आमिर हमज़ा कविताएँ |
माँ, क़ब्र, क़ब्रिस्तान
(फरीदा गोर निमाणी सडु करे निघरिआ घरि आउ)
यह अप्रैल का कोई दिन है दुपहरी भरा
मैं अपनी माँ के गाँव किनारे क़ब्रिस्तान में खड़ा हूँ.
मेरी माँ के गाँव किनारे क़ब्रिस्तान बाहर
कुछ मिस्त्री एक घर की मरम्मत कर रहे हैं
झुर्रीदार चेहरे कुछ क़ब्रिस्तान की जालीदार चारदीवारी से दीखती
टीले वाली मस्जिद के चबूतरे पर बीड़ी के धुएँ बीच
ताश खेल रहे हैं
एक दहक़ाँ काँधे ऊपर फावड़ा रखे खड़ंजे खड़ंजे सिर झुकाए
खेत से घर की ओर चला जा रहा है
खूँटे बंधी भैंस रंभा रही है.
यह अप्रैल का कोई दिन है दुपहरी भरा
मेरी माँ के गाँव किनारे क़ब्रिस्तान भीतर
महज़ एक क़ब्र पर दफ़न देह का
दुनियावी तआ’रुफ़ कराता उर्दू लिखा कत्बा है
क़ब्र खोदते थके गोरकन की देह से चुआ पसीना है
बूँद बूँद गिरता जाता सरकारी नल का पानी है
रोशनी बीतने का इंतज़ार करती
छिपे खोह में मुर्दाखोर बिज्जू की आँखें हैं.
आरामफ़रमा जुगनू हैं. छूट गए की यादें हैं. सूखे ग़म के आँसू हैं.
फ़ातिहा पढ़ते होंठ हैं. ठहरी हुई दुआएँ हैं. पुरानी पड़ी क़ब्रें हैं.
घंटी बंधी बकरियाँ भूरे सफ़ेद गहरे रंग की हरा चरने में मशगूल हैं
मृत्यु भय से अंजान चरवाहा बच्चा घूमता पीछे पीछे
चरता देखने में मसरूफ़ है.
मेरी माँ के गाँव किनारे क़ब्रिस्तान भीतर
बीते कई बरस से मेरी माँ सुपुर्द-ए-ख़ाक है!
सुपुर्द-ए-ख़ाक है कि ज़मींदोज़ है
मेरी माँ की क़ब्र सिरहाने शीशम का एक पेड़ खड़ा है.
मेरी माँ की क़ब्र छाती ऊपर मुर्दा एक पेड़ पड़ा है.
मेरी माँ की क़ब्र ऊपर घास उगी है.
मैं अपनी माँ से मुख़ातिब हूँ!
मुख़ातिब हूँ कि रूआँसा हूँ
मुझे हिचकी आई है. मुझे माँ की याद आई है.
माँ थी तो कहती थी : ‘हिचकी क़ब्र की पुकार है.’
कहने को कहती थी : ‘क़ब्र कर सब्र एक दिन तुझी में आना है.’
यह हिचकी माँ की पुकार है!
यह अप्रैल का कोई दिन है दुपहरी भरा
मेरी माँ के गाँव के क़ब्रिस्तान गिर्द कुछ सुनहरे खेत हैं.
मेरी माँ के गाँव के क़ब्रिस्तान गिर्द खेतों में इन दिनों
गेहूँ पक रहे हैं.
भूखे पेट दूर देस की राजधानी में
अभी किसी ने दम तोड़ा है.
दुनिया के कान भीतर बैठी ख़ून चूसती चीचड़ी
दूध खिंडे कटोरे के पास पड़ी एक बिल्ली
कूढ़े के ढेर पर पड़ा एक कुत्ता
सड़क के बीचोबीच टायर कुचली एक गिलहरी
पिंजरे बाहर टूटी गर्दन लटकाए एक तोता
तार पर लटका एक उल्टा कौआ.
कैसी ये दुनिया!
रातभर पुरुष देह से नुची एक स्त्री देह की चीख़
पति से पिटती पत्नी का बिलबिलाता हुआ चेहरा
फ़ुटपाथ पर मुर्गा मछली भात बेचती लड़की के राख हुए सपने.
कैसी ये दुनिया!
पव्वे का ढक्कन खोल ज़मीं को भोग लगाता शराबी एक
लाश से उठती बदबू के गिर्द भिनभिनाती मक्खियाँ अनेक.
‘सभ्य समाज बालकनी’ में अख़बार फेंकता अख़बार वाला कमउम्र लड़का एक
अपनी रफ़्तार से देस परदेस उड़ते जाते हवाई जहाज़ अनेक.
कैसी ये दुनिया!
आधी देह लकवा मारा दुःख जताता
एक बूढ़ा कहता है
‘गड्डे में गर नहीं डाल सकते हो मिट्टी
कह तो सकते हो गड्डा है!’
ऐसी ये दुनिया!
ख़ाबनिगार
हम कभी नहीं मिले. हमने कभी बात नहीं की.
गुज़रे हैं ज़रूर कई कई बार कई बरस क़रीब से
कंधे बचाते हुए
देखना अपना छिपाते हुए.
उसे गुलाब पसंद है सबरंग जानता हूँ.
मुझे उसका गुलाब को पसंद करना पसंद जानता हूँ.
मुझे गुलाब से कोई लगावट नहीं
उसे फूल देने से है.
मुझे गुलाब से कोई गिला शिकवा नहीं
उसे अब तक फूल न देने से है.
गुलाब खिलता रहे
उस पर रंग सुर्ख़ गुलाबी ज़र्द खिलता रहे
गुलाब छूते हाथ उसके पर्नियाँ खिलते रहें
नाज़ुक लबों पर उसके खुशबू गुलाब की खिलती रहे.
मैं ख़ाबी दुनिया का चाहकार हूँ उसका
मुलाक़ात से अब तक महरूम रहा आता हुआ.
मैं अपनी पहली सामने की आँखों की मुलाक़ात में उसे
ख़ाब की पहाड़ी के सीने पर उगे
फूल कुछ जंगली जामुनी देना चाहता हूँ
गुलाब नहीं!
बेशक गुलाब भी फूल ठहरा
राजा ठहरा फूलों का
मुझे राजा से कोई प्यार नहीं.
पिछले बरस से पिछले बरस ख़ाब की पहाड़ी से मैंने
एक ख़त में लिखा था उसे
एक कटे हुए पेड़ के बचे से लिपटकर
एक राह-नवर्द आज भी तुम्हारे प्यार में आँसूभर भर रोता है.
तुम इसे एक सुख़न-वर की रुलाई की कविता कह सकती हो
या अब तक न पहुँचे एक चाहकार के ख़त का सब्र.
कैसे कह दूँ याद नहीं तुम्हारी अब!
यादनिगार
याद सच्ची सहयात्री है मेरी
यह एक पंक्ति गद्य में कहूँ या कविता में
अर्थ नहीं बदलता.
शब्दों में कहीं भी रहूँ
बार बार याद में लौट आता हूँ.
कुछ दीवारें तस्वीरें कुछ
कुछ शिकायतें दृश्य कुछ
मिलकर सब याद बुनते हैं.
बालकनी में पानी का गिरना शुरू होता है
कबूतर जगह बदलने लगते हैं
भीतर भीतर रुलाई दरकती है.
मैं अपना लिबास उतारता हूँ
सिगरेट होंठों से लगाता हूँ
अपनी देह देखता हूँ
अपना सीना
अपने हाथ
अपने पैर
देह का समूचा दुःख देखता हूँ.
बस्ते में संभाल रखा फूल सूरजमुखी का रोज़ छूता हूँ
अलिखी डायरी में गाहे गाहे पत्ते कुछ
नीम शहतूत मेहँदी के जमा करता हूँ.
एक याद उमड़ती है!
वह चनाब थी.
उसकी कमर पीछे चाँद आँखों को चाँदनी लुटाता इतराता था.
उसकी ज़ुल्फ़ों ऊपर फूलों बीच तितलियाँ गुनगुनाती थीं.
उसकी आँखों आगे आसमान खुलता था.
वह थी तो अमलतास पर पीला था.
वह थी तो सदाबहार में गुलाबी था.
वह थी तो फूल एक करंज का उसके होने से आबाद था.
वह दुःख की कत्थई मूरत थी
उसके आज पर बीते हुए का ज़ख़्म था.
मैं उसके प्यार में था
वह मेरे प्यार में थी.
इस दुनियावी प्यार में
मैंने हमेशा उसको गले भरा और बहिश्त से उसकी
फिर फिर अपने जहन्नुम में लौट आया.
यह भाषा में अभिनय था.
यह याद का आख़िर है आख़िर में गढ़ा हुआ
इसे अव्वल होना था.
उसकी याद उमड़ती है!
विदानिगार
हमारे दरम्याँ महज़ दो नाम का रिश्ता बाक़ी है
यह एक उसका नाम है एक मेरा
मुलाक़ातें नहीं हैं.
इतना ज़रूर है कि किसी बुझी बुझी सुबह
या एक ख़ाक हुई शाम में हम कभी कभार
एक दूसरे को याद कर लेते हैं.
इसका पता आँसू देते हैं!
मैं उसे चाह से ख़ाब कहता था
अब एक ना-निबाह ख़ाब
अभी कुछ रोज़ बीते उसके अज़ीज़ नेरुदा की पैदाइश का दिन था
मैं उसकी आँखों को नेरुदा की हिजरत की बुनाई कहता था.
कल ख़ूब ख़ूब बारिश हुई
कल मैं उस जगह गया जहाँ हम आख़िरी बार मिले थे
आख़िरी बार मिले थे कि बिछड़े थे!
कल वहाँ पत्तों की देह गीले की ठिठरन में क़ैद थी
कल वहाँ किवाड़ पर एक साँकल छूने की चाह लिए जी रही थी
कल वहाँ दीमक चाटे दरख़्त पर उजाड़ का बसेरा था
कल वहाँ ख़ाली एक बेंच पर बेचैनी का साया था.
कल वहाँ बारिश भरे आसमान में एक चिड़िया अपनी उड़ान में थी
बारिश का पानी उसे गिरा न सका
चिड़िया के पास पँखों का भरोसा था.
मैंने अपना सिर आसमान में उठाया और
ज़ोर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाया
ऐ ख़ुदा!
कभी किसी के साथ पर
अलविदा के ज़ख़्मों की नज़र न लगे.
मेरे देस में साथ के हत्यारे हरदम ताक में हैं!
रंगनिगार
बीती पहली मुहब्बत को याद कर
जब कभी आँखें भर आतीं हैं
रंग पीला मरहम बन दिलासा देता है.
वह हल्दी का पीला हो या फूल का
धूप का पीला हो या मुश्ताक़ निगाहों का.
पीले से लगावट की हद यह
मैं ख़ुद से ख़ुद को खोजता फिरता हूँ वहाँ हरघड़ी.
पीले ने हमेशा मेरा दुःख पिया है
पीले का असल कर्ज़दार हूँ मैं.
अभी के गुज़रे की बात है
जेठ की मार से मरा अमलतास
बारिश की छुअन से फिर फिर जी उठा
जी उठा वह ख़ुश है
उसका रेशा रेशा ख़ुश है
उसके बदन ऊपर फिरते मोटे मकोड़े लाल काली चीटियाँ
सब चाहने वाले उसके ख़ुश हैं.
गिलहरियों की ख़्वाबीदा आँखों भीतर
उसके पीले का उत्सव है.
गोया किसी विरह के मारे का माथा
उसके चाहने वाले ने दूर देस से आकर चूमा है.
ख़ुदा उसका आना मुक़म्मल करे
लौटना स्थगित!
आमिर हमज़ा : कविताएँ पढ़ते-लिखते हैं. विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ आदि प्रकाशित. इनकी एक किताब ‘क्या फ़र्ज़ है कि सबको मिले एक सा जवाब (समकालीन हिंदी कवियों की लिखत)’ हिन्द युग्म से प्रकाशित हुई है. युद्ध सम्बंधी साहित्य, सिनेमा और फ़ोटोग्राफ़ी में विशेष दिलचस्पी रखते हैं. दिल्ली स्थित जेएनयू में शोधरत हैं. संपर्क : amirvid4@gmail.com |
मेरे देश में साथ के हत्यारे हरदम ताक में हैं… बेहद उम्दा कविताएँ
दुखों के भीतर भरे त्रास को, यातना को उधेड़ती और पूरा समझती हुई आह है जो असर खोजती हुई जानती है कि उसे दूर तक उजाड़ों में भटकना है।
आमिर हमज़ा को तो खोज कर पढ़ना पड़ेगा।इतनी बीहड़ उदासी को संभाल लेने वाली यह भाषा!
कवि ख़ुद एक तरफ़ खड़ा अपनी आँखों से कविताओं की जालियाँ बुन रहा है । ताजमहल की जालियाँ नये फ़लसफ़े बनाती हैं । सादिया देहलवी की अंग्रेज़ी भाषा में किताब Sufism the heart of Islam पढ़ी थी । पुस्तक संग्रह में है । उसमें कलात्मक तरीक़े से बनाये गए चित्र ख़ुशबू फैलाते हैं । इसी तरह इन चयनित कविताओं में ख़ुशबू है, लफ़्ज़ों की कारीगरी है । गुलाब पर और पर तरह-तरह से लिखा ।
पहली कविता में एक महिला द्वारा क़ब्रिस्तान में माँ की क़ब्र के अंदर मेरी क़ब्र पर जैसा कुछ लिखा । रुला गया ।
जियो लाल । तुम्हारे कविता संग्रह पर समालोचन पर बातें हों । इस्तक़बाल ।
पढ़ कर अच्छा लगा। यह भी कि कवि अपनी रौ में आता है लेकिन आसपास की तवक्को का दबाव उसे कोई असम्बद्ध पंक्ति लिख कर ढक्कन की तरह कविता को बंद करने पर मजबूर सा करता है। माँ की कब्र वाली कविता में इसे ख़ास तौर पर देखा जा सकता है। मुझे कवि का रूमानी और दुनियावी इलाकों में आनाजाना दिलचस्प लगा। साथ ही, भाषा की अलग अलग रंगतों में भी। आमिर को बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
आपकी पंक्ति पढ़ना लुत्फ़ दे गया ।
आमिर हमजा प्रतिभाशाली तो हैं ही, विनम्र भी हैं। अनूठे साक्षात्कारों की उनकी पुस्तक ‘क्या फर्ज……’ बेहतरीन पुस्तक है। उन्हें बधाई और शुभकामनाएँ।
मुझे बहुत अच्छी और मार्मिक लगीं कविताएं। ये कविताएं सबसे अलग एक अलग असर रखती हैं।
भाषा सुकून सी देती है
आमिर हमज़ा बिंबों में नहीं बल्कि जीवन से जुड़ी चीजों और उनकी स्मृति से कविता खोजते हैं जो हम सबके लिए भी उतनी ही ज़रूरी है।
आमिर की राह बन रही। पिछली बार इतिहास इस बार स्मृतियाँ ! बधाई!
आमिर हमज़ा के रचना संसार में आज का समय और समाज धड़कता है. उनकी तमाम जीवनानुभूतियों में एक तल्ख़ी का स्पर्श है. यही तल्ख़ी उनकी संवेदना को धार देती है. आमिर आम आदमी के, बेहद साधारण व्यक्ति के पक्ष में खड़े दिखते हैं. हिंसा, शोषण, नफ़रत के विरुद्ध उनकी कविता हमेशा तैनात मिलती है. उनकी भाषा की बात करूँ तो वह बेहद निराली है. हिंदी के साथ उर्दू का जो तालमेल पैदा करते हैं, उससे कविता की ध्वनि, उसकी पूरी तासीर बदल जाती है. और वह आकर्षित करती है. पढ़ने की जिज्ञासा पैदा करती है. आमिर भाई के संग्रह का बेसब्री से इंतज़ार है. उनके संपादन में अलहदा से संकलन आये है. उनकी रचनाशीलता के लिए खूब शुभ कामनाएं, प्रेम.
ज़ख्मों की कविताई