कूप मंडूक अम्बर पाण्डेय |
आह्लाद गणपति तुळपुळे मेरा मित्र था. बीस की वय में ही घनी दाढ़ी और नेत्रों के मध्य मिलती भौंहों के कारण वह किसी विद्वत्, विदग्ध पुरुष जैसा दिखता था. वह अधिक लंबा तो न था पाँच फुट नौ इंच उसकी लंबाई रही होगी किंतु घुटनों को छूती भुजाओं के कारण वह बहुत लंबा दिखता था. दुबला-पतला वह दूर से जब आता दिखाई देता तो ऐसा लगता था जैसे कोई दिगंबर रहनेवाले जैन मुनि अचानक ढीलीढाली चड्डी और बनियान पहनकर आ रहे हैं. अपने प्रशस्त ललाट पर वह सोमवार को भस्म का त्रिपुण्ड्र लगाता था और अन्य दिन केवल भस्म का एक छोटा, गोल तिलक. मुंज वह सदैव धारण करता था और अपने यज्ञोपवीत के शुद्धाशुद्ध का हालाँकि कोई विचार न रखता था. यह भूषा उसकी मात्र सदाशिव पेठ तक होती थी. फ़र्ग्युसन कॉलेज में वह जनेऊ के ऊपर बुशर्ट और पतलून पहनकर आता था. जूते उसके पास नहीं थे, कोल्हापुरी चप्पल पहनता था और वर्षाऋतु में प्लास्टिक के बूट पहन लेता था, नास्तिकों जैसा व्यवहार करने लगता.
वह तीन भाई और एक बहन थे. उसके पिताजी गणपतिभाऊ तुळपुळे शासकीय वाचनालय में लिपिक नियुक्त थे, पगार अत्यन्त अल्प और व्यय महत् थे. आह्लाद से छोटे भाई आमोद ने आगे चंडीगढ़ के पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल रिसर्च एंड एजुकेशन से न्यूरोलॉजी में डीएम किया, उन दिनों उसका दाख़िला पुणे मेडिकल कॉलेज में हुआ ही था. उससे छोटी एक बहन थी जो बीए कर रही थी, उसका नाम विस्मृत हो चुका किंतु इतना स्मरण है कि उसे घर में सब धाकटी धाकटी कहकर बुलाते थे. आगे उसका लग्न चितपावन परिवार के ही इतिहासकार से हुआ, शिकागो में रहती थी.
तीसरा भाई आरोह था उन दिनों बारहवीं में था और आईआईटी से यांत्रिकी करके उसने भी आगे मोटी पगार की नौकरी की. उन दिनों तो इनके गृह पाई पाई हिसाब से खर्ची जाती थी और किसी एक संतान पर राई बराबर अधिक व्यय संभव न था. दुरावस्था ऐसी थी कि घर पर कोई एक बीमार भी पड़ जाता तो फल और औषधि लेने हेतु दोनों गणपतिभाऊ और उनकी पत्नी मुक्तावली को कई कई दिवसों तक पेट काटना पड़ता था. इस बात का अवश्य सन्तोष अनुभव होता है कि तुळपुळे दम्पति ने जो ऐसा तापस काल काटा था उसके फलस्वरूप उनकी सन्ततियों ने बहुत सफलता पायी छोड़ आह्लाद के, जो जर्मन जैसी जटिल भाषा में बीए करके दमकल विभाग में टेलीफोन ऑपरेटर हो गया था. आमोद बॉस्टन, आरोह बैंगलोर और धाकटी शिकागो में रहते थे किन्तु आह्लाद सदाशिव पेठ के उसी जूने वाड़े में अपने आई-बाबा के संग निवास कर रहा था, “अत्यंत क्लेश होता है, अत्यंत क्लेश उसे सदाशिव पेठ के उस जर्जर वाड़े में जीवन गुज़ारते देख” उसके भाई बहन अपने नातेदारों को कहते थे.
आह्लाद को दसवीं कक्षा में रहते हुए ही पुस्तकालय जाने का टेव पड़ चुकी थी. पुणे नगर वाचन मंदिर में वह विद्यालय से आते ही रोटी खाकर चला जाता और पुस्तकालय बंद होने के पीछे घर लौटता था, लौटता तब भी चार पाँच मोटे ग्रन्थ मुँह के आगे उठाये, टकराता गिरता लौटता था. गणपतिभाऊ आह्लाद के ग्रन्थों में ऐसे ध्यान को देख दिवास्वप्न देखते थे कि आगे चलकर आह्लाद निश्चय ही आईएएस अफ़सर या उच्च दर्जे का प्राध्यापक इत्यादि कुछ बनेगा और किताबी कीड़ा होने को बहुत प्रोत्साहन देते. आह्लाद अंग्रेज़ी और मराठी के उपन्यास ज़्यादा पढ़ता था. रात रातभर जागकर उपन्यास पढ़ता रहता. मादाम बावेरी और अन्ना कारेनिना में तो ऐसा मशगूल हो गया था कि उसे भय हुआ कि वह दसवीं बोर्ड परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाएगा किन्तु कस्बा गणपति की कृपा से जो तब तक उसके इष्ट देवता हो गये थे, वह परीक्षा में बहत्तर नंबर लाकर पास हो गया हालाँकि गणित में उसे सौ में से केवल बावन अंक आये थे.
सदाशिव पेठ, हुतात्मा आप्टे मार्ग की पिछली गली में नृसिंह वाड़ा का निर्माण १८७० में हुआ था, तब इन स्थानों के नाम क्या थे यह मुझे नहीं पता किंतु आह्लाद के बाबा गणपतिभाऊ के अनुसार उनके बचपन में नृसिंह वाड़े वाली गली इतनी विस्तृत थी कि दो बैलगाड़ी संग गुज़र सकती थी. उस समय इस गली को पुणेरी जन तुळपुळे पण्डित का रस्ता कहते थे, उनके आजोबा पंडित गणपति नागोजी तुळपुळे शतचण्डी करवाने हेतु समस्त पुणे में विश्रुत थे और अपने अधीन कई पंडित उन्होंने नियुक्त कर रखे थे. गणपतिभाऊ के पिता बालगंगाधर ने पौरोहित्य न करके प्राथमिक शाला में मास्टरी करना स्वीकार किया क्योंकि मास्टरी में शान्ति थी भले कमाई कम क्यों न हो. गणपतिभाऊ संस्कृत गणपति अथर्वशीर्ष से अधिक न जानते थे और केंद्रीय वाचनालय में क्लर्क हो गये थे.
नृसिंह वाड़ा बृहद और दृढ़ाकार था, चूँकि गणपतिभाऊ के आजोबा के कुल सात पुत्र हुए जिसमें से (गणपतिभाऊ के पिता) बालगंगाधर एक थे और बालगंगाधर के भी चार पुत्र और चार बेटियाँ हुई. आह्लाद के तीन चाचा और चार बुआएँ थी, वाड़े में कई बार बँटवारा होते होते गणपतिभाऊ के भाग में मात्र तीन कमरे, आँगन का कुछ भाग जहाँ टीन डालकर कमरा सा बना लिया गया था जहाँ बच्चे पढ़ते थे, आएँ. मीठे पानी का कुआँ भी उनके भाग में पड़ा जिसकी अब उतनी आवश्यकता न थी क्योंकि नगरपालिका का नल आता था. एक कमरे में बैठक थी, दूसरे में तुळपुळे दंपति और धाकटी सोते थे, तीसरे में चौका और भण्डार था. टपरी में लड़कों के सोने की व्यवस्था थी.
रस्ते तरफ़ खुलनेवाला द्वार लकड़ी का था जिसमें लोहे की मोटी मोटी साँकलें लगी थी, उसके क़ब्ज़े जाम हो चुके थे और तब वह न खुलता था. बहुत वर्षों पश्चात् जब आरोह और आमोद बाहर देश से रुपया कमाकर लौटे और उन्होंने गणपतिभाऊ हेतु होंडा कंपनी की मोटरकार ख़रीदी और रस्ते पर गाड़ी पार्क करना संभव न हुआ. दोनों भाइयों ने मिलकर बड़ा दरवाज़ा खुलवाया, उसके नीचे पहिये कसवाए, खोलने बंद करने हेतु आयातित हाइड्रोलिक कल फाटक में फिट करवाई और इस तरह वह दरवाज़ा पुनः खुलने लगा. इस घटना का समाचार पुणे के कई अख़बारों में प्रकाशित हुआ था, ‘डेढ़ सौ वर्ष पश्चात् खुला नृसिंह वाडा का जंगी दरवाज़ा’. दरवाज़े के पीछे बरोठा था जिसके दोनों तरफ़ बैठने को स्थान था, गणपतिभाऊ के अनुसार यहाँ पर बाजेवाले बैठकर शहनाई और ढोल बजाते थे, “सॉर्ट ऑफ़ नौबतख़ाना” डॉक्टर आमोद ने टिप्पणी की थी, “आड़े दिनों में चौकीदार, पानी भरने और पालकी ढोनेवाले कहार बैठा करते थे” गणपतिभाऊ ने अपना वाक्य पूरा किया और आमोद ऐसे सुनता रहा जैसे कोई पर्यटक हो, जैसे वह इतने दिनों तक इसी घर में न रहा हो.
आह्लाद का घर बाड़े के दायीं तरफ़ था और इसलिए आदमियों को वह सरलता से मिल जाता था औरतें जो बायीं तरफ़ मुड़ना पसंद करती है वह घूमकर घर तक पहुँचती थी. बैठक के बायें तरफ़ लड़कों के पढ़ने-सोने के लिए टपरे जैसा कक्ष था और सम्मुख बैठक. टपरे का वह भाग जो आकाश की ओर था उस पर पुते फ़िरोज़ी रंग पर धूप के कारण हरे रंग के चकत्ते उभर आये थे. उसका निचला भाग कत्थई रंग का था और बहुत नीचा था. कमरे में तीन ओर खिड़कियाँ थी. एक बाहर रस्ते की तरफ़ खुलती थी, जिसके नीचे गमले रखे थे और राखी के फूलों की बेल खिड़की पर चढ़ आई थी. दूसरी खिड़की सामने वृंदावन में खुलती थी, जिसके मध्य तुलसी के अनेक बिरवे कच्ची भूमि में लगे थे, निकट गूलर का एक बहुत बड़ा वृक्ष था, जो वटवृक्ष के ऊपर पहले उगा और फिर वट का मात्र निचला तना शेष रहा, गूलर का वृक्ष ही बढ़ता गया और पूरे वृंदावन पर फैल गया. केले के दो झाड़ भी वहाँ लगे थे.
इतने वृक्षों के कारण वृंदावन में अंधेरा छाया रहता था और रात को जब आह्लाद के ताऊ “गणपत्या, बिजली जला दे” तब अवश्य वृंदावन में थोड़ा उजेला हो जाता था. तीसरी खिड़की कुएँ की तरफ़ खुलती थी, जिसके किनारे तुलसी की ही तरह प्रतिदिन सांध्यकाल दीपक जलता था. कुएँ की जगत काले पत्थर की थी और उसपर अष्टदल कमलाकृतियाँ बनी हुई थी, उसके आगे एक छोटा सा शिव मंदिर भी था जिसका जलनिकासी वाला मुख मकराकृत था और बूँद बूँद जल मगर के मुख से दिन भर टपकता रहता था क्योंकि जो भी मनुष्य बाड़े में आता था वह एक घड़ा जल कुएँ से खींचकर शिवलिंग के ऊपर लटका जाता था जिसके लघु छिद्र से बूँद बूँद जल देर तक टपककर शिवलिंग को शीतल करता रहता था. कभी कभी कुएँ से जल बहने का स्वर आता था जैसे वह नागर कुआँ न होकर वन्य नदी हो.
आह्लाद प्रतियोगी परीक्षाओं में इसी कुएँ के कारण अनुत्तीर्ण होता गया क्योंकि वह इसी तीसरी खिड़की के किनारे पड़े लोहे के पलंग पर बैठा कुएँ में जल का स्वर और शिवलिंग पर बिंदु बिंदु जल टपकने की ध्वनि सुना करता था. वह आँखें बंद कर लेता और इस कुएँ में रहनेवाले मेंढक (मराठी में बेडूक) के विषय में विचार करता रहता जिसके लिये कुआँ ही निखिल सृष्टि था. कुआँ नृसिंह वाड़े में है, जो हुतात्मा आप्टे मार्ग उर्फ़ तुळपुळे पण्डित के रस्ते पर है जो सदाशिव पेठ में है आगे पुणे महाराष्ट्र में है जो भारतवर्ष में है. भारतवर्ष पृथ्वी पर और पृथ्वी आकाशगंगा में है आकाशगंगा अनन्त पर टिकी है. ऊपर से झाँकने पर जल में मात्र किसी के उछलने की ध्वनि आती- छप छप छपाक. क्या हम भी ऐसा ही जीवन नहीं जीते, सृष्टि सम्बन्धी अपने समग्र ज्ञान को सृष्टि का समग्र ज्ञान मानते हुए एक कूप मंडूक का जीवन.
विज्ञान पढ़ने का जो सबसे बड़ा दोष आह्लाद को लगता था वह यही था- रहस्य का लोप. आकाश को वह यों देखना चाहता था जैसे सबसे पहले मस्तक उठाकर आकाश निहारनेवाले मनुष्य ने देखा होगा. वह नहीं जानता होगा कि आकाश क्या है किंतु तब भी वह आकाश से भयभीत तो न हुआ होगा, शिशु आकाश को बिन भय से देखता है, पशु देखते है पक्षी के बच्चे भी निर्भय होकर एक दिन आकाश में उड़ जाते है. कूप मंडूक को आकाश छोटा सा, प्रकाश के एक गोल घेरे सा दिखता होगा और वह उसे समझने की भावना से न देखता होगा. आह्लाद आकाश को उसी कूप मंडूक की भाँति देखना चाहता था, ऐसे वह विज्ञान से दूर होता गया.
दमकल महकमे में टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी पक्की होने के पश्चात् कई वर्ष तक आह्लाद का लग्न गणपतिभाऊ ने नहीं ठहराया, वजह यह बताते रहे कि किसी प्रतियोगी परीक्षा में यदि आह्लाद पास हो गया तो कन्या अच्छी मिलेगी. तैंतीस का जब आह्लाद हुआ और आमोद हेतु कई डॉक्टर कन्याओं के प्रस्ताव आने लगे तब आह्लाद का लग्न गणपतिभाऊ को निश्चित करना ही पड़ा. चिखलगाँव में सब-पोस्ट मास्टर बालगणेश टिळक की भगिनी शुभेच्छा से लग्न दुरुस्त किया. शुभेच्छा के पिता अल्पवय में ही स्वर्गवासी हो गये थे, माँ ने ही दोनों बच्चों को बालवाड़ी में काम करके बड़ा किया था.
शुभेच्छा कोकणी भाषा में एमए करना चाहती थी किंतु गोवा के किसी ज़िले या मंगलौर में ही यह संभव था और किसी ने उसे कोकणी जैसे विषय में एमए करने बाहर गाँव न जाने दिया, उसने भी आगे की पढ़ाई छोड़ दी. तब से घर पर ही रहती थी. आह्लाद से लग्न करने का कारण बालगणेश टिळक के लिए आह्लाद न होकर उसका एक डॉक्टर और दूसरा आईआईटी पास भाई और अमरीका निवासी बहन धाकटी थी. “भाई बहन कैसे सफल है, trickle down effect तो होगा ही, शुभा” उसने पतोळे खाते हुए भर भादों की बरसती संध्या को कहा था, फिर अपनी माँ को समझाते हुए कहा था, “वह भले क्लर्क हो, उसका भाई न्यूरोलॉजिस्ट, दूसरा आईआईटी का इंजीनियर है भगिनी विदेश में ब्याही है”. गणेशोत्सव के दिन थे वे. उन दिनों शुभेच्छा सचमुच हल्दी के पत्तों की भाँति कोमल और पवित्र थी, संसार उसे छूने तब तक रत्नागिरी ज़िले के ग्राम चिखल नहीं आया था. निमंत्रण पत्र पर दोनों शुभनाम कितनी शोभा पाते थे- शुभेच्छा और आह्लाद.
दो या तीन बार आह्लाद से बात हुई, पहला फ़ोन आह्लाद का आया था, बालगणेश के डाकघर में फ़ोन पर तब शुभेच्छा की आह्लाद से बात न हो सकी थी वह घर पर थी, दूसरी और तीसरी बार शुभेच्छा ने ही डाकघर आकर आह्लाद को फ़ोन किया था. दिवाली के आसपास के दिनों की वह संध्या थी, डाकघर बंद हो चुका था और बालाभाऊ के दफ़्तर की खिड़की से वृक्षों की एक पंक्ति दिखाई देती थी, एक पीला बल्ब रस्ते के किनारे जगमगा रहा था.
१४० इंच वर्षा उस वर्ष हुई थी, धूल इतनी धुल गई थी कि शरद पूर्णिमा के एक या दो दिवस पूर्व रात को उड़ते हुए सुनहरी दिख रही थी. बहुत देर तक बात नहीं हुई. “कैसी हो तुम?”, “तुम कैसे हो?” इत्यादि. इतनी ही बातचीत में शुभेच्छा जान गई थी कि भले आह्लाद दमकल विभाग में फ़ोन ऑपरेटर हो, जैसे वह ठहर ठहरकर अपनी बात बहुत धीमे स्वर में कहता था लगता था कोई कवि बहुत दूर से बोल रहा है, इतनी दूर से कि हमें ख़ुद अनुभव होने लगे कि हम कविता से कितनी दूर निकल आये है. शुभेच्छा को माँ ने कहा रोज़ बात करने की आदत अच्छी नहीं है क्योंकि इससे जल्दी ही एक दूसरे के अवगुण दिखने लगते हैं. शुभेच्छा हालाँकि आह्लाद का अवगुण जान गई थी वह कविता था. आह्लाद कविता नहीं लिखता था, वह तो कोकणी भाषा में सबसे लम्बे और विस्तृत जर्नल्स लिखने के कारण आगे जाना गया.
सन् २००२, देवोत्थापिनी एकादशी के पश्चात् नवंबर महीने में आह्लाद का लग्न शुभेच्छा के संग हो गया. उस समय के उसके रोज़नामचे में लग्न या शुभेच्छा सम्बन्धी कोई एंट्री हमें नहीं मिलती. इंचगिरी सम्प्रदाय के दार्शनिक सन्त सिद्ध रामेश्वर के चित्रों पर एक निबन्धाकार एंट्री आह्लाद जिस दिन सुबह सुबह करता है, उसकी दोपहर उसका लग्न होना है. सिद्ध रामेश्वर चित्र में सिगरेट पकड़े है, वे शायद सिगरेट पी रहे है किन्तु उसका धुआँ सिगरेट में दिखाई नहीं दे रहा, आह्लाद में शब्दों में,
‘यह धूम्र उसी स्वयं की तरह है जिसे ढूँढने के लिए सिद्ध रामेश्वर बेचैन है. वह है, निश्चय ही है, यह रामेश्वर जानते है मगर यह उनकी पकड़ में नहीं आता’. वे आगे और भी लिखते है, ‘पिपीलिका और विहंगम मार्ग- शैव अद्वैत धारा के इंचगिरी सम्प्रदाय का प्रवर्तन श्री भाऊसाहेब महाराज ने किया. उनका मार्ग पिपीलिका पथ माना गया है जैसे किसी भूभाग के ज्ञान के लिए पिपीलिका अर्थात् चींटी को समस्त भूभाग का भ्रमण करना पड़ता है उसी प्रकार तत्त्वज्ञान के लिए हमें भी सतत ध्यान लगाकर अद्वैतप्राप्ति होती है.
१९०६ में श्री भाऊसाहेब महाराज ने अट्ठारह वर्षीय सिद्धरामेश्वर को दीक्षा प्रदान की. सिद्धरामेश्वर १९२० तक धारणा और ध्यान सिद्ध करते रहे. इस बीच १९१४ में भाऊसाहेब महाराज ने समाधि भी ले ली थी.
१९२० में सिद्धरामेश्वर पुरातन तोप के मुख पर बैठकर जब ध्यान कर रहे थे तब उन्हें विहंगम मार्ग का ज्ञान हुआ. चींटी की भाँति निखिल भूभाग का भ्रमण न करके यदि जीव विहंग अर्थात् पक्षी की भाँति उड़ जाए तब क्षणांश में वह ज्ञान को प्राप्त होता है.
इस ज्ञान में दग्ध प्राणबीज पुनः फलीभूत नहीं होता और मुक्ति होती है.
श्री सिद्धरामेश्वर के गुरुभाइयों ने विहंगम मार्ग को गुरु के बताए पिपीलिका पथ से भिन्न जानकर आरम्भ में इसका विरोध किया किंतु अनेक साधकों को तत्त्वप्राप्ति करता देख पश्चात इसे स्वीकार किया.
विहंगम मार्ग अक्रम ज्ञानप्राप्ति है, इसमें अद्वैत दर्शन को जानकर मनोस्पंद अवरुद्ध कर देते है. ध्यान धारणा आदि का लम्बा पथ पार नहीं करना पड़ता. अद्वैतदर्शन का अध्ययन करने से पूर्व मंत्र द्वारा मन को ग्रहणशील बनाया जाता है जैसे हल्दी की माला बनाने से पूर्व हल्दी को दूध में गला दिया जाता है.
यह गणित के किसी प्रमेय की भाँति ज्ञान को जानते है और जैसे बालक आरंभ में जोड़-घटाव-गुणा-भाग में निर्बल होता है किंतु अभ्यास से इसमें प्रवीण हो जाता है और फिर उसके मन में स्वभावगत रूप से जोड़-घटाव-गुणा-भाग होता रहता है उसी प्रकार अद्वैत दर्शन को सैद्धांतिक रूप से पहले समझा जाता है फिर उसका निश्चित समय बैठकर चिन्तन किया जाता है जैसे बालक गणित का अभ्यास करता है उसके थोड़े समय पश्चात् उसका सतत चिंतन किया जाता जैसे वही बालक व्यापारी बनने पर गणित का नित्य ही मन में प्रयोग करता रहता है. इसे ही अध्ययन, मनन और निध्यासन से ज्ञान तक पहुँचना कहा जाता है. यह ज्ञान तक विचार से पहुँचने का मार्ग है.’
फिर वह लिखता है,
“आज ज़रूरी काम से मुझे जाना है. तीन दिन से छुट्टी पर हूँ और आगे एक सप्ताह की छुट्टी और है. उसके बाद दूसरे शनिवार और रविवार को जोड़ लूँ तो छुट्टियाँ पूरे पंद्रह दिनों की होंगी. मैं विकलता अनुभव कर रहा हूँ, यह विकलता मुझे ऐसे स्पर्श करती है जैसे तितली पकड़ लेने पर उसके पंखों का रंग हमारी उँगलियों पर लग जाता है. आज स्वप्नदोष के कारण मेरी नींद ब्रह्ममुहूर्त में खुल गई.”
वे विवाह के बाद महाबलेश्वर गये थे उसके विषय में भी आह्लाद के जर्नल्स मौन है जो उसने इस दौरान लिखा है वह है महाबलेश्वर मंदिर के बछड़े के आकार के गोमुख के विषय में एक लंबी एंट्री. हनीमून की किसी रात्रि ही आह्लाद ने वह स्वप्न देखा होगा जिसमें महाबलेश्वर मंदिर में पाषाण का बना यह नंदी जिसके मुख से निरन्तर जल गिरता रहा है वह जीवित होकर पुणे नगर में विचरण करने लगता है. महाबलेश्वर की नैसर्गिक सुन्दरता से आह्लाद बहुत प्रभावित नहीं लगता. वह महाबलेश्वर मंदिर के कुण्ड के बारे में अपने आधे पृष्ठ में लिखता है,
“कुण्ड फ़ोटोग्राफ़ में ज़्यादा सुंदर लगता है. कुण्ड में कीचड़ थी और जो थोड़ा सा जल तले पर शेष था वह इतना हरा था कि जल कम और वनस्पति अधिक दिख रहा था. पत्थर के एक उदास दिखनेवाला बछड़े के मुख से जल की धार गिर रही थी, न जाने कितनी शताब्दियों से अविच्छिन्न रूप से यह धारा बह रही होगी और तब भी इस स्थान पर किसी भी प्रकार की दिव्यता उत्पन्न न हुई थी. क्या आवश्यक है कि अखण्ड प्रवाह चाहे वह प्रकाश का हो या जल का दिव्यता उत्पन्न करे ही! इस पृथ्वी पर सूर्य का प्रकाश अविच्छिन्न रूप से युगों से आ रहा है तब भी यहाँ पर कुछ भी दिव्य है? कहते है जल अक्षय है वह केवल रूप बदलता है किंतु नष्ट नहीं होता और पण्डित उसे करतल में लेकर संकल्प लेते है, हम उससे अपनी प्यास बुझाते है, उससे नहाते है, अपने कपड़े धोते है किंतु क्या कभी धोखे से भी उसकी दिव्यता का स्पर्श हमें प्राप्त होता है! अद्वैत माननेवाले काल को अविच्छिन्न मानते है और बौद्ध कहते है एक क्षण के क्षय होने पर दूसरे क्षण का उदय होता है काल अविच्छिन्न नहीं है. मुझे भी लगता है यहाँ कुछ भी अखंड नहीं है सब अनेक है और इसलिए खण्डित है ठीक हमारी तरह. समय और सूर्य निरीह है उतने ही डरे हुए और निर्बल जैसे कि हम. तब क्यों पिताजी को मैंने बचपन से सूर्य को जल चढ़ाते देखा है. क्या ऐसा हो सकता है कि वे सूर्य की पूजा करने के बजाय सूर्य को समझ सकते. सुन्दरता अविचारित प्राप्त नहीं हो सकती. मुझे यहाँ सुन्दरता इसलिए नहीं दिख रही क्योंकि मैंने यहाँ आने से पहले इस स्थान की सुन्दरता के विषय में विचार नहीं किया. उसका आवाहन नहीं किया. यहाँ मुझे कीचड़, मच्छर और गोबर इसलिए देख रहा है क्योंकि मैंने उसे नहीं पुकारा जिसे मैं अब खोज रहा हूँ. देवता की भाँति सुन्दरता को भी मंत्र से जगाना पड़ता है- to invoke beauty, मैंने उसे इन्वॉक नहीं किया”.
शुभेच्छा के बारे में पहली प्रविष्टि लग्न से तीन महीन बाद मिलती है,
“आज वसन्त पंचमी है. उसने केशों में पीले फूलों की वेणी बाँधी है और भगवा साड़ी में वह यदि गर्भवती न होती तो किसी बौद्ध भिक्षुणी सी दिखती. आज ही मुझे समाचार मिला कि वह गर्भवती है. वह कितनी दुबली है जब मैंने माँ से कहा कि वह तो गर्भवती दिखती ही नहीं तब माँ हँसने लगी, उसने कहा, अभी तो वह गर्भवती हुई है, पेट छह महीने में दिखेगा.”
दोनों भाइयों के विदेश चले जाने और गणपतिभाऊ के रिटायर हो जाने पर कई स्थानों पर आह्लाद आर्थिक कठिनाइयों के लंबे वर्णन अपनी डायरी में करता है.
“२७/७/२००५, अमोघ के मलेरिया में आधी तनख़्वाह ख़त्म हो गई. लग्न में मुझे जो दो शर्ट और पतलूनें मिली थी और जो मैंने एक जोड़ी ख़रीदी दी वह भी धो धोकर तबाह होने के कगार पर है. आमोद अपने पुराने जूते यहाँ भूल गया था उसी से अभी तक काम चल रहा मगर बरसात आने में हवाई चप्पलें पहन रहा था जो एक दिन पानी में बह गई. एक चप्पल हाथ में रह गयी दूसरी न जाने कहाँ गई. कुछ सोचकर हाथ की चप्पल बहा नहीं सका. जब उसे लिये लौटा तो देर तक शुभेच्छा हँसती रही कि इसे क्यों घर लौटा लाये. मुझे क्रोध हुआ और मैंने उत्तर दिया, “अगर पैर कट गया तो यह अकेली चप्पल काम आएगी”, कहकर मैंने एक पाँव में चप्पल पहनी और साइकिल से पुस्तकालय आ गया. उल्टे पाँव में चप्पल पहनी क्योंकि सीधा हमेशा पेडल पर रहता है साइकल रोकने के काम हमेशा उल्टा पाँव आता है.
मुझे लगता है पिताजी की तरह शुभेच्छा भी मुझे निकम्मा समझती है. वह मेरी निर्धनता का मज़ाक़ बनाती है. पिछले दिनों जब दामोदर मावज़ो पर अपना आलोचनात्मक लेख पढ़ने मैं कोल्हापुर गया तो लौटते ही शुभेच्छा ने मुझसे पूछा था कि तुम्हें कितने रुपये मिले है? मैंने उसे जब बताया कि बारह सौ रुपये और कोल्हापुरी चप्पलें मिली है तो वह देर तक हँसती रही. तब जाकर मुझे भी ध्यान आया कि सम्मेलन वालों को शॉल के बजाय चप्पलें न देना थी. पैरों को हमारे यहाँ कम महत्त्व के अंग समझा जाता है और उनसे जुड़ी प्रत्येक वस्तु को अपमानजनक समझा जाता है. हालाँकि शॉल से अधिक यह कोल्हापुरी चप्पलें मेरे काम की है किंतु शुभेच्छा इसे कभी नहीं समझेगी. बारह सौ रुपये शुभेच्छा को मैंने सलवार कुर्ता बनवाने के लिए दिये. उसने छह सौ रुपये से कपड़े ख़रीदे और छह आड़े बखत के लिए बचा लिये, उसे नहीं पता कि हमारा आड़ा बखत ही चल रहा है.”
धनाभाव और साहित्य का सम्बन्ध विशेष रूप से बार बार आह्लाद चिह्नित करता है जैसे २१/१२/२००५ को वह एक लंबी एंट्री करता है जब शुभेच्छा उसे निकम्मा कहती है,
“पिताजी क्रोध में मुझे कई बार निकम्मी औलाद कहते है. सेवा निवृत्ति के पश्चात् जब से उन्होंने ज़िल्हा कॉलेज में नौकरी की और वहाँ पर पढ़ाने वाली असिस्टेंट प्रोफेसर शालिनी कवठेकर के संग उनका उठना बैठना माँ को खटका, पिताजी को मुझसे घृणा हो गई. अकस्मात् ही वे शुभेच्छा के प्रति बड़े कोमल पड़ गये क्योंकि उन्हें लगता है मैं शालिनी कवठेकर और उनके विरुद्ध तथा माँ के संग हूँ किंतु मेरा माँ के पक्ष में होना क्या स्वाभाविक नहीं था? शुभेच्छा को मैं कुछ नहीं दे सका और यह बात शुभेच्छा बहुत अच्छे से जानती है, वह यह भी जानती है कि मैं भी इस बात को जानता हूँ और इसके कारण कितना शर्मिंदा रहता हूँ किन्तु उसे इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. वह कहती ज़रूर है कि मेरी आत्मस्वीकृति से उसे शान्ति मिलती है मगर यह शान्ति क्षणिक होती है.
यदि मुझे बचपन में किताबों की कुटेव न लगती तो शायद मैं सुखी होता. साहित्य ने मुझे नष्ट कर दिया. मैं कहीं भी रहूँ, कुछ भी करता रहूँ मेरी बही मुझे खींचती रहती है. मुझे हर जगह से आने की जल्दी रहती है क्योंकि मैं अपनी बही भरना चाहता हूँ. सरस्वती ही मुझ पर शासन कर सकती है और यह सरस्वती मुझसे अनन्य समर्पण चाहती है. यह मुझे उतना ही देती है जितने में मैं जीवित रहूँ और लिखूँ. जिस दिन मैंने लिखना बंद कर दिया मेरा शरीर भी नष्ट हो जाएगा.”
इस तरह की पैसों की तंगी सम्बन्धित प्रविष्टियाँ जून २००६ तक मिलती है, पंद्रह जून २००६ के बाद आह्लाद के जर्नल्स का सबसे सुन्दर भाग प्रारंभ होता है, जो २०११ तक चलता है. यह भाग कोकणी के बजाय आह्लाद ने मराठी भाषा में लिखा है. जिसे कई प्रकाशक अलग से पुस्तकाकार भारी वर्षा की संभावना (मराठी में जोरदार पावसाची शक्यता’) नाम से छापते है. आह्लाद के कई स्कॉलरों ने इसे उनके दमा और उसके इलाज के लिए ली गई दवाओं का प्रभाव माना, वर्षा के सूक्ष्म ब्यौरे, मशरुमों की प्रजातियों और बाँध खुलने के लंबे लंबे वर्णन इसमें है.
ईस्वी सन् २००८ की अगस्त में छाते पर अनेक कविताएँ प्राप्त होती हैं-
छाता दरवाज़े के बायीं ओर
छाता दरवाज़े के बायीं ओर
रखकर आए हो या दायीं ओर
बैठने को था मैं, सुनकर प्रश्न
गया लौटकर देखने को
छाता दरवाज़े के बायीं ओर रखा है
या दायीं ओर
काले कपड़े से बना हुआ छाता
उज्ज्वल ताड़ियों वाला, चूता हुआ जल से
सोरबोर, गुड़मुड़ी पड़ा हुआ था
दरवाज़े के बायीं ओर जैसे भीगी बिल्ली हो
भीतर लौटने में मुझे अभी देर है
हत्थे तक भीगे छाते के निकट ही
बैठ रहा मैं.
यह झेन बौद्धों में प्रचलित कथा पर आधारित कविता है. इस कथा में भिक्षुक अपने चेले से पूछता है कि उसने भिक्षुक की कुटी में प्रवेश करने से पूर्व छाता दरवाज़े से बायीं ओर रखा या दायीं तरफ़? चेले को याद नहीं आता. भिक्षुक उसे देखने बाहर भेजता है. चेले को तब तक भीतर आने की आज्ञा नहीं मिलती तब तक वह इतना सावधानचेता न हो कि अपनी प्रत्येक गतिविधि का उसे ध्यान हो. इसके बाद काले छातों के विषय में आह्लाद बहुत दिनों तक लिखता रहता है.
एक रात जब वह छाता लगाये और हाथ में हजिमे नाकामुरा का ग्रंथ Ways of Thinking of Eastern Peoples India -China -Tibet -Japan लिए आ रहा होता है, अपने पिता से उसकी झड़प का एक विषण्ण विवरण हमें मिलता है.
“पिता टपरे के कोने में साइकिल लगाते हुए मुझे देख रहे थे. वे होहोहो करके मुझ पर हँसे. मैंने अपनी बुशर्ट और पतलून बराबर की, मुँह पर हाथ फेरा कि संभवतः उन्हें मुझमें कुछ विचित्र दृष्टिगोचर हुआ हो. वे तब भी खोखोखो-खीखी करते रहे. मैंने पतलून जो घुटनों तक चढ़ाई थी उसे नीचा किया और कीचड़ सना दायाँ तलवा कीचड़ सने बाएँ पाँव पर रगड़ने लगा. तब माँ भी अट्टहास सुनकर वहाँ तुरंत हाज़िर हुई, “ऐसे खीखी-खूखू करने की क्या वजह हुई?” माँ ने साड़ी की किनोर से हथेली पोंछते पूछा. पिता किंचित् शान्त पड़े, “इसका इडियटपना देखकर हँसी छूट गई” वे मुझे देखते हुए वापस खटिया के बीच झूल पड़ी निवार में धँसकर अख़बार पढ़ने लगे. what’s making me an idiot? मैंने एक बार फिर अपनी बुशर्ट से पानी झटकारा और तनी मुद्रा में किसी सिपाही सा खड़ा हो गया. माँ मुझसे अधिक मेरे विषय में आश्वस्त थी, “कुछ भी बोलते हो. अच्छा भला मानुष सामने खड़ा है”. पिताजी ने अख़बार के कोने से आँख निकालकर सेनेटरी इंस्पेक्टर की भाँति पुनः मेरा निरीक्षण किया और कहा, “छाता होते पूरा का पूरा भीगा हुआ है, साइकिल के हैंडल को बचाता यहाँ आया इससे कहा यह स्टुपिड है स्टुपिड, पूर्णरूपेण इडियट.” मैंने आगे वाले कैरीअर से किताब उठाकर उनके आगे की, इतना दुर्लभ ग्रंथ है इसे बचा रहा था”. माँ चौके में लौट गई. “प्रत्येक पुस्तक दुर्लभ है तुम्हारे पास तो, इस अत्यन्त दुष्प्राप्य शास्त्र को अंतिम बार किसने इश्यू करवाया था?” मैंने किताब पर चिपकी पुस्तकालय की रसीद देखी, १९६० में प्रकाशित इस ग्रंथ को मैंने ही सर्वप्रथम इश्यू करवाया है. जवाब नहीं दिया. पिताजी ने आगे कहा, “जानते हो सबसे अधिक क्या दुर्लभ है- गाँठ में बँधी रक़म. काम धाम का कुछ करो. कुछ रुपया बनाओ, तरक़्क़ी करो. मैं कब तक तुम्हारी गृहस्थी को टेका देता रहूँगा”. मुझे सुनकर भीषण कोप हुआ, वैसा क्यों हुआ नहीं जानता. पिताजी गृहस्थी को टेका तो दे ही रहे थे. “तो किसने कहा है टेका देने को. न दीजिए”. पिताजी मुझे देखते हुए हँसते रहे. जिस किताब पर मैंने इतनी वर्षा में भी एक बूँद पानी न गिरने दिया था, उस रात्रि पुणे में बारह घंटे में चार इंच पानी गिरा था, वह मेरे हाथ से फ़र्श पर गिर गई जहाँ मेरे कपड़ों और जूतों से गिरा हुआ पानी जमा था और मैंने उसे उठाया नहीं और वह ऐसे ही सुबह तक पड़ी रही.”
पंजी में यह वर्षा के विषय में अंतिम दर्ज है. इसके बाद वर्षा और nature writing, जिसके लिये आह्लाद गणपति तुळपुळे की तुलना एमर्सन, थोरो, मुईर और मराठी भाषा की अतुलनीय लेखक दुर्गा भागवत से होती, के उदाहरण हमें प्राप्त नहीं होते. फुफ्फुस और श्वास के रोग और पुणे के जूने, भग्न भाग के वर्णन हमें मिलते है. अस्पताल, डॉक्टरों का व्यवहार, उपचार तथा औषधियों के विषय में आह्लाद विस्तार से लिखता है. जिसे उसके लेखन का चणचण काल कहा जाता है.
“चणचण अर्थात् तंगी, मूलतः ऑक्सीजन की तंगी से मेरी बही जामुनी पड़ चुकी है”.
पैसों की अड़चन ऐसा लगता है आह्लाद को अनुभव होने नहीं दी जाती थी, शायद भाई विदेश से पैसा भेजते थे और इसके साथ ही शुभेच्छा तब तक कोंकणी में एमए करके कहीं मास्टरनी हो चुकी थी. गणपतिभाऊ भी अपने रुग्ण पुत्र के प्रति आह्लाद की डायरियों में बहुत चिंतित लगते है. १२ जून २०१४ को रात्रि चार बजे आह्लाद की मृत्यु होती है और उसके पीछे दो वर्ष के उसके जरनल्स में इन्दराजें बहुत राजनीतिक भी है. उसके हृदय में सावरकर और अन्य दक्षिणपंथी विचारों के प्रति उल्लास हम देखते है. चणचण काल की डायरियों में आह्लाद ने कांग्रेसी सरकार की लंबी आलोचनाएँ लिखी. वे वामपंथी मित्रों के विषय में कई व्यंग्यात्मक रेखाचित्र लिखते है.
“०२/१०/२०१२, मितव्ययता से बढ़कर मेरे निकट कोई मूल्य नहीं है. गांधी अपनी मियव्ययता में कितने सुन्दर है. यदि वे स्वतंत्रता संग्राम के नेता न भी बनते और केवल वही मितव्ययी जीवन जीते जो उन्होंने जिया तब भी वे अपने दर्शन और चर्या के कारण महात्मा ही सिद्ध होते. वे यदि मात्र लेखक होते तो तब भी वे महात्मा होते. जितना उन्होंने लिखा है और जितना अच्छा उन्होंने लिखा है वे साहित्य के लिये नोबेल के अधिकारी थे. सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा में गांधी का युग ही नहीं बोलता बल्कि उनका अपना दर्शन भी प्रकट होता है और अर्थ में ही प्रकट नहीं होता उनकी भाषा, वाक्यों की बनावट और आख्यान गढ़ने की शैली में वही दर्शन उजागर होता है. दरिद्रता को ढाँकने की जो इज़्ज़तदार जुगत उन्होंने निकाली थी उसके लिए मैं हमेशा गांधी का ऋणी रहूँगा. शरम के बजाय अपने फटे जूतों पर ग़रूर करने का तिलिस्म मैंने गांधी से सीखा, एक तस्मा जिससे मैं अपने टूटे बिखरे अस्तित्व को काग़ज़ों के बंडल की तरह बाँध सकता हूँ- ख़ुद को एक किताब में बदल सकता हूँ. एक पूर्ण, सार्थवाही ग्रंथ.”
अपनी अनेक सांसारिक असफलताओं और निर्धनता में एक अर्थ और दर्शन का एकात्म ढूँढने के प्रयत्न चणचण काल के जर्नल्स में हमें जगह जगह पर मिलते है.
“३/१०, सन्ध्या ५ बजे, पढ़ना और उससे भी अधिक लिखना ख़ुद को निष्फलताओं के लिए तैयार करना है और इसमें सबसे दुखद विस्मय की बात यह है कि हम इन निष्फलताओं के लिए अंत तक तैयार नहीं हो पाते, यह हमें हमेशा अचक्के दबोचती है मृत्यु की तरह. फ़र्क़ बस इतना है कि एक बार मरने के बाद आप फिर नहीं मर सकते मगर असफल आप मरने तक हज़ारों बार हो सकते है. निष्फल रह जाना अंततः है क्या? इस पर मैं बिलकुल मेटाफिजिकल तरीक़े से सोचना चाहता हूँ. पैसा न होना असफलता है? वर्चस्व न होना या प्रशंसा का न मिलना? अपना काम न कर पाना मेरे निकट असफलता है. मैं लिख न पाने के कारण असफल हूँ. मैं जो होने के लिए हुआ वह नहीं हो सका यही मेरी असफलता है.”
आह्लाद बिस्तर पकड़ने से पहले दो बार रत्नागिरी जाता है जिसमें पहली बार जाने का विवरण डायरी के भाग ‘जोरदार पावसाची शक्यता’ में हमें मिलता है. रत्नागिरी की दोनों यात्राओं में शुभेच्छा संग होती है. पहली यात्रा का कारण शुभ प्रसंग है- भाऊ बालगणेश टिळक का लग्न. बालाभाऊ का लग्न देर से होता है, इकतालीस वर्ष की उमर में.
“पहले शुभेच्छा के लग्न की चिंता, फिर घर ठीकठाक करने की चिंता में बालाभाऊ ने अपनी जवानी एकाकी गँवाई, क्या ऐसा कहना समुचित होगा? कई महान लेखकों ने चालीस की वय बाद विवाह किया. पहले रोज़गार जमाना फिर पक्के ठिकाने का इंतज़ाम और घर के ज़िम्मों से फ़ारिग होकर बालाभाऊ का लग्न करने का निश्चय करना मुझे उचित लगता है.
स्त्री लाकर घर में बैठाने का क्या मतलब यदि उसके संग रहकर इच्छा की शुद्धि न हो अन्यथा लग्न अभाव का दो से गुना करना है, जहाँ दो रुपये कम थे अब वहाँ चार रुपये कम है. रोग और रोग से ज़्यादा उसके उपचार में होनेवाले व्यय ने मुझे तोड़ दिया है किंतु शुभेच्छा को भाई के लग्न में जाने से रोकूँ, इतना निर्दय मैं नहीं हो सकता. शुभेच्छा ने हमेशा मुझसे वह माँगा जो मैं उसे दे नहीं सकता था और यह जानते हुए माँगा कि जो वह माँग रही है मैं उसे नहीं दे सकता ताकि वह हिस्टेरिकल हो सके, मुझे चीख चीखकर कह सके कि मैंने उसका जीवन नष्ट कर दिया. यही कारण था कि जब मैंने बालाभाऊ के लग्न में जाने हेतु सहर्ष सहमति दे दी वह खिन्न हो गई जैसे मैंने उसका चीखने चिल्लाने का अवसर छीन लिया हो.
आती वर्षा का लग्न था, रत्नागिरी में ज़ोरदार वर्षा हो रही थी और अगले पूरे हफ़्ते ऐसी ही भीषण वर्षा होगी ऐसी संभावना मौसम विभाग से व्यक्त की थी. रेलगाड़ी में संध्या छह बजे बैठकर तीन बजे रात्रि रत्नागिरी पहुँचना था. अमोघ को आधी रात को जगाने का जिम्मा शुभेच्छा ने लिया और मैंने सामान सँभालने का, एक झोला अमोघ के खिलौनों का था जो उसे आमोद और आरोह ने विदेश से भेजे थे, वह अपने मामा बालाभाऊ को खिलौनें दिखाना चाहता था.
वधू चितपावनों की ही कन्या थी, पंढरीनाथ गोखले की बेटी अरुन्धति. पहुँचते ही मुझे दमा का दौरा पड़ा. श्वास नलिका से सीटी बजने की आवाज़ आने लगी. श्वसित्र बहुत महँगा आता है इसलिए मैं सल्बूटामोल की गोली खाता था. श्वसित्र से औषधि सीधे फुफ्फुस में जाती है और गोली पहले पेट फिर रक्त के माध्यम से फुफ्फुस तक पहुँचती जिसमें समय लगता है. उस दिन भी समय लगा और लग्न के घर में सभी बहुत चिंतित हो गये. मैं बिस्तरे पर माथा उलटता पुलटता रहा जैसे डूबता हुआ मनुष्य पानी में हाथ पैर मारता है. थोड़ी देर में जब शान्ति हुई तो निकट शुभेच्छा बैठी थी चाय की कप-बशी लेकर. थोड़ी से चाय सुड़की तब देखा कमरे की खिड़की बाहर की ओर खुलती है जहाँ से जंगल शुरू होता है. खिड़की से बाहर भूसे पर धान पुआल खुम्बियों का ढेर का ढेर लगा हुआ था, पुआल के ऊँचे ढेर पर नीचे से ऊपर तक लगी हुई खुम्बियाँ संध्या के रजतालोक में कितनी प्रभासमयी लग रही थी मैं एकटक देखता रहा. उसके पश्चात् तो लग्न के घर में मेरा पाँव शायद ही टिका हो. बाहर बहावे का एक गिरा हुआ वृक्ष था, वर्षा के मारे डेढ़ महीने पूर्व आधी रात को गिरा. उसके तने पर टूथ मशरुम की एक पूरी पंक्ति लगी थी. इतनी श्वेत जैसे वृक्ष के दाँत आ गये हो. कवकों की सृष्टि का मैं कभी भाग न बन सकूँगा, मनुष्य होना मेरा दुर्भाग्य है. रत्नागिरी में तरह तरह के मशरूम देखने में हफ़्ता बीत गया. उनके ऊपर नोट्स लिखने, उनके चित्र बनाने में अगला पूरा महीना बिताने की मेरी योजना है. श्वास तंत्र के रोग के कारण मुझे नहीं लगता अगले महीने भी मैं कार्यालय जा पाऊँगा. अरुन्धति वहिनी सुन्दर है, अपने हृदय में करुणा के कारण और भी अधिक कोमल और सुन्दर.”
दूसरी बार रत्नागिरी जाने का दुर्योग डेढ़ वर्ष आता है. बालाभाऊ की वाहन दुर्घटना में अकस्मात् मृत्यु हो जाती है. अपनी चौसठ वर्षीय माँ, बत्तीस वर्ष की वधू और दो मास का गर्भ छोड़कर बयालीस की वय में बालाभाऊ संसार छोड़कर चले जाते है, आह्लाद की मृत्यु से ठीक एक वर्ष पूर्व. इस बार शुभेच्छा और आह्लाद दिवाली के आसपास रत्नागिरी पहुँचते है, अमोघ संग नहीं होता. हड़बड़ी और झटके में की गई इस यात्रा की एक लंबी इंदराज आह्लाद की पंजिका में प्राप्त होती है.
“१३/१०/२०१३, काल-पंजिका जैसे किसी पंचांग का नाम हो किंतु यह मेरे जर्नल्स का वह भाग है जो बालाभाऊ की मृत्यु से आरंभ होता है और संभवतः मेरी मृत्यु पर पूर्ण हो. लिखना अब मेरे लिये मात्र प्रतीक्षा है. प्रतीक्षा कहने पर जो पहला प्रश्न उठता है वह है किसकी प्रतीक्षा, प्रतीक्षा अपने पूर्व लगनेवाली ‘की’ के बिना क्या संभव है, किसी की भी प्रतीक्षा नहीं किंतु तब भी मैं प्रतीक्षा करता हूँ. ‘की’ हटाने के बाद प्रतीक्षा कैसे बस समय बिद्ध बचती है- धीमी गति, गाढ़ा और जिसके आरपार न देखा जा सके ऐसा समय जैसे किसी ने आधी रात को मुझे काले, मोटे और गीले कंबल में बाँध दिया हो. जितनी असफलता का अनुभव मुझे होता है शायद बालाभाऊ को न होता हो और वह सन्तोष के साथ मरे हो. उन्होंने मकान बनवा लिया था, छोटी ही सही मगर एक रक़म जोड़ ली थी और वह लिखने जैसी कुटेव से दूर थे जिसके कारण मैं हमेशा असफलता का अनुभव करता हूँ. अरुन्धति की अनुकंपा नियुक्ति हो जाएगी संभव है वह दूसरा लग्न भी कर ले, बालाभाऊ बच्चा, घर और नौकरी उसे देकर गये है क्या यह कम संतोष की बात है. मैं यदि कल मर जाऊँ तो शुभेच्छा और अमोघ के लिए क्या छोड़कर मरूँगा? यह बहियाँ! जो भरी होने के कारण रद्दी में भी न बिकेंगी. जर्मन जैसी भाषा में उच्च शिक्षा ग्रहण करके भी मैं रुपया न कमा सका, पिताजी सोचते थे कि मैं राजदूत बनूँगा या कम से कम किसी एम्बेसी में क्लर्की तो पा ही जाऊँगा किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ. बरसात में उठनेवाले धुँए की भाँति जहाँ से उठा वहीं बैठ गया. भाइयों की भाँति विदेश न जा सका नाम मिला न पैसा. पाई पाई की तंगी से जीवन भर टूटता रहा. या मुझे धन की आवश्यकता ही अधिक थी? शुभेच्छा एक सहज स्त्री का जीवन चाहती रही, उसे नये वस्त्र, कास्मेटिक्स और पर्यटन चाहिए था जबकि मेरे निकट केवल किताबें और बहियाँ थी— अक्षर, अक्षर, अक्षर, शब्द, शब्द, शब्द और ढेरों वाक्य. जिनका केवल एक अर्थ शुभेच्छा के लिए था— अभाव.
बालाभाऊ का शव हम नहीं देख सके. शुभेच्छा के ताऊ ने सुबह सुबह ही उनका अंतिम संस्कार करवा दिया. अरुंधती और शुभेच्छा की माँ अभी अभी नहाने के बाद गीले माथे भूमि पर बैठी थी. शुभेच्छा की माँ के बारे में कुछ भी नहीं लिखा जा सकता. वह शब्दों से परे हो चुकी है. मृतक होकर भी बालाभाऊ शब्दों से अब भी पकड़े जा सकते है किंतु शुभेच्छा की माँ नहीं. थोड़ी सी उबली दाल और चावल खाते हुए मैंने उन्हें देखा था. वे रो नहीं रही थी. चुपचाप खाने की कोशिश कर रही थी. उनके कंठ में कुछ अटक रहा था, मैं जानता हूँ. ऐसा अनुभव तो नहीं है किंतु लगता है अनुभव से जानता हूँ. अरुन्धति का बहुत ध्यान शुभेच्छा रखती है. वह गर्भवती है इसलिए उसके खाने पीने का विशेष ध्यान रखना पड़ता है. पिछले वर्ष जब बालाभाऊ के लग्न में मैं आया था और खुम्बियों की खोज में भटका करता था, मुझे याद है एक दिन, प्रातः काल का दृश्य. मैं उठकर mushroom walk (कवक भ्रमण) पर जाने के लिए तैयार हो रहा था. एकदम प्रातः काल का दृश्य है, साढ़े पाँच बज रहे होंगे. मैं बालाभाऊ के कमरे की खिड़की के किनारे टंगे तौलिए से मुँह पोंछ रहा था और मुझे खिड़की के दोनों पल्लों के मध्य से अरुंधति वहिनी से रतिक्रिया करते बालाभाऊ की पीठ दिखाई दी थी. वे संभवतः स्खलित होकर हाँफ रहे थे और उनकी पीठ वेध्य रूप से फड़क रही थी, वे कितने कोमल और वेध्य मुझे उन दिन दिखे थे, यमराज के अत्यंत निकट. अरुंधती वहिनी की अवसन जंघाएँ देखते ही मैं वहाँ से हट गया. मुझमें वासना उत्पन्न हुई और मुझे लगा कि शुभेच्छा को जगाऊँ.”
रत्नागिरी से लौटने पर आह्लाद का स्वास्थ्य गिरता गया. उसके बचने की संभावना प्रतिमास क्षीण पड़ती गई. डॉक्टर ने डिफ्यूज़ पैरेंकाइमल लंग्स डिजीस (DPLD) नामक रोग बताया था और रोग बहुत तेज़ी से बढ़ता-बिगड़ता जा रहा था. जहांगीर अस्पताल से आने जाने की बहुत छोटे छोटे विवरण, दी गई औषधियों की सरणियाँ, ऑक्सीजन सैचुरेशन के वृतान्त आह्लाद कभी कभी दर्ज करता है अन्यथा इस समय के रोज़नामचे ख़ाली है मगर दो प्रविष्टियों के मध्य के मौन इतना बोलते है जैसे दो पक्षी जामुन के वृक्ष पर आकर बैठ जाए और गर्दन कभी इधर कभी उधर करे, कभी पंख खुजलाए, कभी चोंच से पूँछ सीधी करे किंतु रहे नीरव. वही सांध्य काकली हमें इन दिनों की प्रविष्टियों में सुनाई देती है.
सोलह सौ पृष्ठों में लिखे इन जर्नल्स की अंतिम प्रविष्टि ०२/०६/२०१४ को दर्ज होती है,
“२/०६/१४, वीएस गायतोंडे के चित्रों में रह रहा हूँ कभी कभी ऐसा लगता है. जब माँ खाना बनाने घर चली जाती है, पिताजी थोड़ी देर के लिए बाहर खुली हवा में बैठने चले जाते है और शुभेच्छा स्कूल से अब तक आई नहीं होती है. मैं अस्पताल के कमरे की बत्ती जलाने से नर्स को मना कर देता हूँ. आमोद ने मेरे लिये प्राइवेट वार्ड लेने को रुपये विशेष रूप से भेजे है ताकि मैं एकांत में लिख पढ़ सकूँ. मेरे उपचार का व्यय वही उठा रहा है. धीमे धीमे संध्या के अंधकार में आकार विलीन होने लगते है और मैं गायतोंडे के अमूर्त ब्रह्मांड में प्रवेश करता हूँ. यहाँ बहुत शान्ति है. मुझे अब मरने से नहीं जीवित रह जाने से डर लगता है.
क्या मैं अवसाद में जा रहा हूँ? नहीं मैं मरना नहीं चाहता. अभी मुझे बहुत से काम है. मुझे उपन्यास लिखना है. मुझे कविताएँ लिखना है. मुझे मेरा ऑथेंटिक स्वर अभी तक नहीं मिला, मुझे सबसे पहले वह खोजना है. रक्तचाप १६०/१००, ऑक्सीजन सैचुरेशन ९४.८, तब भी शान्त हूँ. शुभेच्छा पैसों के लिए अब नहीं लड़ती क्योंकि आमोद के दिये रुपयों से उपचार हो रहा है उसे अपनी पगार नहीं खर्चना पड़ती. पिताजी ने शायद मुझे क्षमा कर दिया है, उन्हें लगता है मैं मरनेवाला हूँ और इतने असफल जीवन से जल्दी निकलने का निर्णय लेकर मैं उनके सम्मान का पात्र बन गया हूँ. क्या मैं पिताजी को बहुत कठोरता से जज करता हूँ?”
दस दिनों बाद १२/०६/१४ को प्रातः साढ़े तीन बजे बयालीस वर्ष की आयु में आह्लाद की मृत्यु हो गई. कोकणी भाषा के प्रख्यात आलोचक धुर्जटि दैवज्ञ के संपादन में उसकी डायरियाँ उसकी मृत्यु के आठ वर्ष बाद प्रकाशित हुई. मैक्समूलर भवन, बंबई से इसका जर्मन हिस्सा अलग से २०२४ में सीगल प्रेस कोलकाता ने प्रकाशित किया है. आलोचना के दो लेखों के अलावा आह्लाद ने कुछ भी अपने जीवित रहते प्रकाशित नहीं किया. उसकी डेढ़ सौ कविताएँ जो उनकी डायरियों से प्राप्त हुई उसकी पत्नी शुभेच्छा आह्लाद तुळपुळे के संपादन में ‘कूप मंडूक’ नामक संग्रह में प्रकाशित हुई.
वह महाविद्यालय से ही मेरा मित्र था किंतु हमारी अधिक बातचीत न थी बल्कि यह कहना समीचीन होगा कि वह सही अर्थों में मेरा मित्र तब बना जब मैंने उसकी डायरियाँ पढ़ी. यह जर्नल्स छोटी छोटी असफलताओं का महाकाव्य है. आह्लाद मानता था कि उसने ऐसा कोई कार्य किया ही नहीं कि उसे कभी महत् असफलता (grand failure) भी मिलती. प्राकृतिक संसार से प्रगाढ़ अनुरक्ति और मानुषिक विश्व से वितृष्णा, धनाभाव और रोग, गृह कलह और भारतीय भाषा में संभवतः सबसे सुंदर प्रकृति लेखन उसके रोज़नामचे में हमें मिलता है. ऐसा नहीं है कि सुख के कोई प्रसंग इन सोलह सौ पृष्ठों में न हो किंतु वह दुर्लभ है पुणे नगर में उगते मशरूमों की भाँति. एक स्थान पर वह लिखता है,
“१५/१२/२००९, मेरा पेट निकल आया है, अधिक नहीं थोड़ा सा. भारतीय एस्थेटिक्स में तोंद को सुख का प्रतीक माना गया है, देवता प्रसन्न वदन होते है इसलिए उनकी थोड़ी तोंद निकली हुई होती है. शुभेच्छा ने उस दिन हँसकर मुझसे कहा कि उसे मेरा थोड़ा सा निकला हुआ पेट बहुत सुंदर लगता है, वह मुझे देखकर कामोत्तेजित हो जाती है. हम दोनों के मध्य वह एक दुर्लभ मिनट था. मुझे भी अपना पेट देखकर लगता है मैं प्रसन्न वदन हूँ देवताओं की भाँति. मैंने पेट भर भोजन किया है, मैंने अपनी स्त्री के संग बहुत सहवास किया है और मैं छककर सोया हूँ. मैं सुखी हुआ हूँ. इससे अधिक कोई प्रज्ञामन्त पुरुष क्या चाह सकता है!”
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अम्बर पाण्डेय
कवि-कथाकार ‘कोलाहल की कविताएं’ के लिए २०१८ का अमर उजाला ‘थाप’ सम्मान तथा
२०२१ का हेमंत स्मृति कविता सम्मान प्राप्त ammberpandey@gmail.com
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Very carefully crafted, like a rare jewel….a portrait of the artist as an obscure person.
अभी अभी तुम्हारी नई कहानी कूपमंडूक पढ़ डाली। असफलता का दर्शनशास्त्र है। गांधी तो आए ही। आना ही था। मेरे दिमाग़ में अशोक सेक्सरिया चले आये। आह्लाद असफल है क्योंकि वह लिख नहीं सका। जिसके लिये वह पैदा हुआ था। अंत कितना सुंदर है कहानी का। मढ़ाकर रखने लायक़। थोड़ा सा सुख। प्रज्ञामंत को और क्या चाहिए।
कहानी का क्राफ्ट अपेक्षा के अनुसार अटपटा है। शुरू में लगा इतने सीधे सीधे विवरण का क्या मतलब? फिर दर्शन आया। डायरी लेखन आया तारीख़ सहित। उसी में पत्नी द्वारा अपमान। पिता द्वारा अपमान। दिल टूटता गया।
अम्बर की बाकी कहानियों से बिल्कुल अलग, एक संघर्ष करते लेखक के जीवन में झाँकती कहानी ‘कूप मंडूक’ ! कौन सा ऐसा लेखक होगा जिसे इस टेक्स्ट को पढ़ते हुए वह तमाम विडंबनाएँ नहीं सताएँगी जो कि भारत जैसे देश में लेखक होने के साथ जुड़ी ही हुई हैं! अंत तक आते आते कहानी बहुत मार्मिक हो जाती है …पढ़ते हुए मेरी नज़र में कितने ही ऐसे लेखकों की छवि कौंध गई जिनका नायक जैसा ही त्रासद अंत हुआ !
शुभेच्छा और आह्लाद! यह दोनों नाम मुझे बहुत सुंदर लगे …एकदम लिरिकल. अम्बर की कथाओं में उनके पात्रों के नाम भी जैसे एक संगीत लिए हुए होते हैं. कहानी की बुनावट में नायक की डायरियों को धारण करने के लिए जिस जटिलता से लेखक ने एक पूरे संसार को गढ़ा है, वह शिल्प के स्तर पर एक उपलब्धि ही है. भाषा को कहानी के आत्मिक प्रांगण के हिसाब से बरतना तो अम्बर की पुरानी विशेषता रही ही है. यहाँ भी क्योंकि कहानी का प्रांगण महाराष्ट्र की ओर झुकता है तो उसकी भाषा में वह खनक है जो मराठी की याद दिला दें. मुझे गांधी जी की मितव्यता से जुड़ा हिस्सा बहुत पसंद आया …साथ ही कहानी के अंत में नायक की हल्की सी निकली हुई तोंद से आकर्षित होती हुई उसकी पत्नी वाला हिस्सा भी.
एक सांस में पढ़ गया। पाठकीय दृष्टि से यही कह सकता हूं कि आपकी कविताओं में कहानी होती है और कहानी में कविता। मुझे ऐसा क्यों लगा कि कहानी और आह्लाद के जर्नल्स का लेखक एक ही है। जितना सूक्ष्म प्रेक्षण लेखक का है उनता ही आह्लाद का भी है, हो सकता है आह्लाद ने परकाया प्रवेश किया हो अपनी आत्मकथा लिखने के लिए।
इस छोटी सी कहानी की औपन्यासिकता प्रभावित करती है। अनेक बधाईयां एवं शुभकामनाएं!
यह एक अद्भुत कहानी है।
लेखकों की वर्तमान पौध में अम्बर पाण्डेय उन चुनिंदा रचनाकारों में हैं, जिनके लिखे की प्रतीक्षा रहती है। कुछ दिन पढ़ने न मिले तो खोज कर पढ़ने की हुड़क जगती है।
इस कहानी के कुछ अंश पढ़ने के बाद स्थगित किया था। इसी बीच उनकी
सहधर्मिणी की पोस्ट पढ़ने में आ गई और कहानी को नए सिरे से पढ़ा।
कहानी में ऐसा pathos निर्मित कर पाना सचमुच अद्भुत है।
काल और देश की सजीव बुनावट और अद्भुत प्रसंगों से बने पात्र! बीच-बीच में अनोखे बिम्ब। जैसे – उसकी आवाज़ मानो दूर से आती हुई, जैसे कोई कविता पढ़ रहा हो, और फिर यह भी कि कविता से कितनी दूर आ गए हैं। कथा को आगे बढ़ाते प्रसंग भी अनोखे। झेन दर्शन से प्रेरित कविता और विहंगम दर्शन।
मोटे तौर पर यह कहानी आह्लाद की असफलता का करुण आख्यान प्रतीत होता है, मगर यह कहना इसे रिड्यूस करना होगा। यह एक विकट विडम्बना की कथा है। एक सम्भव प्रतीत होती सफलता में अंत:निहित भंगुरता की।
साहित्य सिर्फ़ पाठकीय आह्लाद से जन्म नहीं ले सकता। उसके लिए गर्भधारण की क्षमता और हिम्मत की भी ज़रूरत होती है। आह्लाद में सब कुछ है, क्षमता भी एक हद तक मगर वह साहस जो दुस्साहस में बदलने को तत्पर हो उसका अभाव है उसमें। एक पाठक के विनम्र शैथिल्य से आप लेखक नहीं हो सकते – न तो किताबों के और न ही सफल जीवन के। लेखक आप सिर्फ़ दुस्साहस के बल पर भी नहीं हो सकते क्योंकि विनम्र शैथिल्य का अभाव आपके अचेतन का मुँह खुलने ही नहीं देगा।
एक पीरियड और कल्चर के परिवेश विन्यस्त एक ऐसी कहानी जो सिर्फ़ आह्लाद की नहीं, जदु, जॉन और ज़ुल्फ़िकार की भी है।
कथानक और यथार्थवाद से मुक्त होकर आधुनिक कहानी को जो आकार ग्रहण करना चाहिए वह यही है। तात्त्विक रूप से देखें तो उमराव जान अदा और एकदम ताजा यथार्थवादी कथा में कोई अंतर नहीं है। इस परम्परा से मुक्त कथा-शिल्प हिन्दी में पहले भी दिखा है – ज्ञानरंजन, कृष्ण बलदेव वैद, निर्मल वर्मा, रामकुमार। अम्बर इस शैली के उस्ताद हैं। एक को छोड़कर उनकी सभी कहानियाँ मुझे पसंद आई हैं। यह भी बहुत भली लगी।
असफलता का सापेक्ष मानक प्रस्तावित करती हुई इस कहानी में पता नहीं क्यों, आह्लाद में मुझे अपने मुक्तिबोध की भी छवि दिखाई दी। तृतीय पुरुष आख्याता का काम आह्लाद की पृष्ठभूमि देना है, जब उसका काम पूरा हो जाता है तो जर्नल्स प्रथम पुरुष आख्याता का काम करने लगते हैं। दुनियावी सफलताओं के मध्य उसी अर्थ में असफलता का वरण करने वाले आह्लाद की धातु उस प्रसंग में साफ़ चमकती है जिसमें वह वर्षा में स्वयं भीगते हुए अपने छाते से क़िताब को बचाता हुआ घर लाता है और पिता के उपहास का पात्र बनता है। अम्बर की हर कहानी, कहानी इसलिए रहती है कि उसे उसने उपन्यास नहीं बनाया ; लेकिन इससे उसका औपन्यासिक फलक बरकरार रहता है। इस कहानी में भी बहुत कुछ अनकहा रखा गया है। कहानी समाप्त नहीं होती, किसी जगह लेखक उसे छोड़ देता है। वह छूटी हुई कहानी हमारे साथ बनी रहती है।
अम्बर पाण्डेय की यह कहानी हर उस लेखक की कहानी है जो लेखन के कुटेव से जुड़ा है किंतु दुनियादार नहीं है।अम्बर लेखक के पूरे लोकेल को कहानी में जिस विस्तार और विश्वसनीयता से पकड़ते हैं वह यहाँ भी पढ़ते ही बनता है।यह कितना दुखद है कि एक किताब को भीगने के बचाने की जी तोड़ कोशिश में कथानायक अपने पिता की निगाह में मात्र निकम्मा व नालायक ही करार दिया जाता है।यहाँ काफ़्का की असफलताओं को स्मरण किया जा सकता है।कहानी का शीर्षक ही सब कुछ बयाँ कर देता है।
बहुत दिनों बाद एक लम्बी कहानी शब्दशः पढ़ी, कहानी पढ़ा ले गई। किसी जगह पठनीयता कम नहीं होती, किसी जगह टेक्स्ट की ताक़त या लेखक की सिद्धहस्तता फ़ीकी नहीं पड़ती। बहुत आश्वस्त हुई हूँ इसे पढ़कर। अम्बर पाण्डेय की और कहानियों, बल्कि कहानी संग्रह की प्रतीक्षा रहेगी।
यह कहानी अपने अन्य तत्वों के अतिरिक्त, अपने ऋतु वर्णन के लिए याद रखी जायेगी। वर्षा का ऐसा वर्णन, जैसे वह एक सक्रिय चरित्र ही हो गई हो। पूरी कहानी वर्षा के दृश्यों और विवरणों से सजधज कर उस जैसी ही आकर्षक हो गई है।
अम्बर की गहरी अध्ययनशीलता और तीक्ष्ण पर्यवेक्षण के गुणों से परिचित होने के नाते दिखाई पड़ते ही कहानी आद्योपांत पढ़ गया।अम्बर भाषा का सटीक उपयोग करने वाले चतुर सुजान हैं।कथ्य से लेकर पात्रों के नाम तक उनके भाषा-कौशल का पता देते हैं।कहानी में नायक आह्लाद और उसके साले की अचानक हुई मृत्यु से उत्पन्न दुख का वर्णन अपेक्षित स्तर तक नहीं पहुंचता।’कूपमण्डूक’ शीर्षक भी आह्लाद के जर्नल्स की रोशनी में पूरी तरह अर्थायित नहीं होता लेकिन इन सब के बावजूद कहानी का औपन्यासिक फलक और मराठी संस्कारों से समृद्ध हिंदी का आद्योपांत प्रशंसनीय निर्वाह इसे स्मरणीय बनाता है।गाँधी और बुद्ध के अद्वैत की मीमांसा वाले प्रसंग अम्बर के अनेक अनुशासनों के गहरे अध्ययन की गवाही देते हैं।अम्बर में हैदराबादी हिंदी से लेकर मराठी हिंदी व मुख्यधारा की हिंदी के विभिन्न रूपों को बरतने का अद्भुत कौशल है।भाषा उनके भावों की यथावश्यक अनुगामिनी बन जाती है।कथ्य की मांग थी कि वह पाठक को और अधिक विषण्ण करे फिर भी बहुत दिनों बाद इतनी लंबी और अलग सी कहानी पढ़ाने के लिए अम्बर और समालोचन का शुक्रिया।अम्बर से मुझे सदैव बड़ी उम्मीदें रहती हैं ।
कहानियाँ ऐसी ही होती हैं आपकी हमारी जिंदगी के बेहद करीब । कहानी की बुनावट अच्छी है और कसावट बेजोड
कहानी मैंने इतनी तन्मयता से पढ़ी कि बाहर निकलना कठिन जान पड़ता है. जर्नल्स में मुझे अपने अब्बू की झलक भी मिली…और भी इतना कुछ कि लिखती चली जाऊँ अगर लिखने की स्थिति में होती…
प्रियंका की टिप्पणी से सहमत हूँ..
Singer और Pushkin की कहानियों की सहोदर कहानी है यह.
अगर मैं विश्व भर की विलक्षण कहानियों का कोई संकलन सम्पादित करूँ तो यह कहानी उस संकलन में शामिल रहेगी
एक परिचित से बैकग्राउंड में चलती हुई ऐसी कहानी बहुत दिनों बाद पढ़ी ।
सरस, सहज, प्रवाहमान, भाषा का सौंदर्य और माधुर्य बरकरार रखती हुई कहानी ।
एक गली से दूसरी, तीसरी..एक किरदार से सटा दूसरा, तीसरा, फिर और, फिर और…एक वस्तु, फिर दूसरी, एक पेड़, फिर दूसरा, तीसरा… इस तरह ज़िंदगी के चौतरफ़ा बिखराव से कहानी शुरू होती है। पढ़ते हुए पहले उस बिखराव पर कुछ अचंभा होता है, फिर बतौर पाठक उस बिखराव में मन पूरी तरह रम जाता है। तब कहानी अनायास ही सघन होने लगती है, उसका घनत्व बढ़ता ही चला जाता है शनैः शनैः। कहानी के अंत में एक नाज़ुक अनुभूति हमारे पास रह जाती है – आल्हाद के, बल्कि जीवन की हर छोटी, रोज़मर्रा असफलता के प्रति अगाध प्रेम या कहें करुणा का भाव ।
ग्रैण्ड नहीं,छोटी असफलताओं का दैदीप्यमान पुञ्ज बन जाती है हठात् यह कहानी☘️
कहानी की लम्बान का पता ही नहीं चलता, इस क़दर वेग से चलती है कहानी। यह उसका इतना सरस होना, बहा ले जाना ही खटकता भी रहा पढ़ने के दौरान कभी कभी- कभी—रुकने, बिलमने का मौक़ा ही नहीं देती!
पर शायद मन में लम्बे अरसे तक ठहरी रहेगी☘️
भाषा (मराठी)के इतने nuanced बरते जाने ने भी बहुत रस सिरजा☘️ बहुत बधाई ☘️☘️☘️
समालोचन पर अम्बर पाण्डेय की कहानी ‘ कूप मंडूप ‘ पढ़ी। एक औसत घर के सफल बच्चों के बीच आह्लाद का विफल रहना और उसके संघर्ष का वृत्तान्त दिल को छू गया। आरम्भ में कहानी विवरण के भरे पूरे तथ्यों की पृष्ठभूमि में जिस तरह एक जीवन की मर्मकथा बन जाती है और शुभेच्छा की संगति से आह्लाद के क्षणिक सुख का कारण बनती है, वह भावप्रवण है। कहानी में आह्लाद की डायरियां अपने आप में विरल कथ्य हैं। हिन्दी में ऐसी सघन, करुण तथा जीवन में यातना के नैरन्तर्य को अंकित करनेवाली कहानियां कम हैं। अम्बर तक मेरी बधाई पहुंचे।
“अगर यह कहानी एक लेखक की ‘असफलता’ और उसके दर्शन के बारे में है तो यह सवाल उठना ही चाहिए कि वह असफलता किस चीज की है और उसका स्रोत क्या है।
यह तो जाहिर है कि आर्थिक अभाव को यह कहानी असफलता के रूप में दर्ज नहीं करना चाहती। अभाव इतना दिखता भी नहीं, क्योंकि कहीं न कहीं से पैसे आ जाते हैं।
अगर कुछ दिखता भी है तो उसे मितव्ययिता के गाँधी जी के दर्शन के नीचे दबा दिया गया है। वैसे मितव्ययिता और दरिद्रता दो अलग अलग चीजें हैं।
कहानी में जैसा चाहा वैसा न लिख पाने को लेखक की असफलता के रूप में दर्ज़ किया गया है। इस पर यह सवाल उठता है कि इस असफलता का कारण क्या है! शीर्षक से ऐसा लगता है कि शायद लेखक की कूपमण्डूक वृत्ति इसके पीछे होगी।
लेकिन कहानी स्वयं इस वृत्ति को अलग ढंग से देखती लगती है। आलोचना करने की जगह सकारात्मक रूप में रखती है। यह कथानायक का अपना चुनाव है कि वह कुंए में झांकते आकाश के टुकड़े को “समझना” चाहता ही नहीं है। वह बस उसे निहारना चाहता है। इसके बावजूद वह बड़ा लेखक बनता है। यशस्वी और लोकप्रिय होता है।
तब क्या उसकी असफलता यह है कि उसे लिखने का पर्याप्त समय नहीं मिलता ? बीमारी के कारण कम उम्र में उसकी मृत्यु हो जाती है। संयोगाधीन ऐसी मृत्यु अफसोस तो जगा सकती है, लेकिन किसी बड़ी त्रासदी का भाव नहीं।
निस्संदेह कहानी पठनीय है। कई तरह की तफसीलें सुन्दर और सरस हैं। कहानी एक आकर्षक पृष्ठभूमि का निर्माण करती है, लेकिन वहीं ख़त्म हो जाती है। जैसे उसे पता ही न हो कि जाना कहां है। अंततः पेट और रति के सुख के साथ कथानायक की प्रज्ञा एक तरह की पूर्णता पाती हुए दिखाई जाती है। क्या इस दबाव में कि किसी सुखद नोट पर कहानी को खत्म कर दिया जाए?
यह एक ऐसी कहानी जरूर है, जिस पर गंभीरता से चर्चा होनी चाहिए। लेखक अम्बर पांडेय और संपादक Arun Dev को बधाई और शुभकामनाएं।
‘समालोचन’ पर अम्बर पांडेय की कहानी ‘कूप मंडूक’ प्रकाशित हुई है। कूपमंडूक का प्रचलित अर्थ अज्ञानता, सीमित जानकारी, मूर्ख और अल्प अनुभव है। कहानी को केंद्र में रखकर देखें तो आह्लाद के लिए कूप मंडूक का अर्थ ब्रह्मांड में मौजूद असीमित ज्ञान और रहस्य को पूरी तरह न जान पाने की असमर्थता से है। ब्रह्मांड में अनेकों रहस्य हैं। मनुष्य उन रहस्यों को जानने में अबतक असमर्थ है। इसलिए लेखक आह्लाद अपने कूप से ‘रहस्य’ को नजरअंदाज करके ‘सौंदर्य’ को जानने में ज्यादा रुचि लेता है। उसे लगता है कि “क्या हम भी ऐसा ही जीवन नहीं जीते, सृष्टि सम्बन्धी अपने समग्र ज्ञान को सृष्टि का समग्र ज्ञान मानते हुए एक कूप मंडूक का जीवन।” उसका इस तरह से सोचना ‘कूप मंडूकता’ के अर्थ का विस्तार है। आह्लाद की कूपमंडूकता संकीर्ण न होकर तर्क या रहस्य और सौंदर्य के आपसी द्वंद्व का एक बहस है।
शीर्षक के बाद इस कहानी का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है लेखक का ‘अंतर्विरोधों से ग्रस्त व्यक्तित्व’। आह्लाद न पूरी तरह नास्तिक है न आस्तिक। वह नई-नई ज्ञान प्रविधियों को सीखने की प्रक्रिया में है। यही उसकी कूप मंडूकता का आधार है। वह जनेऊ पहनता है पर व्यवहार नास्तिकों जैसा। गाँधी के दरिद्रता के दर्शन से अपनी दरिद्रता का बचाव करता है। झेन बौद्ध परम्परा का भी अध्ययन है तो विहंगम मार्ग का भी कुछ स्थान है उसके जीवन में। मृत्यु (12जून 2014) के दो साल पहले उसे दक्षिणपंथी विचार के प्रति उल्लास जाग रहा है। अपने मृत्यु के पहले तक वह ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों का समझने की कोशिश कर रहा है। निश्चित ही उसमें तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों का भी योगदान होगा। 2012 में वह काँग्रेस की आलोचना कर रहा है, वामपंथी मित्रों पर व्यंग्य कर रहा है लेकिन व्यवहार में गाँधी की दरिद्रता का सिद्धांत है। लेकिन सबसे अंतिम विचार बतौर लेखक उसके हैं कि ‘उसने भरपेट खाना खाया, यौन सुख पाया और अच्छी नींद ली’। यह मनुष्य की सबसे आदिम जरूरतें हैं। वह इन आदिम जरूरतों का प्रस्तावक है। लेखक को इससे ज्यादा की इच्छा नहीं रखना चाहिए। यही असली सफलता और सुख है।
कहानी लेखकीय असफलता का दर्शन मात्र नहीं है। लेखक असफल क्यों है इसकी पड़ताल की कहानी है। पिता की नजर में निकम्मा है, पत्नी की नजर में अभावग्रस्त है और भाइयों पर बोझ है। किसी ने उसकी लेखकीय प्यास को समझा होता तो शायद वह सफल होता और जीवन के प्रति उत्साहित भी। अकारण नहीं है कि जीवित रहते उसने केवल दो लेख प्रकाशित कराये हैं। परिवार साथ होता तो शायद वह उत्साह से सबकुछ प्रकाशित कराता। परिवार साथ तब देता है जब वह मरने को है। क्या यह परिवार और समाज की कूप मंडूकता नहीं है जो लेखन को कुछ नहीं समझता? यह कूपमंडूकता कहानी में कई अर्थों में है। यह कहानी कई बार पाठ की मांग करता है तब शायद इसका मूल अर्थ पकड़ में आये।
लेखकों के ऊपर लिखी कहानियाँ हिन्दी में हैं कि नहीं, मालूम नहीं.
इस कहानी से बहुत उम्मीदें थीं. पढ़ते-पढ़ते सहसा लगा कि सारे ख़्वाब सच हो जाएँगे और मैं नौकरी छोड़ने का साहस पा..
हुआ नहीं ऐसा. कहानी का शिल्पगत नवाचार नव स्वर यानी नयी essence में नहीं बदल पाता. अच्छी कहानी है, लेकिन पद्म पंखुड़ियों की धार से शमी का पेड़ नहीं काटती.
” कूपमंडूक” पढ़ी । एक ही साँस में पढती चली गई । गलियों मकानों का इतना विस्तृत वर्णन । मुझे हमेशा अंबर आज के होकर भी आजके नहीं लगते । जैसे भविष्यवेत्ता वर्तमान का होकर भी भविष्य बताता है। लेखन में इतनी गंभीरता वाक्य विन्यास सब अद्भुत । आह्लाद की स्थिति क्या हर उस लेखक कवि चिंतक की नहीं जिसका मुल्यांकन उसके जाने के बाद होता है । अंत समय में आह्लाद का स्वयं को संतुष्ट करना कि उसने सब पा लिया । समाज परिवार का पहले उसे अपमानित करते रहना और बाद में दया के रूप में प्रेम दिखाना दुःखद लगता है। लेकिन ये उन लेखकों की त्रासदी है जिन्होंने जीवन में लेखन को अन्य बातों जिमेदारियों से हमेशा ऊपर रखा । स्टार लेखकों को छोड़ दें तो बाकी के गंभीर लेखकों की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। कूपमंडूक सभी है अपने अपने स्थान पर समाज परिवार की नजरों में लेखक और लेखक की नज़रों में बाकी सब जिनकी वह अंत तक परवाह नहीं करता । अंबर ने इतनी गंभीरता के बीच तहत वर्णन रतिक्रिया दृश्य या तोंद प्रसंग भी अच्छे उभारे हैं जो कहानी की गंभीरता को बेलेंस करते हैं। कुल मिलाकर कहानी दुबारा पढ़ने की दरकार रखती है। बधाई अंबर ।