक जानता है
कैसे रसपान किया जाय सौंदर्य का
गरुड़ तक जानता है
अपनी भूख की सीमा. (भूख की सीमा)
विनतापुत्र गरुड़ की भूख में विशेष यह नहीं है कि वह पर्वताकार कच्छप और हाथी जैसे जीव खाने को उद्यत है, बल्कि वह जो भी खाता है उसकी विनीत अनुमति माँगता है. अनुमति में सभ्यता का बोध है. जैसे हम घर में बच्चे को सिखाते हैं कि बिना पूछे कुछ नहीं लेना है, कुछ नहीं खाना है. भूख कितनी भी क्यों न हो, सभ्यता के तक़ल्लुफ़ का ध्यान रखना है, किन्तु तहज़ीब ने भूख की वह पवित्रता खो दी है, जिसमें बहुत भूखे व्यक्ति के पहला कौर निगलते ही आँख से पानी निकल पड़ता था. जिसकी बात इसी देश में कबीर करते हैं, गाँधी करते हैं, उस सभ्यता के महीन सूत्र प्रभात की पिछली कविताओं में भी हाथ लगे थे, नयी कविताओं में भी इन रेशों का अर्थ-विस्तार है.
मृत्यु प्रभात की कविताओं में स्मृति का अभिन्न हिस्सा है. पहले लगता है कि वे मृतकों को विस्मृत नहीं करना चाहते हैं, किन्तु कविताओं में विचलित जीवन का जल जब थिराने लगता है तब ऐसा अनुभव होता कि वे मृतकों को नहीं, मृत्यु को नहीं बिसराना चाहते. अतः कविताओं में मृत्यु बुझी हुयी चिताओं की राख की तरह बिखरी पड़ी रहती है, जिसमें से फूल चुनने का दृश्य भी फूल चुनने की भाँति चुना जा सकता है :
राख से फूल मत चुनना
चुनो भी तो गंगा में बहाने मत ले जाना
(राख से फूल मत चुनना)
मृत्यु के प्रति प्रभात का जो आकर्षण है वह रूसी कवि सर्गेई यसिनिन के उस उद्दाम आकर्षण को पुनर्जीवन देता है, जिसने उसे जीने नहीं दिया. उसने बहुत छोटी आयु में आत्मघात किया और अन्तिम कविता में कहा कि ‘इस दुनिया में मरना कोई नई बात नहीं है और जीना भी.‘ प्रभात का मृत्यु से इश्क़ आत्मघाती और आवेगमय नहीं है. उसमें विराग और उदासी का धूसरपन है. अस्तित्त्व का कोई पूँजीवादी दबाव भी नहीं है. मृत्यु की स्वाभाविकता को लेकर साधारण लोकाचार है. मरण के प्रति मानवोचित जागरण है. याद पड़ता है कि जीवन को निरर्थक मानने वाले अस्तित्त्ववादियों ने उतना आत्मघात नहीं किया, जितना जीवन को सौन्दर्य मानने वाले, समता और न्यायपूर्ण संसार की चाह रखने वाले युवा स्वप्निल कवियों ने किया. प्रभात भी यसिनिन ही की तरह निखालिस गँवई कवि हैं. धूल भरे रस्ते, खेत, रेवड़, गड़रिये, बबूल, ऊँट, झोंपड़ियाँ, पाटोर, भरोट, घड़े और लहँगे-लूगड़ी वाली कामगार स्त्रियाँ जिन कविताओं में रचते-बसते हैं, उनमें मृत्यु किसी जादू सरीखा असर पैदा कर देती है :
अब तो मृत्यु के बाद ही पहुँचेगी
मेरे गाँव में मेरी मिट्टी
(गाँव की मिट्टी)
बुआओं और बहनों की मृत्यु की कारुणिक दास्तानें कहन के रजत परदे पर छोटे-छोटे दृश्यों की रोशनी डालती हैं. सार्वजनीन मृत्यु के ऐसे वैयक्तिक वृत्त्तान्त कविता की दुनिया में कहीं-कहीं ही दिखते हैं. मृत्यु प्रभात की कविताओं से पसीजकर जीवन के निचाट मरु में करुणा का जल बन जाती है. सार्वत्रिक उपस्थित मृत्यु को निकट से देखकर प्रभात उसे लघुमानव का आख्यान बना देते हैं. मृत्यु की तरफ़ देखने का यह जन-दृष्टिकोण है, यहाँ आभिजात्य की फ़र्ज़ी उदात्तता की नामौज़ूदगी है. सादालिबासी के साथ तटस्थ मृत्यु जीवन के रस्ते में खड़ी है :
बुआ बहुत दिन जी नहीं पायी
कहा गया उसके लिपट गया था क़साई.
(क़साई)
*****
मृत्यु से बहुत डरने वाली बुआ के बिल्कुल सामने आकर बैठ गयी थी मृत्यु.
(एक सुख)
मृत्यु से अधिक अपूर्ण रह जाने वाले जीवन से मनुष्य भयभीत रहता है. साधारण जनों के बहुत से कार्य अधूरे रह जाते हैं और मृत्यु किसी सूदख़ोर की तरह वसूली के लिए विपन्न दरवाज़े पर आकर खड़ी हो जाती है. बहुत-सी मामूली इच्छाएँ समय की खूँटियों पर टँगी रह जाती हैं, अलगनी पर पुरानी कथरियों की तरह. अनेक बातें कहे जाने की प्रतीक्षा में अधबुनी रह जाती हैं, बहुत-सा निहारना, पुकारना और सँवारना शेष रह जाता है. इन्हीं अपूर्णताओं के मध्य मृत्यु को देखने की प्रभात की दृष्टि जितनी लौकिक है, उतनी ही फ़क़ीराना है, क्योंकि उस पर किसी तरह की भारी सांस्कृतिक साज-सिंगार की छाया नहीं डोलती. कबीरपंथी निर्गुणों की सी शैली में वर्णित यह देशी और पारम्परिक गँवई तरीक़ा है, जिसमें ऐसा काव्य-दर्शन निर्मित होता है कि :
हम समय से पहले चले गये
अपने मृतकों के हिस्से में भी रह रहे हैं.
(उनका हिस्सा)
‘गोबर की हेल’ प्रभात की पुरानी कविता है, मगर इसे जितनी ही बार पढ़ा जाएगा यह और नयी लगेगी. कारण यह उस माँ की आत्मीय, करुण छाया है, बच्चा जिसकी मुखाकृति तक को याद नहीं रख सका. माँ थी, किन्तु वह कैसी थी यह स्मरण नहीं. वह थी, नहीं होती तो मेरा अस्तित्त्व कैसे होता? मैं तो इतना छोटा था तब कि मेरी स्मृति बन रही थी. बचपन की कोमल आग में पक कर इतनी पक्की नहीं हो पायी याद, कि माँ से अपने लगाव का कोई विस्तृत आख्यान रचा जा सके. किन्तु कल्पना और कला तो वहीं काम आती हैं जहाँ अधिक कच्चा माल हाथ में न हो. जैसे बंजारों का कोई स्थापत्य नहीं होता, जैसे कोई ग़रीब मनुष्य जो शून्य से शुरुआत करता है, कोई बेसरोसामान, कोई बिना बालो-पर का परिन्दा; उड़ना जिसका तसव्वुर है, कुछ उसी तरह का. इसलिए कवि दूसरों की सुनायी कहानियों के आधार पर अपनी माँ को स्मरण करता है, उनकी लगाई-बुझाई को छान कर, एक ऐसी अफ़सानानिगारी करता है जिसमें मर्मान्तक पीड़ा है, जीवन की प्रबल-प्रगाढ़ यातना है जिसकी भरपाई नहीं हो सकती, लिहाज़ा हमें इस कविता के उस हिस्से की ओर देखना चाहिए जहाँ ज़िन्दगी की मार का कलुष नहीं है, माँ के प्रेम की उजली, शबनमी चाँदनी है, नर्म धूप की गर्मी और रौशनी है :
मेरे गालों पर अभी भी हैं मेरी माँ के चुम्बनों के अदृश्य निशान
मैं अभी भी उस पानी को अपने शरीर पर बहता देख सकता हूँ
जिसमें माँ ने मुझे नहलाया….
बुख़ार में आज भी माँ के आँसू की बूँद
मेरे ललाट पर आकर गिरती है
(गोबर की हेल)
प्रभात की कविताई की ख़ूबी इस बात में कम है कि वह सौन्दर्य के सैद्धांतिक मानकों के समीप है, बल्कि इस तथ्य में है कि यह मनुष्यता का मधुर, सरल राग है. कि इसमें दुक्खों की शिकायतें कम, जीवन जैसा जीवन ज़्यादा है. दूसरों से मनुष्य होने की इच्छा कम है, स्वयं के मनुष्य होने की चाह अधिक है. किसी किस्म की तेज़ी नहीं है कविताओं में. हड़बड़ी नहीं है. गणित नहीं है. सादे शिल्प में किसी अल्हड़ पतली धारा का बहाव है, जिसकी किलकारी सुनने के लिए बाहर-भीतर के शोर को कम करना है. किसी निर्जन, एकान्त स्थान पर जाना है, जहाँ इस धीमेपन का संगीत सुनायी दे सके :
अब जब धीमापन भी
थम गया है जीवन में
अब तो पानी ही नहीं
हमारे समय के दरिया में
(बुढ़ापा)
तेज़ी भी एक प्रकार की हिंसा है, अमानवीयता है. यह स्मृति को बाधित करती है, करुणा को संकुचित करती है, हमारे भीतर के मनुष्य को यन्त्रवत बनाती है. जैसा कुंदेरा कहता है कि ‘एक ख़ुफ़िया रिश्ता है, धीमेपन और स्मृति के बीच, तेज़ी और विस्मृति के बीच.’ प्रभात ने इस बात को अन्य लहजे में हमसे कहा है. अपनी पिछली कविताओं में उन्होंने स्वीकारा था कि वे गड़रियों की तरह जीवन में धीमे चलना चाहते हैं. इस धीमी चाल का मतलब है कि स्मृति को विस्मृति का ग्रास नहीं बनने देना है. वह स्मृति है जो वस्तुओं, विचारों, हथियारों और लोगों की अनुपस्थिति में भी संघर्ष करती रहती है, असत्य से, घृणा से, हिंसा से. सभ्यता की गाड़ी को ग़लत मार्ग पर खींचने वाले हाथों से. देशकाल से परे-परे, स्मृति के ताल भरे-भरे रहते हैं, हरे-हरे रहते हैं याद में विस्तृत चरागाह; जिसमें कि सत्य के प्रतीक, प्रभात की कविताओं के मवेशी निर्द्वंद्व चरते रहते हैं.
स्मृति मनुष्य की कैसी अपराजेय शक्ति है, प्रभात की कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा कुछ महसूस किया जा सकता है. हाँ, मगर ये ज़रूर कहना होगा कि नयी कविताओं में कसावट कम है और इनकी चदरिया झीनी बीनी मालूम होती है.
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| संतोष अर्श कविताएँ, संपादन, आलोचना . रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ पर संतोष अर्श की संपादित क़िताब ‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ अगोरा प्रकाशन से तथा ‘आलोचना की दूसरी किताब’अक्षर से प्रकाशित. poetarshbbk@gmail.com |




बढ़िया समीक्षा है l
महत्वपूर्ण समीक्षा । प्रभात जी और संतोष जी को बहुत बधाई और शुभकामनाएँ। समालोचन का आभार 🌼