इतिहास, साहित्य और सचरमाशंकर सिंह |
इतिहासकार का काम ‘अपने निष्कर्षों, निशानदेही और छिपी हुई कहानियों की खोज के द्वारा’ अतीत की व्याख्या करना है, वे कहानियां जो इतिवृत्तों में धँसी हुई होती हैं. ‘इतिहास’ और ‘कथा’ के बीच अंतर इस तथ्य में निहित है कि इतिहासकार अपनी कहानियों की खोज करता है जबकि कथाकार कथा को आविष्कृत करता है. लेकिन यह अवधारणा इतिहासकार के काम को वहाँ तक कठिन बनाती है, जहाँ तक कथा की खोज जाती है.[1]
वास्तव में कथा में इतिहास का तत्त्व निहित होता है, कम से कम शिल्प के स्तर पर कथाएँ घटनाओं के विभिन्न तंतुओं को वैसे ही जोड़ती हैं, जैसे कोई दक्ष इतिहासकार करता है. इतिहासकार का काम यहीं पर, थोड़ा सा आगे चलकर कठोर होता है और वह कथा में आई विभिन्न घटनाओं और वृत्तांतों से पूछताछ शुरू कर देता है. अपनी किताब “आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ (सन्दर्भ: भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, अमृतलाल नागर और गुरुदत्त के राजनीतिक उपन्यास)” में हितेन्द्र पटेल यही काम करते हैं. वे कथाकारों से इतिहास का सवाल पूछते हैं और वह भी उन कथाकारों से जिन्होंने इतिहास के सुपरिचित आख्यानों पर लिखा है और जिन आख्यानों पर अधिकांश भारतवासियों की एक ‘ऐतिहासिक’ और कभी-कभी ‘कथात्मक’ राय रही है.
(1)
यह राय इतनी कथात्मक रही है कि आजकल तो ‘व्हाट्सएप’ इतिहास ही चल पड़ा है. इस प्रकार का इतिहास बिलकुल अवैध, बिना किसी आदि-अंत के, शैवाल के टुकड़े की तरह साइबरस्पेस में तैरता रहता है और उसके बाद जन मानस की बातचीत का हिस्सा बन जाता है. इससे ‘आभासी विमर्श’ सृजित होते हैं. इस परिघटना के ठीक पहले ‘कथाओं के देश भारत में’ इतिहास और गल्प के बीच अंतर पाट देने वाली कथाएँ भी प्रचलित रही हैं, विशेषकर 1950 के बाद वाली पीढ़ी में.
1950 वाली पीढ़ी के पास मोहभंग और स्मृति दंश के कुछ हिस्से भी आए थे लेकिन जो पीढ़ी 1990 के बाद पैदा हुई, उसके हिस्से ‘इतिहास’ कम ‘फ्रेम’ ज्यादा आए जिसमें किसी एक विचार के बरअक़्स दूसरे विचार, एक दल के बरअक़्स दूसरे दल अथवा एक नेता के बदले दूसरे नेता को तरजीह दी जाती है. ‘व्हाट्सएप’ इतिहास इस पीढ़ी को इसी पृष्ठभूमि में एक उत्तेजना प्रदान करता है. वह उन्हें न केवल पेशेवर इतिहास से दूर करता है बल्कि वह उन्हें उन सभी सांस्कृतिक माध्यमों से भी दूर करने लगता है जिनसे गुजरकर भारत के इतिहास को जाना जा सकता है.
विभाजन के बारे में अगर अनीता-इंदर सिंह, उर्वशी बुटालिया के ग्रंथों से इसका परिचय नहीं है, ‘टुवर्ड्स फ्रीडम’ जैसा डॉक्युमेंट यह पीढ़ी देखना नहीं चाहती/ देख नहीं पाती तो यह ‘आज़ादी की छाँव में’[2] और ‘झूठा सच’ के भी किनारे भी नहीं जाती है.
निश्चित ही भारत का इतिहास कोई सुखकारी घटनाओं की शृंखला नहीं है. इस दौरान हिंदू-मुस्लिम विद्वेष चरम पर पहुँचा, विभाजन हुआ, गाँधी की हत्या की गई और सबसे बढ़कर बँटवारा हुआ. और ठीक इसके पहले भारत की आज़ादी की लड़ाई 1857 से 1947 के बीच न केवल लड़ी जा रही थी, बल्कि उसी के बीच ‘कथा’ लिखी जा रही थी, कही जा रही थी, इतिहास ‘लिखा’ जा रहा था, ‘सुनाया’ जा रहा था. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि भारत की आज़ादी के आंदोलन के दौरान साहित्य और इतिहास एक दूसरे में घुल मिल जा रहे हैं. ‘बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मरदानी वह तो झाँसी वाली रानी थी. सुभद्रा कुमारी चौहान की यह कविता एक ही साथ स्मृति, कविता और इतिहास के अंतर को पाट देती है.
ऐसे में भारत के आधुनिक इतिहास को देखने-समझने में साहित्य आँख और कान दोनों का काम करता रहा है. नितांत तकनीकी अर्थ में इतिहास-लेखन की कच्ची सामग्री साहित्य के बिना मजबूती नहीं पाती है. आधुनिक भारत में जाति आधारित जनगणना की शुरुआत, प्रिंटिंग प्रेस के विस्तार; इतिहास, समाजशास्त्र और एंथ्रोपोलोजी के उदय के ठीक पहले के समय के इतिहास-लेखन के लिए साहित्य प्रमुख भूमिका अदा करता रहा है.
गुप्त युग और उसके थोड़े से समय बाद तक ‘गाथाकार’ के रूप में सूत-मागध और कुशीलवों का अस्तित्त्व था ही. वे गा-गाकर वंश परंपराओं को सुरक्षित रखते थे.[3] कश्मीरी विद्वानों की इतिहास-लेखन में पारंगतता के उदय के बाद एक विधा के रूप में इतिहास-लेखन राज्याश्रित भी हुआ.
इस्लामी इतिहास-लेखन ने इसमें राजकीय अभिलेखों को अनन्य रूप से जोड़ दिया. इतिहास अब ‘कागज़’ के रूप में ज्यादा बेहतर तौर पर सुलभ होने लगा. पहले वह गाथाओं, भोजपत्रों, ताडपत्रों पर अंकित था. मध्यकाल में कागज़ की सुलभता ने भी इतिहास-लेखन को न केवल एक दिशा दी बल्कि उसने राज्य की ताकत को कागज़ और कलम के द्वारा बढ़ाया भी.
इस कागज़ और कलम ने उसकी वैधानिकता को चुनौती भी दी. राज्य के ख़िलाफ़ बातें इसी कागज़ और कलम से तेजी से फैलने लगीं, वह भी स्थाई रूप से. फरहत हसन इस बात का ज़िक्र करते हैं कि इसने ख़ास किस्म के जन साहित्य को न केवल बढ़ावा दिया बल्कि एक लोकवृत्त का निर्माण भी किया [4].
इसे हम आधुनिक भारत में भी लक्षित कर सकते हैं और वह भी और अधिक स्पष्टता के साथ. आज़ादी के आन्दोलन के दौरान, उसके बाद भी, जहाँ राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने ब्रिटिश साम्राज्य की ‘भलमनसाहत के वृत्तान्त’ में छेद कर दिया. यह काम साहित्यकारों ने बहुत ज्यादा किया, उसका प्रसार भी सभी भारतीय भाषाओं में हुआ. आज़ादी के आन्दोलन की व्यापक और महीन(SUBTLE) छवियाँ इस साहित्य में देखी जा सकती हैं. वह सब कुछ जो ‘राजकीय अभिलेखों’ में नहीं आ पा रहा था, उसे साहित्यकार दर्ज कर रहे थे. इस दिशा में भारतीय उपन्यासकारों का देश को ऋणी होना चाहिए कि उन्होंने देश के राष्ट्रीय नेतृत्व और ‘जन’ को एक साथ ही अपनी कलम से कागज़ पर अंकित कर दिया.
(2)
क्या इस कथा को किसी इतिहासकार को यहीं खत्म कर देना चाहिए अथवा हेडन व्हाइट के शब्दों में उसे अपनी उस कहानी की तलाश करनी चाहिए जिसके द्वारा वह इतिहास लिखता है. क्या वह अपनी कहानी किसी ‘आधुनिक आर्काइव’ के दस्तावेज़ों में तलाशेगा या किसी उपन्यास में जिसे पहले ही लिखा जा चुका है? क्या उपन्यास सच को वैसे ही बयां करता है, जैसा इतिहासकार करता है और उसका सच ‘ऐतिहासिक’ घटनाओं की कसौटी पर वैसे ही खरा उतरेगा, जैसा किसी इतिहासकार का सच होता है?[5] हालाँकि, अपनी किताब में हितेंद्र पटेल मार्था नुस्बाम को उद्धृत करते हैं जो कहती हैं
‘इतिहास दिखलाता है कि क्या हुआ, जबकि साहित्यिक कला (उपन्यास) ऐसी चीजों को सामने रखती है, जैसी हुई हो सकती हैं (पृष्ठ 17)”.
यह ‘होने और हो सकने की सम्भावना’ के बीच हितेन्द्र पटेल दूसरा रास्ता अख्तियार करते हैं जिसमें ऐतिहासिक सच को, उसकी बनावट को कुछ चुनिन्दा उपन्यासों में चित्रित किया गया है जिसे वे ‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ’ कहते हैं.
वास्तव में ब्रिटिश उपनिवेश के भारत आगमन ने भारत की बौद्धिक संरचना और अतीत पर विचार करने के तौर-तरीके को बदलकर रख दिया. इसी के साथ भारत की आज़ादी की लड़ाई इतने इंटेंस तरीके से रोज ब रोज लड़ी जा रही थी कि उसका दस्तावेज़ीकरण और इंदराज़ भी व्यापक पैमाने पर हुआ. इससे आधुनिक भारत के इतिहास-लेखन के लिए आर्काइव अनिवार्य जैसे लगते हैं.
आधुनिक भारत के इतिहासलेखन के एक मान्य और समादृत ढर्रे के रूप में आर्काइव की मान्यता रही है और उसमें संरक्षित दस्तावेज़ इतिहासकार को उस कहानी को कहने के लायक बनाते हैं जिसे वह सच समझता है, अपने सबूतों से सच या सच के बहुत करीब साबित करता है. हाँ, उसकी व्याख्या और वैचारिक ढाँचा अपना होता है जो इतिहासकार के प्रशिक्षण, सबूतों से उसके बरताव और ऐतिहासिक घटनाओं की उसकी शिनाख्त पर निर्भर करता है. स्वयं अपने पहले के लेखन में हितेंद्र पटेल यह काम करते रहे हैं. लगभग एक दशक पहले उन्होंने उन्नीसवीं सदी के बिहार के बौद्धिक वर्ग की निर्मिति, हिंदी भाषा के प्रसार, उसकी साम्प्रदायिकता से मुखा-मुखम और बुद्धिजीवी समाज के वर्ग-विन्यास पर जो काम किया था, उसकी आधारभूत सामग्री उन्होंने पटना, बंगाल और दिल्ली के अभिलेखागारों से एकत्र की थी.[6] तो फिर ऐसा क्या कारण था कि इतिहासकार हितेंद्र पटेल ने अभिलेखागार छोड़ उपन्यासों की तरफ़ अपना ध्यान केन्द्रित किया? क्या यह इतिहासलेखन का एक सुभीता है, या उससे कोई नई ऐतिहासिक दृष्टि उपजती है?
हम इस बात का परीक्षण करेंगे लेकिन उससे पहले किताब के बारे में जान लें.
यह किताब चार उपन्यासकारों के उपन्यासों के आधार पर भारत की आधुनिक बनावट को समझने का प्रयास करती है. इनमें शामिल हैं: भगवतीचरण वर्मा (1903-1981), यशपाल (1903-1976), अमृतलाल नागर (1916-1990) और गुरुदत्त (1894-1989).
इस किताब में कुल पाँच अध्याय हैं जिसमें पहला अध्याय राजनीतिक इतिहास और राजनीतिक उपन्यासों के सम्बन्ध पर चर्चा करता है. इसके ठीक बाद लेखक अपनी मूल विषयवस्तु पर आ गया है और उसने अगले चार अध्यायों में क्रमश: भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, अमृतलाल नागर और गुरुदत्त के उपन्यासों में वर्णित राजनीतिक इतिहास, उसके सामाजिक आधार, क्रान्तिकारी और नेहरूवादी समाजवाद, राष्ट्र निर्माण, कांग्रेसी राजनीति और हिंदू राष्ट्रवादी दृष्टि की चर्चा की है. उसकी विवेचना को बीसवीं शताब्दी के उन मूल्यों से संयोजित करने की कोशिश की गई है जिससे उस समय का भारत बन रहा था. वास्तव में उस समय कोई भी एक विचार भारत को पूरी तरह से प्रकट करने में अक्षम था (पृष्ठ 20-21).
इन चारों उपन्यासकारों के चयन का औचित्य प्रतिपादित करते हुए लेखक ने मुख्यता तीन कारण गिनाये हैं: उस उपन्यासकार ने गाँधी-नेहरू युग को देखा, समझा हो; उपन्यासकार ने उनके पूरे कालखंड पर लिखा हो और ‘कांग्रेस, समाजवादी, और हिंदू राष्ट्रवाद’ को समझने में मदद कर सकता हो. इस दृष्टि से भगवतीचरण वर्मा और अमृतलाल नागर कांग्रेसी विश्व दृष्टि, यशपाल समाजवादी और गुरुदत्त हिंदू राष्ट्रवादी भावबोध को प्रकट करते हैं.
इन चारों उपन्यासकारों का जीवन बीसवीं शताब्दी के एक लंबे हिस्से को जैविक और रचनात्मक तरीके से पार करता है. इन चारों ने जमकर लिखा है जिसमें गुरुदत्त अल्प चर्चित रहे हैं. इसके दो कारण हैं: उनकी पहले तीन उपन्यासकारों से कोई तुलना नहीं हो सकती है क्योंकि रचनात्मक रूप से वे इन तीनों के सामने कहीं नहीं टिकते हैं. उनके उपन्यास हिंदू-मुस्लिम विद्वेष से भरे पड़े हैं जिसमें गुरुदत्त ने हिंदुओं का पक्ष लिया. जाहिर सी बात है कि हिंदी ‘साहित्य की मंगलभूमि’ में गुरुदत्त को सम्मान नहीं पाना था लेकिन जैसा हितेंद्र पटेल स्पष्ट करते हैं कि उन्होंने इन चार उपन्यासकारों को उनके साहित्यिक गुण-अवगुण के आधार पर न चुनकर उस यथार्थ के लिए चुना है जिसका प्रकटीकरण वे अपने उपन्यासों में कर रहे हैं.
पहले तीन उदारवादी, वामपंथी और किंचित कांग्रेसी झुकाव के साथ भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के उन आदर्शों के प्रतिनिधि हैं जिन्हें कांग्रेस सहित दूसरे कई महत्त्वपूर्ण दल धारण करते थे तो गुरुदत्त खुले तौर पर कहते हैं कि
‘गाँधी और उनका आन्दोलन जनता के बड़े हिस्से का समर्थन पाकर भी विफल रहा और उसके आदर्श किसी के लिए शुभ सिद्ध नहीं हुए’ (पृष्ठ 299).
यह एक ऐसी बात है जो बिलकुल उलटे तरीके से, यानी गाँधी के बारे में बहुत ही सकारात्मक लेकिन क्रिटिकल नज़रिये के साथ भगवतीचरण वर्मा, यशपाल और अमृतलाल नागर में मौजूद है. फिर गुरुदत्त की इस समझ का क्या करें? क्या उसे प्रलाप कहकर पिंड छुड़ा लें? बिलकुल नहीं. इसे पढ़ा जाना चाहिए कि किस प्रकार जब हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में गाँधी पूज्य थे, उनसे प्रेमचन्द और फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ के पात्र स्थाई जीवन पा रहे थे, तब एक छोटे से नामालूम हिस्से में यह सब भी चल रहा था. और यह संसार ‘विभाजन का समय’ सृजित करने में शामिल था.
गुरुदत्त को पढ़ते हुए आप यशपाल के झूठा सच या मंटो की कहानियों की तरफ प्रयाण करेंगे तो पायेंगे कि यह दो भिन्न संसार आपस में संघर्षरत थे. यशपाल और गुरुदत्त के उपन्यासों की कथाभूमि का एक बड़ा हिस्सा पुरानी दिल्ली है जिसमें धर्म, साम्प्रदायिकता, राष्ट्रीय नेतृत्व आपस में घुल-मिल जाते हैं. हितेंद्र पटेल इस कृति में यह रेखांकित करते हैं कि कैसे आमजन और सत्ता एक दूसरे से आमने-सामने थे और आश्चर्यजनक रूप से 1915 से 1945 तक सृजित किये गये मूल्य छिन्न-भिन्न हो गये थे.
यह काफ़ी रोचक बात है कि जब भारत की आज़ादी की लड़ाई आगे बढ़ रही थी तो वह अपने आपको न केवल वर्तमान में संदर्भित करने का प्रयास करती थी बल्कि वह ऐतिहासिक घटनाओं और उनके परिणामों को पीछे भी खींच ले जाती थी. दीपेश चक्रवर्ती के हवाले से हितेंद्र पटेल इस ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं कि एक समय ऐसा आया जब जदुनाथ सरकार द्वारा शिवाजी पर लिखे गये ग्रंथों और महाराष्ट्र में लोकप्रिय शिवाजी के लोकप्रिय इतिहास के बीच में एक संघर्ष देखा जाने लगा.
‘जदुनाथ सरकार को अपने इतिहासलेखन और लोकप्रिय इतिहास के बीच के अंतर को समझाने के लिए बहुत कोशिश करनी पड़ी और अंत में वे यह समझाने में सफल नहीं हो सके कि ‘उनकी शिवाजी पर लिखी इतिहास पुस्तक ही असली इतिहास है’ और लोकप्रिय इतिहास पुस्तकों में शिवाजी के बारे में जो कुछ वर्णित है, वह कहानी है और उसका आधार कल्पना है(पृष्ठ 39).’
इस परिघटना को गुरुदत्त से संबंधित अध्याय में लेखक ने ज्यादा बेहतर तरीके से स्पष्ट किया है जहाँ गुरुदत्त फैंटेसी का सहारा लेकर उपन्यास लिख रहे हैं (पृष्ठ 276). मुझे पता है कि आप कहेंगे कि यह तो उपन्यास की बात है और गुरुदत्त तो कोई प्रशिक्षित इतिहासकार तो हैं नहीं! यही बात तो दीपेश कर रहे हैं कि ‘फैक्ट और फ़िक्शन’, गंभीर और लोकप्रिय में एक संघर्ष चल रहा है जिसमें लोकप्रियता और फैंटेसी इतिहासबोध को ही निर्मित करने लगती है.
हितेंद्र पटेल की यह किताब इतिहास के इसी दोहरे उपयोग(दुरुपयोग) की भी तरफ़ अपने पाठकों को ले जाती है. जो कुछ राष्ट्रीय पटल पर हो रहा है, वह अलग-अलग विचारधारा के उपन्यासकारों में अलग-अलग तरीके से न केवल घट रहा है बल्कि आधुनिक भारत के 1940-1950 के बीच के भारतीय समाज के पर्यवेक्षण के बाद कोई भी विद्वान इस बात को नोटिस करेगा कि इस दौर में कोई एक ‘आदर्शवादी जनता’ नहीं हैं बल्कि वह देश (भारत-पाकिस्तान), धर्म(हिंदू-मुस्लिम, सिख), नेता( नेहरू गाँधी-जिन्ना), पार्टी( कांग्रेस-मुस्लिम लीग) में बँट चुकी है. हालाँकि, यह बाइनरी इतनी स्पष्ट नहीं है, अन्यथा यशपाल को ‘झूठा सच’ न लिखना पड़ता. और यह बात उस समय भी हुई, आज़ादी के बाद अब भी बदस्तूर जारी है. हितेंद्र पटेल लिखते हैं,
‘धीरे-धीरे लोकप्रिय इतिहास के दायरे में आधुनिक काल का इतिहास भी आ गया. इस पूरे मामले में एक दिलचस्प बात यह हुई कि अकादमिक इतिहास-पुस्तकों में मुसलमान शासन के अत्याचारों का बखान और ब्रिटिश शासन का गुणगान होता था और लोकप्रिय इतिहास में राष्ट्रवाद के प्रति थोड़ा झुकाव दिखलाई पड़ता था. यह झुकाव धीरे-धीरे बढ़ता गया और गाँधी युग में इस तरह के लोकप्रिय साहित्य में इतिहास राष्ट्रीय आंदोलन और उसके नायकों की गौरवमय कहानी बयान करने लगा.’(पृष्ठ 39).
अमृतलाल नागर और भगवतीचरण वर्मा के उपन्यासों में कोई इन नायकों की पहचान कर सकता है. ‘सीधी सच्ची बात’ में भगवतीचरण वर्मा गाँधी को देश और कांग्रेस का बेताज बादशाह ऐसे ही नहीं कह रहे हैं, बल्कि यह उनके लगाव और आदर्श से उपजी बात थी, वह आदर्श जिसे समय गढ़ रहा था. हितेंद्र पटेल लिखते हैं:
‘अपने पहले प्रकाशित उपन्यास पतन (1928) में भगवतीचरण वर्मा ने लिखा था कि राष्ट्रीयता की भावना भारत के लिए नई चीज थी. यहाँ के लोगों के लिए धर्म की भावना का महत्व सबसे अधिक रहा है और यहाँ धर्म में विश्वास पर बहुत बल है…. जनता की देवता के प्रति भक्ति की आदत बनी रहने के कारण गाँधी और नेहरू जैसे नेता देवता की तरह माने गए’(पृष्ठ 55).
इसे पढ़ते हुए मुझे डी. डी. कोसंबी की भक्ति संबंधी व्याख्या याद आती है.
भारत की आज़ादी की लड़ाई के विभिन्न चरणों में जनता और नेतृत्व सदैव एक सम पर नहीं रहा है. जो कुछ ‘ऊपर’ चल रहा था, वही ‘नीचे’ नहीं चल रहा था. बिलकुल इतिहास की धारा के बीच यशपाल का उपन्यास ‘दादा कॉमरेड’ 1941 में प्रकाशित हुआ. इस समय यशपाल के शब्दों में ‘पूँजीवाद, नाज़ीवाद, गाँधीवाद और समाजवाद में एक संघर्ष’ चल रहा था. इसमें गाँधीवादी अहिंसा और क्रांतिकारी आंदोलन के विचार की एक कशमकश वातावरण में विद्यमान थी. और क्रांतिकारी अपने निकट के अतीत से परिचालित थे, मसलन शचीन्द्र नाथ सान्याल के जीवन से प्रभावित हरीश नामक पात्र हिंसा की व्यर्थता का अनुभव करता है और उसे लगता है कि ‘देश को स्वाधीन होने की जरूरत इसलिए है कि जनता का शोषण रुक सके. पिछले तीस सालों में क्रांतिकारी राजनीतिक आंदोलन ने कोई उन्नति नहीं की’ पृष्ठ (149).
इसे पढ़ते हुए भगत सिंह की वह मशहूर उक्ति याद आती है जिसमें उन्होंने क्रांति के वैचारिक पक्ष पर बात की थी लेकिन यहाँ तो मामला बदला हुआ लग रहा है. आज़ादी नजदीक थी और उसके बारे में देश के विभिन्न खित्तों में अलग राय बननी तो शुरू हो गई थी लेकिन उसमें सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रभुत्वशाली राय कांग्रेस की ही थी. वही भारत की भाग्य विधाता थी. दबे-छुपे स्वरों और कभी-कभी खुले तौर पर लोग इससे खिन्न हो जाते थे. लगभग सभी चारों उपन्यासकारों के पात्रों में यह झुकाव नोटिस किया जा सकता है जिसे हितेंद्र पटेल बखूबी दर्ज करते हैं.
भगवतीचरण वर्मा जवाहरलाल नेहरू के प्रति अपने उपन्यासों में क्रिटिकल दिखने का यत्न करते रहे. एक जगह वे लिखते हैं नेहरू के ‘नए भारत के सपनों’ के साथ खुद को दिखाने के लिए दिखावापसंद लोग उनके साथ जुट रहे हैं(पृष्ठ 118). वास्तव में यह सत्ता की नियति ही है कि वह अपने साथ इस तरह की बुराइयाँ लेकर ही आती है. शासक जनता का कल्याण करना चाहते हैं या करते हुए दिखना चाहते हैं और इसी बीच एक ‘त्वरित प्रभुताशाली वर्ग’ आ जाता है जिसे ताकत तो शासक से मिलती है और काम वह खुद का निकालता है. इससे उस समय के साधु, संत महात्मा, लेखक, बुद्धिजीवी चिढ़ते हैं कि जनता और शासक के बीच से बिचौलिए हटाये जाएँ.
खैर, इसी किताब में हितेंद्र पटेल बताते हैं कि भगवतीचरण वर्मा कांग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में शामिल हुए थे और वे फ़िरोज़ गाँधी, रफ़ी अहमद किदवई के साथ जुड़े रहे थे, वे उनके हितों को आगे बढ़ाने वाली पत्रिका निकालते थे और कुछ संघर्ष के बाद लखनऊ के सम्भ्रांत इलाक़े में पाँच कमरों वाला एक बड़ा घर बनवाया जिसके लिए सरकार ने जमीन दी! यह मुझे बहुत व्यंगात्मक लगता है. भगवतीचरण वर्मा 1971 में पद्म भूषण से नवाज़े गए. 1978 में उन्हें राज्यसभा जाने का मौका मिला. हालाँकि हितेंद्र पटेल ने उन्हें आज की भाषा में ‘लाभार्थी’ नहीं कहा है लेकिन ‘सरकार की कृपा’ उन पर खूब रही. यह कृपा बाद में यशपाल पर भी रही.
यशपाल ने 1960 में इसी तरह से प्लाट सरकार से प्राप्त किया और लखनऊ में घर बनवाया (पृष्ठ 54). आर्यसमाजी परिवार में जन्मे गुरुदत्त कई जगह आश्रय और जीविका के लिए भटकते रहे और कुछ वर्ष अमेठी राजपरिवार से जुड़े रहे. अमृतलाल नागर फिल्म उद्योग में पटकथा लेखन, इसके बाद पूर्णकालिक साहित्यकार बने रहे और जीवन के अंत में वित्तीय रूप से असुरक्षित नहीं थे. यह सब बताने का उद्देश्य यही है कि रचनाकारों के जीवन के भौतिक आयाम भी होते हैं, जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए. इस किताब में उसे उकेरने का प्रयास किया गया है लेकिन इन स्थलों पर भाषा अस्पष्टता की शिकार हो गयी है.
(3)
इन चारों उपन्यासों की केंद्रीय विषयवस्तु को यदि कोई ध्यान से देखे (हितेंद्र पटेल की किताब के आधार पर) तो निम्नलिखित व्यक्ति, घटनाएँ और विचार सामने आते हैं :
- ब्रिटिश शासन का दमनकारी रूप
- क्रांतिकारी आत्मबलिदान
- वामपंथ
- गाँधी का उदय
- जवाहरलाल नेहरू द्वारा राष्ट्रीय नेतृत्व में प्रमुखता पाना
- मुहम्मद अली जिन्ना की बेचैनी
- हिंदू राष्ट्रवाद
- देश का विभाजन
- ‘नए भारत’ का निर्माण और उसकी आलोचना
भारत के बँटवारे की दास्तां जिस तरह से यशपाल और गुरुदत्त सुनाना चाहते हैं और जिसे हितेंद्र पटेल इतिहास मानने का इसरार करते हैं, उसकी सैद्धांतिक पृष्ठभूमि को इस समीक्षा की शुरुआत में ही स्पष्ट कर दिया गया है इसलिए मेरा उनके ‘शिल्प’ से कोई विरोध नहीं है. यह इतिहास-लेखन के पुराने खाँचों को चुनौती दे सकता है लेकिन यह जरूर हो सकता था कि यह किताब थोड़ी सी पतली होती, कहीं-कहीं उपन्यास की कथावस्तु बृहत स्तर पर साझा तो कर दी गयी है लेकिन उतने ही व्यापक स्तर पर उन स्थितियों की पड़ताल नहीं की गई है जिनके कारण वे घटनाएँ जन्म ले रही थी. एक सधे हुए इतिहासकार से इतनी उम्मीद कोई गलत बात नहीं है. इसके अतिरिक्त इसके चारों प्रमुख अध्यायों में यदि उपशीर्षक लगा दिए गये होते तो नौजवान पाठकों को आसानी होती. इसके कारण पाठकीय एकाग्रता भंग होती है.
अंत में इस किताब के लिए लेखक को बधाई और साधुवाद कि उसने एक जोखिम भरे रास्ते की तरफ इतिहास-लेखन का मुंह मोड़ने की कोशिश की है जिसमें वह सफल भी रहा है. यह देखने की बात होगी कि वह भविष्य में इसे नफीस तरीके से कैसे आगे ले जाएगा और नई पीढ़ी के इतिहासकार इस विचार से किस प्रकार गुत्थमगुत्था होंगे कि उपन्यास से औपनिवेशित किये गये समाजों का इतिहास लिखा जा सकता है. इस दिशा में विद्वानों ने प्रयास किया है कि उपन्यास के माध्यम से देशों का सामाजिक इतिहास लिखें, स्त्रियों के एकांत की चर्चा करें लेकिन राजनीतिक नेतृत्व, उसकी बनावट, सफलता-असफलता पर बात की जानी थी. यह कमी प्रस्तुत किताब पूरा करती है. एक निश्चित कालखंड को देखने की इतिहासकार की अपनी नज़र होती है. उसका लिखा इससे परिचालित होता है. हितेंद्र पटेल की भी अपनी नज़र है लेकिन इसके साथ वे अलग-अलग चार नज़रिये को अपने पाठक के सामने रख देते हैं और उसे निर्णय लेने के लिए छोड़ देते हैं.
संदर्भ
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[1] हेडन व्हाइट (1973),मेटाहिस्ट्री, द जॉन होपकिंस युनिवर्सिटी प्रेस, लंदन, पृष्ठ6
[2] बेगम अनीस किदवई का जन्म 1908 में बाराबंकी में हुआ. उनके पति की हत्या विभाजन के दंगों के दौरान हुई. शरणार्थी महिलाओं के पुनर्वास के लिए सुभद्रा जोशी के साथ मिलकर काम किया. गाँधी की महिला सिपहसालारों में प्रमुख. राज्यसभा की सदस्य रहीं. ‘आज़ादी की छाँव में’ नाम से संस्मरण लिखे. नेशनल बुक ट्रस्ट से यह किताब प्रकाशित है. न पढ़ी हो तो ज़रूर पढ़ें.
[3] रोमिला थापर(2013), पास्ट बिफोर अस : हिस्टोरिकल ट्रेडिशन ऑफ़ अर्ली नॉर्थ इंडिया, रानीखेत, परमानेंट ब्लैक, पृष्ठ 272.
[4] फरहत हसन(2021), पेपर, परफोर्मेंस, एंड द स्टेट : सोशल चेंज एंड पॉलिटिकल कल्चर इन मुग़ल इंडिया, कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, यूनाइटेड किंगडम, पृष्ठ 48 और पृष्ठ 75-95
[5] शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी द्वारा 23 फरवरी 2011 को जामिया मिलिया इस्लामिया में दिया गया व्याख्यान ‘द ट्रूथ ऑफ़ फ़िक्शन’ देखिए. इसी शीर्षक से चिनुआ अशेबे को देखिए ‘The Truth of Fiction, 1978, https://viennachinuaachebe.wordpress.com/2013/10/11/the-truth-of-fiction-good-and-bad-fictions/
[6] हितेंद्र पटेल(2011), कम्युनलिज्म एंड इंटेलीजेंसिया इन बिहार, 1870-1930 : शेपिंग कास्ट, कम्युनिटी एंड नेशनहुड, ओरियंट ब्लैकस्वान, नई दिल्ली
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रमाशंकर सिंह भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो रहें हैं. इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद के गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान से डीफिल की उपाधि (2017) प्राप्त रमाशंकर सिंह का कुछ काम सीएसडीएस के जर्नल प्रतिमान में प्रकाशित हुआ है जो भारत की राजनीति और लोकतंत्र में गुंजाइश तलाश रहे घुमंतू समुदायों, नदियों एवं वनों पर निर्भर निषादों और बंसोड़ों के जीवन एवं संस्कृति के विविध पक्षों की पड़ताल करता है.
उन्होंने ‘पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इण्डिया’ के उत्तर प्रदेश की भाषाएँ खंड के लिए लेखन, अनुवाद और संपादन का काम किया है. उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के लिए बद्री नारायण की किताब ‘फ्रैक्चर्ड टेल्स: इनविज़िबल्स’ इन इंडियन डेमोक्रेसी’ का अनुवाद ‘खंडित आख्यान : भारतीय जनतंत्र में अदृश्य लोग’ और ‘निशिकांत कोलगे’ की किताब ‘गाँधी अगेंस्ट कास्ट’ का अनुवाद ‘जाति के विरुद्ध गाँधी का संघर्ष’ के नाम से किया है. शिमला में फेलो रहते हुए ‘नदी पुत्र’ लिखी है. ram81au@gmail.com
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आलेख दिलचस्प है, किताब भी पठनीय लगती है। किताब के विषय जैसी ही कुछ बात मेरे मन में आयी थी जब “मानस का हँस” पढ़ी थी जिसमें तुलसी दास जी की कहानी के साथ ही बाबर और बबरी मस्जिद का वर्णन भी था। वैसे सोचूँ कि इतिहास की किताबों में पढ़ा इतिहास कितना याद है तो लगता है कि उपन्यासों में वर्णित इतिहास अधिक सच्चा लगता है और याद भी रहता है। शायद इसकी वजह सामान्य पाठक होना है, इतिहासकारों के साथ यह नहीं होता होगा?
फैक्ट(इतिहास) और फिक्शन(कहानी) के संदर्भ में कि इनके सतत संघर्ष में कभी-कभी देखा गया है कि लोकप्रियता और फैंटेसी जो अमूमन फिक्शन का पार्ट होती हैं, इतिहासबोध को निर्मित करने लगती हैं।आलेख की इस निष्पत्ति से मैं भी सहमत हूँ।शिवाजी या महाराणा प्रताप की लोकप्रियता एक ऐसे महान हिंदू नायक की है जो हिंदू जाति के हित रक्षक माने जाते हैं पर इतिहास का पूरा सच यह नहीं है। उस जमाने में राजाओ के बीच अक्सर आपसी वर्चस्व के लिए लड़ाईयां होती रहती थीं।अकबर के प्रधान सेनापति हिन्दू थे और महाराणा के मुसलमान।शिवाजी की सेना में भी कई मुसलमान महत्वपूर्ण ओहदों पर काबिज थे।पर यह भी सच है कि इनमें आत्म-स्वाभिमान और वीरता अन्य से अधिक थी। इस आलेख में यह भी गौरतलब है कि सत्ता के साथ दिखावापसंद लोगों का हुजूम चिपकने लगता है पर यह प्रवृत्ति अपने यहाँ शुरू से रही है और कुछ अधिक ही रही है।सत्ता-केंद्र चाहे राजाओ,मुगलों,अंग्रेजों या आजादी के बाद किसी दल का रही हो।बहुत मूल्यवान आलेख।साधुवाद !
रामशंकर सिंह ने हितेन्द्र पटेल की पुस्तक ‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ’ पर चर्चा की है । हितेन्द्र पटेल ने इतिहास को टटोलने में चार उपन्यासकारों के उपन्यासों का संदर्भ लिया है । भगवतीचरण वर्मा, यशपाल, अमृतलाल नागर और गुरुदत्त । पटेल की पुस्तक की निष्पत्तियों ने मेरी जानकारी बढ़ायी है । शिवाजी ने भारत को मुग़लों के शासन से मुक्त करने के लिये लड़ाइयाँ लड़ी । मुझे इसमें किंतु परंतु नहीं नज़र आता । चारों उपन्यासकारों की अपनी अपनी प्रतिबद्धता है ।
सभी अपनी प्रतिबद्धताओं से इतिहास को दृष्टि देते हैं । मुझे अमृतलाल नागर का नज़रिया सही लगता है । समालोचन के इस अंक ने इस वेब पत्रिका के स्तर को बनाये रखा है । ‘जैविक और रचनात्मक’ इतिहास बोध के लिये सराहनीय शब्द युग्म है । स्त्रियों का एकांत बदस्तूर क़ायम है । शचीन्द्र नाथ सान्याल के जीवन से प्रभावित हरीश नामक पात्र हिंसा की व्यर्थता का अनुभव कराता है । साम्प्रदायिकता से मुखा-मुखम मेरे शब्द ज्ञान में वृद्धि कर रहा है । बिचौलियों की भूमिका आज भी जारी है । इस कारण सरकारों द्वारा आर्थिक घोटाले हुए हैं । बाइनरी न ख़त्म होने वाला नासूर है । कुछ शब्द ग़लत छप गये हैं । जब शब्द एक माध्यम से दूसरे माध्यम तक पहुँच जाते हैं तो ये त्रुटियाँ हो जाती हैं । नीचे सही शब्द लिख रहा हूँ ।
नज़दीक, काग़ज़, ज़्यादा, क़लम, ख़त्म, अख़्तियार, तरीक़े, रोज़, लायक़, ग़लत, मुँह और नफ़ीस ।
आलेख तो पढ़ने के बाद न केवल पुस्तक पढ़ें की इच्छा जाग्रत हुई बल्कि ऐतिहासिक और समकालीन साहित्यिक रचनाओं को पढ़ने के नए दृष्टिकोण का विकास हुआ| धन्यवाद||
हितेन्द्र पटेल की यह पुस्तक इस दृष्टि से भी नायाब प्रतीत होती है कि इसमें आम तौर पर पेशेवर इतिहासकारों द्वारा अपने तर्क को पुष्ट करने के लिए किसी उपन्यास से एकाध अंश चुन लिया जाता है।
अपने विश्वविद्यालय में प्रोफेसर ज्ञानेंद्र पांडेय के व्याख्यान में यह बात शिद्दत के साथ महसूस हुई।कुछ इसी प्रकार का प्रोफेसर कृष्ण कुमार का भाषण भी था।
वस्तुतः इतिहास लेखन विचारधाराओं का कुरुक्षेत्र होता है और सबका अपना अपना महाभारत इसी में तय होता है। विचित्र बात है कि इस क्रम में प्रत्येक पक्ष के अगुआ अपने पक्ष को धर्मयुद्ध ही मानते दिखाई देते हैं। जबकि सच्चाई कहीं दो पंक्तियों के बीच हुआ करती है।
हितेंद्र जी Hitendra Patel की खूबी यह प्रतीत होती है कि उन्होंने अपने तर्कों को पुष्ट करने के लिए साहित्यिक कृतियों का इस्तेमाल करने के बजाय चार औपन्यासिक कृतियों के भीतर पूर्ण प्रवेश करके इतिहास दृष्टियों की परस्पर टकराहट को रेखांकित किया हसि।
रमाशंकर जी का यह आलेख इसलिए बहुत महत्त्वपूर्ण है कि यह मूल पुस्तक से गुजरने के लिए हमें प्रेरित करता है।
साधुवाद।