विश्व रंगमंच से कुछ ख़ास प्रस्तुतियाँके. मंजरी श्रीवास्तव
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ले चैन्त्स दे ई उमई
‘ले चैन्त्स दे ई उमई’ फ़्रांस की एक गैर-शाब्दिक प्रस्तुति थी जिसे मैंने भारत रंग महोत्सव, 2015 में देखा था. यह नाटक भी सिर्फ़ नाटक भर नहीं था कोई जादू था कोई तिलिस्म जो मुझे किसी ट्रांस में, किसी और रूहानी और सुकून भरी दुनिया में ले गया था.
उमई शब्द मंगोलियाई भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है कोख और दरअसल उमई नामक वह काल्पनिक स्त्री चरित्र (जिसे निर्देशक और नर्तकी मर्सिया बार्सिलस ने मंच पर जिया है) कोख की प्रतीक है, ब्रह्माण्ड की प्रतीक जिससे दुनिया की उत्पत्ति भी हुई है और अंततः दुनिया उसी में समा भी जायेगी, इसीलिए इस प्रस्तुति का नाम उमई के गीत अर्थात कोख या ब्रह्माण्ड से उत्पन्न गीत रखा गया.
इस प्रस्तुति की निर्देशक और नर्तकी मर्सिया बार्सिलस उमई नामक काल्पनिक स्त्री चरित्र के माध्यम से, स्त्री शक्ति को संगीत, नृत्य और प्रकाश के माध्यम से नए सिरे से व्याख्यायित करती हैं. वह अपने नृत्य के माध्यम से स्त्री को कभी ब्रह्माण्ड की कोख के रूप में तो कभी बाज जैसे विशाल पक्षी के रूप में तो कभी ड्रैगन, कभी कबीलाई स्त्री और कभी भक्ति में डूबी स्त्री के रूप में प्रस्तुत करती हैं जो कि दरअसल यह सन्देश है कि स्त्री बहुत शक्तिशाली होती है. दरअसल यह नाटक स्त्री शक्ति की प्रतिस्थापना करता है. ब्रह्माण्ड और उससे विश्व की उत्पत्ति दिखाते समय वे स्त्री की जीवनदायिनी शक्ति को मंच पर प्रस्तुत करती हैं. वे यह कहना चाहती हैं कि स्त्री अपने गर्भ से जीवन उत्पन करती है और इस पूरे ब्रह्माण्ड का नियंत्रण और संचालन भी करती है. वहीं जब वे स्त्री को एक विशालकाय पक्षी के रूप में प्रस्तुत करती हैं तो स्त्री के मन की भीतरी तहों में बैठी दुनिया पर छा जाने की इच्छा को प्रस्तुत करती हैं. वैसे ही ड्रैगन के माध्यम से वे समाज के उन घटिया और वाहियात नियमों के प्रति आग उगलती हुई स्त्री को प्रस्तुत करती हैं जिन नियमों को मानने के लिए सिर्फ स्त्री को विवश किया जाता है. उनकी कबीलाई स्त्री समाज को यह बताती है वह कमज़ोर नहीं और समय आने पर अस्त्र-शस्त्र भी उठा सकती है. वहीँ उनकी भक्ति में डूबी स्त्री भक्ति संगीत और नृत्य के माध्यम से आपको एक रूहानी दुनिया की सैर कराती है.
फ़ारसी और यहूदी प्रभावों के साथ भारतीय अरब सन्दर्भ में नियोजित ‘ले चैन्त्स दे इ उमई’ पांच घटनाक्रमों को खुद में समेटे हुए है, जिसमें नृत्य कुछ-कुछ पुरानी पांडुलिपियों के मन्त्र जैसी लम्बी आरोह-अवरोह की तरंगित होती पुनरावृति की गायकी से उभरता है. इस प्रस्तुति को तैयार करते हुए, मर्सिया बार्सिलस भारतीय संगीत विशेषकर कर्नाटक संगीत और भारतीय धार्मिक नृत्यों (राम और कृष्ण भक्त संतों द्वारा किये जाने वाले नृत्यों) से प्रभावित थीं. एक स्वप्न सरीखी काल्पनिक स्थिति में, जिसे मर्सिया इस प्रदर्शन में रचती हैं, वे उमई हैं; ब्रह्माण्ड की कोख, या फिर एक काल्पनिक प्रदेश ग्रेवबेकिस्तान की स्त्री ड्रैगन. स्त्रीत्व की इस गीति कविता में कई अद्भुत काल्पनिक देवताओं की पुनर्संरचित स्मृति को भारतीय या अफ्रीकी संगीत रचनाओं से मुक्तरूप से उद्भूत पांच गीतों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है. प्राचीन रंगमंच की पद्धति में इनमें से हर एक, ऐसे अतीत-युग की एक ऐसी महाकाव्यात्मक कविता को सामने लाता है जिससे कि शारीरिक और मानसिक तरंगों की स्मृति ही हमें संबद्ध कर सकती है.
अमरीकी नृत्य संरचनाकार एल्विन निकोलाइस की निष्ठावान शिष्या बार्सिलस ने ‘सिस्तम कास्ताफ़ियोर’ के सह संस्थापक कार्ल बिस्कुत द्वारा निर्मित वीडियो, प्रकाश, होलोग्राम और मंच सामग्रियों के प्रभावों के पूरे सरगम का प्रयोग अपनी इस प्रस्तुति में किया है. शारीरिक गति शब्दावली का विभाजन, विशेषकर बार्सिलस और सतत रूप ग्रहण करते हुए दृश्य चित्रण के लिए, ‘ले चैन्त्स दे इ उमई’ इतना करीब हो जाता है जितना कि किसी पुनर्कल्पित जगत के लिए.
निर्देशकद्वय अपनी प्रस्तुतियों में प्रयोगधर्मिता को सबसे अग्रणी स्थान देते हैं. उनका कहना है कि –
“यह प्रस्तुति दरअसल एक सांगीतिक विधा है जो अपनी पूर्णता के लिए गायन और नृत्य को एक नाटकीय और दृश्यात्मक युक्ति के साथ संबद्ध करती है. कुछ थोड़े पहले के अतीत की पुनः अन्वेषित या फिर इतिहासपूर्व की पौराणिकता की कथावस्तु, नारीत्व के इर्द-गिर्द घूमती है. उमई प्राचीन मंगोलियाई भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है गर्भ या कोख. इस विधा के ज़रिये हमने विविध नारी चरित्रों को गढ़ा जो कि एक तरह की, ब्रह्माण्ड के अस्तित्व में आने की, पौराणिकता को रूप देते हैं. हर प्रसंग की शुरुआत से पूर्व एक रहस्यमयी-सी भाषा में फुसफुसाहट भरा कुछ-कुछ ग्रीक समूह-गान-सा एक गीत है, जोकि अगले प्रसंग का पूर्व संकेत देता है. हम दर्शक को कुछ हद तक एक मननशील महाकाव्यीय गीत के फलक पर ले आते हैं, व्याख्या की महती स्वतंत्रता के साथ.”
इस नृत्य-प्रस्तुति के अंतिम कुछ दृश्यों में से एक में मर्सिया ‘श्री राम चन्द्र कृपालु भजमन…’ को संगीत, नृत्य और रोशनियों के साथ प्रस्तुत करते हुए इसे भारत से जोड़ देती हैं. इस प्रस्तुति में इस राम-स्तुति को स्थान देने के औचित्य पर उनका कहना है कि –
“भारत ऐसा देश है जहाँ सबकुछ संगीत से शुरू होता है और उस संगीत में भी ईश्वर की स्तुति के साथ. इसलिए मैंने इसमें इस स्तुति का उपयोग किया.”
मंच पर उमई के गीत गाती हुई मर्सिया बार्सिलस खुद हैं. वेशभूषा क्रिस्तियन बर्ल की, प्रकाश व्यवस्था जेरेमी दिएप की, नृत्य एवं गीत स्वयं मर्सिया बार्सिलस की थी एवं संगीत एवं निर्देशन था कार्ल बिस्कुत का. वीडियो एवं ध्वनि प्रबंधक थे इमेन्युएल रेमाँ. इस नाटक में प्रकाश के प्रभावशाली उपयोग के लिए मल्टीमीडिया एवं ३ प्रोजेक्टर्स का इस्तेमाल किया गया था.
इस नाटक की खास बात यह थी कि अपने मूल स्वरूप में गैर-शाब्दिक होते हुए भी इसमें जिन मन्त्रों को फुसफुसाहट के साथ इस्तेमाल किया गया था वे विभिन्न भाषाओं के थे. निर्देशक कार्ल बिस्कुत फ़्रांस से हैं और निर्देशक और नर्तकी मर्सिया ब्राजील से हैं लेकिन इस नाटक में न तो फ़्रांसीसी और न ही ब्राजीलियाई भाषा का कहीं इस्तेमाल किया गया है. जिन भाषाओं का थोडा-बहुत इस्तेमाल हुआ है वे भाषाएँ हैं, फ़ारसी, यूटोपियाई, हिंदी और मंगोलियाई. हाँ, इस प्रस्तुति पर फ़्रांसीसी और यहूदी प्रभाव ज़रूर है.
निस्संदेह यह कोई नाटक या नृत्य-प्रस्तुति नहीं थी, कोई जादू था, एक रहस्य, एक तिलिस्म जिसमें दर्शक खो से गए थे, एक दूसरी दुनिया में पहुंच गए थे, सारे बंधनों और तनावों से मुक्त एक काल्पनिक जगत में, सुकून देने वाले संसार में. भारत रंग महोत्सव 2015 की प्रस्तुतियों में यह सबसे अच्छी प्रस्तुति थी जिसकी व्याख्या शब्दों में नहीं की जा सकती. उमई के इस गीत को, उसकी रूहानियत को सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है.
रैग्ज़ ऑफ़ मेमोरी
‘रैग्ज़ ऑफ़ मेमोरी’ अठारहवें भारत रंग महोत्सव (२०१६) का सर्वाधिक उल्लेखनीय या याद रह जाने वाला नाटक था. एना दोरा दोर्नों द्वारा निर्देशित और खुद एना और अभिनेता निकोला पियान्जोला की यह मंत्रमुग्ध और स्तब्ध कर देने वाली प्रस्तुति अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनकारी कलाओं की परियोजना का सबसे बड़ा प्रतिनिधि है. यह नाटक शारीरिक और वाचिक क्रियाओं, जीवंत संगीत और वीडियो प्रोजेक्शन्स के साथ एक मौलिक और प्रयोगवादी संयोजन है. दृश्य को प्रतीक तत्वों चावल, मिटटी, पत्थरों, पानी और अग्नि से भरे प्रकाश के तीन वृत्तों में संयोजित किया गया है. एक कालातीत उद्यान जहाँ एक पुरुष और एक स्त्री मंच पर या प्रोजेक्शन के ज़रिये हर बार एक मौलिक और अनूठे रूप में रहस्यात्मक आनुष्ठानिक क्रियाओं और गीतों को प्रस्तुत करते हैं. प्रस्तुति जीवन चक्र का एक रूपक है जहाँ जन्म, करुणा और मृत्यु एक चक्र और अनुष्ठान की चिरंतनता में स्थिर किये गए आवर्ती मार्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं. दरअसल यह नाटक, नाटक नहीं एक “डिवाईन फ़ीलिंग” था.
द सस्पेंडेड थ्रेड
यह इतालवी नाटक समय के पार का एक तिलिस्मी काव्यात्मक आख्यान था जिसे मैंने भारत में हुए थिएटर ओलंपिक्स में देखा था. इतालवी नाटककार एवं निर्देशक पीनो दी बुदुओ का नाटक ‘द सस्पेंडेड थ्रेड’ नाटक नहीं कोई जादू था. एक ऐसा तिलिस्म जिसकी गिरफ़्त से न अबतक मैं निकल पाई हूँ और मुझे यकीन हैं कि वे दर्शक भी अबतक नहीं निकल पाए होंगे जिन्होंने यह नाटक देखा होगा. नाटक चल रहा था और ऐसा लग रहा था कि मंच पर हमारे सामने कोई पेंटिंग बना रहा है, कोई व्यक्ति समय के पार जाकर कोई जादुई, कोई तिलिस्मी कविता लिख रहा है और निस्संदेह वह पेंटर, वह कवि, वह जादूगर, वह व्यक्ति हैं नाटककार और निर्देशक पीनो. मैं पीनो के तिलिस्म की गिरफ़्त में हूँ. पीनो ने काव्य, प्रेम और मृत्यु तक को इस कोमलता के साथ मंच पर रचा कि उनके इस नाटक को देखते समय प्रसिद्ध भारतीय रंग निर्देशक रतन थियाम (जो खुद ही भारतीय रंगमंच के जादूगर हैं) की वह कविता बरबस जेहन में चलने लगी थी कि –
समय को चौबीस घंटों ने जकड़ रखा है
मुझसे बात करना है तो
चौबीस घंटों के बाहर के समय में तुम आओ
मैं वहीं तुम्हारा इंतज़ार करूंगा…
दरअसल पीनो का यह नाटक समय से बाहर की कथा है. यह काव्य, प्रेम, मृत्यु और आकाश से बेहद कोमलता के साथ गिरते हुए एक मृदु और कोमल हिमकण की कथा है और कलात्मक भिडंत है अभिनेत्री नथाली मेंथा (जो पीनो के नाट्य समूह तिएत्रो पोत्लाश से है) और जापान की परंपरागत कमिगाता मेई नृत्यशैली की सर्वश्रेष्ठ जापानी कलाकार कीइन योशिमुरा की.
नाटककार और निर्देशक पीनो के अनुसार इस नाटक का उद्भव पश्चिमी और पूर्वी संस्कृतियों के मिलन और विशेष रूप से महान जापानी कमिगातामेई कलाकार कीइन योशिमुरा और स्विट्ज़रलैंड में जन्मीं और फ्रेंच मातृभाषी अपनी दीर्घकालीन पोत्लाश अभिनेत्री नथाली मेंथा के साथ मंच पर उपस्थित तिएत्रो पोत्लाश के बीच मिलन से होता है. दर्शकों के समक्ष ये दो महान अभिनेत्रियाँ एक ऐसी कथा को प्रस्तुत करती हैं जो कि ज्ञान, वेशभूषा और भाषाओं को पारस्परिक अंतर्गुन्थित करती हुई समय में स्थगित हैं.
हमारे समय की त्रासदी को एक फ़्रांसीसी, तनी रस्सी पर चलनेवाले किसी नट या नटी और एक जापानी समुराई के माध्यम से मूर्त रूप दिया गया है जो प्रेम की शक्ति और सत्ता को सामने लाना चाहते हैं चाहे उसका अंत त्रासद ही क्यों न हो. यह कहानी है एक युवा जापानी कवि, एक अंधे वृद्ध चित्रकार की और एक अद्भुत रज्जुनर्तक की. यूको, एक युवा जापानी कवि है, सोसेकी, एक वृद्ध चित्रकार जो अंधा हो गया है; स्नो, एक अद्भुत रज्जुनर्तक नाटक के ये तीन चरित्र हैं जिनके भाग्य एक तनी रस्सी पर करतब दिखानेवाले के उस अभ्यास के प्रतीक के रूप में दो पहाड़ों के बीच फैले, एक महीन धागे से परस्पर बंधे हैं, जिसे कार्यान्वित कर पाना असंभव है.
यह हतप्रभ कर देने वाला नाटक था. प्रकाश-व्यवस्था से लेकर कलाकारोँ की देहभाषा और आख्यान (नरेटिव) तक, सब कुछ एक कविता की तरह लग रहा था. अपने नाटक ‘सस्पेंडेड थ्रेड’ पर प्रकाश डालते हुए निर्देशक पीनो कहते हैं कि, “मेरा नाटक दुखांत है। जब दो संस्कृतियाँ मिलती हैं, दो लोग मिलते हैं, और दोनोँ एक-दूसरे में समान रुचि विकसित करते हैं। लेकिन जब भाषा की बाध्यता के चलते दोनोँ एक-दूसरे के साथ उपयुक्त संचार नहीं कर पाते हैं तब यह एक त्रासदी बन जाती है और यही मैंने अपने नाटक में दिखाने की कोशिश की है. मेरे नाटक में भी दो संस्कृतियाँ मिलती हैं पर अंत त्रासद होता है. इस नाटक को एक शब्द में व्याख्यायित करना हो तो वह शब्द है – ‘अद्भुत.’
ला गिओइया
नाटक की अवधारणा और निर्देशन इटली के मशहूर युवा निर्देशक पिपो देल्बोनो का था. शब्द ‘ला गिओइया’ का अर्थ होता है ‘आनंद’. नाटक आनंद की तलाश के साथ शुरू होता है और विभिन्न कहानियों और कविताओं द्वारा अपने साथ दर्शकों को ख़ुशी की तलाश की यात्रा पर ले चलता है पर आश्चर्य की बात यह है कि आनंद की इस तलाश के दौरान बार-बार दर्शकों की आँखें भर आती हैं, गला रुंध आता है और नाटक के अंत में दर्शक नम आँखों से प्रेक्षागृह के बाहर निकलते हैं. दरअसल निर्देशक पिपो दर्शकों के सामने विकल्प छोड़ देते हैं कि दर्शक अपने-अपने हिसाब से आनंद की व्याख्या करें, अपने हिसाब से ख़ुशी को परिभाषित करें और यही इस नाटक की सार्थकता है.
नाटक कई कहानियों और कविताओं पर आधारित है और इसमें एक अंश ‘वेटिंग फ़ॉर गोदो’ से लिया गया है. कुछ कवितायें एर्री द लूका माइग्रंट्स की हैं जिनमें ‘नन्हीं नावें’ शीर्षक कविता को ८१ वर्षीय मूक-बधिर इतालवी कलाकार बोबो की उस कथा के साथ बेहद ख़ूबसूरती के साथ पिपो ने पिरोया है जिसमें यह बताया जाता है कि बोबो ४७ या ४९ वर्ष के बाद पागलखाने से लौटा है. वह अकेला उदास बैठा है काग़ज़ की इन नन्हीं नावों से घिरा और खुद में एक तारीपन, एक उदासी को महसूसता हुआ. निर्देशक पिपो यह दिखाने में सफ़ल हुए हैं कि एक ही लम्हे में बोबो कितना भरा हुआ है, कितना कुछ है उसके भीतर जो छलकने को बेताब है और उसी एक लम्हे में वह बिलकुल ख़ाली है, बिल्कुल अकेला. तनहा बोबो की यह बेताबी और उसका यह खालीपन उसी एक लम्हे में दर्शक बिलकुल उतना ही महसूस कर सकते हैं जितना बोबो खुद. मैंने भी महसूस किया तभी यह कविता लिख पाई.
निर्देशन, प्रकाश व्यवस्था, संगीत और सबसे बढ़कर ८१ वर्षीय मूल-बधिर इतालवी कलाकार बोबो (जिनका असल नाम भी बोबो है) का कमाल का अभिनय दर्शकों को बोबो की ख़ुशी और वेदना दोनों का एहसास कराने में शत-प्रतिशत सफल रहा है. खासकर अपने जन्मदिन वाले दृश्य में बोबो ने अपनी अद्भुत भाव-भंगिमाओं पर आधारित जो मौन ‘बर्थडे स्पीच’ दिया वह स्पीच आंखों में आंसू ला देनेवाला था। अद्भुत कलाकार हैं बोबो। बोबो का अभिनय और पिपो का निर्देशन भारत के नाटक प्रेमियों को हमेशा याद रहेगा।
नाटक की पहली कहानी थोड़ी छोटी पर डरावनी है पर पिपो प्रकाश, संगीत, वेशभूषा इन सबसे कुछ देर के लिए प्रेक्षागृह में ऐसा वातावरण उत्पन्न कर देते है कि दर्शकों की रूह तक काँप जाती है. फिर उस डरावने दृश्य के बाद एकाध दृश्य ‘पासिंग रेफरेंस’ की तरह आते हैं और तीसरा दृश्य या तीसरी कहानी बोबो की है जो अंत तक बोबो के ही इर्द गिर्द घूमती है. लगभग डेढ़ घंटे के इस नाटक में ४५ मिनट बोबो ही मंच पर बिना कुछ बोले अपना जादुई प्रभाव उत्पन्न करते रहे हैं.
अंतिम दृश्य दर्शकों को रुला जाता है जहाँ बोबो एक बेंच पर बैठे हैं और उनके चारों ओर सूखे पत्ते हैं और मंच के एक कोने में फूल खिले हैं, फूलों की झालरें हैं और फिर बोबो की बेंच भी चारों ओर फूलों से भर जाती है पर वे फूल बोबो के मन की उदासी को दूर नहीं कर पाते हैं. बोबो की यह उदासी दर्शकों के लिए यह सन्देश है कि सबके लिए खुशी की अपनी –अपनी परिभाषा और व्याख्या होती है. ज़रूरी नहीं कि आपकी ज़िन्दगी में चारों ओर फूल ही फूल हों, बहारें हों तो आप आनंदित ही महसूस करें.
पिपो के इस नाटक की एक और खास बात यह थी उन्होंने अपने नाटकों में अपने पात्रों के नाम बदले नहीं हैं. सारे पात्रों के नाम उनके असल नाम हैं. इस बारे में पिपो का कहना है कि –
“मुझे नाम बदलना पसंद नहीं. अगर मैं पिपो हूँ तो मुझे पिपो ही जाना जाए, अगर ये बोबो हैं तो इन्हें बोबो के नाम से ही पुकारा जाना चाहिए. हम अपना नाम और चेहरा क्यों बदलें चाहे वह किसी नाटक के लिए ही क्यों न बदलना पड़े.”
पिपो यह भी कहते हैं कि – “यह शब्द ‘ला गिओइया’ (आनंद) मुझे भयभीत करता है क्योंकि दरअसल जो चीजें आनंददायक दिखती हैं दरअसल वे धोखा हैं.” और यही धोखा उन्होंने अपने इस नाटक में विभिन्न कहानियों और कविताओं द्वारा, विभिन्न चरित्रों द्वारा दिखाने की कोशिश की है. पतझड़ के बीच बैठे बोबो की बेंच का अनायास फूलों से भर जाना और फिर भी बोबो का उदास ही रह जाना इसी धोखे का प्रतिध्वनन है.
फ़्रांस और इटली के नाट्य निर्देशकों का काम बहुत महत्वपूर्ण है. उनकी नाट्य प्रविधियां, नाट्य आलेख के उनके ट्रीटमेंट का तरीका ध्यान खींचते हैं.
के. मंजरी श्रीवास्तव कला समीक्षक हैं. एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं. ‘कलावीथी’ नामक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं जो ललित कलाओं के विकास एवं संरक्षण के साथ-साथ भारत के बुनकरों के विकास एवं संरक्षण का कार्य भी कर रही है. मंजरी ‘SAVE OUR WEAVERS’ नामक कैम्पेन भी चला रही हैं. कविताएँ भी लिखती हैं. प्रसिद्ध नाटककार रतन थियाम पर शोध कार्य किया है. manj.sriv@gmail.com |
इटली और फ्रांस की चार नाट्य प्रस्तुतियों पर के मंजरी श्रीवास्तव की समीक्षा समीक्षात्मक टिप्पणी पढ़कर अभिभूत हूं । हिंदी में ऐसी कोई पत्रिका नहीं जो इस तरह के कार्य को रेखांकित करे। ’समालोचन’ का हर कार्य इसलिए मुझे हर बार आश्चर्य में डाल देता है।अरुण देव इस समय कला संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में जो उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं वह प्रणम्य है। के मंजरी श्रीवास्तव जी से अभी और भी बहुत कुछ जानना है । रत्न थियम पर भी उन्होंने बहुत खूबसूरत लिखा था । बधाई
बहुत ज़रूरी श्रृंखला हम जैसों के लिए।
एक साथ दृश्य और श्रव्य होने से रंगमंच और उसका ही एक सबसे प्रभावी एवं सफल विधा है। हमारे यहाँ प्राचीन काल से यह सामाजिक संवाद और संप्रेषण की मुख्य विधा भी रहा है। संस्कृत साहित्य मुख्य रूप से नाटकों का ही काव्य रूप है।ऐसे में इस आलेख से हमें बाहर की दुनिया में नाटकों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती हैं। दुर्भाग्य से आज रंगमंच की स्थिति भी हासिये पर है। निस्संदेह यह हमारे समय के साँस्कृतिक पतन का द्योतक है।
मंजरी जी की रसिक और समीक्षक के नाते रंगमंच और कलाजगत में उपस्थिति बहुत मायने रखती है। उनसे एक लंबे समय से कला समीक्षक के नाते गहरा संबंध रहा है। सौरभ अनंत के निर्देशन में खेली गई विहान ड्रामा वर्क्स की नाट्य प्रस्तुतियों पर , विहान के रंग गीत और संगीत पर उन्होंने अपार भरोसा और स्नेह बरसाया है। रंग प्रसंग जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका में देश भर के युवा रंगकर्मियों पर लिखा है। हमें भी उनका प्रोत्साहन मिलना खुश नसीबी की बात है। देश में और दुनिया में जहां भी कुछ अलग, कुछ विलक्षण रंगकर्म हो रहा है, उसे उन्होंने उदार मन से कलमबद्ध किया है। अपना आशीर्वाद व भरोसा दिया है। उनके पास साहित्य के, नृत्य के व अन्य कलाओं के संस्कार हैं, गहन अध्ययन है। विश्लेषणात्मक दृष्टि है। ये उनकी समीक्षकीय लेखन प्रक्रिया में बहुत मददगार साबित होते हैं। मंजरी जी स्वयं कवि हैं इस वजह से संवेदना का स्रोत ढूंढ लेती हैं, करुणा का लक्ष्य बिंदु पहचान लेती हैं। जादू कहां से पैदा हो रहा है, खोज लेती हैं। दिल्ली में रहना भी उनके इस रचनाकर्म को ऊंचाइयां देता रहा। क्योंकि वहां विशेषकर राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और उसके द्वारा आयोजित होने वाला भारंगम है, जिसमें अलग अलग शैलियों, भाषाओं, देशों, संस्कृतियों के नाटक आते हैं, होते हैं। मंजरी जी को वहां से बड़े व्यापक, वैश्विक रंगानुभव मिले हैं। उनकी समझ का, कल्पना का विस्तार हुआ है। एक धैर्य का भी निर्माण हुआ है। तुलनात्मक दृष्टियों का भी विकास हुआ है। रंगमंच की सभी विधाओं उप विधाओं जैसे सेट, मेकअप, प्रबंधन आदि को देखने समझने का व्यापक अनुभव मिला है। और फिर उसमें उनकी संवेदनशील आत्मा जब प्रवेश करती है तो एक रोमांचकारी समीक्षा प्रकट होती है।
यहां जितने भी नाटकों का ज़िक्र है , वे दुनिया के अलग अलग हिस्सों के, भाषाओं के नाटक हैं। किंतु सबमें मानवीय मूल्य समान रूप से मौजूद हैं।
सबसे पहली प्रस्तुति उमई, जिसमें स्त्री के गर्भ से न केवल जीवन की उत्पत्ति हो रही बल्कि ब्रह्मांड की भी उत्पत्ति हो रही है। इस महान सत्य पर आधारित नृत्य रूपक के बारे में मंजरी जी का लेखन पाठक को जैसे रंगमंच की यात्रा करवा देता है। उमई के भिन्न स्वरूप, उसकी सस्कृतियां, उसका संगीत, मंत्रों की फुसफुसाहट.. आदि के बारे में शोधपूर्वक लिखना, निर्देशक से बातचीत.. आदि बातें मंजरी जी को एक ईमानदार art critic के रूप में स्थापित करते हैं।
मंजरी जी विख्यात भारतीय रंग निर्देशक श्री रतन थियाम की रंगभाषा, रंग प्रयोगों से गहरे प्रभावित हैं(हालांकि कौन नही हैं, सभी हैं)। उन्होंने उन पर भी महत्वपूर्ण शोध कार्य किया है। इसलिए सस्पेंडेड थ्रेड देखते हुए उन्हें रतन थियाम की कविता याद आ जाती है। रंग समीक्षा की एक चुनौती यह भी है कि देखते हुए जो अनुभव हों रहा है, वैसा ही कुछ अनुभव पढ़ने वाले को भी हो। पाठक को प्रकाश , संगीत, नृत्य, वेशभूषा आदि का आभास हो। इस मायने में मंजरी जी की प्रस्तुत समीक्षाएं खरी उतरती हैं। उनसे अभी बहुत उम्मीदें हैं, अपेक्षाएं हैं कि वे नाटक और अन्य कला जगत, साहित्य जगत की स्थापित और नवोन्मेषी हस्तियों पर शोधपूर्ण लिखें। कविताएं भी लिखें , नाटक भी लिखें। और युवाओं को जिस तरह वे प्रेरित प्रोत्साहित करती रही हैं, हमेशा करती रहें। उनको स्नेह पूर्वक शुभ कामनाएं। समालोचन और अरुण देव जी का आभार कि इस अंक के माध्यम से वैश्विक नाट्य स्वरूप और शैलियों को प्रकट करने वाला आलेख छापा। आभार।