गरुड़अम्बर पाण्डेय |
(शशांक त्रिपाठी के लिए. शशांक अपने मृत्यु से पाँच दिन पूर्व तक गरुड़ पुराण सुन रहा था. उसके पिता की मृत्यु होने के बाद दस दिनों तक गरुड़ पुराण का पाठ उसके घर पर हो रहा था. रोज शाम को वह कहता था कि गरुड़ पुराण में केवल मृतकों की भविष्यत् गति और कर्मकाण्डों तथा दान दक्षिणाओं के बारे में ही पण्डित बताते है, गरुड़ के बारे में कुछ भी नही है. इसलिए यह गरुड़ शशांक के लिए ही है.) |
कौन व्यतीत है होना चाहता किन्तु होते थे
जनमेजय के यज्ञ में करैत
सामुद्रिक अहियों के ढेर
चक्र से जिनका परिचय वे प्रयाग से गिरे आते
अग्नि की जिह्वा पर केउटिया सर्प
आया गौड़देश से विकट शंकरचूड़ भीत हो
गए यज्ञकुण्ड को घेरे ऋत्विक तक.
दुर्गन्ध, उन्मद करनेवाला सौरभ और नन्दनारण्य की सुगन्ध,
भाँति भाँति की चिरायंध उठती थी भिन्न भिन्न व्यालों से.
देख रहा था दूर बैठकर मोर एक —
उसका भोजन अग्निदेव खाता जाता.
रत्नागिरि से गिरा परम रम्य बंकराज
तो सिंहल द्वीप से पड़ा वैश्वानर के मुँह सीलोनी पोलंगा,
ढेर सहस्र प्रवाल सर्पों के.
मणिधरों के रत्न बीनते भस्म से लोभी पण्डितों के,
दिनों से काम करते, फूट गए दोनों नेत्र भी.
नागवृष्टि होती थी जितनी
उतनी अग्नि भड़कती थी, गरुड़.
कहा तब आस्तीक ने आ, “सृष्टि नहीं मानव
केंद्रित गढ़ी ब्रह्मा ने कि प्रत्येक जीव केन्द्र है सृष्टि का,
उन्हें मारना यों कैसे शिव हो सकता है.
दसों दिशाओं में जब शोकग्रस्त कर रहे हो क्रंदन
कैसे यजमान कोई सुखी हो सकता?
नाग पृथ्वी की सन्तति है
वासुकि के फण पर टिकी यह धरा
उन्हें मारकर कोई कैसे धर सकता है धरा पर देह!
देखो मोर की पूँछ से इस प्रद्योत व्याल को
उजेले से भर रहा है यज्ञमण्डप, मत मारो इसे.
न नभ में न अग्नि में, बीच टंगा था तक्षक,
आस्तीक ने, यह शब्द कहे, “ठहर, ठहर,ठहर मामा वहीं ठहर”.
पिता जिसका जरात्कारु है और जरात्कारु नाम्नी ही माता—
तप से इस दीपदीपाते युवा ऋषि को दो जो यह चाहे.
धन्य यह यज्ञभू जहाँ इसके चरण पड़े.
नागों का भागिनेय, अग्निदेव से अधिक तेज है इसमें क्योंकि
जीवमात्र के प्रति है करुणा.
स्वर्ण, माणिक्य, भूमि, रथ, गाय-घोड़े-हाथी नहीं लिए.
पृथिवी नहीं ली, लिया पृथ्वी की रक्षा का वचन. अपूर्ण रहे
ज्योतिष्टोम यों हो, हुआ.
हमारी सृष्टि रीती थी नए निर्मित भवन सी
आदित्य भी तब तक बने न थे न चन्द्रमा था न वनस्पतियाँ,
करने को कुछ न था.
दिनों तक हम तुम्बरु का तुमुल सुना करती थी
बहनें दोनों कद्रू और मैं तुम्हारी माँ विनता.
तब एक दिन हमारे पति ऋषि कश्यप ने
बतलाया यह प्रणव है जो हम सुनती है- नाद
ब्रह्माण्ड का है.
सृष्टि हमारे शरीर में ही है.
बना सकती है जैसा चाहे हम इसे.
मैंने पूछा- तब प्रजापति का क्या कार्य?
वे हँसे, कहा जो गढ़ता है भीतर है हमारे.
वही प्रजापति है.
तब भी हम सुखी नहीं हो सकी.
तुम्हारे पिता ऋषि कश्यप
एकान्त सघन वनों फिरते थे भटकते.
पद्मासन में बैठे श्रेय खोजते.
हम दोनों उनका रास्ता देखती रहती थी.
मनुष्य को वियोग नहीं मारता
उसे रोग मारता है, मार सकता है अविनोद.
देखने को जगत में कुछ था ही नहीं,
न हमारे जीवन में कथावाचक था कोई.
तब एक दिनांक ऋतुस्नान के बाद
अपने केश सुखा रही थी
अधबने ब्रह्माण्ड के अर्धतिमिर में,
तब कश्यप आए.
खिचड़ी श्मश्रु, हड्डियों का ढाँचा रह
गया गात किन्तु शुक्र अति प्रबल था.
कद्रू ने सहस्र सन्ततियाँ माँगी
और मैंने सहस्रों सी बली केवल दो.
ऊब से कद्रू ने पाया स्वयं को हड़बड़ी में क्योंकि एक के
बाद एक सहस्र नागों को उसने जन्म दिया और
तब वह उनके पालन पोषण, नामकरण में वर्षों
तक बहुत ज़्यादा व्यस्त रही और मैं रही देखती
राह कि यह मेरी संतति जो केवल दो थी जन्में. सेती थी
अण्डे रातदिन किन्तु वे अण्डे जैसे पत्थर थे तब
एक कुवार जब सहस्र संतानों की माँ कद्रू क्लांत पड़ी
हुई थी अपने बच्चों से घिरी मैंने फोड़ दिया एक
अण्डा, अधबना सद्यजात पाया. चामर ठीक से बनी न
थी, पूरा पिण्ड शीतल था.
देर तक डरी रही कि क्या
मैंने मृत शिशु को जन्म दिया है और उससे अधिक कद्रू
इस शिशु शव को देख जो व्यंग्य करेगी मैं उसकी
कल्पना से भयभीत हुई- चली थी ढेरों संतान से बली
दो संतानों को जन्म देने तब परख तूने कितना
बलवान बालक पाया है, जग में मृत्यु से बली कौन है.
हालाँकि हम बहनों ने इससे पूर्व किसी को देखा
न था मरते किन्तु ज्यों जाना था हमने कामेच्छा को, संतान
से प्रेम को जाना था, ऋषि कश्यप से अपने प्रणय
को जाना था हमने मरण को जान लिया था. बहुत देर
स्तनों से शिशु को लगाए रही, वह कण्ठ फाड़ रोया.
मस्तक पूर्ण विकसित था, जैसे
हो उदीयमान तारा पर पैरों खड़ा नहीं
हो पाता था.
मेरा ज्येष्ठ पुत्र, ज्येष्ठ
पुत्रों की भाँति ही मुझसे कुपित हो चला गया है दूर.
कहते है वह सूर्य का शकट खींचता है मेरा रक्त.
असंख्य वर्षों तक वर्षों को वह ढोनेवाला, अंतहीन
आकाश नापता.
वह अश्लथ किन्तु जर्जर.
प्रतिदिन वही लाता है प्रभात का छकड़ा.
स्वेद चूता टपटप कनपटियों से, तप
की ध्वजा है.
जैसे ही सूर्योदय है होता, हो जाते है हम थोड़े और
बूढ़े, और निकट आ जाता है मरण. यह
जीवन देनेवाला, सदा भीतर
हमारे धधकता हिरण्यगर्भ सूर्य, यह चलता है
जाता, चलता जाता है किन्तु पहुँचता कहाँ है?
चिता में धधकते कपाल जैसा दीखता
हिरण्यगर्भ, गरुड़, बता पहुँचता कहाँ
है?
इसी से आरोग्य प्राप्त है इसी से जरा, रोग और मृत्यु.
उषा का सूर्य अरुण तुम्हारा भाई बड़ा, परिक्रमा
करता ब्रह्माण्ड की जो, अहोरात्र, निरवधि तक, मेरे
कारण, अपनी माता के अधैर्य के कारण.
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गरुड़ की काव्यकथा किसी मिथकीय सामर्थ्य की कथा न होकर मानवीय दुःख, पीड़ा और विषाद की कथा बन गई। मैं डरता था कि अवसाद की न बन जाए पर ऐसा नहीं हुआ। अम्बर का यह गरुड़ हमारे भीतर अपने विशाल पंख फड़फड़ाता है जैसे। दूसरी आवाज़ों के साथ इस कविता में एक मंद्र ‘ध्वनि’ शामिल है। होने न होने के बीच की बनती-बिगड़ती दुनिया के वृक्ष की डगाल पर अशांत बैठा एक गरुड़ यानी यह कविता …..
अमृत को ठुकरा कर जो ढोता रहा ईश्वर को अपनी पीठ पर वैसे ही जैसे ढोते हैं मनुष्य या फिर मनुष्य ढोता रहा ईश्वर को अपनी पीठ पर जैसे ढोता है वह….. कवि, मेरे लिए तुम्हारी यह कविता एक लम्बा पाठ है, जाने कब तक चले।
अभी तो एक साँस में बहुत बेचैनी के साथ इसे पढ़ गया हूँ। इसे पढ़ने का यही सही तरीका भी है शायद।
शशांक की स्मृति को नमन।
अम्बर के गरुड़ की उड़ान निश्चय ही बहुत लंबी है, दूर से देखने पर उतना ही चकित-विस्मित करती है। लेकिन बहुत पास जाने पर उसके डैने पस्त, पुराने और बूढ़े-से लगते हैं, पंखों से रेशे झरते हुए लगते हैं। अम्बर के कवि से यह डटकर और उसके सम्मुख भी कहा जा सकता है क्योंकि उनमें वह क्षमता है कि हर बार अपनी ही राख से एक नई काया पैदा कर सके। लेकिन यहाँ मुझे गरुड़ नया कम, पुराना ही अधिक लगता है।
फिलहाल यह बधाई देने की जगह है। सो मेरी भी बहुत बधाई। यदि समय हुआ तो विस्तृत आलोचना बाद में की जाएगी। एक साँस में पढ़ तो मैं भी गया लेकिन सोचा कि मेरी टिप्पणी पहली टिप्पणी न हो। और चूँकि जल्दबाजी भी नहीं करता इसीलिए मैं किसी की प्रतीक्षा कर रहा था। मौर्य जी की ओपनिंग टिप्पणी से मेरी प्रतीक्षा सम्पन्न हुई। वैसे अगर यह मेरी पीढ़ी के एक कवि द्वारा लिखी गई एलजी है तो सबसे पहले सम्मान की हक़दार है। लेकिन अगर यह “कविता” भी है तो उसे केवल उस सम्मान के आवरण में पढ़ना कविता का अपमान भी है। हमारे ऊपर है कि हम किसका सम्मान और किसका अपमान करना चाहते हैं।
अम्बर जी, थोड़ा ठहर कर, दूसरी-तीसरी साँस में इसे पढ़कर, इस पर विस्तृत संवाद करना चाहूँगा। क्योंकि चाहे जिस अर्थ में भी, इसने मुझे झकझोड़ तो दिया ही है। आपकी अगली उड़ान के लिए मेरी मंगलकामनाएँ!
अम्बर के गरुड़ की उड़ान निश्चय ही बहुत लंबी है, दूर से देखने पर उतना ही चकित-विस्मित करती है। लेकिन बहुत पास जाने पर उसके डैने पस्त, पुराने और बूढ़े-से लगते हैं, पंखों से रेशे झरते हुए लगते हैं। अम्बर के कवि से यह डटकर और उसके सम्मुख भी कहा जा सकता है क्योंकि उनमें वह क्षमता है कि हर बार अपनी ही राख से एक नई काया पैदा कर सके। लेकिन यहाँ मुझे गरुड़ नया कम, पुराना ही अधिक लगता है।
फिलहाल यह बधाई देने की जगह है। सो मेरी भी बहुत बधाई। यदि समय हुआ तो विस्तृत आलोचना बाद में की जाएगी। एक साँस में पढ़ तो मैं भी गया लेकिन सोचा कि मेरी टिप्पणी पहली टिप्पणी न हो। और चूँकि जल्दबाजी भी नहीं करता इसीलिए मैं किसी की प्रतीक्षा कर रहा था। मौर्य जी की ओपनिंग टिप्पणी से मेरी प्रतीक्षा सम्पन्न हुई। वैसे अगर यह मेरी पीढ़ी के एक कवि द्वारा लिखी गई एलजी है तो सबसे पहले सम्मान की हक़दार है। लेकिन अगर यह “कविता” भी है तो उसे केवल उस सम्मान के आवरण में पढ़ना कविता का अपमान भी है। हमारे ऊपर है कि हम किसका सम्मान और किसका अपमान करना चाहते हैं।
अम्बर जी, थोड़ा ठहर कर, दूसरी-तीसरी साँस में इसे पढ़कर, इस पर विस्तृत संवाद करना चाहूँगा। क्योंकि चाहे जिस अर्थ में भी, इसने मुझे झकझोड़ तो दिया ही है। आपकी अगली उड़ान के लिए मेरी मंगलकामनाएँ!
गरुण के मिथक से हमारे जीवन और अस्तित्व की कथा व्यथा कहती एक सार्थक कविता। भाषा का सौंदर्य और अर्थगम्भीरता कविता को और प्रभावी बना रहे। कवि और समालोचन दोनों को साधुवाद।
तुम जाओ पक्षीराज, समुद्र मंथन में
अमृत निकला है.
हम नाग उसे पीना चाहते है.
माँ ने हमें मृत्यु का दिया है शाप.”
“माँ ने?”
“माँ ही तो देती है मरण का शाप.
जन्म के संग मृत्यु जन्मती.”
बेहतरीन !
सबसे पहले तो बधाई, दुःख और अवसाद के बाद रचनात्मक अभिव्यक्ति ही रचनाकार को उबारती है। जनमेजय के नागयज्ञ से लेकर जरत्कारु और आस्तीक की कथा बुनावट में गरुण की यह अभिव्यक्ति कई पाठ की माँग करती है, फिर यह भी कि यह कविता अपने समकालीन समस्याओं को कितना सम्बोधित करती है? करती है। इस सम्बोधन में ही कविता प्रसारण के गुणचिन्ह निहित है। पुनः बधाई।
“अमरण की इच्छा का शाब्दिक अर्थ है अमरण की मृत्यु!” ये कविता कितनी ही बार पढ़ी जाने के बाद भी अनन्त स्रोतों से तर्कशास्त्र, दर्शन और ज्ञानयोग की बूँद बूँद से जिज्ञासु मन के पोर पोर को तृप्त करेगी!
“अम्बर का गरुड़”
••••••••••
हिंदी के विलक्षण युवा कवि मेरे सबसे प्रिय और लाड़ले अम्बर पांडेय Ammber Pandey की नई लम्बी कविता गरुड़ पढ़ी – समझी जाना चाहिये, भले मुश्किल लगें पर जितनी बार आप पढ़ेंगे – जितना पाठ करेंगे, उतने संवेदना के स्तर पर आप पहुंचेंगे, यहाँ गरुड़ मात्र प्रतीक है पर इस बहाने जो जन्म, मृत्यु और पूरे जीवन संघर्ष का एक वृहत्तर व्योम वे रचते है – वह हमें अपने आप में भी झांकने का और स्व मूल्यांकन का मौका देता है – यहां गरुड़ के बहाने प्रश्न पूछने, अस्तित्व को समझने, अपने कर्म और अंत में एक कबीराना अंदाज़ है
भाषा, शिल्प सन्दर्भ और प्रसंगों के बरक्स यह उतनी ही दुरूह और क्लिष्ट है – जितनी इलियट की “द वेस्ट लैंड” और मुझे नही लगता कि वर्तमान में हिंदी के फलक पर कोई कद्दावर है जो इसे ठीक – ठीक समझ पाये , अपने भाई शशांक की स्मृति में लिखी यह कविता हिंदी में एक नई बहस पैदा करेगी और निश्चित ही इससे एक दिशा भी निकलेगी, अम्बर और स्व शशांक से मेरा परिचय दशकों पुराना है, शशांक का गुजर जाना एक हादसा ही है और अम्बर ने शशांक की स्मृति में जो शोकगीत लिखें है – 36 तक तो मैने पढ़ें है – उन्हें पढ़कर एक झुरझुरी उठती है और उसी क्रम में यह कविता एक मुकाम तक आपको लाती है
यह कविता मेरी नजर में पिछले पचास वर्षों में लिखी गई अपने आपमे एक अनूठी रचना है, और सुझाव है कि अम्बर को इसके बारे में पैराग्राफ वाइज़ नोट्स लिखना चाहिये ताकि मेरे जैसे मूढ़मति पाठको को वो सब जानने सीखने को मिलें जो ना मात्र पुराणों में है सन्दर्भों में है बल्कि जो इस सबसे जोड़ते हुए जीवन, साथ और मृत्यु तथा मृत्यु के बाद उपजे वियोग को भुगतने की अंतर्दृष्टि विकसित हो सकें, अंत मे इस पर एक किताब भी आये तो हिंदी का भला होगा, लम्बी, घटिया, कचरा कविताओं को छपते देखा है और खरीदा भी है इससे तो बेहतर है कि गरुड़ जैसी कविताएँ छपे और बांटी जाए या पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाए पर जड़ बुद्धि घटिया राजनीति करने वाले हिंदी के मठाधीश और प्राध्यापकगण इस पर ध्यान नही देंगे
अम्बर तुम हमेशा कमाल करते हो और निशब्द कर देते हो, बार – बार पढूंगा और समझूँगा, खूब लिखो, यश कमाओ – शुभाशीष
#कुछ_रंग_प्यार_के
एक बार पढ़कर समझना और कुछ कह पाना मुश्किल है मेरे लिए ,पौराणिक कथाओं और शास्त्रों का अध्ययन करने वाला ही इसे उस गंभीरता से आत्मसात कर पाएगा जिस गंभीरता से यह लिखी गई है, मृत्यु के दुख , विषाद से जन्मी अद्भुत कविता है जिसे अभी मैं बारबार पढूंगी, अम्बर हमेशा ही विस्मृत करते हैं, उनकी रचनाओं पर कहने के लिए शब्द कम ही रह जाते हैं… मेरे लिए यह अद्भुत कविता है |
किसी मिथक को विषय-वस्तु बनाकर काव्य-सृजन करना एक कठिन साधना है।और यह अगर जीवन के शाश्वत प्रश्नों से संबद्ध हो तो और भी कठिन है। मृत्यु के बारे में जानने की जिज्ञासा भारतीय आध्यात्म दर्शन की केंद्रीय विषय-वस्तु रही है।हमारे जीवन-दर्शन का प्रारंभ ही मृत्यु-दर्शन से होता रहा है।इस दृष्टि से यह कविता एक विशेष महत्व रखती है ।अम्बर जी को साधुवाद !
ठहर कर पढ़ना होगा कथा परिचित है पर उसका ट्रीटमेंट और भाषा अलहदा है अंबर पांडेय की
बीच बीच में कौंधती हुई पंक्तियाँ हैं
श्रीकांत वर्मा लिख गए थे गरुड़ किसने देखा है
अब अंबर पांडेय की आँख से दिखा है पर ठहर कर देखना होगा
गरुड़ पर एक कथा आचार्य चतुरसेन की पढ़ी थी बचपन में। उसमें गरुड़ के जन्म और उनकी तीव्र क्षुधा का आख्यान प्रस्तुत हुआ था। मिथक के रूप में पौराणिक महत्त्व तो है ही गरुड़ का। लम्बी कविता को पढ़ने के लिए पर्याप्त समय दिये बिना कोई टिप्पणी करना एक जालसाज़ी होगी। गरुड़पुराण और जनमेजय का नागयज्ञ जैसे उपजीव्य प्रसंगों को पुनः पढ़ कर ही कोई बात कही जा सकती है। लम्बी कविताएँ आकर्षित तो करती हैं। उन्हें रचना भी साधारण कार्य नहीं है।
गरुड़ इतने भी भोले नहीं थे। गरुड़ध्वज हुए। इंद्र तक को लपेटा दिया। वैष्णवों को आश्रय मिला।अम्बर की गारुड़ी में कई पलटे हैं । इतने कि कामू काफ़्का और नीत्शे भी इसमें नागपाश की तरह कविता के आरुणी अश्व उच्चैश्रवःकी पूँछ से लिपट गए हैं । (पहली बार वाल्मीकि की रामायण या शायद तुलसी के मानस में कैकेयी के प्रसंग में विनता और कद्रू का ज़िक्र पढ़ा था और बाद में महाभारत में । गरुड़पुराण इधर उधर मृत्यु प्रसंगों में कहीं आधा अधूरा सुना होगा। कभी आकर्षक नहीं लगा। वितृष्णा भी हुई सुनने- सुनाने वालों से, पर यह अपनी अपनी आस्था का विषय है ।मैं इसपर कुछ कहने वाला कौन हूँ ?)
गरुड़ पुराण के विकर्षक भयादोहन के सम्मुख गरुड़ का यह प्रशांत अमरणनिग्रह बहुत आश्वस्तिदायक है। ऐसी रचनाएँ भारतीय मिथकों के अक्षय वैभव का सत्यापन भी करती रहती हैं। लम्बी आख्यानाधारित कविताओं में चरित्र और प्रसंग, मुख्य कथ्य से भटका भी देते हैं। भाषिक सुर को यथावत थामे रखना भी चुनौतीपूर्ण होता है। यह कविता भी यत्र तत्र यत्किंचित अस्थिर होती है किंतु इसके बीच बीच में कुछ ऐसी दीप्त पंक्तियाँ हैं कि इस सब पर उतना ध्यान नहीं जाता। आख्यान के इस वितान को बस पार्श्व में रख कर यह कविता मात्र गरुड़ के साथ उड़ान भरती तो अंत में यह जिस गन्तव्य पर पहुंची है उसमें और चमकीली उठान होती। पंख आख्यान के हों और उससे आबद्ध न हों , तो एक बिल्कुल नई उड़ान सम्भव हो सकती है।
अधिकतर लम्बी कविताओं की तरह इस कविता में भी एक इतिवृत्त है।परंतु कालक्रम नहीं है। विनता जनमेजय के नागयज्ञ की कथा सुनाती है, मानो नागयज्ञ गरुड के जन्म से पहले हुआ। दूसरी ओर विनता के समय में चांद, तारे, सूर्य और सृष्टि सभी निर्माण की प्रक्रिया में हैं। काल भी नहीं है। जनमेजय की कथा काल के पूर्व की कैसे हो सकती है, वह तो द्वापर युग की कथा है।
तो यह इतिवृत्त है भी और नहीं भी। कालक्रम को भूलकर ही यह कविता पढ़नी होगी। अर्थात अविभाज्य काल।
कविता प्रत्येक जीव की ‘ऑटाॅनमी’ से आरम्भ होती है। वह है यही उसके बने रहने का तर्क है।
कविता के दूसरे भाग में सृष्टि के निर्माण का वर्णन है। सृष्टि के पूर्व अनाहत नाद था जिसे प्रणव या ओंकार कहते हैं। इस नाद के गर्भ में सृष्टि थी जो व्यक्त हुई। सृष्टि में कुछ भी सृष्ट नहीं है, जो निहित है वही प्रकट होता है। इसकी समांतर विचारधारा, जिसके अनुसार वस्तुसत्ता सत्य है और किसी निहित ‘आइडिया’ पर उसकी सत्ता निर्भर नहीं होती, का संकेत विनता की सौत कद्रु के दृष्टिकोण में प्रकट होता है।
तीसरे भाग में गरुड के आत्मज्ञान के लिए समस्त विश्व में भटकने का वर्णन है।मैं कौन हूं और सृष्टि क्या है- ये प्रश्न उसे उद्वेलित करते हैं। वह अनंत के ‘आइडिया’ को समझ पाता है, यह भी कि मानव में भी उसका प्रकाश है। अनंत के उद्देश्य की खोज के दौरान उसकी भेट अपने सौतेले भाई(शेषनाग?) से होती है जो मृत्यु के भय से छुपकर खोह में छिपा है। गरुड, जो अमृत का वाहक होकर भी अमृत का पान नहीं करता, जानता है कि मृत्यु अनंत का द्वार है न कि अमरत्व।
अंतिम अंश में आज के गरुड नाम से परिचित पक्षी (शायद बाज या शंखचील) का उल्लेख है जिसे यह भी नहीं पता कि वह ईश्वर (विष्णु) का वाहन है या उसकी लाश को ढो रहा है।
एक तरह से यह कविता भारतीय चिन्तन और उसके वर्तमान संकट का इतिहास है।
×××
इस कुंजिका का जो पाठ करेगा वह अंबर तरेगा।
अद्भुत ! इसके अतिरिक्त कुछ भी कहना संभव नहीं ।
शशांक अंबर के अभिन्न अंग थे,शायद अब भी हैं । अभिन्न अंग के न रहने की टीस बहुत कुछ बदल देती है। जीवन और मृत्यु दोनों ही तो हमारे लिये अबूझ हैं। एक नश्वर होकर भी प्रिय है और दूसरा शाश्वत होकर भी अप्रिय । सर्प हमारी कामनाओं के ही तो प्रतिरुप हैं जो हमें डस रहे हैं और वासना का विष हमें मृत्यु की तरफ ढकेल रहा है। हमें हमारा ज्ञान रूपी गरूड़ कहां दिखाई देता है,वह तो अहं और अज्ञान के तिमिर में कामनाओं को ग्रहण करने में लगा है।
यूँ तो प्रिय कवि अम्बर सदैव ही अपनी लेखनी से अपने पाठकों को विस्मित और आनन्दित करते रहे हैं।
किन्तु “गरुण” लिखकर तो कवि ने हम सबको स्तब्ध ही कर दिया है।
जनमेजय नाग यज्ञ और अन्य पौराणिक कथाओं के संदर्भों को अपनी दिव्य दृष्टि से परिष्कृत करके लिखा गया “गरुण” जीवन – मृत्यु के अबूझ रहस्य पर लिखी एक उत्कृष्ट रचना है। बहुत बहुत बधाई कवि।
काश! शशांक तुम भी पढ सकते…😢
प्रिय भाई और सखा शशांक की असामयिक मृत्यु के बाद प्रिय कवि अम्बर ने अपने दुख और अश्रुओं को शब्दों में पिरोकर बहुत सारी कविताएँ भी लिखीं जो सदैव ही हम सब संवेदनशील पाठक मित्रों के हृदय में उतरकर हमारी आँखें नम करती रहीं हैं ।
हमारे युग के सर्वश्रेष्ठ युवा कवि अम्बर , अब तुम से अपेक्षाएँ बढती जा रही हैं।
कहा तब आस्तीक ने आ, “सृष्टि नहीं मानव
केंद्रित गढ़ी ब्रह्मा ने कि प्रत्येक जीव केन्द्र है सृष्टि का,
उन्हें मारना यों कैसे शिव हो सकता है.
दसों दिशाओं में जब शोकग्रस्त कर रहे हो क्रंदन
कैसे यजमान कोई सुखी हो सकता?
—
अभी यहीं हूँ। ये पंक्तियां मेरे जीवन के उस पक्ष से मुख़ातिब हैं जो वर्षों से क्रमशः देहात्म को अपने पाश में लेता गया है। इसलिए यहाँ अटक गई हूँ।।
शोक में श्लोक की अंतर्ध्वनि इतनी सघन है कि इसके आस्वादन के लिए सुदीर्घ यात्रा दरकार है।
अम्बर है…और उसकी कविता को समझने जानने वाले सहृदय हिंदी में बैठे हुए हैं यह टिप्पणियों से ही स्पष्ट होता है। मेरे लिए यह बात आश्वस्ति और सुख का स्रोत है, और यह स्रोत बहुत गहरा और स्वाद-सम्पन्न है। जो सहृदय विस्तृत आलोचना का संकल्प लिए बैठे हैं, उनकी प्रतीक्षा रहेगी। उन्हें सुनना एक और यात्रा का शुभारंभ होगा।
शिरीष और संदीप को ख़ास सुनती हूँ मैं। उनके हृदय को थोड़ा बहुत जानने लगी हूँ।
शिल्प की दृष्टि से अम्बर का रचा सुनील ध्वन्यलोक रोम रोम को रोमांचित करता है। एलियट तो कह ही गए हैं, “Poetry can be communicated before it is understood. ”
So the abundance and plenitude of communication has already taken place. Understanding may or may not follow. I can’t make any claims quite yet.
लेकिन उखड़े श्वास के साथ गरुड़ के साथ रहने का संकल्प मैंने ले लिया है। और यह मेरे दीक्षित होने की घड़ी है। इसी अरण्य में कुछ और घटेगा…यह तय है, आहट किस ओर से आएगी, ख़बर नहीं है फ़िलवक्त।