और वह एक रोज़मर्रा एक रोज़ आदमिस्तान के मकड़जाल से छूट क़ब्रिस्तान के तसव्वुर में जा पहुँचा आमिर हमज़ा |
स्मृति से कुछ भी ओझल नहीं होता.
कभी-कभार कोई पर्दा थोड़ी देर के लिए उसे ढाँप ज़रूर सकता है,
परंतु स्मृति का कोई भी चिह्न मिटाया नहीं जा सकता.
-मिखाइल नईमी
एक रोज़मर्रा की यात्रा देखने से शुरू होकर पेट की मरोड़ तक जाती थी
यह एक रोज़मर्रा सीढ़ी से ख़याल की उतरता हुआ आता और धुएँ में बीड़ी के ख़ुद के गुमान को तबाह करता हुआ आज और आने वाले एक नए दिन के लिए सुबह-ओ-शाम की चौपाल में ख़ुद को पूछे जाने की तैयारी से भरता.
यह एक रोज़मर्रा रोज़ जैसा न के बराबर था
यह एक रोज़मर्रा कभी लगभग तो कभी इत्यादि
कभी बहरहाल तो कभी दरअस्ल हुआ करता.
कभी लगभग यह एक रोज़मर्रा-
सच की झूठ के हक़ में दी जाने वाली एक गवाही था.
कभी इत्यादि यह एक रोज़मर्रा-
सही को ग़लत की क़लम से लिखा गया एक काला दिन था.
कभी बहरहाल यह एक रोज़मर्रा-
सुबह से शाम का उबाल खाता एक चेहरा था फ़क़त एक नज़र का मुंतज़िर.
कभी दरअस्ल यह एक रोज़मर्रा-
सबकुछ यानी कुछ भी नहीं था.
कवि जिसे धरती का लिबास कहते हैं कलाकार कला की भूख और भूगोलविद् मौसम में बदलाव
वह वसंत देहरी पर दस्तक देता खड़ा था-
शाम की…
आग की…
कुछ रोज़ बीते एक ढेर था यहाँ राख का
बीते दिनों की बारिश ने जिसे नदियों के स्पर्श से मिट्टी में बदल डाला था.
राख जैसे मिट्टी!
मिट्टी जैसे राख!
और इन दोनों के गर्भ में पैवस्त देह का कहा-अनकहा सच जैसे-
देह! यानी कलाकार की कूची का बाब
देह! यानी रूह की सराय
देह! यानी जिसे मर जाना पड़ता है एक दिन हिज्र में रूह की.
स्मृतियाँ जैसे-राख और मिट्टी
राख और मिट्टी जैसे- स्मृतियाँ
कितने-कितने लोग…चेहरे…आँखें…आँसू…बातें…
क़िस्से-कहानियाँ…नाम…वजूद…रंग…मज़हब…जातियाँ
और आख़िर में महज़ अलविदा
जैसे कितनी-कितनी स्मृतियाँ.
उसे दृश्य में स्मृति की रहना पसंद था उड़ने में यक़ीन और बैठकी में मशगूल होना. कितनी कितनी शामें उन्होंने साथ गुज़ारी साथ होते.
दृश्य में बँधते…
यक़ीन में बदलते…
बैठकी में होते…
आसमानी धुंधलके में एक कबूतर अटका था डाकिया बनकर अभी भी.
पेड़ खड़े थे पहरुए बनकर अभी भी.
मुंतज़िर थी आँखें देखने भर की चाह में अभी भी.
यह दृश्य…
यह यक़ीन…
यह बैठकी…
कोई उन्हीं बीती ढलती शामों की एक ढलती जाती शाम की स्मृति है. यह पेड़ से आग में बदल गए की स्मृति है. यह आग से राख में बदल गए की स्मृति है. यह राख से मिट्टी में बदल गए की स्मृति है.
भाषिक सांप्रदायिकता के ठेकेदारों ने ऐसे ही किसी एक रोज़
आग के बीते हुए ढेर पर उससे कहा-
हिन्दी हिन्दुओं की भाषा है!
और दलील में प्रताप नारायण मिश्र को पेश किया-
‘जपो निरंतर एक जबान-हिन्दी, हिन्दू, हिंदुस्तान’
यह बेमतलब की बात है उसने कहा-
विष लिखा जाए या ज़हर
मृत्यु ही जन्मती है.
उन्होंने कहा-
उर्दू मुसलमानों की ज़बान है!
और दलील में दाग़ देहलवी को पेश किया-
‘हिन्दोस्तां में धूम हमारी ज़बाँ की है’
यह बेमतलब की बात है उसने कहा-
घृणा लिखा जाए या नफ़रत
सरहदें ही पनपती हैं.
उन्होंने कहा-
राही मासूम रज़ा हिन्दी के मुसलमान लेखक हैं.
गुलशेर ख़ाँ शानी…
मंज़ूर एहतेशाम हिन्दी के मुसलमान लेखक हैं.
असग़र वजाहत…
अब्दुल बिस्मिल्लाह हिन्दी के मुसलमान लेखक हैं.
असद ज़ैदी…
यह बेमतलब की बात है उसने कहा-
यह लकीर है
क़लम का कोई दीन-ओ-मज़हब नहीं.
उन्होंने कहा-
कृश्नचंदर उर्दू के हिन्दू लेखक हैं.
राजेन्द्रसिंह बेदी…
जोगिंदरपाल उर्दू के हिन्दू लेखक हैं.
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर…
गोपीचंद नारंग उर्दू के हिन्दू लेखक हैं.
रघुपति सहाय उर्फ़ फ़िराक़ गोरखपुरी…
यह बेमतलब की बात है उसने कहा-
यह दीवार है
हर ख़ून का रंग लाल है.
और यों जब मौक़े-बेमौक़े वो सब मिलकर अपनी-अपनी भाषा अपनी-अपनी ज़बान में
कभी लगभग तो कभी इत्यादि
कभी बहरहाल तो कभी दरअस्ल
याने उस एक रोज़मर्रा की हत्या करने पर आमादा हुए तो उसने मतलब के लोगों की इन बेमतलब की बातों के मकड़जाल से ख़ुद को जैसे-तैसे बचाकर ख़ुद से ख़ुद को आदमिस्तान से एक क़ब्रिस्तान में तसव्वुर करना शुरू किया.
आदमिस्तान-
जहाँ वह बिलकुल अकेला था.
जहाँ वह कुछ कहता तो डरता था.
जहाँ वह कुछ कहने को होता तो डरता था.
जहाँ वह कहीं खड़ा होता तो डरता था.
जहाँ वह कहीं खड़ा होने को होता तो डरता था.
जहाँ वह नाहक भीड़ के हाथों मर जाने से डरता था.
आदमिस्तान-
जहाँ ऑनर-किलिंग आए दिन की बात थी.
जहाँ एक जाति के युवकों की अधनंगी पीठ पर एक जाति के युवकों द्वारा छोड़ा गया नीला निशान था.
जहाँ पेड़ों की देह पर कुल्हाड़ी की स्मृतियाँ दर्ज थीं.
जहाँ ख़ौफ़ खाई लड़कियाँ घरों में क़ैद थीं.
पानी पर पहरा था.
हुकूमत की निगरानी थी.
गाली निवाला थी.
बुलेट का राज था.
क़ब्रिस्तान-
जो दरअस्ल उसके तसव्वुर की पैदाइश था
जिसे एक दिन पैदा होना था और एक दिन मर जाना था
जो सिर्फ़ उसी का था और सिर्फ़ उसी तक था.
क़ब्रिस्तान-
यहाँ वह हर रोज़ की सुबह को अमलतास के पीले को
ख़ुद की पेशानी पर रगड़ अपने ख़ालीपन को भरता था.
क़ब्रिस्तान-
यहाँ वह हर रोज़ की दोपहर को बबूल पर बाँधी गई मुरादों से
ख़ुद की देह को खुरचता था.
क़ब्रिस्तान-
यहाँ वह हर रोज़ की शाम को गुलमोहर के लाल को
ख़ुद की आँखों पर रख मृत्यु का राग रचता था.
क़ब्रिस्तान-
यहाँ वह हर रोज़ की रात को पटबीजनों की जलने-बुझने की फ़ितरत में
जो दरअस्ल मुर्दों की भूख थी बेचैनी थी
एक क़ब्र के सिरहाने खड़ा हो मरने के रियाज़ में मशगूल रहता था.
ख़ालीपन को भरने
देह को खुरचने
मृत्यु का राग रचने
और मरने के रियाज़ में मशगूल होने के उसके इस रोज़ के कारोबार में
एक के बाद एक क़ब्र से मुर्दे उखड़ते जाते थे.
चहुँओर मुर्दे-
साल अट्ठारह सौ सत्तावन के मुर्दे
सत्रह के…
साल उन्नीस सौ तैंतालीस के मुर्दे
सैंतालिस के…
साल उन्नीस सौ इकहत्तर के मुर्दे
पचहत्तर के…
साल उन्नीस सौ चौरासी के मुर्दे
बयानवे के…
आदमी मुर्दे!
औरत मुर्दे!
बच्चे मुर्दे!
जवान मुर्दे!
बूढ़े मुर्दे!
एक काली चिड़िया चोंच में जिसकी आदमिस्तान के क़िस्से होते
वह बारी-बारी से क़ब्र से उखड़े हरेक मुर्दे के कान में
उनके अपनों की स्मृतियों में उनके होने को कहती जाती-
कौन उन्हें याद कर रोता है अभी भी?
किनकी यादों में ज़िन्दा हैं वों अभी भी?
वग़ैरह…वग़ैरह…
काली चिड़िया और मुर्दों की इस बैठकी के बीच तब उसे अपने एक अज़ीज़ शायर की नज़्म का ख़याल हो आता. जो आदमिस्तान में निदा फ़ाज़ली के नाम से मक़बूल हो इन दिनों क़ब्रिस्तान में आरामफरमा था-
अगर क़ब्रिस्तान में
अलग अलग कत्बे न हों
तो हर क़ब्र में
एक ही ग़म सोया हुआ रहता है
किसी माँ का बेटा
किसी भाई की बहन
किसी आशिक़ की महबूबा
तुम! किसी क़ब्र पर भी फ़ातिहा पढ़ के चले जाओ
और वह इकतालीस शब्दों आठ पंक्तियों की
इस एक मुख़्तसर नज़्म का ख़याल करते-करते महबूबा पर आकर अपराधबोध से भर जाता
जिसकी सारी स्मृतियाँ उसकी ज़िंदगी में रोने भर की थीं.
और-और मुर्दे क़ब्रों से उखड़ते जाते
वह सबको इमली के एक पेड़ के नीचे इकट्ठा करता और फिर उनसे यों कविता सी एक कहानी कहता-
आख़िर में मुझे बस उसका रोना याद रहा
रोना…!
कैनवास पर रंग उड़ेलती जाती अँगुलियों के बीच की दरार की ख़ामोशी में रोना.
पलकों पर जमी सफ़ेद सी दीख दीख पड़ती बर्फ़ानी झील के साहिल पर खड़े दरख़्त-ए-चिनार से गिर गिर जाती शबनम की शक्ल में रोना.
फ़रवरी के प्यार में डूबी अहमद फ़राज़ की ग़ज़लों के माथे पर होंठ धरे रोना.
उदास में बहती मन नाम की नदी में डूबती उतराती कश्ती में बैठ बैठ रोना.
आँखों की शहाबी बावड़ी में सूख सूख जाते बेनाम के आँसुओं में रोना.
मुझे याद रहा-
एक आख़िरी बार उसका अलविदा के आग़ोश में बँधकर रोना…
दीखकर रोना…
छिपकर रोना…
महज़ एक आख़िरी बार ज़ार ज़ार उसका…
जाना हमें दुःख से भरता था
वक़्त-ए-वस्ल पेशानी-ओ-रुख़्सार पर बरपा बोसा-ए-सुकून से और
ग़म-ए-हयात में डूबा परिंदों का माज़ी अहसास-ए-ख़ालीपन से
शीशानुमा एक दरीचा था दरमियाँ हमारे जहाँ मैं देखता उसकी आँखों में टहला करता था
आँखें उसकी-
दश्त-ए-तन्हाई…
अब्र-ए-बहार…
बज़्म-ए-मौसिक़ी…
साहिर…
मरहम-ए-आज़ार…
उसके ख़्वाब मेरी आँखों की ख़ानक़ाह में रहते थे
जहाँ एक दरवेश रंगों की धूनी से एक मुसव्विर की कूची को मुकम्मल किया करता.
एक कवि की क़लम की स्याही में हम कविता की मानिंद थे.
एक मुसव्विर की कूची में हम बेतरतीब खींची गई रेखाओं की मानिंद थे.
एक बुत-तराश की कर्नी में हम गारे की मानिंद थे.
एक बूढ़े दरवेश की बज़्म में हम धूनी की मानिंद थे.
कि हम थे मानिंद-
कविता की…..
एक बुज़ुर्ग कवि की क़लम में.
रेखाओं की….
एक मुसव्विर की कूची में.
गारे की…..
एक बुत-तराश की कर्नी में.
धूनी की…..
एक बूढ़े दरवेश की बज़्म में.
यों हम एक अव्यक्त कहानी को कविता सा कहा जाना था.
क़ब्रों से उखड़े मुर्दों से कविता सी कहानी कह चुकने के बाद
वह मुर्दों की भटकती रूहों की अफरातफरी के बीच
नए-नए दफ़न हुए मुर्दे की क़ब्र पर जाता
और पूछता-
कि भेड़ों की देह से बाल कब उतारे गए कब वह ऊन की शक्ल में औरतों के हाथों में पहुँचे?
आज़ाद ख़याल क़ब्रों से एक आवाज़ आती-
सुकरात को ज़हर देकर मार डाला गया. येशु को सलीब पर टाँगकर मार डाला गया. मंसूर को सूली पर लटकाकर मार डाला गया. एन्ने फ्रैंक को क़ैद करके मार डाला गया. मिस्र देश में सिकंदर के बसाए सिकंदरिया नामक नगर में जन्मी एक महिला गणितज्ञ हाइपेशिया को अंधी भीड़ के हाथों काटकर मार डाला गया.
वह पूछता-
कि दरख़्तों से पत्ते कब गिरे कब वह पतझड़ कहलाया?
युद्ध की क़ब्रों से एक आवाज़ आती-
हमें सार्जेंट का गैस्ड दिखलाई पड़ता है. हमें पाब्लो पिकासो का गुएर्निका दिखलाई पड़ता है. हमें यासुको यामागाता का हिरोशिमा दिखलाई पड़ता है. हमें लहू में डूबी इमाद अबू शतय्याह की कूची में ढेर हुई इमारत पर खड़ी हुई एक स्त्री दिखलाई पड़ती है.
हमें नाज़ियों का सबसे बड़ा मृत्यु शिविर ऑश्वित्ज़ दिखलाई पड़ता है.
नामुनासिब और सनकी एडॉल्फ़ हिटलर की मूछों पर लगा इंसानी ख़ून दिखलाई पड़ता है.
अंधभक्त और नफ़रती जोसेफ़ गोएबेल्स की डायरी में बनती बेकसूरों की हत्या की भूमिका के ख़ून के छींटे दिखलाई पड़ते हैं.
मनोरोगी और उन्मादी चिकित्सक जोसफ़ मेन्गेल के हाथों में ज़हरीला इंजेक्शन दिखलाई पड़ता है.
हमें यातना शिविर के जूते दिखलाई पड़ते हैं.
जूते-
काले जूते…!
नीले जूते…!
सफ़ेद जूते…!
लाल जूते…!
हर क़िस्म हर रंग के जूते.
जूते-
बच्चों के जूते…!
औरतों के जूते…!
जवानों के जूते…!
बूढ़ों के जूते…!
यहूदी जूते…!
रोमानी जूते…!
जिप्सी जूते…!
समलैंगिक जूते…!
बीमार जूते…!
ग़रीब जूते…!
अमीर जूते…!
हर उम्र हर वर्ग हर लिंग के जूते.
जूते-
भूखे जूते…!
लहू-लुहान जूते…!
मज़दूर जूते…!
किसान जूते…!
ख़ामोश जूते…!
बेगुनाह जूते…!
सवाल पूछते जूते…!
सवाल बने जूते…!
मरे हुए जूते…!
मार दिए गए जूते…!
नंगी थकी हुई चमड़ी का हासिल जूते.
भट्टी में जलाकर काले धुएँ में तब्दील कर दिए गए पैरों का आईना जूते.
कहीं बहुत पीछे छूट गए पसीने की गंध समेटे जूते.
वह पूछता-
कि बारिश का लिबास पहन आसमान से नदियाँ कब बरसीं कब धरती की कोख से हरा फूटा?
अकाल की क़ब्रों से एक आवाज़ आती-
हमें साल सत्रह सौ सत्तर का बंगाल अकाल दिखलाई पड़ता है. हमें साल सत्रह सौ तिरासी का चेलिसा अकाल दिखलाई पड़ता है. हमें साल अट्ठारह सौ छियासठ का उड़ीसा अकाल दिखलाई पड़ता है. हमें साल उन्नीस सौ का छप्पनिया अकाल दिखलाई पड़ता है. हमें साल उन्नीस सौ तैंतालीस का बंगाल अकाल दिखलाई पड़ता है. हमें साल उन्नीस सौ सड़सठ का बिहार अकाल दिखलाई पड़ता है.
हमें पेट की आग बुझाने को
माड़ के लिए दर-दर भटकता
साँप घास छछूंदर खाता….
कूड़ेदान पर कुत्तों के झुंड से लड़ता-भिड़ता लोगों का हुजूम दिखलाई पड़ता है.
हमें दलाल के हाथों दो आना चार आना में बेच दिए गए
अपने जिगर के टुकड़ों की चीख़ सुनाई पड़ती है.
वह पूछता-
कि उदासी किस रंग में बसती है इन दिनों पीले में या कि कुछ कुछ मटमैले में?
दंगे की क़ब्रों से एक आवाज़ आती-
हमें साल उन्नीस सौ छियालीस का नोआखाली दिखलाई पड़ता है. हमें साल उन्नीस सौ उन्यासी का जमशेदपुर दिखलाई पड़ता है. हमें साल उन्नीस सौ चौरासी की दिल्ली दिखलाई पड़ती है. हमें साल उन्नीस सौ सतासी का हाशिमपुरा दिखलाई पड़ता है. हमें साल उन्नीस सौ नवासी का भागलपुर दिखलाई पड़ता है. हमें साल उन्नीस सौ बयानवे की मुंबई दिखलाई पड़ती है.
हमें ख़ून सनी तलवार…
छुरा…
गंड़ासा…
हवा में उड़ते पैट्रोल बम
और तमंचे थामे हाथ दिखलाई पड़ते हैं.
हमें जलते हुए घर…
दुकानें…
मोहल्ले…
और सड़कों से उठता धुएँ का काला गुबार दिखलाई पड़ता है.
हमें क़त्लेआम से पटी धरती दिखलाई पड़ती है.
हमें नरसंहार में एक साथ ठहाके और नारे लगाती भीड़ दिखलाई पड़ती है.
क़ब्रों से आदमिस्तान के नरक की कविता सी कहानी सुनते-सुनते उसकी बेरौनक़ की आँखों से ख़ून के फव्वारे फूट जाते ज़बान से अंगारे.
वह चाहता-
कि चाँद पर कालिख पोत दे
जिसकी रोशनी में सफ़ेदपोश अपने काले को ढंकते है.
कि सूरज को पानी में पटखनी देकर बुझा दे
जिसके उजियारे में हत्यारे हत्या के बाद एक लंबी डकार में चले जाते हैं.
कि तारों की चटनी बना दे
जिनकी चमक कवियों की आँखों की ठंडक है.
वह चाहता-
कि जो युद्ध में, अकाल में, दंगों में शामिल हैं या होने की इच्छा से भरे हुए हैं उनके और उनके
जिनका ईमान है कि युद्ध, अकाल और दंगे ज़रूरी हैं क्योंकि वह शांति की नींव हैं!
कानों में ज़ोर ज़ोर से चिल्लाए
और सुनाए एक ही साल के एक ही महीने और एक ही सप्ताह में पैदा हुए
एक विदूषक और एक तानाशाह की कहानी.
विदूषक-
जिसने आदमिस्तानवासियों को अपने अभिनय से ख़ूब-ख़ूब हँसाया.
तानाशाह-
जिसने आदमिस्तानवासियों के सपनों उनकी ख़ुशियों को चिमनी से निकलता काला धुआँ बना डाला.
वह चाहता-
कि इस एक कहानी को महज़ एक पंक्ति में
आने वाली नस्ल के लिए किसी सबक़ की तरह लिख छोड़े दीवारों और चौराहों पर कि-
हिटलर हैवानियत का नाम है और चार्ली चैपलिन मुस्कान का.
वह चाहता-
कि आदमिस्तान की सारी तोपों सारी मिसाइलों और सारी बंदूक़ों को भट्टी में झोंक दे ताकि
युद्ध और अकाल से
दंगे और पलायन से
हिंसा और भूख से
बिलबिलाते लोगों के लिए मुहैया कराया जा सके कुछ ऐसा जिससे भरा जा सकता हो पेट
जिससे चेहरों पर झुर्रियों की जगह लालिमा आए
साँप घास छछूंदर खानी न पड़े उन्हें
लड़ना न पड़े कूड़ेदान पर कुत्तो के झुंड से.
वह क़ब्रिस्तान में था तो कुछ-कुछ क़ब्रिस्तान उसमें भी था
सिगरेट उसकी पहुँच से बहुत बहुत दूर थी सो वह जेब से बीड़ी निकालता
और यों धुएँ से आसमाँ-ओ-ज़मीं पर अवकाश रचता-
वह युद्ध का अवकाश रचता था.
अकाल का…
वह दंगों का अवकाश रचता था.
बाढ़ का…
वह सरहदों का अवकाश रचता था.
पलायन का…
वह भूख का अवकाश रचता था.
भयंकर का…
वह अंधकार का अवकाश रचता था.
अकेलेपन का…
वह ख़ालीपन का अवकाश रचता था.
वह बहुत कुछ छूट गए का…
इस तरह वह रोज़ ख़ुद से ख़ुद एक क़ब्र खोदता और
ख़ुद से ख़ुद को दफ़न करने का अवकाश रचता था.
आदमिस्तान के मकड़जाल और क़ब्रिस्तान के तसव्वुर के इस कारोबार के बीच
आए दिन एक ताज़ा क़ब्र खोदी जाती
एक पेड़ काटकर लाया जाता
एक जनाज़ा आता और साथ में लोगों का हुजूम
फिर मिट्टी दी जाती और दोनों हाथ उठा मग्फ़िरत की नीयत से यह हुजूम होठों में कुछ अनसुना सा बुदबुदाता और वापस आदमिस्तान के नरक में लौट जाता.
और फिर इस तरह इसके बाद
क़ब्रिस्तान के इस उजाड़ के सन्नाटे में चारों तरफ़ गूँजता-
मन रब्बुका?
मन रब्बुका?
मन रब्बुका?
याने बता तेरा रब कौन है?
कविता सी यह एक कहानी तब की है-
जब दो बुढ़ऊ कवि शहर-ए-कलकत्ता में चेतना पारीख के पीछे पगलाए घूमते थे.
जब एक कवि ख़ुद को वीर्य की एक बूँद की तरह खल-बल होने को स्वीकार करता था.
जब एक कवि तिल को चूमना समूचे सौन्दर्य को चूमना घोषित करता था.
जब एक कवि एक स्त्री देह को एक घना पेड़ घोषित करता हुआ तिलों के घोंसले में रहता था.
जब एक कवि को नाख़ून सारे नाजायज़ वंशज लगते थे दिल के.
जब एक कवि की नज़र में गुदा इक्कीसवीं सदी का महत्वपूर्ण प्रश्न हुआ करती थी.
जब एक कवि खलल मानता हुआ आवाज़ को चुप रह जाने का आदेश देता था दुनिया को.
जब एक कवि कम मार्गदर्शक ज़्यादा की पूछ पकड़े कई युवा कवि होने की क़तार में थे.
आमिर हमज़ा 03 मई, 1994 कविताएँ पढ़ते-लिखते हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ आदि प्रकाशित. एक किताब ‘क्या फ़र्ज़ है कि सबको मिले एक सा जवाब’ शीघ्र प्रकाशित. इन दिनों युद्ध आधारित हिंदी-उर्दू कविताओं और नज़्मों का साझा-संकलन तैयार करने में मशगूल हैं. संपर्क : amirvid4@gmail.com |
मानो यह आलेख एक साँस में लिख दिया हो । मैंने भी उतनी ही तीव्रता से पढ़ लिया है । समाज में फैली फ़िरक़ापरस्ती केंद्रीय अंतर्वस्तु है । उर्दू ज़ुबान न होती तो हिन्दी को रस कहाँ से मिलता । उर्दू ईख से निकाले गये रस के समान है । कत्बों में दफ़नायी गयी लाशें एक स्वर में बोलती हैं । घृणा घृणा और हिंसा ।
समाज को क्यों बाँटते हो । यह सियासत का पुराना खेल है । मशगूल हैं सियासतें । अरुण देव जी मुझे आपसे एक शिकायत रहेगी । लिखने का फ़ायदा और असर नहीं है ।
ये कविता आज का हासिल है। लम्बी कविता में सिर्फ़ तनाव नहीं होता, उतना सुकून भी होता, जो यहां मिला। इस कविता से हमारी कविता समृद्ध हुई है।
इस कविता की खासियत उसका रचाव है। आमिर को पहली बार पढ़ा।
बेहद उन्नत संभावना से भरा कवि.आमिर को एक और मुक़ाम हासिल करने पर बधाई
बहुत शांत होकर दोबारा पढ़ने को कहती कविता, बहुत कुछ बयान करती, कवि के कोमल हृदय की व्याकुलता का निचोड़ ।
आमिर की कविताएं लंबी हों या लघु, उन्हें समझने के लिए उसमें डूबना पड़ता है। इनकी कविताओं को हम बस, मेट्रो या कैंटीन में बैठ कर नहीं पढ़ सकते। इसके लिए एक कोना चाहिए, एक एकांत। आमिर के कविताओं की यह एक बड़ी विशेषता है। अपनी इस लंबी कविता को उन्होंने लयात्मकता से दूर नहीं जाने दिया है। विभिन्न संदर्भों को जिस तरह से पिरोया गया है, वह कवि के संबल और केंद्रित व्यक्तित्व का परिचय देता है।
आमिर जी को जब पहली बार सुना था , मैं तब से ही अभिभूत थी।
आज तो अद्भुत रचन के दर्शन हुए।
उम्दा लेखन
बेहतरीन भाव व विचार
लम्बी परन्तु संवेदनशील
बहुत बढ़िया
सधाव के साथ रची गई बेहतरीन कविता। कवि को साधुवाद।
आमिर को पहली बार पढ़ा.निश्चय ही एक बड़े शायर की आहट सुनी जा
सकती है, इस लंबी कविता में.आमिर को मुबारक बाद, आपको धन्यवाद
आमिर जी को पहली बार पढ़ा. लम्बी कविता पर क्लिष्ट नहीं, पकड़ कहीं भी नहीं छोड़ती, अंत तक. आप दोनों का आभार.
आवेग में भी एक लय है कविता बांधे रखती है, कम्ममाल की कविताएं है
आमिर जी की यह बेहतरीन कविता है दो बार पढ़ चुकी हूँ। एक बड़े कवि के कदमों की आहट सुन रही हूँ। आमिर जी को बधाई, आपका आभार।
अपने सर्वोच्च उत्कर्ष तक आकर कविता कवि~निंदा में जैसे ढह जाती है। परंपरा और अपने समय ही नहीं, गए पचास वर्षों की एक आधुनिक स्त्री चेतना की महान कविता और अपनी ही परंपरा के तत्कालीन युवा कवियों का तिरस्कार भी करती है और उन्हें `बुढ़ऊ` कहने में लजाती नही। जैसे यह कवि चिर यौवन प्राप्त ययाति हो। यही नहीं स्त्री को `ओस की बूंद` कह आदर से देखने वाले, किंतु अपने को `वीर्य का खल बल` कह स्वयं को निंदित करने वाले `मो सम कौन कुटिल खल कामी` के वंशज कवि के ईमानदार कथ्य का यहां मजाक भी उड़ाया गया है। यह युवा कविता का सांप्रतिक उत्स है जहां जाने अंजाने वह अपनी कवि परंपरा को निंदित कर अपने झंडे गाड़ना श्रेयस्कर मानता है!!
यों केवल इस टिप्पणी से कविता का कद छोटा न समझा जाय। यह कविता आज की सैकड़ों अच्छी कविताओं पर भारी है। इसमें हिंदी कविता कम, हिंदुस्तानी जबान का स्थापत्य ज्यादा प्रभावी है।
युवा कवि आमिर हमज़ा ने अद्भुत कविता लिखी है. बहुत बेबाक दृष्टि से सब कुछ कहा. कविता समय, समाज, और इतिहास के बहाने जो कहती है वह तो विचारणीय है ही. साथ में कविता की अंतिम पंक्ति जो कहती है, वह भी बहुत विचारणीय है :
“जब एक कवि कम मार्गदर्शक ज़्यादा की पूछ पकड़े कई युवा कवि होने की क़तार में थे.”
–
मैं समृद्ध हुआ आमिर हमज़ा को पढ़कर।
मुबारक हो कवि, और समालोचन।
आमिर हमज़ा ओ आमिर हमज़ा! एक बार, दो बार फिर तीसरी बार बोल बोल कर पढ़ी।कभी भीतर ही भीतर सोखी, तब जाकर कहीं तसल्ली हुई कविता पढ़कर। कविता कवि का दर्पण होती है। आमिर के अंदर जो पीड़ा है, जो आक्रोश है, जो बेचैनी है वह कविता को बांधकर नहीं रखती बल्कि खुला छोड़ती है,उसकी अपनी नैसर्गिकता में।नदी सी बहती कविता में यूं लगता लगता है क्षोभ को कहा तो जा सकता है पर प्रवाहित नहीं जा सकता है।जिस पर रोया तो जा सकता है रोका नहीं जा सकता। आमिर की कविता लंबी होते हुए भी बोर नहीं करती।दोहराव भी आवश्यक जान पड़ता है। आमिर ने बिना झिझक सबकी बोलती बंद की है। आने वाला समय आमिर हमज़ा आपका है💐।बहुत बधाई आमिर को।कविता पढ़वाने के लिए बहुत शुक्रिया अरुण देव जी 🙏
आमिर को पहले भी यहीं पढ़ा है आमिर की कविताएँ मुझे सहज ” एंट्री” नहीं देती । विन्यास आड़े आता है बार बार पढ़ना पड़ता है। यह मेरी ही असमर्थता होगी। यह है कि मैं इन कविताओं को इग्नोर नहीं कर सकता समझ में आने तक बार बार पढ़ने का मन करता रहता है। हालांकि नहीं जानता सृजन का एक सुनिश्चित “अर्थ ” निकालना लेना कितना और क्रू्यों ज़रूरी है? यह लंबी कविता मुझे सही सही संप्रेषित हुई । साधुवाद! आमिर और उस की पूरी पीढ़ी को शुभकामनाएं।